Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
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श्री अमोलक ऋषिजी
गुण होणे ॥ एवं अहक्खायसंजयस्सबि, एवं छेदोवट्ठावणिएवि ॥ हेटिलेसु तिसुवि समं छट्ठाणचड़िए, उवरिल्लेख दोमुवि तहेव हीणे ॥ जहा छेदोवढावणिए तहा परि. हारविसुद्धिएवि, सुहुमसंपरागसंजएणं भंते । सामाइयं संजयस्स परट्ठाण पुच्छा ? गोयमा! णो हीणे णो तुल्ले अम्भाहिर । अगंप्तगुण मभहिए । एवं छेदोवा ट्ठावणिएवि। परिहार सुद्धिएसुवि समं सट्ठाणे सिय होणे सिय तुल्ले सिय अब्भहिए।
जइ होणे अर्णतगुण होणे, जइ अब्भाहिए अणंतगुण मन्महिए ॥ सहुमसंपराग पाश्री चारित्र पर्यव में पृच्छा, अहो गौतम! हीन होवे परंतु तुल्प व अधिक होवे नहीं. हीन हो तब अनंतगुन हीन होवे. यों यथाख्यात के साथ भी कहना. सामायिक चारित्र जैसे छेदपस्थानीय का कहना परंतु पीछे के तीन की साथ छठाणवडीया और उपरके दो की साथ हीन. छदोपस्थापनीय का जैसे कहा वैसे परिहार विशुद्ध का कहना. सूक्ष्म संपराय की मामायिक संयमी के परस्थान आश्री पृच्छा, अहो गौसम ! हीन व तुल्य नहीं परंतु अधिक, यदि अधिक होवे तो अनंत गुन अधिक. ऐसे ही छेदोपस्थापनीय की साथ जानना. परिहार विशुद्धि की साथ स्यात् हीन, स्यात् तुल्य व स्यात् अधिक, यदि हीन होवे तो अनंतगुण हीन, यदि अधिक होवे तो अनंतगुण अधिक. सूक्ष्म संपराय की
प्रकाशक-राजाबहादुर लामा सुखदेवसहावजी ज्वाला प्रसादजी,
भावार्थ
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