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महापुराणे उत्तरपुराणम् पहावो वक्वाबुजस्यास्य किं पुनर्वर्ण्यतेतराम् । यदि लोलालितां जग्मुनिलिम्पेशाः सवल्लभाः ॥ ३८ ॥ कण्ठस्य कः स्तवोऽस्य स्याद्यदि त्रैलोक्यकण्ठिका । बद्धामरेशैः स्याद्वादकुण्ठिताखिलवादिनः ॥ ३९ ॥ तद्वाहुशिखरे मन्ये शिरसोऽप्यतिलड्विनी । वक्षःस्थलनिवासिन्या लक्ष्म्याः क्रीडाचलायते ॥ ४० ॥ धरालक्ष्मी समाहतुं 'वीरलक्ष्मीप्रसारितौ । भाजेते जयिनस्तस्य भुजावाजानुलङ्घिनौ ॥ ११ ॥ पृथक पृथक्त्वं नाख्येयं रम्यत्वं वास्य वक्षसः । मोक्षाभ्युदयलक्ष्म्यौ चेत्तदेवावसतः समम् ॥ ४२ ॥ कृशमप्यकृशं मध्यं लक्ष्मीद्वयसमाश्रितम् । ऊर्ध्वदेहं महाभारं वहदेतस्य हेलया ॥ ४३ ॥ नाभिः प्रदक्षिणावर्ता गम्भीरति न कथ्यते । सा चेन्न तादृशी तस्मिन्न स्यादेवं सुलक्षणा ॥ ४४ ॥ रूपशोभा विना नेमः3 ४स्वाश्रयादिति वाणवः । सन्तः सर्वेऽपि तत्रासन् रम्यस्तन कटीतटः ॥ ४५ ॥ रम्भास्तम्भादयोऽन्येषामूर्वोयान्तूपमानताम् । उपमेयास्तदूरुभ्यां ते वृत्तत्वादिभिर्गुणैः ॥ ४६॥ कुतो जानुक्रियेत्येतद् वेनि नान्येषु वेधसः । चेदस्मिगुरुजङ्घानां शोभास्पर्द्धानि वृत्तये ॥ १७ ॥ वज्रेण घटिते जसे वेधसाऽस्यान्यथा कथम् । जगत्त्रयगुरो र बिधाते ते तनोस्तनू ॥ १८ ॥ धरेयं सर्वभावेन लग्नाऽस्मत्तलयोरिति । लक्रमो प्रमदेनेव कूर्मपृष्ठौ शुभच्छवी ॥ ४९॥
इयन्तोऽस्मिन् भविष्यन्ति धर्माः कर्मनिवर्हणाः । इत्याख्यातुमिवाभान्ति विधिनालयः कृताः ॥५०॥ नहीं जा सकती। उनके मुखकी शोभा वचनोंसे प्रिय तथा उज्ज्वल थी अथवा वचनरूपी वल्लभासरस्वतीसे देदीप्यमान थी॥ ३७ ।। जब कि अपनी-अपनी वल्लभाओंसे सहित देवेन्द्र भी उस पर सतृष्ण भ्रमर जैसी अवस्थाको प्राप्त हो गये थे तब उनके मुख-कमलके हावका क्या वर्णन किया जावे ? ॥ ३८॥ जिन्होंने स्याद्वाद सिद्धान्तसे समस्त वादियोंको कुण्ठित कर दिया है ऐसे भगवान् सुमतिनाथके कण्ठमें जब इन्द्रोंने तीन लोकके अधिपतित्वकी कण्ठी बाँध रक्खी थी तब उसकी क्या प्रशंसा की जावे ? ॥३६॥शिरसे भी ऊँचे उठे हुए उनकी भुजाओंके शिखर ऐसे जान पड़ते थे मानो वक्षःस्थल पर रहने वाली लक्ष्मीके कीड़ा-पर्वत ही हों ॥४०॥ घुटनों तक लटकने वाली विजयी सुमतिनाथकी भुजाएँ
भजाएँ ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानो प्रथिवीकी लक्ष्मीको हरण करनेके लिए वीरलक्ष्मीने ही अपनी भुजाएँ फैलाई हो ॥४१॥ उनके वक्षःस्थलकी शोभाका पृथक्-पृथक् वर्णन कैसे किया जा सकता है जब कि उस पर मोक्षलक्ष्मी और अभ्युदयलक्ष्मी साथ ही साथ निवास करती थीं ॥४२॥ उनका मध्यभाग कृश होने पर भी कृश नहीं था क्योंकि वह मोक्षलक्ष्मी और अभ्युदयलक्ष्मीसे युक्त उनके भारी शरीरको लीलापूर्वक धारण कर रहा था ।। ४३ ॥ उनकी आवर्तके समान गोल नाभि गहरी थी यह कहनेकी आवश्यकता नहीं क्योंकि यदि वह वैसी नहीं होती तो उनके शरीरमें अच्छी ही नहीं जान पड़ती ॥ ४४ ॥ समस्त अच्छे परमाणुओंने विचार किया-हम किसी अच्छे आश्रयके विना रूप तथा शोभाको प्राप्त नहीं हो सकते ऐसा विचार कर ही समस्त अच्छे परमाणु उनकी कमर पर आ कर स्थित हो गये थे और इसीलिए उनकी कमर अत्यन्त सुन्दर हो गई थी॥४५॥ केलेके स्तम्भ आदि पदार्थ अन्य मनुष्योंकी जांघेांकी: उपमानताको भले ही जावें परन्तु भगवान् सुमतिनाथके जांघोंके सामने वे गोलाई आदि गुणांसे उपमेय ही बने रहते थे ॥४६॥ विधाताने उनके सुन्दर घुटने किसलिए बनाये थे यह बात मैं ही जानता हूँ अन्य लोग नहीं जानते और वह बात यह है कि इनकी ऊरुओं तथा जंवाओंमें शोभासम्बन्धी ईर्ष्या न हो इस विचार सेही बीचमें घुटने बनाये थे॥४७॥ विधाताने उनकी जंघाएँ वनसे बनाई थीं, यदि ऐसा न होता तो वे कृश होने पर भी त्रिभुवनके गुरु अथवा त्रिभुवनमें सबसे भारी उनके शरीरके भारको कैसे धारण करतीं ॥ ४८ ॥ यह पृथिवी संपूर्ण रूपसे हमारे तलवोंके नीचे आकर लग गई है यह सोचकर ही मानो उनके दोनों पैर हर्षसे कछुवेकी पीठके समान शुभ कान्तिके धारक हो गये थे । ४६ ॥ इन भगवान् सुमतिनाथमें कर्मोको नष्ट करनेवाले इतने धर्म प्रकट होंगे यह कहनेके लिए
१ मुखस्य । अयं श्लोकः घ० पुस्तके नास्ति । २ वीरलदम्या ख०, ग० ।नैमः ग० । रूपशोभावितानेन ख० । ४ सुष्ठ आश्रयः स्वाश्रयः तस्मात् । ५ निषिद्धये ल० ।
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