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एवं उपयोगी ग्रंथ में कुल मिलाकर २३ प्राचार्यों एवं महाकवि धनपाल के जीवन की कतिपय प्रमुख घटनाओं का विवरण दिया है। प्राचार्य प्रभाचन्द्र के समय में प्राचीन ग्रन्थ भी प्राज की अपेक्षा निश्चित रूप से कुछ अधिक मात्रा में उपलब्ध रहे होंगे। इतिहास साक्षी है कि प्राचार्य प्रभाचन्द्र के पश्चाद्वर्ती काल में प्राततायी विदेशी प्राक्रान्ताओं ने भारतीय संस्कृति की अमूल्य निधि के रूप में सुरक्षित ग्रन्थागारों, पुस्तकभण्डारों एवं स्वरणपत्र, ताम्रपत्र, प्रस्तर, भित्ति प्रादि पर शताब्दियों पूर्व उत्कीर्ण किए गए अभिलेखों को नष्ट-निश्शेष-करने में किसी प्रकार की कोर-कसर नहीं रखी। एक यवन माक्रान्ता ने तो अपनी सैनिक-पाक शाला-में शताब्दियों के प्रथक श्रम से लिखे गये भारतीय संस्कृति के प्राचीन ग्रंथों को इंधन की जगह जलाने के काम में लेकर छः महीनों तक विशाल सेना के लिए भोजन बनवाया, और स्नानार्थ पानी गरम करवाया।
___ वर्गविद्वेष, धार्मिक असहिष्णुता आदि के फलस्वरूप समय-समय पर भारत के विभिन्न प्रदेशों में उत्पन्न हुए आन्तरिक कलहों ने भी भारतीय संस्कृति के अवशेषों, स्मारकों, धर्मस्थानों, तीर्थस्थानों एवं ग्रन्थागारों प्रादि को भयंकर क्षति पहुंचाई।
केवल २३ प्राचार्यों के जीवनवृत्त का प्रालेखन करते समय प्राचार्य प्रभाचंद्र द्वारा अभिव्यक्त किए गए उपर्युल्लिखित उद्गारों और उनसे अवांतरवर्ती काल में हुई पुरातन साहित्य की दुखद महती क्षति के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर स्वत: ही स्पष्ट हो जाता है कि ईसा पूर्व ५२७ से ई० सन् ४७३ (वीर नि० सं० सं०१ से १०००) तक का १००० वर्ष का जैन धर्म का सर्वांगपूर्ण इतिहास शृंखलाबद्ध रूप में सम्पत्र करना कितना कठिन, कितना दुरूह, दुस्साध्य एवं श्रमापेक्षी कार्य है। पर इन सब कठिनाइयों से हतोत्साहित हो इस दिशा में प्रयास न करने की स्थिति में तो प्रत्येक जैनी के हृदय में खटकने वाली इतिहास के अभाव की कमी कभी दूर नहीं होने वाली है, यह विचार कर इस कार्य को हाथ में लिया गया।
पुरातन प्रामाणिक मापार - हमने अंगों, उपांगों, नियुक्तियों, चूरियों, टोकानों, भाष्यों, चरित्रग्रन्थों, कथाकोषों, स्थविरावलियों, पट्टावलियों, जैन एवं वैदिक परम्परा के पुराणों, विभिन्न इतिहास-ग्रन्थों, बौद्ध परम्परा के ग्रन्थों, शिलालेखों, प्रकीर्णक ग्रन्थों एवं सभी प्रकार की उपलब्ध सामग्री के पर्यवेक्षणपर्यालोचन के माध्यम से प्रामाणिक साधनों के आधार पर अथ से इति तक शृंखलाबद्ध रूप में जैन इतिहास के पालेखन की अमिट अभिलाषा लिये यथामति कुछ लिखने का प्रयास किया है। प्रारम्भ से लेकर अन्त तक इस ग्रन्थ के लेखन में इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखा गया है कि थोथी कल्पनाओं और निर्मूल अनुश्रुतियों को महत्व न देकर प्राचीन ग्रन्थों एवं अभिलेखों के आधार पर प्रामाणिक ऐतिहासिक तथ्यों का ही निरूपण किया जाय। इसी प्रकार बहत-सी चमत्कारिक रूप से चित्रित घटनाओं को भी इस ग्रन्थ में समाविष्ट नहीं किया
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