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- "देवपुत्र कनिष्क के ५वें वर्ष की हेमन्त ऋतु के पहले महिने के पहले दिन कोट्टियगण, ब्रह्मदासिक कुल और उच्चनागरी शाखा के... श्रेष्ठि... सेने की धर्मपत्नी देव....."पाल की पुत्री खडा (क्षद्रा) ने वर्षमान की प्रति (मा)।' लेख सं० ५६ में कोट्टिय गण, स्थानिकीय कुल, रि शाखा के आर्य वृद्ध हस्ति का उल्लेख है। कल्प स्थविरावली के २७वें गणाचार्य प्रार्य वृद्ध ही वस्तुतः इस शिलालेख के आर्य वृद्ध होने चाहिए। क्योंकि प्रार्य सुहस्ती के शिष्य सुस्थित और सुप्रतिबुद्ध द्वारा सूरिमन्त्र का एक करोड़ बार जाप किये जाने के कारण उनका विशाल श्रमण समूह कोटिक गण के नाम से विख्यात हुा । मार्य सुस्थितसुप्रतिबुद्ध प्राचार्य सुहस्ति के पट्टधर प्राचार्य हुए प्रतः 'सुहस्ती की मुख्य शिष्य परम्परा कोटिक गरण के नाम से ही अभिहित की जाने लगी। उस मुख्य परम्परा के प्राचार्य होने के कारण कल्प स्थविरावली के २७वें प्राचार्य प्रार्यवृद्ध' ही वे कोट्टिय गण ठारिणय अथवा वारिणय कुल और वज्री शाखा के प्रार्य वृद्धहस्ती होने चाहिए जिनका कि नाम इस लेख में उत्कीर्ण किया हुआ है ।
इसी प्रकार लेख संख्या ५६ में भी कोट्टिय गण और वहरी (बजी)शाखा के मार्य वृद्धहस्ती का उल्लेख है। वे भी निश्चित रूप से कल्प स्थविरावली के २७वें प्राचार्य प्रार्य वृद्ध ही होने चाहिए। इनके अतिरिक्त लेख सं० ६४ में उच्चनागरी शाखा, लेख सं० ६६ में कोट्टिय गण, पण्हवाहणय कुल एवं मझमा शासा, लेख सं०६८ में कोट्रिय गरण, ठानिय कुल और पइरी शाखा, लेख सं. ७. में कोटिक गरण और उच्चनागरी शाखा, लेख सं०७४ में कोटियगरण का उल्लेख विद्यमान है।
कल्पसूत्रीया स्थविरावली में उल्लिखित गणों, कुलों एवं शाखामों प्रादि के उल्लेखों वाले जो लेख मथुरा के कंकाली टीले से उपलब्ध हुए हैं, उनमें अंतिम लेख है गुप्त सं० ११३ तदनुसार ई. सन ४३३ (वीर नि० सं० १६० ) में उत्कीर्ण, गुप्त सम्राट् कुमारगुप्त' के शासन काल का लेख सं० ६२ ।।
इस लेख सं० ६२ में कोट्रिय गरण की विद्याधरी शाखा के प्राचार्य दतिल का उल्लेख किया गया है। वाचनाचार्य परम्परा की, युगप्रधानाचार्य परम्परा 'प. १. "....."() पुत्रस्य क (नि.) कस्य सं.५ हे. १ वि १ एतस्य पूर्म ()
कोडियातो गणातो ब्रह्मवासिका (तो) (क) सातो (उ) नागरितो हालातो सेषि-8-स्य f-f-f- सेनस्प सहपरि दुगये है (4) व. १. पामस्य पि (a).....
२. वर्षमानस्य प्रति (मा) । [जन शिलालेख संग्रह, भा २ माणकचन्द्र दि. जैन अन्धमामा समिति) लेख सं. १९,
पृ.सं. १९] मपुरा का प्राकृत लेख कनिष्क सं० ५. २ कल्पसूत्रीया स्थविरावली के प्राचार्यों की सूची, देखिये प्रस्तुत अन्य के पृष्ठ ४७३-७४ 'कुमारगुप्त का शासन वीर नि.सं. १५१ से ५०२ तक रहा। देखिये प्रस्तुत प्रन्य, पृष्ठ ६७२ ४ जैन शिलालेख संग्रह, भाग २, पृ० ५८
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