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अथवा विशृंखलता को दूर करने के उद्देश्य से द्वितीय बौद्ध संगीति के समय संघ व्यवस्था के नियमों में वैयक्तिक अधिकारों के आधार पर कुछ परिवर्तन किये जाने लगे तो वज्जीवंशी 'वज्जि पुत्रक' नामक भिवखु, जो कि लिच्छवी गणतन्त्र के अंगभूत प्रजातान्त्रिक वज्जीसंघ के सदस्य रह चुके थे, बौद्ध भिक्षु संघ से पृथक् हो गये । जब वज्जिपुत्रक भिक्खु ने देखा कि बौद्ध भिक्षुसंघ पर व्यक्तिनिष्ठ अधिनायकवाद छा रहा है, भिक्षुत्रों की स्वतन्त्रता पर वैयक्तिक आधिपत्य छा जाना चाहता है तो उन्होंने पृथकतः, अपने विचारों से सहमत भिक्षुत्रों का, एक संघ स्थापित किया और उस संघ का नाम वज्जिपुत्रक संघ रखा ।
इस प्रकार इतिहास साक्षी है कि प्रजातान्त्रिक प्रणाली के आधार पर निर्धारित की गई संघीय व्यवस्था के कारण बौद्ध भिक्षुसंघ बुद्ध से थोड़े समय पश्चात् ही विशृंखल होने लगा । विदेशी कुषारणवंशी सम्राट् कनिष्क ( वीर नि० की सातवीं शताब्दी का प्रारम्भिक काल ) के समय तक विघटित होते होते अनेक खण्डों में विभक्त होगया और कालान्तर में तो वह आर्यधरा से प्रायः विलुप्त ही हो गया । निस्संदेह, विदेशों में बौद्धधर्म का असाधारण प्रचार प्रौर विस्तार हुआ पर सुयोग्य एवं सांकुश एकतन्त्री संचालन प्रणाली के प्रभाव में परिवर्तन पर परिवर्तन होते रहने के कारण उसकी मौलिकता स्थिर नहीं रह पाई ।
एकतन्त्री व्यवस्था - प्रणाली में भी अधिनायक के मनोनयन के समय यदि समुचित सतर्कता, जागरूकता न वर्ती जाय और उस पर सुयोग्य एवं सजग अंकुश न रखा जाय तो उसके बड़े भयंकर दुष्परिणाम हो सकते हैं । इतिहास में इस प्रकार के अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं कि सर्वाधिक सुयोग्य व्यक्ति के स्थान पर किसी योग्य व्यक्ति को किसी धर्म संघ, राज्य अथवा राष्ट्र का सर्व सत्ता सम्पन्न अधिनायक बना दिये जाने की स्थिति में उस राज्य, राष्ट्र अथवा धर्म संघ को कितनी बड़ी-बड़ी क्षतियां उठानी पड़ी हैं। जहां तक एकतन्त्री राज्य सत्ता का प्रश्न है, उसमें इस प्रकार के दोषों और दुष्परिणामों की संभावना दो कारणों से अधिक रहती है । प्रथम कारण तो यह रहा है कि एक राजा की मृत्यु के पश्चात् वंश परम्परागत प्रथा के अनुसार उसके पुत्र को, चाहे वह अयोग्य ही क्यों न हो राज्य सिंहासन पर अभिषिक्त कर उसे राज्य का सर्व सत्ता सम्पन्न निरंकुश अधिनायक बना दिया जाना। दूसरा कारण रहा है विदेशी प्रातताइयों अथवा श्राक्रान्ताओं द्वारा राज्यसत्ता पर बलपूर्वक अपना आधिपत्य स्थापित कर लेना । ये दोनों ही स्थितियां राज्य, राष्ट्र और जन साधारण के लिये बड़ी दुःखद, विनाशकारी एवं भयावह होती हैं। पहली स्थिति में अधिनायक शास्ता की अकर्मण्यता के कारण शासन में दौर्बल्य प्रजा में निराशा एवं प्रविश्वास घर करने लगता है,
वांछनीय तत्त्व उभर कर सक्रिय हो उठते हैं, जनहित, उत्पादन, अभिवृद्धि, शक्ति संचय आदि के आवश्यक कार्य और राज्य की आय के स्रोत अवरुद्ध हो जाते हैं । दूसरे प्रकार की स्थिति में विदेशी शासन का मुख्य उद्देश्य येन केन प्रकारेण धन संचय करना अपने शासन को चिरस्थायी बनाने के लिये अपनी
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