Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
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भावार्थ
48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी +
ठाणेहिं संपण्णे अणगारे अरिहति अत्तदोसं आलोइत्तए तंजहा-जातिसं : पण्णे, कुलसंपण्णे, विणयसंपण्णे, णाणसंपण्णे, दसणसंपण्णे, चरित्तसंपण्णे, खते, देते, अमायी, अपच्छाणुतावि ॥ अहिं ठाणेहिं संपण्णे अणगारे अरिहति आलोयणं
पडिच्छित्तए तंजहा-आयारवं, आहारवं, यवहारवं, उन्वीलए, पकुव्वए, अपरिस्सावी, सूक्ष्म अपराध की आलोचना करे नहीं ५ मात्र सूक्ष्म अपराध की ही आलोचना इस बुद्धिमे करे कि सूक्ष्म अ अपराध की आलोचना करनेवाले बादर अपराध की आलोचना क्यों नहीं करता होगा. ६ लज्जा से बहुत गुप्त भाव मे आलोचे कि जिस से गुरु सुन सके नहीं स्वयं ही मुने ७ बडे २ शब्द से ज्यों आवे त्यों , आलोचना करे ८ एक ही अपराध की अन्य बहुत की पाम आलोचग करे ९ अनीतार्थ की पास आलोचना करे १० जिस दोष की आलोचना करने की होवे उस ही दोष से दूषित बने हुवे आचार्य की पास आलोचे कि जिस से ज्यादा दण्ड न दे सके. यो दश प्रकार से आलोचना के दोष कहे. दश गुण संपन्न अनगार अपने दोषों की मालोचना करने योग्य होता है. १ जातिसंपन्न सो उत्तम जाति में उत्पन्न हुवा २ कुल संपन उत्तम कुल में उत्पन्न हुवा, ३ विनय संपन्न ये तीन प्रायः अकृत्य करे नहीं और क्वचित हो जाये तो उसकी सम्यक प्रकार से आलोचना करे, प्रायश्चित्त निभानेवाला होवे और बंदनादिक आलोचना सवाचारी का प्रयोक्ता होवे ४ ज्ञान संपन्न कृत अकृत्य का विभाग जाने ५ दर्शन संपन ।
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी*