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सेना में, राज्य के प्रमुख पदों पर और युद्ध की दृष्टि से देश के महत्त्वपूर्ण स्थानों पर अपने कुटुम्ब के, अपनी जाति के और अपने देश के लोगों को अधिकाधिक संख्या में नियुक्त करना, जमाना और शासित देश की सैनिक जातियों एवं शाक्तियों को नष्ट करना मात्र रहता है। विदेशी शासक के अन्तर्मन में जन सेवा, प्रजावत्सलता और राष्ट्र को सशक्त, सुसम्पन्न, समृद्ध समुन्नत बनाने की भावना वस्तुतः नाममात्र को भी नहीं रहती ।
पर जहाँ तक धर्म संघ की व्यवस्था का प्रश्न है, उसकी सांकुश एकतन्त्री शासन प्रणाली अर्थात् मिश्र शासन प्रणाली में चैत्यवास-संस्थापन जैसे अत्यल्प अपवादों को छोड़ कर इस प्रकार के दोषों के उत्पन्न होने की संभावनाएँ नहीं रहती हैं। किसी राज्य अथवा राष्ट्र की एकतन्त्रीय शासन प्रणाली को सदोष एवं प्रनिष्टकर बना देने वाले मुख्यतया जो दो कारण बताये गये हैं, उसी राजवंश के व्यक्ति को सिंहासनारूढ़ करना और विदेशी प्राक्रान्ता द्वारा बलात् राज्यसत्ता को हथिया लेना, इन दोनों कारणों की एक धर्म संघ के संचालन की एकतन्त्री व्यवस्था प्रणाली में तो कल्पना तक नहीं की जा सकती। ऐसी स्थिति में एकतन्त्रीय शासन प्रणाली के इन दो विनाशकारी मूल दोषों से धर्म-संघ सर्वथा अछूता रह सकता है । इनके अतिरिक्त धर्मसंघ की एक तन्त्रीय व्यवस्था प्रणाली में धर्मसंघ को अधःपतन की ओर ले जाने वाले साधारणतः जिन दोषों की संभावना की जा सकती है, उनमें प्रथम है आचार्य पर संघ का अंकुश न रखना tear किसी योग्य व्यक्ति को प्राचार्य पद पर अधिष्ठित कर देना । श्राचार्य में जिन जिन गुणों का होना आवश्यक है उन गुरणों से विपरीत जितने भी अवगुण हैं उनमें से प्रत्येक वरण किसी भी श्रमरण को प्राचार्य पद के लिये प्रयोग्य ठहराने में पर्याप्त माना जाता रहा है। जो उत्सूत्र प्ररूपक, अदूरदर्शी, शिथिलाचारी, स्वार्थी, निष्प्रभ, निस्तेज, अशक्त हो, अंग-वाचना, प्रवचन, धर्म प्रभावना, संघ-संचालन, संघोत्कर्ष में प्रकुशल, हो उग्र एवं अस्थिर स्वभाव वाला और श्रवशेन्द्रिय हो, मुख्यतः वह श्रमण श्राचार्य पद के लिये प्रयोग्य माना गया है ।
वस्तुतः सर्वाधिक सुयोग्य एवं आचार्य पद के लिये आवश्यक सर्वगुरणों से सम्पन्न श्रमण को ही प्राचार्य पद पर नियुक्त किये जाने का विधान रखा गया है। किन-किन प्रकार के विशिष्ट गुणों से सम्पन्न श्रमण को प्राचार्य पद पर मनोनीत किया जाता था और इस कार्य में किस प्रकार पूर्ण सतर्कता और जागरूकता से काम लिया जाता था, यह - "निर्वाणोत्तर काल में संघ व्यवस्था का स्वरूप इस शीर्षक के नीचे आगे दिये जा रहे आचार्य के गुणों एवं संपदाओं विवरण से भली भांति प्रकट हो जाता है ।
प्रायः सभी प्राचार्य अपने जीवन काल में ही सतत प्रयत्नशील रहते थे कि ऐसे योग्यतम व्यक्ति को अपने उत्तराधिकारी के रूप में शिक्षित - दीक्षित किया जाय, जिसके सुदृढ़ नेतृत्व में संघ उत्तरोत्तर उत्कर्ष की ओर अग्रसर होता रहे, विश्व कल्याणकारी श्रहिंसा-धर्म का उद्योत दिग्दिगन्त में व्याप्त हो जाय, प्रत्येक
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