________________
की श्रौर कल्पसूत्रीया स्थविरावली इन तीनों स्थविरावलियों में 'दत्तिल' नामक किसी श्राचार्य का नाम उपलब्ध नहीं होता है । हां वाचनाचार्य परम्परा की ( नन्दीसूत्रीया). स्थविरावली के २६ वें (प्रार्य धर्म, भद्रगुप्त, वज्र, रक्षित और गोविन्द - इन पांचों के नाम वाचनाचार्यों में सम्मिलित न किये जाने की दशा में २४ वें )' श्राचार्यं तथा युगप्रधानाचार्य परम्परा की पट्टावली के २६ वें श्राचार्य का नाम भूत दिन्न है । लेख सं० ९२ में उट्टंकित 'दत्तिल' और इन दोनों पट्टावलियों में उल्लिखित 'दिन' ये दोनों (दत्तिल और दिन) शब्द वस्तुतः दत्त शब्द के प्राकृत रूप हैं । आर्यं भूतदिन का युगप्रधानाचार्य काल वीर नि० सं० ६०४ से ६८३ माना गया है। 3 इस लेख सं० ६२ में गुप्त सं० ११३ उत्कीर्ण किया हुआ है, जो वीर नि० सं० ६६० अर्थात् प्राचार्य भूत दिन के प्राचार्य काल का ही समय है । इससे यह प्रमाणित होता है कि उपरिलिखित लेख सं० ९२ में कोट्टि गरण की विद्याधरी शाखा के जिन दत्तिलाचार्य का उल्लेख है, वे वस्तुतः नन्दि स्थविरावली के वाचनाचार्य श्रौर युगप्रधान पट्टावली के युगप्रधान प्राचार्य भूतदिन ही हैं ।
-
युग प्रधानाचार्य भूतदिन की ही तरह लेख सं० ५२ के गरि समदि वस्तुतः वाचक परम्परा के १५ वें वाचनाचार्य श्रार्यं समुद्र, लेख सं० ४१ और ६१ के श्रार्य नन्दिक व गरिनन्दि १७ वे वाचनाचार्य नन्दिल और लेख सं० ५४ औौर ५५ के क्रमश: घस्तु हस्ति और हस्तहस्ति १५ वें वाचनाचार्य श्रार्य नागहस्ती ही हैं । नन्दिसूत्रीया स्थविरावली में इन चारों वाचनाचार्यों के नाम इसी क्रम से एक के पश्चात् एक हैं ।
आर्य सुधर्मा से लेकर देवद्धि क्षमाश्रमण तक एक हजार वर्ष की लम्बी कालावधि में अनेक प्राचार्य एवं उनके प्राज्ञानुवर्ती सहस्रों महान् प्रभावक श्रमण हुए, सहस्रों प्रभाविका श्रमणियां हुईं, जिन्होंने भारत जैसे प्रतिविशाल देश के कोने-कोने में विचरण कर प्राणिमात्र को अभयदान देने वाले प्रभु महावीर के अहिंसा-सत्य-अस्तेय ब्रह्मचर्य - अपरिग्रह मूलक विश्वकल्याणकारी धर्म का प्रचारप्रसार किया। कालान्तर में क्रमशः हुए गरणभेद, परम्पराभेद, मान्यताभेद, संघविभाजन, गच्छोपगच्छ- कुलोपकुलजन्य विभिन्न भेद-प्रभेदों के अनन्तर एक ही समय में एक-एक प्रदेश को, एक-एक क्षेत्र को पृथकतः अपना कार्यक्षेत्र चुनकर जैन धर्म का प्रचार-प्रसार करने वाले अनेक आचार्य हुए। उनमें से कतिपय महापुरुषों ने स्वर्णभूमि, सिंहल आदि सुदूरस्थ एवं दुर्गम देशों में जाकर वहां पर भी जनमानस में जैन धर्म के प्रति प्रगाढ़ निष्ठा उत्पन्न की एवं वहां के लोगों को जैनधर्मावलम्बी बनाया । उक्त १००० वर्ष की अवधि में हुए ग्रनेक राजाओं, महाराजाश्रों,
१ प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ० ४७२-७३
२ दिन भर दत्तिल दोनों शब्द दत्त शब्द के प्राकृत रूप होते हैं ।
[जैन शिलालेख संग्रह, भाग ३, भूमिका (डा० गुलाबचन्द्र चौधरी), पृ० १८ टिप्पण २ ] 3 प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ० ६६५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org