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एकपश्चाशत्तम पवे
विधाय दशधाऽऽत्मानं विधुरती निषेवते । कान्तिमाभ्यां परं प्राप्तुमित्याशकावहा नखाः ॥५१॥ एवं सर्वाङ्गशोभास्य लक्षणैर्व्यअनैः शुभा । स्वीकरिष्यति मुक्त्यङ्गनां वेत्यत्र न संशयः ॥५२॥ कौमारमिति रूपेण सन्धरो रामणीयकम् । अनाप्तयौवनस्यास्य तद्विनापि मनोभवात् ॥ ५३॥ ततो यौवनमालम्ब्य कामोऽप्यस्मिन् कृतास्पदः । सम्प्राप्य साधवः स्थान नाधितिष्ठन्ति के स्वयम् ॥५४॥ कुमारकाले पूर्वाणां दशलक्षेषु निष्ठिते । भुजन् स्वलॊकसाम्राज्यं नृराज्यं चाप स क्रमात् ॥ ५५ ॥ न हिंसा न मृषा तस्य स्तेयसंरक्षणे न च । स्वमेऽपि तद्तानन्दः शुक्कुलेश्यस्य केन सः॥५६॥ तथा नानिष्टसंयोगो वियोगो नेष्टवस्तुनि । नासातं न निदानं च तत्सन्छशो न तद्गतः ॥ ५७ ॥ गुणानां वृद्धिमातन्वन् सञ्चयं पुण्यकर्मणाम् । विपार्क विश्वपुण्यानां गुणपुण्यसुखात्मकः ॥ ५४॥ सेव्यमानः सदा रक्तैः सुरखेचरभूचरैः । निराकृतैहिकारम्भः सम्भृतः सर्वसम्पदाम् ॥ ५९॥ निश्चितं कामभोगेषु नित्यं नृसुरभाविषु । न्याय्यार्थपथ्यधर्मेषु 'शर्मसारं समाप सः॥६॥ कान्ताभिः कमनीयाभिः सवयोभिः समीप्सुभिः । दिव्याङ्गरागनग्वसभूषाभी रमते स्म सः॥ ६१ ॥ दिव्यश्रीर्मानुषी च श्रीः समप्रेमप्रतोषिते । सुखं विदधतुस्तस्य मध्यस्थः कस्य न प्रियः ॥ १२॥ सुखं नाम तदेवात्र यदस्येन्द्रियगोचरम् । स्वर्वन्धसारभोग्यं चेस्सुरेशास्यैव रक्षितम् ॥ ६३ ॥ एवं सामयन् कालं दिव्यराज्यश्रियोईये। व्यरत्सीत् संसतेः सा हि प्रत्यासनविनेयता ॥ ६॥
ही मानो विधाताने उनकी दश अंगुलियाँ बनाई थीं ॥५०॥ उनके चरणोंके नख ऐसी शङ्का उत्पन्न करते थे कि मानो उनसे श्रेष्ठ कान्ति प्राप्त करने के लिए ही चन्द्रमा दश रूप बनाकर उनके चरणोंकी सेवा करता था ॥५१॥ इस प्रकार लक्षणों तथा व्यञ्जनोंसे सुशोभित उनके सर्व शरीरकी शोभा मुक्तिरूपी स्त्रीको स्वीकृत करेगी इसमें कुछ भी संशय नहीं था॥५२॥ इस प्रकार भगवानकी कुमार अवस्था स्वभावसे ही सुन्दरता धारण कर रही थी, यद्यपि उस समय उन्हें यौवन नहीं प्राप्त हुआ था तो भी वे कामदेवके बिना ही अधिक सुन्दर थे ।। ५३ ।। तदनन्तर यौवन प्राप्त कर कामदेवने भी उनमें अपना स्थान बना लिया सो ठीक ही है क्योंकि ऐसे कौन सत्पुरुष हैं जो स्थान पाकर स्वयं नहीं ठहर जाते।। ५४ ।।
__इस प्रकार क्रम-क्रमसे जब उनके कुमार-कालके दश लाख पूर्व बीत चुके तब उन्हें स्वर्गलोकके साम्राज्यका तिरस्कार करनेवाला मनुष्योंका साम्राज्य प्राप्त हुआ ॥५५॥ शुक्ललेश्याको घारण करनेवाले भगवान् सुमतिनाथ न कभी हिंसा करते थे, न भूठ बोलते थे और न चोरी तथा परिग्रह
आनन्द उन्हें स्वप्नमें भी कभी प्राप्त होता था। भावार्थ-वे हिंसानन्द, मृषानन्द, स्तेयानन्द और परिग्रहानन्द इन चारों रौद्रध्यानसे रहित थे॥५६॥ उन्हें न कभी अनिष्ट-संयोग होता था, न कभी इष्ट-वियोग होता था, न कभी वेदनाजन्य दुःख होता था और न वे कभी निदान ही करते थे। इस प्रकार वे चारों आर्तध्यानसम्बन्धी संलशसे रहित थे॥५७ ॥ गुण, पुण्य और सुखोंको धारण करनेवाले भगवान् अनेक गुणोंकी वृद्धि करते थे, नवीन पुण्य कर्मका संचय करते थे और पुरातन समस्त पुण्य कर्मों के विपाकका अनुभव करते थे॥५५॥ अनुरागसे भरे हुए देव, विद्याधर और भूमिगोचरी मानव सदा उनकी सेवा किया करते थे, उन्होंने इस लोकसम्बन्धी समस्त प्रारम्भ दूर कर दिये थे, और वे सर्व सम्पदाओंसे परिपूर्ण थे॥५६॥ वे मनुष्य तथा देवोंमें होनेवाले काम-भोगोंमें, न्यायपूर्ण अर्थमें तथा हितकारी धर्ममें श्रेष्ठ सुखको प्राप्त हुए थे ।। ६०॥ वे दिव्य अङ्गराग, माला, वस्त्र और आभूषणोंसे सुशोभित, सुन्दर, समान अवस्थावाली तथा स्वेच्छासे प्राप्त हुई स्त्रियोंके साथ रमण करते थे ।। ६१ ।। समान प्रेमसे संतोषित दिव्य लक्ष्मी और मानुष्य लक्ष्मी दोनों ही उन्हें सुख पहुँचाती थीं सो ठीक ही है क्योंकि मध्यस्थ मनुष्य किसे प्यारा नहीं होता ? ।। ६२ ।। संसारमें सुख वही था जो इनके इन्द्रियगोचर था, क्योंकि स्वर्गमें भी जो सारभूत वस्तु थी उसे इन्द्र इन्हींके लिए सुरक्षित रखता था ॥ ६३ । इस प्रकार दिव्य लक्ष्मी और राज्य
१ धर्मसारं ग० ।
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