________________
चतुःपञ्चाशत्तम पर्व नीत्वैकवर्णतां १सा सभां यः प्रभया स्वया। शुद्धितामनयच्छुद्धः शुद्धय चन्द्रप्रभोऽस्तु नः ॥१॥ देहप्रभेव वाग्यस्याह्लादिन्यपि च बोधिनी । सामामि नभोभागे सुरतारापरिष्कृतम् ॥ २॥ नामग्रहोऽपि यस्यार्घ निहन्त्यखिलमङ्गिनाम् । न हन्यात् किं नु तस्यायं चरितं श्रुतिगोचरम् ॥ ३ ॥ तत्पुराणं ततो वक्ष्ये भवादासप्तमादहम् । श्रोतव्यं भव्य ते श्रद्धा निधाय मगधाधिप ॥ ४ ॥ दानं पूजां तथान्यश्च मुक्त्यै ज्ञानेन संस्कृतम् । तत्पुराणश्रुतेः श्रव्यं तत्तदेव हितैषिभिः ॥ ५॥ अर्ह निर्भाषितं सूक्तमनुयोगैश्वसुष्टयम् । तेषु पूर्व पुराणानि तस्मात्प्रोक्तः श्रुतिक्रमः ॥ ६ ॥ सा जिह्वा तौ मनःकर्णी यैर्वक्तिश्रुतिचिन्तनाः । पूर्वादीनां पुराणानां पुरुषार्थोपदेशिनाम् ॥ ७ ॥ अस्त्यत्र पुष्करद्वीपः तन्मध्ये मानुषोत्तरः । 'नृसंचारस्य सीमासौ सर्वतो वलयाकृतिः ॥८॥ तदभ्यन्तरभागे स्तो मन्दरौ पूर्वपश्चिमौ । पूर्वस्मिन् मन्दरे देशो विदेहे पश्चिमे महान् ॥ ९॥ सीतोदोदक्तटे दुर्गवनखन्याकरोचितैः । अकृष्टपच्यसस्यायैः सुगन्धिभूगुणैरभात् ॥१०॥ तस्मिन्देशे जनाः सर्वे वर्णत्रयविकल्पिताः। स्निग्धाः सूक्ष्मेक्षणाः प्रेक्ष्या विलोचनविशेषवत् ॥११॥ ऋजवो धार्मिका बीतदोषाः क्लेशसहिष्णवः । कर्षकाः सफलारम्भाः तपःस्थाश्चातिशेरते ॥१२॥
जो स्वयं शुद्ध हैं और जिन्होंने अपनी प्रभाके द्वारा समस्त सभाको एक वर्णकी बनाकर शुद्ध कर दी. वे चन्द्रप्रभ स्वामी हम सबकी शुद्धिके लिए हों।॥ १॥ शरीरकी प्रभाके समान जिनकी वाणी भी हर्षित करनेवाली तथा पदार्थोंको प्रकाशित करनेवाली थी और जो आकाशमें देवरूपी ताराओंसे घिरे रहते थे उन चन्द्रप्रभ स्वामीको नमस्कार करता हूँ॥२॥ जिनका नाम लेना भी जीवोंके समस्त पापोंको नष्ट कर देता है फिर सुना हुआ उनका पवित्र चरित्र क्यों नहीं नष्ट कर देगा ? इसलिए मैं पहलेके सात भवांसे लेकर उनका चरित्र कहूंगा। हे भव्य श्रेणिक ! तुझे उसे श्रद्धा रखकर सुनना चाहिये ।। ३-४ ॥ दान, पूजा तथा अन्य कारण यदि सम्यग्ज्ञानसे सुशोभित होते हैं तो वे मुक्तिके कारण होते हैं और चूँकि वह सम्यग्ज्ञान इस पुराणके सुननेसे होता है. अतः हितकी इच्छा करनेवाले पुरुषोंके द्वारा अवश्य ही सुननेके योग्य है ।। ५॥ अर्हन्त भगवान्ने अनुयोगेांके द्वारा जो चार प्रकारके सूक्त बतलाये हैं उनमें पुराण प्रथम सूक्त है ! भगवान्ने इन पुराणांसे ही सुननेका क्रम बतलाया है ॥ ६॥
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषार्थका उपदेश देनेवाले भगवान ऋषभदेव आदिके पुराणोंको जो जीभ कहती है, जो कान सुनते हैं और जो मन सोचता है वही जीभ है, वही कान है और वही मन है, अन्य नहीं।। ७ ॥
इस मध्यम लोकमें एक पुष्करद्वीप है। उसके बीच में मानषोत्तर पर्वत है। यह पर्वत चारों ओरसे वलय आकार गोल है तथा मनुष्योंके आवागमनकी सीमा है ।। ८ ॥ उसके भीतरी भागमें दो सुमेरु पर्वत हैं एक पूर्व मेरु और दूसरा पश्चिम मेरु । पूर्व मेरुके पश्चिमकी और विदेहक्षेत्रमें सीतीदा नदीके उत्तर तट पर एक सुगन्धि नामका बड़ा भारी देश है । जो कि योग्य किला, वन, खाई, खाने और विना वोये होनेवाली धान्य आदि पृथिवीके गुणोंसे सुशोभित है।-१०।। उस देश के सभी मनुष्य क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णमें विभक्त थे तथा नेत्र विशेषके समान स्नेहसे भरे हुए, सूक्ष्म पदार्थोंको देखने वाले एवं दर्शनीय थे ॥ ११ ॥ उस देशके किसान तपस्वियोंका अति. क्रमण करते थे अर्थात् उनसे आगे बढ़े हुए थे। जिस प्रकार तपस्वी ऋजु अर्थात् सरलपरिणामी होते हैं उसी प्रकार वहाँ के किसान भी सरलपरिणामी-भोले भाले थे, जिस प्रकार तपस्वी धार्मिक होते हैं उसी प्रकार किसान भी धार्मिक थे-धर्मात्मा थे अथवा खेतीकी रक्षाके लिए धर्म
१ सर्वान् ख० । २ नृसंसारस्य ल० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org