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महापुराणे उत्तरपुराणम् शुनः स्थाने स्थितो दीनो नित्यं यमसमीपगः । स्वजीवितेऽपि सन्देह्यो नैर्ऋतः कस्य पालकः ॥ १.५ ॥ काललीलां विलव्यालं (2) पाशहस्तो 'जलप्रियः । स नदीनाश्रयः पाशी प्रजानां केन पालकः॥१०६॥ धूमध्वजसखोऽस्थास्नुः स्वयमन्यांश्च चालयन् । पालकः स्थापितस्ताहक स किमेकत्र तिष्ठति ॥ १०७ ॥ लुब्धो न लभते पुण्यं विपुण्यः केन पालकः। धनेन चेददाता तत् गुह्यकोऽपि न पालकः ॥ १०८॥ ईशानोऽन्त्यां दशां यातो गणने सर्वपश्चिमः । पिशाचावेष्टितो दुष्टः कथमेष दिशः पतिः ॥ १.९॥ कृत्वैतान् बुद्धिवैकल्यात्तत्प्रमाष्टुं प्रजापतिः । व्यधादेकमिमं मन्ये विश्वदिक्पालनक्षमम् ॥ ११ ॥ इत्युदातवचोमाला विरचय्याभिसंस्तुतः । विक्रमाक्रान्तदिक्चक्रः शक्रादीन् सोऽतिलयते ॥ १११॥ धनं दाने मतिर्धर्भ शौर्य भूताभिरक्षणे । आयुः सुखे तनुभोगे तस्य वृद्धिमवाच्चिरम् ॥ ११२॥ अपरायत्तमच्छिन्नमबाधमयवर्द्धनम् । गुणान्पुष्यन् वितृष्णः सन् सुखेन सुखमीयिवान् ॥ ११३ ॥ ऋतं वाचि दया चितं धर्मकर्मणि निर्मलः । स्वान् गुणान् वा प्रजाः पाति राजर्षिः केन नास्तु सः।११४॥ मन्ये नैसर्गिक तस्य सौजन्यं कथमन्यथा । प्राणहारिणि पापेऽपि रिपौ नोपैति विक्रियाम् ॥ ११५॥
न हि मूलहरः कोऽपि नापि कोऽपि कदर्यकः। तादात्विकोऽपि तद्राज्ये सर्वे सव्ययकारिणः ॥ ११६ ॥ भक्षी पापीको दक्षिण दिशाका रक्षक बना दिया ॥ १०४ ॥ जो कुत्तेके स्थानपर रहता है, दीन है, सदा यमराजके समीप रहता है और अपने जीवनमें भी जिसे संदेह है ऐसा नैऋत किसकी रक्षा कर सकता है ? ॥१०५॥ जो जल भूमिमें विद्यमान विलमें मकरादि हिंसक जन्तुके समान रहता है, जिसके हाथमें पाश है, जो जलप्रिय है-जिसे जल प्रिय है (पक्षमें जिसे जड-मूर्ख प्रिय है ) और जो नदीनाश्रय है--समुद्रमें रहता है (पक्षमें दीन मनुष्योंका आश्रय नहीं है) ऐसा वरुण प्रजाकी रक्षा कैसे कर सकता है ? ॥ १०६ ॥ जो अग्निका मित्र है, स्वयं अस्थिर है और दूसरोंको चलाता रहता है उस वायुको विधाताने वायव्य दिशाका रक्षक स्थापित किया सो ऐसा वायु क्या कहीं ठहर सकता है ? ॥ १०७ ।। जो लोभी है वह कभी पुण्य-संचय नहीं कर सकता और जो पुण्यहीन है वह कैसे रक्षक हो सकता है जब कि कुबेर कभी किसीको धन नहीं देता तब उसे विधाताने रक्षक कैसे बना दिया ? ॥ १०८॥ ईशान अन्तिम दशाको प्राप्त है, गिनती उसकी सबसे पीछे होती है, पिशाचों से घिरा हुआ है और दुष्ट है इसलिए यह ऐशान दिशाका स्वामी कैसे हो सकता है ? ॥१०६॥ ऐसा जान पड़ता है कि विधाताने इन सबको बुद्धिकी विकलतासे ही दिशाओंका रक्षक बनाया था और इस कारण उसे भारी अपयश उठाना पड़ा था। अब विधाताने अपना सारा अपयश दूर करनेके लिए ही मानो इस एक अजितसेनका समस्त दिशाओंका पालन करनेमें समर्थ बनाया था ।। ११०॥ इस प्रकारके उदार वचनोंकी माला बनाकर सब लोग जिसकी स्तुति करते हैं और अपने पराक्रमसे जिसने समस्त दिशाओंको व्याप्त कर लिया है ऐसा अजितसेन इन्द्रादि देवोंका उल्लंघन करता था ॥ १११ ॥ उसका धन दान देनेमें, बुद्धि धार्मिक कार्योंमें, शूरवीरता प्राणियों की रक्षामें, आयु सुखमें और शरीर भोगोपभोगमें सदा वृद्धिको प्राप्त होता रहता था ॥११२॥ उसके पुण्यकी वृद्धि दूसरेके आधीन नहीं थी, कभी नष्ट नहीं होती थी और उसमें किसी तरहकी बाधा नहीं आती थी। इस प्रकार वह तृष्णारहित होकर गुणोंका पोषण करता हुआ बड़े आरामसे सुखको प्राप्त होता था ॥ ११३ ।। उसके वचनोंमें सत्यता थी, चित्तमें दया थी, धार्मिक कार्यों में निर्मलता थी, और प्रजाकी अपने गुणोंके समान रक्षा करता था फिर वह राजर्षि क्यों न हो ? ॥ ११४ ॥ मैं तो ऐसा मानता हूं कि सुजनता उसका स्वाभाविक गुण था। यदि ऐसा न होता तो प्राण हरण करनेवाले पापी शत्रु पर भी वह विकारको क्यों नहीं प्राप्त होता ।। ११५ ।। उसके राज्यमें न तो कोई मूलहर था-मूल पूँजीको खानेवाला था, न कोई कदर्य था-अतिशय कृपण था और
१ 'कालिलेलाविलव्यालः' इति पाठो भवेत् । कलिलस्येयं जलस्य इयं कालिला सा चासौ इला च भूमिश्वेति कालिलेला तस्यां विद्यमानो विलो गर्तसन्निभो नीचैः प्रदेशः तत्र विद्यमानो व्यालो मकरादिजन्तुरिव, इति तदर्थः। २ जलं प्रियो यस्य सः, पक्षे डलयोरभेदात् जडो मूर्खः प्रियो यस्य सः। ३ नदीनामिनः स्वामी नदीनः समुद्रः स श्राश्रयो यस्य स, पक्षे न दीनानाम् अाश्रय इति नदीनाश्रयः 'सह सुपा' इत्यनेन समासः ।
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