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महापुराणे उत्तरपुराणम् एकादशाङ्गधारी सन्नुक्ततयोग्यकारणैः । स्वीकृत्य तीर्थकृनाम संन्यस्यान्ते समाधिमान् ॥ १४॥ शुक्ललेश्यो द्विहस्ताङ्गको अवेयकमध्यमे । अहमिन्द्रः सुभद्राख्ये विमाने मध्यमेऽजनि ॥ १५॥ चतुःशतेषु पञ्चोत्तरेष्वहःस्वेष निःश्वसन् । शून्यत्रितयससद्विप्रमिताब्देषु विश्वणन् ॥१६॥ विक्रियावधिवीर्यत्विव्याप्तासतमभूमिकः । सप्तविंशतिवाायुरथ भुक्त्वाखिलं सुखम् ॥ १७ ॥ आयरन्ते ततस्तस्मिनागमिष्यति भूतलम् । द्वीपेऽस्मिन् भारते काशीविषये वृषभान्वये ॥ १८ ॥ सुप्रतिष्ठमहाराजो पाराणस्या महीपतिः । तस्यासीत् पृथिवीषेणा देवी तस्या गृहाङ्गणे ॥ १९॥ षषमासान् साररत्नानि वपुः सुरवारिदाः । सितषष्ठयां विशाखायां मासि भाद्रपदे शुभान् ॥ २०॥ स्वप्नान षोडश संवीक्ष्य वारणं चाननागतम् । ज्ञात्वा पत्युः फलं तेषां परितुष्टानिमित्रके ॥२१॥ शुभयोगे सितज्येष्ठद्वादश्यां तं सुरोतमम् । सोदपीपददुत्तुङ्गमैरावतमिवोजितम् ॥ २२ ॥ मरेन्द्रर्मन्दरस्यान्ते कृतजन्ममहोत्सवः । तस्याकारि सुपाख्या तत्पादानतमौलिभिः ॥२३॥ कोटीनवसहनेषु पनप्रभजिनान्तरे । सागरोपमसख्येषु गते तद्तजीवितः ॥ २४ ॥
शान्यषटयगपक्षोक्तपूर्वजीवी धनुःशत-1 द्वयोत्सेधो विधु कान्स्या छैपयबाप यौवनम् ॥ २५॥ २लनपञ्च सपूर्वाणां कौमार्ये गतवत्यतः । धनं त्यक्तु वदान्यो वा साम्राज्यं स्वीचकार सः ॥ २६ ॥
श्रषायष्टधीधुर्यान् सर्वशास्त्रविशारदान् । नटान् सपेटकान् प्रेक्ष्यावर्तकान् नृत्यकोविदान् ॥ २७॥ मकण्ठान गायकान् श्रव्यानष्टार्धातोद्यवादकान् । सनर्मरुचिरानन्याजानाविद्याकलागुणान् ॥ २८ ॥
साथ पाप कर्मको नष्ट करता हुआ बड़े हर्षसे पूज्य अर्हनन्दन मुनिका शिष्य बन गया॥१२-१३ ॥ तदनन्तर ग्यारह अङ्गका धारी होकर उसने आगममें कही हुई दर्शनविशुद्धि आदि सोलह कारण
दारा तीर्थकर नामकमेका बन्ध किया और आयुके अन्तमें संन्यास मरण कर मध्यम प्रैवेयकके सुभद्र नामक मध्यम विमानमें अहमिन्द्रका जन्म धारण किया। वहाँ उसके शुक्ल लेश्या थी और दो हाथ ऊँचा शरीर था ।। १४-१५ ॥ चार सौ पाँच दिनमें श्वास लेता था और सत्ताईस हजार वर्ष बाद आहार ग्रहण करता था ॥ १६ ॥ उसकी विक्रिया ऋद्धि, अवधिज्ञान, बल और शान्ति मप्रमी प्रथिवी तक थी तथा सत्ताईस सागर उसकी आयु थी। इस प्रकार समस्त साव भोगकर आयके अन्तमें जब वह पृथिवी तल पर अवतीर्ण होनेको हुआ तब इस जम्बूद्वीपके भारतवर्ष सम्बन्धी काशी देशमें बनारस नामकी नगरी थी। उसमें सुप्रतिष्ठ महाराज राज्य करते थे। सुप्रतिष्ठका जन्म भगवान् वृषभोवके इक्ष्वाकु-वंशमें हुआ था। उनकी रानीका नाम था पृथिवी
या शारानी प्रथिवीषेणाके घरके आंगनमें देवरुपी मेघोंने छह माह तक उत्कृष्ट रनोंकी वर्षा की थी। उसने भाद्रपद शुक्ल षष्ठीके दिन विशाखा नक्षत्रमें सोलह शुभ स्वप्न देखकर मुखमें प्रवेश करता हुआ एक हाथी देखा । उसी समय वह अहमिन्द्र रानीके गर्भमें आया। पतिके मुखसे स्वप्नों. का फल जानकर रानी पृथिवीषणा बहुत ही हर्षित हुई। तदनन्तर ज्येष्ठशुक्ल द्वादशीके दिन अग्निमित्र नामक शुभयोगमें उसने ऐरावत हाथीके समान उन्नत और बलवान् अहमिन्द्रको पुत्र रूपसे उत्पन्न किया ॥ १७-२२ ॥ इन्द्रोंने सुमेरु पर्वतके मस्तक पर उसका जन्मकालीन महोत्सव किया, उसके चरणोंमें अपने मुकुट झुकाये और 'सुपार्श्व' ऐसा नाम रक्खा ॥ २३ ॥ पद्मप्रभ जिनेन्द्रके बाद नौ हजार करोड़ बीत जानेपर भगवान् सुपार्श्वनाथका जन्म हुआ था। उनकी आयु भी इसी अन्तरालमें सम्मिलित थी ॥ २४ ॥ उनकी आयु बीस लाख पूर्वकी थी, और शरीरकी ऊँचाई दो सौ धनुष थी, वे अपनी कान्तिसे चन्द्रमाको लज्जित करते थे। इस तरह उन्होंने यौवन-अवस्था प्राप्त की ॥२५॥ जब उनके कुमार-कालके पाँच लाख पूर्व व्यतीत हो गये तब उन्होंने दानीकी भाति धनका त्याग करने के लिए साम्राज्य स्वीकार किया ।। २६ ॥ उस समय इन्द्र शुश्रूषा आदि बुद्धिके आठ गुणसे श्रेष्ठ, सर्वशास्त्रोंमें निपुण झुण्डके झुण्ड नटोंको, देखने योग्य तथा नृत्य करनेमें निपुण नर्तकोंको, उत्तम कण्ठवाले गायकोंको, श्रवण करने योग्य साढ़ेसात प्रकारके वादित्र-वादकोंको, हास्य-विनोद
१ शून्यषद्वयपक्षोक क०, ग०, ५० षटयुत ल०। २ लक्षपञ्चः क०, ख०, ग० घ० । लक्षाः पञ्च ल०।
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