Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
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10. जाव येमाणिए । सिद्ध पढमे जो अपढमे पुहत्तिपा जीवा पढमावि अपढमावि एवं जाय
धेमाणिया ॥ सिद्धा पढमा णो अपढना । मिच्छविट्ठीए एगत्त पुहत्तेणं जहा आहारगा, . सम्मामिच्छट्टिीए एगत्तपुहत्तेणं जहा सम्मादट्ठी, णबरं जस्म अत्थि सम्मामि
छत्ते ॥ १५ ॥ संजतेजीवे मणुस्सय, एगत्त पुहत्तेणं जहा सम्भदिली ॥ असंजए जहा आहारए ॥ संअया संजए' जीवे पंचिंदियतिरिक्खजोणियमजुस्से एगत्तपुहत्तेणं
जहा सम्मट्ठिी, - णोसंजए जोअसंजए, णोसंजयालंजर जीवे सिद्धेय एगन्न समदृष्टि समष्टि भाव से क्या प्रथम है था अप्रथम है ? अहो गौतम ! स्यात् प्रथम है झ्यात अपयम है। ऐसे ही एकेन्द्रिय छोडकर यावत् वैमानिक पर्यंत जानना. मिद्ध में प्रथम व थप्रथम है. अनेक जीव आश्री प्रथम भी है और अप्रथम भी है, ऐसे ही वैमानिक पर्यंत जानना. सिद्ध प्रथम है परंतु अप्रथम नहीं है. मिथ्यादृष्टिका एक अनेक आश्री आहारक जैसे कहना. सममिथ्याष्टिका समष्टि जैसे कहना विशेष में जिन को सममिथ्यादृष्टि होवे उन को ही कहना ॥ १५॥ संयातिजीव मनुष्य में एक अनेक आश्री
दृष्टि जैसे कहना. असंयति का आहारक जैसे कहना संयतासंयति तिर्यंच पंचेन्द्रिय व मनुष्य का एक अनेक आश्री समदृष्टि से कहना. नोसंयति नो असंयति नांसंयतामयति जीव व सिद्ध में एक अनेक
48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
*प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायनीज लाप्रसादजी*