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द्विपञ्चाशत्तम पर्व
पोऽस्थावर्न भातीव प्रभास्मिमिति वाश्रिता । त्यक्त्वा तं य स पन्नास्मान्पातु पद्मप्रभः प्रभुः ॥n द्वितीये पातकीखण्डे द्वीपे प्राग्भागपूर्वजे । विदेहे दक्षिणे कूले सीताया बत्सदेशज़म् ॥ २॥ सुसीमानगरं तस्मिन् महाराजोऽपराजितः । न परैर्जायते जेता स बाह्याभ्यन्तरद्विषाम् ॥ ३॥ विक्रमेणैव वक्राणां जेतुर्यायपरिग्छदः । सप्ताङ्गपूरणं तस्य बलं दोर्बलशालिनः ॥ ४ ॥ तस्य सत्येन वर्षन्ति जीमूताः कर्षकेच्छया । आदिमध्यान्तवापाच धान्यभेदाः फलप्रदाः ॥ ५॥ त्यागेन तस्य दारिद्रयशब्दः खकुसुमायते । भुवि प्राग्येषु दारिद्रय तैरब धनदायितम् ॥६॥ राज्ञां महागुणास्तस्मिन् सुक्षेत्रोतसुबीजवत् । त्रयोऽप्येते फलन्ति स्म सजातीयान् परान् गुणान् ॥ ७॥ परेषां वास्यरूपादिसम्पनोन्मार्गवृत्तये । तरूत्पाटी मरुन्मेरु क्षमः कम्पयितुच किम् ॥ ८॥ स षट्प्रकृतिभिर्भूष्यस्ताश्च तेन ततोऽभवत् । तद्राज्यं न परैईज्य परेषा २वर्षक: स्वयम् ॥ ९॥ एवं भवान्तरावर्जितोजिंतायोदयापितम् । नापत्यं सुचिरं भुक्त्वा संविभक्तं सुहृद्वरैः ॥१०॥ क्षणिकाः सर्वपर्यायाः पर्यायैश्चानुभूयते । सुर्ख कारणविध्वंसे कार्य कौतस्कुती स्थितिः ॥११॥
इत्यजुसूत्रभावेन स सर्व भार स्मरन् । दत्त्वा राज्यं सुमित्राय सुताय विजितात्मने ॥१२॥ गत्वा तपोगुरुं कृत्वा जिनेन्द्र पिहितास्रवम् । एकादशाङ्गविद् बध्वा नाम तीर्थकराइयम् ॥ १३॥
कमल दिनमें ही फूलता है, रातमें बन्द हो जाता है अतः उसमें स्थिर न रह सकनेके कारण जिस प्रकार प्रभाकी शोभा नहीं होती और इसीलिए उसने कमलको छोड़कर जिनका आश्रय ग्रहण किया था उसी प्रकार लक्ष्मीने भी कमलको छोड़कर जिनका आश्रय लिया था वे पद्मप्रभ स्वामी हम सबकी रक्षा करें ॥ १॥ दूसरे धातकीखण्डद्वीपके पूर्व विदेहक्षेत्रमें सीता नदीके दक्षिण तट पर वत्स देश है। उसके सुसीमा नगरमें महाराज अपराजित राज्य करते थे। महाराजअपराजित वास्तव में अपराजित थे क्योंकि उन्हें शत्रु कभी भी नहीं जीत सकते थे और उन्होंने अन्तरङ्ग तथा बहिर के सभी शत्रुओंको जीत लिया था ॥२-३॥ वह राजा कुटिल मनुष्योंको अपने पराक्रमसे ही जीत लेता था अतः बाहुबलसे सुशोभित उस राजाकी सप्ताङ्ग सेना केवल बाह्य आडम्बर मात्र थी ॥४॥उसके सत्यसे मेघ किसानोंकी इच्छानुसार बरसते थे और वर्षके आदि, मध्य तथा अन्तमें बोये जानेवाले सभी धान्य फल प्रदान करते थे ॥ ५॥ उसके दानके कारण दारिद्रय शब्द आकाशके फूलके समान हो रहा था और पृथिवी पर पहले जिन मनुष्योंमें दरिद्रता थी वे अब कुबेरके समान आचरण करने लगे थे ।।६। जिस प्रकार उत्तम खेतमें बोये हुए बीज सजातीय अन्य बीजोंको उत्पन्न करते हैं उसी प्रकार उस राजाके उक्त तीनों महान् गुण सजातीय अन्य गुणोंको उत्पन्न करते थे॥७॥ इस राजाकी रूपादि सम्पत्ति अन्य मनुष्योंके समान इसे कुमार्गमें नहीं ले गई थी सो ठीक ही है क्योंकि वनोंको उखाड़ने वालाक्या मेरु पर्वतको भीकम्पित करने में समर्थ है वह राजाराजाओंके योग्य सन्धि विग्रहादि छह गुणोंसे सुशोभित था और छह गुण उससे सुशोभित थे। उसका राज्य दूसरोंके द्वारा धर्षणीय-तिरस्कार करनेके योग्य नहीं था पर वह स्वयं दूसरोंका धर्षक-तिरस्कार करने वाला था॥६॥ इस प्रकार अनेक भाबोंमें उपार्जित पुण्य कर्मके उदयसे प्राप्त तथा अनेक मित्रोंमें बटे हुए राज्यका उसने चिरकाल तक उपभोग किया ॥१०॥ तदनन्तर वह विचार करने संसारमें समस्त पर्याय क्षणभंगुर हैं, सुख पर्यायोंके द्वारा भोगा जाता है और कारणका विनाश होनेपर कार्यकी स्थिति कैसे हो सकती है ? ॥११॥ इस प्रकार ऋजुसूत्र नयसे सब पदार्थोंको भंगुर स्मरण करते हुए उस राजाने अपने आत्माको वश करनेवाले सुमित्र पुत्रके लिए राज्य दे दिया,
१ मेरुक्षम ल० । २ वर्षकं ल०।३ इत्यन्तर्गतभावेन क०, घ०।
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