Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
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भावार्थ
अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋपिजी
अट्ठसु पुढवीसु जहा ठाणपदे जाव सेहुमणस्सइकाइयाज य पज्जत्ता जये अपज्जता ते सव्वे एगविहा,अविसेसा,ते सव्वे एगविहाअविसेस मणाणता सबलोग परियावण्णा प. समणाउसो ॥ १३॥ अपज्जत्त सुहुम पुढवीकाइयाणंभंते! कइ कम्मप्पगडीओ पण्णता? गोयमा! अट्ठकम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओतंजहा-णाणावरणिज जाव अंतराइयं॥एवं चक्कए भेदेणं जहेव एगिंदियसएर जाप वायर वणस्सइकाइया पज्जत्तगाणं ॥ अपज्जत्ता
सुहुम पुढनीकाइयाणं भंते ! कइकम्मप्पगडीओ बंधति ? गोयमा ! सत्तविह बंधगावि, भगवन् ! वादर पृथ्वी काया के स्थानक कहां कहे हैं ? अहो गौतम ! स्वस्थान जहां पृथ्वी काया रहे उस के आश्रयं आठ पृथ्वी में हैं ; जैसे पन्नवणा के दूसरे स्थनापद में कहा वैसे ही कहना जैसे रत्न प्रभा आदि सात नरक व आठवी सिद्धशीला वगैर यावत् सूक्ष्म वनस्पति काया पर्याप्त अपर्याप्त वे : एक ही प्रकार प्रकृति स्वस्थानादि अवगाह कर के और शेष विशेषता रहित पर्याप्त जैसे अपर्याप्त वे सब एक से विशेषता व भेद रहित आधार भूत आकाश के एक देश में पर्याप्तक हैं उसी में अपर्याप्त हैं. उपपात समुद्धात में रुवस्थान कर सब लोक में रहे हैं ॥ १३ ॥ अहो भमवन् ! अपर्याप्त
पृथ्वी काया को कितनी कर्म प्रकृतियों कही ? अहो गौतम ! आठ कर्म प्रकृतियों कही जिनके : ज्ञान वरणीय यावत् अंतराय. यों चार २ भेद से जैसे एकेन्द्रिय के शतक में कहा वैसे ही पर्याप्त बादर
प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी*
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