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महापुराणे उत्तरपुराणम्
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'सुधीः कथं सुखांशेप्सुविषयामिषगृद्धिमान् । न पापबडिशं पश्येन चेदनिमि पायते ॥ ६५ ॥ मूढः प्राणी परां प्रौढिमप्राप्तोऽस्त्वहिताहितः 3 | अहितेनाहितोऽहं च कथं बोधनयाहितः ॥ ६६ ॥ निरङ्कुशं न वैराग्यं यादृग्ज्ञानं च तादृशम् । कुतः स्यादात्मनः स्वास्थ्यमस्वस्थस्य कुतः सुखम् ॥ ६७ ॥ पञ्चकनवद्वयुक्तैः पूर्वे राज्येऽवसाधिते । सह द्वादशपूर्वाङ्गः स्वस्मिन्नेवेत्यचिन्तयत् ॥ ६८ ॥ स्तुतस्तदैव संस्तोत्रैः सर्वैः सारस्वतादिभिः । अभिषेकं सुरैराप्य देवोढाभययानकः ॥ ६९ ॥ दीक्षां षष्ठोपवासेन सहेतुकवनेऽगृहीत् । सिते राज्ञां सहस्रेण सुमतिर्नवमीदिने ॥ ७० ॥ मधाश शिनि वैशाखे पूर्वाह्ने संयमाश्रयम् । तदैवाविरभूदस्य ममः पर्ययसम्ज्ञकम् ॥ ७१ ॥ पुरं सौमनसं नाम भिक्षायै पश्चिमे दिने । प्राप्तं " प्रतीक्ष्य पद्मोऽगात्पूजां चुम्नद्युतिर्नृपः ॥ ७२ ॥ सामायिक समादाय समौनः शान्तकल्मषः । तपस्तेपे समाधानात्सहिष्णुदुस्सहं, परैः ॥ ७३ ॥ विशतिं वत्सरान्नीत्वा छद्मस्थः प्राक्तने वने । प्रियङ्गुभूरुहोऽधस्तादुपवासद्वयं श्रितः ॥ ७४ ॥ मघा चैत्रमासस्य धवलैकादशीदिने । पश्चिमाभिमुखे भानौ कैवल्यमुदयादयत् ॥ ७५ ॥ सुरैः सम्प्रासतत्पूजो गणेशैश्चामरादिभिः । स सप्तर्द्धिभिरभ्यर्च्यः सषोडशशतोन्मुखैः ॥ ७६ ॥ शून्यद्वय चतुःपक्षमितपूर्वधरानुगः । खपञ्चत्रिचतुः पञ्चपक्षोक्तैः " शिक्षकैर्युतः ॥ ७७ ॥
लक्ष्मी इन दोनोंमें समय व्यतीत करते हुए भगवान् सुमतिनाथ संसार से विरक्त हो गये सो ठीक है क्योंकि निकट भव्यपना इसी को कहते हैं ।। ६४ ।। भगवान्ने विचार किया कि अल्प सुखकी इच्छा रखनेवाले बुद्धिमान् मानव, इस विषयरूपी मांसमें क्यों लम्पट हो रहे हैं। यदि ये संसार के प्राणी मछली समान आचरण न करें तो इन्हें पापरूपी वंसीका साक्षात्कार न करना पड़े ।। ६५ ।। जो परम चातुर्यको प्राप्त नहीं है ऐसा मूर्ख प्राणी भले ही अहितकारी कार्योंमें लीन रहे मैं तो तीन ज्ञानोंसे सहित हूँ फिर भी अहितकारी कार्योंमें कैसे लीन हो गया ? ॥ ६६ ॥ परन्तु जब तक यथेष्ट वैराग्य नहीं होता और यथेष्ट सम्यग्ज्ञान नहीं होता तब तक आत्माकी स्वस्वरूपमें स्थिरता कैसे हो सकती है ? और जिसके स्वस्वरूपमें स्थिरता नहीं है उसके सुख कैसे हो सकता है ? ॥ ६७ ॥ राज्य करते हुए जब उन्हें उन्तीस लाख पूर्व और बारह पूर्वाङ्ग बीत चुके तब अपनी आत्मामें उन्होंने पूर्वोक्त विचार किया ।। ६८ ।। उसी समय सारस्वत आदि समस्त लौकान्तिक देवोंने अच्छे-अच्छे स्तोत्रों द्वारा उनकी स्तुति की, देवोंने उनका अभिषेक किया और उन्होंने उनकी अभय नामक पालकी उठाई ॥ ६६ ॥ इस प्रकार भगवान् सुमतिनाथने वैशाख सुदी नवमीके दिन मघा नक्षत्रमें प्रातःकालके समय सहेतुक वनमें एक हजार राजाओंके साथ वेलाका नियम लेकर दीक्षा धारण कर ली। संयमके प्रभावसे उसी समय मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया ।।७०-७१ ।। दूसरे दिन वे भिक्षाके लिए सौमनस नामक नगर में गये । वहाँ सुवर्णके समान कान्तिके धारक पद्मराजाने पडगाह कर आहार दिया तथा स्वयं प्रतिष्ठा प्राप्त की ।। ७२ ।। उन्होंने सर्वपापकी निवृत्ति रूप सामायिक संयम धारण किया था, वे मौनसे रहते थे, उनके समस्त पाप शान्त हो चुके थे, वे अत्यन्त सहिष्णु - सहनशील थे और जिसे दूसरे लोग नहीं सह सकते ऐसे तपको बड़ी सावधानीके साथ तपते थे ।। ७३ । उन्होंने छद्मस्थ रहकर बीस वर्ष बिताये । तदनन्तर उसी सहेतुक वनमें प्रिय वृक्षके नीचे दो दिनका उपवास लेकर योग धारण किया ।। ७४ ।। और चैत्र शुक्ल एकादशीके दिन जब सूर्य पश्चिम दिशाकी ओर ढल रथा था तब केवलज्ञान उत्पन्न किया ।। ७५ ।। देवोंने उनके ज्ञान-कल्याणककी पूजा की। सप्त ऋद्धियोंके धारक अमर आदि एक सौ सोलह गणधर निरन्तर सम्मुख रह कर उनकी पूजा करते थे, दो हजार चार सौ पूर्वधारी निरन्तर उनके साथ
१ श्रयं श्लोकः घ० पुस्तके नास्ति । २ श्रनिमिषो मत्स्यस्तद्वदाचरतीति - अनिमिषायते 'पाठीनोऽनिमिषस्तिमिः' इति धनञ्जयः । ३ परां प्रौढिं विज्ञतामप्राप्तो मूढः प्राणी अहिते - हितकरे कार्ये श्राहित श्रासक्तः श्रस्तु भवतु किन्तु बोधत्रयेण युक्तोऽहं हितेन कथ माहित इत्याश्चर्यम् । ४ संयमाश्रयात् ग० । ५ प्राप्ते ग० । ६ केवल्यमुपपादिवान् ल० । ७ पक्षोत्तरैः ल० ।
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