Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
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मनि। अमोलक ऋषिजी १
भाव
समगी सिय विसमजोगी ? गोयमा ! आहारयाओवा से अमाहारए, अणाहारया
ओ से आहारए,सियहीणे सियतुल्ले सिय अब्भहिए ॥ जइ हीणे असंखेजइभागहीणेवा संजइभागहीणेवा, संखेजगुणहीणेवा असंखेजगुणहीणेवा; अह अब्भहिए असंखेज्जइ
ग मन्भाहिएवा संखेजइभाग मन्भहिएवा, संखेजगुण मन्भाहएवा असंखेजगुण हैं और स्यात् विषम योगी हैं. अहो भगवन् ! किस कारन से ऐसा कहा गया है यावत् स्यात. समयोगी
स्यात् विषम योगी ? अहो गौतम ! आहारक से अनाहारक और अनाहारक से आहारक स्यात् हीन स्यात् तुल्य. व स्यात् अधिक है. जैसे विग्रह गति के अभाव से नारकी में आकर आहारकपने भी उत्पन्न हुआ जीव निरंतर आहारकपना से ही पुष्ट होवे. इस अपेक्षा से जो विग्रहगति कर के अनाहारक हवा वह हीन ह क्यों कि पाहिले अनाहारकपना से दर्बल होवे और इस से हीन योग होने से विषमयोगी होबे, समान समय में विग्रह गति से अनाहारक बन करके अथवा ऋजु गति से आहारक बनकर दोनों नारकी उत्पन्न होवे वे दोनों नारकी एक दूसरे की अपेक्षा से समयोगी होवे. जो विग्रहगति । के अभाव से आहारक ही उत्पन्न होवे और दूसरा विग्रहगति करने से अनाहारक होवे इस अपेक्षा से पहिला दूसरा अधिक होता है इस से यह भी विषम योगी होवे. * यदि हीन होवे तो
* यहां पर मूल में आहारक से अनाहारक हीन और अनाहारक से आहारक अधिक कहा परंतु तुल्यता बताने१ वाला प्रसिद्ध शब्द होने से नहीं कहा.
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप
209 अनुवादक-बालब्रह्मचारी