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पञ्चाशत्तमं पवे
२१ पञ्चाशल्लक्षपूर्वायुः सार्द्धत्रिशतचापमः । २बालेन्दुरिव सज्ज्योत्स्नः पुण्यौधो वा उस्फुरदसः ॥ २७ ॥ । स श्रीवृद्धिं च सम्प्रापत् सर्वानालादयन् गुणैः । चामीकरच्छवियते कौमारे ४कामसारथौ ॥ २८ ॥ पूर्वद्वादशलक्षेषु सार्दुपु प्राप्तवान् स तत् । राज्यं नियोज्य भुक्ष्वेति पितर्याप्त तपोवनम् ॥ २९ ॥ इन्दुः कामयते कान्ति दीप्तिमिच्छ त्यहपतिः। वाञ्छत्यैश्वर्यमस्येन्द्रः शममाशासते स्पृहाः ॥ ३० ॥ निजोत्कृष्टानुभागानामनन्तगुणवृद्धितः । तस्य पुण्याणवः सर्वे फलन्ति स्म प्रतिक्षणम् ॥ ३१ ॥ अभिभूयान्यतेजांसि सर्वप्रकृतिरञ्जनात् । तारेशमंशुमन्तं च जित्वाराजस तेजसा ॥ ३२ ॥ नमिताखिलभूपालमौलिरित्यत्र का स्तुतिः । पुण्यात्मा जन्मतोऽयं चेदमरेन्द्रार्चितक्रमः ॥ ३३ ॥ नेया श्रीरागिणी वास्याभूद्वक्ता कोऽत्र विस्मयः। मोक्षलक्ष्म्या च चेदेष कटाक्षर्गोचरीकृतः ॥ ३४ ॥ शुद्धश्रद्धानमक्षय्यमयस्तीर्थकरातयः । आत्मसम्पदितः कान्या जगत्त्रयजयैषिणः ॥ ३५॥ स धीरललितः पूर्व राज्पे धीरोद्धतो यमी। धीरः प्रशान्तः पर्यन्ते धीरोदात्त्वमीयिवान् ॥ ३६॥ अफलन् शक्तयस्तिस्रः सिद्धि धर्मानुबन्धिनीम् । ता एव शक्तयो या हि लोकद्वयहितावहाः ॥ ३७ ॥ कीती श्रतिः स्तुतौ तस्य गीतिर्वर्णाक्षराङ्किता। प्रातिदृष्टौ जनस्यासीत्स्मृतिश्च गुणगोचरा ॥ ३८॥ गणैः प्रागेव सम्पूर्णः स सर्वैराभिगामिकैः । न चेकि सेवितु गर्भे निलिम्पाः कम्पितासनाः ॥ ३९॥
थी वे मति श्रुत अवधि इन तीन ज्ञानोंसे सुशोभित थे, पचास लाख पूर्व उनकी आयु थी, साढ़े तीन सौ धनुष ऊँचा शरीर था, वे बाल चन्द्रमाके समान कान्तिसे युक्त थे, अथवा जिसका अनुभाग प्रकट हो रहा है ऐसे पुण्य कर्मके समूहके समान जान पड़ते थे ॥२६-२७॥ गुणोंसे सबको आह्लादित करते हुए वे शोभा अथवा लक्ष्मीकी वृद्धिको प्राप्त हो रहे थे। उनकी कान्ति सुवर्णके समान देदीप्यमान थी। कामदेवके सारथिके समान कुमार अवस्थाके जब साढ़े बारह लाख पूर्व बीत गये तब 'तुम राज्यका उपभोग करो' इस प्रकार राज्य देकर इनके पिता बनको चले गये। उसी समय इन्होंने राज्य प्राप्त किया ॥२८-२६ ॥ उस समय चन्द्रमा इनकी कान्तिको चाहता था, सूर्य इनके तेजकी इच्छा करता था, इन्द्र इनका वैभव चाहता था और इच्छाएं इनको शान्ति चाहती थी।॥३०॥ अपने उत्कृष्ट अनुभागबन्धकी अनन्तगुणी वृद्धि होनेसे उनके सभी पुण्य परमाणु प्रत्येक समय फल देते रहते थे ॥ ३१ ॥ उन्होंने अन्य सबके तेजको जीतकर तथा सब प्रजाको प्रसन्न कर चन्द्रमा और सूर्यको भी जीत लिया था इस तरह वे अपने ही तेजसे सुशोभित हो रहे थे। ३१-३२ ।। समस्त राजा लोग इन्हें अपने मुकुट झुकाते थे इसमें उनकी क्या स्तुति थी। क्योंकि ये जन्मसे ही ऐसे पण्यात्मा थे कि इन्द्र भी इनके चरणोंकी पूजा करता था ॥ ३३ ॥ जब मोक्षलक्ष्मी भी इन्हें अपने कटाक्षोंका विषय बनाती थी तब राज्यलक्ष्मी इनमें अनुराग करने लगी इसमें आश्चर्यकी क्या बात है॥३४॥ उनके कभी नष्ट नहीं होनेवाला शुद्ध क्षायिक सम्यग्दर्शन था और तीर्थंकर नामक पुण्य प्रकृति थी। सो ठीक ही है क्योंकि तीनों लोकों पर विजय प्राप्त करनेकी इच्छा रखनेवाले मनुष्यके इससे बढ़कर दूसरी कोनसा आत्मसम्पत्ति है ? ॥ ३५ ॥ व भगवान् कुमार-अवस्था उद्धत थे. संयमी अवस्थामें धीर और प्रशान्त थे तथा अन्तिम अवस्थामें धीर और उदात्त अवस्थाको प्राप्त हुए थे। ३६ ॥ उनकी उत्साह, मन्त्र और प्रभुत्व इन तीनों शक्तियोंने धर्मानुवन्धिनी सिद्धिको फलीभूत किया था सो ठीक ही है क्योंकि शक्तियां वही हैं जो कि दोनों लोकोंमें हित करनेवाली है।॥ ३७॥ उनकी कीर्तिमें शास्त्र भरे पड़े थे, स्तुतिमें वणे और अक्षरोंसे अङ्कित थे, मनुष्योंकी दृष्टिमें उनकी प्रीति थी, और उनका स्मरण सदा गुणोंके विवेचनके समय होता था ॥ ३८ ॥ वे उत्पन्न होनेके पूर्व ही समस्त उत्तम गुणोंसे परिपूर्ण थे। यदि ऐसा न होता तो गर्भमें
१ चापगः ख० । चापसः ग० । २ तलेन्दुरिव घ० । ३ पुण्योघो वा ससद्रसः ग० । पुण्योदावाससदसः
पुण्यौधो वा स्फुटद्रविः ल० । ४ कामतां दधौ क०, ख०, ग० । कामसा दधौ घ० । ५-मीप्स्यत्यहपतिः क०, ख, ग, घ०। ६ रवतेजसा क०, ख०। ७ रागिणी मास्या ग०, ख० । रागिणी सास्या ल० । ८ जयीक्षिणः ग० । जगत्रितयजयैषिणः ल० । अत्र पाठे छन्दोभङ्गः । ६ धोरप्रशान्तः घ०, क० ।
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