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महापुराणे उत्तरपुराणम्
निःसावधोऽस्ति धर्मोऽन्यस्ततः सुखमनुत्तमम् । इत्युदर्को वितर्कोऽस्य विरक्तस्याभवत्ततः॥११॥ राज्यस्य दुर्भरं भारं निवेश्यातिरथे २तुजि। सभरं तपसो भारं बभार स भवान्तकृत् ॥१२॥ जिनाईनन्दनाभ्यासे विदितैकादशाङ्गकः । उदासीनः स्वदेहेऽपि मोहारातिजयेच्छया ॥१३॥ यतोऽभीष्टार्थसंसिद्धिस्तचरन्ति सुमेधसः। श्रद्धानविनयादयुक्तकारणोपाचतीर्थकृत् ॥ १४॥ प्रान्ते संन्यस्य बद्ध्वायुरुत्कृष्टमहमिन्द्रताम् । ४वैजयन्तेऽत्र सम्प्रापदेकारजिशरीरकः ॥ १५ ॥ मासैः षोडशभिः पञ्चदशभिश्च दिनैः श्वसन । त्रयस्त्रिंशत्सहस्त्राब्दैरन्धो मानसमाहरत् ॥१६॥ शुक्ललेश्यः स्वतेजोऽवधीतविष्टपनालिकः । तत्क्षेत्रविक्रिय शस्तदुखारिबलान्वितः ॥ १७ ॥ आहमिन्द्र सुखं मुख्यमणिनामाजवंजवे। निद्वन्द्वं निःप्रवीचारं चिरं नीरागमलामत् ॥ १८ ॥ आयुरन्ते समाधानारास्मिनत्रागमिष्यति । द्वीपेऽस्मिन् भारते वर्षे साकेते वृषभान्वये ॥१९॥ तगोगे क्षत्रियोऽस्तारिः श्लाघ्यो मेघरथोऽभवत् । मङ्गलाऽस्य महादेवी वसुधारादिपूजिता ॥ २० ॥ मघायां श्रावणे मासि रष्टा स्वप्नान् गजादिकान् । आस्य सितद्वितीयायामैक्षिष्टागामुक द्विपम् ॥२१॥ तत्फलान्यवबुध्यात्मपतेः सम्प्राप्य सम्मदम् । नवमे मासि चित्रायां सज्ज्योत्स्नैकादशीदिने ॥ २२॥ त्रिज्ञानधारिणं दिव्यं पितृयोगे सतां पतिम् । जगत्रयस्य भर्तारमहमिन्द्रमलब्ध सा ॥ २३॥ देवेन्द्रास्तं सदा नीत्वा मेरौ 'जन्मसवोत्सवम् । कृत्वा सुमतिसज्ञा च पुनस्तदेहमानयन् ॥ २४ ॥
सकता। हां, पापरहित. एक मुनिधर्म है उसीसे इस जीवको उत्तम सुख प्राप्त हो सकता है । इस प्रकार विरक्त राजाके हृदयमें उत्तम फल देनेवाला विचार उत्पन्न हुआ।॥६-११॥ तदनन्तर संसार का अन्त करनेवाले राजा रतिषेणने राज्यका भारी भार अपने अतिरथ नामक पुत्रके लिए सौंप कर तपका हलका भार धारण कर लिया ॥ १२ ।। उसने अर्हन्नन्दन जिनेन्द्रके समीप दीक्षा धारण की, ग्यारह अङ्गोंका अध्ययन किया और मोह-शत्रुको जीतनेकी इच्छासे अपने शरीरमें भी ममता छोड़ दी ॥ १३ ॥ उसने दर्शनविशुद्धि, विनयसम्पन्नता आदि कारणोंसे तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध किया सो ठीक ही है क्योंकि जिससे अभीष्ट पदार्थकी सिद्धि होती है बुद्धिमान् पुरुष वैसा ही आचरण करते हैं॥१४॥ उसने अन्त समयमें संन्यासमरण कर उत्कृष्ट आयुका बन्ध किया तथा वैजयन्त विमानमें अहमिन्द्र पद प्राप्त किया। वहां उसका एक हाथ ऊँचा शरीर था। वह सोलह माह तथा पन्द्रह दिनमें एक बार श्वास लेता था, तैंतीस हजार वर्ष बाद मानसिक आहार ग्रहण करता था, शुक्ललेश्याका धारक था, अपने तेज तथा अवधिज्ञानसे लोकनाडीको व्याप्त करता था, उतनी ही दूर तक विक्रिया कर सकता था, और लोकनाडी उखाड़ कर फेंकनेकी शक्ति रखता था ॥ १५-१७ ॥ इस संसारमें अहमिन्द्रका सुख ही मुख्य सुख है, वही निर्द्वन्द है, प्रवीचारसे रहित है और रागसे शून्य है। अहमिन्द्रका सुख राजा रतिषेणके जीवको प्राप्त हुआ था ॥१८॥ आयुके अन्तमें समाधिमरण कर जब वह अहमिन्द्र यहाँ अवतार लेनेको हुआ तब इस जम्बूद्वीप-सम्बन्धी भरत-क्षेत्र अयोध्यानगरीमें मेघरथ नामका राजा राज्य करता था। वह भगवान् वृषभदेवके वंश तथा गोत्रमें उत्पन्न हुआ था, क्षत्रिय था, शत्रुओंसे रहित था और अतिशय प्रशंसनीय था। मङ्गला उसकी पट्टरानी थी जो रत्नवृष्टि आदि अतिशयोंसे सन्मानको प्राप्त थी॥१६-२०॥ उसने श्रावणशुक्ल द्वितीयाके दिन मघा नक्षत्र में हाथी आदि सोलह स्वप्न देखकर अपने मुखमें प्रवेश करता हुआ एक हाथी देखा। उसी समय वह अहमिन्द्र रानीके गर्भ में आया ॥ २१ ॥ अपने पतिसे स्वप्नोंका फल जानकर रानी बहुत ही हर्षित हुई। तदनन्तर नौवें चैत्र माहके शुक्लपक्षकी एकादशीके दिन चित्रा नक्षत्र तथा पितृ योगमें उसने तीन ज्ञानके धारक, सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ और त्रिभुवनके भर्ता उस अहमिन्द्रके जीवको उत्पन्न किया ॥ २२-२३ ॥ सदाकी भांति इन्द्र लोग जिन-बालकको सुमेरु पर्वत
१-मनुत्तरम् क०,१०। २ पुत्रे 'तुक तोकं चात्मजः प्रजा' इति कोशः। ३ सुचिरम् ख०, ग.। ४ वैजयन्ते तु ल०।५ भोजनम् । ६ जन्मोत्सवोत्सवम् क०, घ० । जन्ममहोत्सवम् ल०।
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