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एकपश्चाशत्तमं पर्व
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नवलक्षाब्धिकोटीषु प्रयातेऽनन्तरेऽन्तरे' । तदभ्यन्तरवत्यायुरुदपाद्युदितोदयः ॥ २५ ॥ शून्यषड्वाधिपूर्वायुः शरासत्रिशतोछितिः । सन्तसतपनीयाभः स्वभावसुभगाकृतिः ॥ २६ ॥ शैशवोचितसाथै देवानीतैः सदैधितुः४ । अंशवो वा शिशोरिन्दोळक्त्यास्यावयवा बभुः॥ २७ ॥ तनवः कुञ्चिताः स्निग्धाः मूर्धजाजाम्बवत्विषः। मुखपङ्कजमाशक्य मिलिता वास्य षट्पदाः ॥ २८ ॥ मया त्रैलोक्यराज्यस्य स्नपनान्ते सुरोचमैः । पट्टोऽलम्भीति वास्याधाललाटतटमुमतिम् ॥ २९ ॥ कणी लक्षणसम्पूर्णी नास्य त्रिज्ञानधारिणः । पञ्चवर्षोवशिष्यत्वपरिभूतिं प्रतेनतुः ॥३०॥ सुधु वो न ध्रुवोर्वाच्यो विधमोऽस्य पृथग्विदाम् । अ क्षेपमात्रदतार्थसार्थसन्तपितार्थिनः ॥ ३१ ॥ नेने विलासिनी स्निग्धे त्रिवर्णे तस्य रेजतुः । इष्टाखिलार्थसम्प्रेक्षासुखपर्यन्तगामिनी ॥ ३२ ॥ मया विनाऽऽस्यशोभा स्यात्यसौ नासिका, स्मयम् । उन्मता दधतीवाभाद्वक्त्राब्जामोदपायिनी ॥३३॥ लक्ष्म्यौ कपोलयोलल्या वक्षःस्थलसमाश्रितः । उत्तमाजाश्रयाद् द्वित्वात् जित्वौं वास्य रेजतुः ॥३४॥ जित्वास्य कुन्दसौन्दर्य द्विजराजिय॑राजत । वक्राब्जवाससन्तुष्टा सहासेव सरस्वती॥ ३५॥ नाधरस्याधराख्या स्यात्सप्तमास्वादशालिनः । अधरीकृतविश्वामराधरस्याद्रिशोभिनः ॥ ३६॥
नालप्यते लपस्यास्य शोभा वाग्वल्लभोज्ज्वला । यदि दिव्यो ध्वनिविश्ववाचकोऽस्माद्विनिःसृताः ॥ ३७॥ पर ले गये. वहां उन्होंने जन्माभिषेक-सम्बन्धी उत्सव किया, सुमति नाम रक्खा और फिर घर वापिस ले आये ॥ २४॥ अभिनन्दन स्वामीके बाद नौ लाख करोड़ सागर बीत जानेपर धारण करनेवाले भगवान् सुमतिनाथ उत्पन्न हुए थे। उनकी आयु भी इसी समयमें शामिल थी ॥२५ ॥ इनकी आयु चालीस लाख पूर्वकी थी, शरीरकी ऊंचाई तीन सौ धनुष थी, तपाये हुए सुवर्णके समान उनकी कान्ति थी, और आकार स्वभावसे ही सुन्दर था ॥ २६ ॥ वे देवोंके द्वारा लाये हुए बाल्यकालके योग्य समस्त पदार्थोंसे वृद्धिको प्राप्त होते थे। उनके शरीरके अवयव ऐसे जान पड़ते थे मानो चन्द्रमाकी किरणें ही हों ॥ २७ ॥ उनके पतले, टेढ़े, चिकने तथा जामुनके समान कान्ति वाले शिरके केश ऐसे जान पड़ते थे मानो मुखमें कमलकी आशंका कर भौंरे ही इकठे हुए हों ।। २८ ।। मैंने देवोंके द्वारा अभिषेकके बाद तीन लोकके राज्यका पट्ट प्राप्त किया है। यह सोच कर ही मानो उनका ललाटतट ऊंचाईको प्राप्त हुआ था ।। २६ ॥ तीन ज्ञानको धारण करनेवाले भगवान्के कान सब लक्षणोंसे युक्त थे और पांच वर्षके बाद भी उन्होंने किसीके शिष्य बननेका तिरस्कार नहीं प्राप्त किया था ॥ ३० ॥ उनकी भौंहें बड़ी ही सुन्दर थीं, भौहोंके संकेत मात्रसे दिये हुए धन-समूहसे उन्होंने याचकोंको संतुष्ट कर दिया था अतः उनकी भौंहोंकी शोभा बड़े-बड़े विद्वानों के द्वारा भी नहीं कही जा सकती थी॥३१॥ समस्त इष्ट पदार्थोके देखनेसे उत्पन्न होनेवाले अपरिमित सुखको प्राप्त हए उनके दोनों नेत्र विलास पूर्ण थे. स्नेहसे भरे थे. शक्ल कृष्ण और लाल इस प्रकार तीन वर्ण के थे तथा अत्यन्त सुशोभित होते थे ।। ३२ ॥ मुख-कमलकी सुगन्धिका पान करनेवाली उनकी नाक, 'मेरे विना मुखकी शोभा नहीं हो सकती' इस बातका अहंकार धारण करती हुई ही मानो ऊंची उठ रही थी ॥ ३३ ॥ उनके दोनों कपोलोंकी लक्ष्मी उत्तमाङ्ग अर्थात् मस्तकका आश्रय होने तथा संख्यामें दो होनेके कारण वक्षःस्थल पर रहनेवाली लक्ष्मीको जीतती हुई-सी शोभित हो रही थी ॥३४।। उनके दांतोंकी पंक्ति कुन्द पुष्पके सौन्दर्यको जीतकर ऐसी सुशोभित होरहीथी मानो मुख कमलमें निवास करनेसे संतुष्ट हो हँसतीहुई सरस्वतीहीहो॥३५॥जिन्होंने समस्त देवोंको तिरस्कृत कर दिया है, सुमेरुपर्वतकीशोभा बढ़ाई है और छह रसोंके सिवाय सप्तम अलौकिक रसके आस्वादसे सुशोभित हैं ऐसे उनके अधरों (ओठों) की अधर (तुच्छ) संज्ञा नहीं थी ॥३६।।जिससे समस्त पदार्थों का उल्लेख करनेवाली दिव्यध्वनि प्रकट हुई है ऐसे उनके मुखकी शोभा तो कही ही
१ प्रयातेऽनन्तरान्तरे ग०, क० । २ द्युतितोदितः क०, ख०, ग० । द्युतितोदितम् प० । ३ त्रिशतोछितः क०, घ०। ४ सदैव च ग०। ५ वास्यागाल्ललाट-ख०, ग० । ६ श्रास्यशोभा-मुखशोभा। ७-माश्रितः ल०। -वराज्यस्य क०, ख०, ग०, प० ।
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