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त्रिपञ्चाशत्तमं पवे
निष्ठा दुष्टतमा निनाय निपुणो निर्वाणकाष्ठामितः प्रेष्ठोदाक्कुरुताधिरं परिचितान् पासुपार्थःसनः॥५५॥
वसन्ततिलका क्षेमाख्यपत्तनपतिर्नुतनन्दिषणः
कृत्वा तपो नवसुमध्यगतेऽहमिद्रः । वाराणसीपुरि सुपाचनृपो जितारि
रिक्ष्वाकुवंशतिलकोऽवतु तीर्थकृद् वः ॥ ५५ ॥
इत्या भगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसख्महे सुपार्थस्वामिनः पुराण
परिसमाप्तं त्रिपञ्चाशत्तम पर्व ॥ ५३॥
अत्यन्त बुद्धिमान् और निपुण जिन सुपार्श्वनाथ भगवान्ने दुःखसे निवारण करनेके योग्य पापरूपी बड़े भारी शत्रुओंके समूहको निष्क्रिय कर दिया, मौन रखकर उसके साथ युद्ध किया, कुछ काल तक समवसरणमें प्रतिष्ठा प्राप्त की, अत्यन्त दुष्ट दुर्वासनाको दूर किया और अन्तमें निर्वाणकी अवधिको प्राप्त किया, वे श्रेष्ठतम भगवान् सुपार्श्वनाथ हम सब परिचितोंको चिरकालके लिए शीघ्र ही अपने समीपस्थ करें ॥५५॥ जो पहले भवमें क्षेमपुर नगरके स्वामी तथा सबके द्वारा स्तुति करने योग्य नन्दिषेण राजा हुए, फिर तप कर नव प्रवेयकोंमेंसे मध्यके प्रैवेयकमें अहमिन्द्र हुए, तदनन्तर बनारस नगरीमें शत्रुओंको जीतनेवाले और इक्ष्वाकु वंशके तिलक महाराज सुपार्श्व हुए वे सप्तम तीर्थकर तुम सबकी रक्षा करें॥५६॥ इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध, भगवद्गुणभद्राचार्यसे प्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराण
संग्रहमें सुपार्श्वनाथ स्वामीका पुराण वर्णन करनेवाला पनवाँ पर्व समाप्त हुआ।
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