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पश्चाशत्तम पर्व
द्वितीयेऽहनि साकेतं बुभुक्षुः प्राविशन् नृपः । तं प्रतीक्ष्येन्द्रदचोऽयं दत्त्वापाश्चर्यपञ्चकम् ॥ ५५ ॥ अथ मौनव्रतेनेते' छाग्रस्थ्येऽष्टादशाब्दके। दीक्षावनेऽसनक्ष्माजमूले षष्ठोपवासिनः ॥ ५५ ॥ सिते पौषे चतुर्दा सायाङ्के भेऽस्य सप्तमे । केवलावगमो जज्ञे विश्वामरसमचिंतः ॥ ५६ ॥ त्रिखैकोक्तगणाधीशैर्वज्रनाभ्यादिनामभिः । खद्वयेन्द्रियपक्षोक्त स्त्यक्ताङ्गैः पूर्वधारिभिः ॥ ५७ ॥ खाक्षखद्वयवहिद्विप्रमालक्षितशिक्षकैः । खद्वयाष्टनवज्ञेयः प्रा स्त्रिज्ञानलोचनैः ॥ ५८ ॥ खन्नयर्वेकसङ्ख्यानैः केवलज्ञानमानिभिः। शून्यत्रितयरन्कमितवैक्रियकद्धिभिः ॥ ५९ ॥ शून्यपश्चतुरुद्रोक्तमनःपर्ययबोधनैः । एकादशसहस्त्रोद्यद्वादिभिर्वन्दितक्रमः॥६०॥ लक्षत्रितयसम्पिण्डिताशेषयतिनायकः । खद्वयतु खवयग्निसङ्ख्याभिरभितो युतः ॥ ६॥ मेरुषेणायिकाद्यायिकाभिर्जगदधीश्वरः । लक्षत्रयोदितोपासकाभ्यचिंतपदद्वयः ॥ ६२॥ लक्षपञ्चप्रमाप्रोक्तश्राविकालोकसंस्तुतः । असख्यदेवदेवीड्य स्तिर्यक्सङ्ख्यातसेवितः ॥ १३॥ इति द्वादशनिर्दिष्टशिष्टभव्यगणाग्रणीः । धर्मवृष्टिं किरन् दूरं विहृत्यार्यावनीतलम् ॥ ६४ ॥ यदृच्छयाप्य सम्मेद स्थित्वा मासं विना ध्वनेः । तात्कालिकक्रियायुक्तो ध्यानद्वयमयोऽमलः ॥ ६५॥ मुनिभिर्बहुभिः प्राहे प्रतिमायोगवानगात् । भे सिते सप्तमे षष्ठ्यां वैशाखेऽयं परं पदम् ॥ ६६ ॥ तदा भक्तया नताष्टाङ्गाः सुरेन्द्राः कृतपूजनाः । नुत्वा तमगमनाकं प्रैलोक्येशं यथायथम् ॥ ७ ॥
रहते वेलाका नियम लेकर एक हजार प्रसिद्ध राजाओंके साथ जिन-दीक्षा धारण कर ली। उसी समय उन्हें मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया ।। ५१-५३ ॥ दूसरे दिन भोजन करनेकी इच्छासे उन्होंने साकेत (अयोध्या ) नगरमें प्रवेश किया । वहां इन्द्रदत्त राजाने पडगाह कर उन्हें आहार दिया तथा पञ्चाश्चर्य प्राप्त किये ॥५४॥
तदनन्तर छमस्थ अवस्थाके अठारह वर्ष मौनसे बीत जाने पर वे एक दिन दीक्षावनमें असन वृक्षके नीचे वेलाका नियम लेकर ध्यानारूढ हुए ॥ ५५ ॥ पौष शुक्ल चतुर्दशीके दिन शामके
य सातवं पुनर्वसु नक्षत्रमें उन्हें केवलज्ञान हुआ, समस्त देवान उनकी पूजा की ॥५६॥ वचनाभि आदि एक सौ तीन गणधर, शरीरसे ममत्व छोड़नेवाले दो हजार पाँच सौ पूर्वधारी, दो लाख तीस हजार पचास शिक्षक, नौ हजार आठ सौ अवधिज्ञानी, सोलह हजार केवलज्ञानी, उन्नीस हजार विक्रिया ऋद्धिके धारक, ग्यारह हजार छह सौ पचास मनःपर्य यज्ञानी और ग्यारह हजार प्रचण्ड वादी उनके चरणोंकी निरन्तर वन्दना करते थे ॥५७-६०॥ इस तरह वे सब मिलाकर तीन लाख मुनियोंके स्वामी थे, मेरुषेणा आदि तीन लाख तीस हजार छह सौ आर्यिकाओंसे सहित थे, तीन लाख श्रावक उनके चरण युगलकी पूजा करते थे, पाँच लाख श्राविकाएँ उनकी स्तुति करती थीं, असंख्यात देव-देवियोंके द्वारा वे स्तुत्य थे, और संख्यात तिर्यञ्च उनकी सेवा करते थे। ६१-६३ ।। इस प्रकार शिष्ट और भव्य जीवोंकी बारह सभाओंके नायक भगवान् अभिनन्दननाथने धर्मवृष्टि करते हुए इस आर्यखण्डकी वसुधा पर दूर-दूर तक विहार किया ॥६४॥ इच्छाके विना ही विहार करते हुए वे सम्मेद गिरि पर जा पहुँचे। वहाँ एक मास तक दिव्य ध्वनिसे रहित होकर ध्यानारूढ रहे, उस समय वे ध्यान कालमें होनेवाली योगनिरोध आदि क्रियाओंसे युक्त थे, समुच्छिन्न क्रियाप्रतिपाती और व्युपरतक्रियानिवर्ती नामक दो ध्यानोंसे रहित थे, अत्यन्त निर्मल थे, और प्रतिमायोगको धारण किये हुए थे। वहींसे उन्होंने वैशाख शुक्ल षष्ठीके दिन प्रातःकालके समय पुनर्वसु नामक सप्तम नक्षत्रमें अनेक मुनियोंके साथ परमपद-मोक्ष प्राप्त किया ।। ६५-६६ ॥ उसी समय भक्तिसे जिनके आठों अङ्ग झुक रहे हैं ऐसे इन्द्रने आकर उन त्रिलोकीनाथ की पूजा की, स्तुति की और तदनन्तर यथाक्रमसे स्वर्गकी ओर प्रस्थान किया ।। ६७ ।।
१मौनवतेन इते गते । २ वैक्रियिकर्द्धिभिः क, ख, ग, घ० । वैकियिकर्षिभिः ल०। ३ संयुतः ल० । ४ देवदेवीभिः क०, घ० | ५ वैशाखेऽयात् परं पदम् ल० ।
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