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दो प्रणालियां प्रधान मानी गई हैं - प्रथम एकतन्त्रीय प्रणाली और दूसरी प्रजातन्त्रीय प्रणाली।
तीर्थप्रवर्तन-काल से लेकर आज तक के भगवान महावीर के धर्मसंघ के इतिहास का समीचीनतया पर्यालोचन करने के पश्चात् यही तथ्य प्रकट होता है कि प्रारम्भ से ही इसका संचालन एक ऐसी सुन्दर एवं सुदृढ़ प्रणाली से किया जाता रहा है जिसे न विशुद्ध एकतन्त्री प्रणाली ही कहा जा सकता है और न पूर्ण प्रजातान्त्रिक ही। महावीर यद्यपि लिच्छविराजकुमार थे। लिच्छवि गणतंत्र उनके समय का एक प्रमुख प्रजातान्त्रिक गणराज्य था। पर कैवल्योपलब्धि के अनन्तर तीर्थ-प्रवर्तन के समय उन्होंने अपने धर्म संघ के संचालन के लिए प्रजातान्त्रिक प्रणाली एवं एकतन्त्रीय प्रणाली के केवल गुरणों को ग्रहण कर मिश्र प्रणाली को अधिक उपयुक्त समझा । यद्यपि वे प्रजातान्त्रिक परम्परा से पाये थे परन्तु त्रिकालदर्शी-सर्वज्ञ हो जाने पर उन्होंने देखा कि उनका धर्म संघ एकान्ततः प्रजातान्त्रिक अथवा एकतंत्री प्रणाली का अनुसरण कर चिरकाल तक अपने वास्तविक स्वरूप में अजस्र एवं निर्द्वन्द्व रूप से नहीं चल सकेगा। केवल प्रजातान्त्रिक पद्धति से संघसंचालन की व्यवस्था में उन्हें अपने धर्म संघ का चिरस्थायी जीवन प्रतीत नहीं हमा।
__ संघ-व्यवस्था के आद्योपान्त स्वरूप के अध्ययन से तथा भगवान द्वारा की गई पद व्यवस्था से यही तथ्य प्रकट होता है कि भगवान महावीर ने संघसंचालन के लिए प्रजातान्त्रिक प्रणाली के अंकुश सहित सुयोग्य वैयक्तिक अधिकार प्रधान एकतंत्री व्यवस्था प्रणाली को अधिक श्रेयस्कर समझा। संघ तथा प्राचार के प्रति अनन्य निष्ठावान, प्रत्युत्पन्नमति, शासननिपुरण, प्रोजस्वी, प्रतिभाशाली व्यवहारकुशल एवं योग्यतम अधिकारिक व्यक्ति के सांकुश अधिनायकत्व में अपने धर्म संघ का चिर जीवन तथा चिरस्थायी हित समझकर भगवान महावीर ने संघ के संचालन के लिए एक मिश्रित प्रणाली निर्धारित की। प्रनादिकालीन 'पंचपरमेष्ठि नमस्कारमंत्र' के पांचों पदों से भी यही सिद्ध होता है कि जैन धर्म संघ में अनादि काल से दोनों प्रणालियों के दोषों से मुक्त एवं गुणों से युक्त मिश्र शासन-व्यवस्था रही है। अहंतों के पश्चात् प्राचार्यों का धर्म संघ में सदा-सर्वदा सर्वोपरि स्थान माना जाता रहा है पर प्राचार्य सदा संघ के प्रति उत्तरदायी रहे हैं।
इतिहास साक्षी है कि जहां उदायी, अशोक, संप्रति और विक्रमादित्य जैसे एकतन्त्री शासक कर्तव्यपरायणतापूर्वक प्रजावत्सल न्यायनिष्ठ और सेवाव्रती बने रहे, वहां धर्म, समाज एवं राष्ट्र ने सर्वतोमुखी प्रगति की। इसके विपरीत कुछ अपवादों को छोड़ यह कटुसत्य सर्वविदित है कि प्रजातांत्रिकता में प्रभाव, अभियोग, अनुतरदायित्व, अनिश्चितता, अस्थिरता, विषाक्त प्रतिस्पर्धाजन्य अशान्ति का प्राधिक्य रहा। प्रजातान्त्रिक प्रणाली में जहां एक मोर अनेक गुण हैं वहां दूसरी ओर बहुत बड़ा अवगुण भी है। वहां अधिकारी और अधिकृत, बड़े
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