Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
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णो अणुदई, णामस्स गोयस्सय उदरिगा णो अणुदीरगा, सेसाणं छण्हवि उदीरगावा अणुदीरगावा ॥ कण्ह लेस्सा वा जाव सुक्कलेस्सावा ॥ सम्मद्दिट्ठीवा, मिच्छादिट्टीवा, सम्मामिच्छादिट्टीवा ॥ जाणीवा अण्णाणीवा ॥ मणजोगीवा, वइजोगीवा कायजोगीवा उवओगो वण्णमादी, उस्सासगा आहारगाय जहा एगिदियाण॥ विरया वा अविरयावा विरियाविरियाय ॥ सकिरिया णो अकिरिया॥ तेणं भंत! जीवा किं सत्तविह बंधगा वा अट्ठविह बंधगावा, छविह बंधगावा एगविह बंधगावा? गोषमा ! सत्तविह बंधगावा
जाव एगविह बंधगावा ॥२॥ तेण भंते ! जी। किं आहार मण्णेवउत्ता जाव परिगाह हैं और अनुदयवाले भी हैं, शेष सातके उदयवाले हैं परंतु अनुदयवाले नहीं हैं नाम व गोत्रकी उदीरणा करने वाले हैं परंतु उदारणा नहीं करें वैसे नहीं.शेष छकी उदीरगः करनेवाले अथवा उदीरणा नहीं करनेवाले दोनों हैं. कृष्ण लेश्या यावत् शुक्ल ठश्यावाले हैं. सनदृष्टि,मिथ्याहष्टि अथवा सममिथ्यादृष्टि,तीनों हैं,ज्ञानी अथवा अशानी दोनों है, मनयोगी, वचन योगी व काया योमी ऐसे तीनों योगाले हैं. उपयोग, वर्णादिक उश्वासक व आहारक एकेन्द्रिय जैसे कहना. बिरात, बिराने व चिरताविरति तीनों हैं और सक्रिय व अक्रिय दोनों हैं। ॥२॥ अहो भागवन्! वे क्या सातके, आठके, उके याएक कर्मके बंध करने वाले हैं ? अहो गौतम! सात यावत् एक कर्म के बंध करनेवाले हैं ॥२॥ अहो भगवन् ! वे क्या आहार संबोपयुक्त यावत् परिग्रह संजोपयुक्त
48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
भावार्थ
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदव सहायजी ज्वालाप्रसाद जी.
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