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एकपञ्चाशत्तम पर्व
लक्ष्मीरनश्वरी तेषां येषां तस्य मते मतिः । देयादादेयवा सद्भिः सोऽस्मभ्यं सुमतिमंतिम् ॥१॥ अखण्डे धातकीखण्डे मन्दरे प्राचि पूर्वगे । विदेहे नयुदक्कूले सुराष्ट्र पुष्कलावती ॥ २ ॥ पुरेऽस्मिन् पुण्डरीकियां रतिषेणो महीपतिः। प्राग्जन्मोपार्जितोदीर्णपुण्यपण्यात्मसास्कृतम् ॥३॥ राज्यं विनिर्जितारातिनिःकोपं नित्यवृद्धिकम् । स्वामिसम्पत्समेतः सन्नीत्या निर्व्यसनोऽन्वभूत् ॥ ४॥ "या स्वस्यैवास्य सा विद्या चतुर्थी न प्रयोगिणी । यदेकस्यापि दण्डेषु वर्तन्ते न पथि प्रजाः ॥५॥ रक्तस्य मनसा तृप्तिः कामः करणगोचरे । स्वेष्टाशेषार्थसम्पत्तेः कामस्तस्य न दुर्लभः ॥ ६॥ अर्थे चतुष्टयी वृत्तिरर्जनादि यथागमम् । देवोऽहनर्थधर्मों च तदनीषल्लभी मती ॥७॥ गच्छत्येवं चिरं काले हेलया पालितक्षितेः । परस्परानुकूल्येन वर्गत्रितयवदिनः ॥८॥
जन्तोः किं कुशलं कस्मात्सुखमेषोऽधितिष्ठति । पर्यायावर्तदुर्जन्मदुर्मृत्यरगदूरगः ॥९॥ - न तावदकामाभ्यां सुखं संसारवर्द्धनात् । नामुष्मादपि मे धर्माचस्मात्सावासम्भवः ॥ १० ॥
अथानन्तर जो लोग सुमतिनाथकी बुद्धिको ही बुद्धि मानते हैं अथवा उनके द्वारा प्रतिपादित मतमें ही जिनकी बुद्धि प्रवृत्त रहती है उन्हें अविनाशी लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है। इसके सिवाय जिनके वचन सज्जन पुरुषोंके द्वारा ग्राह्य हैं ऐसे सुमतिनाथ भगवान् हम सबके लिए सद्बुद्धि प्रदान करें ॥१॥ अखण्ड धातकीखण्ड द्वीपमें पूर्व मेरुपर्वतसे पूर्वकी ओर स्थित विदेह क्षेत्रमें सीता नदीके उत्तर तट पर एक पुष्कलावती नामका उत्तम देश है ॥२॥ उसकी पुण्डरीकिणी नगरीमें रतिषेण नामका राजा था। वह राजा राज-सम्पदाओंसे सहित था, उसे किसी प्रकारका
जत विशाल पुण्यकर्मके उदयसे प्राप्त हुए राज्यका नीति-पूर्वक उपभोग करता था। उसका वह राज्य शत्रुओं से रहित था, क्रोधके कारणोंसे रहित था और निरन्तर वृद्धिको प्राप्त होता रहता था ॥३-४॥ राजा रतिषेणकी जो राजविद्या थी वह उसी की थी वैसी राजविद्या अन्य राजाओंमें नहीं पाई जाती थी। आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्ड इन चारों विद्याओंमें चौथी दण्डावद्याका वह कभी प्रयोग नहीं करता था क्योंकि उसकी प्रजा प्राणदण्ड आदि अनेक दण्डोंमेंसे किसी एक भी दण्डके मार्गमें नहीं जाती थी॥५॥ इन्द्रियों के विषयमें अनुराग रखनेवाले मनुष्यको जो मानसिक तृप्ति होती है उसे काम कहते हैं। वह काम, अपने इष्ट समस्त पदार्थोकी संपत्ति रहनेसे राजा रतिषणको कुछ भी दुर्लभ नहीं था ॥६॥ वह राजा अर्जन, रक्षण, वर्धन और व्यय इन चारों उपायासे धन संचय करता था और आगमके अनुसार प्रह ही देव मानता था। इस प्रकार अर्थ और धर्मको वह कामकी अपेक्षा सुलभ नहीं मानता था अर्थात कामकी अपेक्षा अर्थ तथा धर्म पुरुषार्थका अधिक सेवन करता था ॥७॥इस प्रकार लीलापूर्वक पृथिवीका पालन करनेवाले और परस्परकी अनुकूलतासे धर्म, अर्थ, काम इस त्रिवर्गकी वृद्धि करनेवाले राजा रतिषणका जब बहुत-सा समय व्यतीत हो गया तब एक दिन उसके हृदयमें निम्नाङ्कित विचार उत्पन्न हुआ ॥ ८॥ वह विचार करने लगा कि इस संसारमें जीवका कल्याण करनेवाला क्या है ?
और पर्यायरूपी भँवरामें रहनेवाले दुर्जन्म तथा दुर्मरण रूपी साँसे दूर रहकर यह जीव सुखको किस प्रकार प्राप्त कर सकता है ? अर्थ और कामसे तो सुख हो नहीं सकता क्योंकि उनसे संसारकी ही वृद्धि होती है । रहा धर्म, सो जिस धर्ममें पापकी संभावना है उस धर्मसे भी सुख नहीं हो
. १ यस्य क०, ख०, ग०, घ० । २ मतिर्मतम् क०, ग० । ३ वासिद्धिः ग० । ४ निर्व्यसनन्वभूत् ल.। ५ या स्वस्येष्टा च सा विद्या ग०।
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