Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
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है एवंचव जाव भावओ गेण्हइ, ताई कि एगपएसियाई गेण्हइ, दुपदेसियाई गेण्हइ,
एवं जहा भासा पदे जाव आणुपुचि गेण्हइ, णो अणाणुपुचि गेण्हइ, ताई. भंते ! कइदिसि गेण्हइ ? गोयमा ! णिवाघाएणं जहा ओरालियस्स ॥१०॥ जीवेणं भंते ! जाई दवाई सोइंदियत्ताए गेण्हइ जहा वेउब्विय सरीरं, एवं जाव जिभिदियत्ताए फासिंदियत्ताए, जहा ओरालियसरीरं मणजोगत्ताए जहा कम्मग सरीरं णवरं णियमा
छदिसि ॥ एवं वइजोगत्ताएवि, कायजोगत्ताएवि, जहा ओरालिय सरीरस्स ॥११॥ करता है. शेष सब उदारिक शरीर जैसे कहना. कार्माण शरीर का ऐसे ही कहना यावत् भाव से ग्रहण करता है. अहो भगवन् ! वे एक प्रदेशिक ग्रहण करे, द्वि प्रदशिक ग्रहण करे, ऐसे ही जैसे भाषा पद में कहा यावत् अनुक्रम से ग्रहण करे. परंतु अनानुपूर्वी से नहीं ग्रहण करे. अहो भगवन् ! वे कितनी दिशाओं के पुद्गल ग्रहण करे ? अहो गौतम ! निर्व्याघात मे उदारिक शरीर जैसे कहना ॥१०॥ अहो भगवन् ! जीव जो द्रव्य श्रोत्रेन्द्रियपने ग्रहण करे बगैरह जैसे वैय शरीर जैसे कहना: ऐसे हाने जिव्हन्द्रिय पर्यंत कहना. स्पर्शेन्द्रिय का उदारिक शरीर जैसे. मनयोग का कार्माण शरीर जैसे परंतु नियमा छ दिशि कहना. एस ही वचन योग का. काया योग को उदारिक शरीर जैसे ॥ ११ ॥ अहे
२१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक
.प्रकाशंक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी*
मावार्थ
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