Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
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सूत्र
भावार्थ
43 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
एगिंदिया पं० तं जहा - पुढविकाइया भेदो चउकओ जाव वण्णस्सइ काइयति । परंपरोत्रवण्णग अपज्जत्ता सुहुम पुढची काइयाणं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढ़वीए पुरच्छिमिले चरिमंते समोहए समोहएता जे भविए रयणप्पभाए पुढवीए जात्र पच्चच्छिमिले. चरिमंते अपजत्ता सुहुम पुढची काइयत्ताए उववज्जंति, एवं एएणं अभिलाषेणं जहे. पढमो उद्देसओ जाब लोग चरिमंतोत्ति || १ कहिणं भंते ! परंपरोववण्णग पज्जत्तगं वायर पुढवीकाइयाणं ठाणा पं० ? गोयमा ! सट्टाणेणं असुवि पुढवीस, एवं एएवं अभिल वेणं जहा पढमे उद्देसए जात्र तुल्लठितीयाति ॥ सेवं भते ! संतति ॥
ॐ प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहाय जी ज्वाला प्रसादजी
पांच भेद कहे हैं तद्यथा- पृथ्वी काया वगैरह एक २ के चार २ भेद यावत् वनस्पति काया. अहो भगवन् ! परंपरा उत्पन्न अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी काया इन रत्नप्रभा के पूर्व के वरिमांत में समुझान करके पश्चिम के चरिमांत में अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी कायापने उत्पन्न होने योग्य होते इस क्रम से अभिला कहना. यावत् पहिला उद्देशा पहिला रिन || १ || अहो भगवन ! परंपरा उत्पन्न पर्याप्त वादर वनस्प काया के स्थान कहां कहे हैं ? जो गम ! स्वस्थान से आठो पृथ्वी में. यों इस अभिलापक से यात्रत् | पहिला उद्देशापर्यंत यावत् तत्यस्थिति. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं । यह चौतीसवा तक को
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