________________
मानव विश्वबन्धुत्व की भावना से प्रोत-प्रोत होकर स्व-पर के कल्याण में निरत रहे । इस तथ्य का साक्षी है प्राचार्य प्रभव द्वारा अपने उत्तराधिकारी के सम्बन्ध में अर्द्धरात्रि के समय चिन्तन, यज्ञानुष्ठान में निरत ब्राह्मण, सद्गृहस्थ सय्यंभव का चयन, प्रतिवोधन, दीक्षण, अध्यापन और प्राचार्य पद पर मनोनयन ।' प्राचार्य प्रभव के प्राचार्य काल में श्रमण संघ बड़ा विशाल था। उनके सुविशाल शिष्य समूह में अनेक श्रमण द्वादशांगी के पारंगत और चतुर्दश पूर्वधर होंगे पर तात्कालिक परिस्थितियों में अपने पश्चात् प्राचार्यपद के लिये जिन प्रकृष्ट गुणों की आवश्यकता थी, वे गुण प्राचार्य प्रभव ने गृहस्थ सय्यंभव ब्राह्मण में पाये और उन्होंने प्राचार्य पद के लिये अपने दीक्षावृद्ध, ज्ञानवृद्ध और विद्वान् शिष्यों में से किसी को न चुनकर उनसे पश्चाद् दीक्षित आर्य सय्यंभव को चुना।
भगवान महावीर द्वारा अपने धर्मसंघ के संचालन के लिये जो प्रणाली निर्धारित की गई वह एक ऐसी सुन्दर, सुनियोजित, सहज सुव्यवहार्य, समीचीन, श्रेयस्कर एवं स्वस्थ सांकुश एकतन्त्री परम्परा थी, जिसमें संघ के सर्वोपरि अधिनायक प्राचार्य के प्रति अगाध श्रद्धा और पूर्ण विश्वास के उपरान्त भी उसमें पूर्वाग्रह विहीन उन्मुक्त चिन्तन के लिये पूर्ण अवकाश था । विचार स्वातन्त्र्य के लिये द्वार उन्मुक्त थे । निर्णय से पूर्व उस कार्य के प्रौचित्यानौचित्य के सम्बन्ध में अपना-अपना अभिमत प्रकट करने का संघ को पूर्ण अधिकार था।
यदि संक्षेप में कहा जाय तो वह संघ के अंकुश सहित एक ऐसी एकतन्त्रीय शासन प्रणाली थी, जिसमें एकान्तिकता अथवा निरंकुशता नाम मात्र को भी नहीं थी। सब के विचारों के प्रति सम्मान और समादर रखा जाता था। सामष्टिक रूप से विवेक की कसौटी पर कसे जाने के अनन्तर ही पेचीदा प्रश्नों पर प्राचार्य द्वारा निर्णय लिया जाता था।
स्थविर आदि विशिष्ट श्रमणों के सुदूरस्थ प्रदेशों में विचरण करने की दशा में अथवा किसी प्रकार की अन्य अपरिहार्य परिस्थितियों में जहां समष्टि का अभिमत लिया जाना संभव नहीं होता उस स्थिति में यदि किसी प्रात्यन्तिक महत्त्व के प्रश्न पर प्राचार्य अपना निर्णय देते तो उनका निर्णय सर्वोपरि और सर्वमान्य होता था। तदनन्तर उपयुक्त अवसर उपस्थित होते ही सामूहिक रूप से उस पर पुनर्विचार करने की स्थिति में यदि उस निर्णय में परिवर्तन करना अनिवार्य समझा जाता तो निस्संकोच भाव से प्राचार्य की विद्यमानता में प्राचार्य द्वारा और प्राचार्य के दिवंगत हो जाने की दशा में श्रमण संघ द्वारा उस निर्णय में आवश्यक परिवर्तन भी कर दिया जाता था। किन्तु इस प्रकार की परिस्थितियां कादाचित्क ही होती थी क्योंकि संघहित को सदा लक्ष्य में रखने वाले दूरदर्शी आचार्य प्रत्येक कार्य के प्रौचित्यानौचित्य पर पूरी तरह विचार करने के पश्चात् ही निःस्वार्थ, निर्लेप एवं निर्मोह भाव से निर्णय लेते थे।
' प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ. ३१२-३१४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org