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चतुःपञ्चाशत्तम पर्व दीपाईचक्रवालो वा प्राकारो यत्परीतवान् । भियेव रविसम्तापाल्लीनोऽभून्मणिरश्मिषु ॥ ३५॥ श्रीषेणो नाम तस्यासीत् पतिः सुरपतियुतिः। नतारिमौलिरत्नांशुवाविकासिक्रमाम्बुजः ॥ ३६॥ पाति यस्मिन् भुवं जिष्णौ दुष्टा विगतविक्रियाः। भभूवन् शक्तिवन्मन्त्रसनिधौ वा भुजङ्गमाः ॥३७॥ उपाया येन सचिन्त्य यथास्थानप्रयोजिताः । ददुः फलमतिस्फीतं समाहर्तृवदर्थितम् ॥ ३८ ॥ श्रीकान्ता नाम तस्यासीद् वनिता विनयान्विता । सती मृदुपदन्यासा सत्कवेरिव भारती ॥ ३९ ॥ रूपाचाः चीगुणास्तस्याः समुत्पत्राः सुखावहाः । सुता इव सदा पाल्या बन्याच गुरुवत्सताम् ॥४०॥ भरीरमन्मनः पत्युस्तस्या रूपादयो गुणाः । स्यादेवकारसंयुक्ता नया इव मनीषिणः ॥१॥ प्रतिच्छन्दः परस्त्रीणां वेधसैषा विनिर्मिता । गुणानामिव मञ्जूषा स्वमतिप्रतिपत्तये ॥ ४२ ॥
अपापं सुखमच्छि, 'सस्नेहं समतृप्तिदम् । मिथुन सत्समापोचमिथुनं वामरं परम् ॥ १३ ॥ स कदाचिन्महीनाथो निष्पुत्रत्वाच्छुचाहितः । इति स्वगतमेकाकी सन्तत्यर्थमचिन्तयत् ॥४४॥ लियः संसारवल्लयः सरपुत्रास्तत्फलायिताः । न चेरो तस्य रामाभिः पापाभिः किं नृपापिनः ॥ १५॥ यः पुत्रवदनाम्भोज नापश्यहवयोगतः । षड्खण्डश्रीमुखाब्जेन दृष्टेनाप्यस्य तेन किम् ॥ ४६॥ ततः पुरोधसः प्रा सुतं सदुपदेशतः । अनधैर्मणिभिः पनवगैरचितकाबनैः ॥ ७ ॥
और कामको साध्य पदार्थोके समान उन्हींसे उत्पन्न हुए हेतुओंसे सिद्ध करते थे ॥ ३४ ॥ उस नगरको घेरे हुए जो कोट था वह ऐसा जान पड़ता था मानो पुष्करवरद्वीपके बीच में पड़ा हुआ मानुषोत्तर पर्वत ही हो। वह कोट अपने रत्नोंकी किरणोंमें ऐसा जान पड़ता था मानो सूर्यके संतापके भयसे छिप ही गया हो ॥ ३५ ॥ नमस्कार करनेवाले शत्रु राजाओंके मुकुटोंमें लगे हुए रत्नोंकी किरणें रूपी जलमें जिसके चरण, कमलके समान विकसित हो रहे हैं ऐसा, इन्द्रके समान कान्तिका धारक श्रीषेण नामका राजा उस श्रीपुर नगरका स्वामी था॥३६॥ जिस प्रकार शक्तिशाली मन्त्रके समीप सर्प विकाररहित हो जाते हैं उसी प्रकार विजयी श्रीषेणके पृथिवीका पालन करने पर सब दृष्ट लोग विकाररहित हो गये थे। ३७ ॥ उसने साम, दान आदि उपायोंका ठीक-ठीक विचार कर यथास्थान प्रयोग किया था इसलिए वे दाताके समान बहुत भारी इच्छित फल प्रदान करते थे ॥३८॥ उसकी विनय करनेवाली श्रीकान्ता नामकी स्त्री थी। वह श्रीकान्ता किसी अच्छे कविकी वाणीके समान थी। क्योंकि जिस प्रकार अच्छे कविकी वाणी सती अर्थात् दुःश्रवत्व आदि दोषोंसे रहित होती है उसी प्रकार वह भी सती अर्थात् पतिव्रता थी और अच्छे कविकी वाणी जिस प्रकार मृदुपदन्यासा अर्थात् कोमलकान्तपदविन्याससे युक्त होती है उसी प्रकार यह भी मृदुपदन्यासा अर्थात् कोमल चरणोंके निक्षेपसे सहित थी।॥ ३६॥ त्रियोंके रूप आदि जो गुण हैं वे सब उसमें सुख देनेवाले उत्पन्न हुए थे। वे गुण पुत्रके समान पालन करने योग्य थे और गुरुओंके समान सज्जनोंके द्वारा वन्दनीय थे॥४०॥ जिस प्रकार स्यादेवकार-स्यात् एव शब्दसे (किसी अपेक्षासे पदार्थ ऐसा ही है ) से युक्त नय किसी विद्वानके मनको आनन्दित करते हैं उसी प्रकार उसकी कान्ताके रूप आदि गुण पतिके मनको आनन्दित करते थे॥४१॥ वह स्त्री अन्य त्रियोंके लिए
आदर्शके समान थी और ऐसी जान पड़ती थी मानो नामकर्म रूपी विधाताने अपनी बुद्धिकी प्रकर्षता क्तलानेके लिए गुणोंकी पेटी ही बनाई हो ॥४२॥ वह दम्पती देवदम्पतीके समान पापरहित, अविनाशी, कभी नष्ट न होनेवाले और समान तृप्तिको देनेवाले उत्कृष्ट सुखको प्राप्त करता था ॥४३॥
__ वह राजा निष्पुत्र था अतः शोकसे पीड़ित होकर पुत्र के लिए अकेला अपने मनमें निम्न प्रकार विचार करने लगा ॥४४॥ त्रियाँ संसारकी लताके समान हैं और उत्तम पुत्र उनके फलके समान है। यदि मनुष्यके पुत्र नहीं हुए तो इस पापी मनुष्यके लिए पुत्रहीन पापिनी त्रियोंसे क्या प्रयोजन है॥४५॥ जिसने दैवयोगसे पुत्रका मुखकमल नहीं देखा है वह छह खण्ड मुख भले ही देख ले पर उससे क्या लाभ है ॥४६॥ उसने पुत्र प्राप्त करनेके लिए पुरोहितके
१ अपारं न० । २ सहनेहं सतृप्तिदम् क०, १०।
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