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द्विपञ्चाशत्तम पर्व
न कामनीयक कामेऽविकायेऽन्यत्र चेद्वशम् । तत्कामनीयकं तस्य न केनाप्युपमीयते ॥ २१ ॥ तथैव रूपमप्यस्य कथ्यते किं पृथक् पृथक् । यद्यत्तस्मिन्न तत्वज्ञैरन्यस्थैरुपमीयते ॥३०॥ कामयन्ते स्त्रियः पुंसः पुमांसस्ता इमं पुनः । ताश्च ते चास्य सौभाग्यं नाल्पभाग्यैरवाप्यते ॥ ३१॥ तसनावेव सर्वेषां दृष्टिस्तृप्ति परामिता । सन्ततं चूतमम्जयां मत्तालीनामिवावली ॥ ३२॥ सर्वेन्द्रियसमाहादस्तस्मिन् चेन भूशायते । परत्रापूर्णपुण्येषु न कापीति वयं स्थिताः ॥३३॥ खचतुष्केण कोटीनां नवभिश्वोक्तवादिभिः । मिते सुमतिसन्ताने पद्मप्रभजिनस्थितिः ॥ ३४॥ षट्शून्यवहिपूर्वायुः शून्यपश्चद्विचापभाक् । जीवितस्य चतुर्भागे' कुमारत्वेन निष्ठिते ॥ ३५॥ अलब्ध राज्य प्राप्तामरेज्यो' द्वैराज्यवर्जितम् । क्रमायातं न हीच्छन्ति सन्तस्तथान्यथागतम् ॥ ३६॥ उपरबन्धेऽस्य सर्वस्य स्वस्य स्वस्येव सम्मदः । महाभयानि तद्द शे नष्टान्यष्टौ निरन्वयम् ॥ ३७ ॥ दारिद्रयं विद्रुतं दूरं स्वैरं स्वं संप्रवर्तते । सर्वाणि मङ्गलान्यासन् सङ्गमः सर्वसम्पदाम् ॥ ३८॥ कस्य कस्मिन्समीप्सेति वदान्येष्वभवद्वचः । कस्यचिव कस्मिंश्चिदर्थितेत्यवदजनः ॥ ३९ ॥ इत्यस्य राज्यसम्प्राप्तौ जगत्सुसमिवोत्थितम् । तदेव राज्य राज्येषु प्रजानां यत्सुखावहम् ॥ ४०॥ हीने षोडशपूर्वाङ४ पूर्वलक्षायुषि स्थिते । कदाचिद् द्वारिवन्धस्थगजप्रकृतिसंश्रुतेः॥४१॥
सबको आह्लादित कर वृद्धिको प्राप्त होता है उससे कौन पराङ्मुख रहता है ? ॥२८ ।। भगवान पद्मभके शरीरकी जैसी सुन्दरता थी वैसी सुन्दरता न तो शरीर रहित कामदेवमें थी और न अन्य किसी मनुष्यमें भी। यथार्थमें उनकी सुन्दरताकी किसीसे उपमा नहीं दी जा सकती थी॥२६|| इसी प्रकार उनके रूपका भी पृथक् पृथक् वर्णन नहीं करना चाहिये क्योंकि जो जो गुण उनमें विद्यमान थे विद्वान् लोग उन गुणोंकी अन्य मनुष्योंमें रहनेवाले गुणोंके साथ उपमा नहीं देते थे ॥३०॥ स्त्रियाँ पुरुषोंकी इच्छा करती हैं और पुरुष स्त्रियोंकी इच्छा करते हैं परन्तु उन पद्मप्रभकी, स्त्रियाँ
और पुरुष दोनों ही इच्छा करते थे सो ठीक ही है। क्योंकि जिनका भाग्य अल्प है वे इनके सौभाग्यको नहीं पा सकते हैं ॥ ३१॥ जिस प्रकार मत्त भौरोंकी पंक्ति आममञ्जरीमें परम संतोषको प्राप्त होती है उसी प्रकार सब मनुष्योंकी दृष्टि उनके शरीरमें ही परम संतोष प्राप्त करती थी॥३२॥ हम तो ऐसा समझते हैं कि समस्त इन्द्रियोंके सुख यदि उन पद्मप्रभ भगवान्में पूर्णताको प्राप्त नहीं थे तो फिर अण्प पुण्यके धारक दूसरे किन्हीं भी मनुष्योम पूर्णताको प्राप्त नहीं हो सकते थे॥३३॥ जब समतिनाथ भगवान्की तीर्थ परम्पराके नब्बे हजार करोड़ सागर बीत गये तब भगवान् पद्मप्रभ उत्पन्न हुए थे॥ ३४ ॥ तीस लाख पूर्व उनकी आयु थी, दो सौ पचास धनुष ऊँचा शरीर था और देव लोग उनकी पूजा करते थे। उनकी आयुका जव एक चौथाई भाग बीत चुका तब उन्होंने एकछत्र राज्य प्राप्त किया। उनका वह राज्य क्रमप्राप्त था-वंश-परम्परासे चला आ रहा था सो ठीक ही है क्योंकि सज्जन मनुष्य उस राज्यकी इच्छा नहीं करते हैं जो अन्य रीतिसे प्राप्त होता है ॥ ३५-३६॥ जब भगवान् पद्मप्रभको राज्यपट्ट बाँधा गया तब सबको ऐसा हर्ष हुआ मानो मुझे ही राज्यपट बाँधा गया हो। उनके देशमैं आठों महाभय समूल नष्ट हो गये थे॥३७॥ दरिद्रता दूर भाग गई, धन स्वच्छदन्तासे बढ़ने लगा, सब मङ्गल प्रकट हो गये और सब सम्पदाओंका समा
हो गया।॥ ३८॥ उस समय दाता लोग कहा करते थे कि किस मनुष्यको किस पदार्थकी इच्छा है और याचक लोग कहा करते थे कि किसीको किसी पदार्थकी इच्छा नहीं है ।। ३६॥
इस प्रकार जब भगवान् पद्मप्रभको राज्य प्राप्त हुआ तब संसार मानो सोने से जाग पड़ा सो ठीक ही है क्योंकि राजाओंका राज्य वही है जो प्रजाको सुख देनेवाला हो ॥४०॥ जब उनकी आयु सोलह पर्वाङ्ग कम एक लाख पूर्वकी रह गई तब किसी समय दरवाजे पर बंधे हुए हाथीकी दशा सननेसे उन्हें अपने पूर्व भवांका ज्ञान हो गया और तत्त्वोंके स्वरूपको जाननेवाले वे संसारको इस
१ चतुर्भाग-ल । २ प्राप्तामरेज्यो ख० । प्राप्तामरेष्टो ग०। ३ पट्टवन्धस्य ग०। ४ पूर्वाङ्गे ग०, क० । ५ पूर्व बचायुषि ब.।
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