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डा. फ्यूरर के तत्त्वावधान में तथा तीसरी बार पं. राधाकृष्ण के तत्त्वावधान में करवाया गया । इन तीनों खुदाइयों में जैन इतिहास की दृष्टि से बड़ी महत्वपूर्ण विपुल सामग्री उपलब्ध हुई। वह सामग्री आज से १८६१ से ले कर १७६८ वर्ष पहले तक की प्राचीन एवं प्रामाणिक होने के कारण बड़ी विश्वसनीय है । इन शिलालेखों में कल्पसूत्र की स्थविरावली के छः गणों में से तीन गरणों, चार गरणों के १२ कुलों, १० शाखाओं तथा नन्दीसूत्र के आदि मंगल के रूप में दी हुई वाचक वंश ( वाचनाचार्यों) की स्थविरावली' के पन्द्रहवें वाचनाचार्य आर्य समुद्र, सोलहवें प्रार्य मंगु, इक्कीसवें प्रार्य नन्दिल ( प्रानन्दिल), बावीसवें ग्रार्य नागहस्ती और उनतीसवें वाचनाचार्य भूत दिन्न के नाम विद्यमान हैं । आज से लगभग १८०० - १६०० वर्ष पूर्व के इन शिलालेखों में लगभग २२०० वर्ष पूर्व, वीर नि. सं. २६१ में हुए ग्रार्य स्थविर रोहण ग्रादि सुहस्ति के शिष्यों के उद्देह प्रभृति ३ गरणों, कालान्तर में प्रसृत हुए उनके १२ कुलों तथा १० शाखानों, वीर नि० सं० ४१४ में वाचनाचार्य पद पर आसीन हुए श्रार्य समुद्र, वीर नि० सं० ४५४ में वाचनाचार्य पद पर आसीन हुए प्रार्य मंगू, उनके पश्चात् हुए वाचनाचार्य नन्दिल, उनके अनन्तर अनुमानतः वीर नि० सं० ५८४ तक वाचनाचार्य पद पर रहे आर्य नागहस्ती और वीर नि० सं० ६०४ से १८३ तक युग प्रधानाचार्य पद पर रहे प्रार्य भूतदिन के उल्लेखों से निर्विवाद रूपेण सिद्ध होता है कि प्रार्य सुधर्मा से प्रारम्भ हुई कल्प स्थविरावली और नन्दि-स्थविरावली ये दोनों स्थविरावलियाँ परम प्रामाणिक और पूर्णत: विश्वसनीय हैं। इन शिलालेखों में दशपूर्वधर काल से लेकर सामान्य पूर्वधर काल की समाप्ति से १७ वर्ष पूर्व तक के कतिपय वाचनाचार्यों, गरणों, कुलों आदि का उल्लेख इस तथ्य को सिद्ध करने के लिये सबल ही नहीं अकाट्य प्रमाण है कि ये दोनों स्थविरावलियां क्रमबद्ध और पूर्णतः प्रामाणिक हैं ।
जिज्ञासु पाठकों एवं शोधार्थियों के लाभार्थ उन शिलालेखों का यहां संक्षेप में परिचय दिया जा रहा है, जिनमें कि उपरिलिखित गरणों एवं वाचनाचार्यों का उल्लेख है ।
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प्रस्तुत ग्रन्थ के पृष्ठ ४६४-६५ पर आर्य सुहस्ति के १२ शिष्यों में से ६ के नाम से प्रचलित हुए गरणों, उनकी शाखाओं और कुलों का विवरण दिया गया है । आर्य सुहस्ती के प्रथम शिष्य श्रार्य रोहण के नाम से और नागभूतिकीय (नागभूय) कुल का उल्लेख कनिष्क सं० में है । इसी प्रकार कुषाणवंशी राजा वासुदेव के समय के
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प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ. ४७१-७२
२ प्रस्तुत ग्रन्थ, पृष्ठ ७५५
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१ [ सिद्धम् 11] महाराजस्य राजातिराजस्य देवपुत्रस्य पाहिकरिणष्कस्य सं० ७ हे १ दि १०५ एतस्य पूर्व्वायां भय्यदहिकियातो २ गणातो अर्य्यनागभूतिकियातो कुला तो after बुद्धशिरिस्य शिष्यो वाचको प्रय्यंस [न्धि ] कस्य भगिनि अय्यंजया भयं गोष्ठ.....
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निकले उद्देह गरण ७ के लेख सं० २४ कनिष्क सं० १८,
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