Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
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48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी +
42 वेइंदियाणं देसा, एवं मज्झिल्ल विरहिओ जाव अणिंदियाणं पदेसा, आदिल्लविरहिओ
सव्वेसिं जहापुरच्छिमिल्ले चरिमंते तहेव अजीवा, जहेव उवरिले चरिमंते तहेव ॥५॥ इमी सेणं भंते ! रयणप्पभाए पुढीए पुरच्छिमिल्ले चरिमंते किं जीवा पुच्छा? गोयमा ! णो जीवा एवं जहेव लोगस्स तहेव चत्तारिवि चरिमंता जाव उवरिल्ले जहा दसमसए; विमलादिसा तहेव णिरवसेसं,हेट्ठिल चरिमंते जहेव लोगस्स हेट्ठिल्ले चरिमंते तहेव,णवरं देसे पंचिंदिएसुभगो
सेसं तंचेव, एवं जहा रयणप्पभाए चत्तारि चरिमंता भणिया, एवं सक्करप्पभाएवि अजीव प्रदेश हैं. जो जीव देश हैं वह निश्चय एकेन्द्रिय के जीव देश हैं अथवा एकेन्द्रिय के बहुत देश बेइन्द्रिय का एक देश अथवा एकेन्द्रिय के बहुत देश बेइन्द्रिय के बहुत देश ऐसे ही मध्य रहित यावत् अमेन्द्रिय तक कहना. और आदि रहित सब का जैसे पूर्व का चरिमांत कहा वैसे कहना. और अजीव का जैसे उपर के चरिमांत का कहा वैसे ही कहना ॥ ५ ॥ अहो भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के पूर्व के चरिमांत में क्या जीव है इत्यादि पृच्छा? अहो गौतम ! जीव नहीं है यों जैसे लोक के चारों चरिमांत में कहा वैसे ही यहांपर
भी कहना यावत् उपर का चरिमांत जैसे दशवे शतक में विमला दिशा का कहा तैसे ही रत्नप्रभा पृथ्वी का 7 उपर का चरमांत निरवशेष कहना विशेषता इतनी कि पंचेन्द्रिय में तीनों भांगे पाते हैं क्यों की वहां पंचेन्द्रिय
* काशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
भावार्थ