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महापुराणे उत्तरपुराणम श्रीवर्मापि जिनेन्द्रोक्त्या 'धूतमिथ्यामहातमाः । आस्थात्तुर्यगुणस्थानमा सोपानमुच्यते ॥ ७७ ॥ सबिधाने च तस्यायः समिधापयति स्वयम् । यथाकाममशेषाास्तैः स प्रापेप्सितं सुखम् ॥ ७८ ॥ असौ कदाचिदाषाढपौर्णमासीदिने जिनान् । उपोष्याभ्यर्च्य सत्स्वाप्त रात्रौ हर्म्यतले स्थितः ७९ ॥ विलोक्यापातमुल्काया भोगसारे विरक्तवान् । प्रागविनाणितसाम्राज्यः श्रीकान्तायाग्रसूनवे ॥ ८॥ अभ्यासे श्रीप्रभेशस्य दीक्षित्वा सुचिरं तपः । विधाय विधिवत्प्रान्ते संन्यस्य श्रीप्रभे गिरौ ॥१॥ श्रीप्रभे प्रथमे कल्पे विमाने सागरोपम-। द्वित्वायुः श्रीधरो नाम्ना देवः समुदपद्यत ॥ ८२॥ अणिमादिगुणः सप्तहस्तो वैक्रियिकाङ्गभाक । चतुर्थलेश्यो मासेन निःश्वसन् मनसाहरन्३ ॥३॥ वर्षद्वयसहस्त्रेण पुद्गलानमृतात्मकान् । तृप्तः कायप्रवीचाराद् व्याप्ताद्यक्ष्मातलावधिः ॥ ८४॥ बलतेजोमहाविक्रियाभिः स्वावधिसम्मितः। सुस्थितोऽनुभवन्सौख्यं स्वपुण्यपरिपाकजम् ॥ ८५॥ दक्षिणे धातकीखण्डे प्राचीष्वाकारपर्वतात् । भारते ४विषये श्रीमदलकाख्ये पुरोत्तमम् ॥८६॥ अयोध्याहू नृपस्तस्मिनाबभावजितायः । आसीदजितसेनास्य देवी "सुतसुखप्रदा ॥ ८७ ॥ सा कदाचितनूजाप्स्यै परिपूज्य जिनेश्वरान् । सुता तच्चिन्तया स्वमान्विलोक्याष्टौ शुभानिमान् ॥८॥ गजेन्द्रवृषसिंहेन्दुरवीन पद्मसरोवरम् । शङ्ख पूर्णघटं चैतत् फलान्यप्यजितञ्जयात् ॥ ॥ ८९ ॥ गजात्पुत्रं गभीरं गोः सिंहेनानन्तवीर्यकम् । चन्द्रेण तर्पक तेजः प्रतापाव्यं दिवाकरात् ॥ १० ॥
लिए राज्य दिया और उन्हीं श्रीपद्म जिनेन्द्रके समीप दीक्षा धारण कर ली ।। ७३-७६ ।। जिनेन्द्र भगवानके उपदेशसे जिसका मिथ्यादर्शनरूपी महान्धकार नष्ट हो गया है। ऐसे श्रीवर्माने भी वह चतुर्थ गुणस्थान धारण किया जो कि मोक्षकी पहली सीढ़ी कहलाती है ।। ७७ ॥ चतुर्थ गुणस्थानके सन्निधानमें जिस पुण्य-कर्मका संचय होता है वह स्वयं ही इच्छानुसार समस्त पदार्थोंको सन्निहितनिकटस्थ करता रहता है । उन पदार्थोंसे श्रीवर्माने इच्छित सुख प्राप्त किया था ।। ७८ ॥
किसी समय राजा श्रीवर्मा आपाढ़ मासकी पूर्णिमाके दिन जिनेन्द्र भगवानकी उपासना और पूजा कर अपने आप्तजनोंके साथ रात्रिमें महलकी छत पर बैठा था ।। ७६ || वहाँ उल्कापात देखकर वह भोगोंसे विरक्त हो गया। उसने श्रीकान्त नामक बड़े पुत्रके लिए राज्य दे दिया और श्रीप्रभ जिनेन्द्र के समीप दीना लेकर चिरकाल तक तप किया तथा अन्तमें श्रीप्रभ नामक पर्वत पर विधिपूर्वक संन्यासमरण किया ।।८०-८१ ।। जिससे प्रथम स्वर्गके श्रीप्रभ विमानमें दो सागरकी आयु वाला श्रीधर नामका देव हुआ ॥ २ ॥ वह देव अणिमा, महिमा आदि आठ गुणोंसे युक्त था, सात हाथ ऊँचा उसका शरीर था, वैक्रियिक शरीरका धारक था, पीतलेश्या वाला था, एक माहमें श्वास लेता था; दो हजार वर्ष में अमृतमय पुद्गलोंका मानसिक आहार लेता था, कायप्रवीचारसे संतुष्ट रहता था, प्रथम पृथिवी तक उसका अवधिज्ञान था, बल तेज तथा विक्रिया भी प्रथम पृथिवी तक थी, इस तरह अपने पुण्य कर्मके परिपाकसे प्राप्त हुए सुखका उपभोग करता हुआ वह सुखसे रहता था ।। ३-५॥
धातकीखण्ड द्वीपकी पूर्व दिशामें जो इष्वाकार पर्वत है उससे दक्षिणकी ओर भरतक्षेत्रमें एक अलका नामका सम्पन्न देश है। उसमें अयोध्या नामका उत्तम नगर है। उसमें अजितंजय राजा सुशोभित था। उसकी अजितसेना नामकी वह रानी थी जो कि पुत्र-सुख को प्रदान करती श्री६-७॥ किसी एक दिन पुत्र-प्राप्ति के लिए उसने जिनेन्द्र भगवान की पूजा की और रात्रिको पुत्रकी चिन्ता करती हुई सो गई। प्रातः काल नीचे लिखे हुए आठ शुभ स्वप्न उसने देखे। हाथी, बैल, सिंह, चन्द्रमा, सूर्य, कमलोंसे सुशोभित सरोवर, शङ्ख और पूर्ण कलश । राजा अजितंजयसे उसने स्वोंका निम्न प्रकार फल ज्ञात किया। हे देवि ! हाथी देखनेसे तुम पुत्रको प्राप्त करोगी;
के देखनेसे वह पुत्र गंभीर प्रकृतिका होगा; सिंहके देखनेसे अनन्तवलका धारक होगा, चन्द्रमाके देखनेसे सबको संतुष्ट करनेवाला होगा, सूर्यके देखनेते तेज और प्रतापसे युक्त होगा, सरोवरके
१ बीतमिथ्या-ख०,ग०। २ पुण्यम् । ३ मनसाहरत् ल०। ४ विजये क०,ख०,ग० ५०, ५ सुखसुतप्रदा।
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