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महापुराणे उत्तरपुराणम् किं ध्येयं गुणसन्ततिश्च्युतमलस्यास्यैव काष्ठाश्रया
दित्युक्तस्तुतिगोचरःस भगवान् प्रमप्रभः पातु वः॥६५॥ राजा प्रागपराजितो जितरिपुः श्रीमान् सुसीमेश्वरः
पश्चादाप्य तपोऽन्त्यनामसहितो अवेयकेऽन्त्येऽमरः । कौशाम्ब्यां कलितो गुणैरगणितैरिक्ष्वाकुवंशाग्रणीः
षष्ठस्तीर्थकरः परात्महितकृत् पद्मप्रभःशं क्रियात्॥७॥ इत्याचे भगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसङ्ग हे पचप्रभाहतपुराणवर्णनं नाम "
द्विपञ्चाशत्तमं पर्व ॥ ५२॥
युगल सेवन करने योग्य हैं। सुनने योग्य क्या है ? सब लोगोंको विश्वास उत्पन्न करानेवाले इन्हीं पद्मप्रभ भगवान्के सत्य वचन सुननेके योग्य हैं, और ध्यान करने योग्य क्या है ? अतिशय निर्मल इन्हीं पद्मप्रभ भगवान्के दिग्दिगन्त तक फैले हुए गुणोंके समूहका ध्यान करना चाहिये इस प्रकार उक्त स्तुतिके विषयभूत भगवान् पद्मप्रभ तुम सबकी रक्षा करें ।। ६६ ॥ जो पहले सुसीमा नगरीके अधिपति, शत्रुओंके जीतनेवाले, अपराजित नामके लक्ष्मी-सम्पन्न राजा हुए, फिर तप धारण कर तीर्थकर नामकर्मका बन्ध करते हुए अन्तिम अवेयकमें अहमिन्द्र हुए और तदनन्तर कौशाम्बी नगरीमें अनन्तगुणोंसे सहित, इक्ष्वाकुवंशके अग्रणी, निज-परका कल्याण करनेवाले छठवें तीर्थकर हए वे पद्मप्रभ स्वामी सब लोगोंका कल्याण करें॥७॥ इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध भगवद् गुणभद्राचार्य प्रणीत त्रिषष्टि लक्षण महापुराणके संप्रहमें
पद्मप्रभ भगवान्के पुराणका वर्णन करनेवाला बावनवाँ पर्व पूर्ण हुआ।
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