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त्रिपञ्चाशत्तम पर्व
श्री तारग्गुणोपेता गन्धर्वानीकसत्तमाः । आनीय तस्य देवेन्द्रो विनोदैरकरोत्सुखम् ॥ २९ ॥ शेषेन्द्रियत्रयायैश्च तत्रोत्कृष्टैर्निरन्तरम् । सुखं तदेव संसारे यदनेनानुभूयते ॥ ३० ॥ निःस्वेदत्वादिसन्नामसम्भूतातिशयाष्टकः । सर्वप्रियहितालापी निर्व्यापारोरुवीर्यकः ॥ ३१ ॥ 'प्रसन्नोऽनपवर्त्यायुर्गुणपुण्यसुखात्मकः । कल्याणकायः त्रिज्ञानः प्रियङ्गुप्रसवच्छविः ॥ ३२ ॥ मन्दाशुभानुभागोऽयं शुभोत्कृष्टानुभावभाक् । निर्वाणाभ्युदयैश्वर्यकण्ठिकाकान्तकण्ठकः ॥ ३३॥ स्वपादनखसंक्रान्तनिखिलेन्द्रमुखाम्बुजः । एधते श्रीधरोऽगाधतृप्त्यम्भोधौ प्रबुद्धवान् ॥ ३४ ॥ स्वायुराद्यष्टवर्षेभ्यः सर्वेषां परतो भवेत् । उदिताष्टकषायाणां तीर्थेशां देशसंयमः ॥ ३५ ॥ ततोऽस्य भोगवस्तूनां साकल्येऽपि जितात्मनः । धृतिर्नियमितैका भूदसङ्ख्यगुणनिर्जरा ॥ ३६ ॥ पूर्वाङ्गविंशतिन्यूनलक्ष पूर्वायुषि स्थिते । विलोक्यर्तुपरावर्तं सर्वं भावयतोऽध्रुवम् ॥ ३७ ॥ कदाचित्काललब्ध्यास्य विशुद्धोद्बोधदर्पणे । छायाक्रोडेव सा सर्वा साम्राज्यश्रीरभासत ॥ ३८ ॥ ईदृशी नश्वरी ज्ञाता नेयं मायामयी मया । धिग्धिग्मां के न मुह्यन्ति भोगरागान्धचेतसः ॥ ३९ ॥ इत्युदाचो मनोऽम्भोधौ बोधिर्विधुरिवोद्गतः । देवर्षयस्तदैत्यैनं प्रस्तुतार्थैः समस्तुवन् ॥ ४० ॥ सुरैरूढां समारुह्य शिबिकां च मनोगतिम् । सहेतुकवने शुक्ले ज्येष्ठे षष्ठोपवासटत् ॥ ४१ ॥
करनेमें चतुर, अनेक विद्याओं और कलाओं में निपुण अन्य अनेक मनुष्योंको, ऐसे ही गुणोंसे सहित अनेक स्त्रियोंको तथा गन्धर्वोंकी श्रेष्ठ सेनाको बुलाकर अनेक प्रकारके विनोदोंसे भगवान्को सुख पहुँचाता था ।। २७-२६ ॥ इसी प्रकार चक्षु और कर्णके सिवाय शेष तीन इंद्रियोंके उत्कृष्ट विषयोंसे भी इन्द्र, भगवान्को निरन्तर सुखी रखता था । यथार्थमें संसार में सुख वही था जिसका कि भगवान् सुपार्श्वनाथ उपभोग करते थे ।। ३० ।। प्रशस्त नामकर्मके उदयसे उनके निःस्वेदत्व आदि आठ अतिशय प्रकट हुए थे, वे सर्वप्रिय तथा सर्वहितकारी वचन बोलते थे, उनका व्यापाररहित अतुल्यबल था, वे सदा प्रसन्न रहते थे, उनकी आयु अनपवर्त्य थी- असमय में कटनेवाली नहीं थी, गुण, पुण्य और सुख रूप थे, उनका शरीर कल्याणकारी था, वे मति, श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञानों सहित थे, प्रियङ्गुके पुष्पके समान उनकी कान्ति थी, उनके अशुभ कर्मका अनुभाग अत्यन्त मन्द था, शुभ कर्मका अनुभाग अत्यन्त उत्कृष्ट था, उनका कण्ठ मानो मोक्ष-स्वर्ग तथा मानवोचित ऐश्वर्यकी कण्ठीसे ही सुशोभित था । उनके चरणोंके नखे में समस्त इन्द्रीके मुखकमल प्रतिविम्बित हो रहे थे, इस प्रकार लक्ष्मीको धारण करनेवाले प्रकृष्टज्ञानी भगवान् सुपार्श्वनाथ अगाध संतोषसागरमें वृद्धिको प्राप्त हो रहे थे ।। ३१-३४ || जिनके प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन सम्बन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ इन आठ कषायोंका ही केवल उदय रह जाता है ऐसे सभी तीर्थंकरोंके अपनी के प्रारम्भिक आठ वर्षके बाद देश-संयम हो जाता है ।। ३५ ।। इसलिए यद्यपि उनके भोगोपभोगकी वस्तुओंकी प्रचुरता थी तो भी वे अपनी आत्मा को अपने वश रखते थे, उनकी वृत्ति नियमित थी तथा असंख्यातगुणी निर्जराका कारण थी ।। ३६ ।।
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जब उनकी आयु बीस पूर्वाङ्ग कम एक लाख पूर्वकी रह गई तब किसी समय ऋतुका परिवर्तन देखकर वे 'समस्त पदार्थ नश्वर हैं' ऐसा चिन्तवन करने लगे ॥ ३७ ॥ उनके निर्मल सम्यग्ज्ञान रूपी दर्पणमें काललब्धिके कारण समस्त राज्य-लक्ष्मी छायाकी क्रीडाके समान नश्वर जान पड़ने लगी ॥ ३८ ॥ मैं नहीं जान सका कि यह राज्यलक्ष्मी इसी प्रकार शीघ्र ही नष्ट हो जानेवाली तथा मायासे भरी हुई है। मुझे धिक्कार हो, धिक्कार हो । सचमुच ही जिनके चित्त भोगोंके रागसे अन्धे हो रहे हैं ऐसे कौन मनुष्य हैं जो मोहित न होते हों ॥ ३६ ॥ इस प्रकार भगवान् के मनरूपी सागर में चन्द्रमाके समान उत्कृष्ट आत्मज्ञान उत्पन्न हुआ और उसी समय लौकान्तिक देवोंने आकर समयानुकूल पदार्थोंसे भगवान्की स्तुति की ।। ४० ।। तदनन्तर भगवान् सुपार्श्वनाथ, देवोंके द्वारा उठाई हुई मनोगति नामकी पालकी पर आरूढ़ होकर सहेतुक वनमें गये और वहाँ ज्येष्ठशुक्ल द्वादशी
१ प्रसन्नानपवर्त्यायु-क०, घ० ।
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