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एकपञ्चाशत्तम पर्व
एकादशसहस्रावधीद्धबोधविदीडितः । त्रयोदशसहस्रात्मसमा नज्ञान संस्तुतः ॥ ७८ ॥ शून्यद्वययुगाष्टैकमितवैक्रियकस्तुतः । शून्यद्वयचतुः खैकप्रमितोपान्तविष्ट २तः ॥ ७९ ॥ शून्यपञ्चचतुःखैकमितवाद्यभिवन्दितः । पिण्डितैः खचतुष्कद्वित्रिमितैस्तैर्विभूषितः ॥ ८० ॥ स्ख चतुष्कत्रिवह्नयुक्तानन्तार्याधायिकानुगः । त्रिलक्षश्रावकाभ्यर्चः श्राविकापञ्चलक्षवान् ॥ ८१ ॥ स देवदेव्यसङ्ख्याततिर्यक्सङ्ख्यातवेष्टितः । विहृत्याष्टदशक्षेत्रविशेषेष्वमराचितः ॥ ८२ ॥ प्रशस्ताशस्तभाषासु भव्यानां दिव्यमक्षिपत् । ध्वनिं बीजविशेषं वा सुभूमिषु महाफलम् ॥ ८३ ॥ विमुक्त' विहृतिर्मासं सहस्त्रमुनिभिः सह । प्रतिमायोगमास्थाय सम्मेदे निर्वृतिं ययौ ॥ ८४ ॥ एकादश्यां सिते चैत्रे मघायामपराह्नगः । अमरैरन्त्यकल्याणमवाप सुमतीश्वरः ॥ ८५ ॥
मालिनी
रिपुनृपयमदण्डः पुण्डरीकिण्यधीशो
हरिरिव रतिषेणो वैजयन्तेऽहमिद्रः ।
सुमतिरमितलक्ष्मीस्तीर्थकुचः कृतार्थः
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सकलगुणसमृद्धो वः स सिद्धिं विदध्यात् ॥ ८६ ॥
रहते थे, वे दो लाख चौअन हजार तीन सौ पचास शिक्षकोंसे सहित थे, ग्यारह हजार अवधिज्ञानी उनकी पूजा करते थे, तेरह हजार केवलज्ञानी उनकी स्तुति करते थे, आठ हजार चार सौ क्रिया ऋद्धिके धारण करनेवाले उनका स्तवन करते थे, दश हजार चार सौ मन:पर्ययज्ञानी उन्हें घेरे रहते थे, और दश हजार चार सौ पचास वादी उनकी वंदना करते थे, इस प्रकार सब मिलाकर तीन लाख बीस हजार मुनियोंसे वे सुशोभित हो रहे थे ।। ७६ -८० ॥ अनन्तमती आदि तीन लाख तीस हजार आर्यिकाएँ उनकी अनुगामिनी थीं, तीन लाख श्रावक उनकी पूजा करते थे, पाँच लाख श्राविकाएँ उनके साथ थीं ॥ ८१ ॥ असंख्यात देव - देवियों और संख्यात तिर्यखोंसे वे सदा घिरे रहते थे । इस प्रकार देवोंके द्वारा पूजित हुए भगवान् सुमतिनाथने अठारह क्षेत्रोंमें बिहार कर भव्य जीवोंके लिए उपदेश दिया था। जिस प्रकार अच्छी भूमिमें बीज बोया जाता है और उससे महान् फलकी प्राप्ति होती है उसी प्रकार भगवान्ने प्रशस्त अप्रशस्त सभी भाषाओं में भव्य जीवोंके लिए दिव्यध्वान रूपी बीज बोया था और उससे भव्य जीवोंको रत्नत्रयरूपी महान् फलकी प्राप्ति हुई थी ॥ ८२-८३ ॥
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अन्तमें जब उसकी आयु एक मासकी रह गई तब उन्होंने विहार करना बन्द कर सम्मेद - गिरि पर एक हजार मुनियोंके साथ प्रतिमायोग धारण कर लिया और वहींसे चैत्र शुक्ल एकादशी के दिन मघा नक्षत्रमें शामके समय निर्वाण प्राप्त किया। देवोंने उनका निर्वाणकल्याणक किया ॥ ८४-८५ ॥ जो पहले शत्रु राजाओं को नष्ट करनेके लिए यमराजके दण्डके समान अथवा इन्द्रके समान पुण्डरीकिणी नगरीके अधिपति राजा रतिषेण थे, फिर वैजयन्त विमानमें अहमिन्द्र हुए और फिर अनन्त लक्ष्मीके धारक, समस्त गुणोंसे सम्पन्न तथा कृतकृत्य सुमतिनाथ तीर्थंकर हुए वे तुम
१ ज्ञानिसंयुतः ग० । २ विद्वतः क०, घ० । विवृतः ग० । ३ विमुक्तविकृतिर्मासं क०, ख०, ग०, घ० । विमुक्त विकृतिः ल० ।
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