Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
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त्रा
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पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 48
लोगरस असंखेज्जइ भागे, अणंतरोक्वण्णग सुहम पुढवीकाइयाणे एगविहा अविसेसमणाणत्ता, सव्वलोए परियावण्णा ५. समणाउसो ! एवं एएणं कमेणं सव्व एगिदिया भाणियव्वा ॥ सटाणेणं सव्वेसिं जहा ?णपदे, तेसिं पज्जत्तगाणं वायराणं उववाय समुग्घाय सट्टाणाणि जहा तेसिं चेव अपजत्तगाणं वादराणं सुहुमाणं सर्वसिं जहा पुढवीकाइयाणं भणिया तहेव, भाणियव्वा जाव वणस्सइकाइयत्ति ॥२॥ अणंतरोपवण्णग सुहम पुढवीकाइयाणं भंते ! कइकम्मपगडीओ प० ? गोयमा !
अट्ठकम्म पगडीओ प० एवं जहा एगिदियसएसु अणंतरोववण्णग उद्दसए तहेव प०॥ रोत्पन्नक बादर पृथ्वीकाया के स्थानक कहे हैं. उपपात से सब लोक में व समुद्घात में सब लोक में स्वस्थान से आश्रिय लोक के असंख्यातवे भाग में. अनंतरोत्पन्नक सूक्ष्म पृथ्वीकाया विशेषता व भेद रहित सब में मी.लती हैं. यों इस क्रम से सब एकेन्द्रिय का कहना. स्वस्थान से जैसे पनवणा के स्थान पद में
बादर का उपपात व समुद्घात के स्थान उस के अपर्याप्त वादर जैसे कहना. म सक्ष्म का पृथ्वाकाया के जसे कहना यावत् वनातिकाया तक ॥२॥ अहो भगवन् ! अनंतरोत्पन्नक सक्ष्म पृथ्वीकाया ! को कितनी कर्म प्रकृतियों कही ? अहो गौतम ! आठ कर्म प्रकृतियों कही. यों जैसे एकेन्द्रिय के शतक में अनंतरोत्पन्न का उद्देशा कहा वैसे ही कहना.. !
चौतीसमा शनक का पहिला उद्देशा 488
भावा