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महापुराणे उत्तरपुराणम् ज्ञातात्मान्यभवो धिकधिक संसारमिति तत्वविद् । विरक्तः कामभोगेषु पापदुःखप्रदायिषु ॥ ४२ ॥ अदृष्टं किं किमस्पृष्टमनाघ्रातं किमश्रुतम् । किं किमस्वादितं येन पुनर्नवमिवेष्यते ॥४३॥ भुक्तमेव पुनर्भुक्तं जन्तुनानन्तशो भवे । 'मध्यमप्यभिलाषाब्धेरितं वदत किं ततः ॥ ४४ ॥ नेन्द्रियैरात्मनस्तृप्तिर्मिथ्यात्वादिविदूषितैः। 3वीतधात्युपयोगेऽस्य विश्वं यावनगोचरम् ॥ ४५ ॥ रोगोरगाणां तु शेयं शरीर वामलूरकम् । दष्टान् दृष्ट्वापि तैरेव किमिष्टानटजीवितान् ॥ ४६ ॥ ४आहितो "देहिनो देहे मोहोऽनेनाविनश्वरः । सहवासः कृतः कापि केनाप्यस्यायुषा किमु ॥ ४७ ॥ हिंसादिपञ्चकं धर्मः सुखं यस्येन्द्रियार्थजम् । संसृती रोचते तस्मै विपरीतार्थदर्शिने ॥ ४०॥ पापापापोपलेपापक्षेपो येनोपपद्यते । तद्ध्येयं तदनुष्ठेयं तदध्येयं सदा बुधैः ।। ४९ ॥ इति त्रिविधनिर्वेदभूतबोधिः सुरोत्तमैः। प्रोत्साहितः सुरैः प्राप्तनिष्क्रान्तिमानसम्मदः ॥५०॥ निवृत्याख्या समारुह्य शिबिकां स मनोहरे । वने षष्ठोपवासेन दीक्षा शिक्षामिवाग्रहीत् ॥५१॥ कार्तिके कालपक्षस्य त्रयोदश्यपरागः । चित्रायां भूभुजां सार्द्ध सहस्रेणाहितादरः ॥ ५२ ॥ चतुर्थज्ञानसम्पनश्चर्यायै पश्चिमे दिने । नगरं वर्द्धमानाख्य प्राविशद्विदुषां वरः ॥ ५३॥ सोमदत्तो नृपस्तस्मै दानादापार्जुनच्छविः । आश्चर्यपञ्चकं किंवा पात्रदानास जायते ॥ ५५ ॥ चिन्वन् शुभानवैः पुण्यं संवरं कर्मसंहतेः । कुर्वन्गुप्त्यादिषट्केन तपसा निर्जरां च सः ॥ ५५ ॥
प्रकार धिक्कार देने लगे। वे पाप तथा दुःखांको देनेवाले काम-भोगोंमें विरक्त हो गये । वे विचारने लगे कि इस संसारमें ऐसा कौन-सा पदार्थ है जिसे मैंने देखा न हो, छुआ न हो, सूंघा न हो, सुना न हो, और खाया न हो जिससे वह नयेके समान जान पड़ता है ।।४१-४३ ।। यह जीव अपने पूर्वभवोंमें जिन पदार्थोंका अनन्त बार उपभोग कर चुका है उन्हें ही बार-बार भोगता है अतः अभिलाषा रूप सागरके बीच पड़े हुए इस जीवसे क्या कहा जावे ? ।। ४४ ।। घातिया कर्मोंके नष्ट होने पर इसके केवलज्ञानरूपी उपयोगमें जब तक सारा संसार नहीं झलकने लगता तब तक मिथ्यात्व आदिसे दूषित इन्द्रियोंके विषयोंसे इसे तृप्ति नहीं हो सकती ॥ ४५ ॥ यह शरीर रोगरूपी साँपोंकी वामी है तथा यह जीव देख रहा है कि हमारे इष्टजन इन्हीं रोगरूपी साँपोंसे काटे जाकर नष्ट हो रहे हैं फिर भी यह शरीरमें अविनाशी मोह कर रहा है यह बड़ा आश्चर्य है। क्या आज तक कहीं किसी जीवने श्रायुके साथ सहवास किया है ? अर्थात् नहीं किया ॥४६-४७॥ जो हिंसादि पाँच पापोंको धर्म मानता है, और इन्द्रिय तथा पदार्थके सम्बन्धसे होनेवाले सुखको सुख समझता है उसी विपरीतदशी मनुष्यके लिए यह संसार रुचता है-अच्छा मार ॥४८॥ जिस कार्यसे पाप और पुण्य दोनों उपलेपोंका नाश हो जाता है, विद्वानोंको सदा उसीका ध्यान करना चाहिये, उसीका आचरण करना चाहिये और उसीका अध्ययन करना चाहिये ॥ ४६ ।। इस प्रकार संसार, शरीर और भोग इन तीनोंके वैराग्यसे जिन्हें आत्मज्ञान उत्पन्न हुआ है, लौकान्तिक देवेांने जिनका उत्साह बढ़ाया है और चतुर्निकाय देवोंने जिनके दीक्षा-कल्याणकका अभिषेकोत्सव किया है ऐसे भगवान् पद्मप्रभ. निवृत्ति नामकी पालकी पर सवार होकर मनोहर नामके वनमें गये और वहाँ वेलाका नियम लेकर कार्तिक कृष्ण त्रयोदशीके दिन शामके समय चित्रा नक्षत्रमें एक हजार राजाओंके साथ आदर पूर्वक उन्होंने शिक्षाके समान दीक्षा धारण कर ली ॥५०-५२॥ जिन्हें मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया है ऐसे विद्वानोंमें श्रेष्ठ पद्मप्रभ स्वामी दूसरे दिन चर्याके लिए वधेमान नामक नगरमें प्रविष्ट हुए॥५३॥ शुक्ल कान्तिके धारक राजा सामदत्तने उन्हें दान देकर पञ्चाश्चर्य प्राप्त किये सो ठीक ही है क्योंकि पात्रदानसे क्या नहीं होता है ? ॥ ५४॥ शुभ प्रास्रवासे
१ किमनप्वारितं येन । २ मध्यमेत्यभिलाषाब्धेरितं वदतु किं ततः क०, १०, ख० । नवामप्यभि-० । ३. वीतघात्युपयोगस्य क०, ग०, ल०। ४ अहितो ल०। ५ देहिनां घ०। ६ विनश्वरम् क०, प० । ७ सहवासः कृतं क०, घ०, ख०, सहवासकृतं ल०। ८ निवेदभूतो बोधिसुरोत्तमैः क०, प० । निवेदभूतबोधेः ग०।
४ अहितो ल०। ५ देहिनां प० । । विनश्वरम् १०, १०
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