Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
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बंधति २ त्ता तओ पच्छा आहारैतिवा परिणामेतिंवा सरीरंवा बंधति ॥ २ ॥ तेसिणं . भंते!जीवाणं कइलेस्साओ पण्णत्ताओ? गोयमा! तओ लेस्साओ पण्णत्ताओ, तंजहा-कण्ह
लेस्सा णीललेस्सा काउलेस्सा एवं जहा एगणवीसइमेसए तेऊकाइयाणं जाव उवटंति ‘णवरं सम्मट्टिीवि, मिच्छद्दिट्टीवि, णो सम्मामिच्छट्ठिी, दोणाणा दो अण्णाणा णियमं, जो मणजोगी, वइजोगीवि, कायजोगीवि, आहारो णियम छदिसिं॥३॥तसिणं भते!जीराणं एवं
सण्णाइवा पण्णाइवा मणेइवा वईतिवा, अम्हेणं इट्ठाणिटे रसे इट्टाणिटे फासे पडिसंवेदमा ? वाले हैं इसलिये वे अलग आहाः करते हैं. अलग परिणमाते हैं और अलग शरीर धांधत ॥२॥ अहो भगवन् ! उन को कितनी लेश्याओं कही? अहो गौतम ! उनको तीन लश्याओं कहीं कृष्ण लेकर २ नील लेश्या ३ कापुत लेश्या. ऐसे ही तैसे उन्निमवे शतक में तेउकाया का कहा वैसे ही यावत् उद्धर्तते हैं। वहां तक कहना. विशेष में यहां पर समदृष्टि व मिथ्यादृष्टि ऐसी दो दृष्टि पाती हैं. परंतु मीश्री नहीं पाती है. दो ज्ञान अथवा दो अज्ञान निश्चयही होते हैं मनयोग नहीं होता है परंतु बचन योग व काया योग होता है. निश्चय ही छदिशि का आहार कहते हैं. ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! उन को ऐसी प्रज्ञा हो,
वे मन से ऐसा जाने, अथवा वचन मे ऐसा कहे कि हम इष्ट अनिष्ट रस यावत् स्पर्श अनुभवते ? अहो, 16 गौतम! अह अर्थ योग्य नहीं है, अर्थात् उन को ऐसी प्रज्ञा, मन व वचन नहीं है जिस से ये जानसके
विवाहपण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 88 पंचमांग.
___4:5वीसवा शतक का पहिला उद्देशा
'भावार्थ
।