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द्विपञ्चाशत्तम पर्व षण्मासैमौर्नमास्थाय छास्थ्यमपनीतवान् । क्षपकश्रेणिमारुह्य नष्टघातिचतुष्टयः॥५६॥ पौर्णमास्यां सिते चैत्रे मध्यादहो। रवौ गते । चित्रायां केवलज्ञान प्रतिपेदे परार्थकृत् ॥ ५७ ॥ समर्चितो महादेवैः शतेनेतो गणेशिनाम् । स वज्रचामरादीनां दशभिश्च जगद्धितः ॥ ५८॥ शून्यद्वयाग्निपक्षोक्तसर्वपूर्वधरान्वितः । शून्यत्रिकनवर्तुद्विप्रोक्तशिक्षकरुक्षितः ॥ ५९॥ शून्यत्रिकशदज्ञेयविविधावधिवीक्षणः । खत्रयद्वादशालक्ष्यकेवलावगमाश्रितः ॥ ६०॥ खद्वयाष्टषडेकाकविक्रियर्द्धिसमृद्धिमान् । शून्यद्वयत्रिशून्यैकप्रोक्तस्तुर्यावबोधनः ॥६१ ॥ शून्यद्वयर्तरन्ध्रोकख्यातानुत्तरवादिकः । खचतुष्कादिवयुक्तसम्पिण्डितयतीश्वरः ॥ १२॥ खचतुष्कद्विवाराशिप्रमिताभिरभिष्टुतः । रात्रिषेणाख्यमुख्याभिरार्यिकाभिः समन्ततः ॥ ६३ ॥ त्रिलक्षश्रावकोपेतः श्राविकापञ्चलक्षवान् । सदेवदेव्यसङ्ख्यातस्तिर्यक्सङ्ख्यातसंयुतः ॥ ६४ ॥ कुर्वन् धर्मोपदेशेन मोक्षमार्गे तनूभृतः । भव्यान् पुण्योदयेनेव धर्मसत्वान् सुखोदये ॥ ६५॥ सम्मेदपर्वते मासं स्थित्वा योगं निरुद्धवान् । साई यतिसहस्रेण प्रतिमायोगमास्थितः ॥६६॥ फाल्गुने मासि चित्रायां चतुर्थ्यामपराहगः । कृष्णपक्षे चतुर्थेन समुच्छिन्नक्रियात्मना ॥ ६७ ॥ शुक्लध्यानेन कर्माणि हत्वा निर्वाणमापिवान् । तदैत्य चक्रुः शक्रागः परिनिर्वाणपूजनम् ॥ ६८ ॥
शार्दूलविक्रीडितम् कि सेव्य क्रमयुग्ममब्जविजयामस्यैव लक्ष्म्यास्पद
किं श्रव्यं सकलप्रतीतिजननादस्यैव सत्यं वचः ।
पुण्यका सञ्चय, गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषह-जय तथा चारित्र इन छह उपायोंसे कर्म समूहका संवर और तपके द्वारा निर्जरा करते हुए उन्होंने छद्मस्थ अवस्थाके छह माह मौनसे व्यतीत किये। तदनन्तर क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होकर उन्होंने चार घातिया कर्मोका नाश किया तथा चैत्र शुक्ल पौर्णमासीके दिन जब कि सूर्य मध्याह्नसे कुछ नीचे ढल चुका था तब चित्रा नक्षत्रमें उन परकल्याणकारी भगवान्ने केवलज्ञान प्राप्त किया ॥५५-५७ ॥ उसी समय इन्द्रोंने आकर उनकी पूजा की। जगत्का हित करनेवाले भगवान् , वन चामर आदि एक सौ दश गणधरोंसे सहित थे, दो हजार तीन सौ पूर्वधारियोंसे युक्त थे, दो लाख उनहत्तर हजार शिक्षकांसे उपलक्षित थे, दश हजार अवधिज्ञानी और बारह हजार केवलज्ञानी उनके साथ थे, सौलह हजार आठ सौ विडियाऋद्धिके धारकोंसे समृद्ध थे, दश हजार तीन सौ मनःपर्ययज्ञानी उनकी सेवा करते थे, और नौ हजार छह सौ श्रेष्ठ वादियोंसे युक्त थे, इस प्रकार सब मिलाकर तीन लाख तीस हजार मुनि सदा उनकी स्तुति करते थे। रात्रिषेणाको आदि लेकर चार लाख बीस हजार आर्यिकाएँ सब ओरसे उनकी स्तुति करती थीं। तीन लाख श्रावक, पाँच लाख श्राविकाएँ, असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यात तिर्यश्च उनके साथ थे ॥५८-६४ ॥ इस प्रकार धर्मोपदेशके द्वारा भव्य जीवोंको मोक्षमार्गमें लगाते और पुण्यकर्मके उदयसे धर्मात्मा जीवांको सुख प्राप्त कराते हुए भगवान् पद्मप्रभ सम्मेद शिखर पर पहुँचे । वहाँ उन्होंने एक माह तक ठहर कर योग-निरोध किया तथा एक हजार राजाओं के साथ प्रतिमायोग धारण किया ॥ ६५-६६ ॥
तदनन्तर फाल्गुन कृष्ण चतुर्थीके दिन शामके समय चित्रा नक्षत्रमें उन्होंने समुच्छिन्न-क्रियाप्रतिपाती नामक चतुर्थ शुक्ल ध्यानके द्वारा कर्मोका नाश कर निर्वाण प्राप्त किया। उसी समय इन्द्र
आदि देवेने आकर उनके निर्वाण-कल्याणककी पूजा की ।। ६७-६८ । सेवा करने योग्य क्या है ? कमलेको जीत लेनेसे लक्ष्मीने भी जिन्हें अपना स्थान बनाया है ऐसे इन्हीं पद्मप्रभ भगवान्के चरण
१ मध्यादहा ल०। २ समर्थितमहो देवैः क०, ख०, ग०,५०। ३ शून्यत्रिदशज्ञेय ला : रतिषेणाख्य-ल । ५ योगानिरुद्ध ल०। ६ संस्थितः ल।
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