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महापुराणे उत्तरपुराणम्
शार्दूलविक्रीडितम् येनाप्तानिमिषेश्वरैरयमयी श्रीः पञ्चकल्याणजा
यस्यानन्तचतुष्टयोज्ज्वलतरा श्रीरक्षया क्षायिकी। यो रूपेण विनापि निर्मलगुणः सिद्धिश्रियालिङ्गिन्तः
स त्रिश्रीरभिनन्दनो निजपतिजीयादनस्तोदयः ॥६८॥
वसन्ततिलका यो रणसञ्चयपुरेशमहाबलाल्यो
योऽनुपरेषु विजयी विजयेऽहमिन्द्रः। यश्चाभिनन्दननृपो वृषमेशवंशे
साकेतपरानपतिः स जिनोऽवताद्वः ॥ १९॥
हरिणीच्छन्दः उभनयभेदाभ्यां विश्व विभज्य विमावयन्
स्वमवविभवभ्रष्ट्यै भक्तया धुभूभिरभिष्टुतः । त्रिभुवनविभुभूयो मण्या भवागवतां मवद्
भयमभिमवन् भूत्यै भूयादभीरमिनन्दनः ॥७॥ इत्या भगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रहे पुराणमिदं समाप्तमभिनन्दन
स्वामिन: पञ्चाशत्तम पर्व ॥५०॥
जिन्होंने इन्द्रोंके द्वारा पञ्च कल्याणकोंमें उत्पन्न होनेवाली पुण्यमयी लक्ष्मी प्राप्त की, जिन्होंने कर्म क्षयसे होनेवाली तथा अनन्तचतुष्टयसे देदीप्यमान अविनाशी अन्तरङ्ग लक्ष्मी प्राप्त की जो रूपते रहित होनेपर भी निर्मल गुणोंके धारक रहे, मोक्षलक्ष्मीने जिनका आलिङ्गन किया, जिनका उदय कभी नष्ट नहीं हो सकता और जो पूर्वोक्त लक्ष्मियोंसे युक्त रहे ऐसे श्री अभिनन्दन जिनेन्द्र सदा जयवन्त रहें ॥ ६८ ॥ जो पहले रनसंचय नगरके राजा महाबल हुए, तदनन्तर विजय नामक अनुत्तर विमानमें विजयी अहमिन्द्र हुए, फिर ऋषभनाथ तीर्थंकरके वंशमें अयोध्या नगरीके अधिपति अभिनन्दन राजा हुए वे अभिनन्दन स्वामी तुम सबकी रक्षा करें ।। ६६ ।। जिन्होंने निश्चय और व्यवहार इन दोनों नयोंसे विभाग कर समस्त पदार्थोंका विचार किया है, अपने भवकी विभूति को नष्ट करने के लिए देवोंने भक्तिसे जिनकी स्तुति की है, जो तीनों लोकोंके स्वामी हैं, निर्भय हैं
और संसारके प्राणियोंका भय दूर करनेवाले हैं ऐसे अभिनन्दन जिनेन्द्र, हे भव्य जीवो ! तुम सबकी विभूतिको करनेवाले हों।।७।। इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध भगवद्गुणभद्राचार्च प्रणीत त्रिषष्टि लक्षण महापुराणके संग्रहमें
श्री अभिनन्दनस्वामीका पुराण वर्णन करनेवाला पचासवाँ पर्व पूर्ण हुआ।
१ पुण्यमयी।
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