Book Title: Prachin Madhyakalin Sahitya Sangraha
Author(s): Jayant Kothari
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PRĀCĪNA MADHYAKĀLĪNA SĀHITYASANGRAHA प्राचीलमध्यकालीन साहित्यसंग्रह (मोहनलाल दलीचंद देशाई संपादित लघुकृति संग्रह) L. D. Series : 127 General Editor Jitendra B. Shah Editor : Jayant Kothari भारतीय L. D. INSTITUTE OF INDOLOGY AHMEDABAD - 380 009 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PRĀCĪNA MADHYAKĀLĪNA SĀHITYASANGRAHA L. D. Series : 127 General Editor Jitendra B. Shah Editor : Jayant Kothari A यसंग 14 दलपव ति विधान L. D. INSTITUTE OF INDOLOGY AHMEDABAD-9 . पवाबाद. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L. D. Seires : 127 PRĀCĪNA MADHYAKĀLĪNA SĀHITYASANGRAHA Editor : Jayant Kothari Publisher : Dr. Jitendra B. Shah Direktor L. D. INSTITUTE OF INDOLOGY AHMEDABAD © L. D. Institute of Indology First Edition : 2001 Page : 14+746 Copies : 500 ISBN 81-85857-09-1 Price : Rs. 650/ Typesetting and Printed by : Sharda Mudranalaya Opp. Jumma-Masjid, Gandhi Road, Ahmedabad-380 001 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह ( मोहनलाल दलीचंद देशाई संपादित लघुकृति संग्रह) ला. द. ग्रंथश्रेणी : १२७ प्रधान संपादक जितेन्द्र बी. शाह संपादक जयंत कोठारी भारतीय लपवमा लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर अहमदाबाद-९ लालमा विधामंति अहमदा शिवाट. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ला. द. श्रेणी : १२७ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह संपादक जयंत कोठारी प्रकाशक डॉ. जितेन्द्र बी. शाह नियामक लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर अहमदाबाद ©ला. द. भारतीय संस्कति विद्यामन्दिर प्रथम आवृत्ति : २००१ पृष्ठसंख्या : १४+७४६ प्रतियाँ : ५०० ISBN ८१-८५८५७-०९-१ मूल्य : रु. ६५०/ टाइपसेटिंग - मुद्रक : शारदा मुद्रणालय जुम्मा-मस्जिद सामे, पानकोरनाका, अहमदाबाद-३८० ००१ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PREFACE We are very happy to publish the collection of brief articles written by late Shri Mohanlal Dalichand Desai. Shri Mohanlal Desai was an outstanding scholar of language, literature, and history. Abridged history of the Jaina literature (in Gujarātī) prepared by him is considered to be one of the most authenti as reference book even today, indeed after 65 years of its first publication. Moreover, Jaina Gurjara poets in ten parts re-edited, enlarged and perspicuously revised by late Shri Jayantbhai Kothari, is a very useful basic work in the subject. It was, therefore, felt necessary to publish all his brief articles and notes published by him in various literary magazines. Shri Jayantbhai Kothari had arduously finished this great task of collecting those valuable articles. We are very gratetful to late Shri Kothari for this laudable work. Shri Jayantbhai, moreover, had commenced to prepare an index of this book, but sadly this work remained incomplete because of his sudden demise. Then after contacting scholars and concerned persons and discussing with them, they all expressed their opinion that the index prepared by Jayantbhai in whatever and at whichever stage it is, must be published. However it is sad that Shri Jayantbhai is no more with us at the time of this publication. We are deeply grateful to Dr. K. B. Shah for writing an Introduction to this work. Shri Rohitbhai has also contributed significantly to the publication of this book. We are indeed thankful to him. We hope this compilation will be found useful to the scholars and students. Ahmedabad Jitendra Shah 2001 Director DOO Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय श्री मोहनलाल दलीचंद देशाई संपादित लघुकृतिओनो संग्रह प्रकाशित करतां आनंद अनुभवीए छीए. पं. श्री मोहनलाल दलीचंद देशाई भाषा, साहित्य अने इतिहासना आरूढ विद्वान हता. तेमणे तैयार करेलो जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास आजे ६५ वर्षेय संदर्भग्रंथ तरीके सर्वमान्य अने एक मात्र प्रमाणभूत ग्रंथ गणाय छे. ते उपरांत तेओए तैयार करेल अने श्री जयंतभाई कोठारीए पुन:संपादित, परिवर्धित करेल जैन गुर्जर कविओना १० भागो अत्यंत उपयोगी अने खूब ज ग्राह्य ग्रंथो गणाय छे. तेमणे समये समये संपादित करेल अने जुदां जुदां सामयिकोमा प्रकाशित थयेल लघुकृतिओ अनेक दृष्टिए उपयोगी होई तेनुं संपादन अत्यंत आवश्यक अने उपयोगी हतुं. ते लेखोने एकत्रित करवानुं महाभारत कार्य श्री जयंतभाई कोठारीए खूब ज महेनत लई पूर्ण करेल छे. ए माटे तेमनो जेटलो आभार मानीए तेटलो ओछो छे. श्री जयंतभाईए आ ग्रंथनी शब्दसूचि तैयार करवानो आरंभ कर्यो हतो, परंतु अचानक ज अवसान थतां ते कार्य अधूरं रघु अने त्यारबाद मुनि भगवन्तो तथा विद्वानोनो संपर्क साधी आ अंगे चर्चा करतां सहुए जणाव्यु के जेटली अने जे हालतमां शब्दसूचि तैयार थई छे ते ज हालतमां शब्दसूचि प्रकाशित करवी. आथी अहीं प्रकाशित करवामां आवेल शब्दसूचि अधूरी रहेवा पामी छे. आजे अमने अत्यंत दु:ख छे के प्रा. श्री जयंतभाई कोठारी आ ग्रंथ प्रकाशित थई रह्यो छे तेवा समये आपणी वच्चे नथी. __ आ ग्रंथनी प्रस्तावना लखी आपवा माटे डॉ. के. बी. शाहनो खूब ज आभार मानीए छीए. अमने आशा छे के आ ग्रंथ जिज्ञासुओने खूब ज उपयोगी थशे. - जितेन्द्र बी. शाह अहमदाबाद सने. २००१ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादित कृतिओनो संशोधित संपादनग्रंथ श्री जयंत कोठारी 'गुजराती साहित्यकोश खंड - १ना मुख्य संपादक तरीकेनी कामगीरी संभाळी रह्या हता त्यारे एमने अने 'कोश'ना सौ साथीदाराने ए वातनी प्रतीति थई के जैन कविओनां अधिकरणो तैयार करवामां श्री मोहनलाल द. देशाईनो 'जैन गूर्जर कविओ' ग्रंथ ए केटलो महत्त्वनो आधारस्रोत छे! 'जैन गूर्जर कविओ' उपरांत मोहनभाईना 'जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास'. जेवा आकरग्रंथथी मांडी नानामोटा ग्रंथो तो प्रकाशित थया छे पण ए सिवायनुं एमनुं अढळक लखाण सामयिकोमां प्रगट थयेलुं यथावत् पड्युं छे. मोहनभाईए ई.स.१९१२थी १९१९ सुधी 'श्री जैन श्वेतांबर कॉन्फरन्स हेरल्ड' नुं अने सं.१९८१थी १९८६ (ई.स. १९२५थी १९३०) सुधी 'जैन युग' नुं तंत्रीपद संभाळेलुं. जोके तंत्रीपद संभाळ्या अगाउ पण एमणे 'हेरल्ड' मां लेखो प्रकाशित करवानो आरंभ तो कर्यो ज हतो. 'हेरल्ड' अने 'जैन युग' सामयिकोनी सामग्रीनी नोंध लेतां जयंतभाईना ध्यान उपर ए वात आवी के मोहनभाईए आ सामयिकोनां पानांनां पानां पोते ज लखीने तंत्री तरीकेनी पोतानी निष्ठापूर्ण जवाबदारी निभावी हती. आ लेखसामग्री वैविध्यपूर्ण हती. एमां साहित्यिक, ऐतिहासिक, चरित्रात्मक लेखो हता तो प्राचीन साहित्यनुं संपादन पण हतुं. आमांनुं घणुंखरूं साहित्य आज सुधी अग्रंथस्थ ज रह्युं छे. श्री मोहनभाईए मात्र 'हेरल्ड' अने 'जैन युग'मां ज नहीं, पण 'आत्मानंद प्रकाश', 'जैन धर्म प्रकाश', ‘जैन’, 'श्री जैन सत्य प्रकाश', 'जैन रिव्यू', 'जैन धर्म विकास', 'जैन प्रकाश' जेवां घणां सामयिकोमा अने ग्रंथोमां पण लखाणो कर्यां छे. ते जेम जेम नजरे चढतां गयां ते जयंतभाईने लाग्युं के मोहनभाईनो आ विपुल लेखन- खजानो जो ग्रंथ स्वरूपे प्रकाशित थाय तो एमनी विद्वत्प्रतिभा वधु योग्य स्वरूपे बहार आवे. परंतु आधी लेखसामग्री तो ग्रंथस्थ थाय त्यारे खरी, पण जो एमना आ बधा लेखोनी सूचि तैयार करी होय तो अभ्यासीओने मार्गदर्शक बने अने भविष्यमां ग्रंथप्रकाशननी दिशामां आगळ वधी शकाय. जयंतभाईना मनमां ऊगेला आ विचारबीजे पछी तो निर्णयनुं स्वरूप लीधुं अने लेखसूचिना आ काममां एमणे मने पण सक्रियपणे सामेल कर्यो. लेखसूचिनुं आ काम धारणा करतां घणुं जटिल नकळj. बधां सामयिकोनी फाइलो एक ज स्थळे अखंडरूपे जळवायेली नहोती, घणां ग्रंथालयो फंफोसवां पडे एम हतुं, छतां जयंतभाईए आ हाम भीडी. आ माटे अमदावाद उपरांत भावनगर, मुंबई जेवां स्थळोए जईने, त्यां रोकाईने ८ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केटलांक ग्रंथालयोनी अमे मुलाकात लीधी. आ लेखसूचि तैयार करतां एक बीजो निर्णय ए पण कर्यो के आ बधी सामग्रीनी झेरोक्ष नकल करावी लई ए सामग्री साचवी लेवी. आ ‘प्रीतिपरिश्रम' समी लेखसूचिनुं काम १९८४-८५थी शरू थयुं अने छेवटे १९९२मां श्री महावीर जैन विद्यालय (मुंबई) द्वारा प्रकाशित 'विरल विद्वत्प्रतिभा अने मनुष्यप्रतिभा' पुस्तकमां श्री मोहनभाईनुं जीवनचरित्र अने लेखसूचि प्रगट थयां. आ लेखसूचिमांना लेखोनी ७२०नी संख्या ए मोहनभाईनां अग्रंथस्थ लखाणोनी विपुलतानी निर्देशक छे. ए पुस्तकमा लेखसूचि विषयवार वर्गीकृत करीने प्रगट करवामां आवी छे. पण लेखसूचिना प्रकाशन साथे अंतिम लक्ष्य सिद्ध थतुं नहोतुं. जयंतभाईर्नु लक्ष्य हतुं आ सामग्रीने ग्रंथस्थ स्वरूपे क्रमश: प्रकाशित करवान. लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर जेवी लब्धप्रतिष्ठ संस्था मोहनभाईनां लखाणोना आवा प्रथम ग्रंथप्रकाशन माटे संमत थतां, जयंतभाईए पहेलु काम हाथ उपर लीधं ते मोहनभाईए सामयिकोमां संपादित करेल प्राचीन मध्यकालीन कृतिओना संपादनग्रंथy. ___ त्यारे तो मारा जेवाने एम लागतुं हतुं के मोहनभाई-संपादित तमाम कृतिओने कां तो विषयवार का स्वरूपवार वर्गीकृत करी गोठवणीनुं आयोजन करवा पूरतो तेमज नजरे पडता मुद्रणदोषो दूर करवा पूरतो जयंतभाईनो संपादनश्रम मर्यादित रहेशे. पण जयंतभाई जेनुं नाम ! हाथ उपर लीधेला कामनो तेओ एटली झडपथी पीछो छोडे कदी ? संपादित कृतिओमां मुद्रणदोषो उपरांत ज्यां ज्यां एमने भ्रष्ट पाठ मालूम पड्या, पाठनिर्णयो खोटा जणाया, क्यांक वैकल्पिक अन्य पाठ होवानी संभावना देखाई तेवां स्थानोनी पाठशुद्धि के पाठनिर्णय अर्थे ते-ते कृतिओ अन्यत्र मुद्रित थई होय तो ते जोई जवानो, शक्य होय त्यां एनी हस्तप्रत कढावीने पाठ मेळवी लेवानो श्रम लईने, मोहनभाईनी समग्र संपादित सामग्रीने एमणे संशोधित करी आपी. एथी तो अहीं घणंखरूं प्रत्येक कृतिनी साथे एक मोहनभाईनी अने बीजी जयंतभाईनी एम बब्बे संपादकीय नोंधो जोवा मळशे. मोहनभाईनी संपादकीय नोंध गोळ कौंसमां अने जयंतभाईनी संपादकीय नोंध चोरस कौंसमा अहीं अपाई छे. आ उपरांत, कृतिने छेडे मोहनभाई-संपादित कृति मूळमां ज्यां प्रगट थई होय ते सामयिक/ग्रंथनाम, वर्ष अने पृष्ठ-क्रमांक नोंधवानी चीवट जयंतभाईए जाळवी छे. मोहनभाई खास करीने ‘हेरल्ड' अने ‘जैन युग’मां प्राचीन मध्यकालीन साहित्यमांथी विषय अने स्वरूपनी दृष्टिए केटकेटली वैविध्यपूर्ण सामग्री संपादित करीने प्रकाशित करता हता ते आ ग्रंथमा एक उपलक नजर नाखतां पण Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोवा मळशे. रासा, फागु, बारमासा, संवाद, गीतो, स्तवनो, सज्झायो, चैत्यपरिपाटी, गुर्वावली-पट्टावली-थेरावली, गझल, दस्तावेज, पत्रो-विज्ञप्तिपत्रोआज्ञापत्रो, छत्रीशी, पचीशी, हरियाळीओ, सुभाषितो, दुहा, उखाणां, बालावबोधो, प्रतिमा-लेखो एम नानीमोटी विविध प्रकारनी गद्य-पद्य रचनाओनो आ ग्रंथमा समावेश थयो छे. बेएक अपभ्रंश कृतिओ पण अहीं संपादित थई छे. प्रस्तुत ग्रंथ 'प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह'नुं प्रकाशन थतां एकसाथे बे प्रयोजनो सिद्ध थयां छे. एक तो, प्राचीन मध्यकालीन जैन साहित्यनो मोहनभाईने हाथे सामयिकोमा एकत्र थयेलो मूल्यवान खजानो ग्रंथ स्वरूपे एकसाथे हवे साहित्यरसिकोने उपलब्ध थाय छे अने बीजें, जयंतभाई जेवा संशोधकने हाथे कृतिओ संशोधित थईने वधु विशुद्ध स्वरूपे प्राप्त थाय छे. तमाम कृतिओ कंपोझ थई गई हती, अने एनां त्रण प्रूफो पण जोवाई गयां हतां. ते पछी जयंतभाईए आ ग्रंथना शब्दकोश- काम हाथ उपर ली, हतुं. ए काम मांड अडधे पहोंचे ए पहेला जयंतभाईनुं निधन थयु. संस्थाना डिरेक्टर डॉ. जितेन्द्रभाई बी. शाह साथे विचारविमर्श करतां, शब्दकोशनुं काम जयंतभाईने हाथे जेटलुं ने जे स्वरूपे थयुं छे तेटरों ने ते स्वरूपे ज प्रकाशित करवानुं इष्ट गण्युं छे. आ ग्रंथ- 'प्रास्ताविक' जयंतभाई ज लखे, एने बदले मारे लखवानुं थाय ए घटना मारे माटे एक विधिवक्रता समी छे. पण जयंतभाईनां साहित्य, संशोधन, संपादन, भाषा, कोश अने सूचिने लगतां अनेक कामोनो जेम हुं साक्षी रह्यो छु तेम एमना आ ग्रंथसंपादन-प्रक्रियानो पण हुं निकटनो साक्षी रह्यो होवाथी आ ‘प्रास्ताविक' लखवान साहस करी शक्यो छु. ला. द. भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर संस्थाने आवो मूल्यवान ग्रंथ प्रकाशित करवा बदल अंत:करणपूर्वकनां अभिनंदन आपुं छु. जयंतभाईना सुपुत्र भाई रोहित कोठारीनो मुद्रणकार्यमां उमदा सहकार सांपड्यो छे एनो आनंद प्रगट करुं छु. मोहनभाईना अग्रंथस्थ लेखोनी जे अन्य सामग्री एकठी थयेली छे ते पण क्रमश: ग्रंथ स्वरूपे प्रकाशित थाय अने एमनी विद्वत्प्रतिभाने गुजरातनी प्रजा वधु साचा स्वरूपे ओळखे ए ज अभीप्सा. २१-१०-२००१ कान्तिभाई बी. शाह अमदावाद. १० Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका .... ३४ १. धर्मसमुद्रकृत शकुंतला रास . . . . . . . . . . . . २. तेजविजयकृत केशरियाजीनो रास . . . . . . . ३. वस्तिगकृत वीश विहरमान जिन रास . . . . . . . . . . ४. नित्यलाभकृत महावीरस्वामीनां पांच कल्याणक ...... ५. वीरविजयकृत महावीरस्वामीना सत्तावीश भव . . . . . . . . ६. बे नंदिषेण सझाय. . . . . . . . . . . ७. अज्ञातकृत ऋद्धिगारव उपर कथा . . .. ८. माणिक्यसुंदरसूरिकृत नेमीश्वरचरित फागबंध... ९. रत्नमंडनगणिकृत रंगसागर नेमि फाग १०. लब्धिविजयकृत नेमिनाथ फाग स्तवन . . . . . . . . . ११. चंद्रविजयकृत स्थूलिभद्र-कोशाना बारमास . . . . . . १२. नेमविजयकृत नेमि बारमास . . . . . . . . . . १३. ज्ञानचंदकृत राजुल बारमास . . . . . . . . . . १४. महानंदमुनिकृत नेमराजुल बारमासा . . . . . . . . १५. चार राजिमती गीतो . . . . . . ... ... . १६. प्राचीन जैन कविओनां वसंतवर्णन . . . . . . . . . . . . १०७ १७. नयसुंदरकृत प्रभावती नाटारंभ गीत . . . . . . . . . . . १८. लावण्यसमयकृत रावणमंदोदरी संवाद. . . . . . . . . . . . ..... १६१ १९. मेरुनंदन उपाध्यायकृत अजित-शान्ति स्तव . . . . . . . . २०. आत्मनिंदापूर्वक वीरने विनतिनां स्तवनो . . . . . . . . . . ........ १७० २१. केटलांक तीर्थंकर स्तवनो . . . . . ...... १७५ २२. आनंदघन चोवीशी/बावीशी अने छेल्लां बे स्तवनो ...... ....... १८१ २३. धनविजयकृत बे नानी कृतिओ. . . . . . . . . . .......... १८९ २४. उदयरत्नकृत सिद्धाचलमंडन ऋषभ स्तवन . . . . . . . . . . २५. रत्नचंद्रगणिकृत पडधरीप्रासादबिंबप्रवेशाधिकार स्तवन . . . . २६. अज्ञातकृत शत्रुजय चैत्यपरिपाटी.... . . . . . . • . . . ................ २०२ २७. सं.१८४४मां शत्रुजयनां देहरां अने प्रतिमाओ . . . . . . . २८. खेमराजकृत मंडपाचल (मांडवगढ) चैत्यपरिपाटी . . . . . . . . . . ...... २०९ २९. जगा-गणिकृत सिद्धपुर चैत्यपरिपाटी . . . . . . . . . . ३०. सुधानंदनसूरिशिष्य(?) कृत ईडरगढ चैत्यपरिपाटी ........... १६० ११ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाडा . .. ..................... ३१. अनंतहंसकृत ईडर चैत्यपरिपाटी ..... ३२. जयहेमशिष्यकृत चितोड चैत्यपरिपाटी . . . ३३. आबु तीर्थ .. .... २३४ ३४. ज्ञानसागरकृत आबूनी चैत्यपरिपाटी ... . . . . . २३६ ३१. रलावजयकृत अमदावाद तायमाळा . . . . . . . . . . . . . . . . . ......... २४० ३६. शांतिकुशलकृत गोडी पार्थतीर्थमाळा . .. ........ २४७ ३७. मेघाकृत तीर्थमाळा .......... . . . . . . . . ... २५० ३८. खीमाकृत चैत्यप्रवाडि स्तवन . . . . . . . . . . . ३९. कवि देपालकृत समरा सारंगनो कडखो . . . . . . . . . . . . . . . . २५९ ४०. पंचतीर्थी यात्रा स्तवन स्त वन ... . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . .. .. २६२ ४१. ज्ञानकीर्तिकृत सोमसुंदरसूरि स्तुति.... ... २६४ ४२. विवेकहर्षकृत हीरविजयसूरि (निर्वाण) रास ......... ४३. हंसराजकृत हीरविजयसूरि चतुर्मास लाभप्रवहण सज्झाय . . . . . . . . ४४. सोमकृत मेघजी-हीरजी संवादना सवैया . . . . . . . . . ४५. धर्मदासकृत हीरविहार स्तवन . . . . . . . . . ४६. समयप्रमोदकृत जिनचंद्रसूरि निर्वाण काव्य ..... ४७. जिनचंद्रसूरि संबंधी त्रण गीतो .. ..... ३०५ ४८. जिनविजयकृत क्षमाविजय गुरु सझाय ........ ..... ३०७ ४९. हंसरत्न अने उदयरत्न विशे सझायो .......... ..... ३१० ५०. धर्मसागर उपाध्याय रास . . . . . . . . . . . . ......... ३१३ ५१. जिनवर्धनगणिकृत पद्यानुकारी गद्यमय तपगच्छ गुर्वावली ... ५२. ज्ञानकीर्तिकृत तपगच्छ गुर्वावली . . . . . . . . . .. ३४४ ५३. विनयसुंदरकृत तपागच्छ गुर्वावली स्वाध्याय . . . ...... ३४७ ५४. तपगच्छनी पट्टावली..... . . . . . . ३५० ५५. लोंकागच्छीय पट्टावली ...... . . . . . . . . . ४०५ ५६. बे ऐतिहासिक नोंध....... . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . ५७. खेताकृत अगमवाणी निसाणी ... ४१२ ५८. दीपविजयकृत सुरतनी गझल . . . . . . . . . . ४१४ ५९. एक घरेणाखतनो दस्तावेज . . . . . . . . . . . ६०. महमद पातशाहनुं वर्णन . . . . . . . . . ....... ४२९ ६१. समयसुंदरकृत सत्याशिया टुकाळनुं वर्णन . . . . ....... ४३१ ६२. महाजननी ८४ न्यातनां कवित . . . . . . . . . ३४४ ४० १२ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३. उदयचंद्रकृत देशदेशनी नारीओनुं वर्णन ६४. ऊना संघ तरफथी विजयसिंहसूरिने विज्ञप्तिपत्र. ६५. बे पत्रो.. ६६. केटलाक आज्ञापत्रो अने माफीपत्रो ६७. केटलांक वधु आज्ञापत्रो. ६८. विजयसेनसूरिना दश बोल ६९. अज्ञातकृत हीरविजयसूरि बार बोल सझाय ७०. साधुमर्यादापट्टक . ७१. यशोविजयगणिकृत १०८/१०१ बोल ७२. लोकाशाह अने लोंकामतविषयक काव्यो ७३. लालविजयकृत रेटियानी सझाय... ७४. दीपविजयकृत कविवचन विशेनां बे कवित. ७५. जटमलकृत स्त्रीगुण सवैया . ७६. तेजपालकृत कुगुरुपचीसी ७७. ज्ञानमेरुकृत कुगुरुछत्रीशी चोपाई. ७८. जिनहर्षकृत सुगुरुपचीसी .. ७९. धरमसीकृत १४ गुणस्थान स्तवन. ८०. मानविजयगणिकृत सात नयनो रास ८१. अल्लुकृत बार भावना (कर्मसिंहकृत बालावबोध साथे ) ८२. गुणाकरसूरिकृत श्रावकविधि रास.. ८३. ज्ञानवैराग्यनां केटलांक अप्रसिद्ध काव्यो. ८४. देवचंद्रजीकृत केटलांक स्तवन- सझाय ८५. समयसुंदरनां केटलांक नानां काव्यो ८६. केटलीक हरियालीओ ८७. भावप्रभसूरिकृत अध्यात्महरियाली - स्वोपज्ञ बालावबोध सह . ८८. सुभाषित दुहा पंचोत्तरी.. ८९. एक जूनो सुभाषित संग्रह ९०. छूटां सुभाषित ( विविध हस्तप्रतोमांथी प्राप्त) ९१. जूनां सुभाषितो ( श्रावक गोडीदासकृत 'नवकार रास 'मांथी) ९२. प्राचीन गुजराती सुभाषितो (संस्कृत ग्रंथोमांथी) . ९३. विविधविषय सुभाषितो ( वीरविजयनी कृतिओमांथी) ९४. जैन सुभाषित संग्रह ... १३ ४४२ ४४७ ४५० ४५२ ४५५ ४६१ ४६३ ४६५ ४७० ४८६ ५०४ ५०६ ५०७ ५०८ ५११ ५१४ ५१७ ५२० ५३५ ५५७ ५६२ ५७२ ५७७ ५८५ ५९१ ५९६ ६०२ ६०७ ६१५ ६१९ ६२५ ६३० Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५. उखाणां. ९६. विक्रम पंदरमा सैकाना केटलाक जैन कविओनी काव्यप्रसादी ( नरसिंहयुग पहेलांना) .. ९७. सं. १५३५मां लखायेलां प्राचीन काव्यो ९८. विनय ( ? ) कृत नेमिनाथ द्वात्रिंशिका ९९. अज्ञातकृत सीमंधर स्वामी स्तोत्र ( अपभ्रंशमां ) १००. अज्ञातकृत महावीर स्तोत्र. १०१. अज्ञातकृत तीर्थमाला स्तव १०२. अज्ञातकृत विक्रमादित्यस्य शत्रुंजयादितीर्थयात्रा. १०३. बे पादुका लेख.. १०४. जैन धातुप्रतिमा लेखसंग्रह ( 9 ) १०५. जैन धातुप्रतिमा लेखसंग्रह ( २ ) १०६. अज्ञातकृत प्राचीन थेरावली. १०७. पार्श्वचंद्रगच्छ लघुपट्टावली १०८. चाहमाननृपवंशावली. १०९. राजवंशावली . ११०. संस्तारकविधि शब्दार्थ * १४ ६३८ ६४० ६४९ ६६१ ६६६ ६६८ ६७१ ६७३ ६७५ ६७६ ६७९ ६८६ ६८९ ६९० ६९१ ६९५ ६९७ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मसमुद्रकृत शकुंतला रास (आ रासना कर्ता धर्मसमुद्र ए एक जैन साधु छे. ते पोतानो जे परिचय, पोतानी अन्य कृतिओमां आपे छे ते एटलो के पोते जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संप्रदायमांना खरतरगच्छना जिनहर्षसूरिना पट्टधर जिनचंद्रसूरिना शिष्य विवेकसिंह उपाध्यायना शिष्य हता. तेमणे सं.१५६७मां जालोरमां 'सुमित्रकुमार रास', सं.१५८४मा 'कुलध्वज सस' अने संवत आप्या वगरनी अन्य कृतिओ नामे ‘रात्रिभोजन रास' (अथवा 'जयसेन चोपाई'), 'अवंति सुकुमाल स्वाध्याय' आदि रची छे. जुओ मारुं पुस्तक नामे जैन गूर्जर कविओ, प्रथम भाग, पृ.११६थी ११९ आ रास ते पस्तक छपायं त्यार पछी हस्तगत थयेल छ ने तेनी रचनानो समय सं.१५७० लगभग मूकी शकाय. आ वर्ष लगभग कवि भालण- अवसान थयुं हशे एम रामलाल चुनीलाल [मोदी] जणावे छे. शकुंतला पर कोई पण प्राचीन गुजराती कविए आख्यान के पदबंध रचना करी होय एवं क्यांय हजी सुधी मालूम पड्युं नथी. आ उपर रचना करवानी पहेल करनार विक्रमनी सोळमी सदीना उत्तरार्धमां थयेल आ जैन कवि धर्मसमुद्र छे एम निर्विवादे कही शकाशे. आ कृति एक नानी छतां सुंदर कृति छे ते समग्र वांचतां जोई शकाशे अने तेनी आखी रचना जोतां तेना कर्ता एक जैन छे एवं कोईने भाग्ये ज जणाशे. कविशिरोमणि कालिदासकृत शकुंतला परतुं 'अभिज्ञानशाकुंतल' नामनुं 'नाटकोनी रसराणी' रूप नाटक सुप्रसिद्ध छे. तेनुं मूल वस्तु महाभारतमा मळी आवे छे. ते सिवाय संस्कृतमां अन्य कोई कविए तेना पर कंई रचना करी होय एवं जणायुं नथी. महाभारतना वस्तुमां कवि कालिदासे रोचक, उचित, रसविधायक फेरफार करी पोतानी साची कलाविधान अने प्रतिभाशक्ति तेमज सूक्ष्म रसवृत्ति बतावी छे. मारा मित्र अंबालाल बुलाखीराम जानी प्रेमानंदकृत 'सुभद्राहरण'नी प्रस्तावना पृ.१६६-१६७मां जणावे छे के : "कवि कालिदासे 'अभिज्ञानशाकुंतल'नी रचना महाभारतना एक वृत्तांतना आधारे रची छे; परंतु तेणे तेना नायक भारतनृपतिशिरोमणि दुष्यन्त अने नायिका शकुंतला ए बन्नेनां चारित्र्यने संसार अने नीतिना उचित आदर्शभूत निरूपवा बे महत्त्वनां नवां कथांतरो योज्यां छे. छतां तेमनी मानवप्रकृतिनी स्वाभाविकता, संपूर्ण कलाचातुरी अने रससंवेदनथी जाळवी राखी छे. तेणे तेमने आदर्शभूत दर्शाववा जतां तेमनी मानवतानो लेश मात्र नाश कर्यो नथी, पण तेनी पामरता निवारी ऊलटी बहलावी छे. (आ वात हालना साहित्यको लक्षमां लेशे के ?) मूळ वृत्तांतनो दुष्यन्त राजा अनेकपत्नीवाळो, कामी, अत्यन्त मोहवश, निष्ठुर अने असत्यवादी छे; त्यारे, 'अभिज्ञानशाकुन्तल'नो नायक दुष्यन्त राजा विनयी, धार्मिक, दयार्द्र अंत:करणवाळो, प्रेमशौर्यान्वित अने सत्यप्रिय छे. कालिदासे दुर्वासा मुनिना शापनो प्रसंग योजीने Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह अद्भुत कलाचातुरीथी दुष्यन्तनी कामांधता, पापमयता, नीतिभीरूता अने प्रणयहीनता निवारी तेना प्रतिनी तिरस्कारबुद्धि वाचकना मनमां थती अटकावी ऊलटी, ऊंडी मानबुद्धि अने पूज्यभाव उत्पन्न कर्यो छे. ते ज प्रमाणे महाभारतनी शकुन्तला लोलुप, मोहवश अने कंईक धृष्ट पण छे, जोके तेनुं वर्तन प्रसंगोचित छे खलं परंतु नाटकनी शकुन्तला विनीतहृदयी, कोमल स्वभाववाळी अने स्त्रीसहज लज्जाथी युक्त छतां आत्मसंमानथी संपूर्ण अन्वित छे. जेम सर्व रीते मूळ इतिवृत्त दुष्यन्त अने शकुन्तलानी स्वाभाविक मानुषी वृत्तिओने प्रतिबिंब पाडे छे तेम नाटकमां पण तेमनी मानुषी वृत्तिओनी स्वाभाविकता जाळववा उपरांत पात्रोन पात्रत्व उन्नत अने आदर्शभूत थयेलुं छे. अने ए ज एनी खूबी छे.'' आ रासमां वस्तु उक्त नाटकमांथी लीधेनुं स्पष्ट छे. मात्र पोते जैन साधु छे तेथी अहिंसाना सिद्धान्तने चीवटथी वळगी रहेवाना कारणे यत्रतत्र फेरफार कर्यो छे : जेवो के माछलीना उदरमाथी धीवरने मळेली मुद्रिकाने आ रासमां तेने सरवरपाळेथी मळेली जणावी छे; शकुंतलाने दुष्यन्त भूली जतां ते 'आ कयां कर्मे बन्यु' एम कही विलाप करे छे तेमां जैन भावना तरवरे छे, वगेरेवगेरे. नाममा जे प्राकृत फेरफार छे ते ए छे के कण्व ऋषिने 'कंठ', दुष्यन्तने 'दुक्कंत', शकुंतलाने 'सकुंतला', 'सिकुंतला' ए नाम अपायां छे. १०४ ढूंकनी आ कृतिमां देशी ढाळो अने छंदो जुदाजुदा मुकाया छे अने ए रीते लोकप्रचलित देशीओ - लोकरागोनो उपयोग जैन कविओए तेरमा सैकाथी ते छेवट सुधी कर्यो छे ए एमनु समग्र साहित्य जोतां जणाशे. आ रास एक अति जूनी प्रतमाथी उतार्यो छे. ते प्रतमां आ रास तेमज आ कर्ताकृत 'अवंतिसुकुमाल पर पंच ढालक' (पांच ढालनी सज्झाय - स्वाध्याय) तेमज छेवटे हरियाली छे, अने वचमां लक्ष्मीरत्नउपाध्यायशिष्यकृत 'सुरप्रिय ऋषि स्वाध्याय' छे के जे कवि पण विक्रम सोळमा शतकमां थया छे. आ प्रतमां बे बाजुवाळा एवा चार पत्रो छे ने ते खीचोखीच नाना पण सुंदर अक्षरोमां लखेला छे. दरेक पत्रनी बंने बाजु पर २३ पंक्तिओ छे. छेवटे 'पं. खेमकुशल लखितं' एम जणाव्युं छे. आ प्रति मारी पासे छे के जे सुभाग्ये एक साहित्यरसिक भाई पासेथी प्राप्त थई छे. तेना कागळ परथी ते सोळमी सदीना अंतमा या सत्तरमीना प्रारंभमां लखायेली लागे छे. ते प्रत परथी अक्षरश: उतारो करी आ कृति अत्रे मकवामां आवे छे. जनी जैन प्रतमां 'ख' ने बदले 'ष' लखाय छे तेम अत्र पण छे पण तेनो उच्चार 'ख' ज थतो अने तेथी उतारामां 'ख' मूक्यो छे ने रूपो जूनां छे ते बताववा मूळ रूपो ज मूकवामां आव्यां छे. आ प्राचीन कृतिथी - भालणना समयनी कृतिथी भाषाशास्त्रीने घणुं मळी रहेशे.) [कवि अने कृति माटे जुओ जैन गूर्जर कविओ, बीजी आवृत्ति भा.१, पृ.२३९-४४. तथा ४९५-९६ तथा गुजराती साहित्यकोश खंड १, पृ.१९५. 'जैन गूर्जर कविओ' मा हस्तप्रत सुरतना लक्ष्मीदास सुखलाल पासेथी मळेली जणाववामां आवी छे. - संपा.] Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मसमुद्रकृत शकुंतला रास ढाळ १ १ सरसति सामिणि करू पसाय, माय, मति दियउ अति भली ए; सतीय सकुंतला जिम कवुं रास, आस पूरउ वली एतली ए. एतलीय पूरउ आस, कविवयण विरचउ वास; जिम थाइ सरस विलास, नवि होइ पंडितहास. २ नवि होई पंडितहास सारद, सार द्यउ वर सारदा; मनरंगि नव नव भाव भाखउं, तुम्ह पसाइ हूं सदा. साकेतपुर वर नयर नामिर्हि, अमरनयर हरावए; ४ दुःकंत राजा राज करता, न्यायमारग ठावए. ३ इक दिनि नरवर करीय उच्छाह, बाहरि वाहत वाहत वाहणी ए; परवर्यउ परगरि वनगिरि वेगि रंगि इछा रमइ मन तणी ए. मन तणीय करतु केलि, बइसतु छाया के (वे) लि; हसता हयवर हेलि, बोलता बंदि पिहिलि. ५ बोलई पहेली नइ समस्या, बंदि बहु बिरदावली; तव दूरि एक कुरंग दृष्टि देखि उठ्यउ नृप वली . रथि चडीय चडवड चपल चंप्पा, वन[ पवन] परि हय उछलई; असि कुंत तोमर तूण संधी, धणुह मुहि ताकइ बलई. ६ करई कुरंग तुरंग उनमाद, वाद वदंइ गति अणुसरी ए; छंडीय भूमि व पंथ बहु जांम, तांम पाम्या [प] वनहिं भरी ए. हय भर्या पवनहि जांम, मृग पूठि पहुता तांम; वन एक अति अभिराम, नृप धनुषि पूरइ वांम. ८ नृप धनुषि पूरी वाम प्राणहि, बांण मेल्हइ तसु जिमइ; रहउ रहउ राजन काज नही, ए कहइ तापस तिणि समइ. मुहि तृणउ घालइ, न्याय चालइ, रंगि मालइ वनि रहइ; नित्रांण हरवा [हणवा] बांण तांणइ, बांण प्राण किसुं वहइ. ९ राय अन्याय तणउ रखवाल, पाल पृथ्वी तणउ सहू कहइ ए; ए निरधार ऊपरि हथीयार-भार- सोभा केही लहइ ए. ए किसी लहीयई सोह, म-म करू राजन द्रोह; इक धरू धरमह मोह, छंडीयइ वयर - विरोह. ११ ७ १० ३ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह छंडीय वयर विरोध नरवर, जाऊ आश्रमि अम्ह तण; गुरु पाय लागउ, सुमति मागउ, पाप जे हेलई हणइ; अम्हे अरथ इंधण तणई जाऊ, वचन ईम नरवर सुणी; हिंसा निवारी राजधारी सामहिउ आश्रम भणी. १२ ढाल २ रथ मेल्ही नरराज लाज हीया-सुं अणुसरी रे; पहुतु ठामि पवित्र मित्र निवड सई हाथि [ साथि ? ] धरी रे. १३ जोईअइ मन-उछाहि, माहि अनोपम तरू भला रे; मोगर नइ मचकुंद, कंद सेवंत्री पाडला रे. १४ केतकी करणी जाई, थाइ आणंद सुपरिमलइ रे; मोटा मंडप द्राख, साख अंबुलडा जि सगलई रे. १५ ल्यइ वीसामउ राय, वाय मलइगिरि वाजतउ रे; सूतउ मंडप हेठि, द्रेठि न मेलीय छइ जागतउ रे. १६ तिह अंतरि हुइ नारि, वारि भरी तरू सींचती ए; वात करइ आदि छंदि नरिंद अदेखती ए. १७ दू भई नारि प्रियंवदा, सुणि प्रियंकरि ! वात; कुंठ नामि कुलपति इहां, सकुंतलानउ तात. १८ योवनभरि पुत्री भरी, वर सोधवा निमित्त; यउ प्रभास तीरथ भणी, यात्रा मिसि करि चित्त. १९ पाछलि आव्यु प्राहुणउ, दुर्व्वासा ऋषिराउ; अणउलखती नवि गिणिउ, बेटी चूकी चाउ. २० तापस कुप्यउ सिकुंतला, शापइ इम तुरंत; नव-परणी वीसारस्यइ, सही जांणे तुझ कंत. २१ इसिउं कही जातउ वही, हुं पगि लागी तासु; भोली ए छइ मुझ सखी, खमि खमि खिमानिवास ! २२ पणमी पाय सकुंतला, खामइ निय मनदोस; कीडी स्युं कटकी किसी, स्वामी संहरि रोस. २३ दुर्वासा वलतुं भणइ, शाप न कूडउ जांणी; पणि प्रीय वली संभारस्यइ, मुंद्रडी - अहिनांणि. २४ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मसमुद्रकृत शकुंतला रास ए कउतग तु इसुं सखी आज मई दिठ; ततखिण कहइ प्रीयंकरी, तापस मोटउ दुठ. २५ ई प्रीयंकरि प्रीयंवदा, रमई ति गूझ रसाल; आवी तिसई सकुंतला, करवा तरू संभाल. २६ ढाळ ३ : राग झाबटा तरू अंतरि दृष्टईं पडी, रिषिपुत्री जाम; कामबांणि वेध्यउं हीइ, चिंतइ नृप ताम. २७ विषम विषयविष दोहिलं, जिणि धा[घा]रिउ जीव; शुद्धि-अशुद्धि लहइ नही, परवस्य ईं(द्री) सदीव. विषम. आंचली. रंभा रमवा अवतरी, कइ किन्नर-नारी; कमला केलि करंतडी, कइ नागकुमारि. विषम० २८ रूप-कला एह ज तणी, ते केहई कांमि; जनम विहल पसुनी परइं, जउ हुइ इण ठामि. विषम० २९ नारि तणुं परमाण स्युं, जउ नहीय. सुनाह; पडि कुथानकि तउ पछइ, नवि भाजइ दाह. विषम० ३० जिम किम ए अंगीकरूं, ईम चिंतवी भूप; मित्र जगावी मोकल्युं, पूछिवा सरूप. विषम० ३१ ए कुण केहनी कन्यका, पूछावइ राय; सखीय भणइ भाइ ! सुणउ आमूल उपाय. विषम० ३२ तपसी तप तपतउ खरउ, जे विश्वामित्र; दीठउ इंद्रई एकदा, संकाj (निय) चित्त. विषम० ३३ तेहवी एहनी साधना, जे हरस्यइ राज; चतुरपणइ करि चूकवइ, ते छइ कोइ आज. विषम० ३४ चिंतातुर इम चिंतवइ, सुरपति इणि रेस; तव इंद्राणी मेणिका, विनवईं विसेसि. विषम० ३५ लाख बत्रीस विमाननउ, तुं प्रभु कहवाइ; तउ स्वामी चिंता किसी, जे इम दुभाय. विषम० ३६ वात कही तापस तणी, तव हसइ पुरंधि; मेखन[इ] मेखइं चूक, परतिन्या संधि. विषम० ३७ आगइ नारि निरगाली, नइ प्रीय आदेस; घृत-आहुति अगनई मिलि, धिगधिगइ विशेष. विषम० ३८ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह ढाळ ४ : राग सामेरी करीय सयल सिंगार ऊतरी, मंडइ नाटारंभ; भणइ मेनिका इंद्र इंद्राणी, नेहवचन संरंभ. ३९ मुनीसर भलइ भलई भेटिउ आवि; चढिउ रयण करि आवि, रषीसर भलई भलई भेटिउ आवि. आलि करई आलति आवती, जालवती मनभेद; करइ तमासा ल्यइ नीसासा, कूडउ धरती खेद. मुनी. ४० भोग काजि प्रभु योग वहीजइ, कीजई काया-सोष; ते इहलोकई पुण्यप्रभावईं, आवइ तउ कुण दोष. मुनी. ४१ वयणगुणइ करि श्रवण हरइ, तस हृदय विनोदविलासी; हर्यां नयण निज रूप देखाडी. पाडी लीधउ पासि. मनी. ईम भोलव्युं भली परि तापस, पाप-सवारथ मंडी; सील-चिंतामणि नांखी दीधुं, कीधु खंडोखंडि. मुनी. ४३ तिणि अन्यानि अन्याय करीनइ कन्यागरभ विछोडि; दिन पूरे वनि नंखी पहुती, तापस लागी खोडि. मुनी. ४४ गयउ तपोवनि वलि तप तपवा, विश्वामित्र उलंठ; वनि टलवलतुं बालक देखी, भाल करई मुनि कुंठ. मुनी. ४५ दया भणी ऊछेरी तरू परि, दूध दहीं देअंत; सिकुंतला ऋषिनइ अति वाल्ही, इम एहनउ वृत्तंत. मुनी. ४६ ढाळ ५ : रास संभलि सवि संबंध, मित्र पहुतउ नृप पासि; जोवा पूठि सकुंतला ए आवइ ऊल्लासि. दीठउं नरपतिरूप जेम हुओ अनुराग; नयण-वयण-मनशुद्धि प्रीति मिलवा थिउ लाग. ४७ सखीय साखि संखेपि वेगि गंधर्ववीवाहि; परणी कुंअरि सिकुंतला ए भूपति ऊमाहि. विरह न सहणउ सहीय जाइ अभ्यंतर ठामि; सुखविलास विलसइ तिहां ए कदली-आरामि. ४८ तापसनउ भय अणुसरी ए मनि संक्यु राय; निज पुरि जावा उच्छहिउ ए, कहई तरूणि विछाय. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मसमुद्रकृत शकुंतला रास स्वामि ! रखे इणि ठामि, मुझ मेल्हउ वीसारी; नामांकित द्यइ मूंद्रडी ए, असमाधि निवारी. ४९ पहुतउ राजा पुरि जिसइ ए, वनि कुलपति आव्यउ; पाणिग्रहण व्रतंत तेह, सखी पाइं जणाव्यु. मुगधपणइ हरख्यो मुणिंद, वर वरिंउ प्रसिद्ध; जगि मोटो दुक्कंतराय, मनवंछित सिद्ध. ५० तेह ज दिन आधान वृद्धि भरीइ छई मास; हरखी चित्त सकुंतला ए, पूराणी आस. आश्रमि प्रसव अशुद्धि जाणि, बोलई ऋषिराउ; वछि पधारउ सासरइ ए, पूरउ मनि भाउ. ५१ साथइ थविरा तापसी ए, दीधा दोइ सीस; रायभवणि पहुचाडवा ए, देतउ आसीस. कुलपति वउलावी वल्यु ए, हितसीख संभारि; चाली हवई सकुंतला ए, दु:ख आणइ भारी. ५२ क्रमि क्रमि पुर साकेत पासि, पहुता इक सरवरि; जल पीवा मुगलोयणी ए, तिह पइसइ परिसरि. हाथ पाय मुह धोयतां ए, मुंदरडी पाडी; भोलपणइ निरखी नहीं ए, हीयडउ ऊघाडी. ५३ नयरि पोलि मेल्ही तिहां ए, थविरा नइ सुंदरि; तापस माहे जईय राज जंपइ जयजय करि. कहीय कंठ-मुनिअ-सिषा[मुनि-आसिषा] ए, नृप करई प्रणाम; पूछइ सुख तप निराबाध, पूछइ आश्रमठाम. ५४ मुनि जंपइ तई राजीइ, सुख तप सात समाधि; पणि परणी तापससुता, तस मनवंछित साधि. ५५ कुलपति कंठइ मोकली, बइठी नयर-दुवारि; गर्भाधार सकुंतला, आणउ राज मझारि. ५६ ढाळ ६ : राग सोरठी नृप सुणीय संभ्रम भाव उपन्नउ, संपन्नउ ए कुण दोस; कुण कंठ कवण सकुंतला, ए कवण कूडउ सोस. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह हो तापस ! असमंजस नवि भाखीइ, रहउ रहउ म-म द्यउ आल, हो तापस ! कुवचन कुण दाखीइ, जीवदया-प्रतिपाल; हो तापस ! असमंजस नवि भाखीइ. ५७ किम मूल विण तरू नीपजइ, किम गाम पाखई सीम; संभल्युं नाम न तेहनु, परिणq तइ होइ कीम. हो तापस० ५८ रिषि भणइ, राजन ! स्युं कहइ, आवी अम्हारई ठामि; परणी तिजी ग्यउ कन्यका, वीसरई कवण विराम. हो तापस० ५९ तव भूप क्रोधातुर थई, कहइ संभलउ वनरोझ; ए राज मेल्हि अनेरडई, करज्यो जमाइ सोझ. हो तापस. ६० वली भृगुटि भीषण धडहडी, ऋषिबाल बोलइ बोल; रे नारिलंपट भूप तुं, म-म मंडि कपट निटोल. हो तापस० ६१ प्रभु ! रखे रिषिनइ कोपवउ, प्रीछवइ राय प्रधान; बहु राजकाजई वीसरी, जे पणि हुस्यइ निदानि. हो तापस० ६२ इक वार दृष्टिं निरखीई, परखीइ साची वात; इम कहीय तेडावी तिहां, पणि देवइ दीधउ घात. हो तापस० ६३ जिम दृष्टि दीठी तिम भणइ, नरनाह कोपाटोप; रइप(वा)डी रमतइ वीसस्यउं[वीसयंउ], कुलवटह कीधु लोप. हो तापस. ६४ पूछंति मुहता सुंदरी, उलखइ किणि अहिनाणि; सा भणइ भोलो छइ किस्युं, परणीयुं वन-अहिठाण. हो तापस. नृप कहइ अबला वलव[ल]ती, जउ बोलतां नही लाज; ऊवेखीइ ए नवि सती, रिषि भणइ राजन आज. हो तापस० ६६ तउजइ[तज्जइ ?] सभा सवि रायनइ, प्रीछी विचारउ वाच; । संकेत चेतन जागीइ, जाणीई जिणि करि साच. हो तापस. ६७ संकेत अम्ह को नवि अछइ, जउ हुई तउ कहउ एह; वलि मंत्रि पूछइ रिषिसुता, जागउ किणि परि नेह. हो तापस. ६८ ढाळ ७ : जयमाला वीनवइ सती सुकुमाल, सुणउ सुणउ जी स्वामि दयाल; दीधी मुद्रा ऊतारी, वालंभ ते किम वीसारी. ६९ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मसमुद्रकृत शकुंतला रास जोउ जोउ रे कर्मकलंक, नवि छूटई राय न रंक; धिग् धिग् रे भवपातकपंक, मनि थाइ सतीय ससंक. आंचली. ७० चित्ति चमकइ परषद जाण, माय, दाखउ ते अहिनाण; जे थकी पतीजइ नाथ, तव साम्डं जोइ हाथ. जोउ० ७१ अंगुलीय न देखइ मुद्रा, कुद्रावइ आवइ तंद्रा; मनि पईठी मोटी संक, हूओ सवि परि विहि वंक. जोउ० ७२ नवि जाणइ ते किह पाडी, नरवर तिम मागइ ताडी; स्यउ उत्तर अबला आपइ, तव कुडकपट सहू थापइ. जोउ० ७३ हिव हसि हसि जंपइ राय, जोउ जोउ रे ए अन्याय; किम धवपणइ धीर, कुण सील सुलाज सरीर. जोउ. ७४ सवि तर्जइ सभा सभूप, रे तापस पापसरूप; असती लेइ आश्रमि जाउ, अम्ह थकी अदृष्टई थाउं. जोउ० ७५ मुनि मेइणि-पीठ निहाली, मनि वाली[वली] दोस संभाली; वन भणीय भरइ जिम पाय, सती आवई पूठि विछाय. जोउ० ७६ आक्रोसइ क्रोधई डारी, ऋषिपति विषवेलि वधारी; कुल-सील-कलंक प्रकासइ, अम्ह साथि म आविस दासिइ. जोउ. इम तरजी वरजी बाल, तपसी पुहता ततकाल; सा सुंदर पाछी आवइ, तव भूपति वेगि वरावइ[वलावइ ?]. जोउ. ७८ रे नीलजि लाज ऊवेखी, घट पाप भराइ देखी; स्युं आवइ आघी धाइ, इण वातइ किसीय सगाइ. जोउ० ७९ ढाळ ८: सींधूआ इम सुणीय वयण जिम वज्रघात, धडहडीय द्रसक्कई धरणिपात; वली थई सचेतन वायजोगि, निरधारी विलवइ बहूय सोगि. ८० रे देव किसी परि एह किद्ध, सघला दुह सवि परि आज दिद्ध; स्यां कीधां परभवियां रे पाप, जे उदयु इणि भवि एह व्याप. ८१ कइ मोडी तरूअर तणीय डाल, कइ फोडी सरवर सजल पालि; कइ दीधी विण अपराध गाल, लीधा फल कोमल कई अकाल. ८२ विछोहउ कीधउ माय-बाल, तप खंड्या मंड्या कूड-जाल; संताप्या तपसी कइ दयाल, कई करतां भोजन हाँ थाल. ८३ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह ते आव्यउ इणि भवि अंतराय, करवउ हिवि केहवु मइ उपाय; तुं माय धरिणी, दिई मुज्झ ठाम, जइ साचु सील तणु प्रमाण. ८४ ईम सतीय वचन किम कूड थाइ, देखता पुहवी-विवरि जाइ; हा हा रव विरचइ लोकवृंद, चमकिउ चित्तई ततखिण नरिंद. ८५ महि माहि सील तणइ विनोद, नागेसरि आणी घरि प्रमोद; दिन केता राखी भुवनवासि, मानी तिणि बहिनि करि विसासि. आसनउ प्रसवावसर हेव, पहुचाडइ तापस पासि देव; सुर भणइ, नहीं मनि किसुंय पाप, पणि ऋषि दुर्वासा तणु साप. ८७ कुलपति ते मानइ वयण नाग, सखी ए पणि बोल्यु शाप लाग; दिन पूरे जनम्यउ तेजवंत, सुत देखी हरख्या रिषि तुरंत. ८८ वस्तु जेण अवसरि, जेण अवसरि, सरह उपकंठ; मुद्रा पाडी कर थकी, झलहलंति धीवरहिं निरखी, ग्यउ जवहरि वेचवा रायनाम तिणि सेठि परखी; कर दीधी तलवर तणइ, माछी बंध्यउ ताम; नृप आगलि वींटी सहित, मेल्ही करइ प्रणाम. ८९ ढाळ ९: धरिली देखीय मुद्रडी हिवि नरनाह, दाह हीयडइ अति अवतर्यउ ए; संभरी ते सवि पूरव वात, पातकपंकि हु किम भर्यउ ए. ९० किम भरिउ पातकपंक, ए हूउ माहरउ वंक; जे सतीय दिद्ध कलंक, आणी निसी नवि संक. ९१ नवि संक आणी वात जाणी, पखइ नारि न मनि धरी; स्युं थयुं परवसि संनिपातहि, धात माहरी ए फिरी. मद चड्यइ मइ मति, वनहिं वरणी, कवण घरणी अवगुणी; किणि परइं लहीइ किणइ कहीइं, झंक पइठी अतिघणी. ९२ धीवर पूछ्यउ मुद्रिका ठाम, ताम कहइ सरवरि मइ लही ए; पाडी होयस्यई पीयतां नीर, तीर सरवर तणइ तिणि सही ए. ९३ तिणि सहीय सरजल माहि, लीधी कहिओ नरनाहि; पणि पडिउ विरह अवाहि, टलवलइ निसिदिनि नाहि. ९४ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मसमुद्रकृत शकुंतला रास निसिदिवसि जल विण जेम जलचर तेम राजा टलवलइ; नवि भूख नींद्र न राजकाज अवनि सूनी करि कलइ. निवि मंत्रि तिणि वन माहि रमवा राय तेडइ आग्रहइ; वीसारवा दुख भणीय नरवर केलि उछ्व बहु वहइ. ९५ इणि खिणि संभल्यु सिंहनु साद, नाद करि आश्रमि गूंजतउ ए; रिषि तणो गोकुल राखवा राय जाइ पासइ जिम बलवतउ ए. ९६ बलवतउ पुहवीपाल, वनि जाइ जिम ततकाल; तिम एक देखइ बाल, देयतउ हरि प्रति फाल. ९७ देउ हरि प्रति फाल बालक अतुलबल झूझ वली; राजा सखाइ थयउ तिणि खिणि सिंह नंख्य निरदली; ते कुंअर देखी अमीय पूरइ रायलोयण उल्लसइ; नृप भइ आलिंगन समोपी, वछ ! कहि तुं किहि वसइ. ९८ कहइ कुंअर दुक्कंत मुझ तात, मात रिषिधुय सकुंतला ए; वास वनवासि फलफूल आहार, पहिरणि तरूअर वलकला ए. ९९ पहिरणइ वलकल एह, जागव्यो नरवर नेह, ओलखी पुत्र सनेह, तुह माय किहिं छइ तेह. १०० मुझ माय दाखं, साथि आयउ, वेगि मुनि आश्रमि जइ; अपराध खामई, बोध पामइ, सतीय कामइ थिर थइ. रिषि-साखि सुंदरि भणइ सामी, साप दुर्वासा तणउ; दूसण किस्युं तुम्हे अम्ह दीजइ, करम मेलउ आपणउ . १०१ गयवर गुडीय सुत माहि [ साहि ?] सकुंतला आणीय नय महोत्सवइ ए; बलपण बलवंत ते कुंअर रंगि युवराजपदवी ठवइ ए. १०२ पदि ठविउ सुत युवराज, संग्रहई अरिअण राज, नृप करइ वंछित काज, राखतउ कुलवटलाज. १०३ कुलवटलाज राखइ विनय दाखइ, सत्य भाखइ जे मुखई; दुष्कंतराय शिकुंतला सुत सदा जयवंतउ सुखइ. ए रास भणतां रंगि सुणतां, पाप-कसमल परिहरउ; कवि कहि धर्म्मसमुद्र सूधा सील ऊपरि खप करउ. १०४ इति श्री सकुंतला रास समाप्त: पं. खेमकलश लखितं. (मारी पासे ) [ लक्ष्मीदास सुखलाल, सुरत ] - ११ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ स्फुट विवेचन [ देशाईए आ मथाला नीचे प्रचुरपणे शब्दार्थो कडीवार नोंध्या छे, केटलीक व्युत्पत्तिओ आपी छे, क्यांक व्याकरणी नोंध करी छे अने अवारनवार शब्दोना समांतर प्रयोगो भालण, पद्मनाभ, प्रेमानंद, नयसुंदर, मोहनविजय, (संस्कृतमां) कालिदास वगेरेमांथी टांक्या छे, जे एमनो आ विषयनो गाढ अभ्यास दर्शावे छे. अपायेला शब्दोर्थोमांथी केटलाक आजे जरूरी नथी थोडा शब्दार्थोनी शुद्धि करवानुं पण प्राप्त थाय छे. आवश्यक शब्दार्थो आ ग्रंथमां अपायेला शब्दकोशमां, योग्य शुद्धिवृद्धिपूर्वक समावी लीधा छे, परंतु थोडीक टिप्पणीओ अहीं साव लेवा जेवी लागी छे. संपा. ] बे हाथ पहोळा करी ते साथे छातीनो उपलो भाग मेळवतां राजा धनुष्यने वामथी पूरतो हतो. [ धनुष्यमां धनुष्यने खेंचे छे.] नृप धनुषि पूरइ वाम बाण फेंकवा हाथ फैलावी १०. अन्याय तणो रखवाल एटले अन्याय सामे रक्षण आपनार. २३. कटकी - नानुं कटक, लश्कर कडी पर कटक शुं आकवत हजु सुधी चाली आवे छे. सरखावो ‘हांजी शी कटकी कीडी परे' (मोहनविजयकृत नर्मदासुंदरी रास, ढाळ १८- ६), 'कटकी शी कीडी उपरे' (ए ज कविकृत मानतुंग मानवती रास, खंड १, ढाळ १२-११). ८. वाम सं. व्याम, जे लंबाई थाय ते. वाम पूरे छे प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह २६. पछी. झाबटा - "झाबट्ट दोहरानी धाटीनो लयबंध छे. 'पंदरमा शतकना प्राचीन गुर्जर काव्य 'ना पृ. १२२मां जे पद ( ' प्रबंधचिंतामणि' मां) आप्युं छे ते ज झाबट्ट छे.' के. ह. ध्रुव (ए ग्रंथनी प्रस्तावना पृ. ३८ ) ३६. विमान वैमानिक देव. ३७. मेख मेखन [इ] चूकवुं - मेखने मेखथी काढुं (?) [कांटाथी कांटाने काढवो ?] ४१. हे प्रभु! जे भोग काजे योगसाधना करीए, कायाने शोषवी दईए ते आ लोकमां पुण्यप्रभावे आवे तो तेमां तमने शुं दोष बांधो ? तपेश्वर ते भोगेश्वर राजेश्वर एटले तप करवाथी आवता भवमां खूब भोग मळे छे ए मान्यता उपर आ कथन छे. ४८. सहणउ न जाइ - सह्युं न जाय सरखावो 'रहणं न जाइ' ( कानडदे प्रबंध, ३,२३६ 'पीयु विण रहं न जाइ . ' ) विरह न सहणउ सहीय जाइ सहन करताय विरह सह्यो जाय नहीं. ५५. तई राजीइ - तुं राज करते छते ( कर्तरि सप्तमी ). ८९ तलवर - कोटवाल, सं. तलारक्ष. ए शब्द सं. १३३०ना एक शिलालेखमां आव्यो छे. माणिक्यसुंदरसूरिए सं. १४७८मां रचेल 'पृथ्वीचंद्रचरित्र' मां राजकीय अधिकारीओनी नामावलीमां 'तलवर' अने 'तलवर्ग' ए नाम पण छे (प्राचीन गुर्जर काव्यसंग्रह, पृ. ९७). कोई कोई शिलालेखोमां ‘तलवर्गिक' पण आवे छे. [ 'तलवर' देश्य शब्द छे, 'तलारक्ष' एनुं - Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मसमुद्रकृत शकुंतला रास संस्कृतीकरण थयु जणाय छे.] आ पछी ढाळ आवे छे ते ‘धुरिली' एटले कृतिना आरंभमां जे ढाळ छे ते. १०३. संग्रहइ - संग्रह करे, रक्षण करे. सरखावो – 'तथा ग्रामशतानां च कुर्याद् राष्ट्रस्य संग्रहः' (मनुस्मृति, ७-११४) शत्रुओथी राज्य- रक्षण करे. [जैन साहित्य संशोधक, खं.३ अं.२, सं.१९८४, पृ. १९५-२१५] Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ तेजविजयकृत केशरियाजीनो रास (कवि हीरविजयसूरि - तेमना विवेकविजय अने शुभविजय - तेमना रूपविजय - कृष्णविजय - रंगविजय - भीमविजय - हेमविजयना शिष्य छे. तेमणे सं.१८७०मां आ रास मारवाडीमिश्रित गुजराती भाषामां रच्यो छे. मुनि संपतविजये घणां वर्ष पहेला एमना शिष्य पासे आनी नकल करावी मोकली हती तेनो उपयोग अहीं कर्यो छे. आनी अन्य प्रतोनी माहिती अमारा 'जैन गूर्जर कथाओ' भाग त्रीजामां आवशे. ____ आ रास काव्यनी दृष्टिए उपयोगी नथी, परंतु श्री केशरियाजी तीर्थ संबंधे केटलीक वातो अत्यारे बहार आवी छे ते प्रसंगे आ रासनी उपयोगिता जणाशे.) [अहीं पाटण हेमचंद्राचार्य जैन ज्ञानमंदिरनी प्रत क्र.११५३० मेळवी आ कृतिना पाठनी शुद्धिवृद्धि करवामां आवी छे. एमां मळती वधारानी पंक्तिओ चोरस कौंसमां मूकी छे, एनी मददथी (तेमज स्वतंत्र रीते पण) केटलीक पाठशुद्धि करी छे अने बन्ने प्रतनां आवश्यक जणायां ते पाठांतरो पादटीपमां दर्शाव्यां छे. (क : देसाई; ख : पाटण) स्पष्टत: भ्रष्ट पाठो दर्शाव्या नथी. आ बीजी प्रतना उपयोगथी केटलीक हकीकतो चोख्खी बने छ : (१) श्री देशाईए जे गुरुपरंपरा आपी छे तेमां भावविजय अने सिद्धिविजय ए नामो छूटी गयां छे, ते उपरांत आ बीजी प्रत 'विवेक'ने बदले 'वाचक' पाठ आपे छे ने अन्यत्र आ गुरुपरंपरा मळे छे त्यां विवेकविजय नथी (जुओ जैन गुर्जर कविओ, बीजी आवृत्ति, भा.६ पृ.४१-४४, ४६). तेथी कविनी खरी गुरुपरंपरा आम थाय छे : हीरविजयसूरि - शूभविजय - भावविजय - सिद्धिविजय - रूपविजय - कृष्णविजय – रंगविजय - भीमविजय - हेमविजय - तेजविजय. जैन गूर्जर कविओ, भा.६, पृ.२९६ पर आ कर्ता - कृतिनी नोंध छे त्यां पण गुरुपरंपरा सुधारवानी रहे. (२) उपर श्री देशाईए कृतिनी र.सं.१८७० कहेल छे. परंतु 'जैन गूर्जर कविओ' (भा.६, पृ.२९६) तथा ‘गुजराती साहित्यकोश' (खं.१, पृ.१५८)मा र.सं.१८७७ दर्शावायेल छे. श्री देसाईए आपेल कृतिना पाठमां ‘सत्योतरा' शब्द छे ते १८७७ बतावे. परंतु एनी पूर्वे छेल्ली ढाळमां 'संवत वसु चंद्र सुन्य सैल' एम आवे छे तेनुं अर्थघटन १८०७, १८०८, १८७०, १८८० एम थई शके, १८७७ नहीं. हवे बीजी प्रतमां 'सीतेरा' पाठ मळे छे तेथी र.सं.१८७० निश्चित थाय छे. उपरांत, बीजी प्रतमां बीजी ढाळमां वधारानी पंक्ति मळे छे तेमां काव्यगत घटना १८६३मां बनी होवानो निर्देश छे. कृतिनी रचना ते पछी ज होई शके. तेजविजयना वाचनार्थे सं.१८४४मां लखायेली प्रतनी (जैन गूर्जर कविओ, भा.६, पृ.५७२) अने तेजविजये सं.१८७३मां लखेली पत्रनी (जैन गूर्जर कविओ, भा.६, पृ.१३३ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेजविजयकृत केशरियाजीनो रास -३४) माहिती मळे छे तेथी तेजविजयनो जीवनकाळ सं. १८४४थी १८७३नी आजुबाजु केलांक वर्ष विस्तरेलो गणी शकाय. कविनी वर्णनछटा अने कृतिमां प्रयोजायेला मारवाडी लोकगीतोना देशीबंधो ध्यान खेंचे छे. - संपा. ] दुहा सरस वचन रस वरसति, हंसवाहनी हंसगती, प्रथम ज प्रणमुं सरसति, मागुं अविरल मती. १ ब्रह्मसुता वरदायिनी, देज्यो बहूली बुद्धि, जीम गुरूपदपंकज भणी आराहुं मनशुद्धि. २ गुरू ग्यांनि ध्यांनि नमुं, ज्ञानदायक गुरूराय, कीडीथी कुंजर होवें ते सहगूरू- पसाय ३ पडिमा प्रथम जिणंदरी रीष्ट रयण सम रंग, परतिख परतो सांभली मुज मन हुओ उमंग. ४ ते जीन-गुण थुणस्युं इहां केसरीयारी विख्यात, असुर नमायो पलकमें, तेह कहुं अवदात. ५ ढाल १ आज सेहेरमें जाडो सीपडो मारूजी जाडा रे जाडा दोइ नाररा कोई ' जाणे सेहेरमें जाडो सीपडो मारुजी ए देशी जंबूद्वीप दक्षिण भरतमें, तारूजी, खग देश नगर धुलेव जगरा तारू, केसरीया जीन अवधारीइं, तारुजी. ए आंकणी ते मांहें आप मुरत अवनीतिलो, ता० प्रबल प्रतापी प्रगट्यो देव. जग० के० १ भाव थकी रे आज भेटीया, ता० आदिजिणंद अरिहंत. ज० के० नाभीनंदनकुल-दिनमणी, ता. सुनंदा सुमंगलारो कंत. ज० के० २ भोमि इख्या अरिहा अवतर्यो, ता० कल्पतरू अजोध्या वास, ज० के० वृषभ शुपनें रीसह नांमनां, ता० माता मरूदेवी मन उल्लास. ज० के० ३ वृषभ - लंछन पद राजतो, ता० पंच सयां धनु तनुमांन, ज० के० आयू चोरासी पूरव लाखरो, ता० वंस इख्यागें कंचन-वांन. ज० के० ४ वीस लाख पूरव कुंवरपदे, ता० लक्ष त्रेसठि पूरव राज. ज० के० मास बारे संवछरीदांनमें, ता० धणकणकंचण कामणि ताज. ज० के० ५ १. ख. कांइ. २. ख. जाणो. १५ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह संजम लेइ केवल देसना, ता० पडीबोह्या नरनारीना वृंद. ज० के० पुरब नवांणुं वार समोसर्या, ता० सिद्धिगीरीइं रूषभ जिणंद ज० के० ६ अष्ट घन घाती कर्म क्षय करी, ता० अष्टापदे वरीया सीवनार. ज० के० ज्योतिमें ज्योति अवीनासी थया, ता० रत्नत्रयमें अनंत अपार. ज० के० ७ यक्ष गौमुख चक्केसरी देवी, ता० जीनसासनने सुखदातार, ज० के० हेमविजय कविरायनो, ता० कहे तेजविजय जयकार. ज० के०८ दूहा पणयालिस लख जोयणां पोहलपणे सीवधांम, जाड्यपणें मध्य भागमां अष्ट जोयणां अक्षय ठांम. सीद्धसला मध्य भाग्यथी उतरति जिहां छेह, मक्षिकापांख समान छें फटीक रयणमय तेह. एक जोयण रे वीस में भागे सीद्धजीव वसंत, आयो अलोक तेह उपरें एक जोयण उचंत. ज्योति सरूप सीद्ध जीव ए अजर अमर नीराकार, नीरागी अकलंक ए परमातमपदधार. ज्ञांन दर्शन अनंतमें चारीत्र विर्य अनंत, चऊद राज तिन लोकना मनोगत भाव लहंत. ३. ख. चोवीसमें ४. क. हाडारारी जायाजी ५. क. चानें झीलीजी 9 - २ ३ ढाल २ वागो बन्यो बुधसंघ केहरो राज, पंच महोरारी पाघ हाडारायाजी, थाने झालीजी* वच्चे छे, नरवर मत चालो, राज ए देशी मारी अरज सुणीजें पिण निज सेवक विनवें, राज, दुर थकी रें अरजी करूं, राज, कृपा रे सुहग - शुभ - लेहरथी, राज, [ संवत अढार तेसठामां, राज, सीद्धस्वरूपी सहजानंदमें राज, मग्न रहो छो महाराज, धुलेवारायाजी, केसरीया जीनराज ए आंकणी मनवंछित रे निवाज. धु० मा० १ पिण तुम ध्यांन रे हजूर, धु० मा० होई किंकर सनूर. धु० मा० २ जोर मच्यो जंगपुर, धु० मा० आप ही आप असवार हुइ, राज, किओ सुजस ने सनूर. धु० मा० ] ४ ५ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ तेजविजयकृत केशरियाजीनो रास अशुरनें अतीहें सज्या देइ, राज, राखी जुगोजुग वात, धु. मा. झुझपणारी कीरत सुणी, राज, तेह कहुं अवदात. धु. मा. ३ एक दीन सदासीवरांमजी, राज, जसवंत भाउ तातो जेम, धु. मा. लसकर लेइ आया दरीसणे, राज, कुडकपट धरी तेंम. धु. मा. ४ छल करवाने कारणे, राज, के सदासीव वात, धु. मा. पथर-मुरतमें रे काइ होसि, राज, स्यो देवत सी करामात. धु. मा. कोटरी उट करी धांममि, राज, बेसार्यो रे करी देव, धु. मा. भूतखाना हिंदू पाखंडमि, राज, माल ठगी लें नीतमेव. धु. मा. ६ जसवंत वदें शुणी राउजी, राज, रीद्धि प्रबल छे अपार, धु. मा. करीइं लोचन इहां दाव छे, राज, कुंण करसें छत्तकार. धु. मा. ७ न-माखीउं मधलेयण भणी, राज, अशुर थयो रे उजमाल, धु० मा० पिण मुढ मनमें जाणे नही, राज, जे किंपाक सम ताल. धु. मा. ८ करीने प्रपंच इम चिहुं जणे, राज, आया देवल मझार, धु० मा. दरीसण करीने पाछा वल्या, राज, पकड्यो भंडारी तिणी वार. धु. मा. ९ चिंते रे भंडारी नीज मन थकी, राज, दांन तो भंडारे रह्यो दूर, धु. मा. पिण लेहणाथी देहणो थयो, राज, कांइ करसे रे अशुर. धु० मा० १० मन रे भीतर ध्यायो सीरधणी, राज, भंडारीइं जिनराज, धु. मा. हेमविजय सुपसायथी, राज, तेज कहे रे सारो काज. धु. मा. ११ दूहा भंडारी समरण करे, सुणो रूषभ राजिंद, कार लीओ अशुरे मीली, करो असुरनीकंद. १ में जांण्यं दांम देयस्यै, ते काइ न करी वात, उलटी बाजी मांडीने खेलण लागा घात. २ ते माटे कहुं साहिबा, राखो थारी थें लाज, पौष वार ज्युं किम कीजीई, लाजें विणस्ये काज. ३ त्रास-पमाडण कारणे, धाया असुर चोक फेर, असी नीकासीने लवें, लीउ भंडारी घेर. ४ ६. क. उपद्रव Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह बे वाटीकीओ सांकडे बोलावी अशुरांण, अणगमता निज वदनथी विरूई जंपे वाण. ५ ढाल ३ उठ रें राणी दिवडीओ अजुआल, परदेशी कागल आवीयाजी, मारा राज, बाल्यो बाल्यो सवामण तेल, परदेशी कागल न उकल्यो, मारा राज. [तेडावो मोरी नणंदी केरो वीर, परदेशी कागल वांचसि जी, मा. लख्यो लख्यो दलीरो देश, लखी दक्षणरी चाकरी जी, मा. चाकरीए तारा वडा वीराने मेलिं, हजारी ढोलो घरे भलाजी, मा. वडा वीरारी वटकाली छे नार, नित उठी कलहो करेजी, मा०] - ए देशी बोल्यो बोल्यो सीवरांम ताम, भंडारी शुणो वातडीजी, मारा राज, मेल्यो मेल्यो माल अनंत, धूतीने दिनरातडीजी, मारा राज. १ आल रे अमनें ए धन आज, छोडीस नही तुम भणीजी, मा. सांम सेवकने विघन अपार, होस्ये रे कही मन तणीजी. मा. २ पाहणे देव न वासे रे कोइ, निके मांगो न एक निकेजी, मा. ते माटे तु मत करजे गुज, घणुं सुं कहीइं तुनेजी. मा. ३ कहे भंडारी, सुण सीवरांम, कुमती किंम दाखवेजी, मा० कुमति मारगना रे भजनार, थास्ये रे इंम भाखवेजी. मा. ४ जो मानो तो भालुं एक वात, विख्यातरी नही मणाजी, मा. रीषभ जीनरा एक सत पुत्र, ते मांहे वृद्ध बे जणांजी. मा. ५ वडो भरत लघु बाहुबल भ्रात, वडाउआ तु अम तणाजी, मा. आदिम आदेसर जीनराज, कारिज सारे घणांजी. मा. ६ दीइं अपूत्रीयाने पूत्र, आपद सरवे हरेजी. मा. रोग जलण ने जल रे कंतार, संग्रामें अरि घणाजी. मा. ७ चोर° गयंद ने विसहर नाग, अष्ट भय अलगा करेजी. मा. अलख नीरंजन त्रीभुवन माहें, ठकुराइपणो धरेजी. मा. ८ कंइ भाखो छो मुजनें यांहिं, धणी रे पासें लीओजी, मा. सुरपती नरपती सेवे इणरा पाय, विद्याधरपद इंणें दीओजी. मा. ९ सहस अडतालीस विद्या केरा पाठ, इंद्रे प्रभुमुखें कह्याजी, मा. नमी विनमी पालक पुत, वैताढ्ये गीरीइं रह्याजी. मा. १० २. ख. दासी, ७. नेपा. Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेजविजयकृत केशरियाजीनो रास एहवा गुणधारक जीनराज, केसरीओ कारे वडोजी, मा. आदजी केरो लोपें कार, ते जग माहे जडोजी. मा० ११ हिंदु मुसलमान बंधव दोय, एहमां नही जूदागरीजी, मा. मुल थकी में भाखी साची वात, जो मानो तो ए छे खरीजी. मा० १२ हुं तो एहनो हूकमी छु दास, ए नाथजी छे माहरोजी, मा. जो करस्यो थे काला जीनरी आल, तो काल सखाई ताहरोजी. मा० १३ वयण शुणीनें भृगुटी चढाय, अशुर आणां लोपतोजी, मा. भंडारीरा मुख उपरे दइ थाप, क्रोधातुर कहे कोपतोजी. मा. १४ भंडारीइं दीओ उपदेस, ज्युं सुग्री कपीनें कहेजी, मा. वीनासकाले विपरीत बुद्ध, सान चिहुं जणरी गइजी. मा. १५ कर वाहर केसरीया कृपाल, अशुर आवीने अड्योजी, मा. हेमविजय कविरायनो सीस, सुतेज प्रभु ध्याने मंड्योजी. मा. १६ दूहा केसरीया, वाहर करो, भक्तीकारकनी भीर, आवो मंत्री अनुभवे, अशुर तणी जे पीर. १ आवेला दुखनी अछे,' वरतें छे महाराय, कबज कीयो दुष्टें मली, ओ सवी थहारे पसाय. २ भंडारीपणो आदरी आ फल पाम्या आज, संगत थाहरी में करी, त्यारें रही आ लाज. ३ मोह-टालो करीने रह्या, जइ पाहाडां वीच, इणी मति बहू थायस्यें, केसररा इंहां कीच. ४ राव सुंणी धरजो मया, करजो रीयत निसंक, असुरपती भंडारीने जंपे वयण अवंक. ५ ढाल ४ करहा चाल उतावलो पगडे, आइ गणगोरजी, बुधसंग हाडाजीरो करहलो - ए देशी . पभणे कुमेद सदासीवरांमजी, जसवंत भाउ तातो तेमजी, जोउं रे हुं नाथजी ताहरो, हमनें मारसें केमजी. १ ८. ख. सुख आंतरी, ९ क. रही. Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह ३ केसरीओ थारो मांनें कांइ करे. ए आंकणी सीर छेदी लेस्यांजी ताहरो नाथजी क्युं हो वारेजी, धणी आपुं जोवा ताहरूं आवीनें केम उगारेजी. के. मुढा लोक सयल मली करे पाहाणारा वखांणजी, लली लली वृंद पाए नमें, मतहीणा ते अजाणजी. के० अरूण नयण करीनें कहें, लोचन करस्यां भंडारजी, ताहरी हेमात देखावजे, भुलिस नांहिं लिगारजी. के. इम कही योधा नरवर लेइ, मुगल्ल हबसी ने पठांणजी, धूस पडीजी नगारा तणी, धौम मची घमसांणजी. के. नीली टोपीना धारक घणा, उभला ताहि फरंगीजी, आरबरी आर्भटी हुइ, नवल नेजा पचरंगीजी. के. वसुधा उपरें फरहरे, घुरे नीसांण अपारजी, सैन्यघटा थाट बहु मली सरणाइरा रे टहकारजी. के ० उत्तर घन जीम ऊनस्यो तिम हल्लकारी तिहां फोजजी, सुजस-देयण चिहूं जण करे, मनशुबो निज मोजजी. के. ग्रामडीया मांहें भील थोडला, सैन्य अघाडी नवि आवेजी, जोधा नर को दीसें नही, जे आपणनें हठावेजी. के. निकेवल बेठो भूतडो, तस पासें नहीं शस्त्रजी, नरवाणी ए पाषांणमें नही, तस अंगे सुवस्त्रजी. क० वांनि पण नहीं चेतना, जे उठीने सांमो थायजी, बलवंत नर को दुसरो, जे आपणने हठायजी. के० ईं धारी चिहूं जणे धारणा, जसवंत दीयो रे आदशजी, काईजी सुभट थे साहमुं जूओ, आ देउल आ ग्रांमेसजी, के० फोज चढी रे सनमुख थई, किहांही दुरो जीनराजजी, हेमविजय सुपसायथी तेज कहे रे सारो काजजी. के. दूहा दल वादल सम उपड्यो स्यांम घटा घनघोर, असुर अतीहें उछक थया, केकइ करे ज्युं जिंगोर. १ संग्राम-वाजा सज थया, रणसिणगा रणतुर, रणभंभा पूर वाजते, सुभट हुया ससनूर. २ W ४ ५ بر w 6 U ९ १० ११ १२ १३ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेजविजयकृत केशरियाजीनो रास जोधा नर चाले मिली, ढील नही घडी " एक, सैन्य सकल मुरखपति वचन कहे अविवेक. ३ घेरी लीओ ग्रांमनें जीनमंदिर संजूत, कुदे चपल कुरंग ज्यूं, दुष्ट जीस्या यमदूत. दीग्मूढ सहु नगरीजना, आ स्यो हुओ उतपात, आयो हुंतो दरीसण भणी, वीणठी दीसें वात. ५ १०. ख. जरा. ११. ख. बधी पंक्तिने आरंभे 'जिनपति' शब्द छे.. १२. ख. सहस्र, १३. ख. लछिरा ढाल ५ फतमल पाणीडा गइति रे तलाव लसकर आयो रे हाडाराय ए देशी जीनपति, पूरिजन हालकल्लोल घेरो हुओ रे परचक्रनो, केसरीया " महाराज, पाणी राखो रे निज नकरोजी. १ वरण अढारे जपंत, रूषभ जिणेसर तुं धणीजी, सीघ्र वाहर कर भीर, मेदनी वेदनी सहे तुम तणीजी. तिण वेला समुद्र मझार, आप पधार्या रे प्रेमें करीजी, श्रीपति नामें सेठ, बेठो रीसह रूदय धरीजी. ३ तिहां हुओ यांन तोफान, उभड पवन प्रजोगथीजी, staण लागो रे जहाज, निदि विचे रे भावी जोगथीजी. तिहां नही कोइरो आधार, रीव - रीवा सहु मुखथी करेजी, निज निज गुरू धर्म आपापणा रे दीलमां धरेजी. ५ कोइ भजे हरि हर देव कोइ अल्ला पीर कोई बेचरीजी, केइ वीर जात समीर जोगनी सक्ति समाचरीजी. सेठ जंपे नवकारमंत्र, अमुलक मन धरेंजी, पंच प्रमेष्टी शुभ ध्यांन त्रिकरण - शुद्ध समरण करेजी. ७ रोक रूकम सेहर पांच, सेर सवा रे केसर दीयाजी, माने धुलेवरायने सेठ, थेट निधी रे पारे थीयाजी. जसरा'३ अभीलाषी जीनराज तुरत पोता तिहां किण जईजी, नाव उठावण काज करे सुप्राक्रम आतुर थइजी. ४ ― २ ४ ६ て ९. २१ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह नाव उंचकी रे सतोल समुद्रतटे रे जाइ ठवीजी, आप लीइ रे वीसरांम, तव तिहां वात आवी नवीजी. दुष्ट कीउ रे इहां जोर, असुर अलुराई बहु लहीजी, इहां थकी रे सुर एक जइ जीनवरनें आगे कहीजी. सुर रीदये रे न समाय वात, केडें थई ते भणेजी, हेमविजय सुपसाय तेज कहे रे हेजे घणेजी. १२ दूहा सुर कहे रे, स्वामी सुणो, परना समारो काज, शुद्ध न राखो सपुर तणी, ते निज विणसे काज. 9 जलवट थलवट मारगे, वीसमी जीहां कांतार, वोलावा करीनें तुमो, लछी वधारी अपार. ते लछीलेयण भणी लेइ प्रबल दलपुर, वयण ऊधत मुख उचरे, आव्यो एक असुर. ३ लीधी हसे के लेयसे, हुं तो आव्यो छं अत्र, जरूर पधारो नाथजी, वाट जोवे जन तत्र. ४ भंडारी तुम उपरें करी मेल्यो छे कार, बीजी वार तुमचे पदे कोइ न चढे निरधार. ५ रुद्राणी विणायक वदनथी २ ढाल ६ इण सरोवरीयारी पाल उभी दोय नागरी, ललनां, [ पेहरण देखणीरा चीर ओढणी पीली पामरी, ललना]- ए देशी इम सुणतां जीनराजनें सुर सघला मल्या, ललना, बावन वीर जंपे एम, असुर थया खल्या, ललना, पिण नीज स्वांमीनो दाम लेवा किंम दीजीइं, ल० केसरीया जीनराजरो कारज कीजीइं. ल. १ तिहां आयो अंजनीनंदन दुष्ट करूं चकचूर, ज्यूं चोसठ जोगनी खपर असुरो रूद्र भखेवा प्रथम नांमोचार आव्यो गिरी करमां आदेश द्यो ग्रही, ल० वही, ल० लेइ उभी रही, ल० गहगही. ल० २ मलपतो, ल० दालो दुखभंजन जलपतो, ल० १० ११ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेजविजयकृत केशरियाजीनो रास सजोडे सक्ति - शुं, ल० रागी जिनभक्ति - शुं, ल० कह्या. ल० ४ गली, ल० वली. ल० ५ मली, ल० करोनि शुं काम, हुं उभो छु कर जोड, जटाधारी सीवराज वृषभ थइ असवार आवी भणें, सुणो देव, सर्व शुं जोइ रह्या, ल० अजुक्त वयण असुरे बहु जिननी वेदध्वनी उचरंत ब्रह्माजी चतुर्मुख चिहुं वेदना पुस्तक वेद उचारे करी भाखु, ए दुष्ट जासे वीलंबतणो नही काम, सुपल जाए ब्रह्माणी जिनभक्तिधारक शक्ति जीनशासन भणी सानधकारी देवदेवी वीतराग मुख सामुं जो नाथजी दीइं आदेस तो सुर हरखित होवे, ल०६ करुणासायर जिनराज भाखे ते आपेही आपणे पापें तजे ते जीवहत्या तणो दोस आपण किंम निर्गुणवं गुण देने जस इंम निसुणी सुर वांणी वदे इंणें आचरणें समारस्यो थे मोटा थइनें अजुक्त वयण किंम विजय कवि तेजनें चरणें आगली, ल० जोवे, ल० सर्वनें, ल० निज सानिधकारी आगले, ल० रीषभजीरी भागले. ल० ३ आवीया, ल० लावीया, ल० गर्वनें, ल० लीजीइं, ल० कीजीई. ल० ७ जिनराजने, ल० काजनें, ल० भासीइं, ल० निवासीइं. ल०८ दूहा सुर सघला जगनाथनें भाखे एम वचन, एसी वात कही तुमें, न गमी अमचे मन. १. कार लोप्यो दुष्टें मली, भंडारी मुख थाप, देइनें दांन लेयवा सज्ज थया छे आज. २. सिज्या विण हवे तेहनें किमही न वले लाज, ते माटे कृपा करी तुमें द्यो अनुमति महाराज. ३ २३ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह तव की कालो तिहां भैरव जंपे एम, सक्ति जात अम बेहुनें काम समय जेम. ४ गौमुख यक्ष बिहुने कारज आज्ञा देत, समुद्रतटथी अनमेषमें आव्या सुर समेत. ५ ढाल ७ मा० के० मा० के० ४ मा० के० नथ लाज्यो मारूराज मुखरो मंडन गोरी रे नथ लाजो राज ए देशी नगर धुंलेव आया विलोकी साजन सुरसैन्य लेइ करी रीषभ राजान मारा स्वामीजी, हो राज, केसरीयाजीरी ए सुरसेना राज. ए आंकणी यक्ष गौमुख जंपे सुणो वात, भैरवा फोरवो तुम्ह तनरी रे घात [धाते ] मा० के० १ नीसुणी भैरव तव करे हुहुंकार, घमघम घुघरीयारो घमकारो, मा० के० टणण टणण टोकरीउं टणणंत, उतर्यो अंबरथी अरि चमकंत. मा० के० २ डम डमक डाक डमके अपार, घम्म घम्म धरणी हुया धमकार, मा० के० काढी खडग अरी साहमो धाय, अद्भुत [रूप] तणी रचना बनाय. मा० के० ३ थागडदीता थागडदीता थैथैकार, फुदडी लेता जाय, वाहे असीधार, एके घाई दशवीसना लेइ प्राण, काला धोला भैरवरी ए कृपाण मार मार शब्द दहो दिस थाय, चोधारी वजावतां धिगडमल्ल धाय. अरीफोज मांहे मची बुंबारोल, कालो भेरव तिहां करे छे कलोल वीरसीर छेदी आगलें तव जाय, सीर विण धड मांहोमांहे झुंझाय, छीन छीन टुकडा हुया अंधार धौम, असूरांरी फोज विडंबी सुर दौम. मा० के० ६ सस्त्र सांधे नही वयण उचार, दीग्मूढ असुर हुआ सबकार", मा० के० वीर धसीया दल अति भील्ल आय, क्रोध करी दुष्ट उपरें धकाय. मा० के० ७ तीर वरसे खगजडथी" अधीक, अरीयण मांहें पडे रणझीक, मा० के० सीर विण धड केइ नाठा रे जाय, चीत्र समांन केई नर थीर थाय. मा० के०८ दुष्ट सेनानी गांठ दीधीजी वेर, वन वन हुया असुर कीया झेर, मा० के० केइ अश्ध तजी वनकुंजमां उजाय, केइ दुष्ट पड्या महीपुत्री ते खाय. मा० के० ९ निज सैन्य नासता लागो तस हाथ, प्राण तज्या जसवंते तिहां अनाथ, मा० के० केइ मुख तरणा देइनिं कहेस, इंहां अम वांक नही लवलेस. मा० के० १० केइ दुष्ट नीष्ट्या गुदारे निवाज, साइजी खुदा थे राखजो लाज; मा० के० असुर चिंते केइ रीदय मझार, जमी असमांन क्या हुआ एकाकार. मा० के० ११ १४. ख. संबकार, १५. ख. वगजडथी. मा० के० ५ मा० के० Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेजविजयकृत केशरियाजीनो रास केइ नागा भागा फाटा वस्त्रचीर, केइ कर जोडी वहे नेत्रथी नीर, मा. के. एक असवार वीकराल'६ अनूप, अरिफोजमां मोजमां फरे भूप. मा० के० १२ भाउ तातो काम आया रे तिणे ठाण, शुद्धबुद्ध कोइरी न रही ओलखांण, मा० के० रुद्रांणी रुद्रे नृप तिहु रे पूर, सुर सर्व जोईने हूया ससनूर. मा० के० १३ दसवीस अश्व सहीत सीरदार जाइ, [सदा]सीवरांम नाठो कंतार, मा. के. कोस च्यार जइनें लीओ वीसरांम, रणभोम माहे रह्यो सराजांम सार. मा. के. १४ सीवरांम कुमेद चिंते मनमांहिं, छीन छीन सेना हुइ रणभुमि तांहि, मा० के० हेमविजय कविरायनो सीस, तेजविजय मनमें निसदीस. मा० के० १५ दूहा कोस चिहुं उपर जई, दूष्ट लीओ तिहां सास; सीवरामें सरणो संग्रह्यो, तुज चरणे मुज वास. १ यारो, देखोनें क्या कीया, भुतखांनेर तोफांन; सारी संपत रणवट्ट रही, शुभट सवी हुया ज्यांन. २ फीके मुख नासी गयो, जांणीने ते दुष्ट, वीरकला गुण पेखीनें, देव सकल संतुष्ट. ३ दोनुं वीरे रणखेतमें, जोधा घुखल करेह, गोमुख यक्षे वीरने, हुंकारो पभणेह. ४ देवदेवी जस स्वामीनें, देइ गया नीज ठाम, असुरपति करे सेवना, लछी गइ वीण काम. ५ ढाल ८ होजी लूबेझंबे वरसालो मेह, आज दीहाडो धणरी त्रीजरो हो लाल - ए देशी होजी संजीवन रह्या नर जेह, तेह त्रुटक आवी मल्या, हो लाल. होजी के पाला गज तुरी राज, खंड अखंड सैन्यमां भल्या, हो लाल. १ होजी नीहाली संकर भुज राय, सीवरांम ताम वांणी वदे, हो राज. होजी हीदुयारो देव महाराज, कपट रच्यो अतिहें हृदे हो लाल. २ होजी केहवो कीओ इंणे काम, ठाम रक्षण कर्यो आपणो, हो लाल. होजी कवण न हुओ रे विचार, हाथे कीओ रे संतापणो, हो लाल. ३ १६.ख. असराल, १७.ख. वरसालारो. Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह होजी भंडारीए भाख्यो हुँतो भेद, तोह न वस्यो अपने हृदे, हो लाल, होजी अणसमज्यारी गति एह, परतिक्ष फल आयो उदे, हो लाल. ४ होजी सारो ही गयो रे द्रव्य सार, सहस्स गमे थे पली गइ, हो लाल, होजी नही इहां मुग्गल्ल पठाण, पलटणुं भीला रे अवली थइ, हो लाल. ५ होजी नही भाउ तातो हाथीमल्ल, नही वेहल रथ धोरी गया, हो लाल, होजी नही नालगोला कोकबांण, होदा सही न हस्ती रह्या, हो लाल. ६ होजी नही बलवंत जसवंत, जोद्धा पट्टाउत ते नही, हो लाल, होजी नही पायकरो परीवार, आर्भट्टीइं आरब गहमही, हो लाल. ७ होजी नही राणीजाया रजपूत, नही दक्षणी करता छटा, हो लाल, होजी कोतल पदारथ नाहि, किहां हबसीयारी स्यांम घटा, हो लाल. ८ होजी नही घुरे घोर निसांण, फोजारा लाडा ते न को दीसे,१८ हो लाल, होजी नही नगारारी सराजांम, वस्त्र अमुलिक गया तिसे, हो लाल. ९ होजी निसुणी शंकर जंपे वयण, नयण उघाडी निरख्यो नही, हो लाल, होजी सदैवत ए आदिनाथ, आप बले बेठा रहे, हो लाल. १० होजी लोचन कर्या रे केइ देश, देव-देरारा दाम थे लह्या, हो लाल, होजी तेह न जाणे एह देव, पुन्य प्रबल सजीवन रह्या, हो लाल. ११ होजी अर्क नीहाली रणखेत,१९ सुजस सवाइने दीओ, हो लाल, होजी अस्तंगत तिहां थाय, नीसाइं सायर सलकीओ, हो लाल. १२ होजी निद्रावसे रे असूरांण, मध्य रयण गई ते समे, हो लाल, होजी आप रूपें अरीहंत, आवी उभा अरीसैन्यमें, हो लाल. १३ होजी सुतो के जागे सीवरांम, बोलाव्यो त्रिभुवनधणी, हो लाल, होजी हिंदूयारो देव तुं निहाल, जैन शासन मांहिं सुरमणी, हो लाल. १४ होजी जागृत थई असुरांण, [सुपरे आगल जोवे खडो, हो लाल, होजी नहीं तस शस्त्रवस्त्रचीर, नग्न निरंजन भूतडो, हो लाल.] १५ होजी जूगादी जंपें, सुण दुष्ट, नाम जाण्यो नही मांहरो, हो लाल, होजी विजय गुपसाय, तेज कहें दास हुं ताहारो, हो लाल. १६ 補航航赫赫励前前前前前 १८. ख. हींसे. १९. ख. रणकेल. २०. ख. सवाइनने. Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेजविजयकृत केशरियाजीनो रास दूहा रे रे सूण तुं दूरातमा, अज्ञानी मतिहीन; किम कुमति तुज उपनी, थइ रह्यो हवें दीन. १ केसरीया कानें कदी, नवि लह्या ते केम, तो सुख तमे२१ अनुभवो, कृत कमाई जेम. २ नीर्वाणी निर्भय अमो, पारीइं करी पाखंड, लूटी माणीइं परलछीनें, पछाडीइं जेह प्रचंड. ३ साढा पणवीश देशमें, आणा फिरे अखंड, वस्तु अमुलक जे जोइइं, मंगावीइं ते डंड. ४ मारूं मरडी तुजनें, गुनह कर्या छे अपार, कंप्यो असुर कर जोडीनें, भाखें वचन उदार. ५ क्रूर वयण शुणी जीन तणा, रणछक हुओ असुरांण, पाछो पडूत्तर न उचरे, गंगा त्रीयां जंपें वांण. ६ ढाल ९ मारूजी निद्रलडी नेण रे विच घुल रही, [घुल रही नेणां सेणां विचे, हो नणदीरा वीरा !] - ए देशी जीनजी, असुरत्रीया कहे सांभलो, आदिकरण आदिनाथ हो, सांइजीरा राया. जीनजी, कीयो कदाग्रह जांणीनें, अब आया थे मारे हाथ हो, सांइजीरा राया. जीनजी, अरज करूं रे गुनहो बगसीइं. ए आंकणी. १ जीनजी, करी आल२२ जांण-अजाणमें, सोइ पांसरी आई आज, हो सांइजी. जीनजी आप सरूपे इण विध मल्यो, फल्यो वंछित३ सर्यो काज, हो सा. जी. २ जीनजी, देव अवर अवनी समें, भुप रे नवि मल्यो तास हो. सा. जीनजी, ताहरी अवज्ञा करी हुओ, ते उभो थाहरे पास हो. सा. जी. जीनजी, राउली इछा तेहि ज करो, सक्ति तुमारी अनंत हो, सा० जीनजी, परितिक्ष नयणें निरखीओ, अतुलीबल अरीहंत हो. सा. जी० जीनजी, वीता दिवस निज पुन्यथी, हवे तो थारोजी पसाय हो, सा. जीनजी, पूनरपि जीवत थे दीओ, जगतनेता२४ मारी माय हो. सा. जी० a m er २१. ख. सेज, २२. क. कीरिया, २३. ख. मनवंछित २४. ख. जगतजनेता Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह जीनजी, अंतरजांमी माहरा, अलख अल्ला तूही पीर हो, सा. जीनजी, काजी मुल्ला सेख सइद थे, मतवाला थें फकीर हो. सा. जी. जीनजी, बालमुकंद माधव तुंही, नारायण कृत[ष्ण] इस हो, सा. जीनजी, खूनकारक वृद्ध अवगुणी, थारी गोदमां मारो सीस हो. सा. जी. जीनजी, तुम गुण कदीए न वीसरे, जगजीवन मारा प्रांण हो, सा. जीनजी, जे खुन माहरे सीर थे करो, ते करस्यो मे प्रमाण हो. सा. जी० जीनजी जंपे रे सुण तुं असुर-त्रीया, मांगीई छइई डंड एह हो, जीनजी, पांच सहस रजत मोहरूं, आपो अमने मांनी तेह हो. सा. जी. जीनजी, निशुणी, असुरत्रीया विनवें, गंगाबाई तस नाम हो, सा० जीनजी, सप्तसत उपर वली, देसु तुम भणी दांम हो. सा. जी. १० जीनजी, खेर रखो मुज प्रीयतनुं, कहुं छं गोद बिछाय हो, सा. जीनजी, अश्वीन मास सुद एकम नीसा, ग्रीही छे अटक तुम पाय हो, सा. जी. ११ जीनजी, आजथी निज तनुंथी सवि, आभुषण कीया दूर हो, सा. जीनजी, ए बंदीओ सवि दिन पेरसे, जस दिन दाम हजूर हो. सा. जी. १२ जीनजी, मांनी रजत अशुर सवे, पोहता आपणे गेह हो, सा. जीनजी, चैत्र शुकल सप्तमी दिने, दाम-देयण आयो तेह हो. सा. जी. १३ जीनजी, जीतडंका जीनवर करी, अश हुआ माहाराय हो; सा. जीनजी, खून देइनें असुरपति, सोइ नीज थानक जाय हो. सा. जी. १४ जीनजी, सांमलीआजीरी सेवना, हुं चाहुं नितमेव हो, सा. जीनजी, आ भव परभव भवोभवे, देजो पदांबुज-सेव हो. सा. जी. १५ [जीनजी, केशरीयाजीरा गुण गाया, निज बुद्धि रे अणुसार हो, जीनजी, बाललीला सम जाणज्यो, दादाजीरो आधार हो. जीनजी, शुद्ध करजो थे कवीयां, तुम करे दासरी लाज हो, सा. जीनजी, ओछो वधु जे में भासीओ, मिच्छा दुक्कड तास हो. सा. जी० जीनजी, संवत वसु चंद्र सुन्य सैल ए, फल्गुन शुक्ल वसंत हो, सा. जीनजी, जतीधर्म तिथी थरा सेहेरमें, गायो केसरीया महंत हो. सा. जी. १७ जीनजी, तपगच्छपति हीरविजयसुरी, वाचक५ शुभक्जेि सीस हो, सा. जीनजी, तेहना भावविजय भला, सिद्धिविजय कवी-इस हो. सा. जी. १८ २५. क. विवेक. Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ तेजविजयकृत केशरियाजीनो रास जीनजी, रूपविजय पंडित भला, कृष्णविजय सीष्य तास हो, सा. जीनजी, रंगविजय कविकुलतिलो, भीमविजय पद्मवास हो. सा. जी. १९ जीनजी, तस पदमधुकर६ गुणनिलो, हेमविजय सुपसाय हो, सा. जीनजी, तेहतणो बालक वदे, अपत्यलीला ज्यूं समुदाय हो. सा. जी. २० जीनजी, भणे गुणे जे भवी सांभलें, तस घर सुखनीवास हो; सा. जीनजी, हेमविजय कविसेहरो, सुतेज [वचनविलास हो. सा.जी.] २१ कलश आदि जीनवर सयल सुखकर संथूण्यो धुलेव-धणी, खगदेश[शे]शर जे दूरीत वर्जे, जीनशासनमें सुरमणी; दुसम कालें आप संभालें सत्तेगधारी२८ ए खरा, प्रगट महिमा सबल नियमा आसपूरण जीनवरा. २२ असुर नमायो, डंड पायो, थावर जंगम जग जयो, जग जस वदीतो जंग जीत्यो, केसरीओ कारे जयो; संवत अढारे सीतेरा९ मझारे फागुण दशमी सुद वली, हेमविजय कवि तेज पभणे सयल मन आस्या फली. २३ -- इति धुलेव रूषभदेवजीनो रास संपूर्ण. सं.१८८६ना वैशाख सुदि ५ शनिवारे लि...३० (मुनि संपतविजय पासे)३१. [जैनयुग, ज्येष्ठ १९८३, पृ.४८१-८५ तथा आषाड-श्रावण १९८३, पृ.५६३-६६] २६.क. पदपंकज २७.ख. खगदेशवर, २८. संत्तेगधारी, २९.क. सत्योतरा, ३०. ख. सर्वगाथा १६२, इतीश्री धुलेवाजीनो रास संपूर्ण. राजवीजेजी संवेगी वाचनार्थं आडीसर नगरे. श्रीयांरानाथ प्रसादात्. श्री श्री श्री. ३१. ख. पाटण हेमचंद्राचार्य जैन ज्ञानमंदिर प्रत क. ११५३०. Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० वस्तिगकृत वीश विहरमान जिन रास (रच्या विक्रम संवत् १३६८ माघ शुद ५ शुक्रवार.) [कवि लोटागण एटलेके लोढागोत्रना अने रत्नप्रभना अनुयायी शिष्य श्रावक जणाय छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ भा.१, पृ.१८-२० तथा गुजराती साहित्यकोश खं.१, पृ.३९६-९७. 'गुजराती साहित्यकोशे' एमने जैन साधु कह्या छे ए भूल छे. ला. द. भारतीय संस्कृति विद्यामंदिरनी हस्तप्रत क्र.१६७५७ना आधारे आ कृतिनी पाठशुद्धि करी छे. – संपा.] विहरमान तित्थयर पायकमल नमेविय, केवलधर दुन्नि कोडि सवि साधु नमेविअ, जिण चउवीसइ पाय नमेसु, गुरूयां सहिगुरू भत्ति करेसु, समरिय सामिणि सारद देवि, पढिसिउं जिण वीसइ संखेवि. १ संवत तेर अठसठई माह मसवाडइ, पांचमि हुइ शुक्रवारिइं पहिलई पखवाडई. तर आरंभिअ अभिनव रासो, जिम हुइ जामणमरणविणासो, मुझ मुरख नवि बोलवा ठाउ, पुण गुरूयां श्री संघ पसाउ. २ मझ मनि ऊपनउ भाउ, हउं अज्ञान होउं, सहिगुरू तणउ पसाय ए प्रभाव होई. आगम माहि एह कहीउ सारो, ए नर कर्मभूमि तणउ विचारो, संखेपिईं लव एक कहीजईं, पसाउ करी भविआ निसुणीजइ. ३ अढइ दीप मझारि कर्मभूमि भणीजइ, जोअण लख पंचतालीस विस्तार जाणीजइ. तेह विचि जंबूदीप भणीजइ, जोअण लाख एक निसुणीजइ, लवणसमुद्र छइ विलयाकारे, दुन्नि लाख जोअण विस्तारे. ४ पाखलि धातकीखंड लख च्यारि जाणीजइ, कालोदधि समुद्र लख आट भणीजइ. पुख्खर वर दीव अर्द्धउ होई, आठ लाख जोअण हुइ सोइ. ए जोअण देवकां भणीजई, एक जोअण सईं च्यारि जाणीजइं. ५ साढ बावीस लाख पूरव दिसि भागे, एणि परि थाकतउ अर्द्ध पाछिम दिसि लागे, ते विचि गुरूउ मेरू भणीजइ, ऊंचउ लाख जोअण सुणीजइ, पूरव पश्चिम दिसि बेइ जोए, दुन्नि दुन्नि मेरू पाखलि होई. ६ मेरू मेरू त्रिणि क्षेत्र पंच भरत भणीजइ, ऐरावत पंच पंच महाविदेह जाणीजइ. क्षेत्रि क्षेत्रि विजया बत्रीस, पंच क्षेत्रि विहरईं जिन वीस, सूसमकाल विशेषिइं जोअ, विजय विजय तित्थंकर होइ. ७ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तिगकृत वीश विहरमान जिन रास ३१ पंचक्षेत्रि सर साठ जिनवर विहरंता, दसइ क्षेत्रि दस होइ, सर सतरि मिलंता, यूसमताणट जोअ प्रभावो, निसुणइ श्री संघ करीय पसाउ, हुआ नव कोडि केवलधर दिनकर, नवइ सहस कोडि मुनि चारितधर. ८ वस्तु अवधारि सामिअ अवधारि सामिअ श्री सीमंधर स्वामि, तुम्ह दरसणि विण हीडीउं, अनंतकाल बहु दुख पामिय, भव भमंतइ लध्धु मइ गुरू सुसाधु जिनवर सुसामिअ, भरतक्षेत्रि-थउ वीनवउं, सामिअ-सुं अवधारि, भव भमंतउ ऊमनउ, जामण मरण निवारि. ९ [ठवणि २] हिव पुण दूसम जाणीइए, एवडउ अंतरि निहालि, पंच महाविदेहि वीस जिण विहरइं संपइ कालि. १ दुन्नि कोडि केवलह धरह, पंच क्षेत्र विहरंति, दुन्नि सहस कोडि मुणिरयण, निर्मल चारित पालंति. २ पहिलइ क्षेत्रि महाविदेहे, जंबूदीप मझारि, विहरमान तित्थंकरहं वंदिसु जिनवर च्यारि. ३ त्रिभुवनतिलक सुसामीय ए, श्रीअ सीमंधर स्वामि, श्री युगमंधर बाहु सुबाहु, जाइं पाप लिई नामि. ४ त्रिहु ज्ञाने सिउं अवयरिअ, इंद्रिहिं किउ उछाह, पूरव लाख चउरासीयह, आउखउं जगनाह. ५ सामिअ रूप सुवन्नमइ ए, पांचसईं धनुष प्रमाणि, देव रचइं समोसरण, योजन वाणि वखाणि. ६ बारई पर्षदि बइंसई तिहां, बइसई सुरवइ इंद्र, अमिअ-वाणि देसण सुणई, ए अमूलई भवकंद. ७ सुरनर पन्नग भुवनपते, जोइसी देव मिलंति, असंख्य कोडि देवह तणीअ सामिअ-सेव करंति. ८ धन्नु ते नर धन्नु ते नर धन्नु ते नारि, जे तुम्ह पायकमल नमई, सामिय सभां जिणंद, समोसरण देसण सुणइ, सुर नर पन्नग इंद्र. ९ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ते नर सूधई धन्न भावइ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह सलखणा जे, तुम्ह सेव करंति, जे नमईं ते संसार तरंति. १० [ठवणि ३] २ ३ धातकी खंड मझारि, आठ तीर्थंकर विहरमान, सामिअ ए संसार तारंति, सइंप्रभु ऋषभ हउं नमउं. १ जिणवरू ए अणंतवीर, दिइ सुख अणंता ए, निमलू ए करउं सरीर, धरउ ध्यान सामी तणूं ए. लीजइ ए नाम उच्चार सुर देवो विशाल जिन, तारइ ए भव-संसार, विजयधरो [ वज्जधरो] चंद्राननूं ए. सामिअऊ ए करई विहार, देव कमल संचारई ए, ऊपर ए ढलई [ चालइं] छत्र, आगलि चमरं ढलंतिया ए. सरसीय ए देवह कोडि अंग- उलग सामीयं करई ए, राखऊ ए भव भमंडत, वलीय वलीय ते इम भणई ए. अतिसय ए हुइ चउत्रीस, विहरमान तित्थंकरहं, तहि नरु ए धन्न ते दीस, पायकमल सामी नमई ए. वस्तु ५ ६ धन्नु भूमिय धन्नु भूमिय साहु सुपवित्त, धन नरवई धन देस तहिं, जिणं जिनवर विहरंति, समोसरण देसण सुणईं, नितु नवा उच्छव करंति, विहरमान तित्थंकरहं, सामिअं वीस जिणंद, त्रिभुवन तुम्ह सेवा करइं, आवइ चउसठ्ठि इंद्र. ७ सेवक वीनवई तुम्ह तणउ, सामि वीनती अवधारि, आठ जिणेसर वि (ह) रमान पुख्खर दीप मझारि. १ बंदउ सामीय चंदप्पहो, वंदउं भूअंगदेव, कसमल पापह छोडवउं ए, करउ संसारह छेह. २ सामीयं इसर प्रणमइ ए, सामीयं मुगतिदातार, समरउं सामिअ नेमिप्रभो, जिम पामउं भवपारो. ३ त्रिधा शुद्धि जे नमई ए, सामिअ सुगति - दातार, पंचम गतिहिं ते गमई ए, छंडइ एह संसार. ४ ४ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ वस्तिगकृत वीश विहरमान जिन रास पंचम क्षेत्रि महाविदेह, नरेसूयां, वंदिसु जिनवर च्यारि, वयरसेन सामिअ गायसिउं ए, नरे०, सामिअ तिहुअणनाह. नरे० १ महाप्रभो जिनवर अछइ ए, नरे०, सामिअ देवाधिदेव, देवयशो सामी नमू ए, नरे०, हैडलइ भाउ धरेवि. २ अजितवीर जिण वंदिसिउ, छंडवि दुख संसार तणा, नरे०, जिव शिवनयरीयं जो[जा]इं, सपरिवारा प्रभु वांदिसिउं ए, नरे०, सामिअ वीस जिणिंद, दिइं सुख सिद्धिई घणा, नरे०, त्रोडे सो भवकंद. ३ मान-प्रमाण सिव हूं समां, नरे०, सरिखु छइ समाचार, संसारसमुद्र-तारण तरंडो, नरे, सामिअ गुणह अपार. ४ सिंहासणि सामिअ समोसरणि, नरे०, अमीयं-वाणि वरसंत, भवदह-दाह जि अल्हवइ ए, नरे०, शिवपुरि लेइ मूकंति. ५ कालउं-गहिलउं वीनवउं ए, नरे०, तुम्हचउ सेवक होइ, मूरखि पढीयां आशातना ए, नरे०, ते सहू क्षमा करेउ. ६ लोटा-गणे वस्तिग भणइ ए, नरे०, सामिअ वीनती अवधारि, कर्म-नटावई नचावीउ ए, नरे०, चऊदह रज्जह मझारि. ७ ते भव-बीहतउ वीनवउं ए, नरे०, सामिअ करउ पसायउ, एतलउ मागउ लाजतउ, नरे०, दिउ अमरापुरि ठाउ. ८ वीस जिणेसर गायसिउं ए, नरे०, लेसिउं नामउच्चार, चिहूं गति मीडउं वालि ए, नरे०, छूटिसु भवसंसार. ९ तारामंडल जां अछई ए, नरे०, अनइ सूरिजचंद, तेम एउ नंदउ सूरिगुरो, नरेसूया, चउविह संघ आणंद. १० - इति विंशति विहरमान रास समाप्ता. छ. (मुनि जशविजय संग्रह, पत्र २-१३) [जैनयुग, आषाढ-श्रावण १९८६, पृ.४३८-४०] Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ नित्यलाभकृत महावीरस्वामीनां पांच कल्याणक [कवि अंचलगच्छना सहजसुंदरना शिष्य छे अने एमनी कृतिओ सं.१७७६थी १७९८नां रचनावर्षो दर्शावे छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ, भा.५, पृ.२९४-९८ तथा गुजराती साहित्यकोश खं.१, पृ.२२२. सं.१७८१मां सुरतमां रचायेली आ कृति 'जैन प्रबोध पुस्तक' तथा 'जैन सज्झायमाला भा.१' (बालाभाई)मां छपायेल छे. - संपा.] दोहा प्रेमे प्रण, सरसति, मागुं अविचळ वाण, वीर तणा गुण गायशुं, पंचकल्याणक जाण. १ गुण गातां जिनजी तणा, लहीए भवनो पार, सुखसमाधि होय जीवने सुणजो सहु नरनार. २ ___ ढाळ १ : गर्भकल्याणक चालो गरबे रमीए रूडा राग शुं जो - ए देशी जंबूद्वीपना भरतमां जो, रूई माहाणकुंड छे गाम जो; ऋषभदत्त माहण तिहां वसे जो, तस नारी देवानंदा नाम जो. १ चरित्र सुणो जिनजी तणां जो, जेम समकित निर्मळ थाय जो, अष्ट महासिद्धि संपजे जो, वळी पातक दूर पलाय जो. च. २ ऊजळी छठ आषाढनी जो, योगे उत्तराफाल्गुणी सार जो; पुष्पोत्तर सुविमानथी जो, चवि कूखे लीयो अवतार जो. च. ३ देवानंदा तेणी राणीए जो, सूतां सुपन लह्यां दस चार जो; फळ पूछे निज कंतने जो, कहे ऋषभदत्त मन धार जो. च. ४ भोग अरथ सुख पामशुं जो, तमे लहेशो पुत्ररतन्न जो; देवानंदा ते सांभळी जो, की, मनमां तहत्ति वचन जो. च. ५ संसारिक सुख भोगवे जो, सुणो अचरिज हुओ तिणि वार जो; सुधर्म इंद्र तिहांकणे जो, जोई अवधि तणे अनुसार जो. च. चरम जिणेसर ऊपन्या जो, देखी हरख्यो इंद्र महाराज जो; सात आठ पग सामो जइ जो, एम वंदन करे शुभ साज जो. च. ७ शक्र स्तव विधि-शुं करी जो, फरी बेठो सिंहासन जाम जो; मन विमासणमां पड्युं जो, चित चिंतवे सुरपति ताम जो. च. ८ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नित्यलाभकृत महावीरस्वामीनां पांच कल्याणक ९ जिन चक्री हरि रामजी जो, अंत प्रांत माहणकूळे जोय जो; आव्या नहीं, नहीं आवशे जो, ए तो उग्र भोग राजकूळे होय जो. च० अंतिम जिणेसर आविया जो, ए तो माहणकूळमां जेण जो; ए तो अच्छेराभूत छे जो, थयुं हुंडावसर्पिणी तेण जो. च० १० काळ अनंत जाते थके जो, एहवां दस अच्छेरां थाय जो; ईण अवसर्पिणीमां थयां जो, ते कहीये जे चित्त लाय जो च० ११ गर्भहरण उपसर्गनो जो, मूळ रूपे आव्या रवि चंद जो; निष्फळ देशना जे थई जो, गयो सौधर्मे चमरेंद्र जो. च० १२ ए श्री वीरनी वारमां जो, कृष्ण अमरकंका गया जाण जो; नेमिनाथने वारे सही जो, स्त्रीतीर्थ मल्ली गुणखाण जो च० १३ एकसो आठ सिध्या ॠषभने जो, वारे सुविधिने असंयत्ति जो; शितळनाथ वारे थयुं जो, कूळ हरिवंशनी उत्पत्ति जो. च० १४ एम विचार करे, इंदलो जो, प्रभु निच कूळे अवतार जो; तेहनुं कारण शुं अछे जो, यम चिंतवे हृदय मझार जो. चरित्र सुणो जिनजी तणां जो. च० १५ ढाळ २ : आसो मासे शरद पुनमनी रात जो ए देशी भव म्होटा कहीए प्रभुना सत्तावीश जी, मरिची त्रिदंडी ते मांहे त्रीजे भवे रे जो; तिहां भरत चक्रीसर वंदे आवी जोय जो, कूळनो मद करी निच गोत्र बांध्युं तेहवे रे जो. १ ए तो माणकूळमां आव्या जिनवर देव जो, अति अणजुगतुं एह थयुं थाशे नहि रे जो; जे जिनवर चक्री आवे निच कूळमांय जो, छे आचारधरू उत्तम कूळे सही रे जो. २ एम चिंती तेड्यो हरिणगमेषी देव जो, कहे माहणकुंडे जइने ए कारज करो रे जो, छे देवानंदानी कूखे चरम जिणंद जो, हर्ष धरीने प्रभुने तिहांथी संहरो रे जो. ३ नयर क्षत्रिकुंड राय सिद्धारथ गेह जो, त्रिसलाराणी तेहनी छे रूपे भली रे जो; तस कूखे जइ संकमावो प्रभुने आज जो, त्रिसलानो जे गर्भ छे ते माहणकूळे रे जो. ४ जे इंद्रे कह्युं तेम कीधुं ततक्षण तेण जो, ब्याशी रातने आंतरे प्रभुने संहर्या रे जो, माहणी सुपनां जाणे त्रिसला हरिने लीध जो, त्रिसला देखी चौद सुपन मनमां धर्या रे जो. ५ गज वृषभ अने सिंह लक्ष्मी फूलनी माळ जो, चंदो सूरज ध्वज कुंभ पद्मसरोवरू रे जो; सागर ने देवविमान ने रत्ननी राशि जो, चौदमे सुपने देखी अग्नि मनोहरू रे जो. ६ शुभ सुहणां देखी हरखी त्रिसला नार जो, परभाते उठीने पियु आगळ कहे रे जो. ते सांभळी दिलमां राय सिद्धारथ नेह जो, सुपनपाठकने तेडी पूछे फळ लहे रे जो. ७ ३५ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह तुम होशे राज़ अरथ ने सुत सुखभोग जो, सुणी त्रिसलादेवी सुखे गर्भ पोषण करे रे जो, तव माता-हेते प्रभुजी रह्या संलीन जो, ते जाणीने त्रिसला दु:ख दिलमां धरे रे जो. ८ में कीधां पाप ज घोर भवोभव जेह जो, दैव अटारो दोषी देखी नवि शके रे जो; मुज गर्भ हो जे किम पामु हवे तेह जो, रांक तणे घर रत्नचिंतामणि किम टके रे जो. ९ प्रभुजीए जाणी ततक्षण दु:खनी वात जो, मोहविटंबनजालि न जगमा जे लहुं रे जो; जुओ दीठा विण पण एवडो जागे मोह जो, नजरे बांध्या प्रेमनुं कारण शुं कहुं रे जो. १० प्रभु गर्भ थकी हवे अभिग्रह लीधो एह, जो, मातपिता जीवतां संयम लेशं नहि रे जो; एम करूणा आणी तुरत हलाव्युं अंग जो, माताने मन उपन्यो हर्ष घणो सही रे जो. ११ अहोभाग्य अमारूं जाग्युं सहियर आज जो, गर्भ अमारो हाल्यो सहु चिंता गइ रे जो, एम सुखभर रहेतां पूर्ण हुवा नव मास जो, ते उपर वळी साडी सात रयणी थइ रे जो. १२ तव चैत्र तणी शुदि तेरश उत्तरा जोग जो, जनम्या श्री जिन वीर हुइ वधामणी रे जो, सहु धरणी विकसी जगमां थयो प्रकाश जो, सुर-नरपति घर वृष्टि करे सोवन तणी रे जो. १३ ढाळ ३ : जन्मकल्याणक : म्हारी सही रे समाणी - ए देशी जनमसमय श्री वीरनो जाणी, आवी छप्पन कुमारी रे, जगजीवन जिनजी. जनममहोत्सव करी गीत ज गाये, प्रभुजीने जाउ बलिहारी रे. ज. १ ततक्षण इंद्र-सिंहासन हाल्युं, घोष घंटा वजडावी रे, ज. मळिया कोडी सुरासुर देवा, मेरू पर्वते आवी रे. ज. २ इंदो पंच रूपे प्रभुजीने, सुरगिरि उपर लावे रे, ज. यत्न करी हियडामा राखे, प्रभुने शीश नमावे रे. ज. ३ एक कोडी साठ लाख कळशला, निर्मळ नीरे भरिया रे, ज. न्हानो बाळक ए किम सहसे, इंद्रे संशय धरिया रे. ज. ४ अतुलबळि जिन अवधे जोइ, मेरू अंगूठे चंप्यो रे, . पृथ्वी हालकल्लोल थई तव, धरणीधर तिहां कंप्यो रे. ज. ५ जिननुं बळ देखीने सुरपति, भक्ति करीने खमावे रे, ज. चार वृषभनां रूप धरीने जिनवरने न्हवरावे रे. ज. ६ अमृत अंगूठे थापीने, माता पासे मेले रे, ज. देव सहु नंदिसर जाए, आवतां पातक ठेले रे. ज. ७ हवे प्रभाते सिद्धारथराजा, अति घणा ओच्छव मंडावे रे, चकले चकले नाच करावे, जगतनां दाण छंडावे रे. ज. ८ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ नित्यलाभकृत महावीरस्वामीनां पांच कल्याणक बारमे दिवसे सज्जन संतोषी, नाम दीधुं वर्द्धमान रे, ज. अनुक्रमे वधता आठ वरसना, हुआ श्री भगवान रे. ज. ९ एक दिन प्रभुजी रमवा चाल्या, तेवतेवडा संघाती रे, ज. इंद्रमुखे परशंसा निसुणी, आव्यो सुर मिथ्याती रे. ज. १० पन्नग रूपे झाडे वळग्यो, प्रभुजीए नांख्यो झाली रे, ज. ताड समान वळी रूप कीg, मूठीए नांख्यो उछाळी रे. ज. ११ चरणे नमीने खमवे ते सुर, नाम धरे महावीर रे, ज. जेहवा तुमने इंद्रे वखाण्या, तेहवा छो प्रभु धीर रे. ज. १२ मातपिता निशाळे भणवा, मूके बाळक जाणी रे, ज. इंद्र आवी तिहां प्रश्न ज पूछे, प्रभु कहे अर्थ वखाणी रे. ज. १३ जोवनवय जाणी प्रभु परण्या, नारी जशोदा नामे रे, ज. अठ्ठावीशे वरसे प्रभुनां, मातपिता स्वर्ग पामे रे. ज० १४ भाइ तणो अति आग्रह जाणी, दोय वरस घरवासी रे, ज. तेहवे लोकांतिक सुर बोले, प्रभु कहो धर्म प्रकाशी रे. ज. १५ ढाळ ४ : दीक्षा, ज्ञान, निर्वाण कल्याणक थारे माथे पचरंगी पाघ, सोनारो छोगलो मारूजी - ए देशी प्रभु आपे वरसीदान, भलुं रवि ऊगते, जिनवरजी ! एक कोडी ने आठ लाख, सोनैया दिन प्रते; जि. मागसर वदि दशमी, उत्तरा-योगे मन धरी, जि० भाइनी अनुमति मागीने दिक्षा वरी. जि. १ तेह दिवस थकी प्रभु चउनाणी थया, जि. साधिक एक वरस ते चीवरधारी रह्या; जि. पछे दीधुं बंभणने बे वार खंडोखंडे करी, जि. प्रभु विहार करे एकाकी अभिग्रह चित्त धरी. जि. २ साडा बार वर्षमां घोर परिसह जे सह्या, जि. शूळपाणि ने संगम देव गोशाळाना कह्या; जि. चंडकोशी ने गोवाळे खीर रांधी पग उपरे, जि. काने खीला खोश्या ते दुष्ट सहु प्रभु उद्धरे. जि. ३ लेइ अडदना बाकळा चंदनबाळा तारियां, जि. प्रभु पर-उपगारी, सुख दु:ख सम धारिया; जि. Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह छमासी बे ने नव चोमासी कहीए रे, जि. अढी मास त्रिमास दोढ मास ए बे बे लहीए रे. जि. ४ षट कीधा बे बे मास प्रभु सोहामणा, जि. बार मासने पख ब्होंतेर ते रळियामणा; जि. छठ बसें ओगणत्रीस बार अठ्ठम वखाणीये, जि. भद्रादिक प्रतिमा दिन बे चौदश जाणीये. जि. ५ साडा बार वरषे तप कीधा विण पाणीये, जि. पारणां त्रणसें ओगणपचास ते जाणीए; जि. तव कर्म खपावी ध्यान शुक्ल मन ध्यावता, जि. वैशाख शुदि दशमी उत्तरा जोगे सोहावता. जि. ६ शाळिवृक्ष तळे प्रभु पाम्या केवळनाण रे, जि. लोकालोक तणा परकाशी थया प्रभु जाण रे; जि. इंद्रभूति प्रमुख प्रतिबोधी गणधर कीध रे, जि. संघ-थापना करीने धर्मनी देशना दीध रे. जि. ७ चौद सहस भला अणगार प्रभुने शोभता, जि. वळी साधवी सहस छत्रीश कही निर्लोभता; जि. ओगणसाठ सहस एक लाख ते श्रावक संपदा, जि. तिन लाख ने सहस अढार ते श्राविका संमुदा. जि. ८ चौदपूरवधारी त्रणशें संख्या जाणीये, जि. तेरशें उहिनाणी सातशें केवळी वखाणीये; जि. लब्धिधारी सातशें विपुलमति वळी पांचशें, जि. वळी चारशें वादी ते प्रभुजी पासे वसे. जि. ९ शिष्य सातशें ने वळी चौदशें साधवी सिद्ध थयां, जि. ए प्रभुजीनो परिवार कहेतां मन गहगह्यां; जि. प्रभुजीए वीस वरस घरवासे भोगव्यां, जि. छद्मस्थपणामां बार वरस ते जोगव्यां. जि. १० त्रीस वरस केवळ बेतालीश वरस संयमपणुं, जि. संपूरण बहोतेर वरस आयु श्री वीर तणुं, जि. दिवाळी दिवसे स्वाति नक्षत्र सोहंकरू, जि. मध्यराते मुगति पहोत्या प्रभुजी मनोहरू. जि० ११ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९ नित्यलाभकृत महावीरस्वामीनां पांच कल्याणक ए पांच कल्याणक चोवीशमा जिनवरजी तणां, जि. ते भणतां गणतां हरख होये मनमा घणा; जि० जिनशासननायक त्रिसलासुत चित्तरंजणो, जि. भवियणने शिवसुखकारी भवभयभंजणो. जि. १२ कळश जय वीर जिनवर, संघसुखकर, थुण्यो अति उत्सुक धरी; संवत् सत्तर एकाशीये, सूरत चोमासु करी, श्री सहजसुंदर तणो शेवक, भक्ति-शु एणी परे कहे, प्रभुजी-शुं पूरण प्रेम पाम्यो, नित्यलाभ वंछित लहे. १३ इति [जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स हेरल्ड, ओगस्ट-सप्टेम्बर १९१४, पृ.३२०-२४] Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरविजयकृत महावीरस्वामीना सत्तावीश भव (र.सं.१९०१ श्रावण पूर्णिमा.) [तपगच्छना शुभविजयशि. वीरविजयनी रास, संघयात्रा, स्तवनसझाय वगेरे प्रकारनी संख्याबंध कृतिओ मळे छे जे सं.१८५७थी १९०८नां रचनावर्षों बतावे छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ भा.६, पृ.२२२-५६ तथा गुजराती साहित्यकोश खं.१, पृ.४२१-२३. आ कृति सं.१९०१मां रचायेली छे. आ कृति ‘देववंदनमाळा अने नवस्मरण' 'जैन काव्यप्रकाश भा.१' 'जैन काव्यसंग्रह' वगेरेमां छपायेली छे. – संपा.] दोहा श्री शुभविजय सुगुरु नमी, नमी पद्मावती माय; भव सत्तावीश वर्णवं, सुणतां समकित थाय. १ समकित पामे जीवने, भव-गणतीए गणाय; जो वळी संसारे भमे, तो पण मुगतें जाय. २ वीर जिनेश्वर साहिबो, भमियो काळ अनंत; पण समकित पाम्या पछी, अंते थया अरिहंत. ३ ढाळ १ : 'कपूर होय अति उजळो रे - ए देशी पहेले भवे एक गामनो रे, राय नामे नयसार; काष्ट लेवा अटवी गयो रे, भोजनवेळा थाय रे. प्राणी ! धरिये समकित-रंग, जिम पामिये सुख अभंग रे. प्राणी. १ मन चिंते महिमानीलो रे, आवे तपसी कोय, दान देइ भोजन करूं रे, तो वंछित फळ होय रे. प्राणी. २ मारम देखी मुनिवरां रे, वंदे देइ उपयोग; पूछे 'केम भटको इहां रे', मुनि कहे साथ-विजोग रे. प्राणी. ३ हरखभरे तेडी गयो रे, पडिलाभ्या मुनिराज; भोजन करी कहे 'चालीए रे, साथ भेळा करूं आज' रे. प्राणी. ४ पगवटीये भेळा कऱ्या रे, कहे मुनि, द्रव्य ए मार्ग; संसारे भूला भमो रे, भावमारग अपवर्ग रे. प्राणी. ५ देव गुरू ओळखाविया रे, दीधो विधि नवकार; पश्चिम महाविदेहमां रे, पाम्यो समकित सार रे. प्राणी० ६ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ वीरविजयकृत महावीरस्वामीना सत्तावीश भव शुभ ध्याने मरी सुर हुओ रे, पहेला सर्ग मझार; पल्योपम आयु चवी रे, भरत-घरे अवतार रे, प्राणी. ७ नामे मरीचि जोवने रे, संयम लीए प्रभु पास; दुष्कर चरण लही थयो रे त्रिदंडीक शुभ वास रे. प्राणी. ८ ढाळ २ : विवाहलानी देशी नवो वेष रचे तेणी वेळा, विचरे आदिसर भेळा; जळ थोडे स्नान विशेष, पग पावडी भगवे वेष. १ धरे त्रिदंड लाकडी म्होटी, शिर मूंडण ने धरे चोटी; वळी छत्र विलेपन अंगे, थूलथी व्रत धरतो रंगे. २ सोनानी जनोइ राखे, सहुने मुनिमारग भाखे; समोसरणे पूछे नरेश, 'कोई आगे होशे जिनेश'. ३ जिन जंपे भरतने ताम, 'तुज पुत्र मरीची नाम; वीर नामे थशे जिन छेला. आ भरते वासुदेव पहेला. ४ चक्रवर्ति विदेहे थाशे, सुणी आव्या भरत उल्लासे; मरीचीने प्रदक्षिणा देता, नमी वंदीने एम कहेता. ५ 'तमे पुन्याइवंत गणाशो हरि चक्री चरम जिन थाशो; नवि वंदु त्रिदंडिक वेष, नमुं भक्तिये वीर जिनेश'. ६ एम स्तवना करी घर जावे, मरिची मन हर्ष न मावे; 'म्हारे त्रण पदवीनी छाप, दादा जिन चक्री बाप. ७ अमे वासुदेव धुर थइशें, कूळ उत्तम म्हारूं कहीरों; नाचे कुळमदशुं भराणो, निच गोत्र तिहां बंधाणो. ८ एक दिन तनु रोगे व्यापे, कोइ साधु पाणी न आपे; त्यारे वंछे चेलो एक, तव मळियो कपिल अविवेक. ९ देशना सुणी दिक्षा वासे, कहे मरिची, 'लीयो प्रभु पासे;' राजपुत्र कहे, 'तुम पासे, लेशं अमे दिक्षा उल्लासे. १० तुम दरशने धरमनो व्हेम,' सुणी चिंते मरिची एम; मुज योग्य मळ्यो ए चेलो, मूळ कडवे कडवो वेलो. ११ मरिची कहे, धर्म उभयमां, दिक्षा जोवनवयमां;' एणे वचने वध्यो संसार, ए त्रीजो कह्यो अवतार. १२ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह लाख चोराशी पूरव आय, पाळी पंचमे सर्ग सधाय; दस सागर जीवित त्यांही, शुभ वीर सदा सुखमांही. १३ ढाळ ३ : चोपाइनी देशी पांचमे भव कोल्लाग सन्निवेश, कौशिक नामे ब्राह्मण वेष; एंशी लाख पूरव अनुसरी, त्रिदंडीयाने वेषे मरी. १ काळ बहु भमीयो संसार, थुणापुरी छठ्ठो अवतार; बहोतेर लाख पूरवने आय, विप्र त्रिदंडीक वेष धराय. २ सौधर्मे मध्यस्थितिये थयो, आठमे चैत्य सन्निवेशे गयो; अग्निद्योत द्विज त्रिदंडीयो, पूर्व आयु लख साठे मूओ. ३ मध्यस्थितिये सुर सर्ग इशान, दसमे मंदिर पुर द्विज ठाण; लाख छप्पन पूरवा पुरी, अग्निभूति त्रिदंडीक मरी. ४ तीजे सरग मध्यायु धरी, बारमे भव श्वेतांबीपुरी; पुरव लाख चुम्मालीश आय, भारद्वाज त्रिदंडीक थाय. ५ तेरमे चोथे सर्गे रमी, काळ घणो संसारे भमी; चउदमे भव राजगृही जाय, चोत्रीश लाख पूरवने आय. ६ थावर विप्र त्रिदंडी थयो, पांचमे सर्ग मरीने गयो; सोळमे भव कोड वरस समाय, राजकुमर विश्वभूति थाय. ७ संभूतिमुनि पासे अणगार, दुक्कर तप करी वरस हजार; मासखमण पारण धरी दया, मथुरामां गोचरीए गया. ८ गाये हण्या मुनि पडिया धशा, विशाखनंदी पितरियो हशा; गौशृंगे मुनि गर्वे करी, गयण उछाळी धरती धरी. ९ तपबळथी होज्यो बळधणी, करी निया| मुनि अणसणी, सत्तरमे महाशुक्रे सुरा, श्री शुभ वीर सत्तर सागरा. १० ढाळ ४ : नदी यमुना के तीर, उडे दोय पंखीयां - ए देशी अढारमे भवे सात, सपने सूचित सती, पोतनपुरीये प्रजापति, राणी मृगावती, तस सुत नामे त्रिपृष्ट, वासुदेव निपन्या, पाप घणुं करी सातमी, नरके उपन्या. १ वीशमे भव थई सिंह, चोथी नरके गया, तिहांथी चवी संसारे, भव बहुळा थया; बावीशमे नरभव लही, पुण्यदशा वर्या, त्रेवीशमे राज्यधानी, मूकाये संचर्या. २ राय धनंजय धारणी, राणीये जनमिया, लाख चोराशी पूरव, आयु जिविया; प्रियमित्र नामे चक्रवर्ती, दिक्षा लही, कोडी वरस चारित्रदशा, पाळी सही. ३ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरविजयकृत महावीरस्वामीना सत्तावीश भव महाशुक्र थइ देव, इणे भरते चवी, छत्रिका नगरीये, जितशत्रु राजवी; भद्रा माय लख पचवीश, वरस स्थिति धरी, नंदन नामे पुत्रे, दिक्षा आचरी. ४ अगीयार लाखने एंशी, हजार छस्से वळी, उपर पीस्तालीश, अधिक पण दिन रूळी; वीशस्थानक मासखमणे, जावज्जीव साधता, तिर्थंकर नामकर्म, तिहां निकाचता. ५ लाख वरस दिक्षा, पर्याय ते पाळता, छब्बीशमे भव, प्राणतकल्पे देवता, सागर वीशनुं जीवित, सुखभर भोगवे, श्री शुभ वीर जिनेश्वर, भव सुणजो हवे. ६ ढाळ ५ : गजरामारुजी चाल्या चाकरी रे - ए देशी नयर माहणकुंडमां बसे रे, महाऋद्धि ऋषभदत्त नाम; देवानंदा द्विज श्राविका रे, पेट लीधो प्रभु विसराम रे. १ ब्याशी दिवसने अंतरे रे, सुर हरिणगमेषी आय; सिद्धारथराजा-घरे रे, त्रिशला-कूखे छटकाय रे. त्रिशला. २ नव मासांतरे जनमिया रे, देव देवीये ओच्छव कीध; परणी यशोदा जोवने रे, नामे महावीर प्रसिद्ध रे. नामे० ३ संसारलीला भोगवी रे, त्रीश वर्षे दिक्षा लीध; बार वरसे हुआ केवळी रे, शिववहुनुं तिलक शिर दीध रे. शिव० ४ संघ चतुर्विध थापीयो रे, देवानंदा ऋषभदत्त प्यार; संयम देइ शिव मोकल्या रे, भगवतिसूत्रे अधिकार रे. भगवति० ५ चोविस अतिशय शोभता रे, साथे चउद सहस अणगार, छत्रीश सहस ते साधवी रे, बीजो देव देवी परिवार रे, बीजो० ६ त्रीस वरस प्रभु केवळी रे, गाम नगर ते पावन कीध; ब्होंतेर वरसनु आउखुं रे, दिवाळीये शिवपद लीध रे. दिवा. ७ अगूरू लघु अवगाहने रे, कीयो सादि अनंत निवास; मोहरायमल्ल मूळ-शुं रे, तन मन सुखनो होय नाश रे. तन० ८ तुम सुख एक प्रदेश- रे, नवि मावे लोकाकाश; तो अमने सुखीया करो रे, अमे धरीये तुमारी आश रे. अमे० ९ अखय खजानो नाथनो रे, में दीठो गुरू-उपदेश; लालच लागी साहेबा रे, नवि भजीये कुमतिनो लेश रे. नवि० १० म्होटानो जे आशरो रे, तेथी पामीये लीलविलास; द्रव्यभाव शत्रु हणी रे, शुभवीर सदा सुखवास रे. शुभ० ११ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह कळश ओगणीश एके, वरस छेके, पूर्णिमा श्रावण वरो; में थुण्यो लायक, विश्वनायक, वर्द्धमान जिनेश्वरी. संवेग-रंग-तरंग झीले, जसविजय समता धरो; शुभविजय पंडित चरण सेवक, वीरविजयो जयकरो. १२ [जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स हेरल्ड, ओगस्ट-सप्टेम्बर १९१४, पृ.३१६–२०] Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बे नंदिषेण सझाय १. चतुरकृत [आ कृति 'जैन गूर्जर कविओ' के 'गुजराती साहित्यकोश'मां नोंधायेली नथी. कविपरिचय पण प्राप्त नथी. - संपा.] मुनिवर महीअल विचरे एकलो, नंदिषेण निरूपम रूपे अति भलो. त्रुटक अति भलो रूपें जिसो मनमथ, माननीमन मोहए, तप तपें दुकर छठ अठम, चतुर चारित्र सोहए. एक वार मुनिवर आहार लेवा नयर माहें संचरे, तव वेस्यामंदिर करम-वसें जइ धर्मलाभ ईम उचरे. १ देखी मुनिवर उभो आंगणे, वलतुं वेसा उत्तर एम भणे, इम भणे उतर वेशवनिता, अरथ अम घरि चाहिए, रिषि वरासें तुमे आव्या, इम विमासो नई हीयें, अभिमान आणी तरण ताणी, खंड कर जव नाखए, वरसंति सोवन बार कोडि रयण राशि असंख ए. २ वलतो वेगे ततखीण चालीउ, प्रमदा प्रेमें करयल झालीउ. करकमल झाली रही रामा, नाह ! नेह नीवाहीए, तमें भमरनी परें भोग भोगवो, रमो रंगई मालीइं, तिणे वेण वेद्धों रहों रसभर, भर्म भूलो भामिनी, भोगफल कर्म उदय आवों, कहि सासनसामनि. ३ दस दस दिनका नित नर बुझवें, देसनावाणी नरनें रीझवें, रीझवें देशनावाणि मीठी राग वेरागीपणे, नंदिषेण निश्चल नियम पालें, वेष राखें थापणे, एक वार दसमों नर न बूझें, वार लागी अति घणी, तव वेशवनिता वीनवे प्रभु ! उठो घर भोजन भणी. ४ जिहां लगी दसमो नर बूझे नही, तां लगि जमवु निश्चल ए नहि, ए नही निश्चल हुं न जमुं, जां न बुझें ए वली, तेह थानकि तुमे दसमा, कहिं नारी आकुली. Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह तिहां बार वरसी नेह तुटों, कर्म खुटइं भोगना, वयराग आणी इसु जाणी चतुर चारित्र जोगनां. ५ गुणवंत गिरूओ उठो आदरी, मारग चालो चित्त चोखू करी, चित्त करी चोखं चतुर चालो समोसरण पोहतए, श्री वीर जीनवर पास संजम लइ विषय वरतए, सो नंदीषेण मुणींद मुनिवर सुख संपूरइं भोगवे, सुरलोक अपछर नारी सरिसुं सुकवि चतुर इम वीनवे. ६ २. रूपविजयकृत [कवि तपगच्छना विनयविजय उपाध्यायना शिष्य छे. एमनी स्तवन-सझायादि प्रकारनी केटलीक लघु कृतिओ मळे छे. जुओ गुजराती साहित्यकोश खंड १, पृ.३६९-७०. कवि सं.१८मी सदीमां थया होवाचं अनुमान थई शके. कृति 'अप्रगट सझाय संग्रह' मां छपायेली छे. – संपा.] राग सारंग मल्हार रहो रहो वालहा, तमे कां जाउ छो रूठी, लाल रे, जेहने तन धन सुपीइ तेहने न दीजे पूठि, लाल रे. १ रहो. रातदिवस जे गुण जपे, राखे नेह अपार, ला. ते माणस कीम मेहलीइ, जो होइ सेवक हजार, ला. २ र० पाय पहुं प्रभु ! वीनवं, हसता म धारो रोस, ला. वाडि गले जो चीभडा, तो केहने दीजे दोस, ला० ३ र. पंचसे नारी परहरी, जो कीधी मुझ सूभाल, ला. दिनदिन प्रति दस बुझवें नंदिषेण वाणि रसाल, ला. ४ र० बार वरस सुख भोगवी, लीधो संयमभार, ला. विनयविजय उवझायनो रूपविजय जयकार, ला० ५ र० [जैनयुग, मार्गशीर्ष १९८२, पृ.१६०] Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ अज्ञातकृत ऋद्धिगारव उपर कथा ( विक्रम १५मा सैकानुं गद्य.) [ 'जैन गूर्जर कविओ' मां आ नोंधायेल नथी. - संपा. ] अत्र कथा - दशार्णपुर नगर दशार्णभद्र राजा महार्द्धिमदनउ धणी. एक वार श्री महावीर पाउधार्या सांभली चीतवई, स्वामी तिसिहं आडंबर जई वांदउं, जिसि बीजउ को वांदी न सकइ. गजेंद्र गुडी तुरंगम पाखरी सातसइ राणी सुखासनि बइसारी माहा मंडाण आवि. तिसिद्धं सौधर्मेंद्र तेहतउ मद उतारिवा भणी चउसठि सहस्र श्वेत हस्ती विकुर्वीआ, एकेकानई पांचसई चारोत्तर मुख, मुखि मुखि आठ आठ [ दंतूसल ], दंतूसलि आठ आठ वावि, वाविइं आठ आठ कमल, कमलि कमलि लाख लाख पांखडी, पांखुडीई पांखुडीइं बीस बद्ध नाटक देवता कर, कर्णिकाई कर्णिकाई तिहां सिंहासन आठ अग्र महिषी सहित इंद्र बइठउं ते नाटक जोअइ छई. इसिइ मंडाणि इंद्र आविउं देखी, दशार्णभद्र राजा हुई आपणी ऋद्धि उच्छी भणी वैराग्य ऊपनऊ. तत्काल दीक्षा ली . इंद्र आवी पगि लागउ. कहइ, स्वामी, हवई तिइं जीतउं, जउ चारित्र लीधउं प्रशंसा करी वांदी पाछउ गिउ. हवइ तीणई भाग्यवंतई ऋद्धिगारव करीनइ पछइ समारिउं, अनेर ते वस्तु न हुई ते भणी ऋद्धिगारव न करवउ. छ. श्री. आवश्यक बालावबोध पत्र संख्या १५० लख्या संवत १४५५ वर्षे भाद्रव मासे शुक्लपक्षे १२ गुरुवासरे लिखितं ठा. कायस्थ (डॉ. भाऊ दाजी कलेक्शन, रोयल ए. सो. मुंबई, नं. २०२ ) [जैनयुग, चैत्र १९८४, पृ.२९९ ] Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणिक्यसुंदरसूरिकृत नेमीश्वरचरित फागबंध (विक्रमनी पंदरमी सदीना उत्तरार्धमा विधिपक्ष - अंचलगगच्छनी ५७मी पाटे थयेला मेरुतुंगसूरिना बे शाखाचार्य नामे जयशेखरसूरि अने माणिक्यसुंदरसूरि पैकी बीजाए आ काव्य रच्यं छे. जयशेखरसूरिए प्रबोधचिंतामणि, उपदेशचिंतामणि आदि ग्रंथो रच्या छे (जुओ मारो जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, फकरो ६५०), ज्यारे प्रस्तुत माणिक्यसुंदरसूरिए चतुःपर्वीचम्पू, श्रीधरचरित्र (सं.१४६३), धर्मदत्तकथानक, शुकराजकथा, मलयसुन्दरीकथा (गुजरातना शंखराजानी सभामां), संविभागवतकथा, सत्तरभेदीपूजा, गुणवर्माचरित्र (सं.१४८३) वगेरे संस्कृतमां कथा-ग्रंथो रच्या छे. तदुपरांत कल्पनियुक्ति पर अवचूरि, आवश्यकनियुक्तिदीपिका, पिंडनियुक्तिदीपिका, ओघनियुक्तिदीपिका, दशवैकालिकदीपिका, उत्तराध्ययनदीपिका, आचारांगदीपिका अने नवतत्त्वविरण ए प्रमाणे संस्कृतमा टीकाओ रची छे. गुजराती भाषामां गद्यमां ‘पृथ्वीचंद्रचरित्र' अने पद्यमां आ काव्य रचेल छे. (जुओ मारो उक्त ग्रंथ, फकरा ६८१-(८२) उपर्युक्त गुजराती गद्यमां 'पृथ्वीचंद्रचरित्र'ना संबंधे प्रसिद्ध साक्षरवर्य केशवलाल हर्षदराय ध्रुव पोताना 'प्राचीन गुर्जर काव्य'नी प्रस्तावनामां पृ.३८-३९मां जणावे छे के "माणिक्यसुंदरसूरिए जूनी गूजरातीमां गद्यात्मक पृथ्वीचंद्रचरित्र संवत १५७८मां रच्यं छे." आ संवत प्राय: मुद्रणदोषने लईने खोटो छे. खरी रीते १४७८मां' जोईए, कारणके ते गायकवाड ओरियेन्टल सीरीझ नं.१३ना 'प्राचीन गूर्जर काव्य संग्रह'ना पृ.९३थी १३०मां छपायु छे त्यां अंते 'संवत १४७८ वर्षे श्रावण सुदि ५ रवौ पृथ्वीचंद्रचरित्रं पवित्रं पुरुषपत्तने निर्मितं समर्थितम्' एम स्पष्ट छपायुं छे अने तेमनो जीवनकाल पण ते ज समयमां छे. (जुओ मारो ग्रंथ जैन गुर्जर कविओ, भाग बीजो, पृ.७७२) [बीजी आवृत्ति भा.१, पृ.४५-४६] ते बोलीमां छे. अक्षरना, रूपना, मात्राना, लयना बंधनथी मुक्त छतां तेमां लेवाती छूट भोगवतुं प्रासयुक्त गद्य ते बोली. माणिक्यसुंदर बोलीवाळा प्रबंधने वाग्विलास एटले बोलीनो विलास एवं नाम आपे छे. आ गद्यचरित संबंधी नडियादनी प्रथमनी परिषद् माटे श्रीयुत प्रह्लादजीए एक निबंध लख्यो हतो ते 'जैनयुग' मासिकमां प्रकट थई गयो छे... विक्रमनी पंदरमी सदीना उत्तरार्धना गुजराती गद्यनो नमूनो पूरो पाडनार माणिक्यसुंदरसूरिनु गुजराती काव्य सद्भाग्ये मळी आव्यु छे, जे ते ज सदीना गुजराती पद्यनो अविकल सुंदर नमूनो पूरो पाडे छे. माणिक्यसुंदरसूरिनुं आ काव्य मनोरंजक, हृदयस्पर्शी अने मंजुल पदावलियुक्त छ; अने तेमां जुदाजुदा छंदो छे.. आ काव्य, संशोधन करवामां, मळेली त्रण प्रतोनो उपयोग करवामां आव्यो छे. पहेली Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९ माणिक्यसुंदरसूरिकृत नेमीधरचरित फागबंध प्रत मुंबईनी रोयल एशियाटिक सोसायटीमां आवेल डाक्टर भाउ दाजी (बी डी.)नो संग्रह छे, तेमांना नं.१६०-३नी प्रत के जे परथी ता. ३०-८-३०ने रोज में नकल करी लीधी हती. पछी पाटणना फोफलियावाडाना भंडारमांना दाबडा नं.८३, प्रत नं.१५६नी बे पानांनी प्रत परथी तेने ता.१६-५-३१ने रोज सरखावी लीधी अने पछी त्रीजी प्रत श्री महावीर जैन विद्यालयथी मळी ते पण जोई गयो अने आ लखती वखते सामे ज राखी छे. आ प्रतनी पुष्पिकाओ आ काव्यने अंते मूकेली छे.) [कविनी अन्य गुजराती कृतिओ माटे जुओ गुजराती साहित्यकोश खंड १, पृ.३०४-०५. देशाईए पादटीपमां पाठांतरो नोंधेला तेमांथी बिनअगत्यनां अने भ्रष्ट पाठांतरो अहीं छोडी दीधां छे. क्वचित् पाठांतर वधु स्वीकार्य लाग्युं त्यां कृतिनी वाचनामां दाखल करी दीधुं छे. - संपा.] नमो देवाधिदेवाय नमोऽस्तु परमात्मने, नमः श्रीजैनभारत्यै सद्गुरुभ्यो नमो नम:. १ अलक्ष्यं दक्षाणामपि न च सहस्राक्षनयनैर्निरीक्ष्यं यद्वाच्यं न भवति चतुर्वक्त्रवदनैः, हविर्भुक्तारेन्दुग्रहपतिरुचां जैत्रमनघं परं किंचिज्ज्योतिर्जयति यतियोगीन्द्रविषयं. २ अर्वाचीनैरलक्ष्याय दक्षाय दुरितच्छिदे, चिदानन्दस्वरूपाय परमब्रह्मणे नमः. ३ अथ रासु नमउं निरंजन विमल सभाविहिं, भाविहिं महिमनिवास रे; देव जीरापल्लि-वल्लिय-नवघन, विघन हरइ प्रभु पास रे. ४ नाभिकमलि कुंडलिनी निवसति, सरसति साचं रूप रे; समरउं सामिणि सुजि अपरंपर, परम ब्रह्मस्वरूप रे. ५ अथ अद्वैउ परम ब्रह्मस्वरूप, जपई सुरासुर भूप, अविगत अविचलू ए, निरुपम निरमलु ए; अजर अमर अनंत, भवभंजन भगवंत, जनमनरंजन ए, नमउं निरंजन ए. ६ शृंगारित गिरिनार, गाइसु नेमिकुमार, मारविडारण ए, त्रिभुवनतारण ए; यादवकुल केरउ चंद, दीठई परमाणंद, शिवसुखकारण ए, मोहनिवारण ए. ७ अथ फाग वारीउ मोह-मतंगज, गजगति जगअवतंस; जसु जश त्रिभुवनि धवलिय, विमलिय यादववंस. ८ राज राजिमती परिहरी, परिहरिउ संसार, वन्निसु नेमि जोगेसर, सिरवरि गिरि गिरिनार. ९ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह अथ श्लोक: गिरनारगिरेर्मोलौ नत्वा ये नेमिनं जिनं, पातकं क्षालयन्ति स्वं धन्यास्ते धृतसंमदा:. १० अथ रासु समुद्रविजय-सिवादेवीयनंदन, नंदन चंदनभास रे; अतुल महाबल अकल परम पर, परमेसर पूरइ आस रे. ११ पूनिम शशि जिम सहजि मनोहर, हरइ मोह-अंधकार रे; निसुणउ निर्मल भावि भविकजन, जिनवर नव अवतार रे. १२ अथ अद्वैउ प्रभु पहिलई अवतारि, धन भूपति अवधारि, धन धन धनवती ए, तसु वामंगि सती ए; भवि बीजइ सौधर्मे, त्रीजइ निरमल कर्मि, चित्रगति विद्याधरु ए, रतनवती-वरु ए. १३ चउत्थइ सुर माहिंदि, पंचम भवि हरिनंदि, सुत अपराजितु ए, प्रियमति' संगतु ए; प्रभु छइ अवतार, आरण सुरवर सार, सातमइ दंपती ए, शंख यशोमती ए. १४ भवि आठमइ वखाणि, अपराजिति सुविमाणि, नवमइ नव परि ए, नगर सूरीपुरि ए; समुद्रविजय-सुनरिंद-कुलि जायउ जिणचंद, शिवादेवि जननी ए, उत्सव त्रिभुवनि ए. १५ अथ फागु त्रिभुवन माहि महोत्सव, अवनीय अति आनंद; यादववंसि सुहावीउ, बावीसमउ जिणिंद. १६ इणि अवसरि मथुरांपुरि, अवतरिउ देव मुरारि; जीणइं कंस विध्वंसिय, केसिय कीधउ वारि.३ १७ श्लोक: चरितं वैष्णवं श्रुत्वा जरासिंधेऽथ कोपने, गता यादवभूपालाः सर्वे सौराष्ट्रमण्डलं. १८ रासु सोरठ मंडलि द्वारिका थापिय, आपिय अमर हराई रे; राज करइ तिहां देव नारायण, राय नमई तसु पाय रे. १९ जीणई हेलां जीतउ भूजबलि, समरथ राय जरासिंध रे; सोल सहस रमइ रंगिहिं रमणीअ, रमणीय रूप सुबंध रे. २० १. प्रीतिमति, २. जिन पूरे, ३. कीधो चारि. Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणिक्यसुंदरसूरिकृत नेमीधरचरित फागबंध . अद्वैउ बंधव नेमिकुमार, रूप तणउ भंडार, बालब्रह्मचारी ए, न रूचइ नारी ए; सारंग धनुष धरेवि, स्वामी शंखु पूरेवि, पाडिया पाहरि ए, मनि चमकिउ हरि ए. २१ हरि उपरोधिइं नेमि, तसु भुज वालिउ खेमि, सुरनर सवि मिली ए, जोइ मनरली ए; हेलो हलावी बांहि, हरि हीडोलइ नाह, मल्लाखाडइ ए, बल देखाडइ ए. २२ फागु बल देखीय यदीय देवा, सुर भासुर खेचर वृंद; जयजयकार ते ऊच्चरइं, धरई ति मनि आणंद. २३ दंड मेरु महीधर धरणी, करई जे सिरिच्छत्र; ते जीत्यो जिणइ गदाधर, पाधरसी कुण चित्र ? २४ श्लोक: चित्रीयमाणास्ते सर्वे सिद्धगन्धर्वखेचराः, हर्षात् पुष्पाणि वर्षन्तो जगुर्नेमिभुजाबलं. २५ भुजबल देखीय मनि चिंताविय, आविय निज आवासि रे; बलभद्र तेडीय बोलइ सारंगधर, ‘म रहिसि नेमि-वीसासि रे. २६ जं आपणपइं जगु ए वंचिउं, संचिउं राज अपार रे; कीडी तेतर न्याय करेसिइ, लेसिइ नेमिकुमार रे. २७ अढैउ लेसिइ नेमिकुमार, राज अह्मारुं सार, मनि आलोचिवउं ए, हिव किम करेवउं ए'; वाणी हुइ आकासि, 'श्रीपति ! इम म विमासि ! नेमि जिणेसरू ए, परम योगेसरू ए.' २८ गयणांगणि बोलई देव, 'जसु अम्हि सारउं सेव, ते सिवानंदनु ए, पापनिकंदनु ए; सेवई सुरपति साथ, जोगेसर जगनाथ, जीतु मोहराजु ए, नही लेसिइ राजु ए.' २९ काव्यं (शार्दूल०) राज्यं यो न समीहते गजघटाघंटारवै राजितं, नैवाकांक्षति चारुचन्द्रवदनां लीलावती योऽङ्गनां, यः संसारमहासमुद्रमथने भावी च मंथाचल: सोऽयं नेमिजिनेश्वरो विजयतां योगीन्द्रचूडामणी:. ३० ४. 'तिमनि' ने स्थाने 'अति', ५. विजयते. Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह रासउ इणि वचनि हरी आणंदीअला, ऋतु वसंत अवसर आइयला, वाइला दक्षिण वायु तु, जिन जिन, कुसुमि कुसुमि भमरा रणझणीआ, मयणराय हयवर हणहणीआ, भूयणि भयु भडवाय तु, जिन जिन. द्रूपद. रेवयगिरि मिली रमल करंतो, मुगतिरमणी हीइ धरतो, खेलें मास वसंत तु, जिन जिन,६ रमे रंगे जादव भूपाला, शशिवयणी साथें वरवाला, माला कुसुमची हाथि तु, जिन जिन. पाधि पाइल कवडाए ए, कणयर करणी कवडीए ए, कदली करे आणंद तु, जिन जिन. फोफली फणस फली बीजउरी, वनस्पति दीसे मोरी, मोरीयडा मुचकंद तु, जिन जिन. ३२ ३१ फागु कुंद-कली महिमहीआ, गहगहीआ सहकार; करई वृक्ष नारंगना, अंगना रंग अपार. ३३ जाइ जुइ वर किंशुक, किं शुकवदन सुदृक्ष; त्रिभुवन-जन-आनंदन, चंदन चंपक वृक्ष. ३४ ___ काव्यं (शार्दूल०) वृक्षाः पल्लविता लता: कुसुमिता शृंगा: सुरंगा वने, सारं गायति कोकिला कलरवैर्वापीजलं मंजुलं, एवं मित्रवसन्तदत्तसकलप्राणोऽपि सैन्यैः स्वकैमेने दुर्जयमेव मन्मथभटो योगीश्वरं नेमिनं. ३५ रासु नेमि अनइ नारायण पुहुता, पुहुता वर गिरिनारि रे; रमई भमई बेउ रमलिं तरंगिहिं, रंगिहिं वनह मझारि रे. ३६ बेइ नवयौवन बेउ यादवकुल, बकुल-विकाशन वीर रे; बेइ निजरूपिइं जन-मन मोहि, अंजनवान शरीर रे. ३७ ६. पाटणनी प्रतमां आ पहेलांनी अने आ पंक्ति नथी, ७. सबक्ष. Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणिक्यसुंदरसूरिकृत नेमीश्वरचरित फागबंध अद्वैउ अंजनवान शरीर, बेइ गिरूआ गंभीर, ईकु नेमीसरू ए, बीजउ सारंगधरू ए; हरि हरिणाक्षी साथि, स्वामी सिउं जगनाथि, खेलइं खडोखली ए, जलि पडइं उकली ए. ३८ झीलई सुललित अंग, नेमि अनइ श्रीरंग, सींगी जलि भरी ए, रमई अंतेउरी ए; हरि सनकारी गोपी तेहे मिली लाज लोपी, नेमि पाखलि फिरी ए, झमकई नेउरी ए. ३९ श्लोक: नारीनूपुरझंकारैर्यस्य चित्तं न चंचलम्, स श्रीमान् नेमियोगीन्द्रः पुनातु भुवनत्रयं. ४० फागु त्रिभुवनपति धरइ शमरस, रमतु नारी मझारि; ते बोलई सुविवेक' 'तूं, एक वयणु अवधारि. ४१ प्रभु ! परिणेवउं मानि-न,' मानिनीमनह वालंभ; तरूणीय जनमन-जीवन, यौवन अतिहिं दुलंभ. ४२ रासु यौवन अतिहिं दुलंभ भणीजइ, खीजइ प्रभु तुम्ह माइ रे' हसीय भणइं ते 'तूं बलि आगलउ, आगलि अम्ह किम जाइ रे ?' ४३ भणइ भुजाई 'भणि अह्मि देवर ! देव रचइं तुम्ह सेव रे, काम न नाम गमइ नवि नारी, सारी एह कुटेव रे. ४४ अलैउ सारी एह कुटेव, टालि-न देवर ! हेव, मानि-न परिणq ए, वली वली विनवू ए; हिव मानेवा ठाम, निहुरईं लाभइ गाम', पीतंबरू कहइ ए, 'तउ अवसर लहइ ए.' ४५ वींटी रही सवि नारि, वलि वलि कहइ मुरारि, कुमर सवे कहईं ए, पगि लागी रहईं ए; मांड मनावीयु नाह, यादव सविहुं वीवाह, त्रिभुवन उत्सवु ए, ऊलट अभिनवु ए. ४६ फागु अभिनव अंगि ऊलट धरि, हरि द्वारिकां पहूत; मागी रायमइ कन्या, धन्या गुणसंजुत्त. ४७ स्वामि-नामि ऊमाहीय सा हीयडइ घण प्रेमि; नाचती अभिनय सा स[ल?]वइ, वलि वलि नेमि.' ४८ ८. सविवेक. ९ मानिनी. Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह आर्या नेमिकुमारं बाला प्रियमागमनं विचिंत्य संतुष्टा, नृत्यति यथा मयूरी, जलदं शशिनं चकोरी व. ४९ रासु चकोरलोचनी मिली, निज निज मनरली, वली वली अलंकरइं नाह रे, चतुर ऐरावणि, प्रभु चडी चालिउ, आलिउ भूयणि ऊच्छाह रे. ५० काने कुंडल झलकईं, जिम ससिरविमंडल मंडलवइ सवि जोवई रे, उरिवरि हारू, सिरिवरि मणिमुकुट, कटक कंकण करि सोहइं रे. ५१ अद्वैउ सोहई सिरिवरि छत्र, आगलि नाचई पात्र, बे पासई चामरू ए, ढलई मनोहरू ए; बहिन ऊतारइ लूण, स्वामी साच° सलूण, पूठिइं धुलही ए, गाई धुरल ही ए. ५२ आविउ अमरहं राउ, वलिउ निसाणे घाउ, राजा वासुगि ए, आविउ आसुगि ए; ग्रह तारा रवि चंद, आवई अप्सरवृंद, आणंदिउं मनु ए, मिलिउं त्रिभुवनु ए. ५३ फागु त्रिभुवनपति चालइं परिणेवा, परिणवा उच्छव हुति; साथिई तरल" तुरंगम, रंग मत्तंगज दंति. ५४ प्रभु प्रति आलवइं तुंबरू, तुंबरू रंजे चित्त;१२ जिणि वचि कोकिल नारद, नारद गाइं गीत. ५५ काव्यं (शार्दूल०) गीतं गायति किंनरी सुमधुरं वीणालया भारती, गन्धर्वाः श्रुतिधारिण: सुरपते रंभा नरी नृत्यति, भंभाभेरिमृदंगझल्लरिरवो व्योमांगणं गाहते, नेमिं वीक्ष्य वदन्ति पौरवनिता ‘धन्येति राजीमती'. ५६ रास राजीमति गुखि बइठीअ वल्लभ, वल्लभ जोइ विसालि रे; वर आवंतु चडीय अवलोकइं, लोक ते मालि अटालि रे. ५७ १०. साव, ११. चपल, १२. चीत. Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणिक्यसुंदरसूरिकृत नेमीश्वरचरित फागबंध ईंद्र चंद्र सुर किंनर आगलि, आगलि हर गोविंद रे; तोरणि-बारी पहूतु नेमि जिन, जनमनि अति आणंद रे. ५८ अढैउ जनमनि अति आणंद, पसूअ-वाडी आनंद, हरिण हरिणली ए, प्रभुश्रवणे श्रुति गिली ए; संबर सूअर लाख, राव करइ निज भाखि, पूच्छिउं कारणू ए, कहइ आधोरणू ए. ५९ ‘पसुमरिसिइंप्रभु ! आज, गरूउ गउरव काज, तिणि सविटलवलइए, बांधियां वलवलइ ए'; इम संभलीय विचार, चिंतइ नेमिकुमार, दुःखभंडारू ए, धीगु संसारू ए. ६० आर्या सारं गानं श्रुत्वा विलोक्य सारंगलोचनां च वशां, सारंगा: सारंगा इवाप्तरंगा नराः पशव:. ६१ रासुउ पसूअ-नाड जव जिणवरि दीठउ, तउ वीवाह हूउ अनिठउ,१३ बइठउ मनि वइराग तु, जिन जिन, 'मोहजालि किम मानव पडिया ? दानव देव कुसुमसरि नडीया, जडीया विषयई सराग तु, जिन जिन. रागसागरि जग सहू धंधोलिय, हरि हर ब्रह्म मयणि रणि रोलीय, रोलीय जीव संसार तु, जिन जिन, रूलइ जीव भवि रीव करंतां, न[नारय-तिरिय-नर मज्झ फरंतां, विण अरिहंत विचार तु, जिन जिन.१४ नारि-पासि पडिया संसारी, मणूअ-जनमफल मूकई हारी, हारि नारिहिं राचंति तु, जिन जिन, एक न जागई सद्गुरुवयणे, जीव न पेखइ अंतर-नयणे, मयणि मोहि राचंति तु, जिन जिन. जोग-जुगति जोइ जोगेसर, परम ब्रह्मि लागउ अलवेसर,५ धिगु संसार असार तु, जिन जिन, इम भणी पसुबंधन सवि टाली, निय गइंदु पहु वेगिइं६ वाली, वलीउ नेमिकुमार तु, जिन जिन. ६३ १३. ऊबीठउ, १४. आगळनी त्रण अने आ पंक्ति पाटणनी प्रतिमां नथी, १५. परमेसर, १६. पहुनेमिहिं, Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह फाग वलिउ नेमिकुमार तु, मार- निवारण" जाम; राजीमती अति आकुली, ढलिय धरातलि ताम. ६५ सखी सींचई चंदनजलि, कदलीदलि करइ वाउ; वलिउं चेतन जाणिउ, वलिउ यादवराउ. ६६ आर्या यादवराजवियोगे लूताभिहतेव मालतीमाला, म्लाना मदनकराला विलपति राजीमती बाला. ६७ रासु राजीमती बाला विविह परि विलपति, पतिवियोगें अपार रे; फोडइ कंकण विरहकराली, रालीय उर तणो हार रे. "धाउ धाउ जाइ जीवन मोरडा, मोरडा ! वासि म वासि रे; प्रीय प्रीय म करिअ रे बापीयडा !, प्रीयडा मेहनइ पासि रे. अढै प्रीडा मेहन पासि, वीजलडी नीसासि; सर भरियां आंसूयडे, हिव हंसलडा ! उडि ए. सिद्धिरमणि प्रिय राचि, कहीय न पालइ वाच, तूं त्रिभुवनपति ए, कुण दीजइ मति ए ? ७० आठ भवंतर नेह, कांइ तई कीधउ छेह ? यादवराइ, मइ ए, बोलइ राइमइ ए, सयरि धरइ संताप, वलि वलि करइं विलाप, राजल टलवलइ रे, जिम माच्छली थोडइ जलि ए ७१ फाग माच्छली जिम थोडइ जलि, टलवलइ राजल देवि; वलीउ नेमि पहू तउ, पहुतउ घरि तिणि खेवि. ७२ आव्या देव लोकांतिक, कांति करई रविभ्रंति; कर जोडी प्रभु वीनवइ, नवई ते कवित थुणंति. ७३ काव्यं (शिखरिणी) १७. मार- विडारण, १८. वर. स्तुवन्ति क्रीडायां मदनविवशायां ननु वशां, सुधाभि: सीची हरिहरविरंचिप्रभृतयः, परब्रह्मज्ञास्तां विषमविषलहरीमिव वधूं, विधूय त्वं जातस्त्रिभुवनपते ! पातकहर: ७४ ६८ ६९ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ माणिक्यसुंदरसूरिकृत नेमीधरचरित फागबंध रासु हर नट्टारंभि नचाविउ गौरी, गौरी लोचनभंगि रे; मुकुंद वृंदावनि नचाविउ गोपीइ, लोपीय लाज अनंगि रे. ७५ सावित्री ब्रह्मा आकुलीउ, कलिउ रोहिणि चंदु रे; नारि-आधारि हिं मयणि वदीता, जीता सुर नर इंदु रे. ७६ . अद्वैउ जीता सुर नर इंद, पणि तूं नेमि जिणिंद, मयणि न छाहीउ ए, नारि न वाहीउ ए; देव भणइ 'तूं देव !, धर्म प्रकटि प्रभु ! हेव, भवियण जिणि तरइं रे, भववनि नवि फिरइं ए. ७७ प्रभु ! तूं लीलविलास, कीरति जित कैलास, साचउ शंकरू ए, सिद्धिरमणि वरू ए'; इम स्तवी देव पहूत, धम्मभारि प्रभु जूत, दान संवत्सरू ए, दिइ गतमत्सरू ए. ७८ फागु गतमत्सर हिव जिनवर, नवमइ रसि संलीन; रेवइ संजम आदरइ, करइ विहार अदीन. ७९ दिवसि पंचावनि पामीय, स्वामीय केवलज्ञान; विरचइ मिलीय देवासुर, समोसरण प्रधान. ८० श्लोक: प्रधानं मदनं हत्वा, मोहराजं विजित्य च, आप्तछत्रत्रयो नेमिर्जीयाद् विश्वप्रधानधी:. ८१ रास प्रधान प्राकार त्रिनि सुरि रचि निलइ, रूचिनिलइ जिम रवि चंद रे; चउविह धर्म प्रकासिउ जिनवरि, हरि-मनि हुउ आणंद रे. ८२ पीय देखी राजल मनि गहिगही, गहिगही लइ संजमभार रे; पामिय सिवसुख परिहरि राजमइ, राजमइ नेमीकुमार रे. ८३ १९. रूचि निलई. Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह श्लोक: कुमारे ब्रह्मचर्येऽपि, यया मे रंजित: पति:, सा वीक्ष्येति ययौ सिद्धिं, पूर्व राजीमती सती. ८४ अद्वैउ राजीमती नेमिकुमार, यादवकुल सिणगार, कारणि अवतरियां ए, त्रिभुवनि विस्तरियां ए; धन्य ज ते नरनारि, जइ चडईं गिरि गिरनारि, कुंडि गयंद मइ ए, नीरइं जिन न्हवइ ए. ८५ पूजइ मनचइ रंगि, आंगीय नव नव भंगि, स्वामीगुण थुणइ ए, स्तुति इणि परि भणई ए; 'अकल अमल सर्वज्ञ, नमइं निरंतर धन्य, जयजय पावनु ए, सहजि सनातनु ए.' ८६ काव्यं (शिखरिणी) सनातन्यैः पुण्यैः प्रणतचरण: श्रीयदुपतिः, समं राजीमत्या शिवपदमगाट्रैवतगिरी, स च श्रेयोवल्लीनवधनसमो मय्यपि जने, परब्रह्मानन्दं प्रदिशतु चिरं नेमिजिनप:. ८७ रासउ श्री जिनपति भारतीय प्रसादिहिं, अंतरंग करि केसरिनादिहिं, चरित रचिउं मनरंगि. लच्छिविलासह लीलकमलं, गलइ मोह सांभलतां विमलं, छेदइ कलिमल भंगि. ८८२० श्री यादवकुलभूषण हीरो, मेह जेम गाजइ गंभीरो, रूद्ध-कुसुमसर वीरो. तूं अम्ह स्वामी सामल धीरो, गज जिम सबलु सहजि संडीरो, सुरिज सा भातु सरीरो. ८९ रिपु अंतर हेलां निरजणीया, विषम मोह मद जिणि रणि हणिया, नेमीसर संवादि. यदुकुलमणि सा राजल राणी, मा तूं सुभटधरणि जगि जाणी, निश्चल शिवप्रासादि. ९० 'क्य' अक्षर जिम बेतिहिं मिलीया, 'सुंदर' परम ब्रह्म सिउं मिलीया, दुःखवर्जित विलसंति. रसि ज नेििजण_रय मच्छदिहिं, कृतमति भणइ मुणइ आणदिहि, तसु मंगल नितु हुति. ९१ २०. आ पछी श्री महावीर जैन विद्यालयनी प्रतमां नीचे मुजब पंक्ति छ : चरणकमलि तुह्म भृग नेमीसर, वीनवे आचार्य माणिक्यसुंदर, सुललित गुणभंडार. ए प्रत अहीं अटके छ, पछीनू पार्नु नथी. Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणिक्यसुंदरसूरिकृत नेमीश्वरचरित फागबंध ५९ इति श्री नेमीश्वर चरित्रं. फागुबंधेन श्री माणिकसुंदरसूरीश्वरेण कृत छ, शुः. महं माधा लिखितं:. शुभं कल्याणमस्तु . छ. श्री वीतरागदेववादीयः. छ. (पत्र ६-११, बी. ७ नं. १६० - ३ रो. ए. सो. मुंबई.) इति श्री नेमीश्वर चरित्र फागः समाप्तमिति. छ. मुनिना मतिसागरेण लिखितमिति. शुभं भवतु. कल्याणं अस्तु. छ. छ. (पत्र २ पंक्ति १९, दाबडो ८३ नं. १५६ फोफलियावाडानो भंडार, पाटण.) ( ४ पत्र पछीनुं छेल्लं पत्र नथी, दरेकमा २० पंक्ति छे, नं. ८७१, श्री महावीर जैन विद्यालय, मुंबई.) संस्कृत टीका (उपरना आखा काव्यमां प्रथमना मंगलाचरणना श्लोक सिवाय जे संस्कृत छंदो मूकेला छेतेना अर्थ समजाववा श्री महावीर जैन विद्यालयनी प्रतमां संस्कृत टीका छे अत्र मूकवामां आवे छे के जेथी अर्थ समजवामां सहेलाई थाय.) २. तत् किंचिज्ज्योतिर्जयति तत् किं ? यदलक्ष्यं दक्षाणामपि पुनस्तत् किं ? यत् सहस्राक्षनयनैर्न निरीक्ष्यं दुश्च्यवन (?) नयनैः (न) निरीक्षणीयं पुनस्तत् किं ? यश्चतुर्वक्त्रवदनैर्वाच्यं न भवति वेधसो वदनैर्यद् वक्तुमशक्यं यदेतावत एतादृशामपि . पुनस्तत् किं ? यद् हविर्भुक्तारेन्दुग्रहपतिरुचां जैत्रं यदग्नितारकचंद्रमस्तरणेर्तेजसां जयनशीलं. पुनस्तत् किं ? यदनघं निष्पापं पुनस्तत् किं ? यत्परमुत्कृष्टं. पुनस्तत् किं ? यतियोगींद्रविषयं यतियोगींद्राणां गोचरं. एषु स्थानं वा एवं विधं तत् किंचिज्ज्योतिर्जयति. ३. एवंविधाय परब्रह्मणे नमः किं लक्षणाय ? अर्वाचीनैरलक्ष्याय अद्यतनैः पुरुषैर्न लक्षितुं योग्याय. पुनः किं लक्षणाय ? दक्षाय स्वभावविज्ञाय पुनः किं लक्षणाय ? दुरितच्छिदे दुरितं पापं छिन्दतीति दुरितच्छिद् तस्मै दुरितच्छिदे पुनः किं लक्षणाय ? चिदानंदस्वरूपाय चिद् ज्ञानमात्मशुभ्रगुणः तस्यानंदं सुखं तन्मयं स्वरूपं यस्य तच्चिदानंदस्वरूपं तस्मै. १०. ते नरा धन्यास्ते के ? ये गिरनारगिरेर्मोलौ मस्तके नेमिनं जिनं नत्वा स्वं स्वकीयं पातकं क्षालयंति किं लक्षणास्ते ? नराः धृतसम्मदाः धृतः सम्मदो हर्षो यैस्ते धृतसम्मदाः. १८. अथेति अथानंतरं सर्वे यादवभूपाला; सौराष्ट्रमंडले गताः कस्मिन्सति ? चरित्रं वैष्णवं श्रुत्वा जरासंधे कोपने सति कुद्धे सति. २५. ते सर्वे सिद्धगंधर्वखेचरा नेमिभुजाबलं जगुर्गायंति स्म किं क्रियमाणा ? चित्रीयमाणा आश्चर्यं प्राप्नुवंतः पुनः किं क्रियमाणाः ? हर्षात् पुष्पाणि वर्षन्तः. ३०. सोऽयं नेमिजिनेश्वरो विजयतां सोऽयं कः ? यो राज्यं न समीहते न वांछति. Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह किं लक्षणं राज्यं ? गजघटाघंटारवै राजितं शोभमानं. पुनर्यः अंगनां राजीमती न कांक्षति नेच्छति. किं लक्षणां ? चारुचंद्रवदनां. पुनर्लीलावती लीलायुक्तां. पुनर्य: योगींद्रचूडामणी: तीर्थंकराणां शिरोमणी:. ३५. एवं मित्रवसंतदत्तसकलप्राणोऽपि मन्मथभटो सैन्यैः स्वकै: योगीश्वरं नेमिनं दुर्जयमेव मेने मनति स्म. एवमिति किं ? वृक्षा: पल्लविता लता कुसुमिता ,गा: सुरंगा वने सारं गायति कोकिला कलरवैर्वापीजलं मंजुलं एवं एवं प्रकारेण मित्रवसंतदत्तसकलप्राणोऽपि. ४०. स नेमिर्भुवनत्रयं पुनातु पवित्रीकरोतु. स नेमिः किं लक्षण: ? श्रीमान् पुनर्किं ? योगीन्द्रः. स क: ? यस्य चित्तं नारीनूपुरझंकारैश्चंचलं न जातं. ५६. पौरवनिता नेमिं वीक्ष्य राजीमती धन्या इति वदन्ति. इति किं ? यस्या राजीमत्या वरस्तु नेमिः विवाहे च किंनरी सुमधुरं यथास्यात्तथा गीतं गायति. भारती सरस्वती वीणालया वीणायां लय: अत्यासक्तत्वं यस्या: सा वीणालया. गंधर्वा: श्रुतिधारिण: स्वरपूरका:. पुन: सुरपते रंभा अप्सरो नरी नृत्यते अतिशयेन नृत्यति. पुन: भंभा-भेरी-मृदंग-झल्लारिरव: शब्दो व्योमागणं गाहते पूरयति. ६१. ये नरा: सारं गानं श्रुत्वा सारंगलोचनां वशां च विलोक्य ये सारंगा अरंगेण सह वर्तमाना भवंति ते धन्या अथवा आप्तरंगा अर्हदेंगास्ते सारंगाः, साराणि अंगानि येषां ते सारंगा अथवा सारं तद्गुणं गच्छंति सारंगा: एवंविधा उच्यते. पुनर्ये नरा: सारंगा इव आप्तरंगाः प्राप्तरंगा भवंति ते नराः पशव उच्यते. ६७. राजीमती बाला यादवराजवियोगे विलपति विलापान् करोति. किं लक्षणा ? म्लाना निस्तेजा. पुन: किं ? मदनकराला मदनव्याप्ता वा कराला विकराला. का इव विलपति ? लूताभिहतैव मालतीमाला इव. यथा मालतीमाला लूताभिहता सत्येव विलपति विगतकांति विज्ञापयति. किं लक्षणा ? म्लाना विछायतां प्राप्ता. ७४. ननु इति निश्चितं हरिहरविरंचिप्रभृतयो यां वशां सुधाभि: सध्रीची सुधाभिस्सहचारिणीं कृत्वा स्तुवंति क्रीडायां. किं लक्षणायां ? मदनविवशायां कंदर्पपरवशायां ये परब्रह्मज्ञा भवन्ति ते तावशां प्रति विषमविषलहरीमिव कृत्वा स्तुति अत: कारणात् हे त्रिभुवनपते ! त्वं वधूं राजीमतीं विधूयसत्का विश्वपातकहरो जातस्तवाप्तं. ८१. पुन: आप्तछत्रत्रयं आप्तं प्राप्तं छत्रत्रयो येन असौ आप्तछत्रत्रय:. किं कृत्क [कृत्वा] आप्तछत्रत्रयो जात: ? प्रधानं मदनं हत्वा मोहराजं विजित्य च. ८४. राजीमती सती इति विचिंत्य नेमेः पूर्वं सिद्धिं ययौ. इतिती किं ? यया Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणिक्यसुंदरसूरिकृत नेमीश्वरचरित फागबंध सिद्धिवध्वा मे पति: कुमारे कुमारत्वे च पुनर्ब्रह्मचर्ये सत्यपि रंजितः सा सिद्धिवधूर्वीक्ष्या द्रष्टुं योग्या यस्या ईशी कला सा कीदृशीति. ६१ ८७. स नेमिजिनपः चिरं चिरकालं मय्यपि जने माणिक्यसुंदराचार्ये परब्रह्मानंदं प्रदिशतु कथयतु सः कः ? यो राजीमत्याः समं रैवतगिरौ शिवपदमगात् जगाम पुनः सः कः ? यः सनातन्यैः पुण्यैः प्रणतचरणः सनाभवाः सनातन्यास्तै; सनातन्यैः सर्व्वकालीनैः पुण्यैः पवित्रैर्नरामरैः प्रणतचरणः पुनः सः कः ? य: श्री यदुपतिः यदूनां पति: पुनः सः कः ? यः श्रेयोवल्लीनवघनसमः. [आत्मानंद जन्मशताब्दी स्मारक ग्रंथ, १९३६, पृ.४१-६५] Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नमंडनगणिकृत रंगसागर नेमि फाग (देवसुंदरसूरिना शिष्य सोमसुंदरसूरि हता. तेओ वि. सं. पंदरमा शतकमां थया. तेमनो जन्म १४३० माध वदि १४ शुक्र, दीक्षा १४३७, वाचकपद १४५०, सूरिपद १४५७, स्वर्गवास १४९९. तेमणे स्तोत्रादि अनेक ग्रंथ लख्या छे अने केटलाक पर बालावबोध कर्या छे. तेमनो सर्व इतिहास ‘सोमसौभाग्य' काव्य के जे भषांतर सहित प्रसिद्ध थयेल छे तेमांथी मळी आवे छे. आ कृति पंदरमा सैकानी भाषानो सुंदर नमूनो पूरो पाडे छे. आ कृतिनी एक प्रति मोरबीना भंडारमाथी त्यांना संघवी कानजीभाई पासेथी मळी आवी छे. ते माटे तेमनो उपकार मानवामां आवे छे अने ते जेम छे तेम अत्र मूकवामां आवी छे. बीजी प्रतिओना अभावे आमां जे अशुद्धता रही होय तेनुं संशोधन थई शक्युं नथी; परंतु कोई स्थळे बीजी प्रतो मळी आवशे तो शुद्ध संस्करण थई शकशे. अत्यारे तो आटलाथी संतोष मानवानो छे. कर्ताए क्यांकक्यांक संस्कृत-प्राकृत पद्या मूकेल छे. भाषाशास्त्रीने आ रचना अति उपयोगी नीवडशे. प्रतिनो लेखनकाळ रा. मनसुखलाल किरतचंद महेता वि.सं. १६मा शतकनी आसपास होवानुं माने छे. प्रतनां पत्र चार छे. तेनी जूनी लिपि वगेरे जोतां प्राचीन प्रत लागे छे.) [वस्तुत: आ कृति रत्नमंडनगणिनी छे. 'जैन गूर्जर कविओ'नी प्रथम आवृत्तिमा पहेला (भा.१ पृ.३२-३३) आ कृति सोमसुंदरसूरिने नामे मूकी पछी (भा.३ पृ.४३९-४१) रत्नमंडनगणिने नामे मूकी छे. त्यां पुष्पिकामां 'श्री कवीश्वरशिरोरत्न रत्नमंडनगणिना कृतः फाग: समाप्त:' एवो स्पष्ट निर्देश मळे छे. त्यां उद्धृत थयेल बीजा खंडनो अंतिम श्लोक, जीजा खंडनो आरंभनो श्लोक तथा अंतनो श्लोक 'श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स हेरल्ड' मां छपायेला पाठमां नथी ते नवाई लागे छे, केमके देशाईने हस्तप्रत तो एक ज मोरबी भंडारनी मळेली छे. उपरांत, 'जैन गूर्जर कविओ'मां बीजा खंडना अंतिम श्लोकनो क्रमांक ४१ आपवामां आव्यो छे, ज्यारे 'हेरल्ड'ना पाठमां प्राप्त अंतिम श्लोकनो क्रमांक ४४ छे, जोके एनो क्रमांक ४०मो गणवो पडे एवी स्थिति छे. ए ज रीते, 'जैन गूर्जर कविओ' मां त्रीजा खंडना अंतिम श्लोकनो क्रमांक ३४ छे, ज्यारे 'हेरल्ड' मां प्राप्त अंतिम श्लोकनो क्रमांक (आरंभमां एक श्लोक उमेराया पछी पण) ३८ छे. आम केम बन्युं छे ते कहेवं मुश्केल छे. अहीं 'जैन गूर्जर कविओ' माथी प्राप्त थयेला वधाराना अंशो उमेरी लीधा छे. रत्नमंडनगणिनी गुरुपरंपरा बे प्रकारनी मळे छे - सोमसुंदरसूरि-साधुराज-नंदिरत्नशिष्य (जैन गूर्जर कविओ) तथा रत्नशेखर-नंदिरत्नशिष्य (जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, फकरो ७५२; जैन संस्कृत साहित्यनो इतिहास, भा.२, पृ.१७२). उपरांत केटलीक कृतिओ परत्वे रत्नमंदिर अने रत्नमंडन ए बे नामोनो गोटाळो पण Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नमंडनगणिकृत रंगसागर नेमि फाग ६३ थया कर्यो छे (जुओ जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, फकरो ७५२, ७६१, ७६३ तथा जैन संस्कृत साहित्यनो इतिहास भा.२, पृ.१७२, २२७, २३१). ए बन्ने गुरुभाईओ होवार्नु पण कहेवामां आव्युं छे. रत्नमंडन/रत्नमंदिरने नामे नोंधायेल ‘भोजप्रबंध' सं.१५१७नी रचना छे, अने 'सुकृतसागर' नी हस्तप्रत ले.सं.१५१०नी मळे छे. तेथी कविनो कवनकाळ सं.१६मी सदीनो होवानुं निश्चित थाय छे. प्रस्तुत कृति अने ‘नारीनिरास फाग' ए बे गुजराती रचनाओ कानाम रत्नमंडनगणि ज धरावे छे. कवि विशे विशेष माहिती माटे जुओ जैन गूर्जर कविओ, बीजी आवृत्ति भा.१, पृ.७६-७८ तथा गुजराती साहित्यकोश खंड १, पृ.३४१-४२. आ कृति 'शमामृतम्' (संपा. मुनिश्री धर्मविजय)मां पण छपायेली छे. पण त्यां ए 'हेरल्ड' माथी लेवामां आवी छे. संपादके पाठनी अशुद्धि दूर करवानी कोशिश करी छे, परंतु स्वीकार्य छे के हजु अशुद्धि रहे छे. एमना पाठमां केटलीक शुद्धि थई छे तो केटलीक वधारानी अशुद्धि पण प्रवेशी गई छे. केटलेक स्थाने मुद्रणदोष पण हशे. अहीं पाठशुद्धि माटे 'शमामृतम्'ना पाठनी पण मदद लीधी छे. – संपा.] प्रथम खंड ॐकारप्रणिधेयाय प्राणिनां त्राणकारिणे, तमालश्यामलांगाय श्रीनेमिस्वामिने नमः. १ काव्यं स्मृत्वा तां कविमातरं धरति या श्रीपुस्तकं बल्लकीदंडं पांडुकमंडलूज्ज्वलदलांम्भोजं चतुर्भिः करैः, श्री नेमे: परमेश्वरस्य यमकालंकारसारं मन:स्मेरीकारकरंगसागरमहाफागं करिष्ये नवं. २ रासक समरवि सारद सकल विसारद सार-दयापर देवी रे, गाइसु नेमि जिणिंद निरंजन रंजन जगह नमेवी रे. ३ रवितलि वरतईं सोरीअ पुरवर अवरनयरसिंगार रे, समुद्रविजय तिहां राज करति पति रतिपतिनउ अवतार रे. ४ आंदोल रतिपतिनउ अवतार, अविहड भड-भंडार, प्रतपई जितरिपु ए, समुद्रविजय नृपू ए, पटराणी पुणि तास, गरूआ गुण-आवास, रूपिं रतिं नवी ए, सोहइ सिवादेवी ए. ५ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह अपराजित अभिधान, परिहरीय वर विमान, काती वदि बारसिं ए, रवि ऊगम दिसिं ए सिवादेवी-ऊअरि ऊपन्न, चिहु नाणे संपन्न, बावीसमउ जिणवरू ए, चउद सुपनधरू ए. ६ . सपन लहइं हीडोलाटइं, खाटइं पउढीय देवि, गोरी पीन पयोहरी, उहरी माहिं सवेवि. ७ पहिलउं पेखई ए गयमर, अमर गइंद उदार, वृषभ कपूररसामल, सामल सिंग सिंगार. ८ चंद्रधवल पंचानन, कानननायक एक, दिसिगज विहिअ सुधारसि, सार सिरि अभिषेक. ९ दीहर ढोदर [टोडर] नवसर, नवसर मधुकरवृंद, सुंदर अमीयरसागर, सागरनंदन चंद. १० दिणयर तेजिं दीपतउ, जीपत[उ] तिमिर अभंग, सोवनदंडि धरी धज, कीधउ मलिजसु गंग. ११ मंगल कलस अमीभरिउ, कंठिं परीठीअ माल, पदमसरोवर निर्मलु, जसु जलि रमई मराल. १२ मोतीअ-मणि-रयणायर, सायर खीर-निहाण, झगमगतुं मणि-रयण, नयणर्नु ठाम विहाण. १३ भासुर गयणि गरूअडउ, रूडअउ रयणनउ रेड, पावक धूम नवि धरतउ, करतउ म नीमेडु. १४ काव्यं एवं वर्णितवारणादिविविधस्वप्नावलीसूचितस्वर्लोकावतारास्पदीकृतशिवादेवीपवित्रोदरः, देव: श्रावणपंचमीनिशि निशारत्नांशुनश्यत्तम:स्तोमार्यं जनुराससाद जगतामानंदसंपादकं. १५ रासक श्रावण शुदि पंचमी दिन जनमीउ, नमीउ सुरासुर टोलई रे, वाजई वाजित्र हुइं अमर मानव रंग, नवरंग नारी गाइ धउले रे. १६ सुरतरूकुसुमसमूहइं वरिषइं अमर अनेकइं रे, खीरसागरि-जलि कनककलस भरि जिन अभिषेकइं रे. १७ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नमंडनगणिकृत रंगसागर नेमि फाग आंदोल जिन अभिषेकई रंगि, सोवनगिर-शृंगि, सकल सुरासुरू ए, भाविइं भासुरू ए. समुद्रविजय आवास, मूंकई जननी पासि, जाइं सवे सुरवरू ए, अंबरि तरूवरू ए. १८ माणिक हीरइ जडिउं, सार सोवन घडिउं, पउढणि पालणउं ए, तसु रलीआमणउ ए. माणिक-रामेकडां, ऊपरि कनककडां, हांसरू आलीइ ए, तलइ तलाइ ए. १९ फाग नवल तलाइ पउढणि जादर वी[ची?]र, अंगि सुंआलिम-आगलं आंगलं नवरंग हीर. २० डावई अंगि चडावई रंगि लडावई देवि, वारइ[वारणइ ?] नेमिह वार दोष निवारई केवि. २१ काव्यं प्राप्ते द्वादशमे दिने यदुपतिना कार्यचर्योत्सवैः सत्कृत्यासनदानपानविधिना तेषां समक्ष नृपः, राज्या सार्ध्वम्अरिष्टनेमिरिति तन्नामाभिरामं ददे नेमिर्लालितपालित: सुकियत: कालाद्ययौ यौवनं. . २२ कायवर्णनं रासक नेमिकुंअर-अंगि अवतरिउं यौवन सोवन विण सिणगार रे, तव मनि मोहइ सुरनररमणी रमणीय रूपभंडार रे. २३ ब्रह्मारइं करतां नवउं ए सामलवन मछवननु हुं अनंग रे, नीलकमलदल तोलि सुंआलिम कालिम-गुणधर अंग रे. २४ आंदोल कालिम-गुणधर अंग, पगतलि अलता रंग, केलीथंभ कूअली ए साथल जूंअली ए, कटि जिसिउ केसरि-लंक, नाभी गंभीर निकलंक, उरवरि उन्नतू ए श्रीवच्छ लंछितू ए. २५ कुसुमकली जिम अति आंगुलडी दीसंति, कणयर-कांबडी ए, लांबी बेह बाहडी ए, संख सरीखउ कंठ प्रगटिउ गुहिर उकंठ, खंध धुरंधरू ए, अधर बे रंगधरू ए. २६ फाग अधर कुंअर केरा तुडिं रातुडिं चडइं प्रवाल, कंपइ डालिअ जीभई, जीभई विजित प्रवाल. २७ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह सकल करी निज दासिका नासिकाइ शुकचंच, वदन चरण कर जुअलां कूअलां पदम ए पंच. २८ नेमि तणउ मुहु बिमणिम चंद्र अच्छइ निसिदीस, दंत नही एह ऊजली झलहलई कला बत्रीस. २९ लोचन विकसित कमल कि अमलकिरण अणीआल, हे हर तुझ ससिमंडल - खंड लहीउं एह भाल. ३० काव्यं ( शार्दूल०) दंता दाडिमनी कुली, अधर बे जाची प्रवाली जिसी, कीजइ खंजन पंखि अंखि सरिषा धारा जिसी नासिका, सारी सगिणि सामली भमहि बे वांकी वली वीणडी, काली किंबहुना कुमार किर ए पीजाइ लगलग लही. ३१ यौवनवर्णनं रासक अवतरिआ इणि अवसरि मथुरां पुरिसरयण नवनेह रे, सुखलालित लीलां परिति अतिबल बलदेव वासुदेवेह रे. ३२ वसुदेव रोहिणी देवकीनंदन, चंदन अंजनवान रे, वृंदावनि यमुनाजलि निरमलि रमलि करई गाई गान रे. ३३ आंदोल रमलि करंता रंगि, चडइ गोवर्द्धनशृंगि, गूजरि गोवालणी ए, गाई गोपी सिउं मिली ए. काली नाग जल - अंतरालि, कोमल कमलिनीनालि, नाखिउ नारायणि ए, रमलि-परायणी ए. ३४ कंस मालाखाडइ वीर, पहुता साहसधीर, बेहू वाई बाकरी ए, बलवंता बाहिं करी ए, बलभद्र बलिआ सार, मारिउ मौष्टिक माल, कृष्णि बल पूरिउ ए, चाणूर चुरिउं ए. ३५ फाग मौष्टिक चाणूर यूरिय, देखीय ऊठिउ कंस, नवबलवंत नारायणिं, तास कीधउ विध्वंस. ३६ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नमंडनगणिकृत रंगसागर नेमि फाग काव्यं कंसध्वंससमेत्य दुर्द्धरजरासंधत्रिखंडाधिपे सद्यः क्रोधमुपागते यदुमहीपालाः समुद्रादय:, आदाय स्वतुरंगवारणपरीवारादि वारांपतेराशायां क्षितिमंडनं सजलधिसौराष्ट्रदेशं गताः. ३७ इति रंगसागरनाम्नि श्री नेमिफागे जन्मोत्सववर्णनं प्रथम खंडं. खंड बीजो वासतवे, श्रीनेमिप्रमुखप्रौढयदूनां शक्रादिष्टां पुरीं चक्रे श्रीद: सौराष्ट्रमंडले. रासक सोरठमंडलि धनदि इंद्र- आइसिं कारण नब[नव ?] बारी रे; द्वारिका नगरी सोवन धवलहरे धवलहरे सागरि-हबारी रे. १ उत्तुंग तोरण मणिमंडप मनोहर हरगिरि - हरावणहार रे; ती नगरी अति रूअडां जिनहर, हरई रयणि-अंधकार रे. २ आंदोला हरइं रयणि-अंधकार, झलहलतां मणिसार, हेम धवलहरू ए, कनक कलहेम धरू ए; कडि आवा खंभ, कोरणी आदला थंभ, रंभ कि पूतली ए, मणिभमरी भली ए, ३ दीसे नगरि युवान, सुंदर सोवनवान, अनंग-संजीवनी ए, घरि घरि पदमिनी ए; यादव पुरवासी, चहुंटां चउरासी, सोवन - पावडीए, जलभरी वावडी ए. ४ फाग वाविहि रंभ समाणीय पाणीयहारि सुरंग, गउख जाली मतवारणां बारणां तोरण जंग. ५ नवरंग चंद्रआ फालीए मालीए खेलई नारि, अवर ऊपम देवा टलई, वाटलई हेमपगारि. ६ रयण - कोसीसां-उलि रे पोलि रे कनककपाट, मणिमय तोरण ऊपरि द्रू परि अविचल घाट. ७ खट रितु मंडित उपवन पवन हींडोलित डाल, तरूअरि परिमलवासित नासित रविकरवाल. ८ ६७ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह आर्या नाना वास विमान-माव[मान] रामा सुरामरीव रम्या, अमरनगरी समाना द्वारवती नाम नगरीयं. ९ द्वारिकावर्णन रासक तीणी नगरीइं जरासंध-विध्वंसक सकल यादव-देविंद रे, सयत रतनवंत राज करइ हरि हरिकुल-कमल-दिणिंद रे. १० आयुधशाला गयुं एकदा गोविंदनी इंदनीलवन्न उदार रे, खड्ग-गदादिक आयुध शरमति रमतिं नेमिकुमार रे. ११ आंदोल रमति नेमिकुमार रे, शरमइं हरख थाय रे, शारंग चडावइ ए, शंख वजावइ ए; धनुष तणे धोंकारि, शंख तणे उकारी, डोलई डूंगरू ए. १२ नादि भरिउ बंभंड, खिणि थंभिउ मातंड, पृथवी थरहरी ए, मनि चमकिउ हरी ए; जयजयकार करंति, सुर कुसुमे वरिसंति, नेमि तिहां थिउ ए, काह्न कन्हइ गयु ए. १३ फाग नेमिं सिंहासणि थापीय आपीय बांह मुरारि, तव बलगरव-करालीय चालीय नेमिकुमारि. १४ हरिकुल-कानिनि राचइ ए साचइ ए नेमि रसाल, बांह-डालई पिकनो लइ ए डोलइ ए कंसनउ काल. १५ नेमि भुजाबल जाणीय आणीय केसवि संक, लेसिइ ए माहरू आज ए राज एहु निकलंक. १६ काव्यं रामो जंपइ नेमि निब्भरभुआदंडाण चंडं बलं, जाणेऊण विसालरज्जहरणा संकाकुलं केसवं, सो रा[ज्जं] नरकंत मिच्छदि कहं तारुणपुष्पोविजो, जोगिंदो परिणेदि नेग तरुणिं वेरग्गरंगादरो. १६ फाग इणिं वचनि अमीसरिखइं ए हरिखइं ए सीखवइ राय, बत्रीस सहस अंतेउरी नेउरी निरूपम पाय. १७ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नमंडनगणिकृत रंगसागर नेमि फाग कामिनीजन-मनमोहग सोहगसुंदर देह, नेमि मनाविउ रमणीय, रमणी परिणवउ एह. १८ श्लोक यावदाशासितादेशा: श्रीनेमिरमणेच्छया, अंत:पुर्ये विनेयांति वसंतस्तावदावगमन्. १९ रासक अवसरि अवतरि रति मधुमाधवी माधवी-परिमल-पूरी रे, कुसुम-आयुध लेइ वनस्पती सवि रही, विरही ऊपरि सूरी रे. २० मदन रणंगिणि सारथि, परिमलभरि मलयानिल वाई रे, सुभटि कि मधुकर करई कोलाहल, काहल कोकिल वाइं रे. २१ आंदोल कोइल विख[व]यणी, मदिरारूण-नयणी, नार कि मरहठी ए, वनि वनि बइठी ए. पंथीप्राण पतंग, कालउं काजल भृग, चंपक दीपकू ए, वनघर-दीपकू ए. २२ कुसुमित ए करूणी, जाणे किरि तरूणी, मधुकरश्रेणी ए, तेह सिरि वीणी ए. जंबीर बीजउरी, वेइल वउलसिरि; पाडल पारधी ए, मधुरस-वारिधी ए. २३ फाग वाडीय सविहु कुसुमायुध-आयुध-शाला हवंति, भमर रहइं तिहां पाहरी, माहरी ए मनभ्रंति. २४ सेवंत्री फूलडइ महुर अर[सर?], महुअर रा जव दीठ, मुगध भणइं तव राहूउ, आहूउ चंद्री बइठ. २५ काव्य आवी ए मधुमाधवी रति भली फूली सवे माधवी; पीली चंपकनी कली मयणनी दीवी नवी नीकली, पामी पाडल केवडी भमरनी पूगी रूली केवडी; फूले दाडिमि रातडी विरहियां दोल्ही हुइ रातडी. २६ फाग सुललित चरणप्रहारिइं मारइं कामिनीलोक, अधिक विहसंति अभागीया तहवि अशोक. २७ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह सभाणी नारि, कुचभरि करई परीरंभ रंभा वनि वनि कुसुम रोमांकुर कुरबक धरई अपारि. २८ पूरई षट्पद ऊलट फूलि [...]टयां वनखंड, त्रिभुवन मदन-महीपति दीपि अति प्रचंड २९ काव्य उढी चादर चीर सुंदर कसी दीली कसो कांचली, आंजी लोचन काजले सिरि भरी सीमंत सिंदुरना, लेइ साथिई नेमिकुंवर सवे गोविंदनी सुंदरी, वाडीए गिरिनार डूंगर गइ सिंगारिणी खेलिवा. ३० रासक वसंतखेलणि लेई साथिई देवर, देवरमणि सम गोरी रे, पहुतली गिरिनार गिरि अंबावनि बावनिचंदनि गोरी रे. ३१ अनंग-जंगम-नगरा बहुविध परि परिणेवा मनावणहारी रे, ललाटघटित घनपीयलि कुंकुम कुमर रमाडे नारी रे. ३२ आंदोला कुमर रमाइ नारि, हींडोले हींचणहारि, उच्छंगि बइसारी ए, सयरि सिंगारी ए, थाइ मणि थोर, दोलइ दीहर दोर, कंचण-चूडी ए, रणकई रूयडी ए. ३३ देउरमार उरवरि हार, वउलसिरी सुकुमार, नव नव भंगी ए, कुसुमची अंगी ए, त्रीकम - तरूणी तुंग, विरचइ सुचंग, अति अणीयालउं ए, खूप खूणालउ ए. ३४ फाग खूप खूणालउ विचि विचित्र कुसुम रचइ खेमि, अतिहि अलंकृत कलीहरि हरिरमणी लिई खेमि. ३५ कनक चउकीवट मांडती [...] हा [स्य ] रस पूरि नेमि रमाडई सोगठे, सोग ठेसई सवि दूरी. ३६ अढईआ मलयानिल पाडित जल-उकली. उकली चतुर दुआरि तु, धनधन तेह जलि विलसतई सवि अलवेसरि, विगलित काजल कुंकुम केसरि, ति सरि सीहरि नारि तु, धन धन० ३७ वनखंडमंडन अखंड खडोखली, Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१ रत्नमंडनगणिकृत रंगसागर नेमि फाग झगमग झगमग झालि झबूकई रिमिझिमि रिमिझिमि झंझर झणकइं, झीलइ झाझइ नीरि तु, धन धन० सुरभि सलिलभरी सोवन सींगी, केसव सुंदरि सकल सुरंगी, सींचई नेमिसरीर तु. धन धन० ३८ इण परि विविध विलासे रमणीय, नेमिकुमर मनि अचिल जाणीय, पाणीय रमलि मझारि तु, धन धन० वानि जिसी हुइ चंपकनी कली, रूपि करती अपछर नीकली, नीकली बाहिरि नीसरी, सरीरि करइं सिणगार, पहिरइं चीर मनोहार, रमणि कुसुम-सुकुमार. [धन धन० ३९] नेमि पाग पडी इम भणइ, अम्ह भणी करि-न पसाउ, साव सलूण तुं मानि-न मानिनी परिणउ भाउ, नेमि कदाग्रह भागउ लागउ मौननइ रंगि, तव मनि मानिउं जाणीय राणीय ऊलटई अंगि. ४४ [४०] [इत्यानंदेन सुंदर्यो मेदिनीमंडनं पुरी, आगत्य सत्यभामाद्याः श्रीकृष्णाय न्यवेदयत्. ४१] इति रंगसागरनाम्नि श्री नेमिजिनफागे विवाहाकारवर्णनं द्वितीय खंडं. त्रीजो खंड [गौरी पीनपयोधरा शशिमुखी बंधूकरक्ता धरा हीरालीरमणीयदंतकलिता वर्णोल्लसल्लोचना, कन्या कोमलपाणिपादकमला मत्तेभलीलागतिगोविंदेन मुदोग्रसेनसविधे राजामती मार्जिता. १] गाजंती गजगेलिगंजनगति गोरी गुणे आगली, सारी साव सलावणी सरसती सा दीसती सुंदरी, मागी नेमिविवाह कारणि करी कन्या कुलीणी कलावंती कुंअरि उग्रसेनकुलनी गोविंदि राजीमति. २ रासक उग्रसेनभूपति-संभव कन्या, धन्या गुणह निधान रे, गोविंदि मागी सुभगिमागुणभाजन राजीमती अभिधान रे. ३ सकल मंगलकर लेइय अलगन लगन लगन उच्छाह रे, अलंब पटउलां बांधीइं मांडवि मांडवि माड विवाह रे. ४ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह आंदोल मांडव रचइं विसाल, चंदूअडा चउसाल, मणिमोती-भरिआ ए, दीसिइ सिरि धरिआ ए. रतनखचिताचि थंभ, हेमघटित सिरि कुंभ, माणिक दीवडा ए, दीपई रूअडां ए. ५ इंद्रधनुषआकारि, तलिआतोरण बारि, मणि-हीराली ए, वन-खाली ए. संग्रहिआं अति अणीआल, सुंदर धवल विसाल, नागरखंडडा ए, पान अखंडडां ए. ६ फाग संग्रह्यां रंग सनागर नागरखंडडां-पान, परधन मधुकर-घृते करी ते करीइं पकवान. ७ मांडीइं मणिमय भाजन, साजन जिमई विवाहिं, मूकीइं पकवान शालि रे, दालि रेलिई घृत माहि. ८ काव्यं [शार्दूल०] मूकीइं पकवान वानि धवलां देसाउरी सूखडी, पीली दालि अखंड शालि सुरहुं घी सामटां सालणां, टाढां ढेप दहीं अउखरि चलुं गंगाजले उज्वले, काथे केवडीए कपूर सरिसे तंबोलि पानाउली. ९ रासक नेमि अनेक परि कामिनिअ मुगध दुगधजलिं अंघोलई रे, पंचशबद विविध धवल दिइं गुहिरा मुहि राता तबोलिई रे. १० बावनि-चंदनि ऊगटि सारइं, कारइं सवि सिणगार रे, हीरालग[हीरागल] अंगि कृष्णागुरू बहिकई, लहकई कुंडल-हार रे. ११ आंदोला लहकई कुंडल कानि, समिरविमंडल मानि, मुकुट मनोहरू ए, सिरि सोभाकरू ए. नीलवटि तिलक विशेषा, नयणे काजलरेखा, वदनि तंबोलू ए, पगि कुंकू-रोलू ए. १२ उरवरि नवसर हार, नव जलधर जिम धार, मणिरूचि पीयली ए, विचिविचि वीजली ए. मुद्रकी-मंडित पाणि, वीरवलय भुज-ठाणि, बांहडी बहिरखा ए, झलके बिहु पखा ए. १३ शृंगारवर्णन. इम सिणगारीउ सारी ए नारीए नेमिकुमार, आगलि मणि-आरीसइ ए दीसइ ए सोहगसार. १४ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नमंडनगणिकृत रंगसागर नेमि फाग ७३ भाषा बावनि-चंदनि गूहली रे, ऊपरि चउक नवेरा रे, माणिक मोती केरो रे, मांडिउ सोवन पाट सुंदरू ए, तेह ऊपरि हरखिं थापीइ, मांडी मनि ऊमाहो रे, थाल मणिमय साही रे मोतीअडे (व)धावई कुंअरू ए. १५ भद्र जातिक धवल मयगिलि सिवादे-कुंअरू ए, सोभागसुंदरू रे, चडिउ जिसिउ हुइ पुरंदरू ए, बहिनि बाला पूठि बइठी, लीला लूंण ऊतारइ रे, दृष्टिदोष निवारइ रे, उपरि धरिउं मेघाडंबरू ए. १६ फाग सिरि छत्र मेघाडंबर अंबरख्यापक कंति, बिहु पखि सीकिरि चामर धवल ढलंति. १७ धउल गाइं धुरि धुलहीं, धउल हीराउली दंति, आंगणि अवसर सो लही, सोलही नाच करंति. १८ काव्यद्वयं जे गंगानील काला किडाहा खुरासाणी(आ) सींधल सींधुआ कलहथा कास्मीरिया कुंकणा, ढूंका कानिआ नकचा नि पिहला पूर्व पाग नीसला. तेहे यादवकुअरा तरवर्या तेजी तुखारे चड्या. १९ मोतीमंडित सुंडिदंड सरला दीसंति दंतूसला. हीराला झलकंत सोवन कडी, सिंदूर भाले भला, घाली घुघरीआल पाखर खरे हीरे जडी जेहनी, अंगे तेह गजेंद्र ऊपरि चड्या चालंति राणा सवे. २० रासक मृदंग भुंगल भेरि बुरंग गभीर सर सरणाइ नीसाण वाजंति रे, दडदडी ददामां देवदुंदुभि महारवि रविरथ-तुरीय त्रासंति रे. २१ पालखी तुरीय रथ गयंद आडंबरि, अंबरि अमर निहाली रे, छत्र धजा अलंब सीकिरि चामरधर सधर जान हिव चाली रे. २२ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह आंदोला तोरण पहूती जान, मागत दीजइ दान, वाजित्र वाजई ए, अंबरि गाजइं ए, बइठी रयण-गवाक्षि, चतुर चकित हरिणाक्षि, रसि राजीमती ए, नेमि निहालती ए. २३ रहिउ तोरण-बारि, सुणीय पसूय-पोकारि, पशूअ मेल्हाविआ ए, भय भरताविआ [अभय वरताविआ] ए, मयगल वाली नेमि, पहुतउ निज घरी खेमि, राजलि हलवली ए, तव महीयलि ढली ए. २४ फाग वीजणे करई सखीजन, वीजन राल जयंति [राजलवंति ?], उपरि तापनिकंदन, चंदनरसिं वरिसंति. २५ चेतन पामीय राजलि, काजलि कलुषित दृष्टि, विलपति विरह देखाडती, पाडती आंसुअ वृष्टि. २६ पीडई काई बापीयडा, प्रीयडा-विरह-विषादि, प्राण हरे [छइ मोरडा?], मोरडा मधुर निनादि. २७ रडई पडई लोटई ए, मोटइ ए कंकण फार, गमइंय नहीं अंगि नेउर, केउर करि उरि हार. २८ राजलि विरहई पूरिअ, [...] अवर कुमार, नेमि निरंतर समरति, समरति पतिगुण सार. २९ दान संवत्सर देइय, लेइय संयमभार, नेमि करइं पणि ते सवि देसविदेस विहार. ३० एषा गाथा आसो अमावसीए दिणंमि सिरि नेमि जिणवरिदेणं, पत्ते केवलनाणे कुणंति देवा समोसरणं. ३१ संस्कृत रासक सुरपतयो विदधति समवसरणमशरणशरणमुदारं रे, रजतकनकमणिसालसडंबरमंबरगतरुचिभारं रे. ३२ सकल-मिलित-वृंदारक-दानव-मानव-नायक-लोका रे, मधुकर-निकर-अंब-मकरंद पारणकारण विलसदशोकं रे. ३३ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नमंडनगणिकृत रंगसागर नेमि फाग ७५ आंदोला प्रथम अशोक विशाल, फुलपगर सुकुमाल, नाद मनोहरू ए, चंचल चामरू ए. हेमिसिंहासण कंत, भामंडल झलकंत, दुंदुभि अंबरि ए, त्रिणि छत्र ऊपरि ए. ३४ इम प्रातिहारिज आठ, कसर जितो न गुपाठ, रचइं पुरंदरू ए, भूरि भगतिधरू ए, पालीय जिनवर पासि, संयम मन-उल्लासिं, सिवपुरि पुहूती ए, राजमती ए सती ए. ३५ फाग धवल आसाढनी आठमि नाठमहा मेव नारी, नेमि जिणेसर सिवपुर बपुरि गयु गिरिनारि. ३६ श्लोक श्रीमान्नेमिजिनो दीक्षाज्ञाननिर्वाणलक्षणं, कल्याणकत्रयं लेमे गिरिनार-गिरीश्वरे. ३७ काव्यं देवो रैवतमौलिमंडनमणिर्देवीशिवानंदन: स्वामी यादववंशवारिधिहरिः शंखांकित: श्यामल:, श्रीनेमिर्जगदेकमंगलकर: कंदर्पदपिहो भूयादुज्ज्वलसोमसुंदरयशां श्रीसंघभद्रंकर:. ३८ [श्रीनेमिः शरणागतांगिविहितत्राण: श्रियां कारणं शंखांक: सुखकारको मरकतश्यामाभिरामद्युतिः, कंदर्पद्विपकेसरी हरिकुल श्रीसुंदरीमंडनो भूयादुज्ज्वलसोमसुंदरयशोराशि: स वः संपदे. ३९] [- इति मंडनपदांकमंडिते रंगसागरनाम्नि श्री नेमिजिनफागे तृतीयं खंडं समाप्तं. श्री कवीधरशिरोरत्नरत्नमंडनगणिना कृत: समाप्त:.] - इति श्री नेमिनाथस्य नवरसाविधनं भविकजनरंजनं फागं समाप्तमिति. (पत्र ४, मोरबी भंडार, हस्तलेखनो काळ वि.सं.१६मुं शतक आसपास. आ प्रत ता. १४-१०-०९मां राजकोट साहित्य परिषदमा मोकलावेली मुकायेली हती.] [श्री जैन श्वेतांबर कोन्फरन्स हेरल्ड, जुलाई १९१७, पृ.२१०-१४ तथा ओगस्ट १९१७, पृ.२३७-४४] Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ लब्धिविजयकृत नेमिनाथ फाग स्तवन [गुजराती साहित्यकोश खंड १, पृ. ३७९ पर आ कृतिनी संभवत: 'जैनयुग' ने आधारे ज नोंध लेवाई छे, परंतु कविपरिचय प्राप्त नथी. वस्तुतः आ तपगच्छना गुणहर्षशि. लब्धिविजय (जैन गूर्जर कविओ, भा. ३, पृ. २८१ - ८७ तथा गुजराती साहित्य कोश, खंड १, पृ. ३७९) होवानी संभावना छे. 'जैन गूर्जर कविओ' मां एमनी त्रण कृतिओनी एक हस्तप्रत एमना शिष्य आनंदविजये लखेली नोंधायेली छे ने आ नेमिनाथ फागनी हस्तप्रत पण ए आनंदविजये लखेली छे. गुणहर्षशि. लब्धिविजयनी 'दान शील तप भावना रास' वगेरे ॠण रासकृतिओ सं. १६९१थी १७०१नां रचनावर्षो बतावे छे. संपा. ] ९०. पंडित प्रवर पंडित श्री श्री श्री श्री श्री लब्धिविजयगणिगुरूभ्यो नमः . राग त्रिभंगी माननि महिअलि, समरी मंगलकारणे सारदमाय, नेमि निरंजन छयलछबीलो, गावत सब सुख थाय. 9 रामति खेलनां हो, अहो मेरे ललनां, रंगिली जोवनवय जदुराय, मिलिए मनमोहन मेलनां [मेरे ललनां] हो. आंचली. चूआ चंदन चंग चमेली, तेल फुलेल जबादि, लाल गुलाब अबीर उडावत, गोविंदगोरि रमें उनमाद. रंगी. २ नारायण ओर नैमि निरंजन, सोल सहस व्रजनारि, खेलत हिं खंडोखलि - नीरें, झीलत युं गज रेवावारि रंगी० गोरि सि भोरि सि थोरि सि काम सि, अंखु मेंदान चलावें, मानुं दो रूखमनि वेणि बनाय सिर सिंथो, समारी आप, नयनबान भमुह चढाइ चाप. रंगी० आगिं ठाढी आय ६ मानु मही मिलनें अब आयो, मंगुल हिंगुल आरूण काय रंगी० नेहगली सबें सहेली, हरि सनकारी नार, लाज कहा, इनसुं तुम्ह खेलो, नयननी करि मनुहारि. रंगी० चंग मृदंग वेणु श्रीमंडल, कंसालि, तवल ताल ढोल दडदडी भेरि नफेरी, बाजत गावत गीत कस्तूरी कपूर कुमकुमा, केसरको बहु भरि भरि सोविन सुंदर सिंगी छांटत आप रही एक तीर. रंगी० रसाल. रंगी० नीर, ३ ४ 20 ५ ७ て Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिविजयकृत नेमिनाथ फाग स्तवन रूपमती गुलि, जांबवती पदमावती पदमिणि, घेर लिउ बिचमें निज देउर, भमरा भमें युं मोहणवेलि. रंगी० ९ गोरी गंधारी ओर राधा, चंदकला अति अं[चं]ग, देउर - उर उरस्युं प्रति भीडी, प्यारो प्रभु लागत हि मोहि अंग. रंगी० १० एक खंडोखलि माहिं गिरावें, एक सिर नामें नीर, एक भिंगार भरी उर छांटें, एक उडावे अनुप अबीर रंगी० ११ साठि लाख एक कोडि कलस भरि नवरायो - जिनराज, आकुल ए अमरे नवि कीनो, कइसि तुम्ह करोगी अब आज रंगी० १२ सत्यभामा सुर बानि काने सुनि, ओर राधा रूखमण्य, पलव छोरि दिओ तुम्ह इनको, एहि करिणे अब कारूण्य. रंगी० १३ कीओ ब्याह सुनी अम्ह बयनां, सत्यभामा कहे साच, चकित थई ठाढो रह्यो आगें, मुखथी कछु न ही निकसी वाच. रंगी० १४ मान्यो मान्यो कहें बहु मानिनि, ओर ब्रजकी सब नारि, हरखित वदन भए गोविंदा, समुद्रविजय सिवादे परिवार रंगी० १५ गोद बिछाहि कहें सत्यभामा, गोविंद स्युं वारोवारे, वेगं विवाह करो जिनजीको फरि फरि लेउं तुम्हकी बलिहारी. रंगी० १६ सुरगजगामिनी भामिनी भामा, लघु भगिनी अनुरूप, इसी न काउ भुवनमिं कन्या, उरवसी सरस राजुल मंजुल नयन बयन हिं, उग्रसेन नृप सब गुणसागर नागरि एहिं मानुं मदनकी ए रति ब्याह मनाइ ब्याहनकुं चाले, नेमि यादव सवि प्राणीवध देखी रथ वाल्यो, परमपदभजन के वरसीदान देइ समझाइ, मातपिता दीख लीइं उजलगिरि आपें, राजुल सामि करें नेमिनाथ धिन धिन राजुलजी, सवि सतिआं दुक्कर दुक्कर कारक दोइहिं, जनमथी जे बाल ब्रह्मचार रंगी० २१ पुण्यकथा कहतां जिनजीकी, पावन भइ मेरी जीह, सरूप. रंगी० काजे. रंगी० १९ मनरंगि, सुखसंगि. रंगी० २० सिणगार, लबधि कहे जिन नाम तुम्हारो, जा दिन सुणिएं तें धिन दीह. रंगी० २२ आणंदविजय लिखितं पुण्यार्थे. (पत्र १, सुरतना डाह्याभाई मोतीचंदना संग्रहमांथी.) ७७ १७ धूअ, भूय. रंगी० १८ साजे, [जैनयुग, जेठ १९८४, पृ. ३५७-५८ ] Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ चंद्रविजयकृत स्थूलिभद्र-कोशाना बारमास (कर्ता तपागच्छना नित्यविजयना शिष्य छे. एमना गुरु नित्यविजये सं.१७३४मां एक स्वाध्याय रची छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ, भाग २, नं.३७३क, पृ.२९९ [बीजी आवृत्ति भा.५, पृ.१०३]. तेथी कर्तानो समय ते गणवानो छे. जैन कविओकृत बारमासानुं साहित्य पुष्कळ प्रमाणमां उपलब्ध छे. केटलुक में वडोदराना मारा मित्र रा. मंजुलाल मजुमदारने मोकलेलं ते तेमनी पासे छे. तेओ एक पुस्तक रूपे प्रकट करवानो मनोरथ सेवता हता, पण हजु ते पार पड्यो नथी. आपणी जैन ग्रंथप्रकाशक संस्थाओ आवा भाषासाहित्य पर अलक्ष सेवती आवी छे ते हजुये ते भणी दृष्टि दोडावशे ?) [कृति विजयदेवसूरिना राज्यकाळमां रचायेली छे. एटले एने सं.१७१३ पहेला एटलेके सं.१७०० आसपास रचायेली गणवी जोईए. आ कृति 'प्राचीन-मध्यकालीन बारमासा संग्रह' (संपा. शिवलाल जेसलपुरा, १९७४)मां पुनर्मुद्रित थई छे. त्यां कविपरिचय आपतां पृ.१० पर आ कविनी 'धन्ना शालिभद्र चोपाई' नामे बीजी कृति होवानु कहेवामां आव्युं छे, जे खरूं नथी. ए जीवविजयशि. चंद्रविजयनी कृति छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ, भा.५, पृ.७१ तथा गुजराती साहित्यकोश खंड १,पृ.१०३. - संपा.] ९०. सकलवाचकचक्रचक्रवर्ति महोपाध्याय श्री लावण्यविजयगणिशिष्य पंडित श्री नित्यविजयगणिगुरुभ्यो नमः. १ : देशी - धनरा ढोलानी आसो मास ज आविउ रे, घर घर मंगल च्यार, दिलरा मान्या ! हुं जाउं साजन ! वाटडी रे, ऊभी निज घरबार, दिलरा मान्या ! घर आवो हो सुज्मण ! मो घर आवो, मोरा जीवन प्राणाधार ! मो घर आवो. घर आवो. आंकणी चांदो ऊग्यो निर्मलो रे, शीतल अमीअ झरंत, दिल. साजन ! विरहें ताहरे रे, ते पण दु:ख दीयंत, दिल. घर० २ रंगरसभरि आपणे रमी[जे] रे, कीजे क्रीडा अपार, दिल. स्नेही [स्नेह] न छेदीए रे, जो होइ कोडि प्रकार, दिल. घर० ३ तुझ विरहे मुझनें सही रे, मास वरस सम थाय, दिल. प्राण धरूं किम तुझ विना रे ? ते कहे मुझने उपाय, दिल. घर० ४ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९ चंद्रविजयकृत स्थूलिभद्र-कोशाना बारमास जे जेहने मन मानिया रे, ते तेहनें मन देव, दिल. चंद्रविजय कहे सांभळो रे, स्नेहनी एहवी टेव, दिल. घर० ५ २ : ढाल विछिआनी । कार्तिक मास मनोहरु, सखी ! सुंदर जेहनो वान रे, लाल, आंगणे टहुकी टाढडी, नारिचित्त कंतनुं ध्यान रे. ६ वाल्हो साजन कोई कहे आवतो, तस आपुं सोवनथाट रे, लाल, वली देउं लाख वधामणी, तस पाथरुं सखरा पाट रे. वा. ७ आंकणी सुण परदेशी पंथीआ ! माहरो नाह दीठो किहां ए सार रे, लाल, मयगलनी परे माचतो, रूपे रतिपति अणुहार रे. वाल्हो. ८ शूर साहसिकशिरोमणि, ए तो सुंदर रूप अपार रे, लाल, नेहनिपुण गुण-आगरु, माहरो जीवन-प्राणाधार रे, वाल्हो० ९ नारी ते पूछे धरि नेह स्युं रे, परदेशी पंथी अनेक रे, लोल, चंद्रविजय कहे नेहथी, नवि बोलाए धरी टेक रे. वाल्हो. १० ३ : देशी - सहि रे समाणीनी मागशर मास मनोहर आयो, लोक तणे मन भायो रे, माहरो प्रीतम नाव्यो. वाट जोउं माहरा वालमनी, उलट धरीय सवायो रे. माहरो० ११ सांभलि सजन ! विनति माहरी, कां मुझ मूके निरास रे ? तुझ मुझ अंतर न हुतो, स्वामी !, तुझ रहेतां मुझ पास रे. माहरो० १२ सुंदर नेह धरता मुझ स्युं, क्षण एक अलगो न थातो रे, ए सजन परदेशी हुओ, तेहनो विरह न सहुं तिलमातो रे. माहरो. १३ तुं स्वामी ! मुझ अंतरयामी, क्षण एक अलगो न थाय रे, तुं प्राणनाथ परमेश्वर मारो, तुम विण क्षण न सुहाय रे. माहरो० १४ विनति तो कीजे प्रभु ! तेहने, जेहथी सीझे काज रे, चंद्रविजय कहे तेहने न किजिए, जेहने मुख नही लाज रे. माहरो. १५ ४ : ढाल – नणदलनी प्रीतम ! ए प्रीतम ! पोष मास ते आवियो, जे विरहीने दु:खकार, वालम ! रात जाए किम पोसनी, नारीने विण भरतार ? वालम ! १६ वेगे पधारो हो मंदिरे, सारो वंछित काज, वालम ! निज स्नेही न मूकीए, साहिब ! गरिबनिवाज ! वा. आंकणी. १७ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह जीवन ! ए जीवन ! दैवे कां विरही सरजीयां ? जे नहि पुहचे आस, वा. विरहवियोगी माणसां, निशदिन झूरै निरास, वालम ! वेगे. १८ साहिब ! ए साहिब ! महिर आणी मनमां घणी, सारो हो संगे अंग, वा. नेह धरी निज घर आवी, करो अंगे उछरंग. वालम ! वेगे. १९ प्रीतम ! ए प्रीतम ! प्रारथीयां पीडे नहि, जे जगें उत्तम होय, वा. चंद्रविजय पण इम कहे, ते सम अवर न कोय. वालम ! वेगे० २० ५ : ढाल - प्रीत पूरवली पालिइं - ए देशी मनोहर माह मास आवीयो, नाव्यो मुझ भरतार, सुगुण नर. आंबा मोर्या अति भला, कोयल करे टहुकार. सुगुण० २१ प्रीत प्रगटपणे पालिइं, पालिई उत्तम नेह, सुगुण. प्रारथीयां पीडे नही, जो जगे धरिइं देह, सुगुण. आंकणी. २२ विरही ने गहिला तणी, सरखी [जाति] जग जोई, सुगुण. काज अकाज विचारणा, तेहने मने नवि कोइ, सुगुण. प्रीत. २३ हयडानी जे वारता, ते अवर आगल न कहेवाय, सुगुण. मनदु:ख मनमांहि वीसमे, जेम कुवानी छांहि, सुगुण. प्रीत. २४ मोटो बोल जे बोलिने, नवि पाले धरी नेह, सुगुण. चंद्रविजय कहे सांभलो, माणस न कहिइं तेह, सुगुण. प्रीत. २५ ६ : राग - फाग आव्यो हो फागुण मास मनोहर, सुंदर सुखकर जेह, लोक रमे रंगे जेणे ठामे, सुंदर चित्त धरी नेह. २६ मनोहर फागुण आवीओ हो, जेह भोगी सुखकार, मनोहर. आंकणी धपमप धपमप मादल वाजे, तथतथ ताल कंसाल, खेला हो खेले नवनव भांति, उछळे अबिल गुलाल. मनोहर. २७ अवल केसरीआ कसुंबा पहिरी, हीर चीर पटकूल, खेलें खांतिं नवनव भातें, सुंदर पहेरी दुकूल. मनोहर. २८ इम उछरंग धरे सब लोगा, क्रीडा करइ उदार, पण प्रीतम विण मुझ न सुहावे, क्षति उपर जेम खार. मनोहर. २९ प्रीतम ! आवो घर माहरे, पवित्र करो मुझ काय, चंद्रविजय पण शीख देइ कहे, तुम्ह मनि महिर न थाय. मनोहर ३० Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंद्रविजयकृत स्थूलिभद्र-कोशाना बारमास ७: ढाल चैत्रे चंपो मोरीओ, सफल फल्या सहकार, कोयल करे रे टहुकडा, भमर करे हो गुंजार. ३१ ससनेही ! सुणो विनति, मोरो हो प्राण आधार ! विरहवियोगी माणसां, कां कीधां किरतार ? ससनेही !आं. ३२ प्राणपांहि जे वालहा, जे विण घडिय न जाय, तेह तणे रे वियोगडे, रे दैव ! देखाडे कां काय ? ससनेही !० ३३ जगमा पंडित इम भणे, सजन न करो हो कोय, साजनमा सुख जेटलां, ते फरीने दु:ख होय. ससनेही !० ३४ वहिला आवो रे मंदिरें, कीजे क्रीडा अपार, चंद्रविजय कहे नारिने, संतोषे भरतार. ससनेही !० ३५ ८ : ढाल - इडर आंबा आंबली रे - ए देशी वैशाख मास मनोहरु रे, भोगी भमर सुखकार, नारि साथे रमे नेह-स्यु रे, आप-आपणा भरतार. ३६ सुहंकर ! आवो अम्ह घरबार, एह वात छे सुखकार. सुहंकर० ए आंकणी. तुं स्वामी ! सुण विनति रे, तुम्ह महिर न थाय, उत्तम लक्षण ए नही रे, स्नेही किम मूकाय ? सुहंकर. ३७ उत्तम सद्गुण संग्रहे रे, अलगो मूके डंस, नीर मूके खीर संग्रहे रे, जेम उत्तम राजहंस. सुहंकर० ३८ मुझ-स्युं ताहरे स्वामीजी रे, न हुतो अंतर लगार, हवे मूकी अलगो रहे रे, ते तो अधम आचार. सुहंकर० ३९ वारवार हवे स्युं कहुं रे ? तुं सवि जाणे, स्वामि ! चंद्रविजय कहे, सांभली रे, सारो नारचं काम. सुहंकर० ४० ९ : ढाल - मारूजीनी जेठ मास ज आयो, प्रीतम नायो सांइ रे, वालमजी, वहिला हवे आवो, वार म लावो कांइ रे, वालमजी ! तुं माहरो स्वामी अंतरजामी दीसे रे, तुझ दीठे माहरां तन मन यौवन हिंसे रे. ४१ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह वालमजी ! आंकणी० वालमजी ! वालमजी ! वालमजी ! वालमजी ! ससनेहे सुख एक मनमां कूडा मोहडे रुडा बोले रे, तेह सारसो नेह करे ते मुर्ख तोले रे, तुमे तो ससनेही डंस मुकी हवे आवो रे, ते मनोहर कांमक्रीडा बहु सुख पावो रे, तुं मुझ विरहे करी बीहतो स्वामीसार रे, अति गनवेतां (?) अलगो करतो हार रे, ते मुझ मूकी गयो स्नेह विसारी किहां रे, हवे स्नेह धरीने वहिला आवो इहां रे, रंगरसभर रमतां जे थइ सुखनी वात रे, हवे संभारतां [ते] बाले साते धात रे, परदेशी पंथे जे चाल्या ते आया रे, पण माहरा जीवन- प्राण- आधार ! तुं नाया रे, हवे वेगे पधारो, आतम ठारो माहरो रे, दर्शन वांछु, प्रभु ! तुझने वाहलो ताहरो रे, हवे चंद्रविजय पण कहे स्थूलभद्रने सार रे, वालमजी ! कोशा इम विनवे, आयो[आवो ] भुवन मझार रे, वालमजी ! ४५ वालमजी ! ४२ वालमजी ! वालमजी ! वालमजी ! वालमजी ! ४३ वालमजी ! वालमजी ! वालमजी ! १० : ढाल प्यारो प्यारो करती ए देशी आव्या हे आसाढ उदारा, जिहां मेघ करे जलधारा, जिहां मोर करे किंगारा, जे सुललित जनने प्यारा. हो लाल. ४६ मोहन मन वसीओ. आंकणी० वालमजी ! ४४ वालमजी ! वालमजी ! तव आया थुलिभद्र अणगारा, कोशा मन हरख अपारा, जे जाणे हो जानी उदारा, वुठा दूध साकर जलधारा हो लाल. मो० ४७ कोशाए आपी चित्रशाला, तिहां रह्या चोमास रसाला, हवे कोशा हो विनवे उदारा, सांभल तुं विनति, प्यारा! हो लाल. मो० ४८ तुं भोगवि मुझ-स्युं भोगा, जेम जाय सवे मुझ रोगा, जेम हरख होवे मिटे शोगा, साबास दीइ मुझ लोगा. हो लाल. मो० ४९. सुणो जीवन- प्राण- आधारा !, भोगवे [ वो ] भोग उदारा, ए कुत्सित वस्त्र उतारो, चंद्रविजय कहे, कोशा तारो हो लाल. मो० ५० Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंद्रविजयकृत स्थूलिभद्र - कोशाना बारमास ११ : ढाल श्रावण मास ज आवीओ लाल, झबझब झबूके वीजली हो लाल, भोगवो भोग भला हवे हो लाल, मूकी कठिन योग, जीवनप्राण ! मानो विनति नारीनी हो लाल, टालो काम - कुरोग. अंतरजामी पामीओ हो लाल, भोगवि भोग उदार, प्रारथीयां पीडो नही हो लाल, उत्तम ए आचार. आ मंदिर आ मालियां हो लाल, एह सुरंगी सेज, जीवनप्राण ! आ हुं एह तुं प्रीतम हो लाल, भोगवो भोग धरी हेज. जीवनप्राण ! भो० ५४ हवे अंतर आणो किस्यो रे लाल, न करि तुं ताणाखंच, जीवनप्राण ! चंद्रविजय कहे, सांभळो हो लाल, स्नेहनो एह संच. जीवनप्राण ! भो० ५५ लीलावतीनी देशी टबटब टबके नीर, जीवनप्राण ! शीतल सरस समीर जीवनप्राण ! भो० ५१ - ८३ जीवनप्राण ! भो० ५२ जीवनप्राण ! जीवनप्राण ! भो० ५३ - १२ : उठ कलारणी भरि घडो हे ए देशी मास भादरवो अति मनोहरु हे, आव्यो सजन ! सुखकार, जलधर वरसे नेह-स्युं हे, बीजली मनमोहन ! माहरा हे, विनति माने वेल चढी तरुवर घणी हे, जनमन हरख नीलाइ धरती थई हे, ऊग्या हरी अंकुर, तटिनी द्रह सवि जल भर्या हे, छाया वादल शशि सूर. मनमोहन० ५८ फल पांम्या सहु तेह, करसणी अन्न निपावीयां हे, अफल मनोरथ मुझ रह्यो हे, कां हो विडंबे नारीने हे चंद्रविजय कहे, तेह- स्युं हे, तुझ-म्यं धरतां नेह. मनमोहन० ५९ प्रेमवती, भरतार, विरहवियोग निवार. मनमोहन० ६० उपसंहार इम ढाल - तुंगियागिर - शिखर सोहे नारि कह्या पछी बोले, धूलिभद्र शील निज मने धर तुं सुंदरी ! ए संसार इम कोशा कामिनि ! सुणि तुं देशना, संध्याराग तन धन योवन अथिर जाणी, धर्म सुं धरि सम ए देशी * उदार, अपार. मनमोहन ! ५७ करे झबकार. ५६ अणगार रे, असार रे. ६१ एह रे, नेह रे. इम० ६२ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह अलगी रहे उठ हाथ मुझथी, जो वंछे कल्याण रे, वळी शीलव्रत तुं दृढ पाले, एह करी मुझ वाणी रे. इम० ६३ इणि परे प्रतिबोधि कोश्या, धन श्री थूलीभद्र स्वामी रे, चउरासी चउवीसी सुधी, राख्यं जेणे नाम रे. इम० ६४ श्री तपागच्छ तखत सोहे, श्री विजयदेवसूरींद रे, तस सीस मांहे प्रधान सुंदर, वाचक सवि सुखकंद रे. इम० ६५ श्री लावण्यविजय उवज्झाय सेवक, श्री नित्यविजय बुध शिष्य रे, कहे चंद्रविजय नेह धरीने, सहु मन अधिक जगीस रे. इम० ६६ कलश इम थुण्यो स्वामी शीश नामी श्री थूलीभद्र गणधरवरो, अति लाभ जाणी सरस वाणी गाइओ सवि सुखकरो, तपगछ राजा श्री विजयसेन(देव) सूरि श्री लावण्यविजय उवझायवरो, श्री नित्यविजय बुध सेवक चंद्रविजय जयजय करो. ६७ - इति श्री थूलीभद्र मास बार संपूर्ण पठनार्थं गुरुणी जडावसरीजी. कल्याणमस्तु. (पत्र ५-१२, श्री मुक्तिकमल जैन मोहनज्ञानमंदिर, वडोदरा प्रत नं.२३३१. आ प्रत कविना समयनी लखायेली छे ए आदिमां पोताना गुरुने करेला नमस्कार परथी समजाय छे.) [प्रति कविनी स्वलिखित होवानी शक्यता छे. - संपा.] [आत्मानंद जन्मशताब्दी स्मारक ग्रंथ, संपा. मोहनलाल दलीचंद देशाई, १९३६] Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमविजयकृत नेमि बारमास ('शीलवती रास' ना कर्ता प्रसिद्ध नेमिविजयनी आ कृति छे.) [नेमविजय तपगच्छना तिलकविजयना शिष्य हता. एमनी रासादि घणी कृतिओ मळे छे, जे सं.१७५०थी १७८७ सुधीनां रचनावर्षों बतावे छे. जुओ जैन गुर्जर कविओ, भा.५, पृ.११६-२५ तथा गुजराती साहित्यकोश, खं. १, पृ.२२६. आ कृति 'प्राचीन-मध्यकालीन बारमासा संग्रह' (संपा. शिवलाल जेसलपुरा)मां पण प्रसिद्ध थयेली छे. पाठशुद्धिमां अहीं एनो लाभ लीधो छे. ___ अहीं आ पछीथी छपायेली महानंदमुनिकृत 'नेमराजुल बारमास' तत्त्वत: नेमविजयनी ज कृति छे. जुओ ए कृति विशेनी नोंध. नेमविजयनी कृतिनो पाठ क्यांक-क्यांक महानंदनी कृतिना पाठथी सुधर्यो छे. - संपा.] दूहा समरीइ शारद नाम साचुं, एह विना जाणीए सर्व काचु, ज्ञानविज्ञान ने ध्यान आपे, महिरनी लहिर अज्ञान कापे. १ चरण नमी गुरू तणां माम गाउं, नेमराजुलने चित्त ध्याउं, जे प्रभु सत्यसंपत्तिदाता, ए जिनभूषण सही जगत्राता. २ नेनना हेत-स्युं नेह जणावे, मास बारे कही प्रीउ मनावे, मास ए मागसिर मन्न भावे, राजल, वयण स्यु नेम सुणावे. ३ ढाल : प्रणमुं रे गिरजा रे नंदन - ए देशी मागसिर छे हितकारी रे, प्यारी जोवे छे रे वाट, सहीयर नेम न आवीयो, वाधीयो विरह-उचाट. हास्य विनोद ने दोहरा, भावे नही मुझ मन्न, चित्त मांहे लागी चटपटी, अटपटी बोलुं वचन्न. ४ वनखंडे ते विरहनां गोपी गावे रे गीत, निसदिन समरूं रे नाहलो, वहालो मोरे रे चित्त. पीयु विना दिन ए सखी, नारीने जावे रे नीठ. सहज सलुणा रे आविये, बोलिये वयण सुमीठ. ५ हाय हाय सखी ! शुं करूं, मन्मथ पीडे रे जोर, लोक मांहे घणुं लाजीए, कीजीए केहो झकोर. Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह प्राण-प्रीउ विना किम रहे, आ मुझ दिलनी रे प्रीति, खण न वीसारूं खंति करी, कंते कीधी कुरीति. ६ दूहा फल्यां खेत्र ने खगा आवे, गोपी बिनोदनां गीत गावे, तेह सुणि मोहनां मोह व्यापे, प्रीउ विना विरहिणी किम ध्रापे. ७ रोस किस्यो इण पोसमें, दोस विना, जगनाह, विण बोल्यां किम दीजीए, वालंभ, दिलनो रे दाह. अवगुणनें गुण लेखवे, जे होय चतुर-सुजाण, तप जप मुकीने वेगलो, आवो-ने जीवन-प्राण. ८ एक घडीनी रे प्रीतडी किम मूके उत्तम जेह, छयलछबीला रे राजवी, छिटकी न दीजे रे छेह. उत्तम एह आचारडो, जनम लगें वहे नेह, फाटि पण फीटे नही, जेम पटोले रे रेह. ९ फुल्यो ते मघमघ मोगरो, उल्लस्यां तन्न कठोर, चितडे रे चाला मांडियां, दिल्ल घूमे घमघोर. चीर पीतांबर चोसरा, उर ठव्यो मोतीनो हार, रखे जाणु प्रीउ ! पहेलडी तो, भोगवे थई भरतार. १० तूं उपगारियो तूंहि ज ईश, कहुं एतलं तुझ नामि सीस, महिर करी मोहनां मंदिर पधारो, नारिनां नेहनां नयन ठारो. ११ [ढाल] मनोरथ माहरा मन मोहे रह्या रे हजार, सुखदुख मननी रे वारता, कोण सुणे निर्धार. जेहने मन छ रे नेहलो, ते भमे विकलशरीर, केतकी विना जिम भमरने, भावे न फुलकरीर. १२ ग्रहणा उतार्या रे गहबरी, पुरूष न राखुं रे पास, भोल भोलवे भामिनी, मदन तणी धरी आस. सजनी, सेज-तलाइने, हुं सेवू दीन ने रे रात, प्रीयु परदेसे सिधाविया, रखे होवे किसी घात. १३ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ नेमविजयकृत नेमि बारमास ताढि रे गाढा पराभव्या, आहि ज सुना आवास, थर थर कंपे रे देहडी, मुक्या जेह निरास. सुंदर सेज गमे नही, सुतां रे नींद न आय, तोही विना प्रभु माहरा, इणी परि दिन किम जाय. १४ दूहो इम न कीजे सुणी प्राणनाथ, पालीइं प्रीतडी ग्रहीय हाथ, मयणनो वास ए मास फाग, सामी, संभारीए एह लाग. १५ [ढाल] फागुणना दिन फूटरा, आकरा (ला)गे रे मुज्झ, विरहे तपे तन कोमल, मन भावे नही तुझ. केइ खेले लाल गुलाल-सुं, अबीर अरगजा प्याल, हुं रही एक दोभागिणी, आव्या न नाह मयाल. १६ स्मर संतापे, साहेलडी, भेदी रह्यो मुझ देह, आपणपुं किम राखस्युं, पोहते योवन-वेह. प्रीउना विना इण मंदिर, मनमथ केरा रे चोर, दुःख आपे दूणे देहडी, उठ्या तनने फोर. १७ के जिन पूजे रे पदमिनी, भामिनी आपद दूरि, के नृत्य नाचे नवनवो, पाय पखाले कूर. के प्रीउ-संगे रंगे, ढंगे खेले बहु ख्याल, सरिखा सरिखी जोडी मिली, खेले फाग खूस्याल. १८ दूहो प्रेमदा मनमथ-जोर पीलें, डसी नागणी जेम डोले, हवे सही राज[ल] चित्त थापें, चित्रमा नेम ए दुःख कापे. १९ [ढाल] चिहुं दिसे तरवर चीताँ, [नीतर्यां] चैत्रे सुवास, जाइ जूइ नवमालती, मोगरा मरूआ जे खास. दमणो चंबेली रे चंपके, षटपद लागा रे चित्त, नेम तणी हुं वाटडी, इणी रीति जोउं रे नीत. २० Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह निठुर हजी लाजें नहि, जे करे वनमें गुंजार, रमण वसंत आवी मिल्यो, भूमि तणो भरतार. परिमल आवे रे कुसुमना, बीडुं हुं निज नाक, प्रीउ विना सी सुगंध तां, मदने मुकी घणुं हाक. २१ मंदिर सुने रे महिला तणुं, मोहन किम रहे मन्न, कोकिल कल कुजित करे, तिम दहे विरहिणी- तन्न. नयने रे नींद आवे नही, अति तीखी चंदनी रात, [ख] रही प्रीउ प्रीउ जीभडी, वाल्हा विछोह्यांनी वात. २२ विरहिणी विरहनी सांकली, रातडी गमीए रे केम, [नीर विना जिन माछली, नेम विना निसि एम. ] केम गमु घडी, साहिब, खिण वरसां सो रे थाय, प्रहरनी सी वातडी, मास वरस किम जाय. २३ दू विरहनी वेदना जगति मोटी, प्रीत विना नारि संसार खोटी, खिणि खिणि नेमनी वाट जोती, सहीयरो उतरी चित्त - हुती. २४ [ ढाल ] वैशाखे रे वन पाकीयां, भाविया दाडिमी काम, राजादनी रलीयांमणी, जांबू कदली सुठाम. आवो हित धरी चित-सूं, प्रीस्युं कातली लाख, अंब तणी जे पाकी, बाकी साकर-द्राख २५ छाकी मनमथ माननी, फुली जिम वनराय, विरही सुणी [भी] मुखि बोलडा, उन्मत्त तिम उन्माय. केहने दाखु साहेलडी, आ मारा मननां रे दूख, मंदर सुनां, ए देहडी, प्रीउ पेख्यां होई सुख. २६ नाह निठुर, नवि कीजे रे, एम विसासी रे घात, को न करे तिम तें कयुं. सघले पंचास्ये रे ख्यात. विरहणी तन नवि ओलखे, ते स्युं लखे मन-वात, आकली प्राण प्रीउ विना जायें छे दिनरात २७ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमविजयकृत नेमि बारमास दू पणि जगि जाणने स्युं कहीजे, मूर्खने वेणम्यं सीख दीजे, तो हवे नेठ ए ज्येठे ज आवे, कला कामिनी केलि सुहावे. २८ [ ढाल ] ज्येठ तपे अति आकरो, सी करो एवडी धीज, आवो तो उष्ण निवारीएं, सीत संचार्ये पतीज. पंथी पणि पंथी आकला, नारिने मिलय अनेक, पाए पडी, प्रभु, वीनवुं, आणा ने चित्त विवेक. २९ अगनि तणी परि परजले, उत्तम एह आवास, भूमि तपे अति भूंडी रे, किम रहे तनमें रे सास. खिण मंदिर खिण बाहिर, रयणी केम विहाय, प्रीतम - विहूंणी प्रेमदा, तलफ तलफि खिण थाय. ३० पशु - पुकारथी चाल्यो रे, पाल्यो न एकण बोल, काजि ते आपणे रागीयो, [त्यागीओ] निगुण निटोल. नवभवनेह निवारीयो, वारीयो नवि रह्यो नाह, नवयौवन-वय कामिनी, यामिनी लीधो न लाह. ३१ दू भरि भरि जोर नीसास मूके, नयणथी आंसुडा खिण न चुके, काया कोमल तेज सीझे, निरदयी नाह तोहे न रीझे. ३२ [ ढाल ] आकरी रीत रे आसाढनी, विरहनी व्यापी छे पीर, वाये घटा घन मेघनी, अति स्याम वरसे रे नीर. कामकलारस केलवी, केकी करे रे किंगार, बापीयडो पीउ पीउ करे, वीजलीयां झबकार. ३३ यौवन जाये साहेलडी, जाणे जलना रे पूर, कहेने कहुं दु:ख, बहेनडी, प्रीतम रहे घणुं दूर. साले खिण खण सुंदरी, दिवस ने रजनीना भोग, धिरता नही मन मांनिनी, दूहलो नाह-वियोग ३४ ८९ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह कामी चिंते रे कामिनी, रामने सीत स्युंज्यु] सीर, चातुकने मन मेहलो, पोपटीने मन कीर. चकोर तणे मन चंद ज्यु, तरस्यां भावे रे नीर, तिम विरही[ह] धरी इणि रति, जीव धरे नही धीर. ३५ दूहो मेह अंधारतो नीर छांटे, देखतां विरहिणी हीय फाटे, दिन वियोगना श्रावणे नीठ नाखे, वलवले राजुल जगतनाथ पाखे. ३६ [ढाल] श्रावण श्रवणे रे में सुण्यो, दुखियां दाझवे देह, सरवडां वरसी मयणनां, सयणनां दाखे छेह. नयण धरीने रे नेहलो, वेहलो आवे रे नाह, प्रीत परम सुख पावन यौवन लीजे रे लाह. ३७ तापे मनमथ महिला रे तनकतनक दहे देह, कादमी दील वलें घणी, जिम घन भूमिनो त्रेह. गाजे जिम घन घोरो रे, जोर करे अनंग, भमर वीना सी भामनी, केहो बीजा-स्युं संग. ३८ प्रीति भली पारेवानी, वारू राखे रे रीत, हीये हेज हित आणी, टाले विरहकु प्रीति. एक एक विना हीसे नही, जो होवे अति घणे दूर, तु मुज प्राण, वालेसर, आवे न केम हजूर. ३९ दहो प्रीतनी रीति पारेव पाले, प्रीयसंगथी आपदा सर्व टाले, (भाद्रवे सहीयरो नेम पधारे), नाह विना नारिने कुण संभारे. ४० [ढाल] भाद्रवडो भर जार-म्युं, घोर वहे नदीपूर, सजल सरोवर पूरियां, चूरिया दारिद्र दूर. बहुलां सस्य रे उपनां, हरख्यां जगतनां जन्न, सुभिक्ष किस्यो इंहां प्रभू विना, मोघां उदक ने अन्न. ४१ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमविजयकृत नेमि बारमास जिम जिम वरसे रे मेहलो, तिम तिम मयणनां बाण, पापी प्रेम हरे प्रति, खांचे अंतर- प्राण. यौवनदिन जोग दोहिलो, सोहिलो नही रे लिगार, वाहला -1 - विहूणी विरहणी, धिग धिग तस अवतार. ४२ प्रीउ विना किस्यां भोजन, प्रीउ विना किस्यां हेज, प्रीउ विना किस्यां बोलडां, प्रीउ विना किसी सेज. प्रीउ विना किस्यां भूषण, प्रीउ विना किसि वात, प्रीउ विना किस्यां मंदिर, प्रीउ विना किसी राति. ४३ दू प्रीउतणा वियोगथी मयण व्यापे, खिण खिण देहडी तेह तापे, विरहिणी विरहनां बाण लागां, आवतां आसोइ दुख भागां. ४४ [ ढाल ] आसोई आस हुंती घणी, मन तणी आवस्ये नेम, नवनव भूषण लेइ, देइ धरसे रे प्रेम. में जांणु प्रभु सांमलो, आमलो टालस्ये धेर, पूरव करमने योगडे, बांध्युं मोटुं रे वेर. ४५ मोहन, एह दीवालीये, बाली मनमथें काय, काथ तणी परि दोहिलो, किम ते मुखि कहिवाय. भूषण दूषण परि गमे, नवि गमें सहीयर - साथ, विरहदावानल दाझतां, वालिभ, कीजे सनाथ. ४६ सासरे जावे रे सुंदरी, हरखे प्रीतम हेज, परणी महियलि पदमिनी, नित्य रमे निज सेजि. अतर ने चंदन अरगजे, परमल महके रे तन्न, सुधे-सुं भरि बहु सुंदर, देखतां किम रहे मन्न. ४७ धीरज जीव धरे नही देखी पराया रे लाड, सारण सखी, सया ज( ) ही [ ? ], उग्यां दुखनां रे झाड. केहने दाखू साहेलडी, मननां अंतर झि, मंदिर सुने भमती रहूं, कल न पडे कांई सुझ. ४८ ९१ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह दूहो नाहले नावते आस भांगी, विरह-दावानले देह जागी[लागी], वास मन्मथ यौवन जीपे, नेन नकवेसर मृग कीर दीपे. ४९ [ढाल] काती माती रे कामिनि, दामिनीनी अनुहारि, मदमाती प्रीउ-संगथी, राती अंग उदार. अंगना अनंग खेलावती, भेलती अंगोअंग, रमण करे रमणी ग्रही, कां तुं तजे रस चंग. ५० शशिवयणी मृगनयणी रे, सोवनवान शरीर, सा करमांणी देहडी, जिम मृग वागे रे तीर. जिम पंथीजन जल विना, तापे सुके रे कंठ, तिम मुझ वालिम तुम विना, मयण संतापे उलंठ. ५१ कामणगारी रे कामिनी, जो होवे प्रीतम संग, माचे मननी मोद-सुं, खेले अंग अनंग. शरीर सुनुं सखी, सुंदर, मंदिर नही जव नाथ, दोहिलां दिन हुं नीगम, मोहन नही मुझ हाथि. ५२ - मास १२ एम न कीजे रे, नाहला, वाहला-स्युं केहो वाद, कामरसें रस चाखो रे, राखो दूरि विषाद. आवजो शिवने रे मंदिर, सुंदर मिलस्यु रे दोय, एहवो संदेसडो नेमनो, राजुले सुणियो रे सोय. ५३ दूहो वेदना विरहनी सर्व टाली, प्रीतडी अविचल तेण पाली, थयां संजोग ने वियोग भागां, प्रसर तिहां पुन्यने [प्रसरतां पुण्यनां] ग्रहण लागां. ५४ [ढाल] दीख दीधी शीख लीधी रे, पामी ते केवलज्ञान, पीउ पहेली शिवमंदिर, पोहती निरमल ध्यान. राजीमती ने नेमजी, पाम्यां ते अविचल वास, जनममरणभय टालियां, पालीयां बोल उल्लास. ५५ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमविजयकृत नेमि बारमास ज्ञानदिवायर सायर, नेमी ने राजुल दोय, अंतरजामीनां निसिदिन, जाप जपे सुख होय. बालब्रह्मचारी सदा नेम, तेम वली राजुल नारि, कामित पूरे मन तणा, नेमविजय जयकार. ५६ नेम राजुल में रे गाइयां, पाईयां आनंद आप, परमेसर-पद गायतां, जाई जे विरूआं पाप. तपगछविबुधशिरोमणि तिलकविजय गुरू जास, दीवबंदिर मांहि विरचीआ, नेमीना रे बारे मास. ५७ दूहो वेद पांडवो ने मन्न आणो, नय चंद संवत ए वखाणो, उद्योत अष्टमि मास माह, मार्तंडवारे पूरण उमाह. ५८ - इति श्री राजीमती नेमीधर द्वादश मास संवत १८०६ना चइत्र सुद १० दीने पं. प्रमोदकुशल लखीतंग मंगलपूर मधे उभे[अभय]कुशल वंसी बाइ सोना अमुलक तलसीनी स्त्री पठनारथे. श्रीरस्तु, (एक चोपडी पृ.३७ - पंक्ति १८, ना. मं.) [जैनयुग, पोष १९८२, पृ.१८९-९१] Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानचंदकृत राजुल बारमास [कवि विशेषचंद्रना शिष्य छे. जैन गृजर कांव आ (बीजी आवृत्ति भा.१, पृ.२३३)मां कविने सोळमी सदीमां मूकेल छे, परंतु कृतिनी भाषा जोतां कवि मोडा समयना संभवे छे. जैन गुर्जर कविओ' भा.४, पृ.११९मां विशेषचंद्रगणिशि. वीरचंद्रगणिशि. मुनि वाहलचंद्रे सं.१७६२मां लखेली प्रत नोंधायेली छे, ते विशेषचंद्रना आ शिष्य होय तो ए १८मी सदीमां थयेला गणाय. - संपा.]] पंथिअडा रे संदेसडो - ए देशी सरसती चित समरी करी, प्रणमी जिन-पाय, राजुल कहें सुणि चांदला, चंदा कहजे रे जाय. १ चांदा, नेमजीने जइ कहज्यो, नवभवनो रे नेह, नेह देखाडी नाहला, किम दीजे रे छेह. २ चां० आसाढ मास रे आवीउ, गयणे चढीआ मेह, चातक तो पिउ पिउ करे, नेम नाव्यो रे नेह. ३ चां. नीलवरण हुई भूमिका, वन वन बोले रे मोर, पंखिडा पावस [पंखि डालीवस ?] हुआ, नाव्यो नेम कठोर. ४ चां. श्रावणे वरसे सरवडां, भींजे मुझ चीर, वाट जोउं वाल्हा तणी, नाव्यो नेम सुधीर. ५ चां. भाद्रवडो भरे माचीओ, सरोवर लहरें जाय, कोय दीखाडे नेमने, तरु [तस हुं] द्यु रे पसाय. ६ चां. आसो आशा अति घणी, कामिनी करे रे पोकार, नवयौवन मुकी गयो, कुण करशे रे सार. ७ चां. काति करसण फुलीआं, डुंगर नीर झरंत, तोरणथी पाछो वळ्यो, नाव्यो नेमजी कंत. ८ चां. मागशिर मनि मोहि रह्यो, फुली केतकी वार, गोखे रही निरखं सदा, नाव्यो नेम निरधार. ९ चां. पोषे रोस न कीजीए, राखी[जे] थिर मन्न, नेमि विना ईणी रतें, नवि भावे रे अन्न. १० चां० माहे मो[मा?] हे जइ रह्या, मनि नावे रे हेज, Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानचंदकृत राजुल बारमास टाढ पडे अति आकरी, सुनी दीसे रे सेज. ११ चां० फागुण खेले खांत-स्युं, कामिनी करे रे टकोल, इणि रतें आवो नेमजी, कीजीए रंगरोल. १२ चां. चैत्रे तरूअर म्होरीआ, भमर करे रे गुंजार, नेह देखाडी नाहलो, पहोतो गिरनारि. १३ चां. वैशाखें साकर जसी, अंबा लागि रे शाख, यदुपति वाट जोउं खडी, आवण कहे कोई भाख. १४ चां. जेठ त अति सखि ! घणो, चंदन लेपो रे अंग, नेम विना इणि रतें, दुख दीए रे अनंग. १५ चां. बार मास सखि ! वाटडी, जोई इंणि वारि, शरण होजो प्रभु ताहरूं, दुस्तर भवनिधि तारि. १६ चां. मोहन मुंकी सुं गयो, चंदा ! कहज्यो एम, अविहड होजो प्रीतडी, अवर परणवा नेम. १७ चां० यदुपति नेमजी गाईयो, दीठे अति आणंद, विशेषचंद कविराजनो, शिष्य कहे ज्ञानचंद. १८ चां. (एक पत्र, एक चोपडामां मुनि, जशविजय संग्रह) [जैनयुग, महा-चैत्र १९८६, पृ.२५] Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महानंदमुनिकृत नेमराजुल बारमासा (महानंद मुनि लोंकागच्छमां थया छे. तेणे अनेक स्तवन-स्वाध्याय-पदो रच्यां छे अने तेनी रचनाओ सं.१८०९थी १८४९ सुधीनी मळे छे. तेमां प्रभुनी आरती आदि कृतिओ जोतां ते जे लोंकागच्छना हता ते गच्छ मूर्तिपूजक हतो एम जणाय छे. ए रूप-जीवनी परंपरामां जगजीवन-भीमसेन-मोटा ऋषिना शिष्य हता.) [आरती के कवि मूर्तिपूजक होवानुं दर्शावती कोइ कृति नोंधायेली मळती नथी. जुओ जैन गूर्जर कविओ, भा.६, पृ.२६-३५ अने गुजराती साहित्यकोश खंड १, पृ.२९८. कृतिना रचनासंवतनुं अर्थघटन १८४५ करवानुं थाय छे पण नेम=८ केवी रीते थाय ते स्पष्ट थतुं नथी. नेन के नेत्र = ब्रह्मानेत्र = ८ थई शके. कवि मोटाना शिष्य छे अने सं.१८४५मां सोमचंदजी गच्छनी पाटे छे, पछी आ कृतिमां तिलक मुनिनो गुरु तरीके उल्लेख केम थयो छे एनो खुलासो मळतो नथी. वस्तुत: आ प्रश्नो ऊभा थवानुं कारण ए छे के आ कृति, स्वल्प शब्दभेदे अने स्वल्प घटाडा-वधारा साथे, अहीं आ पूर्वे छपायेल नेमविजयकृत 'नेमि बारमास' ज छे. नेमविजयना गुरुनु नाम तिलकविजय अहीं रही गयुं छे अने ए कृतिना रचनासंवतना शब्दोमां अहीं गरबड थई छे. नेमविजयनी कृतिने आधारे अहीं भ्रष्ट पाठो सुधार्या छे, पण बाकी बधुं एमनु एम राख्युं छे. - संपा.] समरीए शारदा नाम साचुं, एह विना जांणिइ सर्व काचुं; ज्ञान विज्ञान ने ध्यान आपे, महेरनी लहेर अज्ञान का. १ गुरुचरण नमि मास बारे ते गाउं, नेम राजूलने चित्त ध्याउं; जे प्रभु सत्य संपत्तिदाता, एह जिनभूषण सही जुगवाता[जगत्राता]. २ नेनना हेत शुं नेह जणावे, मास बारे कही प्रीउ मनावे; मागशिर मासे ते मन भावे, राजूल नेमने वेण सुणावे. ३ ढाल - कृष्णना मासनी मागसिर छे हितकारी रे, प्यारी जोवे छे रे वाट; हजी लगे नेम न आवीया, वाधिया विरह-उचाट. ४ हास्य विनोदना दोहरा, भावे नही मुझ अन्न; चित मांहि लागी चटपटी, अटपटी बोल वचन. ५ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महानंदमुनिकृत नेमराजुल बारमासा बापहीउ पीठ पीउ करे, गोपी गावे रे गीत; निशदिन सांभरे नाहलो, वाहलो माहरे रे चित्त. ६ पीउ विना सुणो नारीने, ए दिन जावे रे नीठ; । सेज सलुणा आवीये, बोलीए वयण ते मीठ. ७ दुहा खेत्र फल्या खग आवी धाया, गोपीए विनोदनां ग्रीत गायां; तेह सुणी मोहना मोह व्यापें, पीउ विना विरहणी दिन किम कापे ? ८ ढाल रोस किसो एण पोसमां, दोस विना जगनाह ! विण बोल्या किम दीजीईं, वाल्हा ! दिलनो दाह ? ९ अवगुणने गुण लेखवें, जे होवे चतुरसुजाण; तप जप मूकि वेगलो, आव्यो जीवनप्राण. १० पारखा मुखनी वातडी, रातडी जाणिनें जेह; । एक अवगुण चित्त राखे, भाखे न तेहनो छेह. ११ साजन मुंकी वेगला, अति भलो अवर-स्युं नेह; इम करतां वालेसरू, धरीइं नही गुणगेह. १२ दुहा तुं उपगारी तंही ज इस, कहुं केतलो तुझ विसवाविस; महेर करी मोहना मंदिर पधारो, आ नारिना नेहना नेन ठारो. १३ ढाल माहे मनोरथ माहरा, मनमा रह्या रे हजार; तो सुख मननी वातडी, कोण सुणे निरधार ? १४ जेहने मन छे नेहलो, ते भमे विकलशरीर; केतकी विन जिम भमरने, भावे न फूल-करीर. १५ ताढे रे गाढे परभव्या, आहीं ज सूनें आवास; थरथर कंपे रे देहडी, मुंक्या रे जेह नीरास. १६ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह सुंदर सहज[सेज] गमे नहीं, सूतां रे निंद न आय; तोहि विना प्रभु ! माहरे, इण परि दिन किम जाय ? १७ दुहा एम न कीजीइं, सुण प्राणनाथ, पालीए प्रीतडी में ग्रहीए हाथ; मयणनो वाश(स) तें मास फाग, सांम ! संभारीइं एह ज लाग. १८ ढाल फागुणना दिन फुटरा, आकरा लागे रे मुझ; विरह तपें तन माहरो, मन भावे नही तुझ. १९ के खेले लाल गुलाल सूं, अबीर अरगजा ख्याल; हुं रही एक दुभागणी, आव्या नि(न) नेम मयाल. २० के जिन पूजे रे पदमणी, भांमनी आपद दूर; के नृत्य नाचे रे नवनवा, पाय पखाले जै कुर. २१ के प्रीउ संगे रे रंगे रे, ढंगे खेले बहु ख्याल; के गोपी गजगति जेहवी, ठारे अनंग चोसाल. २२ चिहु दिश तरवर चीतर्या, नीतर्या चैत्र सुवास; जाइ जूई नवमालती, मोगरा मरवो जे खास. २३ दमणो चंबेली रे चंपके, षटपद लागी रे चित्त; नेम तणी हुं वाटडी, एण रीते जोउं रे नित. २४ विरहणी-विरहनी वातडी, रातडी गमीइं रे केम ? नीर विना जिम माछली, नेम विना निश एम. २५ के मनमें घडी साहिबा ! खिण वरसां सो थाइ; ते पोहरनी सी वातडी, मास वरस किम जाय ? २६ मंदिर सूनें महिला तणुं, मोहन ! किम रहे मन ? कोकिल कलकुंजित करें, तिम दहे विरहिणी तन. २७ नयणे रे निंद आवे नही, अति तीखी चंद्रनी रात; झंखी रही प्रिउ जीभडी, वाल्हाविरहनी वात. २८ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महानंदमुनिकृत नेमराजुल बारमासा दुहा प्रीया प्रीत- शुं वायवीझे, के दर्पण मुख देखतां ज रीझे; हवे सखी राजूल चित्त थापे, चैत्रमां नेम ए दुःख कापे. २९ ६ विरहिणी-वेदना जग मांहि मोटी, प्रीउ विना नारी संसार खोटी; खीण खीण नेमनी वाट जोती, वैशाखमें वीसर्यु नाक-‍ क- मोती. ३० ढाल वैशाखे वन पाकीया, भावीया दाडिम कांम; राजादन रलीयामणी, जासुं [ जांबू] कदली शुं ठांम. ३१ जो आवो हित धरी चित्त- शं. तो प्रिउसु कातली लाख; अंब तणी जे पाकी या केरी साकर द्राख ३२ नारंगी नवरंगी चुंगी [चंगी], सोपारी जंबीर; करणी बीजोरी बीलका, बदरी रक्त किं सुख मनमें रामतां, राते बेठां हिमे [?] पोढोनि साहिब सामला ! कहिये तुम्ह हेज. ३४ द्वारीर. ३३ सेज; ७ दुहा मूरखनें वेण श्युं सीख दीजे, पिण जग जाणने स्युं कहीजे; हवे निठुर ए जेठें ज आवे, कला कांमनी केल सुहावें. ३५ ढाल जेष्ठ तपे अति आकरो, सी करी एवडी रे धीज ? आवो तो उष्ण निवारीए, सीत संचारें पतिज. ३६ पंथी पिण पंथे आकरो, नारिने मलि रे चित्त उत्तम जेह ? पाय पडि प्रभु ! विनवुं, आणो ने एक घडीनी प्रीतडी, किम मुके छयलछबीला हो राजवी, छटकी न दीजे उत्तम एह आचारडो, जन्म लगे वहे नेह; फाटे पण फीटे नही, जेम ( प ) टोले रे रेह. ३९ छेह. ३८ अनेक; विवेक. ३७ ९९ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह पशुअ-पुकारथी चालियो, पालियो एक न बोल; काजे ते आपणो रागीयो, त्यागीयो निगुण निटोल. ४० नवभवनेह निवारीउ, नवी रह्यो वली नाह; नवजोवनव[य] कांमनी, यामनी लीधो न लाह. ४१ दुहा भरि भरि जोर निशास मुंके, तिम नयणथी जलधार न सुके; काया कोमल तेज सीझे, निरदयी नाहलो तोही न रीझे. ४२ ढाल आकरी रीत छ आसाढनी, विरहिणी व्यापी छे पीर; थाये घटा घन मेघनी, अति स्यांम वरसे नीर. ४३ कांमकलारस केलवी, केकी करे रे किंगार; चिहुं दिश वादल चालिया, वीजलीयां झबुकार. ४४ अरथी होई रे उतावलो, देखी पर्जन्यधार; कांम व्याप्यो आ कामिनी, शीतल सीत विकार. ४५ समजे रे चतुर सांनमां, माता चिहु दिशि दंभ; दन वशी हुं विलविलु, हाथे नही मुझ अंभ. ४६ कामी रे चित्ते कामनी, रामने सीता जूं सीर; चातकने मनि मेहुलो, पोपटीने मन कीर. ४७ चकोर तणे मन चंद जूं, तिरस्यां भावि हो नीर; तिम विरह धरि इणे रतें, जीव धरे नही धीर. ४८ दुहा मेह अंधारतो नीर ठाढे[छांटे], देखतां विरहणी-हीय फाटे; दिन विजोगनां श्रावणे नीठ आखे, विलविले राजूल श्री जगनाथ पाखे. ४९ ढाल श्रावणे श्रवणे में शुण्यो, दुखीयां दाझे देह; । सरवडां वरसी मयणना, मयणनो दाखे रे छेह. ५० Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महानंदमुनिकृत नेमराजुल बारमासा नयणे धरीने रे नाहलो, वेहलो आवे रे नाह; प्रीत परम सुख पावन, जोवन लीजे रे लाह. ५१ प्रीत भली पारेवनी, वारू राखे रे प्रीत; हीए हेज हेत आणिये, टाले विरहकुं प्रीत. ५२ एक एक विना हसे नही, जो होवे अति घणो दूर; मुझ प्राण वालेसरू, आव्यो नि [न] केम हजूर ? ५३ १० दुहा प्रीतनी रीत पारेव पालें, प्रियासंगथी आपदा सर्व टालें; भाद्रवें सहीया रे ! नेम पधारे, नाह विण नारिने कोण संभारे ? ५४ ढाल दूर. ५५ भाद्रवडो रे भर जोर- शं. घोर वहे नदीपूर; सजल सरोवर पूरीया, चूरीया दालिद्र देश ने नागर लोकमां, नीपना सहेज [ सस्य ] अनंत; सुभक्ष थया प्रभु आवतां, भावतां सुख ते संत. ५६ प्रीउ विना किसा भोजन, प्रीउ विना किसा हेत; प्रीउ विना किसा बोलडा, प्रीउ विना केसी सेझ. ५७ प्री विना किसां बोलवां [ भूषण], प्रीउ विना किसी वात; प्रीउ विना किस्यां मंदिर, प्रीउ विना किसी रात. ५८ 99 दुहा प्रीउविजोगथी मयण व्यापें, खिण खिण देहडी तेह तापें; विरहिणी वेदना बांण भागे, पिण मानीए आसोइ दुःख भागे. ५९ ढाल आसोए आस हुंती घणी, मनमें आवशे नेम; नवनवा भूषण लेई, देई धरसे प्रेम. ६० में जाणुं प्रभु सांमलो, आंमलो टालशे धेर; पूरव कर्मने जोगडें, बांधुं रे मोटुं रे वेर. ६१ १०१ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह मोहन, ए दीवालीए, बाली मनमथे काय; कंत तणी परि तेह ज, ए दुख केहवो न जाइ. ६२ भूषण दुषण पर गमें, नवि गमें सहीयर-साथ; विरह-दावानल दाझतां, वालम ! देजे रे हाथ. ६३ सासरे जावे रे सुंदरी, हरखें प्रीतम हेज; घरणी रे महियल पदमणी, नित में निज सेज. ६४ अतर चंदन अरगजें, परिमल महेके रे तन; संध-५ भरी सुंदरी, देखतां नवि रहे मन. ६५ दुहा नावतां नाहले आस भागी, विरहणी दावानल देह लागी; वास मनमथ जोवन जीपें, मेंन नकवेशरे कीर दीपे. ६६ १२ ढाल कार्तिक माति रे कामनी, दांमनीने अणुहार; मदमाती प्रिउ साथी, राति अंग उदार. ६७ अनंग खेलावती गीत के, गाती भेलती अंग; एक करे केलि सारखि, कां तुं तजे रे सुचंग ? ६८ शशिवयणि मृगानयणी, सोवन वरण शरीर; सा करमांणी देहडी, जिम मृग वागे रे तीर. ६९ जिम पंथीजन जल विना, तापे रे सूके रे कंठ; तिम मुझ वालिम ! तुझ विना, मयण संतावे उलंट. ७० इम न किजे रे वाल्हा ! वाल्हा शुं किशो वाद ? कांमरसें रस चाखो रे, राखो दूरि विषाद. ७१ आवज्यो शिवनें रे मंदिरे, सुंदर मिलस्ये रे दोर; एहवो संदेसो नेमने, राजूल शुणायो रे सोर. ७२ दुहा विरहनी वेदना सब टाली, दंपति ते अविचल प्रीत पाली; संजोग थया ने विजोग भागा, अरीअण आपथी पाय लागा. ७३ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महानंदमुनिकृत नेमराजुल बारमासा १०३ ढाल दीख लीनी सीख दीनी रे, पांमी केवलज्ञान; पीउ विना पहिला शिवमंदिरे, पोहती निरमल ध्यान. ७४ राजेमती ने नेमजी, पाम्या जे अविचल वास; जन्ममरण भय टालीया, पालीया बोल उल्हास. ७५ ग्यांन-दिवायर सायर, नेम ने राजूल दोय; सायर बुधिको आगर, जाप जपे सुख होय. ७६ बालब्रह्मचारी सदा, नेम ने राजूल नार; कांमित पूरे संकट चूरे, नेम मुनि जयकार. ७७ नेम राजूल में रे गाइया, पाइया आनंद आप; परमेसर पद गायतां, जाय जे विरूआं पाप. ७८ लोंकागछ बुधि शिरोमणी, तिलक मुनि गुरु तास; दीव बंदरमें विरचाया, महानंद मन उलास. ७९ दुहा वेद[४] पंडव[५]ने मन आणो, नेम[८ ?] चंद[१] संवत एह वखाणो; उद्योत अष्टमी मास माह, मार्तंड पूरण उमाह. ८० - इति श्री नेमराजूल बार मासो संपूर्ण लि० ऋ० संभूरांम सं.१८५२ श्रावण शु. १३ मुंबाइ मध्ये. (अनेक स्तवनादि संग्रह ए नाम आपेली प्रत नं. २४६मांथी, श्री मुक्तिकमल श्री जैन मोहन ज्ञानमंदिर, वडोदरा.) [आत्मानंद जन्मशताब्दी स्मारक ग्रंथ, संपा. मोहनलाल दलीचंद देशाई, १९३६, पृ.१७६-८३] Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १०४ चार राजिमती गीतो [पहेला त्रण कविओमाथी प्रीतमविजय ‘जैन गूर्जर कविओ' के 'गुजराती साहित्यकोश खंड १'मां नोंधाया नथी. 'मत्स्योदर रास' (र.सं.१७३६) तथा 'स्तवन-चोवीशी' (र.सं. १७६१)ना कर्ता भोजविमलशि. रुचिरविमलनी माहिती मळे छे. ( जैन गूर्जर कविओ, भा.५, पृ.१६-१७ तथा गुजराती साहित्यकोश खंड १, पृ.३६७), ए अहींना ‘राजिमती गीत'ना कर्ता होवानो संभव गणाय, पण एम खातरीपूर्वक न कही शकाय. हिंदीमा 'चतुर्विंशति स्तुति' (र.सं.१८३५) अने 'मेघविनोद'ना कर्ता मेघ मुनि मळे छे. (जैन गूर्जर कविओ, भा.६, पृ.१४८) पण ए अहींना 'राजिमती गीत'ना कर्ता होवान कहेवू घणुं मुश्केल छे. लावण्यसमय माटे जुओ ‘रावण-मंदोदरी संवाद’नी नोंध - संपा. ] १. प्रीतमविजयकृत बपीयडा ! तुं चतुर सुजाण, ताहरि मधुरि वाणि, माहरो पीउडो गुणखाण, तेहनइं तुं मनावि आण रे. बपी० १ तुं गढ गिरनारे वसिउ, नेम शिवरमणिनो रसिउ, मुझ मुकी राउ धसमसीउ रे. तुं तो पंथ तणा दु:ख सहिजे, जां थाक तिहां रेहजइ, जीवनने समाचार कहिजइ, बोलडे बोल तेहनइ देहजई रे. ३ तुझ घरिणि राजल नारि, राग मांडि कां धुतारि, एहथी कुण छे सारी, वण वांके मुकी निरधारि रे. ४ यौवनरस लहेरि जाई, पीउ विना किम रहेवाइ, तेणइ दुखडे अन न खाई, एम दुखीयांना दिन जाइ रे. ५ दुख आंगिकरि देह गाली, अंगनी सुश्रूषा टालि, तुझ पाखि हुइ सा कालि, नाह नेह-वाचा नवि पाली रे. ६ दरसण विण सा कमलाणि, जिम मेह विना सरपाणि, नाह संग पखे अकलाणि, जिम खाधि कोदरा माणी रे. ७ नि:स्नेहा, नेह-सुं बांधि, कां मुकी पदमनी लाधि, ताहरि मुगतिरमणि मन बांधि, तुं तो राजलनो अपराधि रे. ८ राजल पीउ पाए लागि, भवभ्रमण थकी सा भागि, लाधि दिखा आदेश मागी, प्रीतमविजय मुगतिनो रागी रे. ९ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार राजिमती गीतो १०५ २. रुचिरविमलकृत __ राजि मृगानयणीरी नाकरी फूली, फुलडी कानलसारइं राजउ ल्यो भमरनी जारां मारई मृगानयणारी नाकरी फूली - ए देशी मात शिवादेवी जाया, राजि, सुरनरनारी गुण गाया राजि, घर आवो रे. हठीला हठ छोडी, राजि, हूं तो अरज करूं कर जोडी, राजि, घर आवो रे. १ जीवदया मन आंणी, राजि, कां छोडो राजूल राणी. राजि० थें तो जादवकुलरा हीरा, राजि, रथ फेरो रे, नणदलना वीरा. राजि. २ धण छांड्यां जग-हासो, राजि, घर आवी करो घरवासो, छेह छयल्न न दीजें, राजि, धणजोवन लाहो लीजइं. राजि० ३ थें तो मा-सूं जी प्रीत उतारी, राजि, थाने अवर मीली धूतारी. राजि० प्रीया, मां-तूं जी प्रीत-ठगोरी, राजि, करी चित्तडं लीधुं चोरी, राजि० ४ सखी, कटकी कीडी काजई, राजि, करतां किम कंत न लाजइ. राजि० सखी, नयणां नींद न आवई, राजि, सामलीयो सयण सोहावईं. राजि० ५ पीया, थे छो जी कामणगारा, राजि, अबलारां प्रांण-आधारा. राजि० पीउ, रूडा रीस न आंणे, राजि, अवगुण ते गुण करी जांणे. राजि० ६ इम प्रीउनइं ओलंभा देती, राजि, प्रीउ पासें संजम लेती. राजि० रुचिरविमल गुण गाया, राजि, नेमि राजूल सव सुख पाया. राजि, घर आवो रे, हठीला, हठ छोडी. ७ ३. मेघमुनिकृत कहे कर जोडी राजुल नारि के, सुणना सामला रे लो, थें छो यादवकुलरा चंद के, निरूपम निरमला लो. १ पालो पूरव भवनी प्रीत के मेलो आमलो रे लो, देखी पंजरमांय पशुवृंद के, कीधा मोकला रे लो. २ वलीया तोरणथी ततखेव के, थया मन आकला रे लो, एह न घटे तुमने वात के, नेमजी नाहला रे लो. ३ में छां भवभव तुमचा दाश के, चाकर रावला रे लो, आव्यो आपणा घर माहि के, माडावीया चाकला रे लो. ४ बेसो सांगामांची माहि के, धोवू पावला रे लो, कीजे भोजननी भली भात के, मीठा अति गल्या रे लो. ५ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह नेमजी दीधा वरसीदान के, खरी मन-खंत-शुं रे लो, चढीया गढ गिरनार के, रूडी रीत-शुं रे लो. ६ घाते कीधो संजमनो साथ के, पूरण प्रीत-शुं रे लो, साथे सहस परिवार के, समता चित्त-श्यूं रे लो. ७ एह, सुणीने राजुल नारि के, पूरव प्रीत-शुं रे लो, चाली पोते पीउने पास के, गजगतिगांमिनी रे लो. ८ लीधा पंच महाव्रत भार के, भली परे भामिनी रे लो, कीधो शिवपुरनो संघात के, साथे श्यामनी रे लो. ९ नेमजी राखो अविहड नेह के, राजुल नारि-शुं रे लो, आप्यो शील-शं रंगो [सुरंगो] घाट के, व्रत-आधार-शं रे लो. १० पोहता मोक्षपुरी मुझार के, सहु परिवार-शुं रे लो, धनधन बावीसमो जिनराय के, शीयल सणगार-शुं रे लो. ११ प्रभुजी, पोतानो करी दास के, पार उतारज्यो रे लो, देजो दोलत दीनदयाल के, दुरजन वारजो रे लो. १२ ताहरा सेवकनी अरदास के, चित्तमां धारजो रे लो, मांगे मेघ मुनि, मायबाप के, मुझने तारजो रे लो. १३ [क्र.१थी ३ जैनयुग, भाद्रपद १९८५-कारतक १९८६, पृ. १०१-१०२] ४. लावण्यसमयकृत तुंह जि जीवन मोरइ, अर न भामा, इस्यां वयण बोलइ राजलि रामा, रइमाइ[राइमइ]. १ नीठर न थइइ, नेमि नीठर न थइइ, दूहव्या विण देव दया करि न जद. रइमाइ, नीठर. आंचली. नव भव मोह माया, न मुकुं हुं पाया, जगत्रजीवन सुणि यादवराया, रइमाइ. ३ नीठर० लावण्यसमय कहइ, नीठर न नेमि, राजलि पुहचाडी जोउ शिवपुर खेमी, रइमाइ. ४ नीठर० (पत्र ७-१५, हा. भं. पाटण, दा.८२, नं.१३६, सिद्धांत चोपइ साथे)। [जैनयुग, वैशाख–जेठ १९८६, पृ.३४९] Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ प्राचीन जैन कविओनां वसंतवर्णन ('सुवर्णमाला'नो नवीन अवतार थयो अने तेना अंकोनुं बांधेलं पुस्तक मारा मित्र रा. चंदुलाले वांचवा आप्युं, तेमां गुजराती प्राचीन कविओनां वसंतवर्णन ए नामनो लेख चैत्र १९८२ना अंकमां छगनलाल विद्याराम रावळनो शरू थयेलो जोयो के जेमां नरसिंह महेताथी लई इंद्रावती (प्रणामी पंथनो) अने त्यार पछीना अंकमां कवि राजे भक्तथी लई साकरलाल पुरुषोत्तम शुक्लनां वसंतवर्णन लेवामां आव्यां छे. आ परथी जैन प्राचीन कविओनां वसंतवर्णन बने तेटलां एकत्रित करी प्रकट करवा पर विचार थतां तेनो अमल आ लेखमां करवामां आव्यो छे. आ वर्णनोना बे भाग पडी शके छे. एक तो वसंतनां छूटां काव्यो अने बीजां आखां लांबां काव्योमांथी वसंतनां प्रसंगोचित वर्णनो. हवे आ सर्व जोतां, जैनोना बावीसमा तीर्थंकर "नैष्ठिक ब्रह्मचर्यनो अनुभूत आदर्श आपनार यादव तीर्थंकर नेमिनाथ'' संबंधी जे काव्यो छे तेमां प्राय: वसंतनां वर्णन आपेला जणाय छे. वसंतनां छूटां काव्यो पण मुख्य भागे उक्त श्री नेमिनाथ संबंधीनां होय छे. जेम जैनेतर साहित्यमां 'बारमास' नामनी कृतिओ जोवामां आवे छे तेम जैन साहित्यमां पण 'बारमास' नामनी अनेक कृतिओ छे अने ते मुख्य भागे नेमिराजुल बारमास होय छे.. ज्यारे जैनेतर भक्तिसंप्रदायना रसात्मा, “कर्मयोगनो सक्रिय मार्ग उपदेशनारा वासुदेव श्रीकष्ण'ने मख्य नायक लई वसंतना उत्सवोमां पण तेने प्रधान पद जैनेतरोए आप्यं छे, त्यारे जैनमा प्रधान पद लग्न निमित्ते गया छतां पण लग्न न करतां राजिमती/राजुलनो त्याग करी धर्मदीक्षा लेनार नेमिनाथजीने आपवामां आव्युं छे. आम करी तेमज जिन-तीर्थंकरोनां स्तवनो-स्तुतिओ रची जैन कविओए भक्ति-साहित्य पण खीलव्युं छे. नेमिनाथ ते कृष्णना काका समुद्रविजयना पुत्र - पितराई भाई. नेमिनाथनी कथा प्रसिद्ध छे. तेमां एक प्रसंग खास वसंत ऋतुने उचित छे ते ए छे के - नेमिकुमारे कृष्ण वासुदेवनी आयुधशाळामां प्रवेश करी तेनो पांचजन्य शंख पूरीने वगाड्यो के जे शंख वगाडवा कृष्ण सिवाय कोई समर्थ न हतुं. कृष्णने खबर पडी ने ते प्रसन्न थया. भुजबळमां नेमिए कृष्णने नमाव्या. कृष्णे नेमिकुमार परणे तो सारुं एम विचार्यु, पण ते पूर्ण ब्रह्मचारी हता तेथी तेने लग्न प्रत्ये उत्सुक करवा पोताना अंत:पुरमा जवाआववानी छूट आपी तेमज पछी वसंतऋतुमां नगरजनो अने यादवोनी साथे पोताना अंत:पुर सहित रैवताचळना – गिरनारना उद्यानमां क्रीडा करवा कृष्ण नेमिनाथने लई गया. आ वखतर्नु वसंतनुं वर्णन नेमिनाथनां चरित्र ज्या-ज्यां छे त्यां-त्यां आपवामां आव्युं छे. नेमिनाथनुं मौन लग्नेच्छा तरीके स्वीकारी तेमनो विवाह राजिमती साथे नक्की थयो. जान गई त्यां रथमां बेठेला नेमिनाथे प्राणीओनो करुण स्वर सांभळ्यो. त्यां जई जोयुं तो Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह जणायुं के चीस पाडतां आ प्राणीओ आमिषाहारीने आहार पूरो पाडवा माटे बांधेला छे ने ए ‘पाहि पाहि' (रक्षण करो, रक्षण करो) एम बोलतां लाग्यां. दयार्द्र नेमिनाथे रथ फेरव्यो. लग्ननो त्याग कर्यो. राजिमती विलाप करवा लागी. दीक्षानो अडग निश्चय करी आखरे प्रव्रज्या श्रावण शुद ६ने दिने गिरिनारना सहस्राम्रवनमां लीधी, राजिमतीए पण तेनी पासे दीक्षा लीधी. आखरे बने सिद्धि पाम्या. श्री महावीर प्रभु पछी नंदराजाना समयमा स्थूलिभद्र थया. तेओ यौवनवयमां कोशा नामनी वेश्याने त्यां रहेल अने पछी तेमणे दीक्षा ग्रहण करी. तेमना चरित्रनो एक भाग ए छ के - एकदा एक चातुर्मास समये जुदाजुदा मुनिओ सिंह, गुफा आदिक पासे रही तपश्चर्या करवा माटे गुरु महाराजनी आज्ञा मागी त्यां गया. स्थूलभद्रे गुरुनी आज्ञा एम कही मागी के “हे भगवान्, हुं पण कोशा वेश्यानी चित्रशाळामां रहीने षड्रस भोजन सहित चातुर्मास रहीश." गुरु महाराजे पण ज्ञानोपयोगथी तेमने योग्य जाणी तेम करवानी आज्ञा आपी, अने तेथी स्थूलभद्रे कोशाने त्यां जई शुद्ध चारित्र पाळ्युं. ते चारित्र बीजा बधा शिष्यो करतां अति दुष्कर गुरुजीए जाहेर कर्यु. आ स्थूलभद्र अने कोशानो प्रसंग लई केटलाक जैन कविओए शृंगारमय वर्णन, तेमां वसंतवर्णन मूकी, करेल छे. आखरे त्यागनो बोध बताव्यो छे. केटलीक अध्यात्म-वसंतो पण गवाई छे. वसंत संबंधी होरीओ रचाई छे तेमांनी केटलीक अध्यात्म-होरीओ पण छे. वसंत संबंधीनां जैन कविओनां कथनो अने काव्यो केटलां रसिक छे अने जैनेतर कविओनां काव्यो साथे सरखावतां केवां मालूम पडे छे ए कार्य तटस्थ रसपिपासु वाचकजनोने सोंपवामां आवे छे. जैनेतर गुजराती काव्योमा प्रथम ज वसंत संबंधी वर्णन करनार नरसिंह महेता मळी आवे छे; ज्यारे तेमनी पहेलांना जैन कविओ वसंतवर्णन करनारा मालूम पडे छे. महा शुद ५ने वसंतपंचमी लोकमां कहेवामां आवे छे अने ते मासमां वसंतनुं आगमन थाय छे एवो ध्वनि ते परथी नीकळे छे; परंतु खरु जोतां फागण वद १ (मारवाडी चैत्र वद १)थी एटले होळीनो दिन फागण शुद पूर्णिमा पछी तुरत ज बीजा दिवसथी वसंत शरू थाय छे; छतां अत्र लोकमां माह मासी वसंतप्रारंभनी मान्यताने मान आपी माह-फागणचैत्र एम वण मासने वसंत ऋतुनां गणीने तेनां वर्णन आपवामां आव्यां छे.) विक्रम चौदमुं शतक १. अंबदेवसूरिकृत 'समरा रासु'माथी [अंबदेवसूरि निवृत्तिगच्छना पासडसूरि(पार्श्वदत्तरि)ना शिष्य छे. पाटणना समरसिंहे Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन कविओनां वसंतवर्णन १०९ काढेली संघयात्रानुं वर्णन करती आ कृति संघयात्रा सं.१३७१मां पूरी थई ते अरसामां रचायेली छे. जुओ जैन गुर्जर कविओ, बीजी आवृत्ति भा.१, पृ.२१-२२ तथा गुजराती साहित्यकोश खं.१, पृ.१७-१८ - संपा.] सहसारामु मनोहरु ए, माल्हंतडे, विहसिय सवि वणराइ, सुणि सुंदरे, पूजिय दरिसण पाय. कोइल-सादु सुहावणउ ए, मा. निसुणियइ भमरझंकारु. सुणि. (दशमी भाषा) रितु अवतरियउ तहि जि वसंतो, सुरहिकुसुमपरिमल पूरंतो, समरह वाजिय विजयढक्क. सागु सेलु सल्लई सच्छाया, केसूय कुडय कयंब निकाया, संघसेनु गिरि माहइ वहए. बालीय पूछई तरुवरनाम, वाटइ आवइ नवनव गाम, नय-नीझरण-रमाउलइं. १ (प्राचीन गुर्जर काव्यसंग्रह, भा.१, पृ.३५) विक्रम पंदरमुं शतक २. माणिक्यसुंदरसूरिकृत 'पृथ्वीचंद्रचरित्र'मांथी ("जयशेखरसूरिना नाना गुरुभाई मेरुतंगसूरि, तेमना शिष्य माणिक्यसुंदरसूरिए जूनी गुजरातीमां गद्यात्मक 'पृथ्वीचंद्र चरित्र' संवत् १४७८मां रच्यु छे. ते बोलीमां छे. अक्षरना, रूपना, मात्राना अने लयना बंधनथी मुक्त छतां तेमा लेवाती छूट भोगवतुं प्रासयुक्त गद्य ते बोली. माणिक्यसुंदर, बोलीवाळा प्रबंधने वाग्विलास एटले बोलीनो विलास एवं नाम आपे छे.' [के. ह. ध्रुव, पंदरमा शतकनां प्राचीन गुर्जर काव्य, प्रस्ता.] आ गद्यकाव्य ‘प्राचीन गुर्जर काव्यसंग्रह भा.१' (Baroda Oriental Series)मां छपायुं छे तेमां वसन्त संबंधी उल्लेख छ ने तेमां एक दुहो पण मूकवामां आव्यो छे.) [कवि अंचलगच्छना छे. कवि अने एमनी अन्य कृतिओ माटे जुओ जैन गूर्जर कविओ, बीजी आवृत्ति भा.१, पृ.४५-४६ तथा गुजराती साहित्यकोश खं.१, पृ.३०४-०५. – संपा.] तिसिइ आविउ वसंत, हूउ शीत तणुउ अंत, दक्षिण दिसि तणउ शीतल वाउ वाइं, विहसइ वणराइ. सव्वे भल्ला मासडा. पण वइसाह न तुल्ल, जे दवि दाधा रूंखडा, तीह माथइ फुल्ल. मउरिया सहकार, चंपक उदार, वेउल बकुल, भ्रमर फुल संकुल, कलरव करइं Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह कोकिल तणां कुल, प्रवर प्रियंगु पाडल, निर्मल जल, विकसित कमल, राता पलास, कुंद मुचकुंद महमहई, नाग पुन्नाग गहगहइं. सारस तणी श्रेणि, दिसि वासीइं कुसुमरेणि, लोक तणे हाथि वीणा, वस्त्राडंबर झीणा, धवल शंगार सार, मुक्ताफल तणा हार; सर्वांग सुंदर, मन माहि रमइ भोग पुरंदर. एकि गीत गवारई, विचित्र वादित्र वाजई, रमलि तणां रंग छाजइं. एकि वादिइं फुल चूटइं, वृक्ष तणा पल्लव खूटइं; हीडोलई हींचई, झीलतां वादिइं जलिई सींचईं, केलिहरां कउतिग जोअइं, प्रीतमंत होयइ. वनपालकि अवसर लही वसंत अवतरिया तणी वार्ता कही. राजा सोमदेव आव्या वन माहि, तेह जि सरोवर देखी कुंअरि सांभली मन माहि. तेतलई पुरुषि एकई तेह सरोवर-हूंतुं एक कमल लेइ रायरहइ दीधउं, राजा हाथि लीधर. तेतलइ तेह जि कमलमध्य हूंती नीसरी रत्नमंजरी कुमरी, दीठी नरेश्वरि. दु:ख तणां व्याप चूरियां, लोक आश्चर्य पूरिया. नगर मध्य वार्ता जणावी, राज्ञी कमललोचना आवी. दीठी बेटी, हुइ परमानंद तणी पेटी, परिवरी चेटी.. तिहां मांडिया वधामणां, महोत्सवि करी सुहामणां, विचित्र वादित्र वाजिवा लागा. ते कवण कवण ? वीणा विपंची वल्लकी नकुलोष्टी जया विचित्रिका हस्तिका करवादिनी कुब्जिका घोषवती सारंगी उदंबरी त्रिसरी झंखरी आलविणि छकना रावणहत्था ताल कंसाल घंट जयघट झालरि उंगरि कुरकचि कमरउ घाघरी द्राक डाक ढाक बूंस नीसाण तांबकी कडुआलि सेल्लक कांसी पाठी पाउ सांख सींगी मदन-काहल भेरी धुंकार तरवरा. इणि परि मृदंग पटुपडह प्रमुख वादित्र वाज्यां, दु:ख दूरि ताज्यां. इकवीस मूर्छना इगुणपंचास तान, इस्यां हुई गीतगान, याचक योग्य प्रधान वस्त्रदान. किस्यां ते वस्त्र ? सूथिला संग्रामां दाडिमां मेघवनां पांडुरां जादरा काला पीयलां पालेवीयां ताकसीनीयां कपूरीयां कस्तूरीयां फुदडीयां चउकडीयां सलवलीयां ललवलीयां हंसवडि गजवडि उडसाला नर्मपीठ अटाण कताण झूना झामरतली भइरव सुद्धभइरव नलीबद्ध प्रमुख वस्त्र जाणिवां. इणि परि महोत्सवभरि साथि कुमरि नरेश्वर पहुता नगरि. मन तणइ उल्लासि, आव्या आवासि. ३. हीराणंदसूरिकृत 'नेमराजुल बारमास'मांथी [कवि पीपलगच्छना वीरदेवसूरिना शिष्य छे अने एमनी अन्य कृतिओ सं.१५मी सदी उत्तरार्धनी मळे छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ, बीजी आवृत्ति भा.१, पृ.५२-५५ तथा गुजराती साहित्यकोश खं.१, पृ.४९६. त्यां आ कृति नोंधायेली नथी. - संपा.] माह महीने हो घणुं घणुं तमे, पालो पडे रे ठंठार, नेमजी रंजणे गिरनारे गयो, पुठीइ राजल नार, नेमजी न जाजो गिरनार पाधरा. ७ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन कविओनां वसंतवर्णन १११ फागण महीने हो घणुं फगफगे, उडे अबीर गुलाल, घर घर होली ओ नेमजी खेले, जय तम छबुतरे सुउण. नेम० ८ चैत चतुर गीओ चमकी, लागसी फुलीवा वणराय, छये ने रूतांरा फुल महमहे, भवर करे गुंजार. नेम. ९ ___४. 'देवरत्नसूरि फाग'मांथी ___ (कवि वसंतनुं मनोहर वर्णन आपी जणावे छे के मदनने जीती शुद्ध ब्रह्मचर्यमां यौवन गाळी देवरत्नसूरिए दीक्षा लीधी.) [कर्ता आगमगच्छीय देवरत्नसूरिना शिष्य जणाय छे. कृति सं.१४९९मां रचायेली छे अने 'जैन ऐतिहासिक गूर्जर काव्यसंचय' (संपा. जिनविजय)मां छपायेली छे. जैन गूर्जर कविओ, भा.१, पृ.६५-६६ तथा गुजराती साहित्यकोश, खं.१, पृ.३८३ पर आनी नोंध छे. – संपा.] रासउ ततक्षणि मित्र वसंत हकारिउ, कोमल वयणे ते तणि वारिउ, तउ गहगहिउ अपार, कणयर केतक नइ बीजउरी, पाडलकेसर करणी मठरी, तरणी गाई तार. ३४ फाग फलभरि सहकार लहकइं, टहकई कोइलवृंद, पारधि पाडल महिमह्या, गहिगहिआ मुचकुंद. ३५ चंदन नारंग कदलीअ, लवलीअ करई आनंद, रमइ भमई बहु भंगिइं. रंगिइं मधुकरबुंद. ३६ वनि वनि गायन गायई, वायइ मलयसमीर, हसिमसि नाचई रमणीअ, रमणीय नवनव चीर. ३७ किंशुक चंपक फोफलि, फलिआ तरूवर सार, मयण महीपति गाजइं, राजई रस शृंगार. ३८ काव्यं चापं पुष्पमयं शरानलिमयान् कृत्वा च सैन्यं स्त्रियो दूतं दक्षिणमारुतं मधुमथं मित्रं विधुं सैन्यपं, Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह उच्चैः कोकिलनादवाद्यनिवहः कामोऽयमामोहयन् विश्वं विश्वमदो मदोद्धुरतरः सज्जोऽभवद् दिग्जये. ३९ रास रतिपति अबला - बल सरिसइ, रीसइ चालउ वीर रे, मित्र वसंत प्रमुख निज परिकरि, परिकरिउ यति [ अति ?] धीर रे. ४० आविउ मुनिवर पासइ ते जवि, जव तव हउ उवसंताप रे, सीयल-कवच तसु देखी अति घण, धण गुण आराम चाप रे. ४१ ५. रत्नमंडनगणिकृत ‘रंगसागर नेमि फाग' मांथी (विक्रम पंदरमा सैकाना अंते सोमसुंदरसूरिना शिष्य रत्नमंडनगणिए आ अनुपम काव्य रच्युं छे.) [आ कृति आखी आ ग्रंथमां छापवामां आवी छे ते जुओ. संपा. ] रासक अवसर अवतरि रति (ऋतु) मधु माधवी, माधवी परिमल पूरी रे, कुसुम- आयुध लेई वनस्पती सवि, रही विरही ऊपरि सूरि रे. २१ मदन रणंगिणि सारथि परिमलभरि मलयानिल वाइं रे, सुभटि कि मधुकर करई कोलाहल, काहल कोकिल वाइं रे. २२ आंदोल [a], मदिरारूण नयणी, नार कि मरहठी ए, वनि वनि बईठी ए; पंथीप्राण पतंग, कालउं काजल भृंग, चंपक दीपकू ए, वनघर - दीपकू ए. २३ तेह सिरि वीणी ए; कुसुमित ए करूणी, जाणे किरि तरूणी, मधुकर श्रेणि ए, जंबीर बीजउरी, वेइल वउलसिरि, पाडल पारधी ए, मधुरस वारिधी ए. २४ फाग वाडीय सविहु कुसुमायुध - आयुध शाल हवंति, भमर रहई तिहां पाहरी, माहरि ए मनभ्रांति. २५ सेवंत्री फूलडइ महुर अर, महुअर रह्य जव दीठ. मुगध भणई तव राहुउ, आहुउ चंद्री बइठ २६ काव्यं ( शार्दूल) आवी ए मधुमाधवी रति (ऋतु) भली, फूली सवे माधवी, पीली चंपकनी कली मयणनी दीवी नवी नीकली; Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन कविओनां वसंतवर्णन पामि पाडल केवडी भमरनी, पूगी रूली केवडी, फूले दाडिम रातडी, विरहियां दोल्ही हुई रातडी, २७ फाग सुललित चरणप्रहारिइ मारइं कामिनीलोक. अधिक विहसंति अभागीया अभागीया तहवि अशोक; २८ कुचभरि करइ परीरंभ रंभा समाणी नारि, वनि वनि कुसुम रोमांकुर कुरबक धरई अपारि २९ पूरई षट्पद ऊलट फुलि [...]ट्यां वनखंड, त्रिभुवन मदन-महीपति दीपति अति प्रचंड. ३० काव्यं ओढी चादर चीर सुंदर कसी, दीली कसो कांचली, आंजी लोचन काजले सिरि भरी सीमंत सिंदुरनी; लेइ साथिई नेमिकुंवर सवे गोविंदनी सुंदरी, वाडीए गिरिनार डुंगरि गई सिंगारिणी खेलिवा. ३१ रासक वसंतखेलणि साथिई देवर, देवरमणी सम गोरी रे; पहुतली गिरिनार गिरि अंबावनि. बावनिचंदनि गोरी रे. ३२ अनंग - जंगम - नगरा बहु परि, परिणेवा मनावणहारी रे, ललाटघटित घनपीयलि कुंकुम, कुमर रमाडइ नारी रे. ३३ आंदोल कुमर रमाइ नारि, हींडोले हींचणहारि, उच्छंगि बईसारी ए सयरि सिंगारी ए; थाइ थुमणि थोर, दोलइ दीहर दोर, कंचण-चूडी ए, रणकई रूयडी ए. ३४ देउर(मार) उरवरि हार, वउलसिरी सुकुमार, नवनव भंगी ए, कुसुमची अंगी ए; त्रीकम - तरूणी तुंग, विरचइ सुचंग, अति अणीयालउं ए, खूप खूणालउ ए. ३५ फाग विचि विचित्र, कुसुम रचई खेमि, खूप खूणा अतिहि अलंकृत कलीहरि, हरि - रमणी लिई खेमि; ३६ कनक चउकीवट मांडती, [...] हा [स्य ?] रस पूरि, नेमि रमाडई सोगठे, सोग ठेसइं सवि दूरि. ३७ ११३ * Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह अढइआ वनखंडमंडन अखंड खडोखली, मलयानील पाडित जल-उकली, उकली चतुर दुआरि तु. धन धन० ३८ तेह जलि विलसतइं सवि अलवेसरि विगलित काजल कुंकुम केसरि; ते सरि सीहरि नारि तु. धन धन. ३९ झगमग झगमग झालि झबूकई, रिमिझिमि रिमिझिमि झंझर झणकइं; __झीलइ झाझइ नीरि तु. धन धन० ४० सुरभि सलिलभरी सोवन सींगी केसव-सुंदरि सकल सुरंगी, सींचई नेमि सरीर तु. धन धन० ४१ ईण परि विविध विलासे रमणीय नेमिकुमर मनि अचिल जाणीय, पाणीय रमलि मझारि तु. धन धन. ४२ वानि जिसी हुइ चंपकनी कली, रूपि करति अपछर नीकली, नीकली बाहिरी नीसरी. धन धन० ४३ सरीरि करइं सिणगार, पहिरइं चीर मनोहार, रमणी कुसुम-सुकुमार. धन धन० ४४ नेमिपाय पडी ईम भणइ, अम्ह भणी करि न पसाउ, साव सलुण तुं मानि-न मानिनी परिणउ भाउ, नेमि कदाग्रह भागउ, लागउ मौननई रंगी, तव मनि मानिउं जाणीय, राणीय उलटई अंगि. ४५ - इति रंगसार नाम्नि श्री नेमेजिन फागे विवाहाकार वर्णन. विक्रम सोळमुं शतक ६. लावण्यसमयकृत 'नेमिनाथ हमचडी'माथी [कवि माटे जुओ ‘रावण मंदोदरी संवाद'नी नोंध, आ कृति सं.१५६४मां रचायेली छे अने 'कवि लावण्यसमयकृत लधु काव्यकृतिओ' (शिवलाल जेसलपुरा)मां छपायेली छे. - संपा.] करि वालाका वीजणा रे, वली वसंतईं वास्या, फुलदडा करि फुटडा रे, पान कपूरईं वास्या रे. हमचडी. ३० कान्हुअडइ तव कूड कमायूं, नेमिकुमर तेडाव्या, अवसर आज वसंतनुं रे, अंतेउरा भलाव्या रे. ३१ ह. Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन कविओनां वसंतवर्णन ११५ वारू वन रलीआमणां रे, आंबा राइणि रूडां, कोइलि करइ टहूकडा रे, राती चांचइ सूडा रे. ३२ ह. द्राख तणा छइ मांडवा रे, नवरंगी नारिंगी, चिहु पखइं तरू मुरीआ रे, चउखंडी छइ चंगी रे. ३३ ह. नरवर [चडवड] चतुर्भुज आवीया रे, गोपी सवि सनकारी, नेमिकुमरि भलावीया रे, वलीया देव मुरारी रे. ३४ ह. गोपी लोपी लाजडी रे, लाछि वडी पटराणी, आलि करि ऊछांछली रे, बोलई वांगड वाणी रे. ३५ ह. खडोखली छइ मोकली रे, राणी राउल वाही, हरखि हसइं हासां करि रे, देउर सिउं भुजाइ. ३६ ह. कमलनाल भरि भरि छांटइ, चंद्राउली राखइ साही, रूप देखाडइ रूकिमिणी रे, किम जासिउ अम्ह वाही रे. ३७ ह. विक्रम सत्तरमुं शतक ७. जयवंतरिकृत 'नेमिजिन स्तवन'मांथी (जयवंतसूरि विक्रम सत्तरमा सैकाना प्रारंभमां थया. तेमणे 'शृंगारमंजरी' नामर्नु अति मनोहर काव्य कर्यु छ ने ते उपरांत बीजां काव्यो रच्यां छे. एक ट्रंकु नेमिजिन स्तवन रच्यु छे तेमांथी नीचे- वसंतवर्णन आप्युं छे.) [कवि वडतपगच्छना विनयमंडनना शिष्य हता अने सं.१७मी सदी पूर्वार्धमां थया छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ, भा.२, पृ.६९-८० तथा गुजराती साहित्यकोश, खं.१, पृ.११३-१४. 'जैन गुर्जर कविओ' मां आ कृति नोंधायेली नथी. पण 'शमामृतम्' (संपा. धर्मविजय)मां छपायेली छे. - संपा.] समुद्रविजय सिवादेवि सुत, सोहि नेमि सरूप, ऋतु वसंत इणि अवसरि, पसरिउ सवि ऋतु भूप. ३ फाग पसरिउ मलय महाबल, महाबलि करतु व्याप, युवतिजन रत जलहर, लहरि हरइ जनताप. ४ मुनिमनमोहन मानिनि, मानिनि रास करंति, पंथिजनमनि यम सम, नियम समाधि हरंत. ५ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह काव्यं कोकिला टहु करि आंबलइ, तेह तणइ सरि वियोगिआं बलई. साभिमानना कठोर हैया बलइ, तरूवरि कुंपलि आंबलइ. ६ फाग विरहीजन-मन-दारण, दारूण करवतधार, वनिवनि विहसि केवडी, केवडी भमर झंकार. ७ नव नव चंपकनी कली, निकलइ परिमलपूर, किहि चंदन अहि नव कुल, बकुल लता गुण भूरि; ८ काव्यं वसंत मासि पंथीजन कामिनी, वाट जोइ उभी गजगामनी, जाइ यौवन जेम सौदामिनी, वरसनी परि जाइ यामिनी; ९ दहा रितु वसंत इम व्यापिउ, नेमि जिन वनह मझारि, केशव-कामिनी परिवर्या, खेलइ विविध प्रकारि. १० राग मल्हार वृंदावनमां वन वन तरू तलई, सरोवरजल सुविचार रे, राधा रूकमिणि भामा भामिनी, क्रीडइ नेमिकुमार रे. ११ माधव-मानिनि मुनिमन-मोहनी, खेलइ मास वसंत रे, मयण-महातरू-मंजरि मदमती, मयगल जिम मलंति रे. १२ द्रुपद के करकमलि छांटि जलभरी, के वर केसर-रोल रे, के नेमि छेहडइ वलगइ आवती, केती करइ टकोल रे. १३ नयन मींचांवइ कोएक पूंठिथी, कोइ छपावइ बाल रे, . कोइ करी माला नवनव कुसुमनी, कंठि ठवइ सुविशाल रे. १४ वंठ तणि परि तुं भमइ एकलो, मनि धरि नारि-उछाह रे, इम करी नारि नेमि मनावीया, राजमति-वीवाह रे. १५ ८. जयवंतसूरिकृत 'नेमनाथ बारमास'माथी. ___ (आ कृति अप्रकट छे तेनी सं.१६९७मां लखायेली प्रत मळी छे, तेमांथी माह, फागण ने चैत्र मासनां वर्णन लईए.) Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन कविओनां वसंतवर्णन [आ कृति 'प्राचीन - मध्यकालीन बारमासा संग्रह' (संपा. शिवलाल जेसलपुरा ) मां छपायेली छे. अहीं पाठशुद्धिमां एनो लाभ लीधो छे. संपा. ] - देशी माहिइ अति ऊमाहीआ, रहिइ मन मांहि झूरि रे. वैद्य जे विरहवेदन तणउ, ते वाल्हेसर दूरि रे. मा० ऊमाहीआ मन मांही रहीइ, जेम पंखी पांजरइ, देसाउरी सो सजन मेरा, सास पहिला सांभरे, सखी, सोइ सुंदर अवर अंतर रयणरेड नइ काकरा, स पीआरडु पीउ कही मिलसि, हसत मुख गुण - आगरा. ३५ दूहा जाणुं सो कब वीसरे, छूटइ नेहके बंदि, जिहां जोउं तिहां सामुहो, वाल्हा तुज मुखचंद. ३६ मुझ मनि निसिदिन तुम्हे वसो, तुम्ह मन कल्युं न जाय, तुम्हा विणदीठइ सुख नहीं, घडी जमवारो थाय ३७ निसि मोटी, निद्रा नहीं, पांगरी यौवनपालि, वाहालो विदेसी, विरह रे, जिम चाले तिम सालि. ३८ देशी फागुणे केसू कुंपल्या, दावानल वीछड्याइ रे, केस्यू रंग विना विरही कां दैवे घड्याइ रे. फा० कुंपल्या केसू लाल वेसू, कपुर केसर छांटणां, गुलालि राती छांटि [ छींटि] माती, उपरि आछां ओढणां, ए जोडि मदमति हसति खेलति देखतिइ दुख संभरे, पीउ विना कहे - स्युं वसंत खेलुं ? छांटणां पचरकी भरे. ३९ दुहा फागुण होली सहु करे, वीछड्या हि बार मास, सजन ! छोडावो विरहथी, जो अम्ह जीवित - आस. ४० प्रीति प्रीति सहु को कहे, अम्हे तु जाणउ वइर, दाझी दाझी ते मरे, चइ अंगारा खइर. ४१ लोहि रे घड्यु रे हीआ, कइ घडीओ वयरेण, नेहि धीक्यु फाटो नही, वालिंभ-विरह-घणेण. ४२ ११७ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह राग सामेरी, कृष्ण बारमासनी ढाल कोइलडी कहू कहू करी, कोयल डीलि लगाइ, . मदमस्त मानिनि परिहरी, कोइ लडी इणि समई जाइ. ४३ सखि ! चैत्र मासे अंब मोर्या, अति मधुर मलय सुवाय, पीउ विना पीडे पुष्पकेतन, केतकी करवत थाय रे. ४४ वालंभजी ! इणि रतिईं, मनमथ माहलीइ रे मदमत्त यौवन पूर रे, लालनजी ! वीनति करूं मन वालीइ रे. अति घणुं न कीजे जुर रे. वालंभ. सज्जन, विरहे ताहरे, लागी वेडि सरीरि, सायर नीसासे सर्या, भर्या ते आंसुनीरि. ४५ जाणुं जे उडी मिलं, सूडा आपि-न पांख, दरसनि मीठा सजन ते, जेहवी आंबा-शाख. ४६ जाणुं वली वली मुख जोउं, केडि न छंडु रेख, अमीइ घड्या रे सज्जना, जोता म करिसि तेख. ४७ ९. नयसुंदरकृत 'नळदमयंती रास'माथी (सं.१६६५मां रचायेली आ कृतिना प्रस्ताव ९मांथी. (आ. का. म., ६, पृ.२९५) आ एक ज जैन कृति छगनलाल रावळे “गुजरातना प्राचीन कविओनां वसंतवर्णन' ए लेखमां लीधी छे. अने तेना संबंधी लख्युं छे के “नळदमयंती रास' माथी वसंत ऋतुने लगतो ज भाग अहीं लीधो छे. भाषा के. ह. ध्रुवना 'गुजरात शाळापत्र'मां प्रसिद्ध करेला 'वसंतविलास' पछीनी छे. आ रासनी रचना भालण अने कवि प्रेमानंदनां 'नळाख्यान' करतां जरा पण ऊतरती नथी, बलके केटलीक जगोनुं वर्णन तो तेमना करतांये तेमणे घणुं सारं कर्यु छे एम न्यायनी खातर न कही शकाय ?" ('सुवर्णमाला'नो वसंत अंक, चैत्र १९८२, पृ.६-७)) [वडतपगच्छना भानुमेरुशि. नयसुंदर माटे जुओ जैन गूर्जर कविओ, भा.२, पृ.९३-१११ तथा गुजराती साहित्यकोश खं.१, पृ.२०४-०५. - संपा.] रति वसंत एहवे आवीओ, चतुर लोकनी मनि भावीओ, पुष्पित फलित हवी वनराजि, रहे शशि [शिशिर] रति निज मन-स्युं लाजि. पसरियो मलयाचल वनवाय, मंजुरियां अंब सदल सछाय, स्वर पंचम कोकिला आलवि, मधुकर तास सरति पूरवि. ९५ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन कविओनां वसंतवर्णन अभिनव केलि करे दंपति, इणे समे नल-दमयंती सती, प्रमोदभरि मधुखेलन - कामि, सपरिवारि आव्यु आरामि. ९६ कुसुम - केलि जलक्रीडा सार, दोला-केलि करे मनोहारि, केलिहरा रचीयां अति रम्य, तिहां राजा बेठु अभिगम्य ९७ वसन्तपूजा करी सुविवेक, दीयां दान गायक अनेक, सन्ध्या समु हवं एतलिं, वैतालिक बोल्यां १०. भानुचंद्रकृत ऋषभदेव वसंत गीत तेतलि. ९८ [कृति 'जैन गुर्जर कविओ' के 'गुजराती साहित्यकोश खं. १ 'मां नोंधायेल नथी. कर्तानी विशेष परिचय पण प्राप्त नथी. संपा. ] राग धमाल वसंतसिरि साजन खेले हो, खेले हो भुवनदयाल. वसंत. खेले हो ऋषभ भूपाल. वसंत . खेले हो मरूदेवीबाल. वसंत० ११९ एक दिन मास वसंत - खेलनकूं, नाभि नरिंदको नंद, बल जाउं, भरतादिक बहु निज परिकर युत, साथे सुर असुर नरवृंद. ब० वसंत० १ त्र्याशी लाख भए हे पूरवके, तिण समे आए उद्यान, ब० विहंगालाप भमर गुंजारवें, मधु नृप करत बहु मान. ब० वसंत ० २ गावत गीत कोकिल पंचम स्वर, बाजन ताल बजाय, ब० पवनप्रेरित पल्लव अभिनयसें, मानुं नृत्य करत वनराय. ब० वसंत ० ३ कुसुमके बागमें कुसुमधनुष रिपु, कुसुमभूषन सब देह, ब० कुसुम-गिंदुक निज हाथ लीयो हे, बेठे हे कुसुमके गेह. ब० वसंत० ४ [ दो ] खेल सुखनिर्भर खेले, सुत सहस्र परिवार, ब० क्रीडारसमें मगन सब देखत, जिन लहत हे हरष अपार ब० वसंत ० ५ इण समे अरज करत लोकांतिक, दीक्षाअवसर देव, ब० छोरि विभाव स्वभावमें खेले, तीरथपति भमे स्वयमेव ब० वसंत० ६ आतमभाव- वसंतमें खेलत, प्रगटे ऋद्धि रसाल, ब० त्रिभुवन भानकी आन धरि शिर, दिन दिन हुये मंगलमाल. ब० ११. लाभोदयकृत 'नेम - राजुल बारमास' मांथी वसंत० ७ (कृति सं. १६८९ आसो सुद १५ना रोज रचायेली छे.) [कर्ता भुवनकीर्तिना शिष्य छे. एमनी अन्य कृति सं. १६९५नी मळे छे. जुओ जैन Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह गूर्जर कविओ, भा.३, पृ.२७९ तथा गुजराती साहित्यकोश, खं.१, पृ.३८३. – संपा.] सखीरी, माह मास किम कीजे, नेमजी तिलमात्र न भीजे, बने रंगभरि सेज रमीजे, ते जीवित सफल गणीजे, हो लाल, नेमजी नेमजी करती. ८ सखीरी, फागण मास सुहावे, नरनारी चंग वजावे, तिहां अबीर गुलाल उडावे, साहिब क्यु अजीय न आवे, हो लाल. ९ सखीरी चैते न करूं सिणगारा, नवि पहिरूं नवसर हारा, भोजन लागे मुझ खारा, प्रीतम विण कवण आधारा, हो लाल. १० १२. भावविजयकृत 'नेमिनाथ वसंत'मांथी (कर्ता विजयदेवसूरिना शिष्य छे.) [कर्ता के कृति 'जैन गूर्जर कविओ' के 'गुजराती साहित्यकोश खं.१'मां नोंधायेल नथी. - संपा.] राग धमाल आयो जब ऋतु सुरभिमनोहर, सब ऋतुके सरदार, बल जाउं. . नेमकुमार खेलन चले हो, लीनो है जदुपरिवार. ब. १ मोहन जिन खेले रंग भरी हो, अहो मेरे ललना, मोहत सब नरनार. मोहन० आंकणी. फूल अमूलको टोडर पेर्यो, बडो बहोत सोभाग, बल. लाल गुलाल अबीर उडावत, गावत गुणिजन फाग. ब. मो० २ सरस कुसुमरस केशर-मिश्रित, चंदन-चर्चित अंग, ब. कनक-अधिक छबि निरखत जाके, जनमन हरख सुरंग. ब. मो. ३ सार शृंगार हार मोतिनको, पहेरी प्रभुपें आय, ब. खेलत सकल गोपाल-बालिका, घेर लीयो यदुराय. ब. मो० ४ कोमल कमल विमल दल भरकें, छिरके निर्मल नीर, ब. अति बहु हसत वदन धरि नीको, व्याकुल व्रज परिवार, ब. मो० ५ वचन रसाल बाल गोपिनके, बोले बोल बनाय, ब. वस आये प्रभु बहोत दिनोंके, छोडेंगें व्याह मनाय. ब. मो. ६ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ प्राचीन जैन कविओनां वसंतवर्णन विक्रम अढारमुं शतक १३. राजहर्षकृत नेमि फाग (राजहर्षनी सं.१७०३ अने १७३२नी कृतिओ मळी आवे छे. जुओ नं.२९६, जैन गूर्जर कविओ, भा.२.) [उक्त खरतरगच्छना ललितकीर्तिना शिष्य राजहर्ष ज आ कृतिना कर्ता छे एम अनुमान करवानुं रहे, केमके आ कृतिना अंतभागमां गुरुपरंपरा नथी. कवि -अने कृति माटे जुओ जैन गूर्जर कविओ, भा.४, पृ.७१-७४ तथा गुजराती साहित्यकोश, खं.१, पृ.३५४. आ कृति जैन सत्यप्रकाश, मार्च १९४९मां पण छपायेली छे. - संपा.] भोगी रे मन भावीयो रे, आयो मास वसंतो रे, नरनारी बहु प्रेम-सुं, केलि करे गुणवंतो रे. १ फाग रमे मिलि यादवा, गिरिधर नेमिकुमारो रे, ओधवजी महसेनजी, मलिया दसे दसारो रे. २ फाग० बलभद्रजी बोले तिहारे, सांभल सारंगपाणी रे, चालो नंदनवन जाइने, केलि करां मनमांनी रे. ३ फाग० मोर्या आंबा आंबली रे, मोरी दाडिम दाखो रे, कोइलडी टहुका करें, बेठी सरली साखो रे. ४ फाग. नीलेरा नींबु घणा रे, नही नारंगी पारो रे, पाडलि परिमल महमहें, भमर करे गुंजारो रे. ५ फाग. मरूयो दमणो मालती रे, जंबु जेही जायो रे, एक न फूली केतकी, सहु फुली वनरायो रे. ६ फाग. वारू वेस विराजता रे, सीस सुरंगी पागो रे, चंबेली फूलेल-सुं, सुगंधे भीना वागा रे. ७ फाग. पहिर अरगजा महकता रे, कंठ कुसुमरी मालो रे, फाग तणा वलि फूटरा, गावे गीत रसालो रे. ८ फाग. छयलछबीला राजवी रे, मानीता मछरालो रे, सागर संब प्रजुन-सुं, खेले बाल गोपालो रे. ९ फाग. खास खवास तिहां घणा रे, सिर सोनारा झाबा रे, पाखतीयां ऊभा रहे, हाथ पानारा डाबा रे. १० फाग. गेहर विराजे [विच जो] जादवा रे, तिणमा माधव माझी रे, नेम नगीनो जाणीयें, जेहनी कीरति झाझी रे. ११ फाग. Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह सोल सहस्र गोपी मिली रे, मनमोहन मदमाती रे, -घूमर घालें चिहुं दिसें, नृत्य करें गुण गाती रे. १३ फाग. ताल सहित स्वर चालवें रे, गान करे गुणमाला रे, माधवजी मन मोहीयो, वाजें वेणु कंसाला रे. १४ फाग. रामगिरि मलयागिरि रे, हरिसेना हरिसाली रे, गावे गीत सुहामणा, दे ताली मुख बाली रे, १५ फाग. हरि बोली हासो करे रे, जयसेना तिहां वारे रे, पूठि पूठि रही पुहपावती, नयणां काजल सारो रे. १६ फाग० रूकमणि खेलें राधिका रे, हसितमुखी हरणाखी रे, जंबुवती भामा सती, रंग रमे रस राखी रे. १७ फाग. भोले भूली भांमिनी रे, बलिभद्रजी-सु बोले रे. गोठ दीयो गोपी भणी, कटिपटको तिहां खोले रे. १८ फाग. नांखे अरगजा कुमकुमा रे, नांखे गुलाल अबीरो रे, भीजे भोगीरो चोलणो, भींजे गोरीनो चीरो रे. १९ फाग. केसर घोल कपूर-सुं रे, भामिनी भरि भरि लोटा रे, छयल पुरूष छांटे तिहां, हसि हसि ये तालोटा रे. २० फाग. छल देखी राणी कहे रे, सांभल कंत मुरारी रे. घणा दिवस जाता तुम्हे, आज अम्हारी वारी रे. २१ फाग. नांखे पिचरका प्रेमका रे, अबीर गुलाल उडावे रे रूकमणि ने चंद्रावती, हरीने घणुंअ हसावे रे. २२ फाग. देखी देवर दूरथी रे, हरि-भामिनि तिहां आवे रे, नेमिकुमार उभो तिहां, जंबुवती बोलावे रे, २३ फाग० लाज मरां म्हे लोकमें रे देवर अजे कुमारो रे, विण परण्यां हिव नेमिजी, नहि मुकां निरधारो रे. २४ फाग. कूडकपट तिहां केलवी रे, नेमि विवाह मनायो रे, राजमती परणाविसां, मुरलीधर मन भायो रे. २५ फाग. राजवीए मिलि राजवी रे, कुमरें कुमर वसीला रे, भामिनि-सु मिलि भामिनी, खेले फागु रसीला रे. २६ फाग. फाग रमी घरि आवीया रे, सुख विलसे असमानो रे, होडि करे कुण एहनी, सोहे अधिक सनेहो रे. २७ फाग० Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन कविओनां वसंतवर्णन १२३ जो रे तोरे जादवा रे, जलधरवरणी देहो रे, गोपी विचमें वीजली, सोहे अधिक सनेहो रे. २८ फाग. राज करे रिणछोडजी रे, सब जनमन सुहायो रे, किसी अनूरति तेहनी, जेहने राम सखाई रे. २९ फाग. समुद्रविजय सुत नेमजी रे, जीव सकल प्रतिपालो रे, राजहर्ष बहु भाव-सों, गाई फाग रसालो रे. ३० फाग० - इति फाग समाप्त. १४. सिद्धिविलासकृत नेमराजुल गीत (र.सं.१७१५. आनी प्रत सं.१७६३ना फागण शुद १३नी कविनी स्वहस्तलिखित मळी छे. तेमां लख्युं छे के : संवत सतरे सटे फाल्गुन तेरस जांण. ___पंडित सिद्धिविलासगणि, एह लख्यो सुप्रमाण.) [आ खरतरगच्छना सिद्धिवर्धनना शिष्य होवानी संभावना छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ, भा.५. पृ.३५५ अने गुजराती साहित्यकोश, खं.१, पृ.४६२. आ कृति 'जैन गूर्जर कविओ' मां नोंधायेली नथी, अने सिद्धिविलासनी 'चोवीसी' (र.सं.१७९६)नी प्रत गुणविलासने नामे पण नोंधायेली छे (जुओ जैन गूर्जर कविओ, भा.५, पृ.३५६) तेथी सिद्धिविलास अने गुणविलास अपरनामो होवानी शंका थाय. 'गुजराती साहित्यकोश' गुणविलासनी नोंध लेतो नथी. ए सिद्धिविलासने नामे सं.१८००नो 'शील रास' नोंधे छे ए जोतां कविनो कवनकाळ घणो दीर्घ - सं.१७१५थी १८०० - ठरे. जोके काव्यमां ‘सतरे पनर' शब्दो जे रीते आवेला छे ते रीते ए रचना संवतदर्शक होवा विशे संशय रहे छे. कदाच पाठ भ्रष्ट होय. – संपा.] राग धमाल राजुल नारी एम पयंपे, सुण हो नेमकुमार, ललनां, फागुण मास रंगीलो आयो, करीये हो क्रीडा अपार, ललनां, मन मोह्यो हमारो नेमजी हो. अहो मेरे प्रभुजी ! तुंही मुझ प्राण आधार. मन० आंकणी. १ एह रूति छे रमवा केरी, आय मिलो थें आज, ललना, बहुविध रीझावंगी तुझने, पूरो मुझ वंछित काज. मन० २ नरनारी मिलि फागुण मांहे, लाल गुलाल अबीर, ललनां, मरद मूंछाला वागा पहिरे, नारीने दक्षिण चीर. मन० ३ फागुण मास रंगीलो सोहे, मोर्या छे सहकार, ललनां, कोयलडी निज प्रीति धरीने, बोले ते साद श्रीकार. मन० ४ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ दमणो ने वलि मालती मोर्या, नींबूं ने नालेर, ललनां, नारिंगी जांबू मन मोहे, फागुणने हुवे जेर. मन० ५ बहुविधनी वनराई फूली, आवे सखरी द्राख, ललना, प्राणपीयारा सुण हो कंता ! वाण अमीणीय भाख. मन० ६ ततथेइ ततथेइ नाचत, पेखो हो नेम सुजांण, ललना, नाटक देखतां मन हींसे, सतरे पनर वर्धमाण. मन० ७ नव भव केरी प्रीत जांणीने, आइ मिलो अबकी बेर क्युं प्रीति उतारी, छोड़ चले यदुराय मन०८ राजुल दोनूं तिहां मिलीया, शिवपुर जिहां आवास, ललना, ते नारी हिव मोकुं देजो, वीनवे सिद्धिविलास. मन० ९ १५. मेरुविजयकृत 'वस्तुपाल तेजपाल रास' मांथी (र.सं. १७२१.) महाराय, ललनां, [ कवि तपगच्छना रंगविजयना शिष्य छे. एमनी अन्य रासकृतिओ सं. १७२२थी १७५४नां रचनावर्षो बतावे छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ, भा.४, पृ.३०७ - १० तथा गुजराती साहित्यकोश, खंड १, पृ. ३२७. 'वस्तुपाल तेजपाल रास' सवाइभाइ रायचंद द्वारा प्रकाशित थयेल छे. संपा. ] प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह - ढाल वसंतनी वसंत मास भले आवीओ रे, फली फूली वनराय, भोगी भमरा रणझणे रे, कामी जनमन थाय, वसंत भले आवियो हो, खेले सहु नरनारि. १ वसंत ० अंब लिंब दाडिम फल्या रे, फलिया ते सहकार, केसु कदंबक केवडो रे, तिहां कोयल करे टहुकार. २ वसंत ० वृंदावृंद राय खेलतो रे, करतो रंगविरंग, केसर गुलाल तिहां छांटतो रे, छांटे नीर सुचंग. ३ वसंत ० ताल तमाल तिहां जाइ जूइ रे, मोगर लालगुलाल, चंपक केतक मालती रे, दमणो मरूओ रसाल ४ वसंत ० छैलछबीला खेलता रे, खेले सरखी जोडि, ताल वृंदाल [मृदंग?] चंग गाजतो रे, थेई थेई करे नर कोडि. ५ वसंत ० भरिय खंडोखली झीलता रे, चंदन करी घनघोल, वसंत खेले त्यां राजीयो रे, वलि आवे नगरनी पोल. ६ वसंत. Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन कविओनां वसंतवर्णन १२५ १६. नयविजयकृत नेमिनाथ वसंत धमाल [देशाईए आ कृतिने नयविजयशि. यशोविजयनी मानेली, पण एम मानवा माटे कशो आधार नथी. 'गुजराती साहित्यकोश खंड १' आने नयविजयने नामे ज मूके छ (पृ.२०३). आ कया अने क्यारे थयेला नयविजय ते नक्की थतुं नथी. – संपा.] राग वसंत धमाल मास वसंत हसंत सुहायो, आयो सहज सनूर, ललना; में तव पाया नेमजी हो, खेले आणंदपूर. १ फाग खेलत पिया नेमजी हो, अहो मेरे ललना, गोपांके संग सुरंग. फाग० ए आंकणी. फूल बन्यो सब सेहरो हो, श्रवणमें सोहे फूल, ललना, बाग बने सब फूलकें हो, फूलकी शोभा अमूल. फाग० २ चंग मृदंग बजावत गावत, माचत नाचत रंग, ल. लाल गुलाल ऊडावतां हो, पावत आणंद अंग. फाग. ३ भरीय खंडोखली कुंकुमे हो, खेले नेम मुरारि, ल. हरिसंकेतें हरिप्रिया हो, नेमिकुं छिरकत नारि. ल. फाग. ४ घेरि रही सब कामिनी हो, मधुकर ज्युं सहकार, ल. रूक्मिणी प्रमुख हसी कहे हो, देवर वरो एक नारि ल० फाग० ५ लाजथी जब प्रभु हस रहे हो, तब सब पायो हरष, ल. जाय कहे पिया कानकू हो, मान्यो व्याह नेमजीयें सरस. फाग० ६ व्याह मनाये गिरधर आये, पायो हर्ष अपार, ल. नयविजय प्रभु गावतां हो, नित्य नित्य जयजयकार. फाग. ७ १७. विनयविजयकृत नेमिराजिमती बारमास (र.सं.१७२८, रानेरमा. जैन काव्यप्रकाश, पृ.२३८) [ कवि तपगच्छना कीर्तिविजयना शिष्य छे अने एमनो समय सं.१७मीना अंतथी १७३८ सुधीनो मळे छे. कवि तथा एमनी कृतिओ माटे जुओ जैन गूर्जर कविओ, भा.४, पृ.७-२७ तथा गुजराती साहित्यकोश, खं.१, पृ.४१०. कृति ‘प्राचीन-मध्यकालीन बारमासा संग्रह' (संपा. शिवलाल जेसलपुरा) तथा अन्यत्र छपायेली छे. – संपा.] नार विना महा मासनी, रयणी न विहाय, शूनी सेजें तलपतां, [खण] वरसां सो थाय. ६ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह प्रह उठी पीउ नेमशं, जमी उन्हां अन्न, घर आवो तो वालहा, घणां करूं रे जतन्न. ७ तेल तंबोल ने तूलिका, तरूणीने तनताप, सेज-सज्जाइ सज्ज करूं, न होयें शीत संताप. ८ फागुणना दिन फूटरा, जो होय प्रीतम संग, खेलुं लाल गुलाल-शं. चढते ऊछरंग. ९ भोली टोली सरव मली, होली खेले खंत, कंत विछोह्यां माणसां, ए दिन सालंत. १० चइतरे तरूअर चिताँ, फूली [सवि] वनराय, परिमल महके पुष्पना, मधुकर गुण गाय. ११ जो पीउ एह वसंतमा, घरमां आवी वसंत, तो मुज हैयडु उल्लसे, कुंपल [सं] विकसंत. १२ १८. माणिक्यविजयकृत 'राजुलनी बारमासी मांथी (र.सं.१७४२. कवि पहेला प्रथम मास चैत्रथी वसंतनुं वर्णन करे छे, अने ए रीते विरहिणी राजुलना बारमास गाई पूरा करे छे.) [कवि तपगच्छना क्षमाविजयना शिष्य छे. कवि अने एमनी कृतिओ माटे जुओ जैन गूर्जर कविओ, भा.५, पृ.४१-४३ तथा गुजराती साहित्यकोश, खं.१, पृ.३०४. कृति 'प्राचीन-मध्यकालीन बारमासा संग्रह' (संपा. शिवलाल जेसलपुरा)मां छपायेली छे. – संपा.] चैत्रे चतूरा रे चिंतवे, चित्तमें राजूल नारि, न आव्या नेमि जिनेसर, प्राणेसर आधार, कहो रे सखी हवि किम रहुं, निरवहुं नाथनूं दूख, कंतवीयोगें कामनी, जामनी-दिवस न सूख. ३ चित्र भली चित्रसाली रे, आली ! निहाली न जाय, पिउ विण रांन समांन ए, थावि [धावे] नावें दाय, मृगमद चूर कपूरनो, भूर कर्यो रंगरोल, नाह पाखि रे गमे नही, केसर-चंदन-घोल. ४ ओ पेली कोयल बोले रे, डोलें आंबलाडाळ, श्रवणें सबद सूंणी सुंणी, वाधी विरहनी झाल, सहियर, वाय न ढोलो रे, खोलो उपाय न अन्य, नाथवियोगें ए मोरडी, गोरडी दाझिं तन्न. ५ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ प्राचीन जैन कविओनां वसंतवर्णन [ढाल] टलवलि नारिं भरतार पाखिं, उर थकी हार उतारिं नांखिं, अति घणां आंसूं पाडिं बेहुं आंखिं, किणिं विधिं जइ मलिं विगर पांखिं. ६ सरसती मात सुपसाय पामी, निज गुरू-पाउलें सीस नामी, मास पहेलें भली सरस वातां, भणिं माणिक्य तें उपजे हर्ष गातां. ७ माहे उमाहि रे माहरूं मनडूं मलवा रे काजि, लेख-संदेश न मोकले वालम आणी पाज्य [वाजि], यौवनदहाडा रे दोहिला, दोहिलो कामसंताप, पीड न जाणे रे नाहलो, किम करी राखं आप. ५२ दीरघ रयणी न जाय रे. टाढि धुजे रे अंग, वयर वसाव्युं रे नीद्रडी, सोहणे न मलिं संग. हाडें रे वेहनिं पाडतो, हालिं हिमालय वाय, अबला रे झूरे एकली, विरहि तन सोसाय. ५३ आशविलूधा रे माणस, आखो दिन अवटाय, जाय जमवारो जेतलो, ते अणलेखे थाय. बिहिन, वेग सिधाओ रे, धाओ म लाओ वार, आणो तुरत मनायनें, जानें बंधु-मुरार. ५४ [ढाल] तरफडे विरहिणी विरह वाध्यो, मनमथिं मोहनो बांण साध्यो, दुख घणुं दोहिलूं तन्न सालि, प्रांणजीवन विना कुंण पालिं. ५५ सरसती मात सुपसाय पामी, निज गुरू-पाउलें सीस नामी, मास अग्यारमें सरस बातां, भणिं माणिक्य तें उपजें हर्ष गातां. ५६ फागूण नाह नही घरे, कुण लडावि लाड, आंसुडे झड लागी रे, दुखनां उग्यां झाड, वन वन केसु रे फूलियां, फूलडां सोहे रे सार, मार्नु ए विरहागनि तणा, अधबलतां अंगार. ५७ सात-पांच साहेलडी, वेलड़ी वलगी बाल, पहिरण पीली पटोलडी, चोली सोहे लाल, Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह सेरडीइ मली टोली रे, बोली होलीनो फाग, गावि चंग मृदंग-स्यू, रंग-स्युं आलवी राग. ५८ दीन वचन करी दाखीइं, राखीइं उत्तम रीत, पिउ, पाछो रथ वालीइ, पालीइं पूरव प्रीत, धणिनें मांन ज दीजीइं, खीजीइं नही विण दोष, योवन लाहो लीजीइ, कीजीई नही तप-सोस. ५९ १९ चतुरविजयकृत 'स्थूलभद्रना बार महिना' माथी (कोशा स्थूलिभद्रने पोपट द्वारा संदेश कहावे छे ए रूपे ‘स्थूलभद्र बारमास' नामर्नु काव्य चतुरविजय नामना कविए १८ कडीनुं रच्युं छे तेमां बारमासनी स्थितिनुं वर्णन फागण मासथी करे छे. प्रत ल.सं.१७५२ छे.) _ [कविनो विशेष परिचय प्राप्त नथी. 'जैन गूर्जर कविओ' मां आ कर्ता-कृति नोंधायेल नथी. 'गुजराती साहित्यकोश, खं.१'मां आ संदर्भने आधारे ज नोंध लेवायेली छे (पृ.९९). - संपा.] सूडा प्रते कोसा भणे रे, सूडा, तूं नर परउपगारी रे, बार वरसनो नेहलो रे, सूडा, मेली गयो निरधारी रे. १ फागण मास ज आवीओ रे, सूडा, रमीए ते होली फागो रे, केसरभरी कचोलडी रे सूडा, श्री थूलभद्र विना नहि लागो रे. चईत्र मासे चित्त चले रे सुडा, झाडे ते जोबन आवे रे, तरूण माणस केम रहे रे सूडा, गरढा मंगल गावे रे. महा मासनी रातडी रे, सूडा, श्री थूलभद्र विना केम जाए रे, जम जम बोली सीत पडे रे, सूडां, तेम तेम बहु दूख थाय रे. २०. जिनहर्षकृत 'शत्रुजय तीर्थ रास'मांथी (र.सं.१७५५. आनंद काव्य महौदधि, मौ.४, पृ.३८५-८६) [जिनहर्ष खरतरगच्छना शांतिहर्षना शिष्य हता. एमनी रासात्मक अने अन्य संख्याबंध कृतिओ मळे छ ने ते सं.१७०४थी १७६२नां रचनावर्षी बतावे छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ, भा.४ पृ.८२-१४२, भा.५, पृ.३९८ तथा गुजराती साहित्यकोश, खं.१, पृ.१३१-३३.] वसंतक्रीडा वसंत समय आव्यो अन्यदा, विकस्या पल्लव फलफूल, पसरी बहु सुगंधता, शीतल पवन अमूल. १८ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन कविओनां वसंतवर्णन १२९ रमवा चाल्यो राजवी, बहु महिलापरिवार, जातां दीठी मारगे, कांईक सुंदर नार. २० पीनोन्नत कुच जेहना, भारे नमती जेह, मुख राकापति सारिखो, नाशा दीपकरेह. २१ नयणयुगल पंकज जिसा, भ्र भ्रमर उपमान, करपद कमल विराजता, काया सोवनवान. २२ मन्मथबाणे वींधीओ, थयो विसंस्थुल राय, ते नारी देखी करी, करे विकल्प उपाय. २३ देवी दिव जीपी धरा स्युं जीपण आवी एह, अथवा पुण्य पुन्यवंतने, हरि आणी छे एह. २४ धन्य जेहने घरे ए हुस्ये, करसे भोगविलास, छठी छठा खंडनी, ढालि थई ए खास. २५ दुहा चिंतवतां एम रायने, करतां सोच तिवार, भाव जाणी राजा तणो, सचिव कहे तिणि वार. १ स्वामी चालो उतावला, हवे विलंबो केम, क्रीडाकरण वसंतनी, धरतां मनमां प्रेम. २ भिन्न [मित्र ?] उक्ति एम चिंतवी, मन मूकी तिणी पास, वक्र ग्रीवाए जोवतो, तिहांथी चाल्यो उदास. ३ रति पामे नहि मधु विषे, वधूलोक रति नाहि. बकुल कमल विकसित विषे, रति नही वापी मांही. ४ नाटिक न गमे जोवतां, वनश्री लागे दीन, क्यांही रति पामे नहिं. उछले जल जिम मीन. ५ आगलि पाछली पाखती, शल्या कानन गेह, नष्टेंद्रिय हुआ अपर, जिहां तिहां देखे तेह. ६ २१. जिनहर्षकृत 'नेमिराजिमती बारमास(१) मांथी (१५ कडी- काव्य.) [आ कृति 'जिनहर्ष ग्रंथावली' (संपा. अगरचंद नाहटा) पृ.२०८-०९ पर मुद्रित छे. - संपा.] Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह माहे दाहपणे [दाह पडे] घणो, वाये शीतल वाय, सीयालानी रातडी, वाल्हो आवे दाय. ११ खेले फाग संजोगिणी, फागुण सुखदाय, नेम नगीनो घर नही, खेले मोरी बलाय. १२ चतुरा चैत्र सुहामणो, रिति सरस वसंत, राती कुंपल रूंखडे, मुलकडी ए हसंत. १३ नयने आंसू नांखतां, बोल्या बारह मास, निठुर नाह न आवीयो, जीउं केही आस. १४ २२. जिनहर्षकृत 'नेमिराजिमती बारमास (२) मांथी (१३ कडी, काव्य.) [आ कृति 'जिनहर्ष ग्रंथावली' पृ.२०९-१० पर मुद्रित छे. - संपा.] हुं तो क्यु करी बोलुं [वोलुं] एकली, दुखदायक आयो माह रे, कोय सैण न दीसे एहवो, मेले मनमोहन नाह रे, हुं तो मोही रे साहिब सांवला. ३ वालेसर ! सांभलि वीनति, जो फागुणमें नावेस रे, नेम, चाचिरके मिसि खेलती, तो होली झंपावेस रे. हुं. ४ चैत्र महिनो आवीयो, जादवराय लीयो वैराग रे, मृगनेणी फाग रमे सखी, तुझ प्रिय विण केहो फाग रे. हुं. ५ वैशाखे वनखंड [अंबवन] मोरीया, मोरी सगली वनराय रे, विरहानल मुझ काया तपे, नेम ! तुझ विण क्युं [घडी] न सुहाय रे. हुं० ६ २३ जसराज/[जिनहर्ष कृत 'बारमास'मांथी [आ कृति 'जिनहर्ष ग्रंथावली' (संपा. अगरचंद नाहटा) पृ.१२८-२९ पर छपायेली छे. - संपा.] माह महीने सीत पडे, इण रूति चले बलाइ, उंचां [ऊंडे] पडीने पोढिये, कामण कंठ लगाइ. ३ फागुण मास वसंत रूति, सुण भोगी भरतार, परदेसारी चाकरी, जावे कोण गिवार (गमार). ४ चतुर महीने चैतरे, हुयो ज चल्लणहार, तंग कसीया तुरीयां तणा, साथीडा सिरदार. ५ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन कविओनां वसंतवर्णन २४ ज्ञानविमलकृत 'चंद्र केवली रास' मांथी (र.सं. १७७०, राधनपुरमां.) गूर्जर कविओ, भा. ४, चंद्र केवलीनो रास ' संपा. ] [तपगच्छना धीरविमलशि. नयविमल / ज्ञानविमलसूरिनो जीवनकाळ सं. १६९४थी १७८२ छे अने एमनी विविध प्रकारनी घणी कृतिओ मळे छे. जुओ जैन पृ. ३८२ - ४१८ तथा गुजराती साहित्यकोश, खं. १, पृ. ३९६ -४०० भीमसिंह माणक तथा कपूरचंद वारैया द्वारा प्रकाशित थयेल छे. दोहा एम सुखमां वसतां थकां, आव्यो मास वसंत, संयोगी नर सुरतरू सरिखो छे अत्यंत. संत सहु हेते करी, आवे उपवन मांहि, शीतल पवन प्रवाहथी, संचरे तरूवर छांहि. २६मी ढाल : राग वसंत १३१ हवे एक दिन श्री चंद्र भूमिकंत, गुणचंद्र मित्र संयुत, मयमत्त महंत मिलंत संत, कहे आयो खेलीजे वसंत १ हवे गुहरी मोहरी वनराइ तंत, मानुं आयो ऋतुराज वसंत, तिहां ताल तमाल हिंताल पुंग, मानुं ध्वजपटे उचवियां सुचंग. २ निझरण झरण रत ताल तंत, पडछंदा नीसाणां गुडंत, अंकुरित सवि उपवन भू करंत, मानुं प्रमदा प्रमुदित संग कंत. ३ हवे. तिलक वरूण अशोक खंति, प्रमदापद - पडघा अभिलषंत, तरूयर-तरूण- शुं आलिंगंत, लता - ललना ललित हृदय खंत. ४ हवे० गुच्छादिक घण घण सुमनस जे हसंति, मनुं अधर ते पल्लव चारू पंति, पंचवर्णी फूदीचु दिपंति, तिहां विटपवदनने मनुं चुबंति, ५ हवे. कुसुमपात्रे एके पीयंत, मधुर मधुकरी मकरंद वृं[वं? ]त, तिहां हरिण हरिणी कपोल अंत, शृंगे-सु कुंडने खणंत. ६ हवे. करी गंडुश जल भरी दीयंत, करिणीवदने निज करी महंत, चकवा चकवी किसलय करी अंत, देखत मुखमां धरी प्रेमवंत. ७ हवे. एम प्रमुदित पंखी जीवजंत, निरखीने कामीजन धसंत, तिहां पंचबाण बाणबल महंत, भूमिदेशे अनिवारित फुरंत. ८ हवे. उन्माद मोहन ने तापनंत, शोषण ने मारण पंचमंत, पंचमस्वर कोकिल कलरवंत, होवे सुणतां सचेत नर कामवंत. ९ हवे ० Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह रोगी-वियोगी दुःख दीयंत, संयोगी अमृतरस पीयंत, शीतल मलयाचल अनिलवंत, सुमगंध-शुं सिकरने झरंत. १० हवे. विरहिणी कहे ए भुयंगलिंत, उद्गार ए तेहना कण झरंत, किंशुक कुसुम मनुं पल असंत, तिण हेते पलाश विरहिणी भणंत. ११ हवे. संयोगिणी पल्लव तस लीयंत, करे शेखर सुंदर वेशवंत, देखनकुं अति रूपवंत, परं निर्गुण गंध न ते दहंत. १२ हवे. मानीनिमानने भेद भ्रत, मर्नु आयो वसंत नृप साजवंत, मदन मतंगज परे चढंत, तिहां विविध कुसुमसेना सजंत. १३ हवे. शुक कोकिल मोर मेना शकुंत, कल कूजित केलि कला लवंत, योगी पण हृदये थरहरंत, शुं जाणीए मन थिर केम रहंत. १४ हवे. बकुल ने बोलसिरी वासंत, दश दिशि परिमल पसरंत, शिशिर ऋतुये जे पात झरंत, मनुं तेह अवस्थाने हसंत. १५ हवे. वीणा डफ महुअरी बहु बजंत, अवल गुलाल अबिर उडंत, भरी झोली गोरी होरी खेलंत, फागुणना फागुआ गीत गंत. १६ हवे. पिचरकी केसरकी भरंत, मादल मधुर माला गले ठवंत, अधर-सुधारसने पीयंत, प्रेमप्याले दंपती , मलिय पंत. १७ हवे. मालति एक नवि जो विकसयंत, तो शी उणिम होयगी वसंत, वेली जाइ जुइ महमहंत, विचे चंपकमाला कुसुम धरंत. १८ हवे. एणी युगते लीला हरिवंत, बिरूद ऋतुराज तणो धरंत, छोडी मानने मानिनी आय कंत, गले कंदली आलिंगन दीयंत १९ हवे. एणे समये सूर्यवती कुमारी, लेई साथे सोच्छव सपरिवार, क्रीडे एम विविधे वनविहार, दीये दान अवारित जु निर्धार. २० हवे. मनुं भूतल शचिपति अनुकार, संगीत नाटकना धोंकार, सुखलीले निगमे दिवस सार, ज्ञानविमल गुरू शिर आणाधार. २१ हवे. दोहा एणी परे बहुविध हर्षना, पसर्या अधिक आणंद, श्री चंद्र गुणचंद्र बेहुल्या, जिम मधुमास माकंद. १ ज्ञानगोष्ठी रसरंगमां, जातो न जाणे काल, एही ज उत्तम संगनो, फल साक्षात विशाल. २ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ प्राचीन जैन कविओनां वसंतवर्णन २५. उदयरत्नकृत राजिमती संदेश _[राजविजयगच्छना शिवरत्नशि. उदयरत्ने रास वगेरे प्रकारनी अनेक कृतिओ रचेल छे ने ते सं.१७४९थी १७७९नां रचनावर्षो दर्शावे छे. जुओ जैन गुर्जर कविओ, भा.५, पृ.७६-११४, ४११-१३ तथा गुजराती साहित्यकोश, खं.१, पृ.३१-३२. त्यां आ कृति नोंधायेली नथी. – संपा.] राग काफी जइ कहेजो हो जई कहेजो हो. माहरा नेम नावलीयाने जईं कहेजो, महारा वारू वालमीयाने जइ कहेजो, महारा मीठडा हो स्वामी, एणी ऋतें घरें वहेला आवजो?. जइ कहेजो. १ हां रे वाला, अवर ऋतें विरहो दमे रे, वसंते रे वसंते हो रे, वसंते एहथी विशेष, एणी. केसरीया हो केसरीया, महारा मीठडा० हां रे वाला, मधुकर गुंजे मदभर्यो, अंब अंबे अंब अंबे हो, अंब अंबे पाकी दाडिम द्राख. एणी. २ हां रे वाला, वन वन बोले कोकिला, पग पगें पग पगें हो पग पगें फुल्या बहु फुल, एणी० हां रे वाला, सुरभी पवन सुस्तो वसे [वहे], सुखनां सुखना हो, सुखनां प्रगट्यां एह सूल. एणी. ३ हां रे वाला, गिरिवरें वनराजी भजे, सरोवरें सरोवरें हो, सरोवरें फूल्या कमलना छोड, एणी. हां रे वाला, घर घरे फाग खेले घणा, कामिनी कामिनी हो, कामिनी पहोंचे मनना कोड. एणी. ४ हां रे वाला अबीर गुलाल उडे बहु, रंगभीनी रंगभीनी हो, रंगभीनी न रहे हो नार, एणी. हां रे वाला जल-पिचकारी जोरमा, तिहां छटके हो तिहां छटके करी मनोहार. एणी० ५ १. 'ए रतें वहेलेरा आवजो' ए आने मळती देशी कवि मूळशंकरे एक नाटकमां एक रासडामां वापरी छे. Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह हां रे वाला नारि त्यजी गिरनारमां, लीला - शुं लीला - शुं हो, लीला शुं रह्यो रे लोभाय, एणी० हां रे वाला उदय वदे राजीमती, एम संदेश एम संदेश हो, एम संदेशे दीयो रे पठाय. एणी० ६ २६. कर्पूरशेखरकृत 'राजुल बारमास 'मांथी [कवि अंचलगच्छना रत्नशेखरना शिष्य हता अने सं.१८मी सदी उत्तरार्धमा थया छे. जुओ गुजराती साहित्यकोश, खं. १, पृ. ४७-४८. 'जैन गूर्जर कविओ' मां आनी नोंध नथी. कृति 'प्राचीन-मध्यकालीन बारमासा संग्रह' (संपा. शिवलाल जेसलपुरा ) मां छपायेली छे. - संपा. ] प्रभु, मानो मोरी वात रे, हुं तुज नेह नहीं तिलमात रे टाढ पडे माहा मासमां, वाला, हिम ठरे परभात, सूरजतेजे बेसीये, वाला, विकसे सुंदर गात रे, तो अरज करूं दिनरात रे, में जाणी तुमारी धात रे. घरे आवो, नेमीसर साहेबा. १५ माछलडी पाणी विना, वाला, तडफडी जीवित देत, तिम विछडवे हुं ताहरे, वाला, मन आणो तेह संकेत रे, तुज साथे फिरे मुज चित्त रे, पीयु, संभालो निज खेत रे, भव आठ तणी जे प्रीत रे, केम त्याग करो छो, मित्त रे. घरे० १६ फागुणना दिन फुटरा, वाला, वन कुंपल विकसंत, केशर पिचकारी भरी, वाला, खेलत कामिनी कंत रे, अबीर गुलाल उड़ंत रे, मधुरे स्वरे गावे वसंत रे, नरनारी मली गावंत रे, सुणी उपजे विरह अनंत रे. घरे० १७ ईणी ते पीयुडो [परदेश] वसे, वाला, केहशुं खेलुं फाग, कालजडे कोरू बले, वाला, लागो प्रेमनो दाघ रे, विरहानल मोहोटी आग रे, एहथी ताप तनु अथाग रे, साहेब शुं नवलो राग रे, प्रीतम हवे मलवा लाग रे. घरे० १८ चैत्रे तरूवर मोरीयां, वाला, फूल वनराय, परिमल महके फूलना, वाला, सुरभी शीतल वाय रे, कोकीला पंचमस्वर गाय रे, गुंजारव भमरना थाय रे, मन मालिनी-शुं ललचाय रे, भमरा रह्या लपटाय रे. घरे० १९ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन कविओनां वसंतवर्णन १३५ रीसाणा रहीये नहीं, वाला, रूषणुं कीजे दूर, हलीमली खेलो रंग-शुं, वाला राखो चरण-हजूर रे, जिम वाधे प्रेम-अंकूर रे, जोवनीयुं जाये पूर रे, प्रीतम जो थायो शूर रे, दु:खडु कीजे चकचूर रे. घरे० २० २७. मोहनविजयकृत 'नर्मदासुंदरी रास'मांथी (मोहनविजय ए एक जबरा कवि अढारमा शतकमां थई गया छे. तेमनी चार कृतिओ पैकी त्रण कृतिओ मुद्रित थई छे अने ‘हरिवाहननो रास' नामनी कृति अप्रकट छे. आ वणे मुद्रित कृतिओमां जे वसंतनां वर्णनो छे ते तेमज नानां काव्यो मळी आव्यां छे ते अत्र मूक्यां छे. ते सर्व परथी तेमनी वर्णनशक्ति अने सुंदर शैली जणाई आवे छे. तेमनी काव्यकला अने व्याख्यान करवानी छटा एटलीबधी रसभरी वेधक हती के तेमना समयमा तेमनु नाम 'मोहनविजय लटकाळा' पड्युं हतुं. 'नर्मदासुंदरी रास' सं.१७५४मां समीमां रचायो छे. नर्मदासुंदरी साध्वीनी दीक्षा लेवा तैयार थाय छे त्यारे ए व्रत पाळतां छए ऋतुमां शू-शुं सहन करवू पडशे ए तेने ढालमां तेनो पिता समजावे छे अने दीक्षा लेतां वारे छे. ज्यारे ते सुंदरी तेनो दुहामां जवाब आपे छे. आ छ ऋतुमा वसंत ऋतुना संबंधी नीचे प्रमाणे जणावे छे.) । [मोहनविजय तपगच्छना रूपविजयना शिष्य हता अने एमनी कृतिओ सं.१७५४थी १७८३नां रचनावर्षो दर्शावे छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ, भा.५, पृ.१३७-५७ तथा गुजराती साहित्यकोश, खं.१, पृ.३२९-३० 'नर्मदासुंदरी रास' भीमसिंह माणक द्वारा प्रकाशित थयेल छे. - संपा.] वली तेमज वसंतऋतु आवे, तव किसलय तेम तरू भावे, वागे चंग मृदंग सुरागे, वली टोली गावे फागें. छांटे केसर भरी पीचकारी, तेम लाल गुलाल नरनारी, करे नाटक बत्रीशबद्ध, ते तो मुनिवेषं नवि कीध. दोहा तप नव किसलय तरू थयो, आवश्यक वाजीत्र, अध्ययनादिक फाग गति, केसर क्रिया विचित्र. मार्दव लाल गुलाल बहु, परिसह नाटक कीध, रूतु वसंत मांहे अहो, मुनिने ए अनिषिद्ध. २८. मोहनविजयकृत 'मानतुंग मानवती रास'मांथी (र.सं.१७६०.) [आ कृति भीमसिंह माणक अने सवाईभाई रायचंद द्वारा प्रकाशित थयेल छे. – संपा.] Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह वसंतोत्सव राणी तस गुणमंजरी, सकल कलाये पूर, रतनवती तस पुत्रिका, अगणित गुणे सनूर. हमणां ते नृपपुत्रिका, आवशे रमण वसंत, जो जोवानो खप करो, तो रहो इहां एकंत. पथिके जाण्युं जायसुं, सांझे नगरी मांही, जीव्यां पें जोयुं भलुं, ईम धरी रह्यो तरूछांहि. ढाल २३ : सखीरी आयो वसंत अटारडो ए देशी सखीरी एहवे आवी क्रीडवा, रतनवती वन मांही - चतुर नर सांभलो. बांही. चतुर० स० १ मझार, च० वार. च० स० २ खेले संग साहेलियां, घालीने गल ताली देइ केइक छीपे, वेलीसदन ढुंढी काढे तिहां थकी, रतनवति तिणि केइ कदंबना गुछमें, रहे लघुगात्र छिपाय, श्रमसीकर लेइ मुखे, मुगता रम रह्या नाखे गेंदुक कुसुमना, आमासांहमा छुटी कबरीये बालिका, दोडे मलीने जाणीये उर्वशी उतरी, इंद्रपुरीथी भुर, शोभायें वन छाहीयो, रूतुनृप तो रह्यो दुर. च० स० २९. मोहनविजयकृत 'रत्नपाल रास 'मांथी सवेइ. च० स० ५ आय. च० स० ३ केइ, (र.सं. १७६०, पाटणमां.) [ आ कृति सवाईभाई रायचंद द्वारा प्रकाशित थयेल छे. संपा. ] (आ रासमा रत्नपालनी स्त्री रतनवती वीणाधारी राउल ( रावल) ना रूपमा रही छे ते, रतनपाल पोताना मातपिताने शोधवा परदेशमां जवा चाहे छे त्यारे तेने कहे छे के “ए तमारुं काम नथी, ए काम तो अमारा जेवा पंथनी गति जाणनारा योगीनुं छे.” छ ऋतुमां तेणे शुं करवानुं छे ते पछी जणावे छे.) षट्तु षटपद परे भमिये, रंग-शुं वनमां रमिये, हिम रूतुये नलिनी पण सुके, विरहिणी पण आंसु मुके. हिमथी पीडाणी जे रात्र, हिम गले आंसु दल पात्र, ते हिम तो अमेहि ज सहिये, तुमे तो इण मंदिर रहिये. ४ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन कविओनां वसंतवर्णन ( आ पछी माह मासनी थंडी, ने वसंत ऋतुनी वात नीचे प्रमाणे जणावे छे.) आगल माह फाल्गुन रूतु आवी, भोगीजनने मनमां भावी, तुमने पंथे शीतल वाय, अमने तो कांये नवि थाय. जामे शीतल कृश ते नीर, नवि कोइ रहे सरस ज तीर, तिहां ते अमे बेठा तापुं, इम करीने शिशिर रूतु कापुं. तुमे सुओ भीडी ओढी, उपर वली शीरख ओढी, तुमे तिण रूते पंथ न चालो, बेठा ए मंदिरमें महालो. आगल वसंतरूतु आवे, घर मुकी कोइ नवि जावे, गावे तेइ गुणीजन फाग, तुमने नहि जावानो लाग. कहु कहु कहे परभृत- तनया, कही कुहु ते अमावस्यातनया, ते तमभर तश्कर-राण, फरे मन्मथ इ बाण. नर भोगीने लुंटे वाटे, अम योगीमां ते शुं खाटे. अमे तस जीतीने बेठा, अमे ब्रह्मचर्यगढमां पेठा. हवे त्रिगुण ते मंद समीर, विरहि न शके धरीने धीर, ए दिन छे भोगी केरा, अम सरिखा ते अनेरा. ( उक्त रासमां ज बीजे स्थळे मुनिश्री रत्नपालने पूर्व भवनी वात कही संभळावे छे, मां धनपाल करीने श्रेष्ठीनो पुत्र वसंत आवतां वनमां वसंत खेलवा जाय छे ए वखतनुं वसंतवर्णन करवामां आव्युं छे.) खंड ४ ढाल १४ लुहारण जायो दीकरो लुहारी हे ए देशी एम रहेतां त्यां अनुक्रमे, सोभागी है, आव्यो मास वसंत के लाल सोभागी है. वन विहस्यां फुलें फलें, सोभागी है, पवन मिले महकंत के लाल सोभागी हे. १ मंजर पंजरने भरे, सो० भूमिये मल्या सहकार के ला० भारे रखे धरणी धसे, सो० तेणे पीक करेय पुकार के ला० २ नील भ्रमर गुंजे घणा, सो० जीहां विकस्यां अरविंद के ला० कुटील नयन मनुं वारवा, सो० कीधा ए कझलबींद के ला० ३ चंपकवन प्रिय योगथी, सो० कंपे धुणे अंग के ला० है है है मुझ उपरे, सो० नावी बेसे भृंग के ला० ४ १३७ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह मधु द्रुम झरे मद आपणो, सो. फल देखी सहकार के ला. ईण रीतें फल नवि आपणे, सो. तिण वमे आंसुधार के ला. ५ फुल फगद जल फल वली, सो. विहंग तणी मृदु वाणी के ला. ते कौतुक जोवा भणी, सो० दिवस वधारे भाण के ला. ६ नीलो न होवे जलदथी, सो. क्षुद्र जवासो प्रसिद्ध के ला. रूतुराजें अनिमेषमां, सो. तव नवपल्लव कीध के ला. ७ काननमा लसे केतकी, सो. मानो मन्मथनो तुणीर के ला. जाणे मुद्गर कामना, सो. सोहे कोकपटीर के ला. ८ छयल नर वनमा रमे, सो. पहेरी भूषण अंग के ला. खेले पेट भरि भरि, सो. लाल गुलाल सुरंग के ला. वाजे वीण मधुर स्वरे, सो. गाजे चंग मृदंग के ला. नाटक सूत्री नाटकी, सो. बाली जीणां अंग के ला. १० पुरजन वनमां परवर्या, सो. उत्सव करे विशाल के ला. जनयात्रा देखण भणी, सो. मातने कहे धनपाल के ला. जो अनुमति द्यो अम भणी, सो. तो जोउं वनना ख्याल के ला. केम जाइश भूख्या थको, सो. वन तो नही करे न्याल के ला. तोपण हठ लेइ करी, सो. पहोतो वनह मझार के ला. सर्वनी साथे खेलतो, सो. ए लघुवय व्यवहार के ला. जलक्रीडा करे सरोवरे, सो. बाल विचे धनपाल के ला. मंदिर पुठे गृहावली, सो. झलके ज्युं झाकझमाल के ला. चौदमी चोथा खंडनी, सो० ए कही मोहने ढाल के ला. पूर्वभव गुरूमुख थकी, सो. श्रवणे सुणे रत्नपाल के ला. ३०. मोहनविजयकृत 'चंदराजानो रास'मांथी (र.सं.१७८३.) [आ रास भीमसिंह माणक अने सवाईभाई रायचंद द्वारा प्रकाशित थयेल छे. - संपा.] वसंत ऋतु वसंत प्रकटी तिसें, सफळ थया सहकार, कामकळा कोकिल कहे, जनने वारंवार. १ केसु अति कुसुमित थया, रंग सुरंगा लाल, खेले फाग वसंत-नृप, तेहनो लाल गुलाल. २ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन कविओनां वसंतवर्णन १३९ सुमन थई वन घन प्रजा, मधु-नृप आव्यो जाणि, फळदळ लेई भेटणो, स्तवे विहंगी वाणि. ३ अणगणिता चंपक कुसुम, मुकुलित वृक्ष समीप, जाणुं ऋतुराजा भणी, कीधा मंगळदीप. ४ सपरिवार आभानृपति, प्रजा सहित सोहंत, आव्यो वनमां कामवश, रमवा काज वसंत. ५ छांटे केसरछांटणां, लाल गुलाल सोहात, सोहे मध्यान्हे गगन, जाणे थयो प्रभात. ६ चंदकुंवर सवया सहित, कुसुम थकी क्रीडंत, वीरमति ते देखीने, मन निसनेह धरंत. ७ वसंतोत्सव ढाल ४ : विठल वालो रे उमियाजीने लागुं पाय ए वर आलो रे - ए देशी राजा राणी रंगथी, खेले अनोपम खेल रे, नवली दीठी नारीओ, तिहां शशिवदनी गजगेल, सुणो भवि-प्राणी रे ! चंदनरिंद संबंध अतिरस आणी रे. १ काचित सुत केडे करी रे, ऊभी चंपकछांय रे आंबाडाळे झूलणां बांधी, बाळ हिंडोळे माय. सु. २ केइ कर धरी निज बाळने रें, भीडे हियडा साथ रे, केइ शिखावे हींडाववं, निज सुतना ग्रही हाथ. सु. ३ रामकडां बहु भातनां रे, सुखडली वळी देइ रे, रोता राखे बाळने, ईम तरू तरू नारी केई. सु. ४ स्तनपयपाने पोषती रे, सुत सुरतरूनो छोड रे, युवती ईम वनमां बहु, मनडाना पहोचाडे कोड. सु. ५ ३१. मोहनविजयकृत 'राजिमती वसंत गीत' [कृति ‘जैन गूर्जर कविओ' के 'गुजराती साहित्यकोश, खं.१ मां नोंधायेली नथी. - . संपा.] ___ राग होरी मल्हार महारा पीयाजीनी वात रे, हुं केने पूर्छ, महारा. जेने पूर्छ ते तो दूर बतावे, सबहीं रे लाला, सबहीं घूतारा लोक रे. हुं केने. १ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह आंबो रे मोर्यो ने केशुडो फल्यो, आव्यो रे लाला, आव्यो मास वसंत रे. हूं केने० २ कटको रे कागल लखी लखी मेलं, कोइ सहसा रे लाला, सहसावनमां जाय रे. हुं केने० ३ नेमजीने जइने एटलं रे केजो, राणी राजुल रे राणी राजुल धान न खाय रे. हुं केने. ४ रूप विबुधनो मोहन पभणे, जनम रे लाला, जनम जनम तारो दास रे. हुं केने० ५ ३२. मोहनविजयकृत सिद्धाचल वसंत गीत [कृति 'जन गूर्जर कविओ' के गुजराती साहित्यकांश' खं.१मां नांधायला नथी. - संपा.] राग वसंत चालो सखी! सिद्धाचल गिरि जइयें, रंगभर खेलीयें होरी. सिंथो सिंदूरे ने वेणी समारी, कुंकुम केशर घोली, करी शिणगार ने हार मनोहर, पहेरण चरणा चोली. चालो. १ एक एकना पालव ग्रहीने, अटकें बोले बाली, एक एक-शं करे रे मरकडा, हसी हसी लेवत ताली. चालो. २ एक नाचे, एक चंग बजावे, एक बजावे कंसाली, एक शुद्ध वसंत आलापे, जिनगुण गीत रसाली. चालो. ३ एक अबील गुलाल ऊडावे, लावे भर भर जोरी, चुवा चंदन ओर अरगजा, छांटत केशर घोली. चालो. ४ वसंत ऋतु शत्रुजगिरि पसर्यो, फुल्यो फागुण मास, रूप विबंधनो मोहन पभणे, जनम जनम तारो दास. चालो. ५ ३३. मोहनविजयकृत 'नेमिराजिमती बारमासा' माथी देशाईए आमने रूपविजयशि. मोहनविजय मान्या छे पण आ वस्तुत: गुलाल(विजय)शि. मोहन(विजय) छे. विशेष माहिती प्राप्य नथी, पण कवि सं.१८मी सदी उत्तरार्धमा थया होवानुं अनुमान थयुं छे. कृति प्राचीन-मध्यकालान बारमासा. संग्रह' (संपा. शिवलाल जेसलपुरा)मां छपायेली छे अने एने आधारे गुजराती साहित्यकोश, खं.१, पृ.३३० पर नोंध लेवायेली छे. त्यां कविने तपगच्छना कहेवामां आव्या छे. पण काव्यमां एवो निर्देश नथी. 'जैन गुर्जर कविओ' मां आ कर्ताकृति नोंधायेला नथी. – संपा. ] Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ प्राचीन जैन कविओनां वसंतवर्णन आव्यो माघ ज मास, आस न पोहोती रे, सखी, हजीय न लीधी सार, राजुल जोती रे, होश रही मन मांहे, मनडा केरी रे, सखी, जोर करी यदुराय, गया रथ फेरी रे. ८ साजना फागुण मास, मली सहु टोली रे, गावे राग वसंत, खेले होली रे, इणी रतें राखी रीश, मेहेली निरधारी रें, महारा मनडामां न समाय, दुःख छे भारी रे. ९ सखी चैत्रे तरू सहकार, मोर्यां वनकुंजे रे, कोकिला करे रंगरोल, भमरा गुंजे रे, फूली नव नव रंग, वनस्पति बाधी रे, माहारी चंपकवरणी देह, दुःख़डे दाधी रे. १० ३४. नेमविजयकृत 'नेमिनाथ बारमास' माथी (नेमविजय ते प्रसिद्ध 'शीलवती रास’ना कर्ता. कृति जैनयुग, पोष १९८२, पृ.१८९-९१मां प्रकाशित छे.) [सं.१७५४मां रचायेली आ कृति आ ग्रंथमां पुनर्मुद्रित थई छे ते जुओ. - संपा.] तूं उपगारियो तूंहि ज इश, कहुं एटलुं तुझ नामि सीस, महिर करी मोहना ! मंदिर पधारो, नारिनां नेहनां नयन ठारो. ११ माहे मनोरथ माहरा, मनमा रह्या रे हजार, सुखदुख मननी रे वारता, कोण सुणे निर्धार. जेहने मन छे रे नेहलो, ते भमे विकल शरीर, केतकी विना जिम भमरने, भावे न फूल-करीर. १२ ग्रहणां उतार्या रे गहभरी, पुरूष न राखुं रे पास, भोल भोलवे भामिनी, मदन तणी धरी आस. सजनी ! सेज तलाइने, हुं से, दिनने रे रात, प्रीयु परदेसे सिधाविया, रखे होवे किसी घात. १३ ताढि रे गाढा पराभव्या, आहि ज सूना आवास, थर थर कंपे रे देहडी, मुक्या जेह निरास, सुंदर सेज गमे नहि, सुतां रे नींद न आय, तोही विना प्रभु माहरा, इणि परि दिन किम जाय. १४ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह इम न कीजे सुणि प्राणनाथ, पालीइं प्रीतडी ग्रहीय हाथ, मयणनो वास ए मास फाग, सामी, संभारीए एह लाग. १५ फागुणना दिन फुटरा, आकरा लागे रे मुज्झ, विरहे तपे तन कोमल, मन भावे नही तुझ. केइ खेले लाल गुलाल-सुं, अबीर अरगजा प्याल, हुं रही एक दोभागिणी, आव्या न नाह मयाल. १६ स्मर संतापे साहेलडी, भेदी रह्यो मुझ देह, आपणपुं किम राखस्युं, पोहते यौवन-वेह. प्रीउना विना इण मंदिर, मनमथ केरा रे चोर, दु:ख आपे दूणो देहड़ी, उठ्या तनने फोर. १७ के जिन पूजे रे पदमिनी, भामिनी आपद दूरि, के नृत्य नाचे नवनवो, पाप पखाले कूर. के प्रीउ-संगे [रंगे] ढंगे, खेले. बहु ख्याल, सरिखा सरिखी जोडी मिली, खेले फाग खुस्याल. १८ प्रेमदा मनमथ-जोर पीलें, डसी नागणी जेम डोले, हवे सही राज[ल] चित्त थापें, चैत्रमा नेम ए दु:ख कापे. १९ चिहुं दिसे तरूवर चीताँ, [नीतर्यां] चैत्रे सुवास, जाइ जूइ नवमालती, मोगरा मरूआ जे खास. दमणो चंबेली रे चंपके, षट्पद लागा रे चित्त, नेम तणी हुं वाटडी, इणी रीति जोउं रे नित. २० निठुर हजी लाजे नहि, जे करे वनमें गुंजार, रमण वसंत आवी मिल्यो, भूमि तणो भरतार. परिमल -आवे रे कुसुमना, बीडुं हुं निज नाक, प्रीउ विना सी सुगंध तां, मदने मुकी घणुं हाक. २१ मंदिर सुने रे महिला तणुं, मोहन, किम रहे मन्न, कोकिल कलकुजित करे, तिम दहे विरहिणी-तन्न. नयने रे नींद आवे नही, अति तीखी चंदनी रात, उखी [गुखी] रही प्रीउ प्रीउ जीभडी, वाल्हा विछोह्यांनी वात. २२ विरहिणी विरहनी सांकली, रातडी गमीए केम, नीर विना जिम माछली, नेम विना निसि एम.] Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन कविओनां वसंतवर्णन केम गमु घडी, साहिब, खिण वरसां सो रे थाय, प्रहरनी सी वाडी मास वरस किम ३५. गंगविजयकृत 'कुसुमश्री रास 'मांथी जाय. २३ (र.सं.१७७७. आनंद काव्य महौदधि, मौ. १, पृ. ८४.) [ कवि तपगच्छना नित्यविजयना शिष्य हता. कवि अने एमनी कृतिओ माटे जुओ जैन गुर्जर कविओ, भा. ५. पृ. २८४-८७ तथा गुजराती साहित्यकोश, खं. १, पृ. ८३. - संपा. ] भणी गुणी हुं म्होटी हुइ, यौवनवय जव पामी रे, वे वसन्त ऋतु आवयो, मल्यां रमवा बहु फागी [कामी ] रे. कीधां कर्म्म न छूटीइ. ठाम ठाम ओच्छव मांडीयो, हर्षे गाई फाग रे, छयलछबीला खेले खांत-शुं करे नवनवा राग रे. कीधां० नगर पडहो वजडावीयो, राजाए तेणी वार रे, सहुको रमवा निसरो, कुण नर ने कुण नार रे. कीधां० राय राणा सहु मनविनें, आव्या वनह मझारो रे, एहवे अचरिज जे थयुं, ते सांभलो निरधारो रे. कीधां० ३६. देवविजयकृत ‘नेमराजुल बारमास (१)'मांथी (र.सं. १७६०.) [ कवि तपगच्छना विजयरत्नसूरिना शिष्य छे. एमनी आ प्रकारनी थोडी कृतिओ मळे छे ते सं.१७६०थी १७९५ नां रचनावर्षो धरावे छे. जुओ जैन गुर्जर कविओ, भा. ५, पृ.२०८थी २१० तथा गुजराती साहित्यकोश, खं. १, पृ. १८४. कृति जगदीश्वर छापखाना द्वारा प्रकाशित थयेल छे. संपा. ] - १४३ माहा मासनी रयणी रूडी, आवो रमीयें मनने भेली रे, सामलीया. यौवनवय लाहो लीजें, आपे प्रेम-सुधारस पीजे रे, सामलीया. १० फागुण ते भली परे आव्यो, ए तो अबिर गुलाल छंटाव्यो रे, सा० केशर पिचकारी छूटे, मुज तनमन विरहा लुंटे रे. सा० ११ चैत्रे ते तरूवर फूले, कहो वालिम मुज केम भूले रे, सा० कोयलडी कंठ सोहावे, मुज ए दिन किमही न जावे रे. सा० १२ ३७. देवविजयकृत 'नेमराजुल बारमास ( २ ) ' मांथी [ आ कृति पण जगदीश्वर छापखाना द्वारा प्रकाशित थयेल छे. संपा. ] Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह मधुकर माधवन कहेजो - ए दशी माहें तो माया बहु कीजे, विषयिक सुख-अमृत पीजें, तुम विना ए मुज तनु छीजे रे. नेम जिनेसरने कहेजो. १४ फागुणना दिन निगमीयें, अबीर-गुलाले ते रमीयें, घर मुकीने केम भमीयें रे, नेम० १५ राजुल पोहोती पीयु पासे, पामी ते मननी आशें, अनुभवसुख ए बिहुँ बासे रे. नेम० १६ श्री विजयरत्न सूरिराया, वाचक दे गुण गाया, . तुम नामें संपत्ति पाया रे. नेम० १७ ३८. देवविजयकृत 'नेमराजुल बारमास (३) माथी (र.सं.१७९५, पोरबंदरमां.) [आ कृति जगदीश्वर छापखाना द्वारा तथा 'प्राचीन-मध्यकालीन बारमासा संग्रह' (संपा. शिवलाल जेसलपुरा)मां छपायेल छे. – संपा.] चैत्रे ते चतुरा नार, चित्तथी विमासे रे, कंतविहुणी रात, किम करी जाशे रे. १.१ विरहव्यथानी पीड, में न खमाय रे, तुम विण मुज प्राणनाथ, जीवडो जाय रे. १.२ यौवनलहेर अथाग, राखी न रहेशे रे, पछी पस्तावो नाह, वालो[ठालो] कहेशे रे. १.३ मानवभवअवतार, लाहो लीजे रे, सफल करो अवतार, कर्वा मुज कीजे रे. १.४ सरखो लही संयोग, कांइ विमासे रे, वाचक देव कहे एम, जोई ल्यो तमासो रे. १.५ माघे ते माया थाय, कहुं गुणगेहा रे, आ नवयौवन ए देह, विलसो नेहा रे. ११.१ आ चार दिवसनो रंग, चटको लीजे रे, ल्यो लाहो तुमे, सेण, कह्यो मुज कीजे रे. ११.२ फरी फरी नहीं संसार, जोबन जाशे रे, राख्यं न रहे तन्न, सहुको भासे रे. ११.३ ते कारण कहुं एम, वालम माहारा रे, आ आवी वसो घर मांहे, गुण बहु तारा रे. ११.४ आ दिन दिन अधिको प्रेम, नेही, कीजे रे आ वाचक देव कहंत, रस ए लीजे रे. ११.५ आ फागुण आव्यो मास, नाह न आव्यो रे, अबीर गुलाल ज तेह, सहुमें छंटायो रे. १२.१ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१४५ प्राचीन जैन कविओनां वसंतवर्णन आ पीयु चाल्यो गिरनार, मुजने छोडी रे, आ शिवरमणी-शुं रंग, प्रीत एणे जोडी रे. १२.२ आ खोटी जग माहे प्रीति, जे नर करशे रे, थिर नहीं जग माहे कोय, सुकृत हरशे रे. १२.३ पामी ते मन वैराग्य, संयम लीधु रे, आ राजुल सती गुण जाण, कारण कीधुं रे. १२.४ आ संवत सत्तर पंचाj, रही चोमासे - रे आ पोरबंदर शुभ ठाम, मनने उल्लासें रे. १२.५ श्री विजयरत्नसूरिंद, वाचक देव बोले रे, वारी हुँ नेम जिणंद, नहीं तुम तोले रे. १४.५ ३९. ऋद्धिहंसकृत 'नेमराजुल बारमास'मांथी (कर्ता रूपहंसना शिष्य छे.) [देशाईए कर्तानाम ऋद्धिविजय गणेलं, पण ते ऋद्धिहंस गणवू जोईए. ऋद्धिहंसशि. मुक्तिहंसे सं.१७९०मां लखेली प्रत मळे छे. (जैन गूर्जर कविओ भा.५ पृ.२०५) तेथी कर्ता, सं.१८मी सदी उत्तरार्धमां थयेला गणाय. कर्ता-कृति 'जैन गूर्जर कविओ'मां नोंधायेल नथी, परंतु गुजराती साहित्यकोश, खं.१, पृ.३६ पर नोंधायेल छे ('ऋद्धि') अने कृति 'प्राचीनमध्यकालीन बारमासा संग्रह' (शिवलाल जेसलपुरा)मां छपायेल छे. - संपा.] सखी, माघ तो वाघ समान, मास में दीठो रे, आवे जो पीउ घेर, तो मुज मीठो रे; ए तो सरवर नदीमें नीर, टाढे ठरिया रे, दव जिम दाधां वन, शीतें भरियां रे. ८.१ हुं एकलडी नार[निराधार], टाढें कंपुं रे, पीउ पीउ मुखथी वाण, अहोनिश जंपुं रे; सूतां किम ही न जाय, वेरण रातडी रे, राजुल कहे, महाराय, सुणो मुज वातडी रे. ८.२ फागुण मासें फाग, पीउ-संगे गोरी रे, ऊडे अबिर गुलाल, खेले होरी रे; ए तो केशरनी पिचकारी, भरीने छांटे रे, तिम तिम विरहिणी-देह, सूके उच्चाटे रे. ९.१ वाहाला विण कोण साथ, होली रमीये रे, सखी, गहिला जिम गेह, सेरीये भमीये रे; Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह अबला बाला नारी, सुणोने, बेहेनी रे, ए तो झाला हैयडां मांहे, व्यापी बेहेनी रे. ९.२ हां रे सखी, चैत्रे चतुरा नार, चंपकवरणी रे, पीउडो गयो परदेश, मुकी घरणी रे; आ सेज-तलाइ सार, कहो शुं करीये रे, पीउ विण सूनो आवास, देखी डरीये रे. १०.१ ए तो मालती मधुकरसंग, सुंदर फुली रे, ए तो सामी बेठो बाल[डाल], बोले अमूली रे; . विरहव्यथा अति जोर, मुजने जागे रे, राजुलना रसिया साम, आवे भांगे रे. १०.२ विक्रम ओगणीसमुं शतक ४०. कवियणकृत 'नेमराजुल बारमास'मांथी (जैन काव्यप्रकाश पृ.२३६.) [कृतिनी सं.१८१५मां लखायेली प्रत मळे छे. जुओ गुजराती साहित्यकोश, ग्वं.१, पृ.५२. 'जैन गूर्जर कविओ'मां आ कृति नोंधायेली नथी. कृति 'प्राचीन-मध्यकालीन वारमासासंग्रह' (संपा. शिवलाल जेसलपुरा)मां पण छपायेली छे. - संपा.] आव्यो माह ज मास, नेम न आव्या रे, कोई दूती लागी केड, तेणें भरमाव्या रे; विरह अंगीठी-जाल, हीयडु बाले रे, कांइ तजवं विण-अपराध, ते मुज साले रे. ७ फागण मासें फाग, राग न जागे रे, संगे होवे जो नाह, तो दुःख भांगे रे; । माहारा हैयडानी जाळ, केम ओलाय रे, जो नयणे देखु नेम, तो सुख थाय रे. ८ चैत्र ज मासें अंब, मोर्या रंगे[रंजे] रे, कोकिल करे रे कल्लोल, मधुकर गुंजे रे; फूली नव नव रंग, सहु वनराजी रे, कंत विना न सुहाय, विरहें दाजी रे. ९ ४१. तिलकशेखरकृत 'नेमराजुल बारमास'मांथी (प्रत ल.सं.१८१९) ['जैन गूर्जर कविओ’ मां आनी नोंध नथी. 'गुजराती साहित्यकोश खं.१'मां आ संदर्भने आधारे नोंध थयेली छे (पृ.१५५). - संपा.] ढाल गरबानी माहनी रयणी तलफतां, नावे निंद लगार, म्हारा वाल्हा. ते निरधारां मानवी, किम काढे जमवार, म्हारा वाल्हा. Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ प्राचीन जैन कविओनां वसंतवर्णन फागुण आयो फूटरो, फली सब वनराय, म्हारा वाल्हा, पिउडो नही मुझ मंदिरे, मुझ किम खेलणो जाय, म्हारा वाल्हा. ११ चैत्रे चमके चित्तडो, छोडूं मंदिर एह, म्हारा वाल्हा, नेमि विना किम रहि सकुं, दाधी विरहे देह, म्हारा वाल्हा. १२ ४२. पद्मविजयकृत 'नेमिनाथनो रास' मांथी (र.सं.१८२०, दिवाळी, राधनपुरमां. खंड ४मांथी) [कवि तपगच्छना उत्तमविजयना शिष्य हता. जीवनकाळ सं.१७९२-१८६२. एमनी रासादि प्रकारनी अनेक कृतिओ मळे छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ, भा.६, पृ.४७-७२ तथा गुजराती साहित्य कोश, खं.१, पृ.२३९-४० 'नेमिनाथ रास' 'जैन कथारत्नकोश भा.२' मां प्रकाशित थयेल छे – संपा.] ___भाव श्रावकना भाखीये - ए देशी वाडी वन आरामे ए, वली क्रीडापर्वत ठामे ए, गोठी-कामे ए, सहकार केलि-कमलवने ए. ११ इम सुखमां सुविलास ए, आव्यो वसंत ते मास ए, उल्लास ए, काम नृपति पामे घणो ए. १२ गोपीने कहे हरि आवो ए, नेमने विवाह मनावो ए, ठावो ए, मदनधाममां एहने ए. १३ “पुन्नाग नाग चंपयं, एला लवंग मंडियं, खजूर केलि नालियं, असोगसे अलंकियं. १ वर नागवल्लि सुंदरं, फल पुष्फ पत्त निप्भरं, उझाण तत्थ सिरिकरं, रेहंति दमण मनहरं.” २ मानुं जलपे लोक-शुं, सरस शब्द जे थावे ए, मावे ए, हर्ष लोकमनमां नहीं ए, १४ पल्लव विकसित मिष हसे, वात कंपित मानूं नाचे ए, साचे ए, शाखा पल्लव स्तव करे ए. १५ सरस कुसुमरस चूवे ए, मान एह ते रोवे ए, सोवे ए, विरही सुखे नहीं ते वती ए. १६ फलभर नमीया ते वती, मानुं प्रणमे पाय ए, तिहां आय ए, प्रियजनने ते हर्षथी ए. १७ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह शाखा चलित मानुं तेडे ए, लोकने क्रीडा देवे ए, चेते ए, लोक वसंत ते आवीयो ए. १८ कामे उन्मत्त लोक ए, क्रीडा करे थोकाथोक ए, शोक ए, नहीं कोई चित्तमां तदा ए. १९ नारी लेइ निज साथे ए, उद्याने सहु आवे ए, सोहावे ए, नव नव आभूषण थकी ए. २० पण श्री नेमि जिणंदने, मदन खोभावी नवि शके ए, धक्के ए, मारी काढ्यो मूलथी ए. २१ कोकिल तिहां कूजित करे, वनपालक आवी भाखे रे, विलासे ए, कृष्णजी वन फल फूलीयो ए. २२ डिंडिम देवरावे तिहां, वनलक्ष्मी जोवा जाय ए, राय ए, सहु जन ऋद्धि-शुं आवजो ए. २३ ते सुणी सहु जन हलफल्यो , तरूणलोक मन हरखे ए, वरखे ए, मयण ते बाण सडसडे ए. २४ चोथे खंडे बीजी ए, ढाल प्रथम अधिकारे ए, प्यारे ए, पद्मविजय भाखी भली ए. २५ ढाल ३ : तनमन कीधुं तुने भेट, महारा वाल्हा - ए देशी कानजी जावे उद्यान. ए आंकणी रमवा चालो जाइए वनमां, पडहथी थाये विन्नाण, मारा वाल्हा, क्रीडा वसंतनी करवा चाल्या, बेसी निज निज यान, मारा वाल्हा. कानजी. १ तिहां मंदार - ने दमणो मरूओ, कुंदचंदननां थान, मा. जाइ जूइ ने केतकी वेली, वली रूद्राक्षनां रान. मारा० का० २ पारिजात ने धातकी सल्लकी, रायण चूत अमान, मा. कोरिंट ने मंदार मनोहर, जोवे नेम वली कान्ह. मारा. का. ३ रूखनी जाति न जगमां एहवी, न जडे एह उद्यान, मा० सहु जादव तिहां केलि करता, ज्युं नंदन सुर तान. मारा. का. ४ खाद्य खाये हसे खेले रंगे, केइ करे मद्यपान, मा० केइ करे वीजणे वली वायु, केइ कदली केरे पान, मारा. का. ५ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४९ प्राचीन जैन कविओनां वसंतवर्णन वेण वीणा मृदंग बजावे, कलकल रव जिम गाज. मा. क्रीडा करी एम हवे दामादर, मज्जन केरे काज, मारा. का. ६ पुष्करिणी मांहे स्नान करीने, आवे सरोवर-पाज, मा. केइक नाटक करती रमणी, मदवंती मूकी लाज. मा. का. ७ बहु वाजित्र ध्वनि तिहां उठे, दश दिशे दीसे भ्राज, मा. गोविंद रूकिमणि ने सत्यभामा, कमलक्रीडा करे साज. मा. का. ८ प्रीतमनी प्रिया आणा पामी, आवे नेमनी पाज, मा. देवर देवर कहेती वलगे, आवो रमीये आज. मा. का. ९ नेमजी तो अविकारथी करता, क्रीडा तेह समाज, मा. अच्युत आणंद अंतर पामे, देखी श्री जिनराज. मा. का. १० अंतेउर परिजननी साथे, ते रजनी तिंहा ठाय, मा. इम नित नित तस क्रीडा करता, वारू वसंत वही जाय. मा. का. ११ ४३. पद्मविजयकृत 'समरादित्यकेवली रास' माथी (र.सं.१८४२, विसलनगरमां.) [कृति भीमसिंह माणक तथा बीजाओ द्वारा प्रकाशित थयेल छे. - संपा.] (खंड ५ ढाल २) राग धमाल; पासजी हो, अहो मेरे ललनां - ए देशी वसंतसमय एक दिन हवे आव्यो, रहेतां तिहां सुख मांहि, ललनां. अविवेकी जन आनंदकारी, दिनदिन अधिक उच्छाह. १ मनमोहन मेरे दिल वस्यो हो, मेरे ललनां, दिल वस्यो मन वस्यो मुझ मनमोहन० ए आंकणी. मलय वायु तिहां वाया मनोहर, फूल्यां वन-उद्यान, ललनां, लोक थोक तिहां जोवा चाल्या, कोकिलरव सुणे कान. मन. २ मित्रे परिवृत्त हुं पण चाल्यो, करी तनुशोभा विशेष, ल. अनंगनंदन उद्यानमां जातां, आव्यो राजपंथने देश. मन० ३ नाम विलासवती नृपपुत्री, गोखथी दीठो मुझ, ल. कोई भवांतरने अभ्यासे, रागथी अतिशें अलूझ. मन. ४ बकुलमाला गुंथी निज हाथे, नाखी मुझ शिर तेह, ल. दीठी मुझ वसुभूति मित्रे, थापी कंठदेशे में एह. मन० ५ उर्ध्व जोयुं तब तिहां दीटुं, वदनकमल अद्भुत, ल. हर्ष लह्यो हु ते पण हुइ, तोष विषाद संयुत. मन० ६ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह (खंड ९ ढाल ४) कठडारा आया गुरूजी प्राहुणा - ए देशी आई वसंत ऋतु अन्यदा, वनसिरी अति विलसंत, मारा साजन वाल्हा, चालो वसंत जोवा जाइये, आंबे मंजरीओ भइ, अतिमुक्तक उल्लसंत, मारा. १ तिलकादिक फुल्यां घj, मलयाचल वाया वाय, मा० भ्रमर गुंजारव करी रह्या, कोकिल शब्द सुणाय. मा. २ मदन पीडे बाल वृद्धने, विकसित कमलिणी थाय, मा० कानन सेवे बहुजना, विरह न दंपती खमाय. मा० ३ नगर महर्द्धिक आवीआ, इण समे भूपति पास, मा. विनवे इणी परे रायने, पूरो अमारी आश. मा. ४ “नित्य उच्छव छ यद्यपि, तो पण आज विशेष, मा. ओच्छव उपरे होयशे, ओच्छव जनने अशेष. मा. ५ पाउधारो तिणे राजीया," तव चिंते महाराय, मा. मोकलुं समरादित्यने, देखे विचित्र समवाय. मा. ६ तो समीहित अम नीपजे, उपजे कामविकार, मा. एम विचारी तेहने, भाखे सुखे परकार. मा. ७ “ओच्छव बहु देखावीआ, हुं लह्यो परमाणंद, मा. हवे देखावो कुमरने, तुमचो एह नरीद.'' मा. ८ कहे महर्द्धिक-रायने, “कीधो अम सुपसाय," मा. इम कही ते निज घर गया, तेडावे कुमरने राय. मा. ९ "वत्स ! स्थिति ए आपणी, मधुओच्छव थाये आज, मा. जोवा जाये नरपति,' एम भाखे महाराज. मा. १० “ए मारग तुमे आचरो, में जोयुं बहु वार, मा. हर्ष थशे प्रजा लोकने, तिम स्वजन परिवार.' मा. ११ ४४. लब्धिकृत 'नेमि चंद्रावला'मांथी (र.सं.१८५२. कर्ता लब्धिविजय के लोंकागच्छ गंगशि. कल्याण ?) [वस्तुतः कर्ता लोंकागच्छना गंग-कल्याण-लवजीशि. लब्धि छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ भा.६, पृ.१९५-९६ तथा गुजराती साहित्यकोश, खं.१, पृ.३८०. 'नेमीश्वर भगवानना बसें पंचाणुं चंद्रावला' (युनियन प्रेस, मुंबई, १८८४) नामे कृति प्रकाशित थयेल छे. – संपा.] Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ प्राचीन जैन कविओनां वसंतवर्णन लब्धि कहे महा मंगलकारी, आव्यो माघनो मास, नरनारी मन माहे हरखें, धरती घणुं उल्लास, धरती घणुं उल्लास ते अंगे, मदवंती मतवाली रंगे, मांहोमांहे उमंग शुं भारी, लब्धि केहे महा मंगलकारी. ११५ विगतें शुं वनराय वखाणुं, मोर्या अंब कदंब, नारंगी सोपारी सोटा, लोहण लींबु जंबु, लोहण लींबु जंबु ते दीठां, सीता राम सदा फळ मीठां, फोग अशोग बिलि ने रायपुं, विगते शुं वनराय वखाणुं. ११६ कदलीफल श्रीफल बीजोरां, फणस पेर अंजीर, मधुर स्वरें पंखी विच राजे, कोकील ने वली कीर, कोकील ने वली कीर ते रूडा, मयूर नील चास ने सूडा, शोहे दाडिम द्राख खजूरां, कदलीफल श्रीफल बीजोरां. ११७ कणेयर केतकी नेवली रूडी, बोलसिरि बेफार, केवडी आ कुसुमाकर ऋतुमां, फूल्यां कुसुम अपार, फूल्यां कुसुम अपार अबुठ्या, जेम हरि रंगी बूट्या [बूटा उठ्या], चमरबंध चांपो केशुडी, कणेयर केतकी नेवली रूडी. ११८ लाल रंग गुलाला फरसी, तव ते बंदी जोड, शोश नारंगीना फरमाते, मीसल वार छे छोड, मीसल वार छे छोड ते सारा, गोटा दाउदीशर्णना [दाउदीउना] क्यारा, बेहेके घणी गुलाबनी सरसी, लाल रंग गुलाला फरसी. ११९ उज्ज्वल निमाली साहेली, जाइ जूइ मुहेल, सोन जुई पीली चंबेली, नवली नागरवेल, नवली नागरवेल ते नीली, नवपांखडीये डोलर खीली, वास सुवास रही छे फेली, उज्ज्वल निमाली साहेली. १२० एहवे वसंत रमवाने बागें, पांचम करी निरधार, राजकुमर नेमीश्वर साथे, जावू लइ परिवार, जावू लइ परिवारथी जेहवे, खबर थइ राणीउने तेहवे, तेडी सजनी साथ सोहागें, एहवे वसंत रमवाने बागें. १२१ आनंदे अलबेली रामा. उठी अंग उच्छाह, चारे कोरथी चतुरा चाली, चटपट अति चित्त चाह, Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह चटपट अति चित्त चाह शुं राणी, शोहे सोहागणीयो सपराणी, नखशिख शणगारी सहु श्यामा, आनंदे अलबेली रामा. १२२ सरल चोटला ने अंबोडा, वांकी वेणी व्याल, शीशफूल लई बेठो जाणे, मुखमणी अधिश पयाल, मुखमणी अधिश पयाल ते माथे, लटके लरी नागणीगण साथे, वसन वोढा मुग्धा प्रौढा, सरल चोटला ने अंबोडा. १२३ तेलें तरल अतर-सुगंधे, गुंथी नाना भांत, सेंथे सींदुरे सारी ते, अरूण-रूचि सुविख्यात, अरूण-रूचि सुविख्यात ते जाली, गोफणीयो रही घुघरीआली, भमरीदार चरमरी गती संधे, तेल तरल अतर सुगंधे. १२४ कला चोसठ चोथाई राजे, पूरण मुख मयंक, भाल भला भामनीयो केरां, जोतां ते निकलंक, जोतां ते निकलंकथी दीशे, सुभग समारीयां जोइ अरीसे, पीलीया कुंकुम केशर ताजे, कला चोसठ चोथाई राजे. १२५ तेह मांहे छे आड हरिरंगी, राती जरद प्रकार, कोइ कपालें चांदला कीधा, बिंदी जीणी हार, बिंदी जीणी हार ते कीधी, रत्नजडित अमुलिक लीधी, कइक जडेल कुंदनने मंगी, तेह मांहे छे आड हरिरंगी, १२६ भृकुटी भमर कमान ते कर्षि, केम वखाणी जाय, देश देश प्रवेश करी जोइ, तो पण मन विसमाय, तोपण मन विसमाय ते महारू, कीया देशनी चित्तमां धारूं, जोतां सरगनी अप्सरा सरखी, भृकुटी भमर कमान ते कर्षि. १२७ चपल नयन गति मीनना सरखी, कमल तणे आकार, त्रिगुणी रेख विराजे तेहमां, कीकी तेज-अंबार, कीकी तेज-अंबार सलूणी, अंजनरचित कटाक्षभर जोणी, जोतां सुर नृत्य करे हरखी, चपल नयन गति मीनना सरखी. १२८ काने कुंडल झाल जुमाली, जूमखां[णां] जगमग ज्योत, कामिनी कोइकने काने अकोटा, भूषण घणां उद्योत, भूषण घणां उद्योत ते झलके, कुंदन कानमां चुनीयो चलके, लरललके मुगताशोभाली, काने कुंडल झाल जुमाली. १२९ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३ प्राचीन जैन कविओनां वसंतवर्णन नाके नकवेसर शोभता, कुंदन मुगता-संग, मोर कमान विचे ज अमुलिक, नव ग्रहनां नव नंग, नव ग्रहनां नव नंग रंगालां, ते रूपभूपनां छे रखवाला, चौद भुवन चमके लोभतां, नाके नकवेसर शोभतां. १३० (१३१थी १३५ सुधी आम सुंदरीओनां वर्णन चालु छे.) साज समाज तेडावी मंडी, माननीयो , मोडामोड, पुरवासी पटराणी सघली, बेठी जोडाजोड, बेठी जोडाजोड दबावी, वली ते नेमने वात जणावी, रमवू लाज देवरनी छंडी, साज समाज तेडावी मंडी. १३६ हवे जादव धूम मचावता चंगे, आव्या बाग मोझार, घेर मली प्रद्युम्ननी ने, बीजी नेमकुमार, बीजी नेमकुमारनी साथे, उडे गुलालनी जोलीउ माथे, भरी पिचरकी छांटता रंगे, हवे जादव धूम मचावता अंगे. १३७ तिहां सहुने शान करी समजावे, दासीयो जइ ते माह, नेमकुमर साथे रमवाने, राणीउ आवे त्यांह, राणीउ आवे त्यांह जे टाणे, तमे खेलजो सहु ते परमाणे, कारण छे कोई खेलतो दावे, तिहां सहुने शान करी समजावे. १३८ तिहां आवियां जूथ पटराणी केरां, चारे दिशथी चूंप, रूकमणी ने सत्यभामा आदें, आठे तेम अनूप. आठे तेम अनूप ते साथे, चार सहस एकएक संघाते, मलिया संगे लोक अनेरां, तिहां आवियां जूथ पटराणी केरां. १३९ दशे दिशाथी दिगपालोनी, देवी जोवा काज, आवी अनेक मली ते माहे, पारवती शिरताज, पारवती शिरताज भवानी, रूद्राणी पण आवे छानी, बेहेके सुगंध फूलमालोनी, दशे दिशाथी दिगपालोनी. १४१ श्रवण सुणी रामत अति रंगे, श्रीधर शंकर शेष, शक्र सुरासुर ने अज आवे, जोवा जूजूवे वेश, जोवा जूजुवे वेशथी हरखे, सूरज चंद्र चकित थइ निरखे, गणपति अने पवनसुत संगे, श्रवण सुणी रामत अति रंगे, १४२ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह बानिक बाग, साहेली. १४४ एक वसंत अने वली राजे, बीजी त्रीजुं रमणीरूप सुरंगे, चोथो अंग सोहाग, चोथो अंग सोहाग ते मांहे, पांचमो खेल रसिक उच्छाहें, ए पांचे काम सैन्य लइ साजे, एक वसंत अने वली राजे. १४२ सामासामी रहने साहेली, सरखासरखो संग, बेडुं बलिया विच सोहे, घोली केसर रंग, घोली केसर रंग ते वरणी, चपल गतें फरती मनहरणी, माचे धूम गुलालनी पेहेली, सामासामी रहीने फिरती पिचकारी रही वरसी, कुमर करे विचार, आपणे हवे सरकीने कोरे, नीकलवु निरधार, नीकलवुं निरधार ते आमां, जूथ भेल पाडी तेवामां, रोकी नेमने घेर आकर्षी, फिरती पीचकारी रही वरसी. १४५ मधुरी महुअर वीणा वागे, ढोलक ताल मृदंग, डफ झालर झणके छे झाझी, चरणें वाजां चंग, चरणें वाजां चंग चोफेरी, शूर शरणाई सोर नफेरी, भणणण भेरी भुगलां आगे, मधुरी महुअर वीणा वागे. १४६ श्रीमंडल सारंगी वाजे, दोकड ने करताल, खंजरी खंजननयणीने कर, घोर अवाज रसाल, घोर अवाज रसालथी रणके, सतार ने तंबुरा झणके, विधविध वाजे अंबर गाजे, श्रीमंडल सारंगी वाजे. १४७ तेले ने तंबोले भीनी, तरूणी टोलटोल, लाजनी पाज लोपीने मुखथी, गाये फागुण गोल, गाये फागुण गोल धुमारी, थोकेथोक रहीने नारी, करती आली नेमीसरनी, तेले ने तंबोले भीनी. १४८ लाल गुलालना पाने ने पुखराजे पिचकारी ग्रही हाथ रढिआली, पहोंचे पहोंची जोर जवाली, थाल भरीने, आवे सजनी-साथ, जडीअल, पिचकारी ग्रही हाथ, छांटे छल-शुं दोट करीने, लाल गुलालना थाल भरीने. १४९ तेम तात्युंनो नाद, पाय - ठमकले कटिमेखल घुघरी खलके लइ रहेता वाद, बोले, मादलिया, Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन कविओनां वसंतवर्णन १५५ ते लइ रहेता वाद हालंता, रंगरोल जुकमां मालंता, चमके चूडा वीजली तोले, पाय-ठमकले घुघरी बोले. १५० रह्यो वसंत पावस पर जुंबी, अवनी उपर छाय, चडी गलाल घटा अंबरथी, दिनमणि छबी न कलाय, दिनमणि छबी न कलाय ते खेहें, पिचरकीयो वरसे जडी मेहें, रही वादलीउ-घेर जल्बी, रह्यो वसंत पावस पर जुंबी. १५१ ४५. वीरविजयकृत 'धम्मिलकुमार रास माथी (र.सं.१८९६. पृ.८७-९०.) । [तपगच्छना शुभविजयशि. वीरविजयनी रास तथा स्तवनादि प्रकारनी घणी कृतिओ मळे छे ते सं.१८५७थी १९०८नां रचना वर्षो बतावे छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ भा.६ पृ.२२२-५६ तथा गुजराती साहित्यकोश, खं.१, पृ.४२१-२३. 'धम्मिलकुमार रास' भीमसिंह माणक तथा मोहनलाल दलसुखराम द्वारा प्रकाशित थयेल छे. - संपा.] ढाल ८ : वनमां विसारी वाल्हे वांसली - ए देशी. ....मदनमंजरी मुख मोही रह्यो. पण तातनी आणा शिर वहे, दोय राज्य प्रताप तपंत, मधु माधव सुरभि करे, दिशि दक्षिण वायु वहंत. ५ मदन० एणे अवसर रवि दक्षिण जते, भूमि-स्त्री शीतपीडा देख, अनंग आकाशथी ऊतर्यो, वरतावे आण विशेष. ६ म. मधुमत्त भमरीयो रणझणे, झंकारव मंगलगीत, ऋतु वसंत-राय आवियो, वेधकजन विकस्यां चित्त. ७ म० चतुरां जोबनवय झगमगे, पतिसंगे तेम ऋतुराय, देखी अवनीतल झगी, वनराजी किसल पत्त छांय, ८ म० जाइ केतकी मालती भोगीया, भमरा वनफूलें फरंत, शुक शुकी मेनां वनतरू, करी माला जुगल रमंत, ९ म. हंस हंसी जुगल जल झीलतां, करे क्रीडा सरोवरपाल, मदभर कोयल टहूकती, मुख मंजरी आंबाडाल. १० म० फणस चांपा नारंगियो, रायण दहाडिम सहकार, शेंह] [शोहतुं ?] सीताफल जांबुडी, न नमी केलि तरूफलभार. ११ म. धैरजहर विरहिणी नारीनो, मलयानिल सुरभि वाय, मद उपजावे जुवाननें, वो ओच्छव मधुराय. १२ म० Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह नागर जन-शुं नृप परिवर्या, जाय रमवाने उद्यान, पवनप्रेरित तरूपल्लवा, मानु नृपने करत आह्वान. १३ म० केई गावें गीत वसंतनां, नारी कंठे फूलनी माल, मदिरापान करी नाचती, केइ हाथ ग्रही कंसताल. २८ म. नरनारी करी घर केलनां, रमे सोगठांबाजी सार, तरू उपरे कुसुमने वीणती, उंचा हस्ते स्पर्द्धित तार. २९ म० प्रिया बेठी हींचोले निज पति, केइ जुगल जलें कल्लोल, केइ हाथ प्रिया कंटें ठवी, लाल गुलालसें रंगरोल. ३० म० तिहां कुंवर कुसुमवन खेलतो, तरू बांधी हिंचोलाखाट, मदनमंजरी अंकें धरी, जुवे नवरस नव नव नाट. ३१ म० जई सरोवर जलक्रीडा करे, जेम कमला-शं मोरारि, संध्या समे सहु घर गयां, नृप साथें नगर-नरनारि. ३२ म० तव मदनमंजरी कहे कंथने, आज रमवा सरिखी रात, परिकर सहु घर मोकलो, आपण दोय जशुं परभात. ३३ म. रह्यो कुंवर विसर्जी परिकरा, वनिता-शुं वनमां तेह, सविता समरी वल्लभा, गयो पश्चिम दिशें निज गेह. ३३ म० धम्मिलकुंअरना रासमां, खंड बीजे आठमी ढाल, वीर कहे वैरागिया, सुणो आगल वात रसाल. ३४ म. ४६. वीरविजयकृत 'नेमराजुल बारमास'मांथी (जैन काव्यप्रकाश, पृ.२३४.) [प्राचीन-मध्यकालीन बारमासा संग्रह' (संपा. शिवलाल जेसलपुरा)मां तथा अन्यत्र पण छपायेल छे. - संपा.] पियु माहा मासें जाओ रे, हिमालो हालशे, रयणी एक वरस समान, वियोगी सालशे. लंकाथी सीता खट मासें, राम घर लाविया, एवा वही गया साते मास, प्रितम घेर नाविया. ९ हलकारो हसंत वसंत, आकाशथी ऊतर्यो, मार्नु फागुण सुर-नरराय, मलीने नोतर्यो, होली खेले गोपी गोविंद-सुं, घर आवती, अलि केसुआं झंपापात, वियोगें मालती. १० Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन कविओनां वसंतवर्णन सखि चैतरें चित्त थकी, विछोही वालमे, आवा दुःखना दाहाडा केम जाय, उगे रवि आथमे. आंख मींचाणे मली जाय रे, ऊघाडे वेगलो, सामलीओ सिद्धस्वरूप, सपनमां आगलो. ११ रमे हंसयुगल शुक मोर, चकोर सरोवरें, निज नाथ सहीयरने साथ, सुखे रमे वनघरे, मुख मंजरी आंबाडालें, कोयल टहुकती, सखि वातमां वीत्यो वसंत रूए राजीमती. १२ ४७. वीरविजयकृत 'नेमिनाथ वसंत स्तवन' मांथी [ 'जैन गूर्जर कविओ' के 'गुजराती साहित्यकोश खं. १ 'मां आ कृति नोंधायेली नथी. संपा. ] १५७ राग धमाल आयो वसंत हसंत सहेली ! राधे मधु दोय मास, ललना, विरही डसंतो ने नाम वसंतो, संतकुं सदा सुखवास. १ मन-मानसरोवर हंसलो हो, अहो मेरे ललना. आयो०- ए आंकणी. राग वसंत करत है गोपी, खेलत होरी मुकुंद, ललना, कहे राजुल सुण मृग - वाइ हो, विरहीकुं दुःख दीये चंद. मन० २ मुख मंजरी वली कोयल टहुके, जब फलीयो माकंद, ल० मधुकर मालतीपरिमल ले हो, मराल - युगल अरविंद मन० ३ तरूके परवाल पलास भइ हो, केतकी अबिर गुलाल, ल० रंभा सी खेड [सुखेड ?] सुचंपक विकसे, दाडिमफल सुविशाल. मन० ४ खंड समस्त सुमनस सुगंधको, मित्र चित्र हितकार, ल० एणे अवसर चलीयें हम छोडी, कंतजी गढ गिरनार मन० ५ * जग जसवास लही बेहु बेठा, वली शुभविजय विशाल, ल० वीर कहे दंपती दबावे हो, मंगल तणी लहे माल. मन० ११ साल वगरनां काव्यो ४८. आनंदकृत अंतरीक्ष पार्श्वनाथ वसंत गीत [आ कृति- कर्ना' जैन गुर्जर कविओ' के 'गुजराती साहित्यकोश खं. १ 'मां नोंधायेल संपा. ] नथी. Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ अवसरका लाहा राग धमाल लीजीयें हो, प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह अहो मेरे ललनां, चल हो शिवपुर जाहिं. अव० लहके मलयसमीर, मंजरीरसलुब्धं कीर. अ० १ शीतल सरोवरनीर, गुंजत मधुकर धीर. अ० २ महके मास वसंत के तरूवर, अंब - अंब बिनु मोर जगे है, वन-वन- कुंजन टहकत कोकिल, इत उत ललित लताकुंजनमें, नवल वसंत नवल वर नागर, नवल शृंगार-सोहार, नवल अबीर गुलाल- शुं संधी, नवल अंतरिक्ष आगे रा गावत मंगल धूमत चंग मृदंग उपंगे, नटुवा लें चाहे या वसंतसमय मनमोहन, या सूरिजनको नवल धुंवार अ० ३ या प्रभु पास भेट भए थें, आनंद भइ रसरेल. अ० ५ ४९. आनंदकृत 'राजुल बारमास' मांथी [ आ कृति-कर्ता 'जैन गूर्जर कविओ' के 'गुजराती साहित्यकोश खं. १ 'मां नोंधायेल नथी. संपा] चार, इंगाल. अ० ४ खेल, दैवें विरही सरजीयां रे, कांइ न सरजी पांख, मनरा मान्या, बिहुं टोडें नारंगडी रे, माहे मोरी द्राख, मनरा मान्या. ५ चंग मृदंग डफ ताल-शुं रे, मुखडे पंचम राग, मन० केशरीये सब साज-शुं रे, फागुण रमीयें फाग. मन० ६ केइ फूली केइ पालवी रे, केइ कुंपल वनराय, मन० आंगण आंबो मोहरीओ रे, वलियो चैत्र सुवाय. मन० ७ ५०. रंगवल्लभकृत 'नेमि बारमास 'मांथी [कृति-कर्ता 'जैन गूर्जर कविओ' मां नोंधायेल नथी, 'गुजराती साहित्यकोश खं. १ 'मां आ संदर्भने आधारे ज नोंधायेल छे (पृ. ३४८). अन्य माहिती प्राप्य नथी. संपा. ] - ढाल सिपाइडानी माघ सदा सुखदाय, अरे जांनी, सुखीयांने संसारमें, साहिबीया रे, प्राणनाथ मुझ नाहि, अ० लव लाइ गिरनार में सा० ७ फागुण सरस सुहाय, अ० अबीर गुलाल उडाइये, सा० ढोल मृदंग सुहाय, अ० गीत धमाल ज गाइये. सा०८ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन कविओनां वसंतवर्णन १५९ चैत धरूं किम धीर, अ. विरहव्यथा तन उपजी, सा. कोइ न एसो सेण, अ० आणि मिलावे नेमजी. सा. ९ ५१. लब्धिवर्धनकृत 'नेमनाथ बारमास सवैया'मांथी [जैन गूर्जर कविओ' मां आनी नोंध नथी. 'गुजराती साहित्यकोश खं.१'मां आ संदर्भने आधारे नोंध छे (पृ.३७९). - संपा.] सवैया बढी अति राति किउंही न विहाति, सुजन संघाति विना, सुणि माइ, परइ परतक्ष नुसार के लक्ष, पजारत वृक्ष सुकी वनराइ, सुहात न सीत नही उहू मीत, करिं जिम चीत घरंगणि आइ, राजूल अनूप सूहावति धूप, मोसे मनि माह महा दुखदाइ. ७ सबेहू सखी संगि मिली मनरंगि, वजावति चंग पढंति धमारो, आयो री वसंत विनोद अनंत, राजूमति कंत मोहि मत छारो, मादल ताल वजावति बाल, झखइ अति आल हो होरी पजारो. (पा. झखंति अली सबहार पजारो,) (अहो) फागुणमें फरि प्रेम बढई जू सखी, जो मिले यदि (नेम) शिवादेको बारो. ८ कुहकइ कोकिला मधुर ध्वनि-स्यु, सुणि नाद विनोद हों हियरो, सहकार उदार फूलि वनमझि, मनोहर वायू वहि शियरो, अलिनी अति आलि करंति सुभालि, वदन विशाल भयो पीयरो, चित्त चैतक मासि मिलइ यदि नेम, महासुख प्रेम लहे जीयरो. ९ ___ [जैनयुग, फागण १९८३, पृ.३०६-१९ तथा महा-फागण १९८४, पृ.२०१-१२] Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० नयसुंदरकृत प्रभावती नाटारंभ गीत [नयसुंदर वाचक वडतपगच्छना भानुमेरुगणिना शिष्य हता अने सं.१६मी सदीमां ए थया छे. एमनी रासादि प्रकारनी अनेक कृतिओ मळे छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ, बीजी आवृत्ति, भा.२, पृ.९३-११२ तथा गुजराती साहित्यकोश, खं.१, पृ.२०४-०५. 'प्रभावती नाटारंभ गीत' ते एमना ‘प्रभावती रास' (र.सं.१६४०)नो अंश होवानो संभव छे. – संपा.] श्री राग एक दिन राणी मन-उल्लासई, आंगी जिनतनि रचित विशेष, सतरभेद पूजाविधि करती, मंडति नाटारंभ अशेष. प्रभावती नाचति प्रभु आगलि हरिलंकी हरिप्रिया समान. १ चतुर चारू कल दिखावति, राखती स्वर षड्जादिक मान. धूपदं चोली चीर कसी वर चरणी, सारी सार सकल शृंगार, पाए घमघम घूघर घमकावति, झणझण झणण झंझर झमकार. २ प्रभावती० चरण चालवती चचपट छंदइ, सारीगमपधनि सुस्वर अभिराम, तिननन तिननन तेउ आलवति, गावति मधुर वीर-गुणग्राम. ३ प्रभावती० धधिकट धिकट्ट धिकट्ट मद्दल, दम दम दों दो तिविल विचित्र, तंती ताल वंश सिरिमंडल वाजति चारू विविध वाजित्र. ४ प्रभावती० सुर नर चित मोहति चंचल दृग, दिइ भमरी तव अमरीरूप, सारीगम-गरि गमरि गगमरि, वीणानाद वजावति भूप. ५ प्रभावती० बोधिबीज विमल तिम अनुदिन, प्रभावती जिनभक्ति करेवि, नयसुंदर संतत गुण गावति, पावति पुण्यनिचय तेणि खेवि. ६ प्रभावती० - इतिश्री नाटारंभ प्रबंधबद्ध गीतम्. [जैन श्वेतांबर कोन्फरन्स हेरल्ड, एप्रिल-मे-जून १९१८, पृ.१५९-६०] Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१ लावण्यसमयकृत रावणमंदोदरी संवाद ('विमलप्रबंध'ना रचनार प्रसिद्ध जैन कवि लावण्यसमयनी आ कृति सं.१५६२मां रचायेली छे. आ रचाया पछी त्रण ज वर्षे सं.१५६५मां जैनेतर कवि श्रीधरे जूनागढमां 'रावणमंदोदरी संवाद' रचेलो के जे श्री फार्बस गुजराती सभा तरफथी गत वर्षमा प्रकट थयो छे. कवितामां संवाद रचवानी प्रथा हती अने ते प्रमाणे लावण्यसमये ज ‘करसंवाद' अने अन्य जैन कवि सहजसुंदरे ते ज अरसामा ‘यौवनजरा संवाद' रचेल छे. (जुओ मारो जैन गूर्जर कविओ, प्रथम भाग, पृ.७९ अने १२८) [बीजी आवृत्ति, भा.१, पृ.१६२ तथा पृ.२५४] आ कृतिनी सं.१६८२मां एक ज लेखकनी लखेली बे प्रतो मारी पासे छे. छतां बनेमां पाठांतरो मळे छे. ते कौंसमां के टिप्पणीमां मूकेल छे. आ सिवाय अन्य एक पण प्रत क्यांयथी उपलब्ध थई नथी; बीजी जूनी प्रत मळे तो केटलीक अशुद्धिओ टळे. आ ढूंकी कृति छ अने विक्रम सोळमा सैकानी छे तेथी ते गुजराती प्राचीन साहित्यना अभ्यासीने उपयोगी थशे एम समजी जेवी प्राप्त थई छे तेवी उतारी पाठांतर सहित अत्र मूकेली छे.) [कवि अने एमनी कृतिओ माटे जुओ जैन गूर्जर कविओ, बीजी आवृत्ति, भा.१ पृ.१६२-८६ तथा गुजराती साहित्यकोश, खंड,१, पृ.३८७-८८. प्राप्त प्रतो ऋ. राघवे लखेली छे एम पुष्पिकामांथी स्पष्ट थतुं नथी. ऋ. राघव माटे ए लखायेली पण होई शके. आ कृति शिवलाल जेसलपुरा संपादित 'कवि लावण्यसमयनी लघु काव्यकृतिओ' (१९६९)मां पण प्रकाशित थयेली छे. अहीं एना पाठोनो पण लाभ लेवामां आव्यो छे. चोरस कौंसमा छे ते एना पाठो छे. – संपादक] राग श्रीराग [मंदोदरी:] सूतलो सींह जगावीउ, नडीओ वासग नाग रे, सीत हरी ति स्युं कर्यु, रूठा रामना पाग रे. १ सांभलि रावण राजीया, जासे महियलि माम रे, सती सीता तई कां हरी, विरी वंकडो राम रे. सांभलि. २ [रावणः] गिहिली तूं गामटि गोरडी, बाला ! बोल म बोलि रे, बांहि तणू बल माहरूं, मेर समोवडि तोलि रे. सांभलि. ३ सुणि रे मंदोदरी माननी, बोले रावण राण रे, कवण कहीइ मझथी वडो, समरथ सपराण रे. सांभलि. ४ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह [मंदोदरी: ] बल ने बांह ते तिहां लगे, पोते पुण्य जिहां पूर रे, सूर में चंद्र बेहू साखीआ, पापिं भूदर भूर रे. सांभलि० ५ [ रावणः ] खाई तो समुद्र सखाइयो, माहारे कनकमय कोट रे, लोट करूं लख वेरी, मुझ कुण दीईं दोट रे. सांभलि० ६ [मंदोदरी: ] दहो दसि दीसे दीपतु, भलो दशरथ भूप रे, तेह तणा सुत सांभलो, सोई अकल सरूप रे. सांभलि० ७ [ रावणः ] राम ने लखमण जे कह्या, दोई रडवडे रानि रे, सुवर्णमृग मारणे गया, सोई मूरख मांनि रे. सुणि रे०८ [मंदोदरी : ] मूरख ते महिला हरे, करे कठण अन्याय रे, रांग ने लखमण लख परे, होसे त्रिभोवनराय रे. सांभलि० ९ [ रावणः ] नीटर नारि तूं निरगूणी, राची [ राती ] रामनइ रंगि रे, अंगि वनो नही आसनो, भली भगति नही भंगि रे. सुणि रे० १० [मंदोदरी : ] पन्नग जिम पय पाइउ, मेहले विष विकराळ रे', कमीनइ कोई हित कहि, थाइ दूख भूपाल रे. सांभलि० ११ [ रावणः ] कोपि चड्यो रावण कहि, तूं तो बोलि म आल रे', कवण भलो भड मुझ थकी, समरथ भूपाल रे. सुणि रे० १२ [मंदोदरी: ] पिहिलूं तां हनुमंत मोकल्यउ, जोउ सीता - नोमाह रे, कंथ, कहूं तम्हे श्युं कर्यु, कीधु लंकनो दाह रे. सांभलि० १३ [ रावण: ] कुंभकरण भाई भलो, भंडार अखूट रे, लंक लखी मुझ (महारा) बेसणे, नामईं दुर्घट कोट रे३. सुणि रे० १४ [मंदोदरी: राम ने लखमण बेउ मळ्या, वली वांनरा कोडि रे, कटक- सजाइ छई घणी, [ रावणः ] जम भेंसो थई जल वहे, सीता-संकट छोडि रे. सांभलि० १५ सात समुद्रना वार रे, मातर सात ऋणि वेलां, दीप आरती उतारि रे. सुणि रे० १६ [मंदोदरी: ] परबत पेखि उपाडीया, ताहरे हइयडि नहीं साज (सान) [ लाज?] रे, कंथ वली एणि वांनरि, बांधी सागरपाज रे. सांभलि० १७ [ रावणः ] शेष सदा सिरि छत्र धरे, विश्वकर्म्मा शृंगार रे, ब्रह्मा परोहित आपणे, दशमुख अवतार रे. सुणि० १८ १. विषयनी झाळ रे. २. हूं तो त्रिभुवन साल रे. ३. दुर्ग त्रिकूट रे. Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ लावण्यसमयकृत रावणमंदोदरी संवाद [मंदोदरी:] वानरदल आवइ घणा, खेहि छाहीउ सूर, । रणसजाइ छि घणी, जम जलहर-पूर रे. सांभलि. १९ [रावण:] राखो ते रावण सुणि माननी, जीत्या इंद्र नरेंद्र रे, जों ए सती बल माहिरू, जीत्या सूर ने चंद्र रे. सुणि. २० [मंदोदरी:] उ आवइ दल दडवड्यां, वाजि ढोल नीसांण रे, रामघरणि तणि कारणि, प्रीआ (कंथा) कांय तजो प्राण रे. सांभलि. २१ [रावण:] मृत्यु (मरण) मई मरडी बांधीउं, पाड्यो शेष पातालि, खटकइ पाइए खाटने, ग्रहे नवे नीहालि रे. सुणि. २२ [मंदोदरी:] प्राण कस्युं कहि प्रीयडा ! आवे राम सजोड रे, कोडि ग्रह्या कामीपणे, ताहरू मरडसे मोड रे. सांभलि२३ [रावण:] कोद्रवडा विही कामनी (वंकडी), दले दिवसि नई राति रे, वाउ (वायु) बुहारे ते आंगणूं, देवी ! देखि परभाति रे. सुणि. २४ [मंदोदरी:] राम ने लखमण दोआंगमा, जस्या सूर नइ चंद्र रे, इंद्र नरिंद्र सखाइया, ताहरो काढसे कंद रे. सांभलि. २५ [रावण:] चामर ढाले चिहुं दसइ [पखइ], गंगा जिमनां माय रे, छए रति पूरे फूलडां, वीणा सरसति वाय रे. सुणि. २६ [मंदोदरी:]धडहड (द्रहद्रह) धरणी धडहडे, दे छे वानरा फाल रे, सीता लेई साहमा मलो, कंथा ! कांई करो काल रे. सांभलि. २७ [रावण:] गीतगांन तुंबर करे, इंद्र आले छे माल, नाचे रंभा तिलोतमा, नारद वाहि छे ताल रे. सुणि. २८ [मंदोदरी:] रामने रोस छइ अति घणो, तई तो कर्यो विकर्म रे, राज तणो रस हारीउ, हारिउ तईं जस धर्म रे'. सांभलि०२९ [रावण:] बुध आरीसो आठवे, सुक्र मंत्रणे (मंत्रीसर) होय रे, खणि खणि चंद्र अमी झरे, रवि करे रसोइ रे. सुणि. ३० [मंदोदरी:] भालोडे भाथा भर्या, करे धनुषटंकार रे, राम नइ लखमण जोडली, बहु जगि जेकार रे६. सांभलि०३१ [रावण:] मंगल ते मिहिषी दोहि, गुरू रहि घडीयालि रे, गर्दभ (गोरू) चारि गणपती, अगनि वस्त्र पखालि रे. सुणि. ३२ ४. कोड रह्या कांमीतणा ५. राजतणे रसि वाहीउ, हरि ते जस धर्म रे. ६. बे पखि जसार रे. Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह [मंदोदरी:] भूधर भाला झलहलि, रवि खलभलि तेज रे. सूंने हइयडि सूं हुउं [रहिउ], हजी सीतनई हेज रे.° सांभलि० ३३ [रावण:] काम कटेरू करि धरि, स्वामि करि तलारूं रे, लाख सवा रे बेटा वली, असं राज अह्मारूं रे. सुणि० ३४ [मंदोदरी:] सांभलि मेगल-सारसी, कंता ! कटकनु पूर रे, __ हयवर सरि पाखर हवी, रणक्या रणतूर रे. सांभलि. ३५ [रावण:] मेघ दीई छडाछाबडा, मेर माहरि मति [मूठि] रे, तोलि नवि उरवशी जोइ माहरी गति रे. सुणि०३६ [मंदोदरी:] आवो तो [आविउ ते] राघव राजीउ, रूडा रूपनउ रेड रे, ढमढम ढोल द्रसूकीआ, कंथा ! कांय करि जेडि रे. सांभलि. ३७ [रावणः] कोडि तेत्रीस देवता, अह्म उलगि आज रे, राम विखाणि ते कस्युं, तुझ न आवई लाज रे. सुणि० ३८ [मंदोदरी:] लाज कसी रे लंकापति, चढ्या कटक जो पाज रे,० सीत समुहुती सोंपीइ, रूडां रामनां राज रे.११ सांभलि. ३९ [रावण:] पायक (परिकर) पार न पांमीई, गज मझ घरि अपार रे,१२ हीसइं हईंवर हांसला, राखसनउ परिवार रे. सुणि. ४० [मंदोदरी:] कांरिमूं कटक ते ताहिरू, साचूं राम-नूं राज रे, पोढो पाथर जल तरि, पेखो प्रतक्षि आज रे. सांभलि. ४१ [रावण:] पुर पोढो ते माहरि, कांता कोडि बि च्यार रे, गोकुल गोरस ते घणा, कांय हईयडि तूं हारि रे. सुणि० ४२ [मंदोदरी:] मान घणूं रे मनि तह्मारडि, कंथा कांय अबूझ रे, सांन नहीं हीयडि सही, कस्युं राम-झू झूझ रे. सांभलि. ४३ [रावणः] च्यार लख्य चहुटां भलां, रथ छि त्रण कोडि रे, अण्य कोडि मेडा ठव्या, नव कोडि घर-जोडि रे. सुणि० ४४ [मंदोदरी:] गढ मढ मंदिर मालीआं, प्रीय ! होसइ पीआरा रे, सूरजि-वंसी रामना, सेन आव्यां सवारां रे. सांभलि० ४५ ७. ३३नी बीजी पंक्तिथी ३६मी कडी सुधी बीजी प्रतमां नथी; मात्र ३४नी १ पंक्ति छे. ८. [मरण माहरी मुट्ठि रे.] ९. [ढोल चडिउ चंद्रामुखी, पग देइ शनिपूठि रे.] १०. चडयुं कटक जेह रे. ११. सीत साहमी लेई सोंपीइ रूडा रामनइ तेह रे. १२. गज मझ दरबारि रे. Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लावण्यसमयकृत रावणमंदोदरी संवाद १६५ [रावण:] अंगिई इंद्र सुरपति नडूं,१३ वाहू वियरीडा-हाथ रे, साथ कस्यो ए रांमनो, कोण मुझ-सूं दीइ आथ रे१४ [मंदोदरी:] प्रीय ! तुं प्रेम कस्यो करे, नही सीत सनेह रे, एक पखि अलजो कस्यो, देव ! कांइ दीउ [दहउ] देह रे. सांभलि० ४७ [रावण:] मंदोदरि ! सुणि माननी, सारी सीख सीखाडि रे, देवि ! ए डाहापण ताहिरूं, माहारू रूप देखाडि रे. सुणि. ४८ [मंदोदरी:] मेर चलि महीयल ढलि, वहि काली[अवलीय] गंग रे, सीत सती वांछि नहीं, तोहि ताहिरो संग रे. सांभलि. ४९ [रावण:] दस मस्तक छि माहरि, भुजादंड छि वीस रे, लोचन वीस लख्यां वली, मझ मांनि छि ईस रे. सुणि० ५० [मंदोदरी:] पेहिडो ते समुद्र सखाइउ, पेहिडो लंकानो लोक रे, : लंकधणी रे लंपटपणि, ताहारूं तेज थयुं फोक रे. सांभलि. ५१ [रावण:] चार नई दसि ते चोकडी, लख्यु चोपट राज रे. राम ते कुण कुण वानरा, कसी बांधी छि पाज रे. सुणि. ५२ [मंदोदरी:] पहिलू ते अंगध झूझीउ, झूझो राय सुग्रीव रे, मेहलसि हनुमंत मोकलो, किम राखसो जीव रे. सांभलि. ५३ [रावणः] राखस रूख जसा थयाधिस्या], कुंभकरण कठोर रे, लाख सवा रे बेटा वली, रणि जाई छई जोर रे. सुणि. ५४ [मंदोदरी:] खडखड खांडा खडखडे, भड थया छिं हीण रे,५ राम तणि रणि रोलवई, ताहारूं सेन थउ दींण रे. सांभलि० ५५ [रावण:] अठोतर सो बुधडी, माहारि वसि कपालि रे, हूं रावण ते लंकेसरी, कां राम पडि जंजालि रे. सुणि० ५६ लंका ते वीटी वानरे, पाडि पोल्य पगार रे, सार न जांणि साथीया, झूझि झूझणहार रे. सांभलि. ५७ रोसई ते रावण धडहड्यो, उठो उधर[उद्धत] वीर रे, राम तणि रणि आफल्यो, ढल्यो धरणी सरीर रे. सुणि० ५८ जयजयकार जगत्रि हूउआ, वरत्यां रंगना [नवरंग] नाद रे, संवत पंनर बासठि, रच्यो रास संवाद रे. जय जय० आंचली. ५९ १३. अंगि अडु [नडु] नरपति नडूं. १४. कोण मझ सम नाथ रे. १५. [भड धाइ धडहीण रे.] Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह राजि विभीषण थापीउ, आप्यो रावणपाट रे, राम नई लखमण गहगहीया, वाल्यो नीय(च)नुं घाट रे.१६ जय जय० ६० लंक दही रावण हणी वाली सीत श्री रांमि रे, मुनी लावनसमइ भणिई, आव्या आपणि ठामि रे. जय जय० ६१ सीलीईं जलि पाथर तरि, सीलि नव डिसि नाग रे सीयलि मति जसा [अग्नि ते] सीयली, सीलि सीत सोभाग रे. जय जय० ६२ रांम अजोधां आवीआ, सोहि सीत अरधांगि रे१७ मुनि लावनसमि भणि, बिठा रायनई संगि रे. जय जय० ६३ इति श्री रावण मंदोदरी संवाद समाप्त. संवत १६८२ वरषे भाद्रवा वदि ८ लिषतं ऋ राघव तथा गं. वीरदासा पटनार्थे सुभं भवतु. छ. (मारी पासे बे प्रत, बन्ने ऋ. राघवे लखेली छे.) [बुद्धिप्रकाश, ओक्टोबर १९३१] १६. [ चालीआं न्यायनी वाट रे] १७. सोहि सीत सणगार रे. १८. आवागमन नीवार रे. Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ मेरुनंदन उपाध्यायकृत अजित-शान्ति स्तव (रच्या सं.१४३२ आसपास.) (खरतरगच्छना जिनोदयसूरिना शिष्य मेरुनंदन उपाध्यायनी अन्य कृतिओ सं.१४३२नी मळे छे. जुओ जैन गुर्जर कविओ, भा.१, पृ.३८-४९ अने ४३४-३५ तथा गुजराती साहित्यकोश, खं.१, पृ.३२६. आ कृतिमां गुरुपरंपरा नथी. आ कृति 'रत्नसमुच्चय' तथा 'अभयरत्नसार'मां छपायेली छे. - संपा.] मंगल-कमलाकंदु ए सखि सागर पूनिमचंदु ए, जगगुरू अजिय जिणंदु ए, संतीसर नयणानंदु ए. १ बे जिणवर पणमेवि ए, बिहु गुण गाइसु संखेवी ए, पुण्यभंडारू भरेसु ए, मानवभव सफल करेसु ए. २ कोडि हि लाख पंचासू ए, सागर जिणसासणि भासू ए, रिसह-जिणेसर-वंसू ए, उवज्झाउरि-सरवर-हंसु ए. ३ इणि अवसरि तिह राजीयउ ए, राजा जितशत्रु जगि गाजीउ ए, विजया तस घरि नारि ए, बे रमइ तु पास सारी ए. ४ कूक्खहि जिण अवतारू ए, तिणि राउ मनाविउ हारू ए, उवरि वसिउ दस मासु ए, पुण पूरइ जणणी आसु ए. ५ बिहु जण मनि आणंदियउ ए, सुत नाम अजिय जिण तुह दीयउ ए, तिहुयण सयल उछाहु ए, क्रमि क्रमि वाधइ जगनाहू ए. ६ हंस धवल सारस तणी ए, गति सुललित निज गति निरजणी ए, मलपति चालइ गेली ए, जणनयण अमीयरस रेलि ए. ७ अवर न समउ संसारी ए, बल नाण विवेक विचारि ए, गुण देखी गज गहगहइ ए, लंछण मिसि पग लागी रहइ ए. ८ जोवनवय जय आवीयउ ए, तव वर रमणी परणावीयउ ए, प्रिय साधई सवि काजु ए, प्रभु पालइ पुहविहि राजु ए. ९ हविं हत्थिणाउर ठामि ए, विससेण नरेसर नाम ए, राणीय अयरा देवि ए, मणहर सुख माणइ बेवि ए. १० चउद सुमिणे परवरिउ ए, अयरा-उयरिहिं सुत अवतरिउ ए, मानवदेवि वखाणीयइ ए, चक्कीसर जिणवर जाणीयइ ए. ११ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह देसि नयर हुए संति ए, तीण नाम कीयउ सिरि संति ए, जिणगुण कुण जाणइ कही ए, तिहुं भवणे तस उपम नही ए. १२ नयणसलूणउ हरिणलउ ए, वनि सिंहिं बीहइ एकलउ ए, नयर - समाधि-निरोधू नारि-विरोधू ए. १३ लोक कुरंग ए, ए. अनइ नय गीतह राग सुरंग ए, पुण पभणइ तउ उलगई ससंकू ए, तीणई पामिउं नाम कलंकु ए. १४ इणि परि मृग अति खलभलिउ ए, भयभंजण सामी सांभलिउ ए, तु आदिउ नि आपणइ ए, पाय सेवई, मिसि लंछण तणइ ए. १५ लीलापति परणइ घणी ए, नवनवीय कुंयरी रायह तणी ए, बलछलि अरिजण जोगवई ए, प्रीय राज भली परि भोगवइ ए. १६ कुमर तणई मंडलि सम ए, पंचास सहस वरसह गम ए, तउ तेजहि दिणयर जिसउ ए, ऊपन्नउ चक्करयण इसउ ए. १७ साधीय भरह छ खंड ए, वरताविय आण अखंड ए, चउदह रयण नवनिहि सही ए, वर [ वसु] सोल सहस्स जकखे अही ए. १८ सहस बहर पुरवरह, बत्तीस मउडधर नरवरह, पायक गामह कोडि ए, छन्नवइं नमइ कर जोडि ए. १९ हय गय रहवर जूजूआ ए, लख चउरासी मंदिर हूआ ए, लखत्रि वाजि घमघमइ ए, बत्रीस सहस्स नाटक रमइ ए. २० रूपि जिसी सुरसुंदरी ए, लखण लावन लीला भरी ए, जंगम सोहग्ग- देहुरी ए, अवर ज रिद्धि प्रकार तिणि कहिवई कुण जाणू ए, वपु वपु रे पुन्नप्रमाणू ए. २२ इम चक्कीसर पंचमउ ए, चउथई वरिस सहस्स पंचवीस ए, सवि पूरीय इणि परि बिहुं तित्थंकरह, चिर पालीय राज जाणिउं अवसर सारू ए, बहुं बिहु खम दम धीरिम धरि ए, बिहुं मोह मयण मद परिहरी ए, विहु जिण - झाण समाणू ए, बिहु पामिउं केवलनाणू ए. २५ बिहु देवह कोडिहिं महिय, बिहुं चउतीसई अइसइ सहीय, समउसरण बिहु ठाणु ए, बिहुं जोजन वाणि वखाणु ए. २६ दूसमसूसमउ ए, मनहि जगीस ए. २३ विविह परिह संजमभारू ए. २४ इसी चउसठि सहस्स अंतेउरी ए. २१ ए, मणि कंचण रयण भंडारू ए, * Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुनंदन उपाध्यायकृत १६९ नाचइ रणकत नेउरी ए, बिहु आगलि इंद्र-अंतेउरी ए, टगमग जोवइ जग सहू ए, रंगिहि गुण गावइं सुर बहु ए. २७ बिहु सिरि छत्र चमर विमल, बिहु पगतलि नव सोवन कमल, बिहु जिण तणइ विहारि ए, नवि रोग न सोग न मारि रे. २८ बिहु उवयारि भवण भरी ए, बिहु सिद्धिरमणि-सिउं वर वरी ए, बिहु भंजिय भवछंदू ए, बिहुँ उदयउ परमाणंदू ए. २९ इम बीजउ अनइ सोलमउ ए, जिण चिंतामणि सुरतरू समउ ए, थुणइं संझि विहाणि ए, तह नव परिभव नवि हाणि ए. ३० बे उछव मंगल करण, बिहुँ सयल संघ दुरियां हरण, बिडं वर कमल वयण नयण, बेउ श्रीय जिणराज भुवणरयण. ३१ इम भगतिहिं भोलम तणी ए, सिरि अजय संति जिण थुइ भणी ए, सरण बिहुँ जिण पाए, श्री मेरूनंदण उवज्झाय ए. ३२ [जैनयुग, भाद्रपद १९८५-कारतक १९८६, पृ.५२-५३] Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० आत्मनिंदापूर्वक वीरने विनतिनां स्तवनो १. ऋषभकृत [देशाईए आ स्तवनने ऋषभदास श्रावकनुं मान्युं छे. पण स्पष्ट आधार विना एम कहेवू तुश्केल छे. ऋषभ एटले ऋषभविजय, ऋषभसागर एम पण होई शके छे. भाषास्वरूप संवत १८मी सदीनी रचना होवानुं बतावे. – संपा.] वीर जिणेसर ! साहिब मेरा, पार न लहुं तेरा; महेर करी टालो महाराजजी! जनममरणना फेरा. हो जिनजी ! अब हुं शरणे आयो. १ गर्भावास तणां दु:ख मोहोटा, उंधे मस्तक रहियो, मलमूतर मांहे लपटाणो, एहवो दु:ख में सहियो. हो जिनजी !० २ नरक निगोदमां उपनो ने चवियो, सूक्ष्म बादर थइयो; वेहेंचाणो सुइने अग्रभागे, मान तिहां किहां रहियो. हो जिनजी !३ नरक तणी वेदना अति उल्लसी, सही ते जीवे बहू; परमाधामीने वश पडीयो, ते जाणो तमे सहू. हो जिनजी!० ४ तिर्यंच तणा भव कीधा घणेरा, विवेक नहींय लगार; निशिदिननो व्यवहार न जाण्यो, केम उतराये पार. हो जिनजी!० ५ देव तणी मति [गति] पुण्ये हुं पाम्यो, विषया-रसमां भीनो; व्रत पच्चखाण उदय नवि आव्यां, तानमान मांहे लीनो. हो जिनजी !० ६ मनुष्यजनम ने धर्मसामग्री, पाम्यो छु बहु पुण्ये; रागद्वेष मांहे भलियो, न टली ममताबुद्धि. हो जिनजी!० ७ एक कंचन ने कामिनी, तेह-शुं मनडुं बाधुं; तेना भोग लेवाने हुं शूरो, केम करी जिनधर्म साधुं. हो जिनजी !० ८ मननी दोड कीधी अति झाझी, हुं छु कोक जड जेहवो; कलि कलिकल्पमें जन्म गयो, पुनरपि पुनरपि तेहवो. हो जिनजी!० ९ गुरू-उपदेशमां हुं नथी भीनो, नावी सदृहणा स्वामी !; हवे वडाई जोइए तमारी, खिजमत मांहि छे खामी. हो जिनजी!० १० चार गति माहे रडवडियो, तोए न सीधां काज; ऋषभ कहे तारो सेवकने, बांहे ग्रह्यानी लाज. हो जिनजी!० ११ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मनिंदापूर्वक वीरने विनतिनां स्तवनो १७१ २. विनयविजयकृत (र.सं.१७२९, रांदेर.) [तपगच्छना कीर्तिविजयशि. विनयविजयनो जीवनकाळ सं.१६६०थी १७३८ छे. अधूरो रहेलो ‘श्रीपाल रास' अने बीजी स्तवनादि प्रकारनी कृतिओ एमणे रचेली छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ, भा.४, पृ.७-२७ तथा गुजराती साहित्यकोश, खंड १, पृ.४१०. प्रस्तुत स्तवन एमना 'पुण्यप्रकाश (आराधनानु) स्तवन' मांथी छे, जे आखं 'जैन काव्यप्रकाश' 'जिनेन्द्र भक्तिप्रकाश' 'सज्जन सन्मित्र' वगेरेमा प्रकाशित थयेल छे. - संपा.) _ नमो भवि भाव-शुं ए.- ए देशी सिद्धारथरायकुलतिलो ए, त्रिशलामातमल्हार तो अवनितले तुमे अवता ए, करवा अम उपकार. जयो जिन वीरजी ए. १ में अपराध कर्या घणा ए, केहेतां न लहुं पार तो; तुम चरणे आव्या भणी ए, जो तारे तो तार. जयो. २ आश करीने आवीयो ए, तुम चरणे महाराज तो; आव्याने उवेखशो ए, तो किम रहेशे लाज ? जयो० ३ कर्म अलूजण आकरां ए, जनममरण जंजाल तो; हुँ छु एहथी उभग्यो ए, छोडावो देवदयाल. जयो० ४ आज मनोरथ मुज फल्या ए, नाठां दु:खदंदोल तो; तूठो जिन चोवीशमो ए, प्रगट्यो पुण्यकल्लोल. जयो० ५ भव भव विनय तुमारडो ए, भाव-भगति तुम थाय तो; देव दया करी दीजीयें ए, बोधिबीज सुपसाय. जयो. ६ ३. रामविजयकृत (कवि सुमतिविजयना शिष्य छे अने कृति महिसाणनगरमां रचायेली छे.) [कवि तपगच्छना छे अने सं.१८मी सदी उत्तरार्धमां थया छे. एमनी कृतिओ माटे जुओ जैन गुर्जर कविओ, भा.५, पृ.२०२-०८ तथा गुजराती साहित्यकोश, खं.१, पृ.३६२, आ स्तवन एमनी 'चोवीसी' माहेर्नु छे, जे आखी 'चोवीशीवीशी संग्रह' तथा '११५१ स्तवनमंजूषा'मां प्रकाशित छे. – संपा.] गरबी पूछे रे महारा गरीबडा रे - ए देशी चरण नमी जिनराजनां रे, मागुं एक पसाय, ___ महारा लाखेणा स्वामी रे ! तुंने वीनQ रे, महेर करो मारा नाथजी रे, दास धरो दिलमांह. महारा. १ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह पतित घणा तें उद्धर्या रे, बिरूद गरीबनिवाज; महारा० एक मुजने वीसारतां रे, शे नावे प्रभु ! लाज ? महारा० २ उत्तम जन घन सारिखा रे, नवि जोवे ठाम-कुठाम; महारा. प्रभु सुनजरे करूणा थकी रे, लहीए अविचल धाम. महारा० ३ सुत सिद्धारथ रायनो रे, त्रिशलानंदन वीर; महारा. वरस बोहोंतेर आउखुं रे, कंचनवान शरीर. महारा० ४ मुख देखी प्रभु ! ताहरूं रे, पाम्यो परमानंद; महारा. हृदयकमलनो हंसलो रे, मुनिजनकैरवचंद. महारा० ५ तुं समरथ शिर नाहलो रे, तो वाधे जशपूर; महारा० जीतनिशानना नादथी रे, नाशा दुश्मन दूर. महारा० ६ श्री सुमति-सुगुरू-पद-सेवना रे, कल्पतरूनी छांहे; महारा० राम प्रभु जिन वीरजी रे, छे अवलंबन बांहे. महारा० ७ ४. मोहनविजयकृत [तपगच्छना रूपविजयशि. मोहनविजयनी रास अने अन्य प्रकारनी घणी कृतिओ मळे छे जे सं.१७५४थी १७८३नां रचनावर्षों बतावे छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ, भा.५, पृ.१३७-५७ तथा गुजराती साहित्यकोश, खं.१, पृ.३२९-३०. आ स्तवन एमनी 'चोवीशी' मांहेनुं छे, जे आखी 'चोवीशीवीशी संग्रह' अने '११५१ स्तवनमंजूषा' मा प्रकाशित थयेल छे. - संपा.] पछेवडानी देशी दुर्लभ भव लही दोहिलो रे, कहो तरिये केण उपाय ? . प्रभुजीने वीनवु रे. समकित साचं साचवू रे, ते करणी किम थाय ? प्रभुजीने वीनवु रे. १ अशुभ मोह जो मेटिये रे, कांइ शुभ प्रभु कने जाय रे; प्रभुजीने. नीरागे प्रभु ध्याईये रे, कांइ तो पण रागे कहाय रे, प्रभुजीने. २ नाम ध्याता जो ध्याइये रे, कांई प्रेम विना नहि तान रे; प्रभुजीने. मोहविकार जिहां तिहां रे, कांई किम तरिये गुणधाम रे ? प्रभुजीने. ३ मोहबंध जग बंधियो रे, कांइ बंध जिहां नहि शोष रे; प्रभुजीने. कर्मबंध न कीजीये रे, कर्मबंधन गये जोश रे. प्रभुजीने० ४ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मनिंदापूर्वक वीरने विनतिनां स्तवनो १७३ तेहमां शो पाड चढाविये रे, कांइ तुमे श्री महाराज रे; प्रभुजीने. विण करणी जो तारशो रे, कांइ तो साचा जिनराज रे. प्रभुजीने० ५ प्रेममगननी भावना रे, कांइ भाव तिहां भववा[पा]र रे; प्रभुजीने. भाव तिहां भगवंत छे रे, कांइ उलसे आतम सार रे. प्रभुजीने. ६ पूरण घट भीतर भर्यो रे, कांई अनुभव अनुहार रे; प्रभुजीने. आतमध्याने ओलखी रे, काइ तरशुं भवनो पार रे. प्रभुजीने० ७ वर्द्धमान ! मुज वीनति रे, कांई मानेजो निशदीस रें; प्रभुजीने० मोहन कहे मनमंदिरे रे, कांइ वसियो तुं विशवावीश रे. प्रभुजीने. ८ ५. समयसुंदरकृत [समयसुंदरना परिचय माटे जुओ ‘समयसुंदरनां केटलांक नानां काव्यो'. जैन गूर्जर कविआ. भा.२, पृ.३६९ पर आ स्तवनना आरंभ-अंत नोंधायेला छे ते 'समयसुंदर कृतिकुसुमांजली' (पृ.२०२-०३)थी केटलाक पाठभेद बतावे छे. - संपा.] वीर सुणो मोरी वीनती वात मननी हो कहुं जोडी हाथ के; बाळकनी परें वीनवं, मोरा स्वामी ! हो, सुणो त्रिभुवननाथ के. वीर० १ तुम दरशन विण हुं भम्यो, मुज स्वामी, हो भवसमुद्र मझार के; दु:ख अनंतां में सह्यां, ते कहेतां हो नवि आवे पार के. वीर० २ पर-उपगारी तुमे प्रभु, दु:ख भागो हो जग दीनदयाळ के; तेणे तुम चरणे आवीयो, स्वामी ! मुजने हो निज नयण निहाळ के. वीर० ३ अपराधी पण उद्धर्यो, कहुं केता हो तोरा अवदात के; सार करो हवे माहरी, मन मांही हो आणी मोरी वात के. वीर. ४ अवगुणी पण उद्धर्या, ते उपर हो करि करूणा स्वामी के; परम भगत हुँ ताहरो, तेने तारो हो नही ढीलनो काम के. वीर० शूळपाणि प्रतिबुझव्यो, जेणे कीधो हो तुजने उपसर्ग के; डंख दियो चंडकोशीए, तोये दीधो हो तस आठमो स्वर्ग के. वीर० ६ गोशाळे अवगुण घणां, कीधा तोरा हो बोल्यो अवरणवाद के; ते बळतो तें राखीयो, शीतलेश्या हो मूकी सुप्रसाद के. वीर० ७ ए कोण छे इंद्रजाळीयो एम कहेतो हो आयो तुम तीर के; ते गौतमने तें कीयो, पोतानो हो कांई तन वजीर के. वीर० ८ वयण उत्थापी ताहरां, जे जघड्यो हो तुज साथे जमाळि के; तेहने पण पंदरे भवे, शिवगामी हो कीधो तें कृपाळ के. वीर० ९ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह अइमुत्तो ऋषि जे रम्यो, जळ मांही हो बांधी माटीनी पाळ के; तरती मेली पातरी, तें तार्यो हो तेहने ततकाळ के. वीर. १० बार वरस वेश्या घरे, रह्या मूकी हो कांइ संयमभार के; ते नंदीषेण उद्धर्यो, शिवपदवी हो दीधी तस सार के. वीर० ११ पंच महाव्रत परिहरी, घरवासे हो रह्यो वर्ष चोवीश के; ते पण आर्द्रकुमारने, तें तार्यो हो कांइ वीशवाविश के. वीर० १२ राय श्रेणिक राणी चेलणा, रूप देखी हो चित्त चुक्या जेह के; समवसरण साधु साधवी, तें कीधा हो आराधिक तेह के. वीर० १३ व्रत नही नही आखडी, नहि पोषध हो वळि नही तस दिख्ख के; ते पण श्रेणिक रायने, तें कीधो हो स्वामी आप सरीख के. वीर० १४ एम अनेक तें उद्धर्या, कहुं केता हो तोरा अवदात के; सार करो हवे माहरी, मन मांही हो आणी मोरी वात के. वीर. १५ संयम शुद्ध पळे नही, नही तेवू हो मुज दर्शन ज्ञान के; पण आधार छे एटलो, एक ताहरो हो धरूं निश्चय ध्यान के. वीर. १६ मेह महीतळे वरसतो, नवि जोवे हो तेह ठामकुठाम के; गिरुआ सहजे गुण करे, स्वामी! सारो हो मुज वंछित काम के. वीर. १७ तुम नामे सुखसंपदा, तुम नामे हो जावे दु:ख दूर के; तुम नामे वंछित फळे, तुम नामे हो नित्य आणंदपूर के. वीर० १८ कळश इम नगर जेसलमेरमंडन, वीर जिन चोवीशमो; शासननायक सिंहलंछन, सेवतां सुरतरु समो. वीर० १९ जिनचंद त्रिशलामातनंदन, सकळचंद कळानिलो; वाचनाचार्य समयसुंदर, थुण्यो त्रिभुवनगुणतिलो. वीर० २० Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ केटलांक तीर्थंकर स्तवनो १. यशोविजयकृत ऋषभजिन स्तवन [तपगच्छ नयविजयशि. उपाध्याय यशोविजयजीनो कवनकाळ सं.१८मी सदी पूर्वार्ध छे. तेओ प्रथम पंक्तिना दार्शनिक हता. अनेक शास्त्रीय विषयोनी, कथात्मक तथा स्तवनसझायादि प्रकारनी तेमनी असंख्य कृतिओ संस्कृत, प्राकृत अने गुजरातीमां मळे छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ, भा.४, पृ.१९७-२३४, गुजराती साहित्यकोश, खं.१, पृ.३३२-३४ तथा जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास. आ अने पछी- स्तवन 'यशोविजयगणी विरचित गूर्जर साहित्य संग्रह भा.१'मां 'नवनिधान स्तवनो' अंतर्गत छपायां छे. अहीं एने आधारे पाठशुद्धि अने पूर्ति करेल छे. - संपा.] ऋषभदेव सुखकारी[हितकारी], जगतगुरू ऋषभ. [प्रथम तीर्थंकर प्रथम नरेसर, प्रथम यति ब्रह्मचारी. ज. १] वरसीदान देइनें [तुम] जगमें, इलति इति निवारी, तैसे काही करत नहि करूणा, साहिब बेर हमारी. जगत. २ मांगत नहि हम हाथी घोरे, धन कन कंचन नारी, दिउ निज चरणकमलकी सेवा, इयाही लगें मोहे प्यारी. जगत. ३ भवलीलावासित सुर डारे, तो परि सबही उवारी, मैं मेरो मन निश्चल करिके, तुम आणा सिर धारी. जगत. ४ देव नहि दूजो कोइ जगमें, यासं होई दिलदारी, दिल ही दलाल प्रेमकें वीचिं, तिहां हठ खांचि गमारी. जगत. ५ तुम्ह हो साहिब मैं हुं बंदा, इया मत दे बीसारी, श्री नयविजय विबुध सेवक के, तुम्ह हो परम उपगारी. जगत. ६ २. यशोविजयकृत अजितनाथ स्तवन अजितदेव मुझ वालहो, जिउं मोरा मेहा, जिउं मधुकर मनि मालती, पंथी मनि गेहा. अजित. १ मेरे मनि तुहि रुच्यो, प्रभु कंचनदेहा, हरि हर बंभ पुरंदरा, तुझ आगइ केहा. अजित. २ तुंही अगोचर को नही, सज्जनगुन-रेहा, चाहे ताकुं चाहिईं, धरि धर्मसनेहा. अजित. ३ जगतवच्छल जगतारनो, तुं बिरूद वदेहा, वीतराग हुइ वालहा, किउं करि हो छेहा. अजित. ४ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह जे जिनवर हई भरतमें, ऐरवत विदेहा, जस कहे तुझ पद प्रणति थइ, सब प्रणमे तेहा. अजित० ५ (पाटण भंडार) [क्र.१,२ : जैनयुग, भाद्रपद १९८४, पृ.१] ३. रूपचंदकृत ऋषभदेव स्तवन [कविए श्लेषथी पोतानुं नाम गूंथ्यं छे एम गणाय. 'गुजराती साहित्यकोश खं.१' (पृ.३६८) 'नाथ निरंजन' शब्दोनो उपयोग करता एक रूपचंदने जुदा तारवे छे ते आ कदाच होय. 'जैन गूर्जर कविओ'मां आ कृति नोंधायेली नथी. - संपा] राग भैरव आज तो वधाई राजा नाभिकें दुवार रे, मरूदेवीनें बेटा जाया, जाया ऋषभकुमार रे. आज० १ अजोध्यामें उच्छव हुवो, मुख बोले जयकार रे, घनन घनन घंटा वाजे, पात्र करे थेइकार रे. आज. २ इंद्राणी मिलि मंगल गावे, लावे मोतीमाल रे, चंदन चरची पाए लागे, प्रभु जीवो चिरकाल रे. आज. ३ नाभिराजा दांन देवे, देवें अक्षत धार रे, गाम नगर पुर पाटण देवे, देवे मणिभंडार रे. आज. ४ हाथी देवे साथी देवे, देवे रथ तोखार रे, हीर चीर सिरबंध पितंबर, देवें सब सिणगार रे. आज. ५ तीन लोकमें दिनकर प्रगटीया, घर घर मंगलमाल रे, केवल कमला रूप निरंजन आदीसर दयाल रे. आज. ६ [जैनयुग, वैशाख–जेठ १९८६, पृ.३८८] ४. आनंदकृत अंतरीक्ष पार्श्वनाथ विनति पद [ जैन गूर्जर कविओ' के 'गुजराती साहित्यकोश खं.१'मां आ कृति नोंधायेली नथी. कर्तानी विशेष ओळख प्राप्य नथी. - संपा.] मेरे इतनो चाहीयें, नित दरसण पाएँ, चरणकमल-सेवा करूं, चरणे चित ल्यावं. १ मेरे० शिवमंदिर के महेलमें, प्रभु पास बसाउं, निपट नजीकें होय रहुं, मेरो जीव रमाबु. २ मेरे. Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७ केटलांक तीर्थंकर स्तवनो प्रभुजी अंतरजामी एक तुं, अंतरीक गुण गाउं, आनंद के प्रभु पासजी, मैं तो अवर न ध्यावं. ३ मेरे. (मुनि जशविजयसंग्रह) [जैनयुग, महा-चैत्र १९८६, पृ.२२४] ५. मानविजयकृत नेमि स्तवन [तषगच्छना देवविजयशि. मानविजय ‘गुजराती साहित्यकोश खं.१'मां, आ संदर्भने आधारे नोंधायेला छे. 'जैन गूर्जर कविओ' मां आ मानविजय कंर्ता तरीके नोंधायेला नथी, परंतु भा.४, पृ.२७६ पर 'अंजनासुंदरी स्वाध्याय' रत्नविजयशि. मानवजियने नामे नोंधायेल छे ते आ वस्तुत: देवविजयशि. मानविजयनी कृति छ एम उद्धृत अंतभागमा स्पष्ट छे. – संपा.] कोइ कहो रे नेमजीने वातडी रे, इम बोले राजुल नारि रे, वयण सुणा(वे) मृगलोयणी रे, इम जंपे वयण उदार रे. कोइ. १ खबर करूं स्वामि नेमिनी रे, जोवा चाली ते ततकाल रे, भमत भमतां शुद्धि लही रे, सखी आवी वेगे चालि रे. कोइ. २ गढ गिरनार नेमिजी रे पुहता जाणी राजुल नारि रे, कर जोडी संदेशो पाठवे रे, स्वामि! तुं मुज हीयानो हार रे. कोइ. ३ रात चंदे करी उजली रे, वचे बिछाइ सोवनखाट रे, गोख सवा लखि पोढीए रे, वेगे आवो जोउं तुम्ह वाट रे. कोइ. ४ सेज भली सोवन तणी रे, आपण रमस्युं रंग रसाल रे, विरहदावानल टालस्युं रे, नवभव-नेह संभालि रे. कोइ. ५ रातदिवस तुझने जपुं रे, तुम्ह विण घडीय न जाय रे, दिन गमुं वातें करी रे, रात वली दोहली थाय रे. कोइ० ६ सेज बिछाइ राजीमती रे, बेठी झुरे मनहि अपार रे, आंसुडें भींजे कंचुओ रे, नेमि ! अबलानी कर सार रे. कोइ०७ नेमि संदेशो लही करी रे, प्रतिबोधी राजुल नारि रे, हाथ वली माथे ठवी रे, राजुल थापी मुगति मझारि रे. कोइ० ८ तपगछ मांहिं सुंदरू रे, श्री देवविजय उवझाय रे, मानविजय कहे इणी परे रे, जिम मनवंछित थाय रे. कोइ. ९ ६. भावविजयकृत नेमि स्तवन (भावविजय माटे जुओ जैन गूर्जर कविओ, प्रथम भाग, पृ.५८६, नं.२७६.) [तपगच्छना मुनिविमलशि. भावविजयनी सं.१६७४थी १७३५नां रचनावर्षों बतावती घणी Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह कृतिओ मळे छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ, बीजी आवृत्ति, भा.३, पृ.३२२-२९ तथा गुजराती साहित्यकोश, खं.१, पृ.२८२-८३. – संपा.] राग मल्हार सरसति मात पसाउले रे, थुणस्यु नेमिजिणंद, समुद्रविजयकुलचंदलो रे. जेणे जीत्यो गोविंद, यादवराय जइ रह्यो, गढ गिरनारे. नारि तजी जेणे सुंदरू रे, वारि पशुआ-मारि. यादव. १ बालब्रह्मचारि सुहामणो रे, शिवादेवीमात-मल्हार, शंखलंछन स्वामि शामलो रे, सौरीपुर अवतार. यादव. २ तोरणथी जव प्रभु वळ्यो रे, मन आणी वैराग, तव रडती राजीमती रे, इम बोले धरी राग. यादव० ३ पियुडा कहे कुण कारणे रे, तें आणि मन रीस, विण-अपराधे कामिनी रे, कांइ छांडो जगदीश. यादव० ४ वल्लभ वेगें पधारीने, मुझ घर धरि उच्छाह, जो जाणी हुं छांडवी रे, तो कांइ मान्यो विवाह. यादव० ५ एह चोरी एह मांडवो रे, एह मंदिर एह वेश, सुण तुज विण नाहला रे, सुख न दिये लवलेश. यादव० ६ में जाण्या तुझ बोल रे, मयगल-दंत प्रमाण, ते साजन तुंचाइ करे रे, काछब कोटि समान. यादव० ७ तुमथी पारेवा भग: प्रेम तणे अधिकार, गगन भमंतां भोंय पडे , जव देखे निज नार. यादव० ८ वाहला देहलो 3 वेरे रे, पहोचाडो मन रंग, विहिदागनल प्रजले रे, ठारो मारूं अंग. यादव० ९ एहवा गजुल बोलडे रे, जे न चल्यो वडवीर, संयम लेई मुगति गयो रे, समरथ साहसधीर. यादव. १. कलश इम मयणभंजण मोहगंजण भुवनजनमनरंजणो, शिवादेवीनंदन दु:खनिकंदन थुण्यो साहिब आपणो, . नडुलाई नयरी सभीप सुंदर धरणीघर-शिरमंडणो, मुििवमर वाचक शिष्य नित नित गमे भाव धरी घणो. [क्र.५,६ : जैनयुग, असाड-श्रावण १९.६, .४७२] Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केटलांक तीर्थंकर स्तवनो ७. मानविजयकृत महावीर स्तवन [आ तपगच्छना शांतिविजयशि. मानवजयनी 'चोवीशी' मांहेनुं स्तवन छे. मानविजयनी तत्त्वविचारात्मक अने स्तवनादि प्रकारनी कृतिओ सं. १७२५थी १७४१नां रचनावर्षो बतावे छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ, भा.४, पृ.३५९-६५ अने भा. ५, पृ.३०८. चोवीशी 'चोवीशीवीशी संग्रह' तथा '११५१ स्तवनमंजूषा' मां छपायेल छे. संपा. ] हेमराज ! जग जश जीत्यो - ए देशी शासननायक साहिब साचो, अतुलीबल अरहंत; करम - अरबळ सबळ निवारी, मारिय मोह महंत. महावीर जगमां जीत्योजी. जीत्यो जीत्यो आप सहाय, हांजी जीत्यो जीत्यो ज्ञान- पसाय, हांजी जीत्यो जीत्यो जग-सुखदाय. महावीर जगमां जीत्योजी. १ अनंतानुबंधी वडयोधा, हणिया पहेली चोट; मंत्री मिथ्यात्व पछी तिगरूपी, तव करी आगळ दोट. महा० २ Hits आयुष ति केरी, इक विगलेंदिय जाति; एह मेवास भांज्यो चिरकाळे, नरक युगल संघाति. महा० ३ स्थावर तिरि दुग झांसि कटावी, साहारण हणी घाडी; थीद्धि तिग मदिरा वयरी, आतप उद्योत उखाडी. महा० ४ अपच्चखाणा अने पच्चखाणा, हणीया योद्धा आठ; वेद नपुंसक स्त्री सेनानी, प्रतिबिंबित गया नाठ. महा० ५ हास्य रति अरति शोक दुगंछा, भये मोह खवास; हणीया पुरुषवेद फोजदारा, पछे संजलना नाश. महा० ६ निद्रा दोय मोह पटराणी, घर मांहिथी संहारी; अंतराय दरशण ज्ञानावरणीय लड़ता मारी. महा० ७ जय जय हुओ मोह ज मुआं, हुओ तुं जगनाथ; लोकालोक प्रकाश थयो तव, मोक्ष चलावे साथ. महा० ८ जीत्यो तिम भगतने जीतावे, मूकायो मूकावे; तरण- तारण समरथ छे तुंही, मानविजय नितु ध्यावे. १७९ महावीर जगमां जीत्योजी. महा० ९ [जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स हेरल्ड, ओक्टो. - नवें. १९१४, मुखपृष्ठ] Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह ८. उदयरत्नकृत भाभा पारसनाथ- स्तवन [कविपरिचय माटे जुओ ‘सिद्धाचलमंडन ऋषभ स्तवन.' आ कृति सं.१७७९मां रचायेल छे अने ‘उदय-अर्चना' (संपा. कांतिभाई बी. शाह वगेरे, १९८८)मां प्रकाशित थयेल छे. - संपा.] त्रिभुवननायक त्रिविधि-सं त्रिण काल, राज, भावे ने भेटो रे भाभा पासने रे, समहीतपुरण सुरत सम सारे, राज, सेव्यो रे आपे रे शिवपुरवासने रे. १ सोवन कलसां ने रूपानां कचोलां, राज, न्हाईने पहेरो रे निरमल धोतीयां रे, सूकड केसर फूलडे रंगरोल, राज, प्रेमे ने पूजो रे प्रभुना पनोतीयां रे. २ नरनारि नेह-सुं नित्यमेव, राज, एकरसु विषयरस विसारीने रे, ताहरी आण वहे ततकाल, राज, तुम पद आपे रे भवजलतारणे रे. ३ कोड गमे सेवकनां सार्यां काम, राज, गुणनिधि गुणवंत जे गाजीयो, रे, अणहल्लपूर पाटण माहे अभिराम, राज, भाभाने पाडे रे भाभो राजीयो रे. ४ सतर ओगण्यासीइं उदयरतन उवझाय, राज, भाद्रवा सुद पुन्यम भावे भणे रे, पुजज्यो पुजज्यो पारसनाथना पाय, राज, अमरनी लीला रे जीम वसे आंगणे रे. ५ (मांगरोळ भं.) [जैन गूर्जर कविओ, बीजी आवृत्ति, भा.५. पृ.११२-१३] Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१ आनंदघन चोवीशी/बावीशी अने छेल्लां बे स्तवनो (श्रीमद् आनंदघनजीनां खुद पोतानां रचेला पार्श्वनाथ अने महावीर प्रभु परनां स्तवनो नहोतां मळता. पहेला बावीश तीर्थंकरो परनां तेमनां स्तवनो पर यशोविजयजीए, ज्ञानविमलसूरिए अने ज्ञानसारजीए बाळावबोध रच्यां जणाय छे. पण नीचेनां २३मा अने २४मा जिन परनां स्तवनो आखरे सांपड्यां लागे छे. अने आ सुरतना एक भंडारमाथी मळी आवेलां ते श्रीयुत दामजी केशवजीनी कृपाथी तेमनी पासेथी उतारी अत्र मूक्यां छे.) [आनंदघन प्रसिद्ध जैन अध्यात्मवादी साधु छे. तेमनुं बीजुं नाम लाभानंद हतुं अने तेओ सं.१७०० आसपास थया जणाय छे. विशेष परिचय मळतो नथी. एमणे बावीशी, आध्यात्मिक पदो वगेरे रच्यां छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ भा.४ पृ.१-७ तथा भा.५ पृ.३९६-९७ अने गुजराती साहित्यकोश खं.१ पृ.२०. नीचेनां बे स्तवनो आनंदघननां होवानी शक्यता नथी. जुओ आ पछीना खंडनी नोंध. आ बे स्तवनो 'आनंदघन चोवीशी' (मोतीचंद कापडिया), 'आनंदघन चोवीशी अने अध्यात्म परमामृत' (अनु. पंडित मंगलजी शास्त्री) वगेरेमां छपायेल मळे छे. – संपा.] श्री पार्श्वनाथ भगवाननी स्तवना प्रणमुं पदपंकज पार्श्वना जस वासना अगम अनुप रे, मोह्यो मन मधुकर जेहथी पामे निज शुद्ध स्वरूप रे. प्रणमुं० १ पंककलंक-शंका नहीं, नहि खेदादिक दु:खदोष रे, त्रिविध अवंचक जोगथी लहे अध्यातमसुख पोष रे. प्रणमुं. २ दुरदशा दूरे टळे, भजे मुदिता मैत्री भाव रे, वरते नित चित्त मध्यस्थता, करूणामय शुद्ध स्वभाव रे. प्रणमुं. ३ निज स्वभाव स्थिर कर धरे, न करे पुद्गलनी खेंच रे, साखी हुइ वरते सदा, न कदा परभाव-प्रपंच रे. प्रणमुं. ४ सहज दशा निश्चय जगे, उत्तम अनुपम रसरंग रे, राचे नहीं परभाव-सुं, निजभाव-सु रंग अभंग रे. प्रणुमुं० ५ निजगुण सब निजमें लखे, न चखे परगुणनी रेख रे, खीर नीर विवरो करे, ए अनुभव हंस-सुं पेख रे. प्रणमुं. ६ निर्विकल्प ध्येय अनुभवे, अनुभव अनुभवनी प्रीत रे, ओर न कबहु लखी शके आनंदघन प्रीत प्रतीत रे. प्रणमुं. ७ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह श्री वीर भगवाननी स्तवना वीर जिनेश्वर परमेश्वर जयो जगतजीवन जिन भूप. अनुभवमित्ते रे चित्ते हित करी दाखव्युं तास स्वरूप. वीर. १ जेह अगोचर मानस-वचनने तेह अतींद्रिय रूप, अनुभवमित्ते रे व्यक्तिशक्ति-शुं, भाख्यं तास स्वरूप. वीर० २ नयनिक्षेपे रे जेह न जाणिये, नवि जिहां प्रसरे प्रमाण, शुद्ध स्वरूपे रे ते ब्रह्म दाखवे केवळ अनुभवभाण. वीर० ३ अलख अगोचर अनुपम अर्थनो कोण कही जाणे रे भेद. सहज विशुद्ध रे अनुभववयण जे, शास्त्र ते सयला रे खेद. वीर. ४ दिशि देखाडी रे शास्त्र सवि रहे, न लहे अगोचर बात, कारज साधक बाधक रहित जे अनुभव-मित्त विख्यात. वीर० ५ अहो चतुराई रे अनुभव-मित्तनी अहो तस प्रीत प्रतीत, अंतरजामी स्वामी समीप ते राखी मित्र-सुं रीत. वीर. ६ अनुभव संगे रे रंगे प्रभु मल्या, सफल फल्या सवि काज, निजपद-संपद जे ते अनुभवे आनंदघन महाराज. वीर० ७ __[जैनयुग, भाद्रपद-आश्विन १९८२, पृ.६६] (श्री यशोविजय उपाध्यायकृत पुस्तकोनी टीप पाटणना भंडारमा एक हस्तलिखित पाना पर मळी आवी हती तेमां तेमनो आनंदघन बावीसी पर बालावबोध ए पण एक ग्रंथ छे. ते हजु प्राप्त थयो नथी. विशेषमां बीजा बालावबोध ज्ञानविमलसूरिए अने ज्ञानसार मुनिए कर्या छे; पण ते बनेना जुदाजुदा बालावबोध छपाया नथी. ज्ञानविमलसूरिकृत बालावबोधनी एक हस्तलिखित प्रत मुनि विनयविजयजीना ग्रंथसंग्रहमां हा. रा. गोकुळदास नानजी गांधी राजकोटमा जोई, तेमां श्री आनंदघनजी कृत बावीस जिननां स्तवनो पर बालावबोध आपी पछी ते सूरिए जणावेलुं छे के - “लाभानंदजी कृत तवन एतला २२ दिसे छे. यद्यपि हस्ये तोही आपमे हाथें नथी आव्या. हिवे ज्ञानविमलजीकृत २ तवन लखीइं छै.'' आ पछी ज्ञानविमलसूरिनां स्वकृत बे स्तवनो मूकवामां आव्यां छे. आ परथी प्राय: जणाय छे के यशोविजयजी अने ज्ञानविमलसूरि के जे बंने आनंदघनजी उर्फे लाभानंदजीना समयमा अने ते समयनी आसपास अनुक्रमे थई गया तेमने २२ स्तवन ज हाथ लाग्यां होय. माटे खरां आनंदघनजीनां स्तवन पहेलाथी २२मा जिन सुधीनां प्रट थयां छे ते छे. पछीनां बे पार्श्व स्तवन 'ध्रुवपद रामी हो स्वामी माहरा' अने महावीरस्तवन 'वीरजीने चरणे लागुं, Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनंदघन चोवीशी/बावीशी अने छेल्लां बे स्तवनो १८३ वीरपणुं ते मागुं रे' [जे प्रचलित छे] - एनी छेवटे अनुक्रमे 'पूरण रसियो हो निजगुण परसनो, आनंदघन मुज मांहि' अने ‘अक्षय दर्शन ज्ञान विरागे, आनंदघन प्रभु जागे रे' एम 'आनंदघन' नाम सहित आवे छे ते खुद आनंदघनजीकृत नथी एम लागे छे. श्री आनंदघनजीकृत लागतां २३मा श्री पार्श्वजिन अने २४मा श्री महावीरजिन परनां स्तवनो अमे आ पत्रना गत भाद्रपदआश्विनना ‘श्री महावीर निर्वाण दीपोत्सवी खास अंक’मां प्रगट कर्यां छे. श्री यशोविजयजीए ते शासनहितअर्थे मूकी दीधां पण होय. हवे आपणे ज्ञानविमलसूरिए बे स्तवन आनंदघनकृत स्तवनो साथे चोवीस पूरा करवा जोड्यां छे ते अत्र तेना पोताना बाळावबोध सहित मूकीशं.) [ज्ञानविसलसूरि तपगच्छना धीरविमलना शिष्य हता. एमनो जीवनकाळ सं.१६९४थी १७८२ छे. एमणे रास अने स्तवनसझायादि प्रकारनी अनेक कृतिओ रची छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ भा.४ पृ.३८२-४१८ अने भा.५ पृ.४०४ तथा गुजराती साहित्यकोश खं.१ पृ.१४५-४७. चोवीशी अने ज्ञानविमलसूरिनो स्तबक कुमारपाळ देसाई द्वारा संपादित थई प्रसिद्ध थयेल छे. अहीं एना पाठोनो लाभ लीधो छे. - संपा.] पार्श्व स्तवन ढाल : केहणी करणी तुझ विण साचो, कोइ न देख्यो जोगी रे. - ए देशी पास प्रभु प्रणमुं सिर नामी, आतम गुण अभिरामी रे, परमानंद प्रभुता पामी, कामीतदाता(दाय) अकामी रे. १ पा. चोवीसीमां थे तेवीसा, दुर कर्या तेवीसा रे, टाल्या जिण गति थिति चोवीसा, आयु चतुष्क पणवीसा रे. २ पा० लोह कुधातु करे जे कंचन, ते पारस पाषाणो रे, निर्विवेक पिण तुमचे नामे, ए महिमा सुप्रमाणो रे. ३ पा० भावें भावनिक्षेपें मिलतां, भेद रहें किम जांणो रे, ताने तान मिलें स्यो अंतर, एहवो लोकउखाणो रे. ४ पा० परम स्वरूपी पारस रस-सुं, अनुभवप्रीत लगाइ रे, दोष टल्ये होय दृष्टि सुनिर्मल, अनुपम एह भलाइ रे. ५ पा. कुमति उपाधि कुधातुनें तजीयें, निरूपाधिक गुण भजिये रे, सोपाधिक सुखदु:ख परमारथ, ते लहें नवि रजिये, रे. ६ पा. जे पारसथी कंचन थावं [जाचुं], तेह कुधातु न होवे रे, तिम अनुभवरस भावे रे भेद्यो, शुद्ध स्वरूपें जोवे रे. ७ पा० वामानंदन चंदनशीतल, दर्शन जास विभासे रे, ज्ञानविमल प्रभुता गुण वाधे, परमानंद विलासे रे. ८ पा० Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह हिवै २४ पूर्ण थाइ ते माटें, तवन २ पूर्वीने लीख्या छे. श्री पार्श्वनाथ प्रभुनें प्रणाम शिर नामीनें त्रिकरण जोगें. श्री पार्श्वनाथ केहवा छे ? आत्मगुणे करी मनोहर छे, अभिरामी छे. परमानंद प्रभुता पामी छे अनंताष्टकमय छे. वली केहवा छे ? कामित – वांछित दाता छ, अने स्व पोतें अकामी छे -- अप्रार्थक वर्तमान चोवीसमां तुमें त्रेवीसमा छे - दूर कर्या छ त्रीवीस २३ शब्दादिक विषय जणे. चोवीस मोहनीय कर्मनी बंधउदयसत्ता स्थानकथी उपशम गुणठाणे चढ़तें चढतें टाले तेहनो विचार ६ कर्मग्रंथ कर्मपयडी(मांथी) जाणवो. वलि चोवीस गति थिति दंडकरूप ते टाल्या छे जेणे. गति २४ दंडकरूपा - नेरइया १ सुराइर, पुढवाइ ५ वेदियादओ ३ चेव गप्भय तिरिय १ मणुसा १ मव्यंतर १ जोइसिया १ वेमाणी १. इति २४ दंडक भ्रमणरूप टाल्या छे, जेहनु आउखुं पंचविस चोकुं छे एतले एक शत वर्षतुं छे. २ ___कुधातु लोह तेहने कंचन करे ते पारस पाषाण छे. यद्यपि जड छे तोहि पण तुम्हांरूं नाम पारस कहेवाइ छे. ए नामनो महिमा छे केवल नाम निक्षेपनो. ३ भावनिक्षेपानें भावें भाव मिलतां आत्मभावे एकपणे मिलतां भेद ते किम रहें, अभेदपणइ थायें. तान तांन मिलें तिहां अंतर न रहे ए लोकनो उखाणो न्याय. ४ परम स्वरूपी पार्थ परम रस-स्युं [परमेसर-स्युं] परस अनुभवप्रीति जिवारे लागें, एकमय थाये, तिवारें दोष - मिथ्यात्वादि संसारीक दोष सर्व टलें अने दृष्टि दर्शन खुलं – निर्मल थाइं. अनोपम अद्भूत प्रधान एह लाभनी भलाइ. ५ ते माटें कुमतिरूप उपाधिरूप कुधातु - मलिन धातु विभाव स्वरूपनें तजीइं, निरूपाधिक पुद्गलिकभावरहित ते गुण ज्ञानादिकनें भजीयें-सेवीयें, अने सोपाधिक सुख पुण्य प्रकृतिजनित सुख ते परमार्थे दुख ज जाणवू. ते पाम्याथी मनमां राजीइं – राचीइं नही. ६ जे पारसथी लोह जात कंचन करे [जात्य कंचन] तेह फरी कुधातु न थाईं. तिम जे परमात्माध्यान-पारसथी जे अनुभव-कंचन थयुं ते शुद्ध स्वरूपें जोवें – निरखें तत्त्वज्ञानें करीनें. ७ हे श्री वामानंदन वामा राणीना पुत्र, चंदनशीतल दर्शन. आकार तथा दर्शन शुद्धि[शुद्ध] समकित जेहनुं विशेषे भासें छे. तेहथी ज्ञाने करी विमलगुणनी प्रभुता वाधे; अने परमानंदविलासलीला पामीजें. ८. इति श्री पार्श्वजिन स्तवन संपूर्ण. Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनंदघन चोवीशी/बावीशी अने छेल्लां बे स्तवनो १८५ वीर स्तवन राग मारूणी धन्यासरी गिरिमां गोरो गिरूओ मेरूगिरि वडो रे गिरि - ए देशी करूणा-कल्पलता श्री महावीरनी रे, त्रिभुवनमंडप माहे पसरी रे, मिसरी रे परि मीठी अभये करी रे. १ श्री जिनआणा गुणठाणे आरोपतां रे, विरति तणे परिणाम-पवनें रे, अवने रे अतिहिं अमाय सभावथी रे. २ सर्व संवरफलें फलती मिलती अनुभवें रे, शुद्ध अनेकांत प्रमाणे भलती रे, दलती रे संशय भ्रमना तापने रे. ३ त्रिविध वीरता जिणे महावीरे आदरी रे, दान १ जुध्ध २ तप ३ रूप अभिनवे रे, भवि भविं रे द्रव्य-भावथी भाखियें रे. ४ हाटक कोड देइ दारिद्र नसाडियो रे, भावे अभयनुं दान देइ रे, केइ रे लेइनें सुखीया थया रे. ५ रागादिक अरि मूल थकी उखेडिया रे, लही संजम रणरंग रोपी रे, ओपी रे जिणें आप-कला निरावरणीनी रे. ६ निरासंस वली शिवसुखहेतु रे, तप तपिया जिणें एम क्षमागुणे आपे रे, थापें रे वर पंडित वीर्य विनोदथी रे, ७ दर्शन ज्ञान चारित्र त्रिविधनी वीरता रे, महापदे शोभत भावें भासें रे, वासे रे त्रिभुवन-जनमनभायणां रे. ८ वीरधीरकोटीर कृपारसनो निधि रे, परमानंद-पयोद आपें रे निजसंपद फलयोग्यता रे. ९ व्या रे, Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह बंध उदय सत्तादिक भावाभावथी रे, त्रिविध वीरता जास जांणी रे, आणी रे त्रीपदी रूपें गणधरे रे. १० ठाणग जाणग गुणठाणक त्रिहुं विधे रे, काढ्या जिणे त्रिदोष-पोष रे, शोषो रे रोष-तोष कीधा तुमें रे. ११ सहज सुभाव सुधारससेचनवृष्टिथी रे, त्रिविध तापनो नास होवे रे, जोवें रे त्रिभुवन भाव-सुं भावथी रे. १२ ज्ञानविमल गुणगणमणि रोहण भूधरा रे, जय जय तुं भगवान नायक रे, दायक रे अक्षय अनंत सुखनो सदा रे. १३ श्री महावीरजीनी करूणा परदुःख टालवा-रूप जे कल्पलता वेलडी एतलें कल्पवेल ते त्रिभुवन – स्वर्ग मृत्यु पाताल रूप मांडवाने पसरी कहतां विस्तरी छे. ते केहवी छे ? जिम मीसरी क. साकर प्रमुख मीठा द्रव्यथी पणि अधकी मीठी छे, अभयदानरसे करीने. १ ते करूणा ते अमृतवेल जिम जिनआज्ञांने गुणठाणे श्रद्धान गुणठाणुं ते समकितरूप गुणठाणे आरोपीइं. विरति तणे परिणाम शुभ पवनें करी परणमावीयें. ते वेलडी- अवन कहेतां राखq. श्ये करी थाइ १ अमाय - निकपटरूप जे सहज भाव थकी. २ ते वेलडी सर्व संवररूप फलें करी फलती छे, अनुभवरसें मिलती छे. शुद्ध निर्दुषण अनेकांत स्याद्वाद प्रत्यक्ष परोक्ष प्रमाणादिकमां भिलती छे. ते वली केहवी छे ? संशयभ्रम रूप ताप तेहनें दलती. ३ जिणें भगवंते - श्री महावीरें त्रिविध – त्रिण्य प्रकारनी वीरता आदरी छे. ते केहवी छे ? दानादिवीरता १, युद्धवीरता २, तपवीरता ३, भवोभवथी अभिनव नवी, द्रव्यथी अने भावथी ते कहीएं छे. ४ द्रव्यथी दानवीरपणुं तो हाटक कहतां स्वर्णनी कोडि गमें ‘वरहवरो वरहवरो' इम उद्घोषणा करी जगत्रनें विर्षे दरिद्रनुं नाम नसाड्यु ए द्रव्ये दानवीरता अने भावथी वीरता सर्व जगज्जीवने अभयदान दे साधुपणाने विषे एहवू दान लेइनें केइ अनेक प्राणी सुखीया थया. ५ हिवें युद्ध शूरवीरता कहें छे. द्रव्यथी परीसह-सहनथी या मूलथी काढ्यां, भावथी Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनंदघन चोवीशी/बावीशी अने छेल्लां बे स्तवनो १८७ रागद्वेषादिक अरि मूलथी उखेडी संजमरूम रणरंगभूमिका आरोपीने वैरी निकंदन कीधां, जे भगवाने पोतानी निरावरणीनी कला ओपी एतले निर्मल करी. ६ द्रव्यथी चोवीहार तप, भावथी निरासंस संनिरनुबंध, वली शिवसुख – मोक्षनुं हेतु क्षमाप्रधान गुणे करी ‘तवेणं वोदानफलें' इत्यागमवचनात्. जिम भगवाने एहवा तप तप्या ते तपवीरताए वर - प्रधान पंडित वीर्यना विनोदथी वीरता साधी. विशेषपणे राजई - शोभे ते वीर, अथवा 'विदारयति यत्कर्म तपसा च विराजते तपवीर्येण युक्तश्च तस्माद् वीर' इति स्मृत:. ७ वली दर्शन ज्ञान चारित्रनी वली त्रिविध वीरता कहे छे : महापदे करी शोभित महाज्ञान महादर्शन महाचारित्र तेहनी शोभा भावथी भासे 3. महाशब्दें प्रधान कहीइं. ए त्रीया तत्त्वनी वासनाईं करी भवीजनमनरूप जे भाजन तेणई वास्या छै. ८ । वीरमां धीर अथवा कर्म विदारवाने वीर, वली लोकालोकप्रकासें धीर, धृति - धैर्य धीर, तेनां कोटीर मुगट समान. वलि कृपारसनो निधान परमा(नंद)रूप जे पयोद क# मेध तेणे करी व्यापतो पसरतो करूणावेली. सीचतो छे, वली आJ पोतानी संपदा एतले स्वरूपें एक चेतन स्वभाव मांटई - निमित्तइं तदावर्ण टालवा रूपइं. ९ बंध उदय सत्ता भावे करी कर्मना अभाव कीधा छै. त्रिविध प्रकारे एहवी वीरता प्रगटपणे जेहनी जाणी, एहवी ज गणधरें त्रीपदी रूपं आणी छे - हृदयमा ज्ञान दर्शन चारित्र भावे करी. १० स्थानक मिथ्यात्वादिक ज्ञापक, स्थानक अविरतादि गुणस्थानक गुणठाणुं प्रमत्तादि अथवा अविरति, प्रमत्त क्षीणमोहादि त्रिविध गुणठाणे त्रिदोष काढ्यो, अथवा प्रमत्त क्षीणमोह अयोगी इत्यादिक स्थानकें अज्ञान असंजम असिद्ध ए त्रिदोषनो शोष - नाश कीधो. वली रोषतोषनो शोष जेणे कीधो पाप कष्ट [पुष्टि], पुन्य कष्ट [तुष्टि], उभयनाश इत्यादि त्रिविधनी वीरता कहे छे. ११ सहज स्वभाव परम मैत्री परम करूणा रूप सुधारसवृष्टि अमृतने वर्षण सीचवें करीने, त्रिविध लोकनो त्रिविध तापनो नाश थाइं. मिथ्यात्वाविरति कषाय ताप अथवा जन्म जरा मरण ताप – तेहनो नाश थाईं. वली देखें त्रिभुवन – स्वर्ग मृत्यु पातालना एकेक भाव – पदार्थनें सहज स्वभावथी उत्पाद, नाश, ध्रौव्यपणे जोइयें. १२ । ज्ञानविमल गुणना गण - समुदाय रूप जे मणी तेहना भूधर – पर्वत रोहणाचल छे, एहवा भगवान श्री महावीर स्वामि जगनायक ज्ञानवंत जयवंता वरतो छो; वली दायक - देणहार छो, अक्षय क्षायकि भावें थया जे अनंत सुख सकल कर्मना नाशथी तेहना सदा - निरंतर आपस्वरूपें भोक्ता छो. १३ इतिश्री महावीर जिन स्तवन संपूर्ण थयो. Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह कलस चोवीस जिनवर विश्व दिनकर [हितकर] गति चोवीस निवारता, चोवीस देव निकाय वंदित ओ संप्रति कालें वर्त्तता, आनंदघन बाविस मांहें दोय स्तवन संपूर्ण करी, श्री ज्ञानविमल जिणंद गातां अखय संपद अति घणी. - इतिश्री आनंदघनजीकृत चोवीसी संपूर्णं. पं.प्रवर मुनी कमलानंद लिखतं. सुश्रावक पुन्य प्रभाविक देवगुरू भक्तिकारक माईदासजी वाचनार्थं. संवत् १८७० रा पोष मासे कृष्ण पक्षे पंचम्यां तिथौ रविवासरे. दोलतरायरा लसकर मध्ये लिखतं. (५७ पानां, मुनि विनयविजय ग्रंथसंग्रह, हा. गो.ना.गांधी.) [जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स हेरल्ड, ओक्टो. १९१३, पृ.५०६-०७, जैनयुग, कारतक-मागशर १९८३, पृ.१४६-४९] Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८९ धनविजयकृत बे नानी कृतिओ - [कवि तपगच्छ कल्याणविजयना शिष्य अने 'कर्मग्रंथ बालावबोध' (र.सं.१७००)ना कर्ता छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ भा.३ पृ.३४२-४३ तथा गुजराती साहित्यकोश खं.१ पृ.१९१. आ कृतिओ त्यां नोंधायेली नथी. – संपा.] १. शत्रुजय स्तवन सकलगणिगजेंद्र गणि श्री ५ श्री विनयविजयगणिगुरुभ्यो नम:. सरसति मनि मंदिरि मई वासी, निज सिरि गुरूना चरण उपासी, पुन्यजोग इण अवसर पांमी, थुणस्युं श्री शेजय स्वामि. १ अनंत गुण मइ किम कहीइ ?, गुण देखि मुंगा किम रहिइ ? । एह सिख मन माहि वहिइ, तो तुझ पद-पंकज-सुख लहिइ. २ ढाल मेरूगिरि चरण करि नर जथा कुण चढइ ?, चऊद पूरव सुयं पर जथा कुण पढइ ? जलधिजल सयल मवि भुजबलइ कुण तरइ ?, विमलगिरि-महिमाना जथा कुण करइ ? ३ विमल० आंकणी. गगनना गुण (कहो) अंगुलि कुण गणइ ?, पूरव दिसि विना झाण कहो कुण जणइ ? कामधेनू विना मेरू-त्रिण कुण चरइ ? विमलगिरि० ४ सूर-किरणे करि चीवरं कुण वणइ ?, मूकि मुख चउद विद्या कहो कुण भणइ ? हाथीयां साथिइ द्याडा कहो कुण चरइ ? विमलगिरि० ५ चंपपुप्फे जथा भमर कुण रणझणइ ?, विंझ-गिरि-गजघटा सीह विण कुण हणइ? करतलइ सयल पृथ्वी तथा कुण धरइ ? विमलगिरि० ६ तहवी सहकारतरु-मंजरी-स्वादथी, कोकिलो जिम लवइ तम गुण लादथी, तुझ तणा गुण भणूं बुद्धि लवलेशथी, स्वामिनामइ होइ सिद्ध सुवसेश[विशेस]थी. ७ राग आसाउरी श्री शत्रुजयदेव ! दयापर !, तारि तारि मुझ तार रे, हुँ तुझ चरणसरण करुणाकर ! जनम-मरण-भय वार रे. ८ श्री शत्रुजय० आंकणी तुझ दीठई मुझ मन बहू हिइसइ, जिम नयनानंद (चंद) चकोर रे, दिनकर-किरण कमल जिम विकसइ, जिम शाम घनाघन मोर रे. ९ श्री. Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह बेट रे. भेट रे. १० श्री० श्री भवसमुद्रमां भमतां भमतां, सिद्धाचल- मस्तक - मंडण तुझ दरसण वाघिण गुणवंती, पोती चरणसरण रायण पण पामी, जिन-महिमा मेर नाग- मोरना वयर-निवारण, तार्या लोक तुझ संगइ रंगइ स्युं पाम्या, भावइ भविक हुं तुझ जाचक तुं मुझ दाता, आपि आपि पद गुण-अवगुण न विचारइ गिरुआ, जिम छोरूपदइ तुं मुझ सुरतरु तुं सुरधेनू, तुं सुरवेलि कामकुंभ चिंतामणि तुं मुझ, तुं मुझ सुभर तुझ दीठइ मुझ भव भय भागो, जिम जलधरथी दान सीयल तप भावइ नासइ, जिम भवभवनो (नां) तुं मुझ भ्राता तुं मुझ त्राता, तुं हितदायक देव रे, ते अवतारसार करि मानूं, मइ पामी तुझ ते नर धन्या ते नर धन्या, जे तुझ नितनित जोवइ रे, मन वचन काया करि संचित, जे निज पातक धोवइ रे. १७ श्री. तुझ ध्यानइ सवि पातिक नासइ, गुण- गानइ गुण वाधइ रे, पाप रे. १५ श्री० सेव रे. १६ श्री. जोय रे, होवइ रे. २० श्री० काम रे, तुझ दर्शन दरशन मुझ दीप, तुझ पूज्यइ सुख साधइ रे. १८ श्री० जिन ! तुझ रायण-पान सिर धरतां, रोग-शोग-दुख जाय रे, तुझ जिन-आण जाण सिर धरतां, अष्ट माहासिद्धि वाधे रे. १९ श्री० गंगा सम महिमा महिमाइ, शेत्रुंजी जग नवण करि गिरिवर-शृंगइ, पावन वन सम चक्र करि चकेसरी पूरइ, कल्पवेलि जिम कवड जक्ष सेवइ आदिसर, जिम हणुउ पुंडरीक तिहां गणधर गिरुउ, ध्यान धरइ एकचित रे, माता आगल मयगल बइठि, सुत जोवइ जिम चित रे. २२ श्री० सूरो सोरठ देस सनूरो, जिहां शत्रुंजय राज रे. आवंतां शेवतां भावइ, सिझइ वंछित काज रे. २३ श्री० तुं छइ शिवनगरीनो राजा, जिहां सिधवधू घर-नार रे, सिध प्रधान सव पासइ वसिया, मुझ मोहमार निवार रे. २४ श्री० श्रीराम रे. २१ श्री० एक पायु मई ऋषभदेव जिन अमरविमान रे, समान रे. ११ श्री० अनेक रे, अनेक रे. १२ श्री ० आप रे, बाप रे. १३ श्री० समान रे, निधान रे. १४ श्री ० ताप रे, Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनविजयकृत बे नानी कृतिओ १९१ ढाल सिद्धाचल सिंहासनइ, बइठो हठ करी देव ! भावभगत बहुला धरइ, सारइ सुरनर सेव, तुं जगरंजन राजीउ. २५ देश देशना संघवी, सीमाढा भूप, भेट करइ भावइ करी, तुं छइ अकल सरूप. २६ तुं० छत्र-त्रये सिर सोभतां, चामर जुगल ढलंत, एक एक पइं दीपतां, बारइ सभा मलंत. २७ तुं० याचक तुझ पोलइ रह्या, पामइ लाख पसाय, हयवर गयवर मलपता, मणी कनक कभाय. २८ तुं० पाप-चोर पइसइ नही, भरइ पुन्य-भंडार, वाजां वाजइ नवनवां, नित तुझ दरबार. २९ तुं० खिमा-खडग करइ झलकतुं, पर्यो शील-संनाह, अढार हजार रथ सारथी, संयम-रमणीनो नाह. ३० तुं० करम वयरी जे वंकडा, ते दूर पलाय, जयलक्ष्मी पामी करी, अरिहंत कहाय. ३१ तुं० जाइ जूइ नइ केतकी, वली वेलि गुलाल, कृष्णागरू बहु महमहइ, केशर अंगइ लाल. ३२ तुं. चूया चंदन मसमसइ, मृगमद घनसार, गीत-गान गुणीजन कहइ, आगल नाटिक सार. ३३ तुं० मोटो मुगट माथइ धरइ, बाजुबंध उदार, बांहइ बेहु बइरखा, हइइ हार उदार. ३४ तुं० सूरय-कुंड सोहामणो, पद्मद्रह अवतार, भविका! श्री शत्रुजय सेवयो, उल्लाखा झोल अति नीरमलि, रसकुंपि परिइ सार, भविका ! श्री शत्रुजय सेवयो. ३५ चेलण नाम तलावडी, अमृतकुंड समान, भ०, सिद्धवड अति विस्तों , जंबुवृक्ष समान. भ० ३६ इम सकलतीरथराज राजा श्री शत्रुजइ मई सुण्यो, वर शिखर शोभी ऋषभ मोभी लाभ-लोभइ मइ थुण्यो. सिरि हीरविजय सूरंद सहगुरू सीस सोभाकारिको, श्रीकल्याणविजय उवझाय सेवक, धन मनवंछीय-दायको. ३७ - इति श्री श→जयस्तवन संपूर्णम्. मुनि वीरविजयलिखितं. माट बंदिरे. (एक गुटकामां, पत्र २४थी २७, सुरतना वकील रा. डाह्याभाइनो संग्रह.) Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह २. शत्रुजयमंडण स्तुति शेर्जेजइ साहिब आदि जिनंद, जस मुख सोहइ पूनिम-चंद, दरिसण परमाणंद, नाभिराय-कुलि-कमल-दिणंद, मरूदेवी मातानो नंद, वंदई हीर सूरंद, सीरोही नयरी सिणगार, मोहन मूरत जास उदार, सुख-संपति-दातार, महिमंडल महिमा-भंडार, प्रणमुं भाव धरी ते सार, सेवकजन जयकार. १ श्री शेजो नइ गिरनार, आबु प्रमुख जे तीरथ उदार, राजगृहि वैभार, श्री हीरविजयसूरि गणधार, थाप्या जे वलि बिंब अपार, सीरोही प्रमुख मझारि. अष्टापद नंदीसर बेइ, जे नमतां शिवपद-सुख देइ, तीरथ विशेष कहेइ, इम वंदु वली अवर जि केइ, तिहु(य)ण माहिं जिनवर-चेइ, ते सवे भाव धरेइ. २ अरथ सयल जे जिनवर जाणि, भविक-जीव-हित मनमां आणि, भासइ केवलनांणि, गणधर गुंथइ तेह विनाणि, द्वादशांगि तेह कहाणी, अरथ-रयणनी खाणि. जे सेव्यइ लहीइ शिव-रांणि, श्री गुरू हीर सूरिंद वखाणी, भाव भणई भवि प्राणी, पापपंक धोवानुं पाणी, अत मिठि जिम साकर वाणि, ते वंदुं जिन-वाणी. ३ आदिदेव-पद-पंकज-सेवा, करवा अहनिसि जेहनइ हेवा, समकित-दृष्टि देवा, सावधान संघ-विघन हरेवा, धर्म तणुं वलि साजि करेवा, बोधबीज पणि देवा. श्रीगुरू हीरविजय सूरीश, विजयसेन गुरू गच्छाधीस, विजयदेव मुनीश, तेह तणी पूरवो जगीश, श्री कल्याणविजय गुरू-सीस, इम जंपइ निसदिस. ४ - इति श्री शेजूंजय मंडण स्तुति. (उपरना स्तवन लखनारना हस्ताक्षरमां, एक गुटकामां, पत्र २७-२८, सुरतना वकील रा. डाह्याभाइनो संग्रह) [अध्यात्मकल्पद्रुम, प्रका. जैन धर्म प्रसारक सभा, भावनगर, पृ.५३-५५] Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९३ उदयरत्नकृत सिद्धाचलमंडन ऋषभ स्तवन (प्रसिद्ध कविश्री उदयरत्न मुनि पोताना गुरु ज्ञानरत्न वगेरे सात मुनिनी साथै सुरतना पारेख प्रेमजी तथा भणशाली कपूरे सं. १७७० मां शत्रुंजयनो संघ काढ्यो हतो तेमां गया हता. ने ते वखते शत्रुंजयनी यात्रा करतां आ स्तवन तेमणे बनाव्युं छे.) ए देशी [ उदयरत्न तपगच्छनी राजविजयशाखाना सिद्धिरत्न- मेघरत्न - अमररत्न - शिवरत्नना शिष्य हता. सिद्धिरत्न - राजरत्न - लक्ष्मीरत्नशि. ज्ञानरत्न एमना काकागुरु थाय. संख्याबंध रासाओ अने अन्य कृतिओ रचनार उदयरत्ननो कवनकाळ सं. १७४९थी १८०२ छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ भा. ५ पृ.७६ - ११४ अने ४११ - १३ तथा गुजराती साहित्यकोश खं. १ पृ.३१-३२. ए बन्नेमा आ कृतिनो उल्लेख नथी. आ कृति 'जिनेन्द्र स्तवनादि काव्यसंदोह भा. २ तथा 'उदय- अचना' मां छपायेल छे. संपा. ] ढाल १ : मृगनयणीरो भमर सुजांण, जेहड माहरी मूलवे. माहरा लाल सुरपति आगे इम जंपे श्री वीर जिणेसरू, गिरिराज, ए तो सकल तीरथनो सार. शेत्रुंजो सुखकरू, गिरिराज. १ सिध्या जिहां साधु अनंत, अनंत केवलधरा, गिरि० जिनवर जिहां आव्या अनेक, जाणी पावन धरा. गिरि० २ रायण तलें ऋषभ जिणंद, गुणाकरि गेलस्यूं, गिरि० जिहां पूरव नवांणुं वार, पधार्या प्रेम-स्यूं. गिरि० ३ वारू मुगति-वधु वरवानूं, ए पीठ वखाणीइं, गिरि० त्रिभोवनतारक जग मांहि, ए तीर्थ जांणीईं. गिरि० ४ दीठो करें दुरगति दूर, जे दूषम कालमां, गिरि० चाहीनें जावा सिद्धक्षेत्र, थइ इंभिंणी चालमां. गिरि० ५ ढाल २ : साहिबो रे माहरो झल रह्यो नागोर ए देशी विनता पीउने वीनवे रे, वाहला, अवसर मलीओ आज, संघतिलक धरी सोभतो रे, वाहला, कोडी सधारण काज, १ साहिबा रे माहरा, चालो जइए सिद्धक्षेत्र. आंकणी ग्रहिणुं ते मूझने गमे नही रे, वाहला, न गमे नवसर हार, चित लागुं रे विमलाचले रे, वाहला, न गमें घरव्यापार. सा० २ संयोग सघला सोहिला रे, वहाला, जात्रानो दोहिलो जोग, ते पांमी जे पाछावल्या रे, वहाला, ते तो भारे कर्मनो भोग. सा० ३ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह घरधंधो करता घणो रे, वाहला, पग पग लागां पाप, छटके-स्यूं ते छूटीइं रे, वाहला, जपतां सिद्धाचल-जाप. सा. ४ ढाल ३ : तट जमुनांनो रे, अती रळीआमणो रे - ए देशी संघ शेजानो रे अती रलीआमणो रे, मूलक मूलकनां लोक. मननी मोदें रे, सहू आवी मल्यो रे, पून्यनो करवा ए पोष. संघ. १ मजलें मजले रे महा पूजा रचे रे, नवला थाए नाच, भावना भावे रे भवीजन भाव-स्यूं रे, समकीत पामी साच. संघ० २ उत्तम प्राणी रे पाछा न ओसरे रे, देता सुपात्रे दान, छ रिरी धरता रे पंथे संचरे रे, धरता प्रभुनुं रे ध्यान. संघ. ३ मृदंगनिनादे रे मनने मोज-स्यूं रे, धवल मंगल गीतगान, मधुरे स्वरे रे केइ मुख उचरे रे, केही धरे तीहां कान. संघ० ४ डेरे डेरे रे जिहांतिहां पेखतां रे, पडिकमणां पचखांण, मुनिमुख सुणे रे श्रावकमंडली रे, विमलाचलनुं वखांण. संघ० ५ ढाल ४ : काली ने पीली वादली रे - ए देशी. माहरा रे भाइ सुडला, गुण मानु, लाल, मने आपज्यो थाहरी पांख, थारो गुण मानु, लाल. हुं ओलंघु उजाड, थारो गुण मा, लाल. मांने शेजेजो देखाड, थारो गुण मानू, लाल. आदिसर भेटुं उडीने, गुण मानु, लाल. भांजु माहरा मननी भ्रांत, थारो गुण मानु, लाल. १ वैशाख जेठनी वादली ! गुण. माहरा संघ उपर कर छांहि, थारा. पवन ! लागु पाउले, गुण०, तुं तो संघ उपर कर छांहि. थारा० २ जलधरने जाउ भांमणे, गु. तुं तो झीणी झीणी वरस्ये बुंद, थारा. मालीडा लाव्ये फुलडां, गु०, माहिं मालती ने मुचकंद. थारा. ३ पारेख प्रेमजी संघवी, गु० भणसाली कपूर, थारा. मजलूं जो नानी करो, गु० तो संतापे नहि सूर. थारा० ४ श्री आदेसर साहिबा, गु० चित्तमां धरज्यो चूंप, थारा. उदयरतन इम उचरे, गु० मानें दरसण देजे रोज. थारा. ५ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९५ उदयरत्नकृत सिद्धाचलमंडन ऋषभ स्तवन ढाल ५ : मारू थारों कानांह दो मोती रे हो - ए देशी वारू ए तो पुन्ये पामी वेला रे, हो, मोहनना थया मेला, मोहनना थया मेला. १ शेवंजो भलें दीठो, शेवंजो भले दीठो रे, हो जोतां लागे मीठो, लागे मूझने मीठो रे हो. २ शे० वारू ए तो मुगतिवधुनो टीको रे, हो, लागे सहूने नीको, लागे. वारू ए तो मोतीअडे अमूले रे हो, वधाव्यो सोवनफुले. व. ३ शे० वारू ए तो शास्वता जिनवर सोहे रे हो, सुरनरनां मन मोहे, सुर० वारू ए तो दिन दिन वसे सहेरे हो, दीपे सोरठ देसें. दी. ४ शे. ढाल ६ : उदयापुररी चाकरी रे - ए देशी नाभिनरेसर-नंदना रे, मरूदेवीमात-मलार, दर्शन थाहरो देखतां, मारो सफल थयो अवतार, हो प्यारा गढपती, हो गाढा. जिनपति, हो सुणि थाहरा सेवकनी अरदास. आंकणी. १ कूडा ए कलीकालमां रे, साचो तूंही ज स्वामि, भगतवछल भले भेटीओ, नीरमल थइ तूझ नामि रे. २ प्यारा० भमतां भवनी शेरीए रे, दीठा देव अनेक, पणि मुगतिदायक में पेखीओ, अंतरजामी तुं एक हो. ३ प्यारा. सिद्धाचलनी सेवना रे, सुरजकुंडनुं स्नान, पुन्य होइं तो पांमीइं, गेलें जिनगुणनुं ग्यांन हो. ४ प्यारा. ___ ढाल ७ : कंकणनी - ए देशी वाट विषम ओलंघीने रे, प्रभुजी ! लूनी लेतो लहेर, मूजरो छ माहरो. शरणे आव्यो चाहीने रे, प्रभुजी! महाराज कीजें महेर, मूजरो छे माहरो. १ आरति ने उजागरो रे प्र०, आतप सह्यां अपार, मू० ते गया सर्व वीसरी रे, प्र०, देखतां तूज दीदार, मू. २ पाए अणुंहाणे पंथमां रे प्र०, कंटक भागा कोडि, मू० कर्मना कांटा नीसर्या रे प्र०, खुटी गइ सर्व खोडि. मू. ३ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह ढाल ८ : मोरा आदिजिन देव रयणमय ए देशी जडीत रूडी आंगीयां अनूप, केसर कुसुम करी, रूडो बन्यो रूप. देखी आदि जिन आदि रूप तेरो मन मेरो मगन भयो. १ मस्तक मूगट बन्यो, हईएं बन्यो हार, सुरत घणुं शोभती ने शोभता काने सोहें कुंडलां नें जोड़ें बांहे बहू बन्यो बंध शणगार. २ देखी ० जडाव, बनाव. ३ देखी ० भवी० ढाल ९ : दीठो दीठो रे वांमाको नंदन दीठो ए देशी पूजो पूजो रे भवी आदेसर प्रभु पूजो, शेत्रुंजाना साहिब सरीखो, देव न कोई दूजो रे. १ भवी० भगवंत आगलें भावना भावता, पूजतां अष्ट प्रकारे रे, नृत्य करतां दूरित नसायो, मादलनें धौंकारे रे. २ सकल मनोरथ सफळ फल्या सही, वाजां जीतनां वाजां रे, मंगलवेल फली आज माहरे, तो भवदुख सघलां भाज्यां रे. ३ भवी० सुरति बिंदर सहिरनो वासी पारेख प्रेमजी पोतें. संघ लेइ शेत्रुंजये आयो, जय पायो गिरि जोतें रे. ४ भवी० भणसाली कपूरें भली परें, संघनी सांनिध कीधी, काठीलोकने लागो करडो, शिखर श्याबासी लीधी रे. ५ भवी० संवत सतर सीतेरा वर्षे वदि सातम गुरूवारें, उदय वदें आदिपति भेट्यो, संघ चतुर्विध साथे रे ६ भवी० कलश श्री हीररत्नसूरींद वंशे ज्ञांनरत्न गण गुणनीलो, तिणें सात ठाणें संघ साथें भेटीओ त्रिभुवनतीलो, जे जिन आराधे मन साधे, साधे ते सुखसंपदा, उदयरत्न भाखे अनेक भवनी, तेह टालें आपदा १ ( भाग्यरत्न मुनि पासेनो चोपडो, प.सं. १७३, लि.सं. १८७३) [जैनयुग, ज्येष्ठ १९८४, पृ.३४९–५१] Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९७ रत्नचंद्रगणिकृत पडधरीप्रासादबिंबप्रवेशाधिकार स्तवन [कर्ता तपगच्छना शांतिचंद्रना शिष्य छे. सं.१६७६थी १६७९ना गाळानी एमनी केटलीक संस्कृत-गुजराती कृतिओ मळे छे, जुओ जैन गूर्जर कविओ, भा.३, पृ.१९५-९६ तथा गुजराती साहित्यकोश, खं.१, पृ.३४०. ए बन्नेमां आ कृतिनो निर्देश नथी. - संपा.] ऊँ नम: श्री आनंदि आदिजिन, प्रमुख नमउं चउवीस; गणधर गिरुआ चउदइं[चउदह सईं], बावन नामउं सीस. १ समरिय सरसति भगवती, माता दीउ मुझ मान; बिंबपईसारा-तवन ए, सुणयो सहु सावधान. २ आदि शांति जिणवर तणा, कवण गामि प्रासाद; दोई गाम उतपति कहुं, सुणो मुंकी परमाद. ३ कुंण गामथी आविआ, राजा कवण प्रधान; जेणइ प्रासाद कराविआ, तस लेस्यउं अभिधान. ४ श्री तपगछनो राजिउ, विजयसेन गणधार; वास धरई शिरि तेहनो, श्रावक अतिहिं उदार. ५ ढाल भद्रेसर नयरी भरतखंडि अभिराम, तिहां राज करइ राजा राउल[राउत] जाम, तेहनइ घरि मंत्री पेथो पुण्यप्रकाश, राजभार-धुरंधर उज्जल कीरति जास; उज्जल कीरति जास कहीजइ एक दिनि सुपन मझारि, देव एक आवीनई बोलइ थापो देश हलार; संवत पनर छन्नूआ वरषे श्रावण शुदि रविवार, आठमि तिथि चडतइ दिनि वास्यउं नवउं नगर उदार. ६ जाम राउत पाटि विभा जाम तेजवंत, 'तेणइ सहुं आण्या वयरीना जगि अंत, पेथा घरि घरणी प्रेमलादे सतिसार, बीजी तस रीडी धरइ निज घरनो भार; घरभार धरती बहु गुणवंती प्रीमलादे नारि प्रसिद्ध, सुतरतन तेणिं दोइ जनम्या जगि अजुआलउ कीध; १. कोई आण न खंडेई सहुई पय प्रणमंत. Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह यादव नई जगमाल कहीजइ, दोइ भ्राता गुणवंत, वीमा जाम तणइ घरि मंत्री, सूर्य परिं तेजवंत. ७ हुआ समकितधारी श्रावक गुणभंडार, घर मांहि न राखइ कुमतीनो पयसार, पडधरि पुर वास्यउं 'वास्या श्रावक लोक, दान पुण्य करइ निति, दूरि निवारइ शोक; भणसाली यादव-घरि घरणी अहिवदे सती समाणी, लघुभ्राता जगमाल तणइ घरि दाडिमदे गुणखाणी; शुभ दिन शुभ लक्षण गुणवंता अहिवदे दो सुत जाया, भणसाली आनंद नई अबजी सधव वधूइ गाया. ८ राजपट्ट परंपर आयु सत्तो जाम, तेहनइ घरि मंत्री दीपइ दोइ अभिराम, आणंद नइ अबजी साचा श्रावक एह, विजयसेन सूरिंदनी आज्ञा मानइ जेह; पडधरीइ प्रासाद करावा मुहूर्त्त भलउं जोवरावइ, आनंद अबजी भाव धरीनई जिनप्रासाद मंडावइ; संवत सोल एकसठ्ठा वरषे मागशिर वदि बुधवार, बीज दिने प्रासाद मंडावइ, वरत्यो जयजयकार. ९ ढाल तिहां मोटो कीधो प्रासाद, देव-स्यउं मंडइ वाद, दीठइ मनि आह्लाद, मांड्या थंभ अनोपम दीसइ, कोरणि देखि भविक मन हींसइ, पूतलिई चित विकसइ; शिखरबद्ध प्रासाद निपायु, कविजनि ओपमा मेरू कहायो, अति उंडो छइ पायो, आणंद सुत जीवराज मेघराज, श्री जिनधर्म वधारी लाज. १० सुविहित साधु तिहांकिणि आवइ, मणि मुगताफल वेगि वधावइ, आणंदमंगल गावइ, तिहां अति मोटा मंडप कीधा, संध सहुनइ उतारा दीधा, मुहूर्त्त भली परिं लीधां; पोढा केलवाई पकवान, भोजन करावइ देइ बहुमान, आपइ श्रीफलपान, वाजइ ढोल नींसाण नफेरी, शंखनादिं सब नासइ वयरी, गाजइ भुंगल भेरी. ११ केलिथंभ आरोप्या मोटा, दूरिं नाठा दुर्जन खोटा, वाली कडि लंगोटा', हय गय रथ सिणगार्या वारु, रथ साबइला न लहुं पारु, जूइ लोक हजारु; भणसाली आणंद घरि घरणी, तेह तणी छइ अनुपम करणी, साची कुलउद्धरणी, चांपा नामि अनुपम नारि, तस नामिं मुनिसुव्रत सार, प्रतिमा भरावी उदार. १२ २. मिथ्यामत नगमई धर्मधुरंधर सार. ३. श्रावकनो तिहां वास. ४. अंगि धरइ उल्लास. ५. सुंदर लवलेश नई छोटा, जस फल जाणे गोटा. Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नचंद्रगणिकृत पडधरीप्रासादबिंबप्रवेशाधिकार स्तवन १९९ दूहा वेद(४) रस(५) रूतु(६) चंद्रमा(१) ए संवत्सर सार; माघ मास सित दशमि दिन ब्रह्मा योग उदार. १३ रोहिणी मिन लगन भलउं, प्रथम पुहुर शनिवार; बिंब पयसारू कीधलो, वरत्यो जयजयकार. १४ ढाल रथयात्रा कीधी घणइ मंडाणि रे, सिणगार्या रे अति मोटा केकाण रे; जन जोइ रे कहइ मुखि धन अवतार रे, उच्छवर्नु रे कहतु न लहुं पार रे. १५ इंद्राणी रे ईन्द्र सहित तिहां सुंदरु, सिणगार्या रे परतखि रूप पुरंदरु; याचकनइ रे दान घणउ तिहां दीजिइ, लखमीनो रे लाहु एणि परि लीजिइ. १६ चिहुं दिशिनउ रे संघ सहू पहिराविइ, अख्यांणां रे कामिनि रंगिं लाविइ; श्री शांतिजी रे राजवाहण मांहि थापिइ, मुनिसुव्रत रे सेवकनइ सुख आपिइ. १७ राजवाहण रे जाणे ईन्द्र-विमान रे, प्रतिमानो रे अधिकउ वाधइ वान रे, धन करणी रे भणसाली आणंद रे, जेहनइ नामि रे प्रतिमा शांति जिणिंद रे. १८ भणसाली रे अबजी हूउ विख्यात रे, जेहनी घरणी रे नवरंगदे सुजात रे, तेहनइ नामि रे श्री मुनिसुव्रत जिनवरु, पणइ देहरइ रे दोई जिनवर सोहई सुखकरु. १९ चंदवदनी मृगलोअनी बे, जिनवर-भवनिं जावइ बे; जिनगुण बोलइ रंग लइ बे, अधिक मधुर धुनि गावइ बे. चंदन अगर कस्तूरीआं बे, केसर कुसुम सुरंगा बे; जिन-तनु-अंगि सुहामनी बे, चरचइ मन करि चंगा बे. चूटक मधुर ध्वनि गावई भावन भावई कोकिल कंठि साहेलडीआं, सहु पहिरि पटोली नीली चोली करि धरि कनक-कचोलडीआं; सुंदरी गयगमणी छबि ससिवयणि सगुण सलूणी गोरडीआं, जिण-गुण-राग-रस-तानी चंदवदनि मृगलोअनिआं. २० यूटक जई करि मन चंगा अतिहिं सुरंगा कुंकुम चंदन तिलक करइ, चंपो उर जाइ केतकी पाडल कमल कुंद मकरंद करइ; करि गुंथिय माला योवनि बाला अतिहिं रसाला कंठि धरइ, सोलमउ जिन वंदी मनि आनंदी फिरिफिरि जिनके पाउ परइ. २१ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह ढाल धमालिनी शांति मुनिसुव्रत भेटीइ, हइडइ धरि आनंद, जिनवर ! रूप अनोपम सुंदरु, मोहनवेल्ली-कंद. २२ जिनवर ! तुं मेरे मनि निति वसई. आंकणी. प्रासाद अतिहिं मनोहरु चिहुं चोकी चोसाल, जिनवर ! दंड कलस धज शोभता, दीठइ मंगलमाल. जि. २३ आंगी अंगि सुहामणी, अनुपम दोई जिनरूप; जि. परगट महिमा जिन तणो, राख्यो कीरति थूप. जि. २४ घन पर प्रीति धरई सदा, जु बपईआ मोर; जि. तिम समरूं गुण तुह्म तणा, जु जगि चंद चकोर. जि. २५ निकस गई सब आपदा, संपद लहिई कोडि; जि. सुर नर किन्नर मानवी, सेवा करइ कर जोडि. जि. २६ ढाल शांति मुनिसुव्रत सार, सेविं हर्ष अपार, मुख. सोहइ चंदलो ए, मोहन-कंदलो ए, लोचन अमिय-कचोल, दंत हीरानी ओलि, वदन कमल भलं ए, सोहइ श्री जिन तणुं ए; भमुह कमाणि सुरंग, अधर प्रवाली-रंग, नासा सुंदरू ए, कीर मनोहरु ए, काम-हींडोला कान, कंठ सुकंबु समान, बलवंत मई सुणी ए, बांहडी जिन तणी ए. २७ जंघा कदली-थंभ, रेषा चामर कुंभ, आंगली मगफली ए, दीसई कुंडली ए, जिननइ अंगि जगीस, लख्यण छइ बत्रीस, महिमासुंदरु ए, रूप पुरंदरु ए; सोलसमउ जिनराज, महिमा महिअलि आज, जाण्यो जिन तणो ए, प्रताप अतिहिं घणो ए, अष्ट महाभय जेह, तुझ नामि नासइ तेह, भविअण-भयहरु ए, सेवे सुखकरु ए. २८ पुत्र कलत्र परिवार, दुख नवि पामइ लगार, जिनवर पूजीइ ए, जगि जस लीजीइ ए; जे पुज्यई त्रिण काल, तस घरि मंगलमाल, दुरगति नवि पडइ ए, हय-गय-रथि चडइ ए; पूजई नहीं नर जेह, नरगिं पडिआ तेह, काल अनंत भमइ ए, सुकृत सहु गमइ ए; बिंबपईसारो सार, करतां पामइ पार, जिनपद अनुसरइ ए, सुर कीरति करइ ए. २९ धन्य देश धन गाम, धन ए कहीए ठाम, प्रासाद कीधलउ ए, जगि जस लीधलउ ए; आणंद अबजी जेह, साचा श्रावक एह, रागी धरमना ए, धरमिं एकमना ए; जीवराज नइ मेघराज, धरम-धोरी शवराज, दीपक कुल तणा ए, अतिहिं सोहामणा ए; नवईनगरी प्रासाद, कर्यो धरी आह्लाद, आदीसर तणो ए द्रव्य खरच्यो घणो ए. ३० Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नचंद्रगणिकृत पडधरीप्रासादबिंबप्रवेशाधिकार स्तवन कलश तपगण-विभूषण विगतदूषण विजयसेन सूरींद ए, श्री अकबर - सुलतान-रंजक वाचक श्री शांतिचंद्र ए, तस सीस सोहइ भविक मोहइ रतनचंद मुणिंद ए, सुकवि बोलई नमो भविआ रूषभ शांति जिणिंद ए. ३१ इतिश्री पडधरी- प्रासाद-बिंब-पइसाराधिकारस्तवनं संपूर्णम्. नवीन नगरे इन्द्रलीलो विजयभूषण: प्रासादः ४२ गज उंची एकवीस गज पुहुलो पस्तालीस गज लांबो. [अध्यात्मक कल्पद्रुम, प्रका. जैन धर्म प्रसारक सभा, भावनगर, पृ. ५६-५८] - २०१ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ अज्ञातकृत शत्रुजय चैत्यपरिपाटी (आ चैत्यपरिपाटी मारा हस्तलिखित पुस्तकोनी शोधना चालु प्रयासमां हाथ लागी ते में उतारी लीधी छे. रचनारे पोताना नामनो निर्देश कर्यो नथी तेम रच्यासंवत पण आप्यो नथी. पण कृति प्राचीन छे अने प्राचीन भाषाना नमूना तरीके महत्त्वनी छे.) ['जैन गुर्जर कविओ'मां आ कृति नोंधायेली नथी. - संपा.] समरवि सरसति हंसलागामिणि, सामिणि तिहूयणामंडणी ए; शत्रुजय चैत्यपरिवाडि तु ए भणउं, भाविहि रा[स]विणाणंदणी ए. १ पहिलं पढमउ जिणेसरो, लेपमय मूरति रंगभरे; पूनिमचंद जिम लोयणाणंदणो, पूजीसो प्रभु नव नवीय परे. २ तयणु गभारए सामि रिसहेसरो, सयलमणवंछिय कप्पतरो; हेलि देइ करी पयकमल अणुसरी, पणमिसो गाइसो त्रिजगगुरो. ३ डावए जिमणए गुरु पुंडरीक पूजीसुं, आदि जिणंद आदि सीसो; अतिहि उतकंठीया काउसगि संठिया, भरह बाहूबलि नाम सीसो. ४ पहिलइ मंडपि जे किवि जिणवरा, बीजए मंडपि जे जिणंद; त्रीजए मंडपि मंडिया बिंब वंदउं तिहुअणाणंद चंद. ५ भमिसु संखेसरं पास जिणेसरं, वीर साचोर ए महिमसारो; जिमणए सिरि सामलियविहार करूं, मुणिसुव्वय जिण जुहारो. ६ वस्त नयणि निरखीय नयणि निरखीय सयल जिणबिंब, दाहिणि दिसि देहरीय जगति सोहि जुगति पसंसीय, तिहि कोडाकोडि जिण विहरमाण जिणवर नमंसीय; जणणि धरेणि-स्युं परिवरिय पूइय पंडव पंच, अठ्ठावय जिण पणमियई, देह धरीय रोमंच. ७ भाषा सिरि समेतहि वीस जिणेसर, वंदउ भावहि भुवण-दिणेसर; पाय रिसहेसर रायणि हेठिहि, पूजउ पेखवि विकसित देठिहिं. ८ काजल-सामलं सोहग-सुंदरो, नेमि नमुं बावीसम जिणवरो; लेपमए जिण डावइ पासिहि, सयल थूणीजइ धर उल्लासिहि. ९ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञातकृत शत्रुंजय चैत्यपरिपाटी थानकि था कि तीरथ उत्तम, तत्थ निवेसिय बिंब अनोपम; आवि विहार प्रणमिय आदिहिं, आवीय खरतर वर प्रासादिहिं. १० आदि गभारई आदिल जिणवरो, पेखवि लोयण अमीयसरोवरो; बहुभवसंभवपंक पखालउं दूहदावानल दूरमति टालउं. ११ बीजीय वसही राजल - वल्लह, नेमि निहालो नयण-सुहावह; त्रीजीय पूजउ वामानंदनहं, पास जिणेसर दुरीय-विहंडणं. १२ वस्तु सयल भूमिहि सयल भूमिहि बहूय वितपति, जिण - मंडळि पूतलीय ठांमि ठांमि रमणीय सोहइ, तिहिनां रंभ पुण भूषण वीर [ चीर ] पंचंग मोहइ; माला कोड निरखीए ए, नयण अनेथि न जाय, खरतरवसही जोवता, हीयडइ हरख न माय. भाषा कल्लाणउय मेरू परिठिय, च्यारि चोरीय तीरइ संठिय; सिरि सत्तरि सय सिर नंदीसरो, जिणवर वंदउं गुरूय हरसभरो. १४ जिण समेतिहिं अठ्ठावय सिरे, मरूदेवि सामिणि गयवर उपरि; मूलमंडप जिणरतन मुणीसरो, बहु परिवारिहिं पणमउं सिवंकरो. १५ बहुत्तरि देहरी बहू बिंबावली, मढह दुआरिहिं गुरूय गुरावली; मंडप गुण गोयम गणहरो, वंदउं बहूविह-लबधि-मणोहरो. २६ वस्तु तयणु बावन तदनु बावन बिंब संजुत्त, नंदीसर वंदीयइ ए वर प्रधान वस्तिगि करावीय, सिरि इंद्रमंडपिहि बिंब निय सिर नमावीय; नैमिनाह अवलोय गिरि, संब पजून कुमार, भाविहिं पणमुं पास पहु, सिरि थंभण अवतार. १७ भाषा २०३ नमउ नमि विनमि बेवि सहिय रिसहेसरो, सरगारोहणं रंगभरे; म्हेलावसहीय कवडिला जक्ख, छीपकवसहीय वंदि करे. १८ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह सामि सीमंधरो नवल प्रासादि हि, वंदउ अभिनव आदि जिण; संतिकरण सिरि संति जिणेसर, मरूदेवी सामिण थुणउं गुण. १९ उलखा झोलिहिं देव देखेवि, संति जिण चेल तलावलीए; ईण परि विमलगिरि सयल तित्थावली, पणमुं भगतिहिं अति भलीए. २० पासिरि सेहर नमु नेमीसरं, ललितसरोवरपालि वीरं; पालीयताणइ पास जिणेसरं, पणमिय पांमि सो भवह तीरं. २१ धनु संवच्छरो विगयमयमच्छरो, धनु मासो वि मंगलनिवासो; । धनु सो पक्खो उ विविह बहू सुखउ; दिवसउ निम्मलगुणनिवासो. २२ अज्ज मई माणुसाजम्मफलु लीधउ, कीधउ अज्ज सुकयत्थ कुलो; अज्ज मह पूरव पुन्नतरू फलियां, टलियउ अज्ज मह पावमलो. २३ अज्ज मह कामघट कप्पतरू तुठ्ठउ, वुठ्ठउ अंगिहिं अमीयमेहो; सेजेजे जे जिणगुण अभिनंदिया, वंदिया सुंदरू रूवगेह. २४ एय सिरि चैत्रपरवाडि वीवाहलो जो पढई जो मुणई जे कहंति; विजयवंता नरनारि सेज फल जात्रह निम्मल ते लहंति. २५ - इति सेजय चैत्रपरिपाटी वीवाहलो समाप्त. [जैन सत्यप्रकाश, मे १९४०, पृ.३०६-०७] Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५ सं.१८४४मां शत्रुजयनां देहरां अने प्रतिमाओ [हस्तप्रतलेखक अंचलगच्छीय हेमसागरने ज आना कर्ता मानवा जोईए एम लागे छे. कर्ता-कृति ‘जैन गूर्जर कविओ' ने ‘गुजराती साहित्यकोश खं.१’मां नोंधायेल नथी.] संवत १८४४ वर्षे वैसाख सूद ४ श्री सिद्धाचल उपरे तथा प्रतिमासंख्या सघले थइने ३९६५ सगले थइने छ [ते] लीखीये हैं.. ५२ श्री आदिश्वरजीनें मूल गंभारा मध्ये काउसगीया सहित प्र० (प्रतिमा) ८० बाहिर रंगमंडपें मरूदेवी माता भरतचक्री सहित छै प्र. १९३ मुलनायक देहरा बाहिर चोफेर देहरी ४५ ते मध्ये प्र. ४३ रंगमंडपनी बीजी भूमि मध्ये प्र. .१६ मुल देवगृह पाछे चोमूखनी पंक्ति मध्ये प्र० ८० चोमूख छोटा चोफेर सर्व २० तेहनी प्र. १९ संघवी मोती पटणीना देहरा मध्ये चोमूख १ आलीया मध्ये. २२ समेतसीखरजीना थापनाना देहरा मध्ये प्र०, पादुका २० छे. २१ कूसलबाईना देहरा मध्ये चोमूख १ आलीया मध्ये प्र० ३२ दक्षिण दसे अंचलगछना देहरा मध्ये प्र० ७० सा मूलाना देहरा मध्ये प्र०, चोवीसवटो १ छै प्र. ६४ अष्टापदना देहरा मध्ये प्र०, ए देहरा पासें पांणी टांको 3. ३ सेठ सूरचंदनी देहरी मध्ये प्र. ३ सा कूरां घीयानी देहरी मध्ये प्र. ८ सहसकूट पासें समेतसीखर पासें गौरव[गोख] छै ते मध्ये प्र. १०२८ सहसकूटनी देहरी मध्ये आ....मध्ये प्र० ३४ वस्तपाल तेजपालना देहरा म(ध्ये) ऋषभदेव....ना पगला. १२ समोसरणना देहरा मध्य प्र. १० सा भांणा लींबडीयानी देहरी मध्ये. १० वस्तपाल तेजपालना देहरा पासे दे...नी देहरी मध्ये. ३८ खरतरगळे पंचभायाना देहरा मध्ये. १३ ......श्रावकना देहरा मध्ये प्र. ......री १ छे ते मध्ये प्र. (पत्र फाटी गयो छे.) w Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह ....मध्ये प्र. .....प्र. बौध मतीनी छै. ....मध्ये उपराउपर चोमूख २ प्र० .....ऋषभदेवनी पगला ते पासेना गमो .....मध्ये आदीज[जि]न नमीवीन. .....काउसगीया छे. .....थांभा मध्ये प्र. ७ (समोसर)ण स्थापनाना देहरा मध्ये प्र. १० सा भूखणदास जगजीवनदासना देहरा (मध्ये). ५ सा वाछडा मंगलजीना देहरा मध्ये प्र० ८ सूरतवासी साकरबाईना देहरा मध्ये प्र० १५ सा वस्तपाल तेजपालना देहरा... चोमूख सूधां. १३ ए देहराथी उगमणी पासें देहरी २( ) ते मध्ये प्र. २ वली ए देहराने दक्षिण दसे सा हेमचंदनी देहरी मध्ये प्र. ११ सा रामजी गंधारीयाना देहरा मध्ये उपरे तथा हेठे सर्व प्र. ४३ ए देहराने पासें छोटी देहरी ७ तीहां १ देहरी मध्ये तीर्थंकरनी माता सहित ___ चोवीस-वटो १ छे ए साते देहरीनी प्र. ५३२ कोटनी भमतीनी देहरी १०८ प्र०, छुटक ३८८, चोवीसवटा तेहनी प्र० १४४, ए सर्व प्र. ए मूलगढना देहरा प्रती. संख्या. हवे हाथीपोल बाहिर देहरा तथा प्रतिमासंख्या लखी छे. ५ सा मीठाचंद लाधाना देहरा मध्ये प्र. ४ मुहणोत जयमलना देहरा मध्ये प्र० १० दोसी ऋषभ- वेलजीना देहरा मध्ये प्र० ७ सा राजसीना देहरा मध्ये प्र. २ हुबडना देहरा मध्ये प्र०, रंगमंडप मध्ये स्नात्रवेदी छै. कवडजक्षनी देहरी १ चक्रेश्वरीनी देहरी २ वाघण पोल बाहिर देहरी १ हनूमाननी छे ए पेहेली टुकना देहरा जाणवा. हवे बीजी टुकना देहरा तथा प्रतिमासंख्या लीखी छे. १ अदबूद स्वामीना देहरा मध्ये प्र० २ तीहा पार्थजिन काउसगीया मूद्रा छे. Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं.१८४४मां शत्रुजयनां देहरां अने प्रतिमाओ २०७ ९४ मोदी प्रेमचंद लवजीना देहरा मध्ये प्र० १५ मोदी हेमचंदना देहरा मध्ये प्र. ६ देहरी ६ छे ते मध्ये प्र. ७ पांच पांडवना देहरा मध्ये ५ पांड....ए साते काउसगीया. ५ छीपानी कराइया देहरी ५ धाबाली ते मध्ये प्र. २ अजीत शांतिना देहरा २ जोडाजोड छे तेमां...प्र. १ नेमनाथजीना देहरो १ ते मध्ये प्र. १ ३ मोटो देहरो १ ते मध्ये प्र० ३ ३ ....वरो १ ते मध्ये प्र. ३ (७ लीटी फाटी गइ छ) ५ सीमंधरना देहरा मध्ये प्र. ४ अजीतनाथना देहरा मध्ये प्र० ३ हाथी पोलिनै बेहु पासे आलीया मध्ये प्र. ७३ कुमारपालना बावन जीनालय देहरा मध्ये प्र. ७ जवेहर धनराज जयरायनी देहरा मध्ये प्र. ७ सा वर्द्धमानना देहरा मध्ये प्र. १५ राधणपूरवासी रवजी अभेचंदना देहरा मध्ये प्र० ६ हीरबाइना देहरा मध्ये प्र. ९ वोरा निमाना देहरा मध्ये प्र. ७ गांधी डोसाना देहरा मध्ये प्र. ४ लाडुआ श्रीमाली वीरजीना देहरा मध्ये प्र. ११ संधवी खचरा कीकाना देहरा मध्ये प्र. ३४ सा कूअरजी लाधाना देहरा मध्ये प्र० ८ विमलववसही पासें देहरा २ ते मध्ये प्र. ८१ विमलवसहीनी भूलवणी मध्ये देहरा ४, मोटो १ बावन जीनालय छे ते मध्ये. १७१ नेमीश्वरजीनी चवरी पासे लोकनाल समोसरण छ तेनि (प्रतिमा मोक्षबारीने उपर उट छे.) ४ चोखणा समोसरण मध्ये प्र० २० समोसरण पाछे गढनी भिंत पासें देहरी ८ गुमटनी ते मध्ये प्र. ५ रत्नसींह भंडारीना देहरा मध्ये प्र. Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह ए देहराने पश्चिम दसे देहरी ५ धाबाली छे ते माहिं प्रतिमा नथी. २१ ए देहराने पासें छोटी ५ देहरी ते मध्ये प्र. ५ सा प्रेमजी वेलजीना देहरा मध्ये प्र. ५ सा नथमल आणंदजीना देहरा मध्ये प्र. १८ सा वधू पटणीना देहरा मध्ये प्र० १० वो. लाधा सूरतिना देहरा मध्ये प्र. १३ छूटा चोमूख ३ रायणतले पगलानी देहरी. ३ शांतिनाथना देहरा मध्ये प्र०......बावीसवटा २ छे, प्र. ए देहराने उगमणी दसां देहरी छे ते मध्यै थावचा सूक प्रभ सीलका २५०० चाय प्रमूख २५०० साधूना पगलानी थापना छै. ६ दक्षिण दसें कोटनी थडमां देहरी २ ते मध्ये प्र. ४४ सवा सोमजीना चोमुख देहरा मध्ये प्र.१६, चोवीसवटो १ प्र. ५५ ए देहरा उपरें चोमूख १, प्र. ३० छूटक चोवीसवटो १, सर्व प्र. १६० हवे भमती मध्ये प्र. १३६, चोवीसवटो १, सर्व प्र० श्रीपूज्य-मूर्ति १४. ४ पूंडरीक पोलथी बाहिर वेलबाइ चोमूख १ प्र. १० संप्रति राजाना देहरा मध्ये प्र. ___ मरूदेवी मातानो देहरो १ ते मध्ये मरूदेवी हस्तिखंधाधी जढ छै तेह थकी आगै इंगारसा पीरनी कबर छै. ए खरतर वसीहीना देहरा ता[तथा] प्रतिमा संख्या जाणवी. - श्री लिखीतं मनी हेमसागर आचलीया ग. छे. पालीताणा मध्ये. (एक टीपणा जेवा पत्रमा मुनि जशविजय संग्रह.) [जैनयुग, वैशाख-जेठ १९८६, पृ.३६५-६७] Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०९ खेमराजकृत मंडपाचल (मांडवगढ) चैत्यपरिपाटी (मालवामां मांडवगढ ए सुप्रसिद्ध छे. त्यां मंडनमंत्री थई गया ने तेणे अनेक संस्कृत ग्रंथो रच्या. जैन श्रीमंतो त्यां अढळक संपत्तिवाळा, अने सारी संख्यामा वसता हता. 'मांडवगढनो राजीओ, नामे देव सुपास' ए ऋषभदासना स्तवनमां आपणे बोलीए छीए. त्यां जे-जे जैन चैत्यो अने बिंबो हतां तेनी परिपाटी करनारुं स्तवन सोमध्वजगणिना शिष्य खेमराजगणिए रचेलं, तेनी एक त्रण पानांनी प्रत मळेली तेमां आगळपाछळ टंकां स्तवनो ने वचमां आ स्तवन पानां बे अने त्रण पर छे तेनी नकल मुनि पुण्यविजये करेली, ते बंने श्री जिनविजय पासे पोते करेला संग्रहमा हती ते अमारी पासे आवी. ते मूळ साथे पुन: जोई सुधारी अत्र मूकी छे. तेमां बावीस देहरांनो - मूलनायक चोवीस जिननी प्रतिमानो अने तेमां सर्व मळी कुल ५६२ जिनबिंबोनो उल्लेख छे. ते उपरांत जावडे करावेल रूपानां, रत्नमय अने सुवर्णनां बिंबो भंडारमा मूकेला हतां तेनो पण उल्लेख छे. आ जावड ते कोण तेनो पत्तो हजी लाग्यो नथी. पण ते ऐतिहासिक व्यक्ति थयेल जणाय छे. काव्य फागबंधमां रच्यु छे. दूहा सिवाय बीजा छंदो रेखतानी पेरे गाई शकाशे.) [खेमराज/क्षेमराज खरतरगच्छना सोमध्वजगणिना शिष्य छे. एमणे सं.१५१६मां दीक्षा लीधेली तथा एमनी 'श्रावकाचार चोपाई' (सं.१५४६) अने अन्य कृतिओ नोंधायेली छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ भा.१, पृ.१९०-९२ अने ४८७ तथा गुजराती साहित्यकोश खं.१, पृ.७५. जावड ते तप. सुमतिसाधुसूरि (राज्यकाळ सं.१५४५-१५५१)ना परम भक्त, श्रीमालभूपाल लघुशालिभद्र ए बिरुदवाळा, मालवेश्वर ग्यासदीनना गंजाधिकारी संघपति जावड (जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, फकरो ७७५) हशे ? - संपा.] फाग-ढाल पासजिणेसर पय नमिय, कामिय-फल-दातारो; फागबंधि हउं संथुणिसु, जिणवर बिंब अपारो. १ अहे मालवदेस मडारि [मझारि]सार मंडवगढ सोहइ, जिहिं जिणहर उत्तुंग वेग [चंग] भवीअण मन मोहई; निर्मल सीतल वहई नीर नीझरण अपारो, फूलीय फलीय अढार भार वनसपती सारो. २ मूल भवणि श्री पासनाह अभिनवउ वसंतो, चारह[बारह] मास सुहामणउ संजमसिरि-कंतो; सुंदरि करि सिंगार फार जिणभवणि हि आवईं, कोइल जिम अति मधुर कंठि जिनवरगुण गावइं. ३ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह भास रिसहेसर सिरि संतिजिणा, अष्टापद अवतारो; रवि जिम तेजहिं झिर्गामगइ, समवसरण-चउबारो. ४ अहे उलिहिं पास सुपास अजिय जिण मंडिय दीसईं, नंदीसरी बावन्न देव त्रिथु(ग्रह) भवणि सलीसजई [सलहीजइ]; रंगमंडपि रलीयामणउ जयघंट-निनादो, जाणे किरि जिणभवण करइ सरगह सिउं वादो. ५ रेवयगिरि सिरि पुंडरिक गिरिवर अन(व)तारो, कल्याणिक जिण वीर तणा अष्टापद सारो; दस भव पासकुमार नेमिजिण जान जोइजइ, भीति लिखी चित्राम देखि जिहिं मन मोहीजइ. ६ भास एरिस ईंद्रविमाण समा, जिणभवणिहिं जयवंतो; पासजिणेसर गुणनिलउ, नमिस्युं हरखि हसंतो. ७ अहे केसर घन घनसार सार चंदन घसि लेसो, इकसउ चउपन बिंब सहिय प्रभु पूज करिसो; कुसुममाल सुचि सोल करी जिनकंठि ठवेसो, नामिय गाइय विविह बंदि[धि] भावन भावेसो. ८ भास बीजइ जिणहरि हरिख भरि, वंदि सुसामि सुपासो; सुरतरू जिम अतिसय गुणहिं, जगजन पूरइ आसो. ९ अहे. दीसइ मुरति सामली ए सोभागिहि चंगी, झबझब झबकइ रतनजडित जसु अंगिहिं अंगी; रास भास उल्लास धरी नारी गावंती, जसु भवणिहिं प्रभुपूज काजि सोहई आवंती. १० साल पद्वीय सतीय सीत मूरति जसु थापी, देसविदेसिंहि इसीय सामिकीरति जगि व्यापी; पंचाणवइ जिणिंद-बिंब-परिवार मनोहर, कुसमकरंड भरेवि रंगि पूजिसु परमेसर. ११ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खेमराजकृत मंडपाचल (मांडवगढ) चैत्यपरिपाटी २११ भास संतिनाह तीजइ भवणि, चउथइ संभव सामि; आदिजिणेसर पंचमई, प्रणमउ सुभ परिणामि. १२ अहे छठई जिणहरि श्री सुपास आसा मन केरी, पूरई चूरइ दुख्खरासि वाजइ जसभेरी; खानपुरि हि जिण मूलबिंब इणि परि जोहारलं, द्रव्य भाव बिहुँ भेटि पूज करि दुरिय निवारउं. १३ धरमधुरंधर धार मांहिं सीमंधर सामी, सत्तम जिणहरि कणधवन सेवइं नितु धामी; उरि मुगताफल हार सार बिहुँ कानिहिं कुंडल, सिरि वर छत्र विसाल भाल सोहइ भामंडल. १४ भास अठम जिणहरि संतिजिण. नवमड रिसह जिणंदोः भाविक-चकोरह रंजवई, जसु मुख पूनिमचंदो. १५ अहे दसमई देउलि मलिय माण मरूदेवानंदण, बहुय बिंब-सउं नमिसु देवजणमणआणंदण; इग्यारमई रमई अपारमति नेमिकुमारो, यादवकुलसिंगारहार राजल-भरतारो. १६ बारम जिणहरि हरिखपूरि चिंतामणि पासो, गाइसु गरूयई रंगि अंगि आणी उल्लासो; सुमति तणउ दातार सुमति तेरमइ जुहारलं, अष्टापदि चउवीस देव सेवा नितु सारउ. १७ भास चउदसमई जिणवर जयउ, जिरावलि प्रभु पासो; पनरसम जिणहरि संतिजिण, सेवउ महिमनिवासो. १८ अहे सोलम जिणहरि पासनाह सलहीयई अपारो, सामलवन्न पसन्न जयउ अससेण-मल्हारो; संतिजिणेसर सतरमइ ए निय मणि समरेवउ, पूजीय अजिय अढारमइ ए जीविय-फल लेवउं. १९ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह एगुणवीसम देवभवणि संतीसर वंदउं, रिसह दिलावरि वीसमइ ए अरचीय वीर नंदउं; सुपरि फतेपुरि संतिनाहि इकवीसम जिणहरि, नमिय हुसंगाबादि नेमि गाइसुं मधुरई सरि. २० जगि जयवंत जुहारीयईं, मूलबिंब चउवीस; भाव भगति पूजी करी, पूरिसु मनह जगीस. २१ अहे सयल बिंब सय पंच अनइ बासठ्ठि नमीजइ, भंडारिहि जे अछईं देवसेवा नितु कीजई; रूप्प रयण सोवन्न बिंब श्री जावडकारीय, नमिसु अनेरी सयल तित्थ निय मणि संभारीय. २२ इणि परि चैत्यप्रवाडि रची मंडवगढि हरिसिहिं, संचीय सुकृतभंडार सुगुरू सोमधजगणि-सीसिहि, फागबंधि जे पुन्यवंत नारी नर गावईं; खेमराजगणि भणइ तेइ यात्राफल पावईं. २३ - इती श्री मण्डपाचलचैत्यपरिपाटी सम्पूर्णा.. [जैनयुग, महा-फागण-चैत्र १९८५, पृ.३३२-३३] Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१३ जगा-गणिकृत सिद्धपुर चैत्यपरिपाटी __ (सिद्धराज जयसिंहे पोताना नामथी आ सिद्धपुर वसाव्युं ने ते सरस्वतीना कांठे गुजरातनी राजधानी पाटण पासे. अहीं सिद्धराज जयसिंहे रुद्रमाळ नाममुं प्रसिद्ध शिवालय कर्यु तेना अवशेषो हाल छे, पण तेणे बीजां करावेलां धर्मालयो ‘सिद्धविहार' 'राजविहार' आदि जैन देवालयो वगेरेनो नाश मुसलमानो आदिथी थयो छे. आ सिद्धपुरमां हीरविजयसूरिना समयमां तेना शिष्य कुशलवर्धनगणिए जे जैन चैत्यो हतां तेनुं कंईक वर्णन आ स्तवन सं.१६४१ना भाद्रपद शुदि ६ने दिने रची आप्युं छे. आनी जूनी लखेली प्रत अने ते परथी करेली मुनि पुण्यविजयनी नकल बंने श्री जिनविजय पासेथी मळतां बंने पुन: सरखावी नकलने संशोधी-सुधारी अत्र मूकेल छे.) [कृति वस्तुत: कुशलवर्धननी नहीं पण कुशलवर्धनशिष्य जगा-गणिनी छे ने कुशलवर्धन पण हीरविजयसूरिना शिष्य नहीं पण उदयवर्धनना शिष्य छे. हीरविजयसूरिनो उल्लेख गच्छनायक तरीके छे. जगा-गणिनी कृतिओ सं.१६३९थी १६५९नां रचनावर्षों बतावे छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ भा.२ पृ.१८७-८९ तथा गुजराती साहित्यकोश खं.१ पृ.२००-०१. ___अहीं हेमचंद्राचार्य जैन ज्ञानमंदिरनी हस्तप्रत क्रमांक ९२७१नो पाठशुद्धि अने पाठांतरमां लाभ लीधो छे. – संपा.] ॐ नमः सयल जिणेसर नमिय पाय सरसति समरीजइ, श्री गुरूचरण नमी करी मनि हरख धरीजइ; दोय कर जोडी करिसु हेव वर चिय-परिवाडी, जिम वाधइ जिनधरम पवर तरूयर वनवाडी. १ जंबूदीविहिं भरतखेत्र मझिम खंड जाणुं, ते माहे छईं नयर घणां ते पार न जाणुं; नयर अनोपम अतिविसाल वाडी वनराजी, कूप सरोवर वावि तणी सोभा छई ताजी. २ राजई जिहां वर हाटश्रेणि मढ मंदिर दीपई, न्यायवंत ठाकुर भलु वइरी सब जीपई; ववहारी धनवंत वसई दानिं करि सूरा, मान मुहुत पांमई घणां बहु संपति पूरा. ३ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह सीधपुर नयर वखाणीइ अवनीतलि चंग, श्रावक श्रावी बहु वसई जिनधरमि रंग; पोषधसाला अतिभली बेहू तिहां सोहई, जिणहर पंच मनोहरू दीठइ मन मोहई. ४ ढाल चउविह संघ मिली करी हियडइ हरख घणु धरी; अति खरी जिणवरभगति करईं सदा ए, सहि ए, अति खरी जिनवरभगति करइं सदा ए. ५ पहिलई जिणहरि सोहइ ए, भवियणनां मन मोहई ए; आरोहइ ए समकित-तरूयर दीपतु ए, सहि ए. ६ नयर सुरीपुर जाणीई, जादववंस वखाणीइ; जाणीइ समुद्रविजय तिहां राजिउ ए, सहि ए० ७ तस पटरांणी सांभली, नामि सिवाराणी भली; निरमली सीलगुणे करी सोभती ए, सहि ए. ८ तस कूखइंजिन अवतरिउ, नेमिनाथ बहु गुण भरिउं; जिनवरि अनुक्रमि सिवरमणी वरी ए, सहि ए. ९ ते श्री नेमि जिणंदू ए, दीठई अति आणंदू ए, वंदु ए भाव धरी पहिलु सदा ए, सहि ए. १० अवर बिंब जे छई बहु, प्रह उठी प्रणमईं सहू; ते लहू मनवंछित सुखसंपदा ए, सहि ए० ११ ढाल हिव बीजरे, जिनमंदिरि जव जाइइ, तव देखी रे श्री सुपास सुख पाईंईं; जस मूरति रे सूरति दीपई अति भली, मनमोहन रे नीलरयण सम सामली. १२ सामली मूरति अतिहं सोहई श्री सुपास जिणंदनी; भविलोक देखी हरख पाईं सयल-वंछिय-दायिनी. १३ वाणारसी रे नगरीना नायक सुंदरू, प्रथवीपति रे श्री सुपइठ्ठ नरेसरू; तस घरणी रे प्रथवी नाम मनोहरू, तस कूखइ रे अवतरिउ जगहितकरू. १४ हितकरू जिणवर नमईं सुरवर, पवर सत्थिय लंछणो; भवभीडीभंजण __ मोहगंजण, पापतापविहंडणो. १५ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ जगा-गणिकृत सिद्धपुर चैत्यपरिपाटी जगजीवन रे श्री सुपासजिन नायकू, तुम मूरति रे भवियणनई सुखदायकू; चिंतामणी रे कामकुंभ सम लेखीई, तुम मूरति रे देखीनइं मनि हरखीइ. १६ हरखीई तुम मुख देखी, जिनपति-पवरभुषण चाहीइ; तुम श्री सुपास जिणंद वंदन भवियमन ऊमाहीई. १७ ढाल हिव त्रीचं जिणमंदिर पे, भुहरा माहि अछई सविसेखुं; देखं झाकझमाल तु जय जयु देखं झाकझमाल तु. १८ ते माहि छईं प्रतिमा च्यार, रूप तणु नवि लाभु पार; दीठई हरख अपार तु जयु० १९ जाणे सासय जिण-अवतार, समचउरस भलु आकार; वंछितफलदातार तु जयु. २० देस-देसना भवियण आवईं, पूज करी वर भावन भावईं; ___ गावईं गीत रसाल तु जयु० २१ वरधमान जिननायक केरी, प्रतिमा तीन अछईं सु-भलेरी; भेरी भुंगल नाद तु जयु. २२ चउथी नेमिनाथनी जाणुं, पीतलमइ श्री संति वखाणुं; हियइ हरख ज आणु तु जयु. २३ भाविं भगति जे तुम वंदइ, सयल पाप दुह रासि निकंदई; नंदई ते चिरकाल तु जयु. २४ इणि परि भुंहरइ बिंब नमीजई, श्री सुपास वलतां प्रणमीजइ; नेमिनाथ सुख दीजई तु जयु० २५ हिव चउथइ जिणमंदिरि जास्युं, श्री चंद्रप्रभ जिणवर गास्युं; थास्युं सबल सनाथ तु जयु० २६ ढाल मालंतडेनी तिहांथी आघा वलिया ए मालंतडे, अतिमोटइं मंडाणि सुणि सुंदरी अति मोटई मंडाणि रे, भेरी भूगल वाजतइ ए मालंतडे, ढोल नफेरी जाणि, सुणि सुंदरि० २७ कोकिल कंठ मनोहरु ए मालंतडे, श्रावी दिइं वर भास, सुणि गीत गान गंध्रव करई ए मालंतडे, पुहुचइ वंछित आस, सुणि० २८ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह इणि परि उछ्व अतिघणा ए मालंतडे, श्री जिनशासन राज, सुणि० विधि - स्युं मारग चालता ए मालंतडे, सीझइ वंछित काज, सुणि० २९ खास भवनि हिव आवीआ ए मालंतडे, मनि आणी उच्छाह, सुणि० त्रिणि प्रदखिण दीजीइ ए मालंतडे, लीजइ भवनु लाह, सुणि० ३० मूलनायक प्रभु पेखीई ए मालंतडे, पासजिणेसर हेव, सुणि० फिरती देहरी मेलतां ए मालंतडे, चउवीस जिणवर देव, सुणि० ३१ चउमुख प्रमुख अवर भली ए मालंतडे, श्री जिनप्रतिमा सार, सुणि० भाव धरी जे वांदसि ए मालंतडे, ते घरि जयकार, सुणि० ३२ ढाल इणि परि चउविह संघ मिली तु भमरूली, करवी चिइपरवाडि, सा नवरंगी करवी चिईपरवाडि तु', बीज पाई घणा तु भमरूली, नासई कुमति धाडि, साहेलडी'. ३३ पंचय जिणहर मनोहरू तु भमरुली, पंचय मेरू समान, साहेलडी. पंचय तीरथ अतिभलां तु भमरूली, पंचमगति सुखथान, साहेलडी. ३४ चिइपरिवाडी जे करई तु भमरूली, प्रह उगमतई सूर, सा नवरंगि; ते घरि उछ्व नवनवा तु भमरूली, वाजई नवनव तूर, साहेलडी. ३५ तस घरिं चिंतामणी फलिउ तु भमरूली, तस घरि मोहणवेलि, साहे. भाव धरी जे नित करई तु भमरूली, चिई परिवाडी गेलि, सा नवरंगी. ३६ आधि व्याधि नावईं कदा तु भमरूली, तिहना नासइं रोग, साहे० धण कण कंचण माणिक तु भमरूली, ते पामइ वर भोग, साहे० ३७ चंद्र अनइरस जाणीई तु भमरूली, वेद वली ससि जोई, साहे० ते संवछर नाम कहुं तु भमरूली, भादव सुदि छठि होइ, साहे० ३८ कलस सीधपुर नयर मझारि कीधी चइतपरिपाटी भली, भवियण कहई कवियण तास घरि संपद मिली; तपगछमंडन दुरियखंडन श्री हीरविजय सूरीसरू, कवि कुसलवर्द्धनसीस पभणई सकल संघ मंगलकरू. ३९ - इति सीधपुर जिनचैत्यपरिपाटी स्तोत्रं सम्पूर्णम्. शुभं भवतु. [जैनयुग, वैशाख १९८५, पृ.३६३-६५] १. आ पंक्ति पाटण हेम. ज्ञानमंदिरनी प्रतमां 'करवी चिय परिवाडि तु भमरुली' एम छे. २. आ अने पछीनी कडीओमां 'साहेलडी'ने स्थाने 'तु भमरुली. ' ३. अहीं अने ३६मी कडीमां 'सा नवरंगि'ने स्थाने 'तु भमरुली. ' Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७ सुधानंदनसूरिशिष्य(?) कृत ईडरगढ चैत्यपरिपाटी (ईडर (सं.इलादुर्ग)नो गढ प्रख्यात छे. 'ईडरीओ गढ जीत्या' ए लोकगीत - स्त्रीगीत गुजरातमां जाणीतुं छे. तेनो इतिहास ढूंकमां अमोए लखेलो ते 'जैनयुग'ना अंकमां पण प्रकाशित थई गयो छे. आ ईडरनी एक चैत्यपरिपाटी तपागच्छना प्रसिद्ध आचार्य सोमसुंदरसूरिना शिष्यपरंपराना सुधानंदनसूरिना शिष्ये सं.१५३३मां लक्ष्मीसागरसूरिए त्यां प्रतिष्ठा करी ते पछी तुरतमा ज रचेली जणाय छे. छेवटे (तपागच्छना) लक्ष्मीसागरसूरि, सोमदेवसूरि, सुधानंदनसूरि, सोमजयसूरि, सुमतिसुंदरसूरिनां नाम गणावी कर्ताए आ स्तवन पूरुं कर्यु छे. कर्ता आ सूरिओ पैकी सुधानंदनसूरिना शिष्य लागे छे. आ स्तवननी हस्तलिखित प्रत नवीन छे, ते अने ते परथी मुनि पुण्यविजये करेली नकल श्री जिनविजय पासेथी मळेली ते बंने सरखावी नकलमां यथायोग्य संशोधन करी अत्र ते प्रकट करीए छीए.) [कृति 'जैन गूर्जर कविओ’ मां नधायेली नथी. 'गुजराती साहित्यकोश खं.१', (पृ.४१७)मां आने आधारे ज नोंध थयेली छे. कर्ता सुधानंदनसूरिना शिष्य होवानुं अनुमान कहेवाय. ला.द.भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अमदावादनी हस्तप्रत क्र.४२७४७ तथा हेमचंद्राचार्य जैन ज्ञानमंदिर, पाटणनी हस्तप्रतक्रमांक ३८३३ने आधारे अहीं क्यांक पाठशुद्धि करवामां आवी छे. परंतु श्री देशाईए वापरेली प्रत ते पाटणनी होवानो संभव देखाय छे. पाटणनी प्रतना आरंभे 'श्री सुधानंदनसूरिगुरुभ्यो नम:' एवा शब्दो छे ते ए प्रत सुधानंदनसूरिना शिष्येसंभवत: कर्ताए पोते लखेली होवाचं दर्शावे छे. ए रीते ए प्रत 'नवीन' न कहेवाय. कृतिनो रचनाकाळ सं.१६मी सदी गणाय. - संपा.] सरसति सरस ते वयण दिउ, मझ सामिणि सामिणि; चिंतिअ-पूरण-कप्पवेलि, वरगय-वरगामिणि. १ गाइस ताइस आइस लहीअ तास, ईडरगढ केरी; ' चेत्रप्रवाडि करउ रसाल, आणंदि न चोरी. २ पोलि पगार विसाल साल सोहई चउफेरी, कूआ वावि आराम ठाम नीझरण नि फेरी; वाजइं गाजई बार मास जिहां मेघाडंबर, मोर कींगारव करइ नाव अवलोई अंबर. ३ तस तलहटी अतिविसाल, जाणे किरि कासी; धरम-धनवंत अच्छ, जिहां लोक निवासी. ४ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह गढ मढ मंदिर वर तवाल[तलाव] जल बारइ मासी; पोलि विपुल अति हाट, ओलि चहुटां चउपासी. ५ राज करई तिहां भाणराय, भूपति सपराणउ; आण न खंडइ तस तणी ए, कोइ राइ न राणउ. ६ व्यवहारी बहुला वसई ए, व्यापारी महंता; वरण अढारइ विविध जाति, धरमई गहगहतां. ७ तलहट्टीइं श्री पासनाह, प्रासाद निहालउ; पूजीअ पणमीअ पोसमासि, पातग सवि टालउ. ८ खमण वसहीं पेखी हरखि गिरिसिरिवरि चडीआ; आगलि आदि जिणंद, भवण दीसई पावडीआ. ९ गढ ऊपरि गिरि समी सुई प्रासाद करावी; कुमर नरेसरि आदिनाह, पडिमा संठावी. १० जाण अजाण सहू कोई... 'रायविहार' विहार कंति इणि कारणि कहीई. ११ चंपक वेलि गुलाल फूल, जासूल अनोपम; जाई जूही मचकंद कंद, मंदार मनोरम. १२ पाडल परिमल महमहंत, बहकंतउ वालउ; वालउ बेवडी केवडी ए करि लेई निहालउ. १३ वउलसिरी बिसरीय माल, मरूउ अनई दमणउ; सेवंत्री सोवन्न जाई जेह परिमल बिमणउ. १४ फूल अमूलिक इसिआं वेलि, आदीसर पूजईं; मनह मनोरथ तेह तणा सवि संपद पूजइ. १५ वस्तु कुमर नरवरइ कुमर नरवरई, गुरूअ विहार, गिरि ऊपरि कारवीअ, आदिनाहजिणबिंब ठाविअ; संघ आवइ दह दिशि तणा, भविअ-लोक बहु भावि भाविअ, निरमल धोवि करी अनइ, पूजई आदि जिणंद, मनह मनोरथ ताहं, फल पामइं परमानंद. १६ कुमरनरिंद विहार पूठि पासाय पइटिअ, अजिअ जिणेसर वनवेसु अच्चब्भुअ त्रिति]छिअ; Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधानंदनसूरिशिष्य (?) कृत ईडरगढ चैत्यपरिपाटी सिरि जियशत्रु नरेस वंस गयणंगण-भासण, भाणु समाण समाण लोक मन्निअ बहु सासण; सोवन कंतिई झलकंतउ, गयवर लंछन जास, सो सामी कामी अ-करण, निरमालडी ए निरमल नाण-पयास. १७ ओस वंस वरकमल विमल कलहंस समाण, माण न आणई निय चित्त जिण मन्नइ आण; नियकुलकैरव-कमलखंड - उल्लासण राज, धनराज; धम्मकज्जि बहु बुद्धि शुद्धि सोनी सीतू घरणी तस उदयवंता; सीलाई सीताचार, विनयविवेक विचारपणइ निर० लच्छि तणउ अवतार. १८ तास उयरि अवतरिआ तिन्नि कुंअर गुणवंता, धरमवंत धनवंतपण दिनि दिनि गोविंद गोइंद परि करइ ए सोनी ईसर अलवि उदार चित्त नई नरराज; काज करइ पुण्यह तणां महुतिं मेरू समाण, दाण माण दिई अति घणा ए निर० जाणईं जाण अजाण. १९ पतराज, वस्तु तिणि बंधव तिणि बंधव करई शुभ काज, संघ सहित तीरथ तणी करइ जात्र सनात्र अनुपम; कलियुग कृतयुग परि करई, वस्तुपाल तेजपाल नर सम; assनगरि जिण (ऋष) भनी, करावई पईठ, वित्त वेचइ आदर घणु, उत्सव करईं गरिठ. २० जिणप्रासाद कराविवा तु भ०, सोनी इसर मनि रंग; अभंग ठाम अवनि अछइ तु भ० इडरगढ गिरिशृंग. २१ तिहां प्रासाद कराविउं तु भ० कुमरविहारह पासि; अनुपम रूप निहालतां तु भ० थाइ मनि उल्लास. २२ संवत पनर त्रीसोत्तरइ तु भ० कीधउ जस आरंभ; मंडपि जनमन मोहिउं तु भ० कोरणि तोरणि थंभ. २३ धवलपणइ अति झलहलइ तु भ० ऊंचपणइ कैलास; जस रमणिम चित्त [इ] कीइ तु भ० सुरसुंदरि रमइ रास. २४ २१९ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह मम्माणी खाणी तणी तु भ० आणी एक फलही सार; अजितनाथ प्रतिमा घडी तु भ० धवलपणइ दुद्धधार. २५ पनर तेत्रीसइ संवत्सरि तु भ० उत्सव करइ अपार; चिहु दिशि आवई संघ घणा तु भ० गणतां न लहईं पार. २६ इकि वाहिणि वाहिणि चडिआ तु भ० इक घोडे असवार; अहम्मदावाद थिआ संचरई तु भ० गायण जयजयकार. २७ लक्ष्मीसागरसूरि सुहग रे तु भ० कीधउ बिंबपइठ; धन लोचन तीणइ तणा तु भ० जेहे उत्सव दीठ. २८ संघभगति पहिरामणी तु भ० मंडि सावटूअ सुरंग; मग्गण कणय कबाहि दीइ तु भ० ईडर गढि बहु जंग. १९ इस पुण्य इण कुलि आगई तु भ० कीधा नरसिंग साहि; सघलां अजूआलिआं तु भ० ईसरि अधिक उत्साहि. ३० अजितनाथ थिर थापिआ तु भ० कारिअ गुरुअ विहारि; इडरगढ ऊपरं तु भ० महिमहिला - उरि हार. ३१ आदि जिणेसर वीनवं ए मा० वीनतडि अवधारि; करमि विगोयउ अतिघणउं ए मा० सामी तुं साधारि. ३२ चिहुं कषाए घणउं रोलविउ ए मा० लाख चउरासी योनि; अरहटघटिका परि भमी ए मा० पामी माणसयोनि ३३ तुं ठाकुर तिहां पामीइ मा० कल्पत्तर (रू) अवतार; मनवंछित फल पूरवउ ए मा० सेवकनी करउ सार. ३४ लक्ष्मीसागरसूरि सहगरूए मा० सोमदेव सूरिराय; सुधानंदनसूरि गुरूपवर मा० नरवर सेवई पाय. ३५ सिरि सोमजयसूरीसरू ए मा० सुमतिसुंदर सूरीस; जे वदनं निसिदीस. ३६ कोडि [ जोडि] निलाडि; कीधी चेत्रप्रवाडि ३७ अन्नइ जे निसुणंति; वंछित फल पामंति. ३८ धन धन ते नरनारि वर मा० परि बहु भगतिं करी एमा० बे कर ईडरगढ गिरिवर तणी मा० भई गुणई जे संभलइ ए मा० तीहं घरि रिद्धि वृद्धि संपजइ ए मा० - इति श्री चैत्यपरिपाटी समाप्त:. [जैनयुग, महा- फागण - चैत्र १९८५, पृ. १४१-४३] Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१ अनंतहंसकृत ईडर चैत्यपरिपाटी ('सोमसौभाग्य'मां जणावेला रणमल्लजीना पुत्र राव पुंजाजी छे, तेना पुत्र नारणदास अने तेना राव भाण. जुओ 'रासमाला'.) [अनंतहंस तपगच्छना जिनमाणिक्यना शिष्य छे. एमने सं.१५३३मां वाचकपद मळेलु अने एमणे संस्कृतमां सं.१५७१मां 'दशदृष्टांतचरित्र' रचेल छे. एमनी केटलीक गुजराती कृतिओ पण मळे छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ भा.१ पृ.२५२-५३ तथा गुजराती साहित्यकोश खं.१ पृ.७. श्री देशाईए उपयोगमा लीधेली प्रत ज हेमचंद्राचार्य जैन ज्ञानमंदिर, पाटणमांथी मळी छे (क्र.१६०४७). एने आधारे क्वचित् पाठ सुधारवानो थयो छे. - संपा.] श्री सद्गुरूभ्यो नम:. गोअम गणहरराय, पाय प्रणमुकर जोडी, सरसति सामिणि करि पसाय, जिम नावई खोडी; मुगति महापुरि पुहचिवा एउ परवाडी, इडर गिरिवर सिहर तणी करूं चैत्य प्रवाडी. १ पुहवी-उरि-सिंगार-हार सवि-देस-सिंगार, अडवडीआं रायां सधार श्री ईलप्राकार; गढ मढ मंदिर पोलि परव पोढा प्रासाद, सुरवर गिरिवर सिहर तणुं जे मंडई वाद. २ सुविचारी विवहारीआ ए असहजिंअ सुरंग, अधिकारीअ व्यापारीआ राजकाजि अभंग; विनयविवेकविचारवंति माहालइ मलपंती, ससिवयणी मृगलोअणी चालई चमकंती. ३ चउपट चहुटा माहि चंग पोढी पोसाल, सहिगुरू करई वखाण जाण श्रावक सुविसाल; पास जिणंद विहार सार जाणे कैलास, खिपनक वसही सिखरबद्ध आदीसर पास. ४ तीणि नयरि राठउड राय नारायणदास, आस पूरइ जणमणतणी ए भोगी लीलविलास; सूरवीर विक्कुंतकंत निज भूजबलि भीम, सवि सीमाडा नमईं पाय नवि लोपई सीम. ५ तसु नंदन इडरधणी ए अकल अबीह, अवर रायतन तेह तणी नवि लोपइ लीह; दानि करण जिसिउ भोज जाण सहू मानइ आण, पुण्यमूरति प्रथिवी प्रमाण रायांराय भाण. ६ वस्तु गोअम गणहर गोअम गणहर अनइ सरसत्ति, पणमेवीअ पयकमल सुगुरू नाम हीअडई संभारिअ, सिरि इडर गिरि तणी करिसु चैत्रपरवाडि सारिअ; पहिलं पणमिसु तलहटिअ त्रेवीसमु जिणंद, पासनाह त्रिभुवनधणी पूजिं परमाणंद. ७ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह भाषा हवईं जइइं गिरिवरनी पाजइं, निरमल नीर नदी तिहां वाजइं, गाजई जिम जलधार तु जयु जयु. गा. जिमणइ पासइं तुरंगमसाला सविडं पासे परवतमाला, दीसइ सरस रसाल तु जयु. ८ आगलि पहु पहिली पोलइ, जइइ साम्हा सिहर अछई सवि ओलइ, झोलि मन मोहंति तुजयु; बीना पालइ छई ढाकली अ. गंइणि मघनी छइंतिहां फलीअ, वलीअविनोद करंनि तुजय. ९ ऊंची त्रीजी पोलि नवेरी, तेह ऊपरि वाजइअ नफेरी, सेरि सवि दीसंति तु जयु; नंदीवृक्ष तणुं तिहां ठाम, डावइ लंबोदर अभिराम, लोक ज लिंइ विश्राम तु जयु. १० गढ पासई पाणीनी वापी, महिमंडली जे रही छई व्यापी, थापी श्री नरराय तु जयु; सांमलीआई सिहर तु मोटउ, ऊपरि पाट तणु छइ ओटउ, खोटउ नही ए ठाम तु जयु. ११ दाहिण पासि सिहरि सोमाई, लोक चडइ जोवा तिहां धाइ, माई इम जपंति तु जयु; मारगि मोटउ खेतलवीर, तेल सीदूरि भरिउंअ सरीर, कणवीरे सोहंति तु जयु. १२ नानाविध दीसई आराम, कोकिल मधुर तणा विश्राम, ठाम सवे अभिराम तु जयु; पाजइ गेलि करंता चडीई, हरखि करी नवि लागइ घडीइ, पडिइ नरगि न ताम तु जयु. १३ मोर तणा किंगारव राजइ, दहदिसि नीझरणां घण वाजइं, गाजइ गयण सुरम्म तु जयु. १४ अनुक्रमि चउथी पोलि पईठा, जिणह भूअण निअ नयणे दीठा, मीठा हूआ नरजन्म तुजयु. १५ गिरिहि चडीइ गिरिहिं चडीई गुरूअ गजगेलि, पोलि-ओलि सवि दीपती धरणि वार प्राकार राजई, लंबोदर नंदितरू खित्तवाल नीझरण राजइ; सवि तरूअर बहु फलि फल्या कोकिल तणा निनाद, पोलि परव जव जोईआं तव दीठा प्रासाद. १६ भाषा पुरिसा वावि पहू अभिराम जाम ताम ते अतिहिं ऊंडी; तसु तलि पंडर वर तु संमि खेलावई सुंडी, हाट-ओलि माहि राजपोलि घडिआलुं मंडिअ, कंचण-कलसिं लहकंति आगलि चउखंडिअ, मंदिर माहि खडोखलीअ वापी कूपाराम, धवलगृह दीसइ इस्यां ए निरमालडी ए जिस्यां हुई सुरठाम. १७ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनंतहंसकृत ईडर चैत्यपरिपाटी २२३ अंबा जंबू अंबिलीअ करणीय नारिंगी, बेजुरी नालिअरि पूर केतकीअ सुरंगी, राजकुंअरि क्रीडा करंति नयणडे कुरंगी, नवयोवनि नवनवीअ रंगि ओढणि नीरंगी, राजभवन रूलीआमणां पेखी पुहता जाम, जिनमंदिरि हिविईं जाइई ए निरमालडी ए हीअडलं हरखिउं ताम. १८ सविहुं पासे सिह श्रेणि जिनदेहरी केरी, प्रहि उठी जिणनमण काजि जण आवइ सेरी; आठ पुहुर सुणीइ सुसाद दडदडीअ नफेरी. कलसदंड घंटा निनाद वाजइ जस-भेरी, धजपताक ए ईम भणई ए सांभलिज्यो सहु लोक, जेहिं युगादि न भेटीउ ए निरमालडी ए तेहनुं जीविउं फोक. १९ धन धन ते नर पुण्यवंत किअ अविचल ठाम, सुप्रभाति जिह्वा पवित्र करूं लेइ तसु नाम, वच्छराज पहिलु उद्धार, बीजउ कुंअरपाल, त्रीजउ साह गोविंदराजि चउपट चउसाल, चंपक साहि कराविउ ए चोथउ जीरण-उद्धार, ऊलट हिअडु उल्लसिउ ए निरमालडी ए देखी सीह-दूआर. २० पहिलु प्रथमारंभ पोली पावडीए चडीई, पणमिअ पढम जिणंदचंद आपद दडवडीइ, रंगमंडप रंगनु ठाम गुरूई गुंहलीअ, थंभि थंभि दीसईं सुरंग पोढी पूतलीअ, वीणा वंश वजावती करती नाटारंभ, नयणे हरिण हरावती ए निरमालडी ए जिसीअ तिलोत्तम रंभ. २१ वस्तु वावि सुंदर वावि सुंदर कूप आराम, राजभवन अति रूअडां राजपोलि प्राकार सोहई, सरणाइ ससुर सरि मदनभेरि रिव जगत्र मोहई; खिपनिक वसही नेमिजिण निरखी पुहता बारि, रंगमंडप रंगिं करी रास रमई नरनारि. २२ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह भाषा हवई पूजा आरंभीई तु भमारूली, आदि जिणेसर देव तु, चिंहुं दिसि घंटा रणझणइ तु, दीप निरंतरमेव तु; पहिलं जईअ अंघोलीई तु भ० अंघोलीई सरीरि तु, क्षीरोदकनां धोतीयां तु भ. ओढणि दक्षिण चीर तु. २२ नव चुकीइ निहालीइ तु भ० ओरसीआनी ओलि तु, चंदन घन घनसार घसी तु भ. केसर मेलि म तोलि तु; पीतलमय समोसरण तु भ० त्रिणि प्रदक्षिण देवि तु, कर्मसिंहि कारावीउ तु भ० ते बहु वित वेचेवि तु. २३ तोरणि दीसई कोरणी तु भ. आरासण पाषाण तु, तिहां निरखी भमरी भली तु भ. लोक करईं वखाण तु; मूल गभारा माहि गया तु भ. पेखिउ प्रथम जिणंद तु, मूरति अति रूलीआमणी तु भ० भविअण-नयणाणंद तु. २४ सोवनमय पगि पालठी तु भ. हाथि सोवन बीजपूर तु, बिहुं बाहे बे बहिरखा तु भ. बहिकइ अंग कपूर तु; हार हीइ बे बहिबही तु भ. श्रीवच्छ तेजनुं पूर तु, कांने कुंडल झलहलइ तु भ. केस-सिहर केसूर तु. २५ देतई साहि करावीउ तु भ० अमूलिक तिलक निलाडि तु, मस्तिक मुकुट निहालतां तु भ. पूजइ मनह रूहाडि तु; न्हवण करीनइ लूहीई तु भ० अंगलूहणई प्रभु-अंग तु, चंदन केसरि कपूरिं तु भ. अंगीअ रची सुअंगि तु. २६ लाल गुलाल गुंथावीइ तु भ. जातीफूल जासूल तु, सेवंत्रीनी मालडी तु भ० पाडलफूल अमूल तु; दह दिसि परिमल वासती तु भ. वासंती सुरमाल तु, वालउ वेउल वउलसिरी तु भ. चंपक केरी माल तु. २७ आखी निरखी केवडी तु भ. बेवडी फूलह माल तु, बिसरा त्रिसरां चउसरां तु भ. टोडर गुणिहिं रसाल तु; दमण बिमणउ परिमलई तु भ. मरूअ नइ मचकुंद तु, चंगेरी फूले भरी तु भ० पूजिउ प्रथम जिणंद तु. २८ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५ अनंतहंसकृत ईडर चैत्यपरिपाटी आगलि भोग ऊखेवीई तु भ. कृष्णागर कपूर तु, मृगमद महिमा महिमहई तु भ० वाजई मंगल तूर तु; हवई विगतिं जिन वांदीई तु भ. पोढी प्रतिमा च्यारि तु; पीतलमय वीर पास जिण तु भ० आदि संति भव तारि तु. २९. नान्हां मोटां बिंब सर्व तु भ. पुजी पुहता बारि तु, काउसगी ए चउवीस जिणु तु भ. वीर सुपास जुहारि तु; हस्तमुख बिंबह तणी तु भ. ओलि घणी उदार तु, बिंब सवे मईं पूजीआं तु भ० पीतलमय नवि पार तु. ३० भद्र भला बे बारणइ तु भ. चिहुं दिसें चउसाल तु, राजकाज धुरंधर तु भ. श्री सायर श्रीपाल तु; सहजपाल सहजिं सुगुण तु भ० धन वेचिउ सुठाम तु. कुंथु सुमति थापी करी तु भ. चंद्र लिहाविउ नाम तु. ३१ स्नात्र महाधज आरती तु भ. मंगलदीप करंति तु, चिहुं दिसि आवई संघ घणा तु भ. पुण्यभंडार भरंति तु; वाजईं त्रंबक दडदडी तु भ० वाजईं ढोल नीसाण तु, मद्दल भुंगल भेर रवि तु भ० रंजिउ राउ श्री भाण तु. ३२ वस्तु रिसह जिणवर रिसह जिणवर करिअ महापूज, वालु वेउल मालती मरूअ कुंद मचकुंद सारिअ, पितलमय वीर जिण पास सामि पासईं जुहारिअ; देई महाधज आरती मंगलदीप करेवि, हिव जुगति जिन वंदीइ हीअडइ हरख धरेवि. ३३ भाषा हिव जुगतिं जिन वंदीइए माल्हंतडे बावन देहरी पंति, सुणि सुंदरू, भद्र भलु मदराजनु ए मा. पहिलं पूजिसु संति, सु० साह सहसा वरजांगनु ए मा. बीजइ आदि जिणंद, सु० दोसी हेमा रतना तणी ए मा० देहरी धर्म जिणंद. सु. ३४ देहरी देहरी वंदता ए मा. ऊपजां अतिहिं आणंद, सु० आहम्मदावादी नररयण मा० सा इसर हरिचंद, सु० Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह तिणि अष्टापद संठवी ए मा० थापीआ अजिअ जिणंद, सु० समोसरण चउवीस जिण मा० पूजिईं परमानंद. सु० ३५ चिहुं दिसि जाली जोइई मा० कोरणी कमलनी वेलि, सु० तोरण थंभा पूतली ए मा० दीसई करती गेलि, सु० आगलि आवी देहरी ए मा० साह साध तेणी जाणि, सु० मोर नाग प्रभुपादुका ए मा० राइणि रूख वखाणि सु० ३६ तिहां थिका पूजता पुहचीइ ए मा० त्रीजई भद्र प्रसादि, सु० संघाहिव परबत ठविउ ए मा० पीतलमय जिण वंदि, सु० हुंबड साह धर्मा तणु ए मा० चुथउ भद्र विहार, सु० नान्हां मोटा बिंब सवे मा० तेहनईं करूंअ जुहार सु० ३७ नालि - मंडप जोइ करी ए मा० वली भेटीआ प्रभुपाय, सु० सीस नामीनइ वीनवुं ए मा० वयण सुणउ जिणराय, सु० जनम लगइ प्रभु मईं करी ए मा० कर्म्म तणी जे कोडि, सु० ते संभारीअ रिसह जिण मा० वीनवुं बे कर जोडि. सु० ३८ कूडकपट कीधां घणां ए मा० पापिं पोसिउ पिंड, सु० मूढपणइ पाली नही ए मा० जिनवर आण अखंड, सू० कुगुरू कुदेव कुसंगति ए मा० मइ कीधां मिथ्यात्व, सु० समकित-चिंतामणि चडिउं ए मा० नीगमिउं विश्वविख्यात. सु० ३९ अतिं लोभईं लखिमी तणइ ए मा० मीठा बोल्या बोल, सु० अधिक लेइ ओछां दीयां ए मा० कूडां कीधां तोल, सु० परनारी परवशपणइ ए मा० शील- सिउं संग न कीध, सु० अवसर पामी आपणु ए मा० सुहगुरू दान न दीध. सु० ४० चऊद राज मांहि जीवयोनि मा० ते फरिसी सवि वार, सु० सहस जीभ मुखि हूइ ए मा० तोई न लाभई पार, सु० इणि परि मईं कीआं भवभ्रमण मा० चातुर्गतिक संसारि, सु० तुं हवई सामी पामीउ ए मा० आवागमन निवार सु० ४१ माय ताय ठाकुर धणी ए, नरेसूआं, तुं सेवक-साधार, तुं त्रिभुवननु राजीउ ए नरे० तुं सेतुंज- सिंगार. दया - मया पर पामीउ ए न० कल्पतरू तुं देव, ईडर गिरिवर सईं धणी ए न० सुरनर सारई सेव. ४२ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनंतहंसकृत ईडर चैत्यपरिपाटी २२७ हुँ नवि मागुं भोग योग न० मणि माणिक भंडार, एक जि मागुं रिसह जिण न० सासय शिवसुख सार. प्रहि ऊठी जे नर भणइ ए, न० चैत्र प्रवाडि रसाल, ते तीरथयात्रा तणुं ए फल पामइ सुविशाल. ४३ (कलश) तवगच्छ दिणयर लच्छिसायर सुमतिसाधु सूरीसरो, श्री हेमविमल मुणिंदु जिनमाणिक गुणमणि-सायरो; संथविउ श्री गुरू अनंतहंसहिं सीसलेसि जिणवरो, श्री संघ चउविह सुख्ख बहुविह रूद्धि वृद्धि सुहंकरो. - इति श्री इलदुर्गमंडन श्री आदिनाथ प्रासाद चैत्यपरिपाटी लिखिता. व्य. रूपा भार्या श्रा. राजलदे पुत्री श्रा. जीबाइ पाठनार्थं. शुभं भवतु. [जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स हेरल्ड, फेब्रुआरी १९१७, पृ.६५ तथा जान्युआरी १९१९, पृ.१-६] Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ जयहेमशिष्यकृत चितोड चैत्यपरिपाटी ( चितोड या चित्रकूट ए मेवाडमां प्रसिद्ध प्राचीन शहेर छे. तेना गढ संबंधी 'गढ तो चितोडगढ और सब गढैया' हजु पण मेवाडमां बोलाय छे. अकबर बादशाहने ए गढ सर करवामां केटली मुश्केली पडी हती ए इतिहासमां मशहूर वात छे. ते एक वखत बहु जाहोजलालीवालुं सुंदर अने विशाल नगर हतुं अने त्यां जैनोए अनेक भव्य मंदिरो अने कीर्तिस्थंभ बंधावेल छे. ए सर्वनो तेमज मेवाडनां केटलांक गामोनां मंदिरोनो टूक उल्लेख आकृतिमां मळी आवे छे. आ कृतिनी एक सुंदर हस्तलिखित प्रत गूर्जर कविओनी कृतिओनी खोळ माटे सुरतना जैन ग्रंथभंडारो जोवा अमे आ ओक्टोबर मासमां गया त्यारे त्यांना श्री सीमंधर स्वामीना मंदिरना ग्रंथभंडारमां मळी आवी ते अक्षरश: उतारी लीधी ते अत्र मूकवामां आवे छे. आ कृतिना रचनार, तपगच्छना एक पट्टधर हेमविमलसूरि ( आचार्यपद सं. १५४८, स्व०१५६८, जुओ नं.६५, पृ. ६८, जैन गूर्जर कविओ, भाग. १) ना शिष्य लब्धिमूर्तिना शिष्य जयहेमना शिष्य छे. कर्ताए पोतानुं नाम आप्यं नथी. कृति विक्रम सोळमी सदीना अंतमां थयेली निर्विवाद रीते गणी शकाय रचना सारी छे.) बीजी आवृत्ति भा. १, पृ. ३६५-६६ तथा गुजराती संपा. ] [जुओ जैन गूर्जर कविओ, साहित्यकोश खं. १ पृ. ११७-१८. गोअम गणहरराय पायपंकय पणमेवी, हंसगमणि मृगलोचणी ए सरसति समरेवी, पाए लागीनई वीनवुं ए दिउ मझ मति माडी, चित्रकोट नयरह तणी ए रचउं चेत्रपवाडी. १ मालव गूजर मारू आडि दक्षिण नइ लाड, देस सवे माहे मूलगु ए मंडण मेवाड, एक लोचन पृथिवी तणुं ए चित्रकोट भणीजई, अवर न बीजुं जगह माहि इम वयण सुणीजइ. २ गढ मढ मंदिर मालिआ ए उंचा अति सोहई, सात पोलि ओलेइं भली ए देखी मन मोहई, चउपट चिहुं दिसि च्यारि पोलि दीसईं अतिचंग, उत्सव रंग वृद्धांमणां ए नितु वाजई मृदंग. ३ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२९ जयहेमशिष्यकृत चितोड चैत्यपरिपाटी द्राखपानना मंडवा ए सेलडी वाडी वन, वापी कूप खडोकली, ए दीसइं राजभवन, कलस सोवनमय झगमगई ए कोसीसां-ओलि, कोरणिमंडित थंभश्रेणि घडीआला पोलि. ४ नयरसिरोमणि चित्रकूट उंचउ सुविशाल, धण कण कंचण भरिअ भूरि चउटां चउसाल, शिव जिन शासन देहरा ए मुनिवर-पोसाल, श्रावक श्रावी पुण्य करई मन रंगि रसाल. ५ तिणि नयरि सीसोदिआं ए कुलमंडण जाण, गढपति गजपति छत्रपति सहु मानइ आण, बंदी जय जय उचरई ए वाजई नीसाण, राज करइ रायमल्ल राण तेजिं जिसिउ भाण. ६ वस्तु गोयम गणहर गोयम गणहर समरि सरसत्ति, सुगुरू पसाय लही करी रचिसु चेत्रप्रवाडि सारीअ, चित्रकोट नयरह तणा गुण थुणइं बहु नरह नारीय, गढ मढ मंदिर झगमगई वाजई ढोल नीसाण, राज करई रायमल्ल राण तेजिं दीपइ भाण. ७ भाषा स्वर्गपुरी लंका अवतार, व्यवहारिआ तणा नही पार, सारसिंगार करंति तु जयु जयु, राजइं राजकुली छत्रीस, वासि वसईं वर्ण छत्रीस, बत्रीस जिण पूजंति. ८ चालउ चेत्रप्रवाडि करीजई, माणसजन्म तणउं फल लीजइ, कीजइ निरमल काय, रंगि सहिअ समाणी आवु, चाउल अक्षित चुक पूरावु, गावु श्री जिनराउ. ९ पहिलं श्री श्रेयंस नमीजई, त्रिणि काल जिणभगति करीजइ, असी बिंब पूजंति तु जयु जयु, आगलि सोम चिंतामणि पास, सुमति सहित त्रिणि सई पंचास, आस पूरइ एकंति. १० थंभणि थाप्या वीर जिणंद, पय सेवई नरनारीवृंद, दंद सवे टालंति तु, चउपन्न बिंब-सिउं आदि जिणेसर, हरखिइं थाप्या संघपति इसरि, केसरि पूज करंति तु. ११ मुगति-भगतिदायक बईठा प्रभु, एकसउ त्रीस-सिउं चंद्रप्रभ, चउमुख भुवण मझारि, नाभिराय-कुल-कमल-दिणंद, दस मूरति-सिउं आदि जिणिंद, वंदई बहु नरनारि. १२ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह संकट पास जिणेसर चूरइ, आकु-सामी प्रत्या पूरइ, पंत्रीसा सुबिंब, भवण देखी ऊपन्नी सुमति, तेर बिंब-स्युं भे[वं]द्या सुमति, कुमति हरइ अविलंब. १३ वस्तु संघ चउविह मली मनरंगि, चैत्र-प्रवाडि चालिआ आदि देव वंदउं श्रेयांस, चंद्रप्रभ आदिल जाणीइ, चिंतामणि पूरवइ आस, पास जिणेसर जागतु, आका-भुवण मझारि, सुमतिनाथ पूजी करी, रास रमई नरनारि. १४ भाषा वीर-विहार पुहुत्त जाम पावडिआं साठि, चडतां करम विषम तणीअ तिहां छूटई गांठि, कोसीसां कोरणिअ बारि मूलइ नही माठि, दीठे मागउं सामि पासि सेवानी पाठि, बालई साहिं ऊधरिउ ए विजयमंदिर प्रासाद, उंचपणइ दीसइ सिउ ए निरमालडी ए रवि-सिंउं मंडइ वाद; मणोर हीए. १५ पहरीय पीत पटूलडीअ खीरोदक सार, कस्तूरी चंदन घसीअ केसर घनसार, चंदन मरूउ मालतीय बहु मूल अपार, धामी धामिणि भाव-सिउंअ पूजइ सविचार, उसवंस-कुल-मंडणउ ए बालागर सुविचार; त्रिसलानंदन थापिउ ए, निर० भरई सुकृतभंडार. म. १६ त्रिणि सई अठ्ठावीस बिंब, ते टालइं शोक, तोरण शिखरह दंडकलस कोरणि अति रोक, धज-पताक ए इम कहइ, संभलज्यो लोक, वीर जिणंद न भेटसिई, तेह जीविउं फोक, जिमणइ पासइ पोखिआ ए, सामी पास सुपास; रतनागरि रंगिं थापीआ ए, नि. पूरवइ मननी आस. म० १७ खेलामंडपि पूतलीअ नाचंती सोहइं, रंभा अप्सर सारखीअ कामीमन मोहई, Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयमशिष्यकृत चितोड चैत्यपरिपाटी हुंबड पूना तणी कीरतिथंभ करावि सात भुंहि सोहामणीइ बिंब पेखी पास चंद्रप्रभ धूअ तिणि ए मति मंडीअ, जात माहरी सूखडीअ, सहस दोइ देखि, पाछा संचरिआ ए नि० वंदी वीर विशेष. म० १८ जिनिंद दिगंबरई तिहां नव स बिंब, च्यालीस - सिउंअ पूजइं अवलंब, अर्बुद-सामिअ. पनर मलधारई बिंब - स्युं श्री नाभिराय सु चंद्रप्रभ पूर मन कामी, पनर बिंब पूजी करी ए सुराणईं सम चंद; सतर बिंब सोहामणइ नि० सामी सुमति जिणिंद. म० १९ वरहडीइ देव उगुणपंचास, संघवी पूरी मनि आस, संति, एकसउ खंति, पा[रा]य, श्री धनराजे चउत्रीस जिणदत्त खीया लोला- भवणि अठावन्न मूरति भली जेह बिंब - सिउं साहि पूरी पूजीजइ निय २३१ ए संति जिणेसर ए, नि० सेवं अनुदिन पाय. म० २० वस्तु वीर भवणि वीर भवणि करी महापूजि, सहसकोटि पेखी करी दिगंबरइ बहु बिंब पामीय, चंद्रप्रभ दोइ अति भला, आदिदेव अर्बुदसामीअ, सूराणइ पूजा करी समरिआ सुमति जिणंद, पारेवु जिणि राखिउ, शरणइ शांति जिणिंद. २१ भाषा हिव नागोरइ देहरइ तु, भमइरूली श्री मुनिसुव्रत सामि तु, एकसउ पंचवीस पूजीजइ तु, भ० नवनिधि लीधई नामि तु. २२ शीतल-सामी अंचलीई तु, भ० त्रिणि सई बिंब अठ्ठतीस तु, नाणावालइ अठ्ठतीस तु भ० मुनिसुव्रत जगदीस तु. २३ चउवीस बिंब पल्लीवालइ भ० सीमंधर जयवंत तु, चित्रावालई च्यालीसइ तु, भ० पास जिणंद दयवंत तु. २४ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह कुमतिहरण श्री सुमति जिण तु, भ. पूनमीइ बावीस तु, खरतर वसही शांति जिण तु, भ० मूरति पंचतालीस तु. २५ पास जिणेसर सामल तु, भ. सत्तरिसा दोइ सार तु, पंच सइ पनरोत्तर बिंब तु, भ. शत्तुंजय गिरनार तु. २६ आदि जिणंद आराहीई तु, भ. मालवीई प्रासाद तुं, देहरी दीसइं दीपती तु, भ. घंटा पडह निनादि तु. २७ चउमुख च्यारि मूरति भली तु, अष्टापद अवतार तु, आठ सईं सतहुत्तरि बिंब तु, भ. पूजीजइ सविचार तु. २८ मुनिसुव्रत महिमा घणउ भ० सुकोसल गुफा मझारि तु, कीरतिधर वाघिणि सहीइ तु, भ. गिरूआ इणि संसारि तु. २९ आगलि गोमुख वाघमुख तु, भ. वारि झरइ अनिवार तु, कुंभई कुंभिगि थापीई तु, भ. कीरतिथंभ उदार तु. ३० नव भुइं चडीइ निहालीइ तु, भ. सरोवर वन अभिराम तु, केलि खजूरी निंबूइ तु, भ. चंपक केतकि नाम तु. ३१ वस्तु आदि जिणवर आदि जिणवर मुनिसुव्रत, शीतल सीमंधर सुमति शांति देव सोलमु अनुदिन, कामित तीरथ दीपतु, पास सामि वामानंदन, मुनिसुव्रत महिमा घणउ, सुक्कोसल अति सार, वाडी वन पेखी करी, हीयडइ हरख अपार. ३२ भाषा हिव तिहाथी पाछा वल्या ए माल्हंतडे, कुंभेसर तव दीठ, सुणि सुंदरे, कुंभे० चउपट चउहटइ चाहतां ए मा० नयणडे अमि पइठ. सुणि. ३३ खरतर साह वेला तणु ए मा. चउमुख भवण वंदेस, सु० । पोढी प्रतिमा पेखीइ मा. चंदनि पूज रचेसु. सु. ३४ शांति जिणेसर शीतलु ए मा० चउमुख भवण वंदेस, सु. सपतफणा मणि पास जिण मा. बिंब दोइ सइ पणवीस. सु. ३५ साहणइं साहिं थापिआ ए, मा. अजित जिणेसर राय, सु० पंचइ सई पंचासी0 ए मा० सेवई सुरनर पाय. सु० ३६ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयहेमशिष्यकृत चितोड चैत्यपरिपाटी २३३ डुंगरि थाप्या शांति जिण मा. सत्तरि सु पणि पंच. सु० नव सइं नउआनई नमु ए मा. वारवार विण पं[खं]च. सु. ३७ वसही बिंब पांत्रीस सु ए मा० संभव समरथ सार, सु० जे नर वंदई ते लहइं ए मा. सासय सुखभंडार. सु. ३८ बत्रीसई जिणहर थुणिआ ए मा. आठ सहस सतिताल, सु. दोई सई संख मई करी ए मा० ते वंदउं त्रिणि काल. सु. ३९ प्रह ऊठी जे भाव-सिउं ए नरेसूआ, करसिउं चैत्र-परिपाटि, तेहनु जन्म सफल सही ए नरेसूआ, मुगति प्रधान[....]. ४१ चैत्र-परवाडि पढई गुणइं ए नरेसूआ, अनई जे निसुणंति, ते दोइ तीस तीरथ तणुं ए न० निश्चई फल पामिंति. ४२ सिरि तवगछनायक सिवसुखदायक हेमविमल सूरिंदवरा, तसु सीस सुखाकर गुणमणिआगर लबधिमूरति पंडित प्रवरा, जयहेम पंडितवर विद्या सुरगुरू, सेवीजइ अनुदिन चरण, सेवकजन बोलई अमिअह तोलइ, हरखिइं हरख सुहंकरण. ४३ -- इति श्री चित्रउड चैत्य परिपाटी स्तवनं समाप्तं महोपाध्याय श्री आगममंडनगणिशिष्येण लिखितं. श्रा० कपूरदे पठनार्थम्. श्री. (प.सं.३-१२, दा.२४, सींमधर स्वामी भंडार, सुरत) [जैनयुग, भाद्रपद-आश्विन १९८३, पृ.५४-५७] Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ आबु तीर्थ (अपूर्ण कृति.) ['जैन गूर्जर कविओ'मां आवी कोई कृति नोंधायेली जणाती नथी. - संपा.] सरसति समरूं बे कर जोडी, वंदु वरकाणे गिरनार गोडी; जइंय शेजेजें संखेसर दोडी, कविता, कुशल कल्याण कोडी. १ मरूधर माहें तीरथ झाझा, आबू नविहिं कोटेरो राजा; गाम गढने देउल दरवाजा, चोमुख नें, पाउ परें जाझा. २ अशलि आचारय धर्मघोषसूरी, जात्रा कीधी पण जाणे अधूरी; देउल विण डुंगर दिसे न नूरी, ध्याने बेठा तिहां पद्मासन पूरी. ३ सुपना माहें कहें चक्केंसरी माता, ढील मति कीज्यो तिहां कणें जातां, पोरवाड पाटण विमल विख्याता, होस्यें छत्रपति सब्बल दाता. ४ अणहल्लें पाटण आचारज आवें, श्रावक सोनानें फूलें वधावे; गुंहली देइनें गुण गीत गावें, गुरूजी विमलने वेगें तेडावें. ५ नान्हडीओ बालक बीहतो आयो, श्रीपूज्ये श्रावक आगे बोलायो; जाणे सादूलो सीहणे जायो, विमलने वलतो वातें लगायो. ६ त्रीचं तीरथ आबू सुणाईं, जिनाला(लय) विण कुण जात्रा जाईं, पोरवाड पाखें केहनें कहवाई, बीजें कुल ठाम देउल न थाइं. ७ पइसा पामुं तो प्रासाद करावं, सोनारूपाना बिंब भरावं; कागल तालग लिखीने दीधो, वलतो श्रीपूज्य विहार कीधो. ८ विमलनें पूछे कर जोडी माता, आपणा गुरूने छे सुखसाता; साधे मुझनी रें लीखीयो करी लीधो. देउल करावं में बोल दीधो. ९ मतुं करीने मात विचारें, पृथ्वीनो पत्ति परधान सारें, रहे तो राजा विमलने मारे, इंम जांणीनें गणिया ईग्यारइं. १० भरीयो घर मुंकी भाया[भागा] रे जाइं, मजूरी करतां मनमें संकाईं; पहिरें ओढीने पेट भराईं, विमल मामाने घरि मोटो इम थाईं. ११ जिण समें शेठ पाटणनो जाणई, बेटी परणावी जोइ जेहणिं टाणे, पूछे परगामें ठाकठकाणे, एहवो सुंदर वर किहांथी आणे. १२ सबला सहरना शेठनी जाइ, बत्रीस लख्यणी बुद्धिवंत बाई; सबलो वर जोइजे करवा सगाई, पंडितनें पूछे पीता में भाइ. १३ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आबु तीर्थ २३५ हाथनी रेखा देखी अनुसारें, एहनो वर बांधे पातिसाहे बारें; एहवो वेढालो वाणीआ माहें; कुण आणे बारें पातसाहि साहे. १४ विमल मामाने मिलवा गयो चाली, ओ बांधे पाट स्या आज खालि; सेठनें बेटी सबल वाहली, ए जोइ जे कन्या विमलने आली. १५ बाइनो भाइ काको ने मामो, साथें सगाई करवाने सामो; विमलने पोहता च्यारे ही भाया, मा जाणे माहरे लहिणायत आया. १६ खतमें तालग माहरो जो होसी, विमल देशी तें दूधे पग धोसी; बे कर जोडी बोलीओ जोसी, पाटणथी आया पूरण दोसी. १७ खत पत्रनी वात न कांइ, विमल ल्यावो जो वांटां वधाइ; काको मामो में कन्यानो भाइ, मेतो आव्या छां करवा सगाइ. १८ किमही कहतां किमही कहवाईं, माहरे पाने थें चूनो न देवाइं, पुण्य आंकुर आगलि जणाइ, आखर अबळाथी सबलो ईम थाइं. १९ खेवे वावो. विमलनें माता, प्राहुणा ढील न करें तिहांकण जातां; मामा-सुं मलीआ पूछे सुखसाता, विमल-हाथें सुख माओ विधाता. २० मामा साद करें भाणेजाभाइ, आबु इणि समवड ईंडु चढाइं; साथें सालो में सयण विचारें, विमल बांधेसे पातिसाहि वारे. २१ पगें लागीने नालेर दीधुं. रूपिओ देहतें तिलक कीg; सगा जीमाडी सोभाग लीधो, पाटण सुधी पण पोहचाड्यो सीधो. २२ (जूनी प्रतमांथी) [जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स हेरल्ड, एप्रिल-जून १९१८, पृ.१९१-९२] Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ ज्ञानसागरकृत आबूनी चैत्यपरिपाटी (र.सं.१७२० आसपास. ज्ञानसागरे घणी कृतिओ सं.१७०१थी १७३०मां रची छे. ते माटे जुओ अमारो जैन गूर्जर कविओ, भाग बीजो, पृ.५७-८०.) [ज्ञानसागर अंचलगच्छना माणिकसागरना शिष्य हता. जुओ जैन गूर्जर कविओ, बीजी आवृत्ति भा.४, पृ.३७-६५ अने भा.५, पृ.३९७-९८ तथा गुजराती साहित्यकोश खं.१, पृ.१४८. - संपा.] ___ त्रिभुवनतिलक सोहामणो रे - ए देशी अरबुद गढ रलीआमणो रे, बार जोयण विस्तार रे, ए डूंगर वारू शिखर घणे करी सोभतो, हो लाल, जिहां नंदनवन सारिखा रे, वननो नही कोय पार रे. ए डूंगर १ वारू० आज अपूरव दिन भलो, हो लाल, चंपक जूही केवडी रे, वउलसिरी कणवीर रे. ए डूंगर. २ आज. करमदडी करणी घणी रे, रूडी द्राखनी वेलि रे, ए डूंगर. महिकइ मोगर मालती, हो लाल, उंबर छोड बदामना रे, खेलई मोर नई ढेलि रे. ए डूंगर. ३ आज. बहु दिननी मुझने हुती रे, मननी एह उमेद रे, ए डूंगर. आबू गढि जइ करूं, हो लाल, भेट भली भगवंतनी रे, भावपूजानई भेद रे. ए डूंगर. ४ आज. ढाल : थारा महुला माथई मेह झरूंखई वीजली, हो लाल, झरूंखई वीजली -- ए देशी आज सफल अवतार, थयो प्रभु माहरो, हो लाल, थयो प्रभु माहरो० निरखिउ नाभिमल्हार, में दरसण ताहरो, हो लाल, में दरसण ताहरो. ५ आबू शिखर उत्तंग, अनोपम देहरो, हो लाल, अनो. विमल मुहतारउ चंग, तीरथ-सिरसेहरो, हो लाल, तीर० ६ हुँ बलिहारी तास, करी जिणि कोरणी, हो लाल, करी. पूतलडी आरास तणी, चित चोरणी, हो लाल, तणी. ७ कोर्यां कमल अनेक, भली भली भांतिना हो लाल, भली. कोर्या वलीय विवेक, नाटक बहु भांतिनां, हो लाल, नाटक० ८ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसागरकृत आबूनी चैत्यपरिपाटी तोरण कोर्यां त्यांहि, थंभ कोर्या वली, हो लाल, थंभ० पंचाली तिणि मांहि, हेल दिल [ दिइ] लली-लली, हो लाल, हेल० ९ नवसई नव्यासी बिंब, नेह भरि निरखीयां, हो लाल, नेह० पामि प्रीति अचंभ, हीउं मनि हरखीउं, हो लाल, हीउं० १० तीनसें च्यालीस थंभ, आरासमय अति भला, हो लाल, आरा० सोहि सोवनमय कुंभ, दंडधज गुणनिलो, हो लाल, दंड० ११ देहरी पंचावन देव, जुहारी उल्लसिउ, हो - लाल, जुहा० त्रिभुवनपति जिनदेव, ऋषभ मुझ मनि वसिउ, हो लाल, ऋ० १२ ढाल : नीलडी वयरणि होई रही ए देशी - २३७ लुंगवसही हवई, भलई भेटिउ हो प्रभु नेमि जिणंद कि, सरस सलूणउ साहिबउ, ब्रह्मचारी-चूडामणि, निकलंकी हो यादवकुलचंद कि, सरस सलूणउ साहिबउ. १३ ब्रह्मचारी-चूडामणि, अमृतरस हो आंखडीए आज कि, पइठउ पूरण फल लहिउ मई तो जुहारिउ हो युगति महाराज कि, सरस सलूणउ साहिबउ. १४ निरखी निरूपम कोरणी, मन मोरूं हो तिणि सिउं लयलीन कि, धन्य कमाई तेहनी, जिणहरनी हो रचना जिण कीध कि, सरस० १५ निरख्या नवलखि आलीआ, गजशालाई हो चउमुखि अति चंग कि, निरूपम चउपन देहरी, तिहां जुहारी हो प्रतिमा पुन रंग कि, सरस० १६ पांचसई ने त्रहिपन भली, जिणप्रतिमा हो एणें प्रासाद कि, थंभ बिसें पांत्रीस तिहां, भलां कोर्यां हो लीइ गगन सिउं वाद कि, सरस० १७ भीमसाह गुजर तणइ, हवइ भेटइ हो देहरइ भगवंत कि, पीतलमइ श्री ऋषभजी, जगजीवन हो जिन करूणावंत कि, सरस० १८ प्रतिमा सवि मली एकसउ, इणि देहरइ हो जुहारी उल्लास कि, खरतरवसहीईं वली, में तो वंद्यां हो तिहां नवफण पास कि, सरस० १९ संघवी मंडलीकईं भलउ, तरभुंइइ हो चउमुख कीउ एह कि, एकसो निं चउत्रीस तिहां, जिनप्रतिमा हो निरखी धरी नेह कि, सरस० २० एकसउ च्यालीस आगला, छइ खमणा हो वसहीना बिंब कि. छूटक त्रणि देहरी तणां, बिंब सत्तर हो वांद्या अविलंब कि, सरस० २१ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह राग सारिंग मल्हार; धण समरथ प्रीउ नान्हडो - ए देशी अचलगढ भेटया हवइ, पीतलमय चउमुख जिनराज, वाल्हेसर सुणो वीनती मया करी मुजरउ लीउ, ऋषभजी मोरो गरीबनिवाज, वाल्हेसर सुणो वीनती. २२ रीरीमें बेहु भला काउसगीआ तिहां कंचणकंति, वा. प्रतिमा पिसतालीस तिहां फिरतीमां बइठी छइ पंति, वा० २३ सहसा सुलताने कीउ, ए चउमुख सखरउ प्रासाद, वा. पीतल मण सईं चउदनी, प्रतिमा बार भली आहलाद, वा. २४ पांचसईं लघु प्रासाद छइ, प्रतिमा पांच मनोहर जेह, वा. वांदीने तिहांथी वलिउ, आविउ कुंथुनाथ जिनगेह, वा. २५ साह खेतई मोदई कीउ, ए प्रासाद मनोहर सार, वा. मूलनायक श्री कुंथुजी, पीतलमय प्रतिमा श्रीकार, वा. २६ बिंब बिसें त्रिपन भला, भेटीने भांजीतें भवभ्रांति, वा. कुमरविहारें तिहां थकी, गयो जिनवंदन मनि एकांति, वा. २७ पांसठि प्रतिमा-सिउं तिहां, सोलसमा श्री शांति जिणंद, वा. भेटी जिन सफलउ कीउ, वारिउ दुख दोहग सवि दंद, वा० २८ हुंसि हती जे माहरी, पूरण तेह चढी परमाणि, वा० । यात्र करी जिनवर तणी, आज थकी थयो सफल विहाण, वा. २९ ढाल झूबखडानी त्रीजें मासे जनमथी, पामिउ तिलक पडूर, कुमर पुण्येसरू, दोसी उत्तमचंदजी, ले चलिउ संध सनूर, कुमर पुण्येसरू. ३० सुखशाता-सिउ तेहना, संघ मांहे सुविचार, कु० चैतर वदि दशमी दिने, यात्र करी सुविचार, कु. ३१ चडतां डूंगर ऊपरि, प्रगटी वादल छांहि, कु० संघ सयल सुखीउ थयउ, आदीसर ग्रही बांहि, कु. ३२ जगजीवन जगबंधु तुं, तुं मुझ माय तुं ताय, श्री ऋषभ जिणेसरू, चिंतामणि सुरतरू थकी अधिक तमे सुखदाय, श्री ऋषभ जिणेसरू, ३३ महिर करउ महाराजजी, मुझ दुस्तरनि तारि, श्री. अजू अमरपद आपयो, आवागमण निवारि, श्री. ३४ नवनिधि तुझ दरिसण लहिउ, पामिउ अष्ट महासिद्धि, श्री. दउलति हूइ दीपती, आवी अविचल ऋद्धि, श्री. ३५ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसागरकृत आबूनी चैत्यपरिपाटी २३९ कलश इम संस्तव्या अरबुद-अचलमंडण सयल जिणहर जिणवरा, त्रिजगनायक सौख्यदायक, दुरित दोहग दुखहरा, अंचलगछ बुध ललितसागर, सीस माणिकसागरू, तस विनयी सेवक न्यानसागर, भणइ भावभगतिभरू. ३६ - इति श्री अर्बुदाचल चैत्य परपाटी संपूर्णम्. श्रेयम्. . [जैनयुग, वैशाख–जेठ १९८६, पृ.३५१-५२] Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० रत्नविजयकृत अमदावाद तीर्थमाळा (र.सं.१९१२.) [कवि तपगच्छना शांतिविजयना शिष्य छे. कर्ता-कृति ‘जैन गुर्जर कविओ' अने ‘गुजराती साहित्यकोश खं.१'मां नोंधायेल नथी. ला.द. भारतीय संस्कृति विद्यामंदिरनी हस्तप्रत क्र.७१६८नी मददथी अहीं थोडी पाठशुद्धि थई छ. - संपा.] वचन सुधारस वरसति, सरसति समरी माय; गुरू गीरूआ गुण-आगला, तेहना प्रण, पाय. १ गुज्जर धरमें गाजतो, राजनगर शुभ थान; मोटा मंदिर जिन तणां, सुनीये सत अनुमान. २ किण किण पोलें देहरां, तीर्थंकर अभिधान, रसना शुचि करवा भणी ए भणुं तस अहींठांण. ३ ढाल १ : प्रभु पासवें मुखडो जोवा, भवभवनां दुखडां खोवा - ए देशी जुहरीवा. जिनवरधाम, मानु शिवमारग-विसराम; पहेला धर्मजिणंद जूहारो, मनमोहन संभव सारो. १ सुपारसनाथ निहाली, आज आणंद अधिक दिवाली; शोदागर पोलमें सार, शांतिजिन जगदाधार. २ जहरी पोल में लेहरीया नाम, बे वीर जिनेसर धाम; वासुपूज्य दिठां आणंद, बे शांतिनाथ जिणंद. ३ जगवल्लभ जगतनो स्वामि, निसापोलमें अंतरजामी; सहस्रफणा श्री पारसनाथ, धर्म शांति शिवपुरसाथ. ४ चिंतामण पारसदेव, सुर इंद करें सहु सेव; पाडे शेखने च्यार विहार, वासुपूज्य शीतल जयकार. ५ शांतिनाथ में अजित जिणंद, मुख जोतां करम-निकंद; देवसाने पाडें न्यास्य, चिंतामणी सावला पास. ६ धर्मनाथ जगतनो सूर, शांतिनाथ दिठां सुखपूर; तिलकसानी पोल सुथान, शांतिजिन तिलक समान. ७ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४१ रत्नविजयकृत अमदावाद तीर्थमाळा पोल पांजरे च्यार प्रासाद, भेटि शांति मेटो विखवाद; वासपूज्य शीतल जिन सार, प्रभु पुजी करो भवपार. ८ मुडेवानी खडकी एक, तिहां देहरां दोय विवेक; मुडेवा पारस पांमि, धर्मनाथ नमुं शिर नामी. ९ शांतिनाथ हरण भवताप, महाजननें पांजरे आप; एक चैत्य कालुपूर दीठो, जिन शांति सुधारसमीठो. १० धनासुथारनी पोल प्रकास, त्रण देहरां दिठां उल्लास; श्री आदीश्वर दीनदयाल, दीठा पारस पाप-पखाल. ११ कुंथुनाथ वंदो नरनार, कालु संघवीनी पोल मजार; बे देहरां अमरविमान, चिंतामणी अजीत निदान. १२ जांपडा पोल जूहारण कोड, शांतिनाथ नमुं कर जोड; राजा मेतानी पोल उदार, दोय देहरां सुखदातार. १३ कुंथुनाथ आदीश्वर तार, बीजो तारक नही संसार; चंग पोलमें नेम सुरंग, मुखदेखण अमनें उमंग. १४ गोलवाडनी पोल समाज, जिनराज महावीर महाराज; पुर सारंग तलिया जाण, प्रभु पारस अभिनव भाण. १५ कामेश्वर पोल निहाल, जिन संभवनाथ संभालि; वागेश्वरी पोल विख्यात, आदीश्वर त्रिभुवनतात. १६ चाडाचेड्यानी पोल प्रधान, नाथ संभव चंद्र समान; पोल नामें सावला पास, वीर शांति नमो उल्लास. १७ जिनवंदन लाभ अपार, बोले गणधर सूत्र मझार; जिन वंदे थइ उजमाल, भव त्रीजें वरे शिवमाल. १८ दोहा चंद्रकिरण सम शोभतो, चंद्रप्रभु जस नाम; धन पिंपली पोलें सदा, अति उत्तम जिनधाम. १ ढालनी पोलें वंदना, मुनिसुव्रत महाराय; तुम पदवंदन भवि लहें, तीर्थंकरपद प्राय. २ जमालपुरना पासजी, कीजे पर-उपगार; गोडि जोडि तुम तणी, सुणि नहि संसार. ३ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह ढाल २ : एक दिवसे रे शेठ सुव्रत पोसो करे - ए देशी पोल मांडवीजी ते मांहे पोलां घणी, काका बलियानी सुविधि तणी प्रतिमा सुणी; हरि किसनाजी पोल सेठनी अति भली, पर-उपगारीजी शांति निरखो रंगरलि. रंगरलि जिन पास पेखो, सहस्र नाथ फणावलि, पोल त्रीजी समेतशिखरे, जोतां जिन कमलामलि [कमलावलि], सुरदास सुसार श्रेष्ठी पोल तेहना नामनी, आदि जिनने निरख सजनी कांति घनमें दामनी. १ जिन विमल रे लालभाईनी पोलमें, नाग भुधर रे शांति जिन रंगरोलमें; चोक माणक रे महुर्त पोल विशाल छे, जिन शीतल रे त्रिभुवननाथ दयाल छे. दयाल दीठो अजित जिनवर पोल लूहार तणी सुणी, रूप सुरचंद पोल प्रतिमा, वासुपूज्य सोहामणी; तीर्थस्वामि विमल नामि दाइनी खडकी सदा, पोल घांची नाथ संभव साथ दायक शिव मुदा. २ जिन संभव रे क्षेत्रपालना वासमें, गति छेदी रे नाथ मल्या सुख-रासमें; भेटी सुमति रे मुको मननो आमलो, च्यार देहरा रे पोल फतासानी सांभलो. सांभली भावे सुजाण चेतन वासपूज्य विराजता, श्रेयांस जिनवर जगत ईश्वर सजल जलधर गाजता; वीर मोटो धीर महीमें चैत्य चोथो मन धरो, सुमति-रमणी स्वाद लेवा भविक सेवा नित करो. ३ नेमि जिनवर रे ब्रह्मचारीशिरसेहरो, पोल टीबल रे दीठो अभिनव देहरो; पोल हाजे रे छाजे नव शासनपति, पोल मांहि रे शांतिनाथनी शुभ मति, Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नविजयकृत अमदावाद तीर्थमाळा शुभ मति सेवो चंद्र शांति जे भणी ग्रंथे विधि, नांम पोलनुं राम मंदिर महावीर महिमानिधि; एह पोलें भविक निरखो श्री सुपारस दिनमणी, पीपरडीनी पोल मांहि सुमति जिन शोभा घणी. ४ पासानी रे पोलें ऋषभ दिवाकरू, दुजा जिनवर रे धर्म अनंत गुणाकरू; कूवे खारे रे पोले संभव जिन तपें, लांबेश्वर रे बे जिन योगीश्वर जपें. जपे योगी सहस्रफणना सावला सुहामणा, नाम समरो भविक भावे पास प्रभु रलियामणा; दोसीवाडें दोय देहरां नाथ सकल गुणाकरा, पार्श्व भावा जगत चावा स्वामि श्री सीमंधरा. ५ वाडे कुसमे रे शांति जिन प्रतपें अति, मारवाडि रे खडकी मांहे जिनपति, देव दुजा रे नित समरे सुरनरपति, पोल सारी रे कोठारीनी शुभ मति, शुभ मति सुणज्यो तेह माहिं पोल वाघण परगडी, जगतवल्लभनाथ समरूं केम विसरूं ईक घडी; तेह पाडे चैत्य सारां षट तणी संख्या सुणो, आदीश्वर ने अजित स्वामि दोय शांति जिन भणो. ६ चिंतामणी रे पारस आसा पुरतो, चूरतो; वीर वंदो रे संकट संघनां पोल चौमुख रे कलिकुंड नामे पास छे, वलि शांति रे दिनकर जेम प्रकाश छे. प्रकाश प्रभुनो पोल नगीना आदि जिनवरनो सुण्यो, साहपुर में नाथ संभव भक्तिभावें संथुण्यो; पंचभाईनी पोल रूडी चैत्य बे जिन राजता, आदि शांतिदेव देखी देव दुजा लाजता. ७ दुहा ईसल पारसनाथना, गुणगणमणी गंभीर; पूजी कीका पोलमें, भवजल तरवा धीर. १ २४३ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह भावें निरखं हरखमें, संभव प्रभु दीदार; से वाडे नित नमुं, नाथ हीयानो हार. २ दरवाजें दिल्लि तणें, वाडी शेठनें नाम; कधी तिरथ थापना, शिवमारग-विशराम. ३ दिवाकर प्रभु दीपता, धर्मनाथ अभिधान; ओर न अरज हजूरमां, मुजरो लीज्यो मान. ४ ढाल ३ : हीवे अवसर जाणी करे संलेखण सार ए देशी सहु चैत्य नमीनें वंदो गुरू गुणवंत, सद्बुद्धि साथें अनुभवसुख विलसंत; परिसहने सहवा दंती जिम रणधीर, श्रुतरयणे भरीया दरिया जिम गंभीर. १ दुर्गुणने टाले, पाले शुद्धाचार, जल उपशम झीलि विमल करे अवतार; महा जंगी जीत्यो काम - सुभट निरधार, नवकल्पी करता उत्तम आप विहार. २ सहु आगमज्ञायक न्याय तणो भंडार, व्याकरण प्रफुल्लित करता शब्दविचार; कोश नाटक वक्ता साहित्य ने वलि छंद, रायसभामां जइने करे कुतीर्थीनिकंद. ३ टीका अवचूरी निर्युक्तिना जाण, चूर्णी भाष्याशयद्योतक अभिनव भाण; षट् शास्त्रने जाणे, ताणे नही लवलेश, वीस वरस प्रमाणे विहरे सगले देश. ४ सहु देशना संघने उपजावे परतीत, रूचि पदने धरवा रहे आप अतीत; शुद्ध चारित्र धरता वीत्या वरस दुवीस, प्राय तेहने आपे आचारिज गण - ईस. ५ पडिरूवादिक सहु उपदेशमाला व्यक्त, षत्रिशंत गुणगण सूरिपदना युक्तः पद धरवाए विधि विशेषावश्यक वीज, यदि शिवसुख-अर्थी गुरू एहवानें धीज. ६ साधु ने श्रावक पंडित जेहनां नाम, वलि गछना स्वामि लिजे तस परिणाम; देशकाल संभालि शुद्ध करे उपदेश, लौकिक लोकोत्तर बाधक नही लवलेश. ७ तस आंणा धीरो जे कहे ते ठीक, उपदेशपदादिक षोडश समेत हतीक; गीतारथ आपे पीज्यो विष ते आप, अमृते आपे अगीतारथ छाप. तस अमृत छंडो नीर्णीत एक असार, गच्छाचार - पयन्ने जोवो ए अधिकार; पडिक्कमणा अवसर अथवा बीजी वार, अढाइज्जो सु कीजे सुत्रोच्चार . ९ एते दो चिउ दे [ दि]शना अणगार, सदगुरूने अभावे वंदन एह प्रकार; मूढ मत्सरधारी अक्षरो नवि बोध, जगजोधा थइने करे परंपर शोध. १० कायक्लेशने करता धरता मेलो वेश, मनमान्युं बोले कर आगम-उद्देश; जिनशासन डोले बोळे जलधि मझार, त्रिकयोगे करज्यो एहवानो परिहार. ११ て Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नविजयकृत अमदावाद तीर्थमाळा २४५ अनुष्ठान करंता करवा पर अपमान, मांजार तणी परि क्रियानो तोफांन; क्रोधी ने कपटी लंपटी रसना जेह, छल हेर कहीणा कुगुरू कहावे तेह. १२ जे साधु थइने करे कुशीलाचार, पद तेहने करतां विधि वंदनव्यवहार; जिण-आणा विराधे करे अनंत संसार, महावीर पयंपे महानिशीथ मझार. १३ दोष उत्तर देखी राखो समपरिणाम, शुद्ध धर्म सुणावे एहि ज उत्तम काज; मल मांहि मोती लेवानो नहि दोष, उपदेश सुणीने धरज्यो मन संतोष. १४ दोहा कामभोग मेला अछे, आर्त रौद्रनां बीज; धन्य जन एहथी ओसर्या, प्रगट्या जस बोधबीज. १ रूपविजय विद्यानिधि, विमल उद्योत सु संत; वीरविजय वचनावलि, थया थवीर गुणवंत; २ शेठ हठिसिंघ सांभरे, जेहना गुण अभिराम; विसार्या नवि वीसरे, सज्जन जनना नाम. ३ काम-कलण बुझा[डा] नहि, तिन समय अणगार; श्रावक ने वलि श्राविका, वंदो वार हजार. ४ ढाल ४ : हवे श्रीपालकुमार - ए देशी तपगच्छनो सुलतान सिंह सूरीश्वर जग जयोजी; सत्यविजय अभिधान, शिष्य विभूषण तस थयोजी. १ कीधो धर्म-उद्धार, संवेगी-नभ-दिनमणीजी; कपूरविजय पट्टधार, उज्ज्वल कमला तस तणीजी. २ पदकज-मधुकररूप, क्षमाविजय गुण-आगलाजी; जिनविजय जिनरूप, पाटे तेहनी निरमलाजी. ३ वृद्धिविजय पंन्यास, हंसविजय गुरू गुणनिधिजी; मोहनविजय पास, आराधननी बहु विधिजी. ४ तेहना शिष्य प्रधान, अमृतविजय सोहामणाजी; शीतल चंद्र समान, अतिशय गुणगणना मणाजी. ५ पालीपुरने पास, हाथ प्रतिष्ठा सांभलीजी; झाझो प्रभुनो उजास, जिन जोतां मति अति भलीजी. ६ काजल केशर जात, नयणे जइने निहालजोजी; एहवा तस अवदात, गुण गीरूआ संभालजोजी. ७ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह बहुला जैन प्रासाद, तस उपदेशे नीपनाजी; दीठां अधिक आल्हाद, इंद्रलोके गुरू उपनाजी. ८ तरणीतुल्य प्रकाश, गणधर गोयम जेहवाजी; तस पद अधिक उल्लास, तेजविजय गुणी तेहवाजी. ९ तपगण हवणां अधिप, देवेन्द्रसूरि पेखजोजी; किजो अवगुण त्याग, केवल गुणने देखजोजी. १० अमदावाद अचंभ, शेठ हेमाभाइ महागुणीजी; सुणीई शासनथंभ, शेठ हीये करूणा घणीजी. ११ साधु समतावंत, गुणवंती गुरूणी घणीजी; नरनारी धनवंत, खांण रतननी इहां सुणीजी. १२ ओगणीसें ने बार सार चोमासो सेहरमांजी; मुज सिद्धचक्र आराध, पार उतारे लहेरमांजी. १३ शुकलाश्विन मझार, नवपद ओली उजलीजी, आठम दिन गुरुवार, वाणी गुरू गंगाजलीजी. १४ शितल जिन गुणमाल, चंद्रकला गगने टलीजी; ए भणी च्यारे ढाल, मननी आशा अम फलीजी. १५ तेजविजय जयकार, शांतिविजय समता घणीजी; उपगारी अवतार, बलिहारी तस पद तणीजी. १६ तस पदकिंकर मान, रत्नविजय मुनि शिव भणीजी; तीरथमाला नाम, कीधी रचना जिन तणीजी. १७ अलीकोच्चारण पाप, मिच्छामि दुक्कड मो भणीजी; कीजो अवगुण माफ, लीजो सज्जन गुणमणीजी. १८ [जैनयुग, भाद्रपद १९८५-कारतक १९८६, पृ.७८-८१] Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ शांतिकुशलकृत गोडी पार्श्वतीर्थमाळा ('गोडी पार्श्व तीर्थमाला' मारा हस्तलिखित पुस्तकोनी शोधना चालु प्रयासमां हाथ लागी ते उतारी लीधी छे. आ कृतिमां गोडी पार्श्वनाथनां मंदिरो कया-कया गाममां आवेल छे तेनो नामोल्लेख छ, तेनी रचना सं.१६६७नी छे. तेना कर्ता शांतिकुशल छे. तेमनी अन्य रचनाओ संबंधे जुओ मारो जैन गूर्जर कविओ, भाग १, नं २१९ पृ.४७१ अने भाग ३ के जे थोडा समयमा प्रकट थनार छे तेनुं पृ.९४४. तेमना गुरुनु नाम विनयकुशल छे. पोते तपागच्छना छे ने आ कृति तपागच्छना विजयसेनसूरिना राज्यमा रचेली छे. तेमना हस्ताक्षरमां तेमनी सं.१६६७ना महा शुद २ने दिने जालोरमां आरंभेल अने जसोलामा पूर्ण करेल ‘अंजना सतीनो रास'नी सं.१६६८ वैशाख शुदि १० गुरुने दिने लखेल प्रत अमदावादना वीरविजयजीना उपाश्रयमा छे.) [शांतिकुशलनी अन्य एक कृति सं.१६७७नी मळे छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ, बीजी आवृत्ति भा.३ पृ.१३४-३५ तथा गुजराती साहित्यकोश खं.१ पृ.४३२-३३. आ तीर्थमाळा 'प्राचीन तीर्थमाळा संग्रह' मां पृ.१९८-२०० पर छपायेली छे. – संपा.] शारदनाम सोहामणो, मनि आणि हो अविहड रंग, पास तणो महिमा कहुं, जस कीरति हो जिम गाजे गंग. १ गोडी परतो पूरवे. चिंतामणि हो तुं लीलविलास; अंतरीक मोरें मनें, वरकाणे हो तुं सोहे पास. २ __ गोडी परतो पूरवे. (ए आंकणी) अलवरि रावण राजिओ, जीरावल हो तुं जागे देव; कलिजुग पास संखेसरो, बलाजईं हो तोरी कीजे सेव. ३ गोडी. चोरवाड मगसी जयो, देव पाटण हो डोकरीओ पास; दादो नवखंड जाणीए, पास फलवर्धी हो रायराणो दास. ४ गोडी. पंचासर महिमंडले, भलि भाभो नारिंगो नाम; नवपल्लव कोको कह्यो, अझारइं हो तुं बेठो ठाम. ५ गोडी. लोडण तवरी जाणीइं, ऊथ[ख]मणो हो महिमाभंडार; सिरोहीइं त्रेवीसमो, कुकडेसर हो सेवक-आधार. ६ गोडी. थंभण पास त्रंबावती, नाकोडें हो तुं घृतकल्लोल; सहसफणो ने सांमलो, पास परगट हो तुं कुंकमरोल. ७ गोडी. Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह वास. ९ गोडी. होई. १० गोडी. चारूपें आरासणें, गंगाणी (घंघाणी) हो बंदु निसदीस; भीनमाल ऊजेणीइं, नीवाजई हो जांण्यो जगदीस ८ गोडी ० सलखणपुर स्वामी जयो, तुं मुंजपर हो झोटिंगो पास; महमदावाद मनोहरू, कंबोईई हो तई कीधो भीडभंजण भलई सांभल्यो, करहेडईं हो नागेन्द्रे जोई; जेसलमेरे तुं जयो, अमीझर हो मंडोवर सादडीईं मादो वस्यो, कलिकुडें हो सोझित परिणाम; पालविहारइं आगरे, चाणसमें हो बेहड कापडवाणिज कोरटई, हमीरपुर हो छाछे [छे छ] लीइ काछोलीइ, मइंसाणे हो कडी आहाडे आबूइ, सेतुंजे हो विझैवै राधनपुरी, वडाली तुं भरूअचि तुं ईडरे, तुं देलवाडें वडोदरें, वीसलनगरे वालहो, अभिराम. ११ गोडी ० पिंपाडे पास; मेडतई निवास. १२ गोडी ० वंदु गीरनारि; सांडेरे सार. १३ गोडी ० बूआडें हो तूंहि ज गुणखांणि; डुंगरपुर हो गंधारि भोई हो बेठा वखांणि १४ गोडी ० जिनराजि; वाडज चेलण पास जि, वेलाउल हो बडली सिरताज. १५ गोडी ० मन जाई. १६ गोडी. पीरोजाबाद; दई साद. १७ गोडी ० महुर पासे चे [वे ] ईई वली अहीछत्रे हो अणाधो राय [आणी धुराय ]; नागपुरई बीबीपुरई, नडुलाई हो ढीली गाडरीयो मांडवगढई, तूं जावर हो कुंभलमेरई गाजीओ, राणकपुर हो समर्यो तूं नाडोले मांडीयो, सिद्धपुरई हो तूं दीव मझारी; चित्रकुट चंद्रावती, असाउल हो वांसवालै पास १८ गोडी० मरहट्ट मथुरा जांणिई, वांणारसी हो तूं पास जिणंद; तूं समीआणें सांभल्यो, अजारई हो तुं सेवे ईंद. १९ गोडी ० एकसो आठे आगला, नामें करी हो थुणीया जिनराज; आरत टली आमय गयो, आस्या फली हो मारा मननी आज २० गोडी० पास प्रभावे परगडो, महिमानिधि हो तुं देवदयाल; एकमनां जे ओलगे ते, पामई हो लच्छी विसाल. २१ गोडी ० तूं मईवासी उजलो, तिं मांडि भवना भाजई आमला, तूझ आगल मोटी हो नाचें २४८ जात्र; पात्र. २२ गोडी० Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांतिकुशलकृत गोडी पार्श्वतीर्थमाळा २४९ ओछस[उवस] वासें तूं वस्यो, वाणारसी हो राणी वामा मात; अश्वसेनकुलचंदलो, मूझ वालो हो त्रिजगति ख्यात. २३ गोडी० छत्र धरई चांमर ढलइ, ठकुराइ हो त्रीगडइं जिनभाण; भामंडल तेजई तपई, तुझ दरिसण हो वांछइ दीवाण. २४ गोडी. भैरव दित्य दिवालीया[देवालीया], जारक जोगणि हो डायणि विकराल; भूत न मागे भैरवो, तूं समरथ हो गोडि रखवाल. २५ गोडी. तूं मरूधरनो पातस्या, एकलमल्ल हो तूं धीमडधींग: बारि न राखई बारणा, तुझ सामा हो कोई न करई सिंग. २६ गोडी० थल थल ठावो ठाकुरो, चेडा-चेटक हो तूं काढई सारि[डि?]; रोग हणइं रोगी तणां, तुं बेटो हो वनवाडिझाडि. २७ गोडी. तरकस भीडी गातडी, कर झाली हो तें लाल कबांण; नीलडे घोडें तुं चढई, फोजफोजां हो फेरें केकाण. २८ गोडी. नवनव रूपई तुं रमे, अडवडियां हो तुहि ज दे हाथ; संघ तणी सानिधि करई, वोलावई हो तुं मेलें साथ. २९ गोडी. अलख निरंजन तूं लखई, अतुलीबल होइं तुं भूतल भाण; शांतिकुशल इंम वीनवई, तुं ठाकुर हो साहिब सुलताण. ३० गोडी. तपगछ-तिलक तडोवडे, पाय प्रणमी हो विजयसेनसूरीस; संवत सोल सतसठे. वीनवीयो हो गोडि जगदीस. ३१ गोडी० कलश त्रेवीसमो जिनराज जाणी हिइं आणी वासना, नर अमर नारी सेवा सारी गाईइं गुण पासनां; विनयकुशलगुरू-चरणसेवक गोडी नामई गहगह्यो, कलिकाल मांहि पास परगट्ट सेव करतां सुख लह्यो. -- इति श्री गोडी पार्श्वनाथ तीर्थमाला समाप्त. [जैन सत्यप्रकाश, जून १९४०, पृ.३६६-६८] Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० मेघाकृत तीर्थमाळा (संवत पंदरमुं शतक.) [मेघा/मेहाकृत 'नवसारी स्तवन' तथा 'राणपुर स्तवन' (र.सं.१४९९) मळे छे, ते कविनी ज आ रचना जणाय छे. कवि विशे विशेष माहिती प्राप्य नथी. जुओ जैन गूर्जर कविओ भा.१, पृ.६४-६५ तथा गुजराती साहित्यकोश खं.१, पृ.३२३. कृति 'प्राचीन तीर्थमाळा संग्रह भा.१'मां छपायेली छे. अहीं पाठशुद्धि तेमज पाठांतरनी नोंधमां एनो लाभ लीधो छे. - संपा.] शेज-सामी रिसह जिणंद, पाप तणी उम्मूले कंद; पूज्या शिवसुख संपति दीइ, तूठइं आप कन्हे प्रभु लीइ. १ जग-चिंतामणि त्रिभुवन-धणी, पूज करिसु रिसहेसर तणी; नामि तुम्हारे मन-उलटे, पापपडल सहु पगिडा बटे. २ सोरठदेसमंडण गिरिनार, तसु सिरि सामी नेमिकुमार; तजी राज, राजमती नारि, नेमिनाथ बालक ब्रह्मचारि. ३ तीरथ अष्ठापद मंडाण, कंचण मणि वर बिंब वखाणि; नामि प्रमाणि चउवीस जिणंद, तीरथ थापिउं भरह नरिंद. ४ भरूअछ नयर भलं मंडाण, मुनिसुव्रत पूजें मन-रूली; जातीसमरि कुंअरी राय तणी, समली थकीइ खाटकीइ हणी. ५ मुनिवर सुमति सुणो नवकार, ततखिणि पामिउ मोखदूआर; राजसिद्धि सुख लाधा घणां, ए फल सुणो नवकारह तणां. ६ सोपारे श्री जीवतसामि, संकट भाजे तेहने नामि; कोकण कलहत्थ नइ मलबार, सोपारे श्री नाभिमल्हार. ७ थंभनयर हिव तीरथ भणु, सकल सामि . श्री छे थंभणु; धनदत्त तणां प्रवहण जे हतां, समुद्र माहि राखियां बुडतां. ८ धनदत्त साह सपनंतर लहे, सासण तणी देव ईम कहे; त्रेवीसमो देव मनि घरे, कुसलखेमि पुहतां प्रवहण घरे. ९ मंगलोर हुतां सांचरियां, खंभनयरि सोपारे फरियां, .. पूज्या सकल सामि थांभणां, अजी मनोरथ छे घणां. १० जाणुं सोरठ देस जाइए, घोघे पासदेव वधाइए; चंद्रप्रभ पाटणि देवके, करो सार सामी सेवके. ११ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५१ मेघाकृत तीर्थमाळा वीरमगाम नयर पाटरी, झालावाडि ज पूजा करी; धंधुले धवलक मझारि, हरखि पूज मांडे नरनारि. १२ नरसमुद्र पाटण वर नमुं, नगर माहि सवहुं मूलगु; पंचासरो पास तिहां वली भलो, आससेण-रायां-कुलतिलो. १३ करो प्रसाद सामणि सरसति, नगर माहि धुरि करणावती; विनय विवेक देसि दंडाहि, करिसु पूज महिसाणा माहि. १४ वीसलनयर धर्म अहिठाण, पास-भुवणि नितु करे प्रणाम; वीतराग-चलणे लागीए, सामि कन्हे मुगति मागीए. १५ वडुं नगर शेजेज तलहटी, कालि भावे पर्वत गया घटी; ऋषभदेव सामीनो ठाण, वडुं नयर आणंदपुर माणि. १६ सिधपुर वडली वडगाम, आणंदे जिण करूं प्रणाम; हाथीदरे गाम महिगाल[गामि हिगालि], जिण हुं पूज मंडं त्रिणि काल. १७ आदि नगर पाल्हणपुर वली, पास जिणंद मन-रूली; पाल्हण रोग अंगि संक्रमा, पारसनाथ हेलां नीगमां. १८ चउरासी सीकरि धरि साह, पासभवणि नितु करे उच्छाह, सोला कोसीसां सोना तणां, बीजां जिणह भुवण अति घणां. १९ सीतापुर अने सुरत[नय]रे, मालवण माहि पूजा करे; धाणधार माहि तीरथ अनेक, करिसु पूज नतु नवी विवेक. २० इडरगढि रिसहेसर भलो, नाभिराय मरूदेवी तणउ; आसी पूरव लक्ष कीधु राज, संजम लेइ प्रभु किओ काज. २१ तारणगढि अजिअ जिणंद, हरख्यई थाप्या कुमर नरिंद; चउदसे चउंआल भुवणि, अवरि राय जामलि तु कवण. २२ पोसीने छे पांच प्रसाद, सुरगिरि-सु ते मांडे बाद; चंदन कुसुम धूप धुरि धरो, जिणवर पूज नितु करो. २३ तीरथ आरासण मंडाण, तिहां रूपां सोनानी खाण; सात धातु कही जूजूइ, तांबा तरूआनी तुई [छइ कुइ]. २४ आदि नेमि लोडण तिहां धणी, संति वीर पूनुं नतु भावि; सरल तरल वनसपति घणी, विघन सर्वे टाले अंबावि. २५ नगर चडाउलि गुण घणा, भुवण अढार छे जिण तणां; चउरासी चहुटे हिव फिरउ, ठामि ठामि दीसे भुहरूं. २६ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह मूलनायक श्री नाभिमल्हार, जिण दीठे मनि हरख अपार; करे पूज श्रावक मनि हसी, नगर चडाउलि लंका जसी. २७ आउलि तडितोली प्रासाद, ए बिहुं थानकि देव युगादि, त्रिसलादेवि-कुअरि धरि धीर, मूंडथले पूजे महावीर. २८ उंबरणी लग बाणारसी, तेहनी वात कहुं हिव कसी; ऊंबरणी अरबुद तलहटी, प्रासाद कराविओ संघे हठी. २९ घरदेवले बिंब , घणां, लिऊं नाम सविहं तेह तणां; कारूली श्री संति जिणंद, आंबथले आदीसर वंदी. ३० कासद्हे अरबद तलहटी, आदि नेमि पूजउं पाय लटी; उण देलाणां बे छे गाम, चंद्रप्रभ सामि लउं नाम. ३१ डीडलोद्रि संतीसर नमुं, त्रीसेली जिण त्रेवीसमो; भारीजे श्री देव युगादि, तोडंगी महावीर प्रासाद. ३२ भीमाणे श्री सुव्रत नमुं, तीर्थंकर माहे वीसमो; अरबद तीरथ यात्रा तणुं, ऊमाहो छे हीयडे घणो. ३३ प्रथम तीथंकर श्री युगादि । चलणे सर नामीअ; तुम्ह साथे अम्ह मुगति आपि, सेवक कहईं सामीय. नाभिरायकुलि मंडणो ए, अरबदगिरि-अवतार; विमल मंत्रीसर थापिओ, निरमालडी ए, दीठे हरिख अपार. ३४ सूतो जागिओ विमलशाह निसि हुउं विहाणुं, पहुता सहगुर पासि सामि सपनु एक जाणुं; में देउल दीधी धजा, कुंजर साहो कान, गुरू आगल सपर्नु कहुं, निरमा. दीठो विमल प्रधान. ३५ तें दंडी , सर[सवि] गाम देस भूपति भूपाल, तें दूहवियां तिर्यंच ढोर अस्त्री ने बाल, आलोअण आपुं किसी, न लहु संख [न] पार. सिरि अरबुदगिरि उपरि, निर० थापि-न जैन विहार. ३६ गुरू उपदेशे विमलशाह मनि करे विचारो; अभंग तीरथ अरबद भलउ वेचिसू भंडारो; ऋषभदेव मन मांहि धरे मनि समरे अंबावि; श्रावकने द्रव्य संपजे, निरमा. वेचइ सयल सहावि[सरल भावि]. ३७ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघाकृत तीर्थमाळा दंडनायक विमलशाह, तीरथ थिर थापिय, भरडा कन्हे अंबाइ आवी कहुं, थानकि श्री माता तणे, निरमा० मांडे इ भूमि गरथ घणो आपीअ; अडक [अडप्प] अपार; थापि न जैन विहार. ३८ पूरणी. ४० महुरत लो, म लाओ वार; बदरे-सुं करजो विमल नखाव्या आणी विमलशाह ए गाढी रूपा तणा, घणा; हठी. ४१ पहिला तेडाव्या सूत्रधार, रांग खणावो देउल के सोना के सुत्रधार जोई कसवटी, तिलक वधावो विमलह शाह, जिणसासणि जिणि किउ उछाह; तीरथनी कीधी थापना, नाठा सुभट सवें पापना. ४२ ठवणि दिगविजय करी श्री विमल घरि आवीओ, गुरू तणे वचने प्रासाद मंडावियो; मोकल्या जण घणा खाणि आरासणि, रूपमय थंभ तुम्हे काढिज्यो तिहां खणी. ४३ पाट थांभा सिरां घाट देउल तणां, खांणि तीरें रही घडिज्यो अति घणां; [ जोरिया रहकल वृषभ कूलिरि चरइ, देवि अंबाइ विनइ सदा नेवज करइ. ४४ वाट रहकल तीणी गाम वासियां घणां, ] पूरवि चीतविउं सार सवहं तणां; नयर चंद्रावती घाट आवि घडिउ, पाज आरासण तणी वेगि ऊपरि चडिउ. ४५ पूरियां भिडभलां [ भिडलां] पीठ बांधां घणां, नीपनो गभारो विमलवसही तणो. ४६ ठवणि श्री तणी, २५३ क्षेत्रपाल मनि कसमस करे, मूं आगलि कुण देउल करे, घणां दीह दाखि न सांसहिंउं, अंबाइ आगलि जई कहिउं. ४७ अंबाई कहे खेतावीर, जेणि जीता छे राय हमीर, देवि अंबावि वसे एह खवे, एह-सिउं प्राण म मांडे भवे. ४८ बांभणीओ राय अरबुद लीउं, रोम नयर पूरव दिसि लीउ, इणि जीता छे बार सुरताण, कोइ न मांडे एह-सुं प्राण. ४९ ए वर आपे देवि अंबावि, ए बलि बाकुल देसिई भावि, विनय करीने नेवज मागि, एह वणिग छे एहवा लागि. ५० खेतल वीर म हुइ आकला. तुम्ह दिवरावसु बाकुला, तलपट तेल रंधाव्या चणा, खेतलने दिवराविया घणा. ५१ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह टालो भूतप्रेतनो लाग, विमल मनाविओ वाली नाग, दीह बिच्यारे इंडुं घडिउं, ततिखिण देउल ऊपरि चडिउं. ५२ मन माहि हरखो विमल अपार, दादो प्रगट हूओ मढ मांहि, अंबाइ आवी इम कहिउं, बिंब हतुं ते थानक करिउं. ५३ मन माहि हरखो विमल अपार, ततखिणि तेडाव्या सूत्रधार, घडो घाट हिव देउल तणो, मुहि मागिउ गरथ लो घणो ५४ घडो घाट, मंडो कोरणी, एक एक पाहि अति घणी, हसतमुख थांभे पूतली, कुतिग करे रूप ते वली. ५५ अरबुद तीरथ गिरि कविलास, जिणि थानकि जिण पूजो आस, गुफा माहि दादो परिठविओ [ धुरि ठविओ], विमल मंत्रि, सपनि आविउ ५६ करो प्रासाद, टालो सवि अली, विमल मंत्रिसर पूगी रूली, नेमिभुवनि जसु रूलीआंमणुं, वस्तुपाल वित वेचे घणुं. ५७ आरासण आण पाषाण, नेमिभुवन जिसिउं इंद्रविमान, पीतल उर सिरि रिसह जिणंद, जिणि दीठे मनि हुई आणंद. ५८ जाई वेलि सेवंत्री लेयां, पूज्यां हुयां पाप सवे गयां, जिमणि पासे छे देहरां, ते मंडाव्यां खमणा तणां, तिणई बिंब बिसारियां घणां, ते कहीए सवि खमणा तणां. ५९ वस्तु तिरथ थापिअ तीरथ थापि, अंभ गइणे ठामि, सिरि अरबुद गिरि उपरे, विमल मंत्रि आघाट रोपिय, बार पाज वहती करी, आवइ संघ अपार, अंबाई सानिधि करे, आविओ गढ गिरनार ६० घणी वात- अरबदनी भली, हिव जासिउ अम्हि जीराउली, प्रगट पास खरो अति भलो, सकल सामि श्री जीराउलो. ६१ सदा संघ आवें अति घणा, प्रत्या पूरे सवहुं तणा, भांजे भीड, रोग सवि गमे, जीराउले पास इणें समे. ६२ मडाडी साठिं वडगाम, साचोरो श्री वीर प्रणाम, काकर थराउद्र जिण वीस, रतनपूरि पूजउं निसिदीस. ६३ जाउं भटाणे वीजू, प्रासादे पूजउं जूजुए, सीरोहडी सकल श्री पास, मनह तणी पूरे जे आस. ६४ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघाकृत तीर्थमाळा २५५ सिरि [रि]दिरि वेलांगरीय विचार, सुरहाडे [खुरहाड] पूजउंत्रिणि काल, अरबुद गोडि आदि अंहचरे[अहिचरे], करिम पज जिणवर टोकरे. ६५ श्री जालोर नयर भीनमाल, एक विप्र विहुं नंदि विचालि, निउ सहस वाणिगनां घणां, पंचतालीस सहस विप्रह तणां. ६६ सालां तालां ने देहरां, प्रासादे जिण पूजा करां, मुनिवर सहस एक पोसाल, आदिनगर एहवें भीनमाल. ६७ उडु लास अने कोरटुं, राणिग गाम माहि तलहटलं, कालधरी गाम गोहली, सामी मुगति दई सोहली. ६८ आदिनाथ अवदात अनेक, सीरोहरी नतु नवी विवेक, लोटाण नाणे नांदीई, नीतोडे जिणवर वांदीए. ६९ कोडीदरे संति लउं नाम, अजाहरी गढि वीरपुर गाम, झाडाली श्री संति जिणंद, पाप तणां उम्मूलइ कंद. ७० पीडरवाडे सिरि वर्द्धमान, प्रह ऊठीने करूं प्रणाम, सकल सामि श्री बंभणवाडि, एकलमल कहने नही पाडि. ७१ वागड[वगडा] माहि थको लिइ भोग, खण वचन टाले सवि रोग, वीरवाडे इक धर्मविचार, नाणे त्रिसलादेवि-मल्हार. ७२ जाइ सीबेरे सींधले, माल्हणसु माहि पूजा भले, जाई वेल चंपक रूअडी, पाद्राडे पूजें मउडी. ७३ सकल सामि सानिध्य करे, आव्या लोक सरण ऊगरे, वीसलपुर वाल्ही उंदिरि, बालीसा माहि पूजा करी. ७४ तीरथ तणो न जाणुं पार, जाखोरे जिण करूं जुहार, बहेडुं हाथंडी गाम, सिणवाडे जिण करूं प्रणाम. ७५ मुंडाडे मादडी सनाथ, वरकाणे श्री पार्श्वनाथ, जाउं हिव देस सातसे, नाडोलाई मन उल्लसे. ७६ जिणह पूज तिहां नितु सविहाण, आसलकोटि मांहि मंडाण, तीरथ संख्या करूं मेवाडि, ते पुण नही अम्हारि पाडि. ७७ देलवाडुं नागद्रह चित्रोड, आहड करहेडु वधणोर, जाउंर मजाउद्र सादडी, जिणवर नाम न मुकुं घडी. ७८ हजी तीरथ घणां छे भलां, में दीठां कहियां तेतलां, कईलवाडे करहेडे पास, मनह तणी जे पूरे आस. ७९ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह कुंभमेर रिसहेसर देव, अरबुद थका आव्या हेव, अरबुद थका हिव ऊतरी, वलाशृंगि रहिया घर करी. ८० कुंभकर्ण सपनंतर दिउं, तु विंध्याचल गिरि आविउ, दुर्ग कोट राय दीउं नाम, कुंभमेर गिरि विसमुं ठाम. ८१ वर्ण छत्रीस नही का[को] मणा, आव्या लोक चिहु दिसि तणा, करे भगति रिसहेसर तणी, विघन सवे जाइं तिहां ठली. ८२ व्यवहारीया तणी गजघटा, सात सहस कीधा एकटा, घणा बोल बोल्या गुणवंत, नागोरू आणो हनुमंत. ८३ सोजित थिको विणायग लिओ, कईलवाडी पोलिइ मांडीओ, नागोरू आणिओ हनुमंत, राणपुर पोले मांडीओ. ८४ सोझति सामी अने फलवृद्धि, पास जिणेसर आपे बुद्धि, माय ताय ठाकुर तिहां धणी, पाला वला राणगपुर भणी. ८५ नगर राणपुर सात प्रासाद, एकएक-सिउं मांडे वाद, धजादंड दीसे गिरिवले, इसिउं तीरथ नही सूरिज तले. ८६ पायो पुरिस सात तेह तणो, थडाबंधि द्रव्य लागो घणो, बारसाख तोरण पूतली, घणो द्रव्य लागो तिहां वली. ८७ धन जीविओ धरणिग तुम्ह तणो, धन वेचिउं चउमुखि आपणुं, वलाशृंगि रोपावीआ घाट, पुण्य तणी वहती कीधी वाट, ८८ पांच तीर्थ तिहां पांच प्राकार, पावापुर अने वैभार, चंपा मथुरा राजगृही, ते थानक जे दीसे सही. ८९ एकसो वीसोतर तीरथ नाम, इणे भणे हुई सविहं प्रणाम, श्रावक मुगति थका अलज्या, एह तवन भणज्यो हो भया. ९० मेहउ कहे मुगतिर्नु ठाम, सदा लिउं तीर्थंकरनाम, तीरथमाला भणो सांभलो, जाई पाप, घट हुई निरमलो. ९१ -- इति श्री तीर्थमाला समाप्ता. (प.सं.४-१३, जूनी प्रत, मो.सें.ला. मुंबई.) [जैनयुग, कारतक-मागशर १९८३, पृ.१५२-५६] Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७ खीमाकृत चैत्यप्रवाडि स्तवन [आ 'शत्रुजय चैत्यप्रवाडी' अने 'जयणा गीत' (सं.१५३५)ना कर्ता खीमा (जैन गूर्जर कविओ भा.१ पृ.१५८-५९) होई शके. जैन गुर्जर कविओ' मां आ कृति नोंधायेली नथी, पण 'गुजराती साहित्यकोश खं.१'मां नोंधायेली छे (पृ.७६). - संपा.] पहिला प्रणमुं प्रथम नाथ, श्री आदि जिणेसरई, बीजा अजिय जिणंद देव, वांदु परमेसरइ. १ ए श्री संभव भवसमुद्र, तिहुणनो उतारणई, अभिनंदण नई सुमतिनाथ, दुह-दुरगत-वारणं. २ पदमप्रभसिरि सुपासजिणं, सिरि चंदप्पभ सामि, पहि उठिनइ पणमसुं, जिम हुवइ नवई निधान. विधि-सु वंदुं सुविधिनाथ, सीतल सुखदायकई, श्रीआंस नइ वासुपूजि, जीवन जगि दायकइ. ४ वं, विमल अनंत धरम, ए अचिंत चिंतामणि, शांतिकरण श्री शांति कुंथु, अर मल्लि मुगटमणि. ५ श्री मनसुव्रत वंदसां ए, श्री नमि नेमकुमार, पास वीर नित प्रणमिय, जिम हुय हरख अपार. ६ त्रिभुवन मांहिं जे जइन प्रसाद, सासतां उसासतां. ते सवि वंदं वरतमान, हुं अतीत अणागतइ. ७ श्री सीमंधर विहरमान, तिहां वीस तीथंकरई, अढिआं दीपां माहि साधु, जे महा मनीसर. ८ ते सवि वंदु भगति चरे[भरे], श्री जिणसासण सार, अहनसि जे आराहसिं, ते तरसई संसार. ९ श्री सेत्रुजई सिहरस्वामि, वंदु ऊजलगिरे, अष्टापद समेतसिखिरि, वंदु नी(स)दीस रे, घोघे नवखंड कुल पास, जे जिण जग तारई, जीवतसामि ज्युगाददेव वंदु सोपारइ. १० भरूअचि वंदु मणसुवए, थंभण पर[वर] श्री पास, पाटण श्री पंचासरउ, ते पूरइ प्रभु आस. ११ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह दहिउदरउ श्री संतिनाथ, दुह-दुरिय-विहंडणउ, नवपल्लव जुहारूं वीर, साच्चउरो-मंडणउ. १२ गउडी जीराउल पास, वंदु वरकाणई, फलविधि रावणनउ प्रताप, सहूको जगि जाणई. १३ राजगरि वीभारगिरे, वंदुं वीर जिणंद, मुहर पास स्वामी नमुं, पामुं परिमाणंद. १४ नलणी विमान समान, राणपर वंदु चउमखे, नवपलव नई चित्रकोट जे जन दिवं सिख्य. १५ मंडव वंदु श्री सुपास, मगसी नवसारी, विजानगर इडर जुषारि, वडनगर जुहारि. १६ आरासणि अरबदसिरे, वंदु विमलविहारि, नाणइ नइ वली नांदिय, जीवतसामि जुहार. १७ श्री सेत्रुज समानि दल, देव दीठा लोटाणइ, वंदु बंभणवाड वीर, जिणवर जे द्याणइ. १८ अवर ज के छई ठामि ठामि, जे सविहुं जणाले. सीरोही श्री आदि प्रमुख, वंदु त्रिहुं काले. १९ ईम तीरथ खीमउ भणई, जे वंदे एकचित्ति, ते अजरामर पद लहई, प्रामइ सुख अनंत. २० जि किंय नाम तित्थं सग्गे पयाले माणसे लोए, जाइं जिणबिंबाइ, ताइ सव्वाइं वंदामि. २१ - इति श्री चैत्यप्रवाडि तवन स्तोत्रं. (एक हस्तलिखित पाना परथी) [जैनयुग, महा-फागण-चैत्र १९८५, पृ.२५२] Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५९ कवि देपालकृत समरा सारंगनो कडखो (कवि देपाले मांगरोळना सरोवरनी पाळे चारणो पासे जे जूनां कडखो - कवित सांभळ्यां ते अहीं नोंल छे. ते कवित करनारा एकनुं नाम शंकरदास छे. सारंगे मांगण, चारण आदिने पुष्कळ भेटसोगात आपी जणाय छे. समरो अने सारंग बने भाईओ हता. मोटो संघ लई सं. १३७१मां सिद्धगिरि तथा गिरनारनी जात्रा करी हती. आ कवि देपाल विक्रम सोळमा सैकानी शरूआतमां थयेल छे. जुओ अमारो ग्रंथ नामे जैन गूर्जर कविओ भा. १ पृ.३७थी ४१. समरा सारंग देसलहरा हता अने तेमना वंशजो देसलहरा कहेवाता हता. ते वंशजोनो आश्रित ते हतो, नहीं के समरा सारंगनो, कारणके समरा सारंग सं. १३७१मां थया, ज्यारे देपाल सं. १५०१थी १५३४ सुधीमां हयात हतो. बने वचे लगभग सो उपर वर्षोनुं अंतर छे. आ नानी कृति उक्त अमारा ग्रंथमां नोंधाई नथी, कारणके हमणां ज मुनि जशविजय पाथी ते प्राप्त थई. ते ऐतिहासिक होई उतारी अत्र मूकी छे अने तेम करवामां उक्त मुनिश्रीनो उपकार छे. समरा सारंग माटे वांचो पं. लालचंदनो समरसिंह पर लेख, जैनयुग, वर्ष १ पृ. १०२, १८३, २५५,४०३.) [ कविना विशेष परिचय माटे जुओ जैन गूर्जर कविओ, बीजी आवृत्ति भा. १, पृ.१३०-४७ तथा ४७६, तेमज गुजराती साहित्यकोश खं. १, पृ. १७८-७९ समरसिंह माटे जुओ जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास . ] अथ समरा सारंगनो रास लिख्यते. दुहा प्रणमी पास जिणंदना चरणकमल सुखकार, सकल जंतुना सुखकरण, जैन धर्म जयकार. १ पातसाहा मुमुद जके दिलीपत सुलतान, तास तो वजीर ये खान मुलक महेमान. २. पातसाह पोता थकी हय गय रथ असवार, वहल सूखासन पालखी छत्र चांमर ले सार ३ महा सुद्ध सातम दिने शुभ मुरत ले सार, संवत तेर इकोतरे मलियो संघ श्रीकार. ४ समरा सारंग भाव दो सकल संघ अतिपूर, चाल्या तीरथ सिद्धगिरि शुभ भावे भरपूर. ५ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह ढाल कडखो समरा सारंग शेजेज भणी संचरा, भरत अनुसार तिहां देखी भूले, आप असवार अढारसे ओपते, सत सणघारा गज अठ हि झूले. १ पाखरा पवंग पोता तणा पांचसे, सहसन ताम सेजवाल छाजे. पंच लख संघ नर नारी पाला पले, त्रणसे विविध वाजिव वाजे. २ संघ मुकाम करे एकही पारमां, पांचसें मुनिवर आहार पामे, सहस एक जैन जक जोडे जमे, संघ सुठाठ चले धर्म पामे. ३ त्रणसे यति गुरूराज तपगछ तणा, चित्त एक चींततां रंग दीसे, चतुर्विध संघ काज नीत दीजीये, वाड सुत बुद्ध विद्या दीसोदीसे. ४ मंद दलीपत दीता सेज याज, पंथ दन-रात नवकार बोले, मोर सोना तणी थाल ते त सुणी, साथे पंच सेर मोदक तोले. ५ आपही आवतो थीर करी थापतो, वीश्वमा व्यापतो धर्मधोरी, बंधी नव लाख सोरठ तणा लावतो, सांमो मलो सुलतांन गोरी. ६ करी हकमत फरमाय छत्रपती तणा, आप छोडावतो सर्व (ब)धि, सोह नीरवाह समरा सारंग करे, काढीया लीया जम जगत वंदी. ७ पंडीया राय छोडाय निज राज दीयो, सोइ सेनुंज गिरिराय पांमी, दांन नव लाख लेखें कीया लुछणा, दीठला जांम आदल सामी. ८ दुहा सारंग @ सोनैयेण सर उठो सेठेज भणी, बंदीजण बापेण पीउ पीउ कहेतां पामीयो. ९ सारंग तुं सारंगधर ते बल चंपो पआल, के दालीदर दुर कर, के बल राजा देखाड. १० सारंग के सुलतान, त्रीजो तु तोले नही, के आदिनाथनी आंण, जो मुख जूलूं बोलवा. ११ सारंगसाह (पातसाह), बीजा में पावलीया । नदी तो गंगप्रवाह, बीजा से वावलीया. १२ ढाल कडखो देवगृह सिखरबद्ध दस पोसाल हेअव, वाव कुंढास खासत मोटा, बहोल धरमसाल सत्रुकार विसरामघर, सातसे साह मील्यां नामे मोटा. १ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि पालकृत समरा सारंगनो कडखो तोरण च्यार एक एक सवा कोडनुं, रयणजडीत ध्वजा सुघट घाटे, सोइ सेज गिरनार आबु आजने तो, मोकला मोटां का तीर्थ माटे. २ संवत तेर एकोतरे..... आय सेत्रुजे उद्धार कीनो, कोड अगिआर धन खरची शुभ संघ कियो, लछवंते लछ- लाहो लीधो. ३ वरसमां त्रण संघ - पूजा रचे, सांमीभगत वावर जमे संघ नीती, संकरदास कहे सारंग समरा तणी, कीरत कांमनी विश्व गाती. ४ (ढाल) अमे उद्धाया वायां अति घणुं उवायां, साखा सरखी भेद न हुइ त्यां लगे लेंगे लाह्यां. अम० १ दूध ते धोलो, छास पण धोली, अमांणु मन काचु, पीतलीया बोत बोलाया, साचले कीधु साचु. अम० २ पुत्री अमारी झामकझुंमक, असुरे लीधी उलाली, राज करे समराना जाय, प्रतपे कोड दीवाली. अम० ३ देसलहरा भरतेसर भणीये, सेजाहरो सवाउ, मालवी आइ बीछह टालवा, देस मांने भलें आयो. अम० ४ चोरासी चारणो आसीस दीए, मांगरोल सरनी पाजे, तेह तणा कथन सांभलां, कहीयां कवि देपालें. अम० ५ राग सामेरी धन धन्य जिनशासन सुजसता, महिमा मेरू समांन, सारंग सा अणमांग्यं आपे, करकमला चड दान, धन० १ इणे अंगुठडे लबधी झाझी वीर गोयमनें जेम, सारंग सा अंगुठडे हाथ सोहावे तेम. धन० २ एण अंगुठे परसरसी, विधि गुरूए गोठ, सारंग सा अंगुठडे देने दालीदर कंठ धन० ३ जात्रा करी घेर आवीया, वरतो जेजेकार, कर जोडी देपाल भणे तु ओसवंस सणगार. धन० ४ • इति समरा सारंगनो कडखो समाप्रत लखीतंग भोजक फूला हरखा. जे वांचे तेहने - हमारी जनाय (जिनाय नमः. ( पत्र २, पं. १३, मुनि जशविजयसंग्रह) २६१ [जैनयुग, वैशाख - जेठ १९८६ ] Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ पंचतीर्थी यात्रा स्तवन [कृति अधूरी होवाथी एना कर्ता विशे कंई कही शकातुं नथी. 'जैन गूर्जर कविओ' मां कृति नोंधायेली नथी जणाती. - संपा.] श्री जिनाय नम. दुहा श्री शंखेश्वर पासजी, नमी पदमावती माय, निज गुरूचरण में सरस्वति, प्रेमे प्रणमुं पाय. १ पंच तीरथ भेटण भणी, मुज मन हरख अपार, उगणीस बावीस पोस वद, मेर तेरस मनुहार. २ ___ ढाल : सांमलियानि देशी पाटणमां पंचासरो भेटि रे, सीख लीधी सज्जन गुणपेटी रे. संघ पंच तीरथ जाये रे, नरनारी मली गुण गाये रे. १ जिनराय रे, पंचमी गति शिवसुखदाय रे. जिनराय रे० आंकणी. सखि, संघवी ते वजेसंघभाई रे, सखि, संघवण भागवानबाइ रे. सखि, बहेन भाणेजी ते झाझा रे, एक एकनी धरतां माझा रे. २ जिन. इत्यादिक लेइ परिवार रे, संघ चाल्यो ते हरख अपार रे. श्राद्ध[साध?] साधवीजे गुणभरीयारे, श्रावक साची आंणा सिर धरियारे. ३ जिन. सखि, साहामीवछल थाय रे, सखि गोरी मंगल गाय रे, सखि, विधि-स्युं जिनवर पूजे रे, सखि, कुमति तणा मन बूझे रे, ४ जिन. सखि, संघनी जे शोभा सारी रे, सखि, जांणे सहु नरनारी रे, सखि, संघ तणो परिवार रे, सखि, जांणे मोतल केरी माल रे. ५ जिन. मेतराणे मनोहर मलीया रे, आदिनाथ दीठा पुन्य बलीया रे, सिद्धपुर महावीर जिणंद रे, प्रभु दीठे परम आणंद रे. ६ जिन. कुमारीए कंत ते मिलिया रे, राजुल नारी नेमेसर बलीया रे, आदि वीर ने पास ते जाणुं रे, जिन देहरा पंच प्रमाणुं रे. ७ जिन. गोलामां ते वीर जिणंद रे, मुख सोहे ते पुन्यमचंद रे, पालविया पालणपुर दीठा रे, सांति संभव आदे लाग्या मीठा रे. ८ जिन. सखि, आबूनी उमेदवारी रे, महा वद त्रीजे कीधी तयारी रे, सखि, मजले मजले चाले रे, सखि, भर्तृ नृपति परे माहाले रे. ९ जिन. Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३ पंचतीर्थी यात्रा स्तवन आबू देखीने प्रेम उलसीयो रे, दांनदयानो मन तिहां वसीओ रे, अवचलगढ चोमुख वंदो रे, दूख दोहग दूरे कंदो रे. १० जिन० ढाल चालो चालोने भाविका जीके, पंच तीरथ जाइये; भेटि तीरथ भाविका जीके, पंचमी गति पाइये रे. आंकणी आंबू आदिसर जीके, अविचलगढ चलिओ,, चोमुख भेटीने जीके, मोहादिक छलीओ. चालो. १ सीरोईमां साहेब जीके, आदेसर दीठा, जिनघर ते चउदे जीके, लाग्या मूझ मीठा. चालो. २ ईत्यादिक वाटे जीके, जिनवर बहु दीठा, रांणकपुर रसीयो जीके, चोमुखजी मीठा. चालो. ३ घाणेरे जिनघर जीके, नव निरूपम जोया, आदि वीरने वांदि जीके, पापमेल धोइया. चालो. ४ नाडोल नाडलाई जीके, जादवा तिहां सोहे, पद्म प्रभु भेटी जीके, वरकांणे मन मोहे. चालो. ५ वामानो जायो जीके, वरकांणे जोया, मुख पुनमचंदो जीके, देखी सुर मोह्या. चालो. ६ पालीमां प्रेमे जीके, मुझ मन ललचायो, नवलखा देखी जीके, मनडुं तिहां ठायो. चालो. ७ चैत्री बीजेथी जीके, सी...... (अपूर्ण, एक पा, मुनि जशविजय संग्रह) [जैनयुग, वैशाख–जेठ १९८६, पृ.४०४-०५] Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ ज्ञानकीर्तिकृत सोमसुंदरसूरि स्तुति (कविपरिचय माटे जुओ 'तपगच्छ गुर्वावली'. आ कृति छेल्ली कडी सिवाय दोहामां छे; छेल्ली कडी इन्द्रवज्रामां छे.) [ 'जैन गूर्जर कविओ' मां आ कृति नोंधायेली नथी. 'गुजराती साहित्यकोश खं. १' मां पृ. १४२ पर नोंधायेल छे. कृति सोमसुंदरसूरिना आचार्यकाळ (सं. १४५७थी १४९९)मां रचायेली छे. ए 'पट्टावलीसमुच्चय भा. २ 'मां छपायेली छे. संपा. ] सिरि सोमसुंदरसूरि गुरू, भाविहिं भगतिइं वीनवउं, सिरि देवसुंदर-पट्टधर, भवसायर बुडुं जण, आगमि जाणीय तत्त्व नव, जीवाजीवविचार, बालप्पणि पामिअ चरण, सिक्खिअ सव्वाचार. ३ उवसमि सामिअ कोह-दव, मद्दव अज्जव तज्जिय मायभर, वर दुद्दम-पिंचिंदिय-दम। मद्दिअ माण, संतोष निहाण. ४ राग-दोस- परिहार, दुज्जय निज्जिय मार. ५ नव बंभगुत्तिहिं गुत्त तणु, तस - थावर- रक्खण-निरत, पंचमहव्वय-धार, गामागरि पट्टण नयरि, नव कप्पि विहिय विहार. ६ देसण रंजिय सयल जण, पयडिय धम्माधम्म, जे तुम्ह वंदईं भव्वजण, तांह सफलउ नरजम्म ७ जण-मण-वंछिय कप्पतरू, जगबंधव जगनाह, जई सुचिरं निम्मल चरण, दंसण - नाण-सणाह एवं गुणे जंपई सो गुरूणं, चंदुज्जले भत्तिभरेण भव्वो, संसार- कारागिहवासदुक्खं, मुत्तूण सो जाई कमेण मुक्खं. ९ इति श्री सोमसुन्दरसूरि स्तुति:. पं. ज्ञानकीर्तिगणिमिः कृताः शुभं भवतु श्री श्रमण संघस्य. छ. श्रीः. ( एक पत्रनी प्रति, कुल पंक्ति २८, दरेक पंक्तिमा ५४ अक्षरो, मारी पासे.) [जैन सत्यप्रकाश, मे १९४२, पृ.४६५-६६ ] गुरूगुणरयणभंडार, जिणसासण - सिंगार. १ साहुणि-साहु-सणाह, हत्थालंबण हु. २ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६५ विवेकहर्षकृत हीरविजयसरि (निर्वाण) रास (आ कृति 'पांडव नयन' (५२) एटले सं.१६५२मां हीरविजयसूरिना स्वर्गवासना वर्षमा ज तपगच्छीय विवेकहर्षे वीजापुरमां रची छे अने त्यां ज आनी प्रत लखाई छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ, भाग १लो, नं.१७८ पृ.३११. [बीजी आवृत्ति भा.२, पृ.२७९-८०] तेओ पोते हर्षाणंदना शिष्य हता. अने हीरविजयसूरिनी शिष्यपरंपरामां थयेला अने तेमना पट्टधर विजयसेनसूरिनी आज्ञामा रहेला. विवेकहर्ष प्रतापी हता. तेमणे कच्छना राजा राव भारमल्लने (भारमल्ल पहेला, सं.१६४२थी १६८८, आत्मारामकृत कच्छनो इतिहास) प्रतिबोध्यो हतो. तेना संबंधीनी कच्छनी हकीकत कच्छनी मोटी खाखरना शत्रंजयविहार नामना जैन मंदिरनी अंदरनो एक मोटो शिलालेख छे तेमां आपेली छे. (ते शिलालेख पंन्यासश्री हंसविजयजीकृत प्रश्नोत्तर पुष्पमाला नामना पुस्तकना पृ.१५५मां अने जिनविजय २, नं.४४६मां छपायो छे.) आ लेखनो सार श्री जिनविजय आपे छे के: सं.१६५६मा तपागच्छना आचार्य विजयसेनसूरिनी आज्ञाथी पं. विवेकहर्षगणिए कच्छ देशमा विहार कर्यो अने एक चातुर्मास भुज शहेरमा अने बीजं रायपुर बंदरमा कर्यु ते दरमियान तेमणे तत्कालीन कच्छना राजा भारमल्लजीने पोतानी विद्वत्ताथी रंजित करीने तेनी पासेथी केटलाक विशेष दिवसोमां जीवहिंसा बंध करावानो अमारि पडह वजडाव्यो; तथा राव भारमल्लजीए भुज नगरमा 'रायविहार' नामे एक सुंदर जैन मंदिर पण बंधाव्यु. भुजथी विहार करी पं. विवेकहर्षगणि कच्छना जेसला नामे मंडळ(प्रांत)मां गया. त्यां खाखर गामना सेंकडो ओसवालोने धर्मोपदेश आपी शुद्ध श्रावकना आचार वगेरे शिखडावी पूर्ण श्रद्धावान कर्या. ते वखते त्यां सा. वयरसीए तपागच्छना यतिओने रहेवा माटे एक नवीन उपाश्रय कराव्यो, तथा गुजरातमांथी सलाटोने बोलावी केटलीक जिनप्रतिमाओ तैयार करावी. सं.१६५७ना माघ सुदि १० सोमवारना दिवसे पं. विवेकहर्षगणिना हाथे तेमनी प्रतिष्ठा करावी. आ लेख परथी स्पष्ट जणाय छे के विवेकहर्ष उपाध्याये आठथी सो सुधी अवधान करीने महाराष्ट्र कोंकणना राजा बुनिशाहि, महाराजश्री रामराजा खानखाना तथा नवरंगखान आदि अनेक राजाओ पासेथी लीधेला जीवो माटेना अमारि पटह तथा घणा केदीओना छुटकारा आदि सुकृत्यो कर्यां छे. मलकापुरमा मुला नामना मुनिने वादमां जीत्या, प्रतिष्ठान(पेठण)पुरमां यवनोने मोढे जैन धर्मनी स्तुति करावी तथा ब्राह्मण भट्टोने युक्ति वडे जीत्या, अने बोरिदपुरमा देवजी नामना वादीने जीत्यो. वळी जैन न्यायथी दक्षिणना जालणा नगरमा दिगंबराचार्यने हरावी काढी मुकाव्या, रामराजानी सभामां आत्माराम नामना वादीने जीत्यो. आ उपाध्याये कच्छ देशमा सं.१६५६ ने ५७मां त्यांना राजा भारमल्लने प्रतिबोध्यो ने तेना परिणामे तेणे लेख करी आपी पोताना देशमा जीवहिंसानो निषेध कर्यो के “हमेशां Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह गायनी बिलकुल हिंसा थाय नहीं, ऋषिपंचमी सहित पर्युषणना आठ मळी नवे दिवसोमां, श्राद्धपक्षमां, सर्व एकादशीओ, रविवारो, अमावास्याओना दिनोमां तथा महाराजना जन्मदिवस अने राज्यदिने सर्व जीवोनी हिंसा न थाय." वळी ते राजाए भुजनगरमां राजविहार नामर्नु ऋषभनाथनुं जैन मंदिर कराव्यु सं.१६५८, ने तपागच्छना संघने स्वाधीन कर्यु के जे हाल मोजूद छे. आ मुनिए कच्छना खाखर गाममा ओशवालोने प्रतिबोधी श्रावक क्रियाओ समजावीने त्यां सं.१६५७मां त्रण मोटी प्रतिमानी अंजनशलाका करी सं.१६५९मां त्यां शत्रुजयावतार नामना तैयार थयेला चैत्यनी प्रतिष्ठा करी. (जि.२.नं.४४६) तेमणे (पोताना गुरुभाई) परमानंद, महानंद, (पोताना शिष्य) उदयहर्ष साथे जहांगीर बादशाहने विनंती, करी के “जो समग्र रक्षण करेला राज्यमा अमारा पवित्र बार दिवसो - भादरवा पजसणना दिवसोमां हिंसा करवानी जग्याओमां कोई पण जातना जीवोनी हिंसा करवामां नहीं आवे तो अमने मान मळवानुं कारण थशे, अने घणा जीवो आपना ऊंचा अने पवित्र हुकमथी बची जशे. तेम तेनो सारो बदलो आपना पवित्र, श्रेष्ठ अने मुबारक राज्यने मळशे.' आथी बादशाहे फरमान आप्यु के मजकूर बार दिवसोमां दर वर्षे राज्यनी अंदर हिंसा करवानी जग्याओमां तमाम रक्षण करेला प्राणीओने मारवामां आवे नहीं. (जुओ सूरीश्वर अने सम्राट, परिशिष्ट ग) वळी तेमणे ‘परब्रह्मप्रकाश' नामनो ग्रंथ भाषामां पद्यमय बनाव्यो छे. आ विवेकहर्षनो सं.१६६७नो प्रतिमालेख नीचे प्रमाणे उपलब्ध छ : “सं.१६६७ व. उ. ज्ञा. जडिया गो. सं. होला पुत्र सं. पूरणमल्ल पुत्र सं. भूपतिना श्री विमलनाथबिंबं महोपाध्याय श्री विवेकहर्षगण्युपदेशात् का.प्र. तपागच्छेद्र भ. श्री विजयसेनसूरिभिः.' (ना.१, नं.१२०) कांना गुरु हर्षाणंद ते आणंदविमलसूरिना शिष्य ऋषि श्रीपतिना शिष्य हता अने कर्तानी शिष्यपरंपरामां तेना जयानंदगणि, तेना गजानंदगणि, तेना रूपानंदगणि ने तेना प्रेमानंदगणि थया कारणके कल्पसूत्र परना बाळावबोधनी एक प्रत खेडामां जोई हती तेमा लेखकप्रशस्ति ए छे के : “आणंदविमलसूरि-ऋषि श्रीपति-हर्षानंदगणि-महाउपाध्याय विवेकहर्ष-जयानंदगणिगजानंदगणि-रूपानंदगणि-प्रेमानंदगणि वाचनार्थ." [कर्ता-कृति गुजराती साहित्यकोश खं.१ पृ.४१६ पर नोंधायेल छे अने कृति 'हीरस्वाध्याय भा.१' (संपा. मुनि महाबोधिविजय, सं.२०५३)मां छपायेल छे.... 'हीरस्वाध्याय' मां पहेली ५२ कडी वधारानी मळे छे. पण बाकीनी देशाईना पाठ मुजब ज छे अने पुष्पिका पण ए ज छे. देखीती रीते ज देशाईना पाठमां कृति वच्चेथी शरू थाय छे. एटलेके ए आरंभे अपूर्ण छे. मुनि महाबोधिविजयने संपूर्ण कृतिवाळी बीजी कोई प्रत मळेली होवी जोईए पण आ विशे एमणे कशी ज माहिती आपी नथी. अहीं 'हीरस्वाध्याय'नी आरंभनी ४८ कडी आमेज करी लेवामां आवी छे. ___पंडित श्री ५ अमरविजयगुरूभ्यो नमः' एवी पंक्तिथी लईने आवती कृति अरधेथी शरू थाय एम केम बन्युं हशे ए समजाय एवं नथी. 'जैन गूर्जर कविओ'मां पण कृतिनो Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवेकहर्षकृत हीरविजयसूरि (निर्वाण) रास २६७ आरंभ आ रीते ज नोंधायो छे. लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिरमा भेट सूचिक्रमांक २४७०नी विवेकहर्षकृत 'हीरविजयसूरि रास'नी प्रत मळी छे. पण आश्चर्यनी वात ए छे के समान आरंभअंत धरावती (पण अहींनी पुष्पिका नहीं, प्रत मोडा समयनी जणाय छे) ए कृति आखी लगभग जुदी ज छे. शुं थयुं हशे तेनुं अनुमान करवू मुश्केल छे. - संपा.] __पंडितश्री ५ श्री अमरविजयगणि गुरूभ्यो नम:. दुहा सरसति बरसति बचनरस, करओ रसना परि बास, जिनपदपंकज सिरि धरि, करुं सुगुरु-गुण-रास. १ धाणधार धुरि देस सिरि पाल्हणपुर प्रगट्ट, सा कुंरा-कुलि चंद्रमा, श्री ओसवंश सुगट्ट. श्री तपगच्छपति जगत्रगुरु हीरविजय सूरिराज; साहि अकब्बर मानिओ, सकलसूरि-सिरिताज. संवत पन्नर आ(त्र्या)सीइ मागसिर नउमि विशुद्ध, माता नाथी जनमिओ हीरजी जगत्र-प्रसिद्ध. ४ संवत पन्नर छन्नुइ वदि कार्तिग बीज सुसाथि, हीरकुमर दीक्षा ग्रहइ श्री विजयदानसूरि हाथि. संवत सोल अठोतरइ देखी गुणनी कोडि, श्री विजयदानसूरि थापिआ पद पंडित-वाचक जोडि. संवत सोल दसोतरई सीरोही नयर मझार, श्री विजयदानसूरीसरइ कीधा निज पटधार. चिरंजीव गुरु हीरजी जिनशासन-शृंगार, शाहि अकब्बर प्रतिबोधिकई जिणि रचि[रवि]तलि रची अमारि. ते व्यतिकर गुण वर्णवा भगति भंभेरइ मोहि, शक्ति निवारउनां सुणुं सु-सरसति तेरी सोहि. ९ राग देशाख । जगत्रपति राजइ रे अकबर शाह सुरग्या[त्रा]न आलमपति राजइ रे, जाके जीआमई बसे हीरविजयसूरि विजयसेन शशि भान जलालदीन रे. १० आण अखंड चिहुं खंड भूमंडलि जसु आखंडलमान, निज भुजदंडि प्रचंड नराधिप खंडि गांड गुमान. जगत्र. ११ नार. ८ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह चउद सहस गयवर जस मंदिरि गर्जति गयण गह्मंड प्रचंड रे, गर्जο पंच लाख हेषारव फोरति पांच ब्रह्मंड. जग० १२ गढपति गजपति नरपति छत्रपति कइ सेवइ जसु राउ, पाहडपति कइ० वीस तीस च्यालीस हजारी कइ कइ जसु उंबराउ, जग० १३ अवल नवल नीसाण धसूके ध्रुसति धरणिधरराउ, ग्रssss ध्रुस ० प्रबल सबल दल कंपित चंपित भुवन भडकी भडवाउ. जगत्र० १४ कइ सुलतान गुमान गिराए, कइ द्रुग मोरे मान जगत्रमइ, कइ० रवितलि को न सिरब्बरि सब सिरिं एकहीं तेरी आन. जगत्र० १५ शाह सलीम सुलतान शेखुजी सुंदर शाह मुराद शाहजादे, सुंदर. दाणिआर दीयति दलपति चिहु खंडि जस जसवाद जगत्र० १६ दुहा शेख सबल अबदलफजिल, जस जगमगइ वजीर, च्यार बुद्धिधर चतुर नर, जस दील माने हीर. १७ तरणिमंत्र जस जागतउ, जपइ प्रथम जिहां पडुर, च्यार खंड साध्यां वती, जस चिहु खंडी मुहुर. १८ इम अनेक नवनव मदल, सकल महीतल राज, सफल करइ अकबर नृपति, जब भेटे हीर गुरुराज. १९ मंत्र तंत्र यंत्रादि बल नहीं विद्या परचंड, शाह अकबर आगलि फुरइ, जिनि दूरि किए पाखंड. २० कवित्वं [तं] मंडइ नहीं परचंड, तुंड जिहिं आगई मंडलं, छंडि गए सब वीर, पीर पइगंबर शेख रेख नहीं रंग, भंग सब भए मंदर कलंदर फंद, भूत प्रेत झोटींग झड मुला मसीत न जो गणइ, झुंडल, सन्यासी, छंद की बनवासी, इक धन्य धन्य गुरु हीरजी जस सो अकबर सुवचन सुणइ २१ ढाल : राग मल्हार मनमोहन हीरजी राजीउ ए जिणि मोह्यउ अकबरशाहि रे हीरजी, तुं तउ सुविहित- साधु - शिरोमणी रे तुझ दरिसन मोहनगार रे, सार रे जेह निरखिओ जगत्रपति हरखिउ ए. २२ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवेकहर्षकृत हीरविजयसूरि (निर्वाण) रास सकल देश मझारि, भुवनमोहन वयण निसुणी षट् मास ताई वरसमासुं पलावइ जीव- अमारि, वयण तुझ सुररयण तोलइ वरणव्यां किम जाई, जे सुणी अकबर समझिओ कहई, को न मारई जगि गाय रे, ताय रे, मनमो० २३ गाय केरे चरण धोइ दूध पी राय, टोडरमल्ल सरिखे छडावी नहीं गाय, सकल देश विदेशमाहिं हव गउ-अमार, तो धन्य धन्य श्री जिनवंश वीरवंशि उग्या, हीरविजय गणधार रे तारि रे. मनमो० २४ राय कवित्वं [तं] जिणि तोर्या चीतउर उर गई [ढ] कइ पुराणा, रणथंभर थिरथंभ दंभ मोड्या समीआणा, काबल सु कुंभलमेर कोट कहिउ सुपराणा, कासमीर कालिकोट लोट कीने रायराणा, करि कहिर शहर तोर मुलुक जूनागढ पणि जेर किअ, ह ह हठी हमाउसुत धन्य हीरजी तसु धर्म दि. २५ जिणि कीनो बहुत सिकार जीव कइ कोडि बिडारे, काबिल जिहां अजमेर कोस प्रति किए मनारे, पंचसयां मृगसींग जोडि प्रत्येक स मारे, निज सिकार सहिनाण लोग अगलेकुं दिखारे, सो अकबर हीर- बचन सुणि सुसु कीने सुबिवेक, जिणि कुमारपाल नरपति प्रमुख वीसारे सु अनेक. २६ २६९ ढाल शेख अबदल महुल ताई सामुहउ नरराज, आवइ ते पालउ परम भगतिं भेटवा गुरुराज, पेसकसी प्रथम्म कीनी पुस्तक प्रबल भंडार, जब न ल्यइ हीरजी तब कहइ नृप करउ मुझ निस्तार, सुंदर हीरजी मनमो० २७ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह दूहा श्री विमलहर्ष वाचक प्रगट शांतिचंद्र उवझाय, श्री सोमविजय वाचक विबुध सहजसागर मन भाइ. २८ सीहविमल उर कनकविजय श्री धनविजय मुणिंद, पढइ सुगुणविजयादि बुध विवेकहर्ष आणंद. २९ चाल हीर तेरे वयण थइकइ लख्य छ्योरे बंध, गुनहगार हजार छूटे तुझ चरण संबंधि, पसुअ पंखी चीतरादिक छूटे द्यइ आसीस, शाहि अकबर हीरजी गुरु जीवउ कोडि वरीस. सुंद. ३० ईसा यु कहिरी महिरि सुचरण तेरे भेटि, शाहि कहइ गुरुजी सुणु मइं जाणतां हुँ नेटि, इसा भी दिन कबही युं आवइ जिउ न मारइ कोइ, सउंगंधि इतनी बहुत राखुं सो चरण तेरे सोहि. सुंदर० ३१ साहि कहइ तब शेख-सुं, अइ निरीह गुरुराज, मई तीन बेर फिरि फिरि कह्या, सु कच्छ्यु फुरमावु काज. ३२ इनकुं कछ्यु हाजित नहीं, जीवदया बेहिसाब, जगतगुरु गुरूकुं कहउ, मइ दीना खरा खताब. ३३ [चाल] जगत्रके -उपगार कारणि किआ बहुत आशान, जीजिआ जगमई छ्युडाया छ्युडाया सब दाण, साहि अकबर तोहि बगस्या श्री शत्रुज गिरिनारि, जिहां हुअ अविचल किआ मुगता अइ सुकृत संसार. सुंदर० ३४ शांतिचंद अरु भाणचंद दोउ भले सदगुरु-सीस, साहिके दरबारि जिणि बधाइ धर्म-जगीस, श्री हीरविजय सूरिंद, सदगुरु विजयसेनसूरीश, चिर जयु जिहां जगि ससि दिवाकर द्यइ विवेकहर्ष आसीस. सुंदर० ३५ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवेकहर्षकृत हीरविजयसूरि (निर्वाण) रास २७१ इक दिन शाह दरगाह[दरबार]मई पूछइ श्री भाjचंद, हीर-पटोधर कउण हइ, कइसे तस गुणवृंद. ३६ भाण भणइ भूपति सुणउ, श्री विजयसेन सूरिराज, इक रसना क्युं वर्णवू, गुण अनंत महाराज. ३७ ढाल : राग गउडी हीर-पटोधर विजयसेन सूरीसर राजइ, सकल-सूरि-सिरताज राज छत्राधिप छाजइ, गडगडंत पंडित प्रचंड जस सीस दवाजइ, कुमत-मिथ्यामत-वृंद-फंद सब दूरि भाजइ. ३८ हैम सवालख्य महाभाष्य प्रक्रिया प्रमुख, जाणई सहु व्याकरणभेद सरसती वसइ मुक्खि, जाणइं सहू साहित्य वृत्ति छंदादिक जाणइ, नैषध प्रमुख जे काव्यग्रंथ व[वा]णिवृत्ति वखाणइ. ३९ जाणइ पिंगल भरतभेद संगीत सुरंग, वंस नाटक विविध ग्रंथ जाणइ नवरंग, षट् दरिसनना विविध ग्रंथ चिंतामणि चंग, बोलइ प्रगट प्रमाण जाम जाणे जलधितरंग. ४० सकल कुराण पुराण वेद स्मृति भारत जाणइ, एक श्लोकना सहसबद्ध करी अर्थ वखाणइ, खंडित पंडित-मान पिंडखंडन सहू बूझइ, रवितलि एहवो नहीं भट्ट जेह-स्युं कोइ झूझइ. ४१ द्वादश-अंगी छ लाख ग्रंथ जिह्वाग्रे वखाणइ, एक दिवसि शतबद्ध श्लोक मुखपाठिं आणइ, ज्योतिष गणित निमित्तभेद निज मनमा राखइ, पंडित मूढ अजाण जाण सहूनइं समझावइ. ४२ स्वसमय परसमयादि ग्यान इत्यादि धरता, खडी-उछालइ काव्यग्रंथ शतसहस करंता. ४३ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह वस्तु शाहि भेजइ शाहि भेजइ तबही फुरमान, हीरविजय सूरिराजकुं काज काम फरमाहु, निसिदिन विजयसेनसूरि चंदके हम चकोर चाहइ यु दरिसन, लाभ बहुत लाहुरकुं भेजहु निज पटधारि, शत्रुजय गिरिनारिकी गहु बगसीस उदार. ४४ वस्तु पट्ट दिनकर पट्ट दिनकर तब ही समझाइ, गच्छभलामण देइ सिरि ठवि हाथ लाहुरि चलाए, भट्टारक पाटण नयरि चतुर चित्त चउमासि आए, हीरविजयसूरि आवतई नगरि मंडाया जंग, कल्पद्रुम पाटणि फल्गु लाहो ल्यइ सहु संघ. ४५ एणि अवसरि एणि अवसरि दिवसि केतेक, लाहुरथी वद्धामणीलेख लेइ बहु लोक आए, जगगुरु तुम्ह ये पट्टधार पातिसाह मन खरे भाए, जे जिनशासन-काम किअ श्री विजयसेन गणधारि, सावधान सहू संभलो सकल संघ जयकार. ४६ राग गोडी जब देख्या बे शाहि अकब्बरि श्री विजयसेनसूरिंदा, बडे तपसी बे कहिअ बुलाए, दिल सुखी भये नरिंदा, दिल खुसी भये नरिंद तबही बयण सुणे जब नीका, धन्य धन्य अकल हीरकी जिनि तुहि दीना तपगच्छ-टीका, जब परमात्मसरूप निरूप्यउ भट्ट भये तब फीका, जगि जयकार कर्यउ जिनशासनि, धन्य पटधर हीरजीका. ४७ दिखलाया बे नंदिविजय बुध सुंदर अष्टवधानां, शाहि आपइ बे बयत लिखाए पढत यू भये हरानां, एक बेर पढि फेरि सुणावत शाह शिफति करइ भारी, द्यइ खिताब खुसफहिमनुसीका जिनशासन-हितकारी, कुगुरु कुदेव कुधर्म उथापे बाद विजय जय पाया, शाह हजूर श्री विजयसेनसूरि धन्य धन्य तपगछ-राया. ४८ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवेकहर्षकृत हीरविजयसूरि (निर्वाण) रास २७३ दूहा इम निज पटधर किद्ध, सुणि जिनशासन जयकार, केवली विण कुण वर्णवइ, हीरजी हर्ष अपार. ४९ श्रीमखि कहइ गुरु हीरजी, धन्य विजयसेन गणधार, जिणि अम्ह देखति थापिउ, जिनशासन जयकार. ५० जिनगुरुचरणप्रसादथी शासन-बासन-काम, हवां तथा वली होइ छइ, होस्यइ वली अभिराम. ५१ श्री शत्रुजय तीर्थनी यात्रा करीजइ हेव, श्री युगादिजिन वंदि करी, कीजइ तीरथसेव. ५२ राग सामेरी ईम चिंती मनह मझारि ए, पाटणथी करई विहार ए, ___ गणधार ए, राजनगरि पधारीआ ए. ५३ शाहजादउं शाह मुराद ए, हीरनई वंदइ आवी आल्हाद ए, प्रसाद ए, मागईं हीरजीनी दुआ घणी ए. ५४ बगसीस करई संभारणी ए, सहू सहिर सडी न मारणी (ए), जगतारणी रे, जुउ हीरजीनी देशना ए. ५५ श्री शत्रुजयगिरिवाट ए, हीरजी अति गहगाट ए, घाट ए, मुगता कीधा गछधणी ए. ५६ अनुक्रमई पालीताणई ए, पुहता गछपति मंडाण ए, सुजाण ए, यात्र करईं तीरथ तणी ए. ५७ तिहां पुहता हीरजी सांभली, ठामि ठामिना संघ आवईं वली, ___मनरली, थावर जंगम भेटवा ए. ५८ ईक शत्रुजय मुगतो हवो, वली तिरथ त्रिण संगम नवो, चैति [पूनमो] दिन पुन्यईं मिलईं ए. ५९ संघ पाटणनउं सामटउ, अमदावादी अति ऊलट्यउ, धंसट्यउ धींग खंभायतनो वली ए. ६० मालवनउ संघ आवईं ए, मनमोहन मोती वधावईं ए, रचावइ ए, अंगपूज आभरण-स्युं ए. ६१ लाहुर संघ सुहामणउ, मरूमंडलनउ पणि अति घणउ, दीव तणउ, संघ अतीहि रलीआंमणउ ए. ६२ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह सूरति भरुअच संघ ए, वीजापुरनउ करई रंग ए, जंग ए, कांन्हव दख्यणनउ करई ए. ६३ तिहां खरच तणा नही पार ए, संघवीए करव्यउ उधार ए, अपार ए, लोक लेखइ नही ए. ६४ दुहा संघ सबल खंभाइतनउं, करई वीनती हेव, पूज्य चउमासि पधारिईं, जुहारउ थंभण देव. ६५ पूज्य कहइ वइरागिउ, आतमसाधन हेव, पालीताणाई रही करी, करसुं तीरथसेव. ६६ दीव तणउ संघ हठ करईं, नित्य प्रभु गुजराति, प्रभु दुप्राप अम्हे लहिउ मरूधर अमृतवेली. ६७ कृपा करो अम्ह उपरि, अति आग्रह अवधारि, उना नयर समोसर्या, चोमासुं गणधारि. ६८ ढाल : राग मल्हार दीव उं पुण्य पाधरुं, आनंदे आव्यउ रे तपगछराय, वूठउ वूठउ रे अमृत-मेह, तुं मनमोहन हीरजी, श्रावक - मोर अति गहगह्या, अति नाचई रे मद माचई रे, धरीए सनेह, तुं मनमोहन हीरजी. आंचली. ६९ गाजईं वाजित्र निरघोस सुं, तिहां वागां रे (२) नवलां नीसाण, तुं० धवल-सुधारम-महलडं, हीर जीवा रे ( २ ) आवई राणोराणि के, तुं० ७० हवई उपदेस - सुधारसिं, वरसईं रे (२) अमोघ धार, तुं० भवदुखताप समावीआ, प्रतिबोध्या रे (२) वरण अढार, तुं० ७१ रयणायर - व्यापारिआ, अति मोटा रे (२) श्रावक जोडिं, तुं० सात खेत्रिं वित वावरइं, बहू वावर रे (२), द्रव[ व्य]नी कोडि, तुं० ७२ हीर आवईं आनंद हवा, घणूं वूठो रे (२) महिअलि मेह, तुं० प्रवहण आव्यां पाधरां, जेहना हुंता रे ( २ ) घणा संदेह, तुं० ७३ तिहां पारेख मेघ श्रावक वडउ, अति मोटउ रे (२) मेर समाणि के, तुं० प्रवहणपति व्यवहारिउ, जस घरणि रे (२) लाडकी जांणी बहु गुणनी खांणि, तुं.० ७४ प्रगट प्रतिष्ठा जिन तणी, मंडावई रे (२) सबल मंडाणि, तुंο संघ मलइ तिहां सांमटा, जंग जोवा रे (२) आवई राणोरांणि, तुं० ७५ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवेकहर्षकृत हीरविजयसूरि (निर्वाण) रास २७५ करइं प्रतिष्ठा हीरजी, मेघ खरचईं रे (२) द्रव्य लाख, तुं. अपर श्रावक जे खरचीआ, द्रव्य कहिवा रे (२) किम सकि मुझ भाख, तुं०७६ मका इंतु फरि आविउ, आरहिडिउ रे (२) आजमखांन, तुं० । प्रथम नमईं हीर-पाउले, आव्यउ रे (२) उंना गाम, तुं०७७ खांन भणईं गुरूजी! सुणउ, अब मईं जाणिउ रे (२) अकबरसाहि, तुं० वीर ज्ञानी वड वीर तुं, जिणिं पिछाण्यो रे (२) दुनिआंमईं तुं बडा फकीर, तुं० ७८ पेसकसी गुरू आगलिं, खांन ढोवई रे (२) महुर के हजार, तुं० सुगुरू कहइं अह्म मनि कांकरा, बंद छोड्यो रे (२) इणि द्रव्य अपार, तुं० ७९ भणसाली अबजी भलो, गुरू वंदइ रे (२) जाम राजा जोडी, तुं० महुर अढारसईं अंगनी, करईं पूजा रे (२) खरचईं द्रव्य कोडि, तुं० ८० हिंसक म्लेछ महाहठी, अति मोटईं रे (२) मुंहुमदखांन के, तुं० ते प्रतिबोध्यउ हीरजी, खांन मानई रे (२) लाडकी बहिन समांनि, तुं० ८१ दुहो गुरू दर्शननईं अलज्यो, गुजरधरनो संघ, विनती वलीवली मोकईं प्रभु, पूरो अह्म मनि रंग. ८२ राग माल. प्रभु! गुजरधर नीकी चिंत करी, आयो आयो नि लटक लटक फरी. प्रभु ! तम-सुं जो दिल कठिन करई, तउ निज सेवक मनु कियुज तरइं, बलिहारि जाउं बलिहारि रे. ८३ तुम्ह देखनकुं मन मोही रहे, जिउं अंतरताप न जाइं किटे, टुक देखुं नईं युं जल थइ विछुरी, रही क्युं बस कईं थलमईं मिछुरी. बलि० ८४ तसबी तम्ह लाभ बहु लहईं, तेणईं तह्म 'जगगुरू' बिरूद कहईं, अब क्या तो तम्ह उंहां मोह रहे, तुम्हकुं नहीं रहणा एकु ग्रहई. बलि० ८५ परपीडनके भंजन हीरजी हो, सुणी बीनती कहा इसई च्युप रहो, निगुणे फनि बलत च्यारियुं, निज दास टुक भी चीतारिईयु. बलि० ८६ हमसे प्रभु मूढ सदामुं नहीं, तो भी प्यार धरउ साहिब तुमही, अब आउ-न आदि निहोरू करू, टुक मानहु बीनती पाउं परूं. बलि० ८७ ईतनु कहा जोर गरीब परिं, तेरि बाट देखत हई लोग खरे, अब गुजरदेश पधारिईयु, मुनि विवेकहर्ष बंधारिईंयु. बलि० ८८ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ इतनी बीनती चितमां राखईं श्रीकक दवे प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह धरीनई, जव चालई नाचली, कही प्रतिष्ठा गुरूराज, काज. बलि० ८९ ढाल : राग सामेरी मनमोहन हीरजीउ ए, जेणि मोह्यो अकबर पाहि रे, तुं तउ सुविहित-साधू - सिरोमणि रे, तुझ दरिसन मोहनगार रे, हीरजी जेह निरखिं, जगत्रपति हरखिउ ए. जगत्र० ९० किद्ध, हीर तईं वैशाख सुदिमां, वली प्रतिष्ठा उंना नयर मंडाण मोटा, हवा जगत्र प्रसिद्ध, चैत्र सुदि आठमि थकी, तुझ हवी चलन- असक्ति, तउहि पणि तुझ तीर्थयात्रा, विमलगिरि वरिं भक्ति. सुं० जग० ९१ संघ वीनती करदं प्रभु, किम आवस्यईं इम खंध, पालखी पावन करो, पावन करउ अह्म खंध, सुगुरू पभणई पूर्व मुनिइ, म न कीधउं माहंति, तउ ए परंपरा किम कीजई, नवी रीति न भंति. सुं० ९२ चउमासि वली उनई रह्या, बाधा तणई ज विशेषि, लाहुर भणी माणस चलाव्या देई निजकर - लेख, आव तुमि दृष्ट कागल पूछी अकबरसाह, श्री विजयसेन सूरिंद तुझे मिलवा अतिहि उच्छाह. सुं० ९३ लेख देखत हीरजीना, विजयसेन सूरिंद, साहि अकब्बरकुं कहईं अह्मे देउं बिदा नरिंद, हीरविजय सूरिंदकुं कबहु हई दरद टुक गूढ, सुणि शाहि हइ क्या खुदा कहईं, भए अति दिगमूढ. सुं० ९४ शाहि - जंपईं सुगुरूकुं, सुख हेति घु खइराति, इक मासकी अमारि फुनि, फरमाउं सकल बिभाति, तुम भी बिदाकी सूखडी, चाहु सु देउं समाधि, सुगुरू जंपईं साहि बगसउं, जमई आधोआधि. सुं० ९५ दाण सबही छ्युडाइ प्रमुख, करी जगत्र आशान, खट विगईं अभीग्रह ग्रही, आवईं छईं हीरपटभासन, श्री हीरविजयसूरींद-चरणे, आव्या तेहवा लेख, संतोष पाम्या, जगगुरू सविशेष. सुं० ९६ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७ विवेकहर्षकृत हीरविजयसूरि (निर्वाण) रास रातिदिवस चीतवईं, हीरविजय जगत्रयतात, क्यारिं श्री आचारज मिलसइं, तिम कहुं मननि वात, गच्छ विशेषईं भलावी, कीजईं अणसण सार, पणि दुरि पंथि किहां किहांथी आवईं, जो न सरजूं किरतार. सं. ९७ अनुक्रमईं आव्यां पजूसणां, जांणा समय विशेष, संलेखना उपवास अट्ठमट्ठमईं करईं विशेष, मोकलई कागल राजनगरईं, तेडबुं अचधारि, उवज्झाय श्री कल्याणविजयनईं, शासनि (नि)ज संभारि. सुं० ९८ राग मारूणी; दुहा इणि अवसरि दशमी दिनिं, भाद्रव सुदि दशमी दिनिं, जव आवि माझिम राति, जगवईं तव सहु साधनईं. ९९ बोलावईं गुरू हीर, वडवइरागी हीर, सूरहयो [सूणयो?] रे मुनिवरा, हीरजी जगत्रविख्यात. १०० विमलहर्ष वाचक तथा वाचक सोमविजय सु-वजीर, आदि देइ सहू साधनईं, अह्मे अणसण लेउं छु हेव. १०१ भव चरिमुं पचखी करी च्यारे आहार, पचखी करी तिहां, साखी जिनवर देव. १०२ वज्रघात सम सुणि वचन, विलपंतो सोमविजय तिहां सीस, ईसु वचन इणि जनमि कां, संभलाव्युं जगदीश. १०३ ढाल कोई वारो रे (२) हीरजीनईं अणसण करतां वारो, कोइ ध्याउ रे भवसमुद्र-जिहाज, अणसण करतां वारो रे. १०४ हीरविजय, तुझ विण कउण छईं, अह्म मनि प्राणाधारो रे, ___ कांई जिनशासनउं आधारो रे, शील संयम वानगी, अह्म कुण देखाडणहारो रे, तुझ विण कुण देखाडणहारो रे. कोई० १०५ तप संजम गुण गरीबनईं, कुण तुझ विण तारणहारो रे, तुह्म चरणे वलगा अह्मो, तस कुण समझावणहारो रे. कोई० १०६ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह संघ चतुरविध नयणडां, किम ठरसईं विण प्रभुचंदो रे, तुझ विण कुण प्रतिबोधसईं, साह अकबर सरीखो नरिंदो रे. कोई. १०७ जीवदया-गुणवेलडी, तसु कुण जगिं सीचणहारो रे, जिजिआ प्रमुख छोडाववा, जगनी तुझ विण कुण करईं सारो रे. कोई० १०५ दाण महीअलि मांडवी, तुझ विण कुण उठाडईं रे, तुझ विण कुण नृप बूझवी, बंदा(दी) लाखनईं बंधथी कुण काढईं रे. कोई० १०९ कलिकालिं मुगलाईंमां कुण, तुझ विण गोवध वारईं रे, शेजय गिरिनारिना देव, विण करि जगत्र जूहारईं रे, एहवं कहईं कुण सूरीनईं वारईं रे. कोई० ११० अकब्बर शाहईं जे ठव्यउ, नाम 'जगत्रगुरू' माहरो तुम्हारो] रे, ते कही कहइनइं बोलाविईं रे, तुझ विण जगदाधारो रे. कोई. १११ आज जिनशासन जगिं जगमगईं, तह्मथी ते सवि सारो रे, जनम लगी चाकरी अलं, ते काइ आज संभारो रे. कोई० ११२ अह्म गरीबनईं विलविलईं, जउ मनि महिर म-न आंणो रे, तउ श्री विजयसेन सूरिंदजी, जव नावईं तिहां लगई तांणो रे. काइ तेहनईं मन मांहिं आणो रे. ११३ राग आ(शा)उरी सिधूउ; दुहा श्री गुरू जंपइ मुनिवरा रे, कां धरउ मनि विखवाद, साहसनउ आ समय छईं, तुह्म श्रुतजलधि अगाध. ११४ जे अह्मे समरासक गुणरयणायर मू[सू?]खकंद, मई तुह्म थापी आपीआ, श्री विजयसेन सूरिंद. ११५ जिणि जिनशासन मुझ छतईं, भास्युं जिम दिणंद, तेहथी मुझ चिंता नहीं, तुह्मनइ परि आणंद, गच्छनईं पणि जिनशासन आनंद. ११६ पणि ते मुझनईं नवि मिल्या, हवई तुझे धाउं सूर, कालि जोयो जे स्युं हसईं, मुझ अणसण थाईं असूर. ११७ धन्य धन्य जगगुरु हीरजी, जिणि जाणिउं निज निर्वाण, पंचम आरइ केवली, हीरजी त्रिभुवनभाण, करईं अणसण हीरजी जाण. ११८ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवेकहर्षकृत हीरविजयसूरि (निर्वाण) रास २७९ ढाल सुप्रभाति सहू संघ मिल्या, सुणि रातिनी वात नई. जाणिनि निर्णय वली निर्वाणनउ ए, इक अचरज बीजुं दुखि भर्या, अति गहबर्या हिअडइ, हिअडइ नईं सुणि अणसण चउविहारनउ ए. ११९ श्री गुरू संध प्रति भणई, सुणो मानवी आणनईं, आणनईं शासनपति जिन वीरनी रे, मुझ आणां जस वालही, तिणि पालवी आणनईं, आणनईं श्री आचारयनी सही ए. १२० अंगपूज सहू संघ करईं, सुप्रभातिथी मांडीनईं, मांडीनईं रूप कनक मुद्रा घणी ए, अढी पुहुर जिहां दिन चढई ए, कोइ भाविक वद्धावईंनईं, वद्धावईंनईं मुक्ताफलि करी गछधणी ए. १२१ सुखसमाधि निर्वृति घणी, सोवन तणी कांतिनईं, कांतिनईं झलकई अंग सुहामणुं ए, मंडाणा सबल मंडाण ए, तिहां आवईं राणोराणि ए, रायराणा ए निरखईं मुख हीर तणुं ए. १२२ जिम श्री वीर जिनें, देशना छईं दिवसनी दीधी नईं, दीधी नईं जिनशासनि हितमति भणी ए, तिम संध्या- पडिकमणुं सहू सांभलईं संघनईं, संघनईं करावईं स्वयं तपगछधणी ए. १२३ जूउ तपतेज गुरू हीर, कांई चढत लई वांन जी, ध्यानईं जी बइंठा पडिकमणुं करी रे, गणईं नुंकार ते पडवडा पदमासन पूरीनईं, __ पूरीनई ध्यान श्रीमंधिर अनुसरी रे. १२४ भाद्रव सुदि अग्यारसिं शुभ गुरूवार योगिं जी, सिद्धियोगि जी श्रवण नख्यत्र सोहामणईं जी, राति घडी च्यार पांच जातइं, नउकारवाली पांचमी, पांचमी मांडतां जगगुरू ईंम भणइंजी. १२५ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह वस्तु हीर जंपई हीर जंपई अंत्य उपदेश, रे गछवासी मुनिवरा ! सुणउ अंत्य हितशीख मोरी, अाईं परभविं पंथी हवा, तुझे हुयो हवि धर्मधोरी, जिनशासन दी(पा)वयो रे, साधयो इह परलोक, इम कही नोकारवाली पांचमीईं, हीर पोहोता सुरलोक. १२६ जगनईं वाहालो रे हीरजी, हुंउ जीवतां जैननउं छत्र रे, __फल ते देखाडीउं जगत्र रे. जग. १२७ हीरजी-निर्वाण जांणी करी, आव्यां देवविमान रे, महोच्छव करईं रे निर्वाणना, कलिमा अचेरा समान रे. जग० १२८ विमान ते नजरिं दीठडउं, सींगलेसरवासी भट्ट रे, सुत पणि देखईं परगट्ट रे, वांणि रे हवी आकासमां, ते पणि सुणि उदभट्ट रे. जग. १२९ रात्रिं वली अंग ज पूजीउं, ल्याहरी अढीअ हजार रे, मांडवी ढोईं उदार रे, करी कथीपा प्रमुख-स्युं, तिहां बईठी ल्याहरी एक हजार रे. जग. १३० मांडवी नीपजी जव रही, तव रही राति घडी च्यार रे, तव रे घंटानाद वाजीउ, जेहवो इंद्रनउ सार रे, सुणिउ ते वर्ण अढार रे, पछईं वागां सात उदार रे. जग. १३१ जव चितामांहिं पोढाढिआ, जिंहां लगईं दीर्छ कांई अंग रे, तिहां लगईं पूजीआ पूज्यजी, रूपानांणईं मनरंग रे. जग. १३२ पन्नर मण सूकडि भली, अगर ते त्रिणि मण जाणि रे, कपूर ते त्रीण शेर तिहां मिलिउं, चूउं सेर पांच प्रमाण रे, कस्तुरी बि सेर आंणि रे, केसर त्रिण सेर वखाणि रे. जग. १३३ इणि परि हीर अंग संस्करिउं, जमलि ल्याहरी सात हजार रे, तिणि वाडी जे झरलाइआ, तेह ज मोर्या सहकार रे, __ अद्भूत ए अपार रे. जग. १३४ पारख मेघईं कराविउ, थूभ तिहां अभिराम रे, तिहां रात्रिं आवीईं छईं देवता, करईं हीरना गुणग्राम रे, Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८१ विवेकहर्षकृत हीरविजयसूरि (निर्वाण) रास नाटिक होई छईं ताम रे, वाजिन वाजईं तिणि ठामि रे, प्रसिद्ध हईं आखि गांम रे. जग० १३५ तिहां खेत्र जे वासो वसईं, वाणिउ नागर जाति रे, तिणि तिहां जईनई जोईडं, उद्योत वनमां न मात रे, कानि सुणईं गीतगांन रे, वाजिव देवता वात रे. जग. १३६ इणि परि हीरजी-निर्वाणन। आव्या पाटण लेख रे, ते श्री आचारयइं सांभली, दुख कीधउं सविशेष रे, ते विरहनी वात अलेखि रे, ध्रुजि चढईं तेह दयाल हीर पेखी रे. जग. १३७ राग पापारवी हीरजी गुरू कहनइं कहीइं, विजयसेन सूरिंद बोलइं, कहुं देवदयाल रे, हीरजी गुरू कहनई कहीईं. ही० १३८ दूर देस विहार कीधो, कां जगत्रय-तात रे, वीरनी परिं हीर जातइं, करी सघली वात रे, - मुझ किउं गौतम भांति रे. ही. १३९ सिद्धरस-रसकुंपिका, कारका रूदंती रस पारसा, धातु रूपनई कनक साधई, नहीअ तु धातु कनकरसा. ही० १४० गुढमति अति मुढमति जा, जेह निपट अजान रे, अयोग्य पणि ते योग्य कीधा, गुणईं आप समान रे, सखी हीर अधिकईं वानि रे. ही. १४१ दुर देशथी दरिशनरसइं, कां कृपाल कृपा न कीधी, एक वार दरिसनईं. ही. १४२ सीखा हित मति कउण देसईं, तुझ विना निज शासनई, जगत्रगुरू हीरजी तुझ विण, कहु कुण सूरीसनईं. ही. १४३ राग मेवाडो धन्यासी । श्री हीरजी गुरू किमहिं न वीसरईं, जेहनो परम उपकारो जी, जिणिं जिनशासनि जगत्र जगवीउं, इम कहईं हीर पटोधरू जी. श्री. १४४ अकबर साहना रे धर्मसंदेसउं, कहउं हवि किंहनईं कहेस्युं जी, हित-आसीस ने कृपानजरिं मिली, तुझ विण कुणथी लहेस्युं जी. श्री. १४५ निर्वाण-उछवि आया देवता, जिम तीर्थंकर वीरो जी, गौतम जिम मुझ विरह देखाडिउं, तिम कीधुं गुरू हीरो जी श्री. १४६ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह अंत्य समय जिहां मुझ संभारिउ, धन्य हीरजी गुरूराजो जी, पणि मईं चरण ते नवि भेटी शक्यां, ए कांई मुझ अंतरायो जी. श्री. १४७ संघ सहू मिलि गुरूनईं वीनवईं, म करो हीरनो विखवादो जी, जिणि तुह्म अह्मनईं रे थापीआ, हीरनो महाप्रसादो जी. श्री. १४८ शोक निवारो रे सासन-राजीआ, प्रतिपालो सहू संघो जी, अति आग्रह अवधारि गछधणी, करई जिनशासनई रंगो जी. विवेकहर्ष जग जंगो जी. श्री ही० १४९ ढाल : राग धन्यासी जयउ जयउ जगगुरूपटधरो, श्री (हीर)विजय गणधार जी, साह अकबर दरगाह(बार)मां, जिणिं पाम्यो जयजयकार जी. जयउ० १५० जिहां लगि मेरू महीधरो, जिंहां लगि गिरवरनी राजी रे, चिरर प्रतपउं गुरू गच्छधणी, श्री विजयसेन सूरीस जी रे. जय. १५१ हीर पटोधर उगिउ, प्रगट प्रतापी सू(र) जी रे, कुमतितिमिर दूरईं करईं, भविअण सुख भरपूर जी रे. जयउ० १५२ वीजापुर वर नयरमां पांडव नयन वरीस जी रे, हर्षआणंद विबुध तणो, सीस दीईं आसीस, विवेकहर्ष कहईं सीसजी रे. जय. १५३ - इति श्री हीरविजयसूरि जगगुरू संपूर्णम. पंडितोत्तम पंडित श्री पं. श्री अमरविजयगणि शिष्य मुनि गुणविजय लिपिकृतं श्री विद्यापुरे पुरोपकाराय. (प.सं.६-१५, मारी पासे.) [जैनयुग, अषाड-श्रावण १९८६, पृ.४६०-६७] Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८३ हंसराजकृत हीरविजयसूरि चतुर्मास लाभप्रवहण सज्झाय (आमां केटलेक स्थळे सुंदर काव्यत्व छे. हीरविजयसूरि खंभातमां चातुर्मास करे छे ते वखतनुं वर्णन छे तेमां खंभातनां परां, मंदिरो, मोटा आगेवान श्रावको वगेरे, पण वृत्तांत जोई शकाय छे. ते वखते सूरि साथे ४० ठाणां - शिष्यशिष्याओ हता. तेमणे शीतलनाथनी प्रतिष्ठा करवा साथे २१५ जिनबिंबोनी अंजनशलाका करी हती. सूरि वहाणरूप छे ने तेथी शु-शं लाभ थाय छे ते बतावी आ कृतिनुं नाम लाभप्रवहण आपेलुं छे, अने तेमां वहाण साथे संबंध धरावतां नामो (nautical terms) आप्यां छे ते गुजरातना वहाणवटाना अभ्यासीने खास जाणवा जेवां छे. आ कृति रचनार हंसराजे ‘महावीर स्तवन' सुंदर पद्यमां रचेल छे ने ते आचार्यना समकालीन छे. आ सझायनुं नाम ‘प्रवहण सझाय' छे एटले प्रवहण एटले वहाणरूपी गुरु हीरविजयसूरि छे के जे द्वारा संसाररूपी समुद्र तरी शकाय छे. कर्ताए प्रथम सरस्वती अने पछी २४ वर्तमान जिननी स्तुति करी छे अने त्रंबावतीना थंभण पार्श्वनो पण उल्लेख करी बताव्यु छे के हीरविजयसूरि वहाण रूपे त्रंबावती एटले खंभात वसंतमासमां पधार्या त्यारे त्यांनां मंदिरो जेवां के सीमंधर, कंसारी पार्थ, सकरपुरनुं चिंतामणि (पार्थ) अने महमदपुर तथा सुलतानपुरनां मंदिरोमां जई दर्शन करू. आ मास- सुंदर वर्णन आमां कर्यु छे. पूज्यश्री सागोटाना उपासरे बिराजता हता. तेमणे शीतलनाथनी प्रतिष्ठा करी ने ते सिवाय २१५ बिंबोनी अंजनशलाका करी. आ समय संवत् १६३८ना माह शु.१३ होवो घटे. जुओ नाहर १. नं.६०५, ना.२ नं.१२१५, बु.र, नं.२५५, ११००, ११२३ के जे पैकी ११००मां खंभातवासी ओसवंशीय सो. वच्छानुं नाम आवे छे. कृतिमा दोसी वच्छा कहेल छे तो दो सो. उक्त लेखमां भूलथी वंचायुं होय; अने लेख नं.११२३मां खंभातवासी ओसवंशीय सा. उदयकर्णनुं नाम आवे छे. पछी संघवी उदयकरण अने भाकराजे पूज्यजीने विनति करी के चोमासु खंभातमां करवानी कृपा करो ने तेथी तेओ लाभ जाणी त्यां चोमासु रह्या. हवे आषाढ मासनुं वर्णन आपी कुंराना कुमार - हीरविजयने वहाण- रूपक आपी आखं रूपक कवि काव्यमा उतारे छे. आषाढनुं ए रीते विस्तारथी पूरुं वर्णन करी श्रावण-भाद्रपदमां पजुसण पर्व आव्युं त्यारे संघवी उदयकर्णे समोसरण रच्यु. आसो ने कार्तिक ढूंकमां पतावी तेमना चोमासाथी थयेल लाभ जणावी शिष्यपरिवारमाथी नाम आपे छे. आ प्रमाणे चोमासानी सझाय कवि हंसराज पूरी करे छे.) [कवि माटे जुओ जैन गूर्जर कविओ भा.२ पृ.२७७-७८ तथा गुजराती साहित्यकोश खंड १, पृ.४९१. 'महावीर स्तवन'नी सं.१६५२नी प्रत मळे छे एटले ए कृति ते पूर्वे रचायेली Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह होवानुं नक्की थाय छे. आ सज्झाय हीरविजयसूरिना खंभातना चातुर्मास दरम्यान रचाई छे ए स्पष्ट छे. ए चातुर्मास अकबरप्रतिबोध पूर्वेनुं छे ए पण स्पष्ट छे केमके काव्यमा एमनो ए रीतनो उल्लेख कशे नथी. चातुर्मास सं.१६३७नुं के १६३८नु होई शके. आ सज्झाय 'हीरस्वाध्याय भा.१' (संपा. मुनि महाबोधिविजय, सं.२०५३)मां आ प्रमाणे ज छपायेल छे. - संपा.] दूहा प्रथम जिणेसर मनि धरूं, समरूं सरसती माय, गुण गाउं तपगछपती, जस नामिं सुख थाइ. १ सुखसागर श्री जिनवरू, नाभिराय कुलि चंद, मरूदेविकुंअर जगत्रगुरू, प्रणमुं ऋषभ जिनंद. २ ऋषभ अजित संभव प्रभु अभिनंदन जिनदेव, सुमति पदमप्रभ सुपास जिन चंद्रप्रभ करूं सेव. ३ सुविध सीतल श्रेयांस जिन वासुपूज्य अरिहंत, विमल अनंत धर्म जिन, शांतिनाथ भगवंत. ४ जेणइ जनमि मंगल बहू, शांति हुई जगमाहि, कमलानिधि लीलापती, सोलसमो जिनराय. ५ शांति कुंथु अरनाथ ए, चक्रवर्ति अनइ अरिहंत, छइ राजा प्रतिबोधीआ, मल्लिनाथ गुणवंत. ६ मुनिसुव्रत नमि नेमि जिन, यादवकुलि सिणगार, ब्रह्मचारी-शिरोमणि सही राजीमती भरतार. ७ कमठ-हठी-मद गालीउं, पन्नग कीउ धरणिंद, यादवदल जीवाडीउ, जय जय पास जिणंद. ८ थंभण पास त्रंबावती, सुख संपति दातार, शासनपति चउवीसमु, वीर जिन करूं जुहार. ९ अतीत अनागत वर्तमान, बिहुत्तरि जिनवर भाण, ए चिहु तीरथ अवरवर, ते सवि जिण वहूं आण. १० राग देशाख मल्हार आविउ (२) रे आव्यउ मास वसंत सही, वनसपती रे मुहरी, रइ सवि संपद लही; Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८५ हंसराजकृत हीरविजयसूरि चतुर्मास लाभप्रवहण सज्झाय मोहिआ मालती रे, भमरा गुंजारव करइ, मिलीआचल तणउ रे, पवन चिहुं दिशि विस्तरइ. ११ विस्तरइ परीमल सुगंध कुसुमह, कुंकुम चंदन छांटणां, एक करइ क्रीडा नारि प्रीयडा, खंडोखलीए झीलणां; मधु मास गाइ वेणि वाइ, कुसुमघरि सद्य भरई, तिहां मयण राजा रति अंतेउरीसेन-स्युं लीला करई. १२ इणि अवसरि रे, आविउ तपगछराजीउ, त्रंबावती रे त्रिभुवन महिमा गाजीउं; थंभण पासजी रे, आगइ मधु माधव रम्या, ति तुं मनि धर्या रे, श्रीपूज्य प्रभुचरणे नम्या. १३ प्रभु नम्या चरणे धुण्या वयणे, अमृतनयणे निरखतां, सीमंधर अरिहंत भगवंत वंदइ हीरजी हरखतां; कंसारी श्री पास जिनवर, सकरपुर चिंतामणि, महिमुंदपुरि सुलतानपुरि जिनआलीमाहिं त्रिभुवनधणी. १४ जूऊ अम्ह गुरू रे वसंत रमई रलीयामणउं, नंदनवन रे प्रवचन परिमल तिहां घणउ; उपशमरस रे मनोहर भरीअ खंडोखली, झीलई हीरजी रे, संयमश्री-स्युं मनि रली. १५ मनि रलीअ झीलइ दुरित ठेलइ, चंदन गुरूगुण छांटणां; कोकिलाकंठि कामिनी तिहा, गीत गाइ गुरू तणां; ध्यन्न मन्न मोरा सही चकोरा, मधुकर परि सुगुरू-चलण-कमलि रमइ, गुरूध्यान-सरोवर लहिरि शीतल पापताप ते नींगमइ. १६ मुनि-भूपतिजी, रूपिं मयणमद गालीउ, दीख्या-राणी रे, रति तणउ गरव टालीउ; सुवासना रे, आचार उत्तम दीपीइ, हेला माहि रे, कर्म तणां दल जीपीइ. १७ जीपीइ वइरी कर्म केरा, संतोष-सेजिइं सुख लहइ, कुसुमपरिमल कीर्तिमाला, सुगंधयश बहु महमहइ; देसना-वाजित्रनाद सुणे भावि, जिनपूजा-नाटिक करइ, जूउ वसंतक्रीडा माहरा पूज्य केरी, मुगतिसुंदरी मनि धरइ. १८ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रः ढाल : राग सामेरी जगजीवन परउपगारी, आविउ पूज्य महाव्रतधारी, देखी संघनइ हर्ष न मावइ, मंडाणि गुरू पधरावइ. १९ मोटा श्रावक साह सारंग, संघवी जयवंतनइ मनि रंग, साह जावड सोनी सहसधीर, संघवी उदयकरण गंभीर. २० साह जयवंत नइ साह राज, करई धर्म तणा बहू काज, जूउ उदयकरण भंडारी, करइ भगति सहिगुरनी सारी. २१ दोसी वछा झीला भाकराज साह पतीआ परिख कीकराज, वुहरा जयराज साह महिपाल, एहवा श्रावक बहुत दयाल. २२ जिम मंदिर गुरू पधरावइ, भरी माणिक मोती वधावइ, सोहागिणि मंगल गावइ, इम खंभायति रूयडुं भावइ. २३ सागोटइ उपासरइ सोहइ, श्रीपूज्य बइठा भवि पडिबोहइ, निति उछव घरिघरि दीसई, गुरू देखी हीयडुं हीसई. २४ दूहा बिंबप्रतिष्ठा जिन तणी, जिनशासनि मंडाण, सीतल जिनवर थापीआ, वाजइ ढोल नींसाण. २५ बिंब बिसई पनर अवर, सुरनर जोइं मुनिवृंद, वासखेप अंजन ठवे, श्री हीरविजय सूरींद. २६ ढाल एह ज सुणी वांणी श्री मुनिराज, ध्यन ते नर करई एहवां काज, संघवी उदयकरण भाकराज, भाविं वंदि श्री ऋषिराज. २७ जइ वीनती करी पूज्य पासइ, लाभ जांणि रही चउमासइ, जेठोडी परूहण भरीया, रूडइ वाय सुवाइं तरीयां; गया चोर कठोर हीनोरा, ते तु चरणप्रसाद गुरू तोरा. २८ राग भीम-मल्हार अनोपम मास अषाढ के, आसा सहू लही रे, कइ आस सहू लही रे, गगनि धडूक्या मेह कि, वीज झबूकइ सही रे (२). २९ मोरा करइ कंगार के, बापी पीउ करई रे (२), तेणइ समइ पीउ परदेशि कइ, कामनी मनि धरइ रे (२). ३० Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८७ हंसराजकृत हीरविजयसूरि चतुर्मास लाभप्रवहण सज्झाय एह, जाणी पूज्य पेखतां, भगतजन-मन ठरइ रे (२), मेह वरसइ अखंड धार, नदी पूरइ सर भरइ रे (२). ३१ पुन्यक्षेत्र सींचइ नीरि, वाणी ऋषिराजनी रे (२), मुखि मीठा पूज्य वेला ध्यन आजनी रे (२). ३२ राग धवल धन्यासी आ भवसमुद्र सुभर भर्यो ए, जिनधर्म अविहड वाहण जिणंद नीपाइउं ए, तारइ तारइ कुंअराजी-कुंअरनुं वाहण, ___ भली परिइ ए तारइ (२) कुं० आंकणी. ३३ जगत्रना लोकनई तारवा ए, घडिउं विश्वकर्मा एह, सयल दुख वारवा ए, तारइ० ३४ सुक्रित-क्रियाणां सुभर भरिया ए, लेइ आविउ साधु कृपाल, सगाल थया पुण्य तणा ए. तारइ. ३५ त्रिभोवन-लोक सुखी थया ए, इहलोक नइ परलोक, भलइ गुरू आवीआ ए. तारइ० ३६ समकित दृढ सढ दीपतो ए, सत्यवचन तेहां नेम, __ आज्ञार्थंभ रोपीउ ए. तारइ. ३७ कीरतिधज जस लहकती ए, सद्वहणा नांगरदोर, ___मालिम तिहां मुनिवरू ए. तारइ. ३८ अनुकंपा सुंदर छत्रडी ए, फुमतुं अतिहिं उदार, खिमा झूलि अति भली ए. तारइ. ३९ मिथ्यात्व-डूंगरडा जालवइ ए, कुमती-चोर प्रचंड, हेलामां जीपीआ ए. तारइ. ४० पुण्यकरणी गुण डाबडा ए, आउलां व्रत-पचखाण, दयादान नोर भलो ए. तारइ० ४१ संतोष पंतास रूडि राखीइ ए, संवेगरस जल सार, बलवंत मुनि खलासीआ ए. तारइ. ४२ वाजिवनाद सझायना ए, सांभलइ श्रीय मुनींद्र, ___ मालिम वर नाखूउ ए. ४३ धनदत्त शेठ परिवार-शुं ए, सलामत आविउ खंभाति, क्रियाणां सभर भरी ए. ४४ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह दान शील तप भावना ए, न्यान दरिसन चारित्र, वधारइ वस्तु भली परिइं ए. ४५ श्रावक वुहरति आवीया ए, विजय करी मागइ वस्तु, उत्तम गुरू अम्ह दीउ ए. ४६ राग सोरठी क्रियाणां रे पेख माहरां पूज्यनां, न्यान दरिसन चारित्र रे, अमुलिक रयण ए सीअल-स्युं जाचा हीरामाणिक नवतत्त्व रे. ४७ आस पुहती रे माहारा मन तणी, पेखतां पूज्य-दीदार रे, सुकृत-क्रियाणां भरी आवीउं, फलिया फलिया धर्म व्यापार रे. आस पुहती रे० आंकणी. ४८ हीरजीगुण दाणा[घणा] मोती निरमलां, पावि ते भावना बार रे, अमुलिक रत्न महाव्रत धरइ, उपदेश जवहिर आचार रे. आस. ४९ पोत सरासर जांणीइ, मासखमण दोइ वीस रे, मकबल सतरना पद बिसइं, समोसरण थया सु-त्रीस रे. आस. ५० पाखखमण पेटी हीरनी, अपूरव दोइ सिइं सात रे, संसारतारण वीस थानिक, अढीसईं ए सूफ शकलात रे. आस० ५१ अट्ठाइ ते च्यारसईं चोलीयां, उपधान द्राख भरपूर रे, आखाड बदाम पोसा सामायक, नवपद खारिक-खजूर रे. आस. ५२ कलप अट्ठम उपवास रंगिईं, आंबालि-नीवी बीजा तप सार रे, नमजां पस्तां श्रीफल पूगीफल, एह वुहरतां लाभ अपार रे. आस. ५३ सरस असाढ सफलिं फल्यउं, भरी आविउ पूज्य वडूं वाहण रे, सानिध्य करइ शासनदेवता, रखवाल वाहणनी जाण रे. आस. ५४ कुसुममाला- सुगंध भावना, परिमल सुख वली लाभ रे, जिनगुणगीत गाइ तिहां, देसाउरना आव्या घरि लाभ रे, आस. ५५ राग धन्यासी श्रावण मास ते सरवडे, वरसइ भाद्रवडे भर मेह, श्रीपूज्य-वांणी एणी परि वरसइ, वाध्या धर्म सनेह रे. ५६ भवीआं ! प्रणमु परउपगारी, गुरू हीरजी महाव्रतधारी, हूउ बालपणइ ब्रह्मचारी, जानि मोटो ए व्यापी जेणे तारियां बहु नरनारी रे भवीआं० आंकणी ५७ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हंसराजकृत हीरविजयसूरि चतुर्मास लाभप्रवहण सज्झाय जगत्र सुखी थयु पूज्य पधारइ, उत्सव निति मंडाण; समोसरण रचइ संघवी उदयकरण प्रणमइ गछपतिभांण रे. भवीआं० ५८ परव पजूसण रंगि कीजइ, फलीआ धर्मव्यापार, वस्तु अपूरव बहुमूल आवइ, खामणडा करइ सार रे. भवीआं० ५९ हरमजी वाहण बखाइ आव्यां, हुआ लाभ अनंत, आस फली आगे मसवाडइ, पुण्य सगाल हवा संत रे. भवीआं० ६० श्रीपूज्य - वांणी सफलई फली, न्यान दरिसण चरित्र, कार्त्तिक मास ते करसण पाकां, देसवृत्ति सर्ववृत्ति रे. भवीआं० ६१ देसदेसना संघ पधारइ, कागल गुरू तणा ल्यावइ, उछव महोत्सव करई वधावा, प्रभावना संघ करावइ रे. भवीआं० ६२ उपधान मालारोपण महाव्रत, चउथां व्रत वली बार, बिंबप्रतिष्ठा अने अनशन, बहुत हूआ लाभ अपार रे. भवीआं० ६३ श्री गुरू हीरविजय सूरीसर, सकलचंद उवझाय, पंडित श्री जयविमल मुनीसर, गणि विद्याधर नमुं पाय रे. भवीआं० ६४ गणि खडा गणि कृष्णविजय गणि, लक्ष्मीविजय गुरू संगि, धर्मविजय गणि मेघविजय गणि, मुनिविजय ऋषि सारंग रे. भवीआं० ६५ पद्मविजय ऋषि सूरविजय ऋषि, जयविजय ऋषि न्यानहर्ष, भावविजय ऋषि देवविजय ऋषि, सेवंता हुइ सुख रे. भवीआं० ६६ गणि कुलधर ऋषि मोटो तपशी, गणि जिनकुशल वइरागी, करइ वयावच मुनिवर केरां, संयम- स्युं लय लागी रे. भवीआं० ६७ चाहु ऋषि खेमकुसल रिषि, नागजी विवेकविमल कृपाचंद, भावकुशल रिषि भीम, लब्धिविजय नांनडीउ रत्नचंद भवीआं० ६८ साध्वी प्रभुश्री लालश्री साहिबश्री, माणिकसुमति रतन्न, चारित्रसुमति श्री विनयश्री, न्यानसुमति ए धन्य रे. भवीआं० ६९ चंपश्री कनकश्री लाभसुमति ए, वइरागश्री गुरू पासइ, च्यालीस ठाणइ श्री खंभनगरमां, हीरजी रहिया रे चउमासइ. भवीआं० ७० खंभनगरनुं संघ वइरागर, पंचविध दान दातार, २८९ कनक चीर सोनहरी गंठोडा, वरसइ जिम जलधार रे. भवीआं० ७१ जिहां जिहां गुरूनी आज्ञा वरतइ, तिहां तिहां उत्सव थावइ, दिन दिन चढतई रंग सोहावइ, हंसराज गुण गावइ रे. भवीआं० ७२ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह - इति श्री हीरविजयसूरीश्वर चतुर्मासक संबंधी लाभप्रवहणं संपूर्णमिति श्रेयः. लिक्ष्मि. शुभं भवतु. मंगल लेखकानां च पाठकानां च मंगलं, मंगलं सर्व जैनानां साधुसाध्वीति मंगलं, १. संवत् १६८५ वर्षे मार्गशीर्ष शु. १० बुधौ तदा लिखितमिंद देवपत्तने. शुभं भवतु. छ. श्रीरस्तु. छ. (मारी पासे.) [जैनयुग, अषाड-श्रावण १९८६, पृ.४८५-८८] Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९१ सोमकृत मेघजी-हीरजी संवादना सवैया [आ कृति 'जैन गूर्जर कविओ' के 'गुजराती साहित्यकोश खं.१'मां नोंधायेली नथी. सोम ते हीरविजय आदि २४ सवैयाना कर्ता ने हीरविजयसूरिना शिष्य सोमविजय (जुओ गुजराती साहित्यकोश खं.१, पृ.४७५) होई शके. आ सवैया पण ए २४ सवैया अंतर्गत होई शके. - संपा.] लुंकागछनायक मेघ कहैं, गुरु हीर ! तपगछ लीजियजी, तM पद में हि आचार्य को, हीर ! देइ दिख्या शिष्य कीजयजी, नंदीप्रत्यमा जिनभवनमैं हीर! रशना-डंड दीजीयेंजी, सखाई सशिष्य करें विनती, सोम हीरजी नाउ न कीजीयेंजी. १ हीर कहै, सूंनीयै मेघजी ! तुम्ह येसै तपगछ कैसें सहोगे, दी0 दीख्या फिरके गुरके, कर्यमयोग खरो खट वहोगे, उह्यां हिं तुह्मारे आचारज्यको पद, ईयां शिष्य के शिष्य होये रहोगे, सोम कहैं नंदने जिनकुं व[उ]न्यकुं ऋषजी तुम तारक होगे. २ लुक करो जुं करि मेघजी ऋष ओ अपनो गच्छनायक ताथै, सिद्धांतमैं मेघ कहिं प्रतिमा, तब होतें गितारथ पंडित साथै, शतावीस शिष्य अने मेघजी ऋष्य लेइ दिख्या फेर हीरके हाथै, आयो आचारय मेघ न पामै, तब सल्य परी सोम लुंकाने माथें. ३ कहा कहं कुंमति मत कि, जिनकी प्रतिमा महा मूढ न मानें, ठोर ही ठोर लिखि प्रतिमा, होम किर्ग पेरि सिद्धांतके पार्ने, कि... हैं भाव भवि प्रतिमा, नन्यहे प्रतिमा चंद सूर न मानें, लोपे गुरूदेव तजि प्रतिमा, गच्छ दुर भये सोम दैवके राने. ४ जिनमंदिरकुं ज आरंभ कहो, वो उपासरिं पत्थर काहैं धरो रे, सामि जिमाउ समहिई करो, उर काहेकुं देसमें व्या[ब्या]र फरो रे, एक पांणीकै बिंद असंख जीआ, तब ओ नदीआं तुम क्यांइ तरो रे, पोकारो दया दया सोम कहैं, तुह्म पोथीके विंगण काहैं करो रे. ५ [जैनयुग, अषाड-श्रावण १९८६, पृ.४८२] Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ धर्मदासकृत हीरविहार स्तवन [कृति सं.१६७६ जेठ सुद १५ना रोज रचायेली छे. कर्ता विजयदेवसूरिना भक्त कोई श्रावक होय एवं जणाय छे. आ कृति 'जैन गुर्जर कविओ' मां नोंधायेली नथी. पण देशाइना आ संपादन पूर्वे मुनिश्री विद्याविजये संपादित करेली 'हीरविहारस्तव'ने नामे जैन सत्यप्रकाश, ओगस्ट तथा ओक्टोबर, १९३६मां छपायेली छे. अहीं पाठशुद्धिमा एनो क्यांक लाभ लई शकायो छे. ताजेतरमां 'हीरस्वाध्याय भा.१' (संपा. मुनि महाबोधिविजय, सं.२०५३)मां देशाइनी वाचना ज पुनर्मुद्रित थई छे. कृतिमां वस्तुत: जे जिनमंदिरोमां हीरविजयसूरिनी मूर्ति के पादुकाओ स्थापित थई छे तेनुं वर्णन छे. - संपा.] महोपाध्याय श्री ५ नेमिसागरमणि गुरूभ्यो नम:. सरसती भगवती भारती ए, समरी सारद माय, रचसिउं हीरविहार स्तवन. वर दिउ मुझ माय. १ शेचेंजमंडण ऋषभदेव, अष्टापदि स्वामी, आबू हीरविहार सार; प्रणमुं शिर नामी. २ नाभि-नरेशर-कुलतिलो ए, मरुदेवी-मल्हार, युगलाधर्मनिवारणो ए, त्रिभुवनजन-हितकार. ३ प्रथम राय अणगार प्रथम, भिक्षाचर केवल, प्रथम तीर्थंकर प्रथम धर्मप्रकाशक निर्मल. ४ समोसर्या शेजेजगिरि, अष्टापदि सिद्ध, आबू हीरविहारे मूरति, महिमा सुपसिद्ध. ५ ध्याउं श्री नवकरामंत्र, शेत्रुजगिरि यात्र, देव आराहो वीतराग, निर्मल करो गात्र. ६ महिमावंत ए त्रिणि तीर्थ, चउथो हीरविहार, हीरविजय सूरीसरू ए, वयर सम अवतार. ७ वस्तु विमलगिरिवर विमलगिरिवर रिसह जिणदेव, समवसरण देवहिं मिली, रचिउं वार पूरव नवाणुं, Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९३ धर्मदासकृत हीरविहार स्तवन अष्टापद सिद्धा वली, नाममंत्र निशिदिवस आj, आबू हीरविहार प्रति, मूरति सुंदर सार, सरसती मात पसाउले, थुणसिउं हीरविहार. ८ ठवणी हीरविहार तीर्थ भलु ए, पाटण नयर मझारि तो, राजनगरि वली पादुका ए, खंभ नयरि सुविशाल तो. ९ सुरति नयर सोहामणुं ए, जिहां संघ छे सुविचार तो, जिन-गुरू-आण शिरे धरे ए, समकित-रयण-भंडार तो. १० शीले थुलभद्र जाणीए ए, बुद्धिए अभयकुमार तो, लब्धिएं गौतम अवतर्यो ए, रूपें देवकुमार तो. ११ वाचक नेमिसागर वरु ए, तेह तणे उपदेश तो, हीरविहार मंडावीओ ए, संघ मनि हर्ष विशेष तो. १२ निजामपुरे पूरव दिशें ए, दिनकर जिहां ऊगंत तो, वित्त वावे व्यवहारीआ ए, आणी हर्ष महंत तो. १३ संवत सोल त्र्यहोतरे ए (१६७३), पोस मास सुविचार तो, वदि पंचमी दिन निर्मलो ए, शुभ वेला गुरूवार तो. १४ पंडित लाभसागर वरु ए, अभिनवो धनो अणगार तो, करीअ प्रतिष्ठा नाम दीए ए, सुंदर हीरविहार तो. १५ ठवणी हीरविहार मनोहर दीसे, पेखत सुरनरनां मन हीसइ, अमरभवन सम जाणीए ए. १६ चतुरपणे वली चउक नीपाइ, देखी भविजन हर्ष ज थाइ, राणपुरनी मांडणी ए. १७ कारीगर तिहां काम चलावे, चउरंसिएं वेदिका सुहावे, पादुपीठिका जिन तणी ए. १८ गुणवंत गजध(र) बइठा निशदिनि, कोरणी-काम नीपाइ एकमनि, थंभ साग सीसम तणा ए. १९ जाली अति सुकुमाली सोहे, सुंदर मदल पेखत मन मोहे, गोमटि कलश कनक तणा ए. २० Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह शिखरें दंड ध्वजा अति लहेके, सुंदर कुसुमगंध अति बहेके, चित्रामण सोहामणां ए. २१ नव गोमट नवनिधि सुखकार, नलनीगुल्म सम हीरविहार, तीर्थमहिमा अति घणो ए. २२ ढाल फागनी पारिखी लालासुत भलो, गोविंद पारिख सुजाण, वित्त वावे हर्षे करी, जिनवरनी वहे आण. २३ साह सोमजीनो सुत भलो, शुभ नामें वस्तुपाल, हीर जेसिंगनी पादुका, थापना हुइ सुविशाल. २४ संवत सोल पंचोतरे (१६७५), वैशाख मास सुविचार, अष्टमी दिन ऊजल भलो, शुभ वेला रविवार. २५ वांचक मांहि शिरोमणि, रत्नचंद्र उवझाय, करिअ प्रतिष्ठा अति भली, संघ-मनि आणंद थाय. २६ सा नाह्रो वित वावरे, उलट आणी अंगे, पादका त्रिणि वाचक तणी, थापना हुई मनरंगे. २७ संवत सोल छहुत्तरे (१६७६), पोस मास सुप्रसिद्ध, पूनिम दिन रलिआमणो, हुईइ प्रतिष्ठासिद्धि. २८ दोसी भीम हर्षे करी, धन खरचे मनरंगे, दोई मूरति एक पादुका, थापना हूइइ सुचंग. २९ संवत सोल छहुत्तरे (१६७६), जयेष्ठ सुदि चोथे गुरुवार, करीअ प्रतिष्ठा हर्ष-स्युं, मूरति त्रिणि उदार. ३० हीरविहारें हर्ष-स्युं, उलट आणी अंगे, धन ते श्रावकश्राविका, वित वावे मनरंगे. ३१ सुविहित तपगच्छनायक, दायका शिवपद सार, ए तीर्थमहिमा घणो, नितु वंदे नरनारि. ३२ तीर्थनिंदा जे करे, कुमतिशिरोमणि जाण, हीरविहार उथापस्ये, भमस्ये च्यारे खाणि. ३३ ढाल माल्हंतडेनी त्रीणि चउवीसी प्रणमस्युं ए, मालंतडे बिहुत्तर जिनवरदेव, वीर पटोधर गायस्युं ए, मा. सुरनर करे तस सेव, ___ सुणो सुंदरि सुरनर करे तस सेव. ३४ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९५ धर्मदासकृत हीरविहार स्तवन सागर नामें जिन हुआ ए, मा. अतीत चउवीसी जाणि, सुणो. वर्तमान कालें हुआ ए, मा. श्री गुरू चतुर सुजाणि, सुणो. ३५ तपच्छनायक गुणनिलो ए, मा. लक्ष्मीसागर सूरींद, सुणो० जस महिमा अति दीपतो ए, मा. सेव करे अमरिंद, सुणो. ३६ सायर परें गंभीर छे ए, मा. सौम्य वदन जिम चंद, सुणो. तप तेजें दिनकर समो ए, मा. कनकवर्ण सुखकंद, सुणो० ३७ तस पटि शुभमति आगलो ए, मा. सुमतिसाधु सूरीश, सुणो. तास सीस मतिएं निर्मलो ए, मा. हेमविमल गुरूईश, सुणो. ३८ तास पटें जग उद्धर्यो ए, मा. आणंदविमल सूरिराय, सुणो० ऊपजे आणंद नामथी ए, मा. मनवंछित सुख थाय, सुणो. ३९ शिथिलाचार निवारीयो ए, मा. आदर्यो शुद्ध आचार, सुणो० जिनशासन दीपावीउ ए, मा. धन धन ए अणगार, सुणो. ४० तास पट्टोधर सुरतरू ए, मा. गोयम सम अवतार, सुणो. श्री विजयदान सूरीसरू ए, मा. जिनशासन शणगार, सुणो. ४१ तास सीस जग-सुखकरू ए, मा. हीरविजय सूरिराय, सुणो० दील्लिपति प्रतिबोधीओ ए, मा. सेव करे सुरराय, सुणो. ४२ पेसकसी पुस्तक तणी ए, मा० षटमासीअ अमारि, सुणो० जीजीओ जगह मुंकावीओ ए, मा. कीधा पर-उपगार, (पाठांतर) शेज मुगतो सार. सुणो० ४३ हीरसीस सोहाकरू ए, मा. श्री विजयसेन सूरीश, सुणो. बिरूद ‘सवाइ' साहे दीउं ए, मा. पुरे सयल जगीश, सुणो. ४४ तास पटोधर गुणनिलो ए, मा. श्री विजयदेव सूरींद, सुणो. शील-सत्त्व-गुणे आगलो ए, मा. ऊगीओ अभिनव चंद, सुणो. ४५ सागर गाजे तुज्झथी ए, मा. धर्मकल्लोलनी वेलि, सुणो० समकित-रयण सुधुं दीए ए, मा० दिन दिन हुई रंगरेलि, सुणो० ४६ तुं गुणसागर गाजतो ए, मा. महिअलि मांहि प्रसिद्ध, सुणो. सुविहित-शिर-मुकुटमणी ए, मा. आपे निर्मल बुद्धि, सुणो० ४७ वाणी अमृतरस वरसतो ए, मा. देशना दिए जिम वीर, सुणो. सकलकलागुण-आगलो ए, मा. सायर परें गंभीर, सुणो० ४८ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह ढाल : प्रणमुं तुंम सिमंधरजी - ए देशी मूरति ऋषभ जिणंदनी रे, सोहे हीरविहारि, हीर जेसिंगनी पादुका रे, भविजननें हितकार, भजो भवि ! भावे हीरविहार. ४९ नाममंत्र निशादिने जपो रे, होए जयजयकार. आंकणी. भजो० ५० वीर तणी परें तप तप्यो रे, शीले जंबुकुमार, वैराग्ये गुरू राजतो रे, धन धन ए अणगार. भजो० ५१ वाचकचक्रचूडामणि रे, विद्यासागर उवज्झाय, तेह तणी तिहां पादुका रे, प्रणमे सुर-नर-राय, भजो० ५२ तास सीस गुणे गाजतो रे, धर्मसागर उवज्झाय, वादि-गजघटा-केशरी रे, आण वहे जिनराय, भजो० ५३ तास सीस सोहाकरू रे, लब्धिसागर उवज्झाय, तेह तणी तिहां पादुका रे, भवि मनि आणंद थाय. भजो० ५४ तास सीस गुणे आगलो रे, नेमिसागर उवज्झाय, तेह तणी छे पादुका रे, दर्शन शिवसुख थाय. भजो० ५५ सुहगुरू-आण शिरे धरी रे, राखी तपगच्छ नाम, जिनशासन दीपावीउं रे, सार्यु आतमकाम. भजो० ५६ मूरति साते सोहामणी रे, श्री तपगच्छ-सूरीश, वाचक केरी पादुका रे, च्यार नमो निशिदीश. भजो० ५७ ए परिवार अनुक्रमे रे, जे समजे नरनारि, लक्ष्मि रमे नितु ते घरें रे, होई जयजयकार. भजो० ५८ श्री संघ तिहां उत्सव करे रे, कल्याणक दिन सार, नाटिक पूजा भाव-स्युं रे, आणी हर्ष अपार. भजो० ५९ हीरविहार ज नीपनो रे, जेहबुं अमरविमान, साह अमरसीनो उद्यम घणो रे, धन जीव्यं परमाण. भजो० ६० संवत सोल छहोतरे (१६७६) रे, ज्येठ शुदि पूनिम सार, जिहां लगें शशि रवि तपें रे, स्तवन तपो चिरकाल. भजो० ६१ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मदासकृत हीरविहार स्तवन २९७ कलश श्री ऋषभ जिनवर भविक सुखकर, हीरविहार सुहाकरू, श्री सूर(ति)मंडण दुरितखंडण, नमो पास जिणेसरू, विजय राजयें विजयवंतो, विजयदेव सूरीसरू, तास पसाएं स्तवन रचिउं, धर्मदास सुहंकरू. भजो रे भवि! भवें हीरविहार. ६२ - इतिश्री जिनराज स्तवन संपूर्णम्.. [सूर्यपुर रासमाळा, संपा. केशरीचंद हीराचंद झवेरी, १९४०, पृ.९३-९८] Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ समयप्रमोदकृत जिनचंद्रसूरि निर्वाण काव्य (समयप्रमोद ए जिनचंद्रसूरिना समकालीन हता अने ते तेमना शिष्य ज्ञानविलास(?)ना शिष्य थाय एम समयप्रमोदकृत १७ कडी- वरकाणा पार्श्वनाथ स्तवन मळी आव्यु छे तेनी छेल्ली नीचेनी कडी परथी अनुमान थाय छे : इम थुणीयउ श्री पासजिणंद, वरकाणइ जिणचंद रे, ज्ञानविलास निपुण निरदंदा जंपइ समयप्रमोदा रे, १७ पण आ काव्यनी प्रथम कडीमां ‘गुणनिधान गुरू पाय नमी' ए शब्दो परथी तेमना गुरुनु नाम गुणनिधान होय एम पण अनुमानाय छे. जिनचंद्रसूरिनो केटलोक वृत्तांत विस्तारथी ‘कर्मचंद्रमंत्री-वंश-प्रबंध' नामनो गुजराती पद्यप्रबंध तेमना शिष्य जयसोमना शिष्य गुणविनये सं.१६५५मां रच्यो तेमांथी मळी आवे छे. (जुओ श्री जिनविजयसंपादित 'जैन ऐतिहासिक गूर्जर काव्यसंचय' पृ.१०६-१३४ अने ते प्रबंधनो में लखेलो सार पृ.४२-७४.) खरतरगच्छ पट्टावलीमा ६१मां जिनचंद्रसूरि छठा ते आ सुरि छे. ते संबंधमां त्यां जे कहेवामां आव्युं छे ते माटे जुओ जैन गुर्जर कविओ भाग २जो पृ.६८३-८४. [बीजी आवृत्ति भा.९, पृ.२५] आ काव्य माटे बे प्रत सुरतमां मारा ज्ञानप्रवास दरमियान मळी तेनो उपयोग कर्यो छे. त्यांना जिनदत्तसूरि भंडारमाथी एक प्रत साल वगरनी मळी ते घणी अशुद्ध हती ते परथी पहेला उतारी लीधुं पछी वडाचौटाना उपाश्रयमांथी एक सारी प्रत मळी ते साथे तेने मेळवी लीधुं.) [कविना गुरुनु नाम ज्ञानविलास अन्यत्र मळे छे. 'गुणनिधान' ए विशेषण गणवू जोईए. कवि माटे जुओ जैन गूर्जर कविओ, बीजी आवृत्ति भा.२, पृ.२७२-७४ तथा गुजराती साहित्यकोश खं.१, पृ.४४७-४८. कृति अगरचंद नाहटा संपादित ‘ऐतिहासिक जैन काव्यसंग्रह'मां पण मुद्रित थयेल छे. एने आधारे अहीं थोडी पाठशुद्धि करवामां आवी छे तेमज एनां महत्त्वनां पाठांतर पण नोंध्यां छे. – संपा.] राग आसाउरी, दूहा गुणनिधान गुरूपाय नमी, वागवांणि आधारि, युगप्रधान निरवाणनी, महिमा कहिसि विचार. १ युगप्रधान जंगम जति, गिरूआ गुणे गंभीर, श्री जिनचंद सुरिंदवर, धुरि धोरी धर्मधीर. २ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९९ समयप्रमोदकृत जिनचंद्रसूरि निर्वाण काव्य संवत पंनर पचानूये रीहड कुल अवतार, श्रीवंत सिरियादे धर्यो, सुत सुरताणकुंमार. ३ संवत सोल चडोत्तरे, श्री जिनमाणिक्य सूर, सैं-हथ संयम आदर्यो, मोटे महंत पडूर. ४ महिपति जेसलमेरूमें, थाप्या राउल माल, संवत सोल बारोत्तरे, शत्रु तणे सिर साल. ५ ढाल : जयतसिरी १ कर जोडी आगलि रही - एहनी आज वधावो सिंघमें दिन दिन वधते वाने रे, पूज्यप्रताप वाधे घणो, दुसमन कीधा कांनै रे. आ. ६ सुविहित पद उजवालीयउ, पूज्य परिहरइ परिग्रह माया रे, उग्र विहार विहरता पूज्य, गूज्जर खंड आया रे, आ. ७ ऋषिमतियां-सं तिहां थयो, अति जठी पोथी वादो रे, पूज्य वखतबल कुमतीयां परगट गाल्या नादो रे. आ. ८ पूज्य तणी महिमा सुणी सन्मान्या अकबर साहिं रे. 'युगप्रधान' पद आपीयो, सहेर लाहोर उछांहिं रे. आ. ११ कोडी सवा धन खरचीयो, मंत्री कर्मचंद भूपाले रे, आचारिजपद तिहां थयो, संवत सोल अडताले रे. आ. ११ संवत सोल बावने पूज्य पंचनदी साधी रे, जितकासी जय पामीयो करी गौतम ज्यु सिद्धि वाधी रे. आ. ११ राजा राणां मंडलीक, आइ नमें निज भावे रे, श्री जिनचंदसूरीश्वरू, पूज्य सुसब्द नित पावे रे. आ. १२ सैं-हथ करि जे दीखिया, पूज्य सीस तणा परिवारो रे, आगमनि अर्थे भर्या, मोटी पदवीधर सुविचारो रे. आ. १३ दोसी सोम सिवा समा, पूज्य कीधा संघवी साचा रे. अवदात सुगुरू तणा, जाणे हीरा माणेक जाचा रे. आ. १४ दूहा सोरठा महामुनीसर-मुगटमणि, दरसणीयां-दीवांण, चोर्यासी गछ सेहरो, सासणनो सुरताण. १५ अतिशय आगर आदि लगि, जूठ कहुं तो नेम, जिम अकबर सनमानीयो, तिम वली शाहि सलेम. १६ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह ढाल पतिसाह सलेम सटोप, कीयो दरसणीयां सों कोप, ए कामणगारा कामी, दरबारथी दूरि हरामी. १७ एकनकुं पाग बंधावो, 'एकनकुं नास अणावो, एकनकुं देसवटो जंगल दीजे, एकनकुं पखालि कीजे. १८ ए साहि हुकम सांभलीया, तसु कोप थकी खलभलीया, जजमान मिली संजतना, दरहाल करे गुरू जतना. १९ के नासि हींदू पूठि पडिया, केइ मइवासै जइ चढीया, केइ जंगल जाइ बेठा, केइ दोडी गुफा जाइ पईठा. २० केइ नासत जवने झाल्या, ते आणि भाखसी घाल्या, पाणी ने अन्न ज पा(रा)ल्या, वयरीडा वयर-सुं साल्या. २१ इम सांभली सासनहीला, जिनचंदसूरीस सुसीला, गुज्जराति धराथी पधारे, जिनसासन वान वधारे. २२ अति आसति वलि भाली, असुरां भय दूरे पाली, उग्रसेनपुर पावधारे, पूज्य साहि तणे दरबारे. २३ पूज्य देखि दीदारे मिलीया, पतिसाह तणा कोप गलीया, गुज्जराति धरा क्युं आए, पतिसाहि गुरू बतलाए, २४ पतिसाहिकुं दैण आसीस, हम आए साहि जगीस, काहे पाया दु:ख सरीर, जाओ जौख करो गुरू पीर. २५ इक साहि हुकम जउ पावां, बंदीयडां बंदि छोडावां, पतिसाही खयराति करीजे, दरसणीयां दूओ दीजे. २६ पतिसाह हूतौ जे जूठो, पूज्य-भाग्यबले अति तूठो, जाओ विचरो देस हमारे, तुम्ह फिरतां कोइ न वारे. २७ धन धन खरतरगछ-राया, दरसणीयां बंदि छूडाया, पूज्य सुजस करी जगि छाया, फिरि सहू मेडते आया. २८ धन्यासिरी दूहा श्रावक श्राविका बहू परिइं भगति करे सुविशेष, आण वहे गुरूरांजनी, गोतम समवडि देखि. २९ १. एकनकु देसवटी दिलावउ, एकनकु पखाली कीजइ, एकनकुं बंदिखाने दीजै. Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयप्रमोदकृत जिनचंद्रसूरि निर्वाण काव्य ३०१ धरमाचारिज धर्मगुरू धर्म तणो आधार, हिव चोमासो जिहां करे, ते निसुणो सुविचार. ३० धवल धन्यासिरी, ढाल - चिंतामणि पास पूजिये देस मंडोवरि दीपतो, तिहां बिलाडा नामो रे, नगर वसे विवहारिया, सुखसंपद अभिरामो रे. देस० ३१ धोरी धवल जिहां रहे, खरतर संघ प्रधानो रे, कुलदीपक कटारीया, जिहां घरि बहु धनधानो रे. देस० ३२ पंच मिली आलोचिया, इहां पूज्य करे चोमासो रे, जनम जीवित सफलो हुवे, सयणां पूजइ आसो रे. देस० ३३ इम मिलि संघ तिहां थकी, आवे पूज्य दीदारे रे, महिमा वधारे मेडतें, पूज्य वंदी जनम समारे रे. देस० ३४ जुगवर गुरू पाउधारीये, संघ करे अरदासो रे, नयर बिलाडे रंग-सुं, पूज्यजी करो चोमासो रे. देस० ३५ इम सुणी पूज्य पधारीया, बीलाडे रंगरोल रे, संघ महोत्सव मांडीयो, दीजे तुरत तंबोल रे. देस० ३६ दूहा पूज्य चोमासो आवीया, श्री संघ हरख उछांह, विविध करे परभावना, ल्ये लखमीनो लाह. देस. ३७ पूज्य दीये नित देसना, श्री संघ सुणे वखाण, पाखी पोसहिता जिमे, धन जीवीत सुप्रमाण. देस० ३८ विधि-सु तप सिद्धांतना, साधु वहे उपधान, पूज्य पजूसण पडिकमे, जंगम युगप्रधान. देस० ३९ संवत सोले सित्तरे आसू मास उदार, सुरसंपद सुहगुरू लही, ते कहिसु अधिकार. ४० ढाल भावनरी नाणइ नइ निहाले हो पूज्यजी आउखो रे, तेडी संघ प्रधान, जुगवर आपे हो रूडी सीखडी रे, सुणज्यो पुण्य प्रधान. नाण. ४१ गुरूकुलवासे हो वसिज्यो चेलडां रे मत लोपो गुरू कार, सार अनइं वलि संयम पालज्यो रे सूधो साधु-आचार. नाण. ४२ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह संघ सहूर्ने धर्मलाम कागले रे लिखिज्यो देस-विदेस, गच्छधुरा जिनसंघ निरवाहिस्ये रे, करज्यो तसु आदेस. ४३ साधु भणी इम सीख वें पूज्यजी रे, अरिहंत सिद्ध सुसाखि, सें-मुख अणसण पूज्यजी ऊचरे रे, आसू पहिले पाखी. ४४ जीव चउरासी लख खमाविने रे, कंचण तृण सम निंद, ममता ने वलि माया मोसो परिहरी रे, इम निज पाप-निकंद. ४५ वयरकुमार जिम अणअण लीयो रे, पालि पहुर च्यार. सुखनें समाधे रे धर्मने रे, पहुचे सरग मझार. ४६ इंद्र तणी तिहां अपछर उलगे रे, सेवा करे सुरवृंद, साधु तणु धर्म सूधो पालियो रे, तिण फलिया ते आणंद. ४७ गोडी रागइ दूहा गंगोदक पावन जले पूज्य पखाली अंग, चोवा चंदन अरगजा संघ लगावे रंग. ४८ वाजा वाजे जन मिले, पार विहूणा पात्र, सुरनर आवे देखवा, पूज्य तणो सुभ गात्र. ४९ वेस वणावी साधुनो, धूपि सयल सरीर, बेसारी पालखीये, ऊपरि बहुत अबीर. ५० राग गोडी; श्रेणिक मन अचरिज थयो - ए देशी हाहाकार जगत हुओ, मोटो पुरूष असमांणो रे, वडवखति विश्रामीयो, दीवो ज्यु बुझाणो रे. ५१ पूज्य पूज्य मुखे उचरे, नयणे नीर नवि माये रे, सुहगुरू साले सांभरे, हीयडु तिल तिल थाये रे. पूज्य० ५२ संघ साधु सहु विलविले, हा खरतगच्छ-चंदो रे, हा जिणसासण-सामीया, हा परताप-दिणिंदो रे. पूज्य. ५३ हा मरजाद-महोदधि, हा सरणागत-पाल रे, हा धरणीधर धीरिमा, हो नरपति सम भाल रे. ५४ बहुं वन सोहे भूमिका, बाणगंगानइ तीर रे, आरोगी किसणागरई, वाजइ सुरभी समीर रे. ५५ २. उजलो. ३. समाधे ध्याने धर्मने. Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०३ समयप्रमोदकृत जिनचंद्रसूरि निर्वाण काव्य बावन्ना चंदन ठवी, सुरहा तेलनी धार; घृत वैश्वानर तरपिनइ, कीधउ तनुसंस्कार. ५६ वेश्वानर केहनउ सगो, पिण अतिसउ-संयोगो रे, नवी दाधी पूज्य मुहपती, देखे सगला लउको रे. ५७ पुरूषरतन-विरहे करी, साथि न मरवो थावे रे, सांतिनाथ समरण करी, सिंघ सहु घरि आवे रे. ५८ राग धन्यासरी सुविचारी हो पूज्यजी तुम्ह विण घडी रे छ मास, दरसण दिखाडो आपणो हो, सेवक पूजै आस. ५९ एकरसौ पाव धारीये हो, दीजे दरसण रसाल, सिंघ उमाहो अति घणो, वंदण चरण त्रिकाल. ६० वाल्हेसर रलीयामणा हो, जे जगि साचा मित्त, तिणथी पांगरो' पूज्यजी रे, मो मन ए परतीत. ६१ इण भवि भवे भवांतरे हो, तुं साहिब सिरताज, मात पिता तुं देवता हो, तुं गिरूओ गछराज. ६२ तुं पूज्य-चरण नित चरचतां हो, वंदत वंछित जोईं, अलिय-विधन अलगा टलै हो, पग पग संपद होय. ६३ सांतिनाथ सुपसाउलै हो, श्री जिनदत्त सुरिंद, तिम जुगवर गुरूसांनिधै हो, सिंघ सयल आणंद. ६४ गछपति तुं सिरताज. मीठा गुण श्री पूज्यना हो, जेहवी साकर-द्राख, रंचक कूड इहां नही हो, चंद्र सूरिज जिम साख. ६५ तास पाट मिहिमा-गिरूओ हो, सोहग-सुरतरू-कंद, सूर जेम चढति कला हो, श्री जिनसिंह सुरिंद. ६६ युगवर नाम जपें जयजयकार, वंस वधारे चोपडा हो, दिन दिन अधिको वान, पाटोधर पृथ्वीतिलो हो, चिर नंदो श्रीमान्. ६७ ४. पधारो. ५. वधावे. Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह सुखकारी हो युगवर नामे जयजयकार, युगप्रधान-गुण गावतां हो,नव नव रंगविनोद, एहनु आसा फले हो, जंपे समयप्रमोद. ६८ श्री जिनचंद्रसूरि निर्वाण अधिकार समाप्तं. सं.१८५३ रा. लि. राजभद्रस्य हेतवे श्री सुरत बंदर मध्ये. (पत्र ४-१३, पो. नं.१९, वडा चौटा उपाश्रय, सुरत) (पत्र ३-१६, पो.नं.९, जिनदत्तसरि भं. सुरत) [जैनयुग, आसो १९८४] Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०५ जिनचंद्रसूरि संबंधी त्रण गीतो (पहेला बे समयसुंदरनां रचेला छे. ते समयसुंदर जिनचंद्र साथे अकबर बादशाह पासे गयेला हता. त्रीजा काव्यना रचनार केशवदास मुनि पण समकालीन छे.) _ [अकबर बादशाह पासेथी 'युगप्रधान'- पद मेळवनार जिनचंद्रसूरि (सं.१५९९-१६७०) जिनमाणिक्यसूरिनी पाटे आवेला, खरतरगच्छना प्रभावक आचार्य छे. एमने विशे घणुं साहित्य रचायेलं छे. समयसुंदर जिनचंद्रशि. सकलचंद्रना शिष्य हता. अनेक रासाओ, संख्याबंध गीतो अने अन्य कृतिओ रचनार ए मध्यकाळना अग्रणी जैन कवि छे. एमनो जीवनकाळ सं.१७मी सदी पूर्वार्धथी सं.१७०२ सुधी विस्तरे छे. (जुओ जैन गूर्जर कविओ, बीजी आवृत्ति भा.२, पृ.३०६-८१ तथा भा.३ पृ.३६९-७१ अने गुजराती साहित्यकोश खं.१ पृ.३४८-५०) जिनचंद्रसूरिना समकालीन मुनि केशवदास क्या ते नक्की थइ शकतुं नथी. समयसुंदरनां बंने गीतो 'ऐतिहासिक जैन काव्यसंग्रह' (संपा. अगरचंद नाहटा)मां पृ.१०७ तथा 'समयसुंदर कृति-कुसुमांजली' (संपा. अगरचंद नाहटा)मां. पृ.३७१-७२ पर छपायेला मळे छे. केशवदासनी कृति अन्यत्र क्यांय नोंधायेली नथी. - संपा.] १. समयसुंदरकृत राग आसाउरी भलई री माइ श्री जिनचंदसूरि आए, श्री जिनधरम मरम बूझणकुं अकबरसाहि बूलाए. १ भ. सदगुरू-वाणि सुणी साहि अकबर, परमाणंद मनि पाए, हफतह रोज अमारि पालणकुं, लिखि फूरूमाण पठाए. २ भ. श्री खरतर-गछ ऊनति कीनी, दुरिजन दूरि पुलाए, समयसुंदर कहइ श्री जिनचंदसूरि, सब जनके मनि भाए. ३ भ० २. समयसुंदरकृत राग आसाउरी सुगुरू चिर प्रतपे तुं कोडि वरीस, खंभायत बंदिर माछलडी, सब मिलि देत आसीस. १ सु० धन धन श्री खरतरगछ-नायक, अमृत-वाणि-वरीस, साहि अकबरे हमकुं राखणकुं, जासु करी बगसीस. २ सु० लिखि फुरूमाण पठावत सबही, धन क्रमचंद मंत्रीस, समयसुंदर प्रभु परम कृपा करि, पूरउ मनहीं जगीस. ३ सु० - इति श्री जिनचंद्रसूरि गुरू गीतद्वयं समाप्तं. Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह ३. केशवदासकृत सवैया जिनचंदकी वाणि सुणीसु अकब्बर-वंस-उद्योतकरा, जसु पाय नमइ नरभूप अनूप सरूप महोदय भाग्यधरा, मुनि केशवदास उलास कहइ प्रतपउ गुरू जां सूर भूमिधरा, जिनसासनमइ जिनचंद भट्टारक अउर भटारक पेटभरा. १ जिनचंद मुणिंद महामुनि राज जयउ जस वाणि पियूषघटा, कुमती-मदमत्त-मतंगज-कुंभ-विदारण (जैसी) सिंहघटा, मुनि केशवदास नमइ गुरूकुं जिण जीतउ काम महासुभटा, जिनसासनमइ जिनचंद भट्टारक अउर करई सवि पेट-नटा. २ अकब्बरसाहि कहइ पतिसाहि भलउ जिणचंद सुरिंद जती, खरतरगच्छपती जस वाणि सुणी सवि दूरि गए कुमती, तसु नाम महानिधि सिद्धि करइ, जसु पाय नमइ सूर भूमिपती, मुनि केशवदास कहइ जिनचंद जयउ जिनसासन-छत्रपती. ३ दरसण सुखकर विकटसंकटहर, दरभर ताप पाप नासी गयउ दूरको, कंचणवरण काय सव नर सेवइ पाय, तह बहू सुख थाय सुभ भरपूरको, सकल कलानिधान, जंगम जुगप्रधान, नीकउ वडउ भाग भइयो जिनचंदसूरको, कहत केशवदास मुझ मति पूरउ आस, जिनचंद वंदवारू वंदन, सनूरको. ४ (मुनिश्री जशविजयना संग्रहमां) [जैनयुग, वैशाख–जेठ १९८६, पृ.३९६] Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०७ जिनविजयकृत क्षमाविजय गुरु सझाय [क्षमाविजय स्व. सं.१७८६. कृति सं.१७७१मां रचायेली छे. जिनविजय जीवनकाळ सं.१७५२थी सं.१७९९. एमणे 'कर्पूरविजयगणि रास' 'क्षमाविजय निर्वाण रास' वगेरे अनेक कृतिओ रची छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ, बीजी आवृत्ति भा.५, पृ.३०४-०९ तथा गुजराती साहित्यकोश खंड १, पृ.१२९, कृतिनी हस्तप्रतनो अहीं निर्देश नथी. 'जैन गूर्जर कविओ' मा आणंदजी कल्याणजी भंडारनी सझायसंग्रहनी प्रतमां आ कृति नोंधायेली छे (पृ.३०८-०९).] दूहा समरूं भगवती भारती, वाहन जास मराल; श्री गुरूना गुण गायवा, यो मुझ बुद्धि विशाल. १ सुर-चिंतामणि सुरगवी ईत्यादिक के कोडि; मनवंछित जो पूरवे, किम आवे गुरू-जोडि. २ गुरू दिनयर गुरू दीप सम, गुरू वन घोर अंधार; भवसायरमां बूडतां दीयइ श्री गुरू बाथ. ४ तिण कारण भवि सज्ज थई, सुणजो तास चरित्र; सुणतां श्रवण सुख हुवे, भणतां जीह पवित्र. देशी नणदीनी वीर जिणेसर पय नमी, गास्युं गुरूगुणरास, मोहन; सरसती मात मया करी, कीजे मुझ मुख वास. मो. १ श्री गुरू गुणनिधि गाइंयइ आंणी उलट अंग; दुखदोहग सब वीनिगमें, लहीयई सुख अभंग, २ भरतक्षेत्रमांहि. सोभतो, देस मारू अभिराम; तसु सिर तिलक समोवडि, गाम पोयंद्रा नाम. ३ वडवखती व्यवहारीओ, कलुओ साह तसु नाम; तसु घरणी करणी सती, बाइ वनां गुणधाम. मो. श्री. ४ हेजें दंपति तिहां वसइ, भोगवे भोगविलास; अनुक्रमे सुत एक जनमीयो, सदगुणनो आवास. ५ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह नाम ठव्यो कुंवर तणो, आणी अधिक जगीस; खेमचंद खेमें रहो, भूआ ये आसीस. ६ चंपक तरूवर तणी परि, वाधईं सुत गुणवंत; सयण हरखें अति घj, पेखी महा पुन्यवंत. ७ योवनवय जव आवीउ, आव्या सहिस[र ?]मां तेह; प्रेमापुर प्रेमे रहे पद्मासाहने गेह. ८ एक दिन श्री गुरू वांदीया, श्री कपूरविजे कविराज; । समतारसे झीलतां, सारे आतमकाज. ९ दीये श्री गुरू देशना, वाणी अमीय समाणी; एह संसार छे कारमो, जिम पिपलनु पाण. १० संध्या सम पंखी मिलइ, तरूअरडाल अनेक; तिम कुटुंब आवी मिल्यो, अंते प्राणी एक. ११ दश दृष्टांते दोहिलो, उत्तम नरभव लाध; श्रावक कुल पामी करी, आप-सवारथ साध. १२ दूहा श्री गुरूदेशन सांभली, जाग्यो चित्त कुमार; कर जोडी पंकज नमी कहे, भवदुखथी तारि. १ जनममरण दुख मै सह्या, जाण्या तुम पसाय; अबहु तेहथी उभग्यो, तिण मुज दिक्ष सुहाय. २ ढाल : कपूर होवइ अति उजळु रे - ए देशी वृद्धिविजय कवि कर ग्रह्यां रे, पांच महाव्रत धार; छार छांडी तुमे संग्रा रे रतन-चिंतामणि सार. १ मुनिसर धनधन तुम अवतार. क्षमावंत जाणी ठव्यु रे, क्षमाविजय अभिधान; संवत सत्तर चौआलमां रे जेठ शुक्ल पक्ष जाणि. २ दीक्षा लेई सुपीयां रे, कपूरविजय कवि पाय. कपूर परि जस निरमलो रे, जस गाजई जग माहे. ३ व्रत लीधां तेहनां खरां रे, पाले निरतिचार; पांच सुमति नित साचवे रे, संयम सतर प्रकार. ४ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनविजयकृत क्षमाविजय गुरु सझाय ३०९ ईत्यादिक गुण सोभता रे, सोल कला जिम चंद; एहवा मुनि नित वंदीये रे, दूरि टले दुखदंद. ५ गाम नयर पुर विचरता रे, करतां जन-उपकार; साधु संघाते परिवर्यां रे, आव्या सहर मझार. ६ संघ सकल सहु हरखीयो रे, श्री गुरू वंदन जाय; देशना अमृत वेलडी रे, सहुने आवे दाय. ७ संवत सतर इंकोतेरे रे, पाटण रही चोमास; कार्तिक वदि पांचम दिने रे, गायो गुरू उल्लास. ८ जो दिन श्री गुरू भेटसुं रे, ति दिन धन अवधार; सेवक जिन जुगतें कहे रे, आणि भगति अपार. ९ [जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स हेरल्ड, एप्रिल-मे-जून, १९१८] Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० हंसरत्न अने उदयरत्न विशे सझायो (छेल्ली कृति अधूरी रही छे. पछी- पार्नु दुर्भाग्ये नथी. नहीं-तो आ सज्झाय पूरी मळतां तेमाथी उदयरत्नजीनां मातापिता तथा स्वर्गवास वगेरे संबंधी हकीकत जरूर मळी शकत. हजु पण खेडाना रसुलपुरना भंडारमा जे त्रुटक पानां पड्यां छे तेमां शोध करतां कदाच आ पार्नु जडी आवे तेवो संभव छे. हंसरत्नजी तेमना समकालीन हता. तेओ सं.१७९८मां मीयागाममां स्वर्गस्थ थया ने तेनी देरी पण त्यां थई छे ते कोई मीयांगामनो रहीश शोधी ते बाबतनो लेख वगेरे होय ते लखी मोकलशे तो आभार थशे. हंसरत्नना सुंदर अक्षरे लखेलां पुस्तको में खेडा भंडारमा जोयां छे.) __ [हंसरत्ननी गुजराती तेमज संस्कृत कृतिओ सं.१७५५ थी सं.१७८६नां रचनावर्षों बतावे छे (जुओ जैन गूर्जर कविओ, भा.५, पृ.१५७-५८ तथा गुजराती साहित्यकोश, खंड १, पृ.४९१) अने एमर्नु स्वर्गवास-वर्ष सं.१७९८ अहीं एमना परनी सज्झायोमां छे. संख्याबंध रासाओ अने अन्य कृतिओ रचनार उदयरत्ननो सर्जनकाळ सं.१७४९थी १८०३ सुधी विस्तरे छे (जुओ जैन गूर्जर कविओ, भा.५, पृ.७६-१०४ तथा गुजराती साहित्यकोश, खंड १, पृ.३१-३२). देशाईनी उपरनी नोंध एम सूचवे छे के पहेली सज्झायमांना ‘सोदर' शब्द तरफ एमनुं ध्यान गयुं नथी. परंतु 'जैन गूर्जर कविओ' (भा.५.पृ.१५७)मां ए स्पष्ट रीते नोंधे छे के उदयरत्न हंसरत्नना सहोदर अने काका-गुरुभाइ हता. उदयरत्न राजविजयगच्छमां सिद्धिरत्नमेघरत्न-अमररत्न-शिवरत्नना शिष्य हता अने हंसरत्न सिद्धिरत्न-राजरत्न-लक्ष्मीरत्न-ज्ञानरत्नना शिष्य हता. ज्ञानरत्न उदयरत्नना आम काका-गुरु थाय. - संपा.] १. अज्ञातकृत हंसरत्न सज्झाय गुरू गीरूओ गुणसागरू, पर-उपगार-प्रधान, परम दयाल परसोत्तम, परदुखभंजन पुरण. १ ते - गुरू हंसने वंदीए, लीजे धरमनुं वाहो, पंन्यास-पदने फरसवा, चतुरविध संघने चाहो. २ धरम-धुरें धोरी परे, निरमल निरवहे नित, धीर-गुण मेरू धीनिधि, वासें दसो यश[दश ?] कीरत. ३ चंद्रवदन चाहता घj, चतुर नर नयण-चकोर, वांणी जलधर वरसती, सुणतां भवीयण-मोर. ४ शास्त्रसंदेह निवारता, जाणे सुरगुरू बुध, । भगत भगवतना भाव-सुं, भजता [चरण] सदा शुद्ध. ५ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हंसरत्न अने उदयरत्न विशे सझायो ३११ परम जैन पर फेननें, उडाडी वायु पर एन, जोती-सरूपा जलहले, वखांण्यो न जाये वेण. ६ मांनबाइ माता उअरे, प्रगट्यो पुत्ररत्न, सा वरधमांन-वंस वधारीने, धरमनां कीधां जतन. ७ वाचक श्री ज्ञानरतननो, शिष्य शिरोमणी संत, श्री उदय वाचकनो सोदरू, हंसरतन नाम सोहंत. ८ सतरस्यें अठांणुंना, चइतर सुद दशमी दिन, शनीवार सोहावीयो, जाणे सरग भोवन. ९ मनोहर मीयांगांममां, पुरे जे प्रगट आयास, त्रिविधं त्रिकाले सेवीए, गुरूना चरणने खास. १० नांमे नवनिधि संपजे, संकट भाजे सरव, महीपती मांन दीये मुदा, गुरू जातां तजीए गरव. ११ भुत प्रेत व्यंतर साकनी, नांमथी नासे जोर, ताप संताप त्रासें सदा, पाप परां जाय घोर. १२ मांडवीईं मन मोहीउं, धुंभे थीर थोभ, संसार संघ ते सोभीयो, ए जइन धर्मनो मोभ. १३ कीहां कीहां गुंण कही शकें, कवीजन मानव मात्र, सकल कह्याचं सार ए छे, गुरू उत्तम पात्र. १४ - इति पंन्यास श्री हंसरत्नजीनी सज्झाय लखी छे. २. उदयरत्नकृत हंसरत्न सज्झाय (पुन:) कीहां मरूधर कीहां मेवाड, पांचवटुं, कीहां पोरवाड हो, अवसर-जोर भज्यो संयमलोभी, ए तो प्रवचन मातानो मोभी हो. अवसर० १ वरधासुत मांनबाइ जाया, हेमराज कही हूलराया हो, अवसर० कीहां राजवीजअसूरी गछ, हंसरतन थया ज हंस-वछ हो. अवसर० २ कीहां गुजर कीहां कांनम धरती, चोफेर फरसी जेणें फरती हो, अवसर सघळा मेहली सहवास, मीयामा पुर्यो जेणें वास हो. अवसर० ३ कांनममें गीतारथ कीधो, मीयां मांहे माहा जस लीधो हो, अवसर० वांचं जीहां भगवती सुत्र, सघलें शतके ससूत्र. अवसर० ४ सतरसें अठाणुआ वरषं, चइतर सुद शुकर हरषे हो, अवसर० नवमीए थयुं नीरवाण, दसमीए जाण्युं कल्याण हो. अवसर० ५ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह वादोवाद हो, अवसर ० न आलखु अमूल हो, अवसर ० हो. अवसर० ७ नवकार आंबेल - तप आदें, आप्यां बहु वन दूर मांनपरने पेखुं, लखुं सोना रूपा ने फूलें, वधावें बहू पइसानो न लहूं पार, जाणें वुठो जलधार मांडवीइं मनडुं मोहूं, सघळां करजे घणुं सोहा थुभनी रचना थीर थापी, सुंकुनें जण सुंभ आपी सनात्र वाधें रंगरोल, वागां जीहां जांगी ढोल हो, अवसर० उदयरतन वाचक इम बोलें, ना आवे कोइ हंसने तोलें हो. अवसर० ९ • श्री उदयरत्ननी सज्झाय लखी छे. हो, अवसर ० हो. अवसर० ८ हो. अवसर० ६ ३. अज्ञातकृत उदयरत्न सज्झाय सकल वादी सीरसेहरो, श्री उदयरत्न उवज्झाय, ध्या गुरु ध्यानमां एकमनें एकासनें सेवीए गुरू नीकलंक. ध्याउंο सदा दीवो गुरू छे संसारमां सार, ध्याउंο गुरू सूरज गुरू चंद्रमा अज्ञानतिमिर हरनार. ध्याउंο प्रथम ते......... [जैनयुग, वैशाख जेठ १९८६, पृ.४०३-०४] Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१३ धर्मसागर उपाध्याय रास (आ रासनी अंतनी कडीओ न प्राप्त थवाथी कान नाम, रचनासंवत् अने रचनास्थान संबंधी कही शकाय तेम नथी. छतां अनुमान ए करी शकाय तेम छे के कृति धर्मसागर उपाध्यायना कोई शिष्यनी हशे अने तेनी रचना तेमना स्वर्गवास पछी खंभातमा ज थइ हशे. पहेला एक फाटेल पार्नु ७ना आंकवाळु मुनि जशविजयने मळेलुं हतुं, पछी तेमणे जणाव्यु के तेनी प्रत पूज्यपाद प्रवर्तक श्रीमान् कान्तिविजय पासे छे एटले तेमने विज्ञप्ति करतां छ पानांनी प्रत पोतानी पासेनी हती ते सारा साथ जोग बीजी प्रतो साथे मोकलावी आपी. ते जोतां ते अधूरी नीकळी ने तेनुं अनुसंधान जशविजय मुनिश्रीवें उपरतुं सातमुं पार्नु नीकळ्यु. हवे ते पछी- नथी मळतुं तो तेनी शोधमा काळनो विलंब न करता जे छे ते उतारी अत्र मूकेल छे. प्रतमां जेमजेम आगळ वधता जईए तेमतेम अशुद्धि घणी मळे छे ने तेथी प्रश्नार्थक चिह्न मूकवां पड्यां छे. उतारवामां शब्दभेद - व्यवच्छेद पर खूब काळजी राखी छे. आ जे नायकनो रास छे ते महासमर्थ विद्वान हताः परंत चस्तता-कट्टरता एटलीबधी हती के तेने उपशांत करवामां आवे तो पछी लाग आव्ये पुन: भभूकी नीकळती. आना छांटा एक गच्छ अने बीजा गच्छ वच्चे ज नहीं परन्तु तपागच्छना एक ज आचार्यनी शिष्यपरंपरामां पण विरोध रूपे घणा ऊड्या के जेना लिसोटा ते गच्छना शरीर पर हजु उझरडा रूपे जोवामां आवे छे. ते नायकनुं नाम धर्मसागर उपाध्याय छे. तेना संबंधी आमां मुख्य ऐतिहासिक बिना छे. गद्यमा प्रायः धर्मसागरना शिष्ये ज नोंधेल वृत्तांतनी ८-९ त्रुटित पानांनी 'खरतर तपा चर्चा' आवा मथाळानी अपूर्ण प्रत मुनिवर (हाल आचार्य) श्री विजयवल्लभ पासे छे. ते पैकीनां चार पानांनी हकीकत उपयोगी धारी श्री जिनविजये 'आत्मानंद प्रकाश'ना वीर संवत २४४४ कार्तिकना - पु.१४ अंक ४मां प्रकट करी छे. तेमांनी हकीकतो आ रासमां जे हकीकत छे तेने विशेष पुष्ट अने विस्तृत करे छे तो ते त्यांथी जोई जवी.) ['जैन गुर्जर कविओ' मां आ कृति नोंधायेली नथी. कर्ता लब्धिसागरना शिष्य होवार्नु पण संभवित छे. छेल्ली पंक्तिमांनो पाटणनो निर्देश पण रचनास्थळ तरीके हशे ? - संपा.] दूहा सरस वचन द्यु सरसती, वरसति वचनविलास; हंसवाहन गजगामिनी, सामिनी पूरइ आस. १ सकल सकलजनमनहरू, ऋषभादिक चउवीस; तस पय-पंकज प्रणमता, पूगइ मनह जगीस. २ वडवाचक वयरागरू, विद्याई वयरकुमार; सुद्ध सीलई करी सावलो[आगलो], थूलिभद्र अवतार. ३ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह उपशमरसको सागरू, धर्मसागर गुरूराज; तास तणा गुण गायता, सीझई सघलां काज. ४ राग गोडी जंबूद्वीप मझारि खेत्र भरतमांहि, गूजरदेश वखाणीय ए. ५ तिहां नयरी नितरंग नामई लाडोलि, धनदपुरी धनइं जाणी ए. ६ गढ मढ पोलि सुचंग मोटां मंदिर सुंदर, तेजइ दीपतां ए. ७ इंद्र-विमान समान जिनवर-प्रासाद, कनकाचलनइ जीपता ए. ८ तिहां चउरासी चउटां चउपट चिहुं दिसिइं, चतुर लोकनां चित हरई ए. ९ वाडी नइ वनखंड वावि सरोवर, सुरवर तिहां क्रीडा करइ ए. १० व्यवहारी धनवंत संत सोहई, सदा धर्मवंत धुरंधरा ए. ११ रूपईं रूअडी रामा सीलइ चमकंति, निज पतिनइं सुहंकरा ए. १२ उसवंश-सिणगार व्यवहारी वडो, साह रांको तिहां वसइ ए. १३ तस घरणी अरखाइं सीलई सीता ए, रूपई रंभानई हसइ ए. १४ सुखभरी सूती सेजिइ सघन सोहामणुं, मयगल मोटो मलपतो ए. १५ सपन लही ततकाल आवई पिउ पासई, कहइ गज दीठो दीपतो ए. १६ प्रमदइं करी प्रमदास्युं परगट पिउ बोलइ, सुत होस्यइ तुम कुलतिलो ए. १७ शुभ लगनई शुभ योगिई पूरई मासिं ए, सुत जनमउ तिहां गुणनिलो ए. १८ दूहा संवत पनर उगणासीईं, माह मास रविवार; शुकल पखि छठी दिनई, हुउ ते हर्ष अपार. १९ जनममहोछव अति भलो, खरचई कनकनी कोडि; याचकजन सहु हरखिया, गुण बोलइ कर जोडि. २० अनुकरमईं सुत वाधतो, बीज तणो जिम चंद; सकलकलागुणपूरीउ, मोहणवल्लीकंद. २१ राग धन्यासी अनुकरमई कुंअर वाधइ, सकल मनोरथ साधई; माय-मनि हरख न माइ, गुणीजन गुणगण गाइ. २२ सुतनुं दीधुं ए नाम, धिन धनजी अभिराम; कुंअर पांचमइ वरसइ, भणवा मुंकइ उल्लासई. २३ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मसागर उपाध्याय रास सकल विद्या दिन थोडई, भणिअ कुंअर कोडईं; दिन दिन योवन सोहई, रमणीनां मन मोहइ. २४ मुंसाल महीसाणा गामई, दादो वरसिंग नामई; कुंअरनई तिहां तेडावई, धनजी वनजी ते आवइ . २५ मिलिआ माजन लोक, दाम लीउ तुमे रोक; अम घरि कन्या छइ सारी, विवाह करो व्यवहारी. २६ (दूहा) इइ अवसर आवई तिहां, श्री पंडित जीवराज; गोयम गणहर समवडि, सकल-संघ-हित काज. (ढाल चालु) श्रीपूज्य आदेशकारी, सकलजीव-उपगारी; चउमास महीसाणइ रहिआ, श्री संत हीयडइ गहगहीआ. २८ तेह तणो उपदेशसार, जाणे अमृतधार; संसारसरूप जाणी, वेरागि मनमांहि आणी. २९ श्री गुरूचरणि चारित्र, लेइ कीजइ जनम पवित्र; (i) दी श्री गुरूपाय, हइयडइ हरख न माय. ३० दुहा निज जननीनइ विनवई, वीनतडी अवधारि; संयम-रामा रंगि वरस्युं, वेगि विचारि. ३१ निज जननी निसुणी करी, नयणि नीर झरंति; साह गोधानईं जइ कहइ, हइडइ दुःख धरंति. ३२ साह गोधो वलतुं भणइ, कीजइ एक उपाय; जिम सहूइ कुटुंबनइ, हइडइ हरख ज थाय ३३ राग सिंधु असाउरी प्रेम धरी माय इम बोलइ, मनमोहन, राखो घरनुं सूत्र, मन० तुं छइ कुंअर लहुअडो, मन० इम कां विचारईं पुत्र, मन० ३४ तुझ विण किम दिन लीजीइ, मन० तुं छइ अम आधार, मन० चारित्र वछ ! छइ दोहिलं, मन० जेहवी खांडाधार, मन० ३५ ३१५ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह वलतुं कुंअर इम भणइ, सुणि माडलि ! ए छइ अथिर संसार, मोरी माडलि. धण कण कंचण मोतीआं, सुणि. ए छई सहुअ असार, मोरी० ३६ एहवं जाणी चेतीइ, मोरी० लीजइ संयमभार, मोरी० धनजी वचन निसुणी करी, [सुणी.] वनजी विचारई सार, मोरी० ३७ बिहुं बंधव समझी करी, सुणी. लेस्युं अहो[मो] दोइ साथि, मोरी. अम्हे दोइ संयम लीजई, सुणी. पंडित जीवराज हाथि, मोरी० ३८ वलतुं माडी इम भणई, मनमोहन, तुम विण अम कुण काज, मन. सहुइ संयम लीजीइ, मन० कीजीइ अविचल राज, मन० ३९ दुहा इण अवसरि तिहां आविआ, विसलनयर मझारि, उपशमरस भरपूरीउ, करवा जन-उपगार. ४० जिणवर-आण हइए धरइ, वइरागी वडवीर, जास नाम हिअडइ धरइ, ते पामइ भवतीर. ४१ जस दरिसन देखी करी, बूझइ भविअण-वृंद, वाचक विद्यासागरू, धिन धिन एह मुणिंद. ४२ श्री गुरू विद्यासागरू, मूरत लीइ विशेष, श्री संघ रंगिं मोकलई, सघलइ नयरि लेख. ४३ संवत पनर पंचाणुइ, माह मास लसंति, सुकल पखि दशमी दिनई, संयम लीइ मन-खंति. ४४ राग असाउरी सकल संध तिहां आवइ हरखिइं, दीख्या-महोछव काज, मोहन मुरति देखी बोलइ, धिन धिन धन वनराज. ४५ सामिवच्छल सारां कीजइ, दीजइ फोफल-पान. इणी परी संयम [सकल ?] संघ संतोषी, याचकनइ दइ दान. ४६ वरघोडि वर घोडइ चढीआ, वाजइ ढोल-निसाण, सोहासिण आसीस तिहां, चिर जीवो जिहां भाण. ४७ भुंगल भेरी नफेरी वाजा, पंचशबद तिहां वाजइ, तंती निविल ताल भली परी, धप धप मद्दल राजइ, ४८ सरणइ-सर सुंदर साध्वा(?), निसुणी जलधर लाजइ, दमदम ढोल दद्दामा नादइ, ... अंबर गाजइ, ४९ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मसागर उपाध्याय रास साह विद्याइ हिअडइ वीणा शंख मनोहर दीपइ, झल्लरी नादई छाजइ, नानाविध वाजां तिहां निसुणी, कुमतीना मद भाजइ. ५० इइ मलाइ दीख्या लेवा, आवई श्री गुरू पास, सात जणा- स्युं दीख्या लेतां, पोहचइ मननी आस. ५१ विनय विशेष करइ गुरू केरो, भणई भली परि शास्त्र, श्री पंडित जीवराजनइ एहवां, मिलिआं मोटां पात्र. ५२ नाम दीई तिहां श्री गुरू सुंदर, धर्मसागर गुणधाम, विमलसागर बिजा बंधवनुं, नाम ठवइ अभिराम. ५३ विजयदानसूरि कहनइ, पंडित श्री जीवराज, धर्मसागर निज सीसनइ, बहुली बुद्धि देखी करी, श्री धर्मसागरनइ सदा शास्त्र भणावइ सार. ५५ जैन शास्त्र थोडइं दिनइ, भणीआ दो निज सीस, हरहर्ष धर्मसागरू, पोहती मनह जगीस. ५६ योग्य जाणी दोइ सीसनइ, मोकलइ तपगछराय, देवगिरी भणवा हइडइ हर्ष न माय. ५७ मुंकइ भणवा काज. ५४ विजयदान गणधार, राग देशाख तिहांथी रे चालइ गुरूनइ वांदी, शकुन भलेरे मनि आणंदी, आवता जाणी साह चांदसिंह, तस घरण (णी) जसमाइ अबीह. ५८ बिहुं जणनइ आणंद ज थाय, आपणनइ हुउ गुरूनुं पसाय, दिन थोडई देवगिरि मझारि, पोहता शुभ लगनइ शुभ वार. ५९ दूहा चांदसी करी भणी, हय डी करी, मेल्या भट्ट आगलो, विध जगि इम कहइ, লिऊ, मुहडइ मागो ते जागतो, जसमादे जस दिवस प्रति एक हुन तिहां, दोय जण तिहां शास्त्र अभ्यास करइ बिहुं वरसइ वर विरीआ, शास्त्र शीलवती चांदसींह भणवो माहि अनेक, एक. ६० प्रधान, ३१७ जाण. ६१ लीह, आपइ साह त (भ) ला परि[ धरि ], उलास, सो आणंद चांदसींह. ६२ भरीआ. ६३ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह दसक भट्ट माहि ज महि(मा) वाध्यु, देवगिरि माहिं जयवाद साध्यु, (आंतरीक पासनाथ जुहारी, चतुरपणइ चालइ श्रुतधारी. ६४ श्री गुरुचरण आवीतइ वांदे, सकल संघना चित आणंदे, (ना)इडलाइ (न)यरी परसीद्ध, पंडितपद तिहांथी थापन कीध. ६५ श्री विजयदानसूरि गणधारी, मोकलइ मेडता नयर मज्झारि, शास्त्र चिंतवज्यो हिअडइ आणी, चउमासु मुंकइ हित जाणी. ६६ चउमासुं करी वांदवा आवइ, श्री गुरूनइ ते अति भावइ, मनि ठवइ ऋषि बे मोटा मुनि कहिइ, श्री गुरू जंखइ काउसगि रहिइ. ६७ काउसगि ऋषिबालो एहवं निरखइ, श्री विजयदान सूरीसर हरखइ, तिण मोटां पात्र अमूल, तेह तणइ तिरे मूंक्या फूल. ६८ हीरहर्ष माथि दोय फूल, मुनिवर देखइ अति बहुमूल, धर्मसागर राजविमल कहिई, तेह तणइ शिर एक ज लहिइ. ६९ सपन विचारइ करइ भगवन्न, उवझाय-पद योग्य एछइ तिण श्रुतावास (श्रुतापन्न), शुभवासर शुभवेला जाण, उवजाय-पद तिण थापइ नाण. ७० आदीसर देहरा मझारि, त्रिण जणां पद दीधां सार, संघ सहु नडुलाइ केरो, उच्छव महोच्छव करइ अधिकेरो. ७१ श्रीपूज केरो आदेश पामइ, विचरइ श्री गुरू गामोगामइ, श्रावकना समकित उजुआलई, कुमतई पोउतो लोकनई वारइ. ७२ दुहा शिवपुरी आवइ विचरता, सकलसूरि-शिरताज, आचार्यपद थापवा, हीरहर्ष मुनिराज. ७३ तेडावइ तपगछधणी, धर्मसागर उवझाय, प्रमुख साधु तिहां मिलइ, आचारयपद थाय. ७४ राग सामेरी आचारयपद तिहा दीर्छ, संघ चउविहनइ सुख कीर्छ, करइ संघ महामंडाण, धिन जीवं ए परमाण. ७५ श्री हीरविजयसूरि नाम, दीधुं एहवं अभिराम, चिर जीवो ए भगवंत, बोलइ गिरूआ गुणवंत. ७६ श्री हीरविजयसूरि राय, श्री धर्मसागर उवझाय, श्रीपूज्यइं वाचना दीधि, पाटण नयरि परिसिधि. ७७ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मसागर उपाध्याय रास ३१९ दुहा सकलवादि-शिर तो खरू[शेखरु], महीअलि महिमावंत, जास नाम श्रवणे सुणी, वादी वाद त्यजंत. ७८ जयवादि जगि आगलो, धर्मसागर उवझाय, जाण वाकोनिर (वीकानेर) तिहां, मोकलइ तपगछराय. ७९ (ढाल चालु) सहु आगल(म) वाचना लेइ, निज गुरूनइ परदख्यिण देइ, चालइ गुरूजी गहगहता, शुवाकांरीर (वीकानेर) पोहता. ८० मंत्रीसर देवो मेहतो, नीतानीतनु वाद करतो, सहसारण कुमत-निधान, तस न्यान तणे श्रुतिमान. ८१ तेहनइ समझावा वालइ, नीतानित्य संशय टालइ, मोंटो राय कल्याण कहिड, तस राजसता जस लहिड. २ प्रतिष्ठा चित्रोड नयरिं, कीधी गुरूजी भली परिं, परवादिं साथि वाद, करि तस उतार्या देव नाद. ८३ जयवाद वरत्यो जालोरइ, खरतर इणी परइ, व्यवहारीनई देइ दीक्या, सीखवइ श्री गुरू शिख्या. ८४ प्रतिष्ठा तिहां वलि जाणो, सहु संघ हुउं सपराणो, नाउ(ड)लाई प्रतिष्ठा मोटी, श्रावक खरचइ धन कोटि. ८५ पूण्ययोगइ पूज्य पधार्या, कुमतइं पडता जन वार्या, बहु लोकना संशय टाल्या, वीजामती तिहांकणि चाल्या. ८६ अनुकरमइ गूजर देशई, आवइ गुरूनई उपदेशइ, पाटणनयरइ परसिद्ध, खरतर-स्युं जयवाद सिद्ध. ८७ व्यवहारी बहु धनवंत, कीधां काम घणां महंत, दीख्या लीइ अख्या गणीआ, श्री सहगुरू पासइ भणिआ. ८८ अहिमन्नग(२) चउमासई, आवइ गुरूजी उलासइ, तिहां दीख्या लेई धनवंत, वैरागी विद्यावंत. ८९ श्रीअ हीरविजयसूरीस, जस नामइ सु न(म)इ सीस, तेह तणो आदेश पामइ, पोहचइ जेसलमेर गामइ. ९० हरराज रावल तिहां राजइ, मोटा वैरी तणा मद भाजइ, तेहनी सभा माहिं दीपइ, धर्मसागर वादिनइंजीपइ. ९१ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह सीरोही जीराउला पास, थी पोह(त)वा य आस,(?) सूरति नयरइ चउमा(स), संघ आगलि धर्मप्रकास. ९२ जयवाद वरत्यो तिहां, राय कल्याण सनासना' सभा जीहां, चउथइ पजुसण करवू, हिअडइ सहुइ ए धरQ. ९३ दुहा विनय करी विद्या भण्या, श्री गुरू पासई जेह, तेह तणां नाम हुँ कहुं, जिम हीम निर्मल देह. ९४ राग देशाख विमलसागर बुध बुद्धिनिधान, ज्ञानविमल पंडित परधान, विजयकुशल पंडित माहिं सोहई, विबुध विवेकविमल मन मोहइ. ९५ विनयवंत विनयसागर कहीइ, तेहनी बुद्धिनो पार न लहीइ, उदयवंत दयारूचि पंडित, साधु तणइ गुणइं मंडित. ९६ पद्मसागर पंडित परसिद्ध, लब्धिसागर बहुलब्धि-समृद्ध, गुणसागर गाजइ जिम दरिउ, बुध . दरिसन(सा)गर गुण-भरिउ. ज्ञानसागर ज्ञान वखार्पु, श्रुतसागर गाजइ जम दबुसात्तो त्राणुं, (?) विबुध विवेकसागर वेरागी, मेघसागर पंडित सोभागी. ९८ माणिक्यसागर महिमावंत, पंडित ए गिरूउ गुणवंत, इत्यादिक पंडित नी(पा)या, कविजन कहइ मई हरखई गाया. ९९ जंबूद्वीप पन्नत्ति सूत्र, तेहनी वृत्ति करी पवित्र, किरणावली कल्पसूत्रमा जाणउ, प्रव(च)नपरीक्षा हिअडइ आणउ. १०० तत्त्वतरंगिणी ग्रंथ . प्रमुख, जे वांचइ पामीजइ सुख, एहवा ग्रंथ कर्या अनेक, हिअडइ आणी वारू विवेक. १०१ अनुकरमइ विहार करंता, ठामि ठामि भविअण बोहंता, अमदावाद आव्या गणधारी, जगगुरू मोटो जगि जयकारी. १०२ साह मुराद तिहां बलवंत, वैरी तणो जो आइणा (जे आणे) अंत, तिहां तेडावीअ श्री सूरीस, धर्म(म)र्म पूछई अ(ह)नीस. १०३ तगबन [भगवन] भली पइरई परकासइ जीवदयाइं तस चित वासइ, श्री गुरू धर्मसागर तिहां आइ वंदइ, बिहु जणनां मन आणंदइ. १०४ १. 'सनासना' शब्द वधारानो लागे छे. Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मसागर उपाध्याय रास वलतुं भगवन धर्मसागर इम प्रकास्युं, विमल वात राया-स्युं,(?) बोलइ वाणी, त्रिकाल वंदना होजो नांणी. १०५ दूहा महिअलि मोटो सुखकरू, हीरविजय सूरिद, शेत्रुंजे यात्रा भणी, चालई परमानंद. १०६ जगगुरू जगमाहिं जाणई, साध्वी संघवी एक, जेणई करावी यातरा, निर्मल कीधी देह. १०७ श्री गुरू वांदी चालिआ, चतुरपणई चित जांण, वटपद्रनयर पधारिआ धर्मसागर गुरू भाण. १०८ राग मारूणि श्री गुरू श्री धर्मसागर, प्रणमइ सुरनर नागर, आगर नानाविह गुण ए. १०९ हीरविजयसूरि तपागछपति, वंदइ सुरनर-यति, तक्तिर (?) पतिसाहि अकब्बर छात्तिउ (?). ११० तेह तणइ आदेशईं, चालइ कुंकुण देशई, होश्यइ ए सुरति नयर आनंद घणा ए १११ त्रिजग तां मन मोहई, हीरविजयसूरि सोहइ, पडिबोहे भविजनना मन रंग- स्युं ए ११२ श्री ( उ ) ना नयर मनोहरू, चउमासुं रह्या गणधरू, सुखकरू जिम सायरनई चंदलो ए. ११३ श्री गुरू अंतसमय जाणी करी, ए वात चितमां धरी, अति खरी एह समय अणसण तणो ए ११४ भाद्रव सुदि एकादसी, देव कोडि तिहां उलसी, as होइ[स] एम अधिपति विमाननो ए. ११५ भगवनजी स्वर्गपुरी, पधारिआ एह वात सुणी करी, श्री धर्मसागर बोलइ दुख धरी, आंसुभरी हे हे देव किस्युं कर्तुं ए. ११६ अम बिहुं केरी जोडली, देवइ किधी खोडली, को वलि एहवो नहि मिलइ जगगुरू ए. ११७ ३२१ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह विजयसेनसूरी वंदीजइ, आतमसाधन कीजई, लीजीइ मुगति तणुं सुख ढुकडं ए. ११८ हीरविजयसूरि पटधरू, विजयसेनसूरि सनेह, जिन शासनकु राजीओ, सकल सूरि मांहि लीह. ११९ साहि सता जिणे जस लाउ, हुउ ते जयजयवाद, नासइ वादि-गज-घटा, जिम केसरीकइ नाद. १२० साहि अकब्बर आगलि, जीत्या वादि अनेक, कीर्तिथंभ आरोपिओ, जयवादिं जगि एक. १२१ विजयसेन गुरू गछपति, जेहनो जगि जसवाद, जिनशासन थापी करी, वादि उतार्यो नाद. १२२ परगट हीर-पटोधरू, पुण्ययोगिं पुण्यवंत, खंभनयरइ पधारिआ, धिन धिन ए भगवंत. १२३ विजयसेनसूरि गणधरू, बुद्धिइं जीत्यो सुरगुरू, सुरतरू आवइ खंभनयर त[भ ?]णी ए. १२४ न्याना गुरू तेडावइ, मेवडो मोकलइ भावईं, आवइ धर्मसागर उलट धरी ए. १२५ विजय(सेन)सूरि वंदई ए, देखी मनि आनंद ए, चंद जिम देखे चकोरडां ए. १२६ वात पूछइ लाहोर तणी, श्री गुरूने धर्मसागर घणी, गछधणी कहई ... ए. [?] १२७ वचन गुरू-स्युं बोलए, को नहि तुमनइ तोलए, खालइ[बोलइ] देवतणी वाणी तिहा ए. १२९ हीरगोरनइ देववाणी, षहूंइ हता [हूइ तेह] अह्मइ जाणी, ए जयविमल तुम पटधरू ए आणी, ए उदयवंत होस्यइ भलो ए. १३० वामि(?)ज्यनुं लहवू, एहवानु सुं कहवं, नित रहq तुम पासईं, देवतातणुं ए. १३१ श्रीपूज्य अमदावाद भणी, चलत कहइ मुनि अम तणी, त्रिकाल वंदना जाणज्यो ए. १३२ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२३ धर्मसागर उपाध्याय रास तव कहइ तपगछगुरू, ए श्युं कर्दा मुनिवरू, श्रुतधरू वलि वांदस्यो वेगि-स्युं ए. १३३ श्री वाचक वलतुं कह्यु, देवसपन आगइ लद्यु, तेथउं छत्रछायाइं तुम तणी ए. १३४ दूहा छत्रछायाइं तुम तणी, बइसवं मुझ एक वार, तेहर्बु तपगछधणी हवइ, किहां बीजी वार. १३६ गुरू जाइ चउमासु आपी[वी]आ, खंभनयर तिहां थापीआ, व्यापीआ निर्मल जसमहिमा घणा ए. १३७ रंगइ रहइ चउमासि, खप भेटइ चिंतामणि पासइ, आस ए पूरइ श्री संघनी घणी ए. १३८ वखाण करइ मनरंगिइं, नव नव देशना भंगइ, चंगिइं ए श्री संघना चित ठारवा ए. १३९ . (दुहा) एक दिन शासनदेवता, आवा सपन मझार, जिनशासन हितकारणइं, कहइ कब वन (कथन ?) सुविचार. १४० राग पर्जिओ जागि मुनिवर सुर वंदइ, इम मानकय वनि जलि रे,(?) सुपन पन एक ज तिहां दीर्छ, दीवइ नदी दावेलि रे. (?) जागि० १४२ पंडित श्री गुरू लब्धिसागर, तेडी वदइ मुनिराज रे, काज करस्युं आपणुं हवइ, सारो हमारां काज रे. जागि० १४३ पंडित ज्ञानविमल प्रमुख यती, तेडावइ उलासि रे, संघवी उदयकरण श्रीमल सहु, संघ आवइ गुरू पासि रे. जागि० १४४ कार्तिग मासईं शुकल चउथईं, आराधन करइ सार रे; नांदि मांडी बिंब आगलि, महाव्रत उच्चार रे. जागि० १४५ साधसाधवि नाम लेइ, खमावइ मुनिराय रे, संघ चउविह सकल जीव राशि-स्युं, लही निरमोह माय रे. जागि० १४६ तिणइ अवसर गुर गुरूजी भाखइ, चिउ अनसना अग्राज रे ? एहनु न विलंब कीजइ, पामीइ शिइ[घ्र ?] शिवपुर-राज रे. जागि० १४७ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह दूहा जास जामलि घणउ, बोलई बालगोपाल, धर्मसागर उवझायनइं, वंदन करूं त्रिकाल. २४८ राग सिंधुओ भवि अनुमोदो रे मुनिवर एहवा, जेहवा धनो अणगारो जी; हीरजी धर्मसागर कडी जोडला, हुंता अवनी माहिं सारो जी. भवि० १४९ पांचमि दिन रे श्री संघ वीनवइ, 'बोल दिउ मुनिराजो जी; देव थयां रे पच्छइ आवq, सांनिधि देवानइं काजो जी'. भवि० १५० वलतुं रे भगवनजी इम भणइ, 'जे त्रिभुवनि विख्यातो जी; साहि अकब्बरा जेणई बुझव्यो, हीरविजय जगतातो जी. भवि० १५१ वाहलु हतुं रे जिनशासन घj, जगगुरूनइ दिनरातो जी; ते तो रे हीरजी इहां नवि आवीआ, कुंन हमारी वातो जी. भवि० १५२ पांचमइ आरइ रे श्री संघ सांभलो, वीरवचन संभारो जी; देव थइ रे को आवइ नहीं, हवणां ए अवधारो जी'; भवि० १५३ छट्टि दिनई रे श्री संघ पूछीउं, 'वांछा सी तुम सारो जी,' 'शुद्धपणई रे जिनधर्म भाषाइ [भासइ], होज्यो तिहां अवतारो जी.' भवि० १५४ मुनिजन सहू रे गुरूनइं वानवदई (वीनवइ), 'तुम छइ देह-समाध्यो जी'; 'केवली सरखी मुझ काया अछइ, नहीं रागद्वेष न व्याध्यो जी.' भवि० १५५ सातमि दिन रे मध्यराति गुरू भणइ, 'अणसण | सुझ[मुझ] सारो जी; परभव जातां रे जीवनइं संबलं, सफल करू अवतारो जी.' भवि० १५६ वलतुं रे श्री पंडित इम भणई, 'शकुन जोवा पस्तातो जी; जोयां पछी रे अनशन देइस्युं, ए मुझ मनमाहि वातो जी.' भवि. १५७ __ - श्री गणेश:: (पत्र ६-१३, प्र. कांतिविजयजी पासेनी) (आम अधूरी प्रत रही छे पण सुभाग्ये आ पछीनुं अनुसंधान, एक फाटेतुं पार्नु मुनि जशविजयने मळेलु के जे बीजी प्रतनुं छे, तेमांथी मळी आवे छे. ते नीचे प्रमाणे छे.) ... रे गुरूजी इम भाषीउं, शकुन जोवा नहीं लागो जी; स्वयं मुखइ रे अनशन उचरइ, होज्यो पुण्यनउ भागो जी. भवि० १५८ नवमा दिवसइ रे सहु तिहां गव्य (?) जागीउं, खण नवि कीजइ विलंबोजी; नांदि मांडीनइ रे अनशन आदरू, काज सारू अविलंबो जी. भवि० १५९ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मसागर उपाध्याय रास ३२५ नवकार गणतां रे नवमी मध्यरात्रइ, पाम्या अमरविमानो रे; जयजय नंदा सुररमणी करइ, देव करइ गीतगानो जी. भवि० १६० लब्धिसागर गुरू बोलइ इणी परि, भगवन जग जाणो जी; कांइ रे विछोडी अम्हनइ तुं गयु, तुं हुतु अम्हनइ त्राणो जी. लब्धि. १६१ संशय पूर्छ रे केहनइ तुझ विना, संशय टालणहारो जी; सहुना संशरा टाल्या तई घणा, कही(आ) शास्त्रविचारो जी. लब्धि. १६२ हयी(?) आपी दैवइ सुं करूं, कुण करस्यइ माहरी सारो जी; एहवा पुरूषनइ तुं लेइ गउ, हुतु अम्हनइ आधारो जी. लब्धि. १६३ बालपणाथी रे हुं तइ पालीउ, हिवइ काई दीधउ छेहो जी; निस्नेही तुं अम्हे जाणीउ, जाणता अधिक सनेहो जी. लब्धि. १६४ अंतसमय तई कई नवि चित्ते धरूं, राखुं निर्मल ध्यानो जी; भगवन भगवन हुँ केहनइ कहुं, तुं गुणह निधानोजी. लब्धि. १६५ अहनिस थोडी थोडी [घडी घडी] नाम.जपुं, भगवंत भली परि जाणो जी; थोडी घणी जे(ह) सेवा थई, ते तु चित्तमाहि आणो जी. लब्धि. १६६ घj घणुं भगवन तुझनइ सुं कहुं, तुं छइ दीनदयालो जी; (एक) वार दरिसण देखाडवू, आणी रंग रसालो जी. लब्धि. १६७ रामगिरी धन धन धर्मसागर उवझाय [जेहनइ] नामइ नवनिधि थाइ, कवियण कहइ गुण केता कहुं, जेहना गुण- पार नवि [लहुं]. १६८ ............... वइरकुमार, थूलभद्र धन्नु अणगार, गोयम गणहर सेवउ सहु, सहुं. १६९ धन धन नयरी त्रंबावती, जाणइ इंदपुरी सोहती; तिहां वसइ ववहारी कोडि,..... जोडि. १७० चतुरपणइ चउमासुं रह्या, गुरूदरिसण देखी गहगह्या, श्री ... अति घणा, खरचइ रंगई द्रव्य आपणा. १७१ अवसर आवी अणसण करी, [मनि] निर्मल ध्यान जि धरी, पूर्व रिषिना चरीअ अणुसरी, श्री गुरू पुहुता देवनी पुरी. १७२ मांड(वी) ....खंडनी जाण, श्रावक करई तिहां महामंडाण, नवई अंग प्रभु पूजा करई, अवसर जाणी (वित्त) वावरइ. १७३ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह पन्नर मण सूकडि माजनइ, सारू अगर मण २ (बे) इम भणइ, चूआ कपूर , कस्तूरी सही, तस परिमल चिहुं दिसि महमही. १७४ एक कुतिक तिण ठामइ हवउं, दहन देती वेलाइं नवं, चमरी जेवी गाइ अभिराम, देइ प्रदि(क्ष)णा रही तीण ठाम. गाइ दुही दूधइ सींची चय, जे आवइ ते तिहनइ दुहइ, दुहीं लिगाउ इ गाइ तणु, निर्मल थाइ (जि)म देह आपणुं. १७५ लोक लखि देखी ईम कहइ, कामधेनु आवी सद्दहइ, थारिआमाहि (?) तरणू नवि होइ, गाइ जाती नवि हो(इ), देखइ कोइ पूर्व पुण्य प्रेम आवी, गा देखी संग बोलइ निरमाइ, होइ सर्व एहनइ सिष्यनी वृद्धि, एहना शिष्य[नइ] होसई संधि[सिद्धि ?]. १७६ श्री धर्मसागर वाचकवरू, वादीवारण सीहो जी, जे गुण गाइ गुण ताहरा, निर्मल होइ तस जीहो जी. धन जननी [जे] जिनमीउ, जेह, जगि जस जासो जी, जस मुख विमल कमल सदा, भगवती भारती वासो जी. १७७ पाटण नयर नामइ.... पर्ति आ रासमां केटलीक व्यक्तिओ, ग्रंथो वगेरेनो उल्लेख करेलो छे ते पैकी जेना संबंधमां कंईक विशेष माहिती प्राप्त थई छे ते नीचे रजू करवामां आवे छे : लाडोली - धर्मसागरनुं मोसाळ महेसाणा छे ते जोतां, एमर्नु आ जन्मस्थळ ते मारवाडर्नु लाडोल नहीं पण वीजापुर पासेर्नु लाडोल होQ जोईए ए वीरमगामना वकील छोटालाल त्रिकमलाल पारेखनी वात बराबर छे. ए रीते धर्मसागर गुजराती ठरे छ जीवराज - ते जीवा ऋषि. ते लक्ष्मीभद्रगणिना शिष्य आनंदमाणिक्यगणिना शिष्य श्रुतसमुद्रगणिना एक शिष्य हता. आ श्रुतसमुद्रगणिने सं.१५५९मां समवायांगनी प्रत लखावी भेट थई हती. (हाला भं. दा.७) भावविजय उपाध्याय कृत 'षड्त्रिंशत्जल्पविचार' ए नामना चर्चाग्रंथमां जणाव्युं छे के “तपागच्छे श्री विजयदानसूरिराज्ये पं. जीवर्षिगणि विनेया: श्री विजयदानसूरिपाठिता बहुश्रुता इति लोकै: बहुमानवचना: श्री धर्मसागरोपाध्याया आसन्.'' ('विजयतिलकसूरि रास'नी प्रस्तावना) चांदसिंह – देवगिरिना वणिक श्रावक- नाम 'हीरसौभाग्य' देवसी (देवसिंह) आपे छे (सर्ग ६, श्लोक ३९-४०) ते खरूं लागे छे. अत्र लहियानी भूल लागे छे. 'हीरसौभाग्य'मां वणिकनी पत्नीनुं नाम जसमादेवी आप्युं छे ते अहीं जसमाई छे. नाडलाइमां पंडितपद - एनुं वर्ष सं.१६०७ छे. Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मसागर उपाध्याय रास ३२७ उपाध्यायपद - तेनुं वर्ष सं.१६०८ माघ सुद ५ छे. (जुओ हीरसौभाग्य, सर्ग ६ श्लोक ७६) शिवपुरी - एटले सिरोही. त्यां हीरविजयसूरिने आचार्यपद सं.१६१०. अहिमनगर - मारवाड- नागोर. विद्यासागर - नामना एक मुनि प्राय: विजयदानसूरिना शिष्य हता. ए विद्यासागरना शिष्य देवचंद्रे बावन कडीनी ‘सुकोसल मुनि सझाय' सं.१६०२ना आसो मासमां रची. संवत सोत दोय आसो मसवाडइ, थुणीया दोय मुनिपुंगवा ए. ५१ श्री विजयदानसूरींद श्री विद्यासागर, सेवक देवचंद इम भणइ ए. ५२ परंत आरासमां उल्लेखित विद्यासागर तो जीवराज पंडितना गरुभाई जजणाय छे. ते विद्यासागर श्रुतसमुद्रगणिना एक शिष्य हता अने तेनी शिष्यपरंपरा नीचेनी लेखकप्रशस्ति पाटणना हालाभाई भंडारमा दाबडा ७१मा ‘सप्तति'ना टबानी प्रति छे तेमांथी मळे छे. “सं.१७३३ वर्षे मार्गशीर्ष मासे शुक्लपक्षे प्रतिपदा चंद्रवासरे लिखितं अवंती समीपे अबदालपुरा मध्ये तपागच्छे पंडितश्री श्रुतसमुद्रगणिशिष्य वाचकावतंसशिरोमणि महोपाध्यायश्री विद्यासागरगणिशिष्य पंडित श्री सहजसागरगणिशिष्य श्री हेमसागरगणिशिष्य पंडित श्री कीर्तिसागरगणिशिष्य पं. श्री हर्षसागरशि. श्री धीरसागर ग. विनेयाणु पंडित सुविहित साधुशिरोमणि पंडित श्री मानसागर ग. पुण्यसागरेण लिपीकृता मुनि उदयसागर पठनार्थं.'' आम सागरांत नामोनी हार अनुक्रमे चाली आवी छे. आमांना सहजसागरना शिष्य हाथी गणिना शिष्य प्रेमसागरगणिए सं.१६५४ना जेठ वद १ शुक्रवारे ज्ञाताधर्मकथांग सूत्रनो टबो छजाक मध्ये पूर्ण कर्यो. तेनी प्रत जैन एसो. इंडिया पासे १७ पानांनी छे. तत्त्वतरंगिणी - आ ग्रंथनी वृत्तिनी प्रत वाडी पार्श्वनाथना भंडारमा १५मा दाबडामां २४ पानांनी छे. तेनी अंते आ प्रमाणे लखेलुं छे के: "श्री पत्तने भांडागार प्रति:. अस्य ग्रन्थस्य कर्ता श्री अणाहिल्लपतने श्री कर्मसुंदरसूरि श्री स्थिरचंद्रसूरि श्री हर्षविनयसूरि श्री कल्याणरत्नसूरि श्री सिद्धसूरि श्री पद्मानंदसूरि श्री उदयरत्नसूरि श्री विम्लचंद्रसूरि श्री विद्याप्रभसूरि श्री संयमसागरसूरि श्री महीसागरसूरि श्री विनयतिलकसूरिप्रमृतिभिः सर्वगच्छमुनिभिः श्री जिनशासनाबहिष्कृत: उत्सूत्रप्ररूपकत्वात् धर्मसागर इति. संवत् १६१७ वर्षे कार्तिक सुदी सप्तमीदिने शुक्रवारे श्री पत्तनमध्ये.'' एटले आ ग्रंथ सं.१६१७ पहेला रचायो हतो अने तेनो बहिष्कार सर्वे सूरिओए मळी को हतो. ते पैकी उदयरत्नसूरि ते पिंपलगच्छना हता के जेनो धातुप्रतिमा लेख सं.१६१७नो बु.१मां लब्ध छे. नेमिसागर अने भक्तिसागर - आ बंनेए धर्मसागरना स्वर्गवास पछी धर्मसागरना मंतव्यो माटे पूरी झुंबेश उपाडी हती अने सागरपक्षनां ममत्वने लीधे तपागच्छना मुनिमंडलमां भारे Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह ३२८ खळभळाट थयो हतो. आ बे मुनिने माटे सं. १६७१मां तपागच्छनायक विजयसेनसूरिने गच्छ बहारनो नीचे प्रमाणे पटो काढवो पड्यो हतो : “छ. स्वस्ति श्री श्री हीरविजयसूरि गुरुभ्यो नमः श्री विजयसेनसूरिभिर्लिख्यते. समस्त साधु साधवी. श्रावक श्राविका योग्यं अपरं उपाध्यायपद श्री लब्धिसागरगणिशिष्य उपाध्याय श्री नेमिसागरगणिनउं उपाध्यायपद पार्छु लीधउं छइ. अनई एभिरा संघातिईं गछनो संबंध टाल्यउ छइ. तथा पं. भक्तिसागरगणि संघाति पणि गछसंबंध टाल्यउ छइ. ए समाचार सहू जाणयो अनइ सर्वत्र जणावयो. सं. १६७१ वर्षे इति भद्रं. छ. " प्रवचनपरीक्षा - सवृत्ति (भां. ३, पृ.१४४ - १५५). आ एक मोटो ग्रंथ छे. तेमां जैन संप्रदायमा चालता केटलाक जुदाजुदा गच्छोनी परंपरा अने मान्यताना संबंधमां खूब खंडनमंडनात्मक विवेचन करेलुं छे. ए ज ग्रंथने लईने पाटणमां अभयदेवसूरि खरतरगच्छमां थया के नहीं ए संबंधी वाद-विवाद सं. १६१७मां मच्यो हतो. आ ग्रंथना प्रत्युत्तर रूपे खरतरगच्छ तरफथी पण एवी ज कोटिनां लखाणो लखायां हतां. ए बधां लखाणो मोटे भागे संस्कृतमां छे. दाखला तरीके गुणविनये 'उत्सूत्रोद्घाटनकुलक' नवानगरमां रच्युं आ ग्रंथने तेना कर्ताना स्वर्गवास पछी तेना शिष्यो विशेष ममत्वथी स्वीकारी तेनी प्ररूपणा करता हता, तेथी विजयसेनसूरिने एक पटो लखी नीचे प्रमाणे जणाववुं पड्यं हतुं : “संवत १६७१ वर्षे पोष शुदि १३ सोमे अहम्मदपुरे श्री विजयसेनसूरिभिर्लिख्यते. समस्त तपागछ - समवाय योग्यं. अम्हारी आज्ञापूर्वक मध्यस्थ पांच गीतार्थ बइसी प्रवचनपरीक्षा ग्रंथ सोधाइ तिवार पछी वांचवउ. अन्यथा न वांचवउ. ते प्रीछयो. इति भद्रम्." आ ग्रंथनी प्रत भांडारकर इन्स्टिट्यूटमां छे तेनुं मूलनाम कर्ताए 'कुपक्षकौशिकसहस्रकिरण' आप्युं हतुं. पण ते जणावे छे के 'प्रवचनपरीक्षा' ए बीजुं नाम हीरविजयसूरिए आप्युं हतुं. पद्मसागर - धर्मसागरगणिना सहोदर भाई विमलसागरगणिना शिष्य हता. तेमणे स्वोपज्ञ टीका सहित ‘नयप्रकाशाष्टक' (पी. ४, १०२, प्र. हे. ग्रं. पाटण), सं. १६३४मां ‘शीलप्रकाश’ (स्थूलिभद्रचरित्र), सं. १६४५मां 'धर्मपरीक्षा' वेरावळमां (प्र. दे. ला.), सं. १६४६मां सौराष्ट्र राष्ट्रस्थिति मंगलपुर मांगरोळमां रहीने हीरविजयसूरिना वृत्तांत रूपे २३३ श्लोकमां 'जगद्गुरुकाव्य' (प्र. य. ग्रं. नं. १४) अने सं. १६५७मां उत्तराध्ययन सूत्रनी बृहद्वृत्तिमांनी प्राकृत कथाओने संस्कृतमां मूकी पीपाड गाममां 'उत्तराध्ययनकथासंग्रह' (वे. नं. १७०३, खेडा भं.)नी रचना करी. तेमां छेवटे जणाव्युं छे के : "भट्टा० श्री विजयसेनसूरि आचार्यश्री ६ विजयदेवसूरि राज्ये सं. १६५७ पीपाड़ ग्रामे पं० विमलसागरगणिशि० पद्मसागरगणिनां गणि प्रेमसागर वाक्येन कथाः कृताः पंडित पद्मसागरैः स्वशिष्य वाक्यप्रणयेन संस्कृताः, पीपाडि पुर्यां जिन पार्श्वनाथकप्रसादतः सत् कुशलाय संत्विमाः. १” Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मसागर उपाध्याय रास ३२९ तेमना बीजा ग्रंथो ‘युक्तिप्रकाश' अने ते पर टीका, 'प्रमाणप्रकाश' अने ते पर वृत्ति, 'तिलकमंजरी-वृत्ति', 'यशोधरचरित' आदि छे. ते जबरा वादी हता. तेणे नरसिंह भट्टने जीत्यो हतो. वादविवाद शिरोहीना नृप पासे थयो ते वखते यज्ञधर्मनी उत्थापना करी अने ब्राह्मणोने हराव्या. प्रतिमा-उत्थापक करमसी भंडारीना सवालनो जवाब आपी निरुत्तर कर्यो ने शिरोहीनो राजा खुश थयो. दिगंबर श्रमण वादीने केवली-आहार अने स्त्रीमक्तिना वादमां जीत्यो. (जओ ऋषभदासनो हीरविजयसरि रास, पृ.२९८-९९.) ___ ईडरमां विजयदेवसूरि गया ते वखते राजा कल्याणमल्ल हतो, तेणे पोताना आश्रित भट्टोनी साथे आचार्य महाराजने तर्कवाद कराव्यो. ते वखते श्री सूरिना पुण्योदयथी तेमनी पासे रहेला अने वादीना दर्परूप सर्पने संहार करनार गरुड समान पंडित श्री पद्मसागरगणिए पोतानी तीव्र तर्कशक्तिथी ते भट्ट पंडितोनो पराजय कर्यो तेथी तेओ बधाए लज्जित थई “अहो ! गुरुमहाराजनी अपूर्व गुरुता छे' एवी रीते स्तुति करतां, राजानी साथे ज सूरीश्वरना चरणकमळमां पोतानुं मस्तक मूक्यु. (गुणविजये गंधारनगरमां श्रावक शा मालजीनी तुष्टि अर्थे विजयदेवसूरि संबंधे लखेलो प्रबंध, तेनो सार श्री जिनविजये पुरातत्त्व, पु.२, पृ.४६१-६३ पर आप्यो छे ते जुओ.) कल्पकिरणावली - ए १४४८ श्लोकप्रमाण सं.१६२८मां दिवाळीने दिवसे राधनपुरमा रची पूरी करी ते कल्पसूत्र परनी संस्कृत टीका छे ने भावनगरनी जैन आत्मानंद सभाए नं.७१मां छपावी प्रकट करी छे. तेमां पोताने हीरविजयसूरिना शिष्य जणावे छे अने तेना संबंधमां प्राय: तेमना शिष्यकृत प्रशस्तिमा जणाव्युं छे के “कलिकालमां पण तेणे तीर्थंकर समान महिमा प्रकट कर्यो छे ते तेना अद्भुत माहात्म्यना दर्शनथी बधाथी गवाय छे" अने धर्मसागरजीना संबंधमां कर्तुं छे के: तेषां विजयिनि राज्ये राजन्ते सकलवाचकोत्तंसाः, श्रीधर्मसागराह्या निखिलागमकनक-कषपट्टा:. ११ कुमतिमतंगज-कुंभस्थलपाटनपाटवेन सिंहसमा:, दुर्दम-वादि-विवादादपि सततं लब्धजयवादा:. १२ "ते (हीरसूरि)ना विजयी राज्यमां सकल वाचकोना आभरणरूप, सर्व आगमरूपी सोनानी कसोटी जेवा, कुमतिरूपी हाथीनां कुंभस्थलने तोडवानी चतुराई वडे सिंह समा, दुर्दम वादीओना विवादमांथी पण सतत् जयवाद प्राप्त करनारा श्री धर्मसागर नामना (वाचक) शोभे छे.'' आ 'किरणावली'नी सेंकडो प्रत लखावनार कुंवरजी शेठनो परिचय तेमा आप्यो छे के “अमदावादवासी संघनायक सहजपाल नामना हता, तेमने मंगा नामनी स्त्रीथी कुंवरजी नामनो पुत्र थयो के जे बालपणाथी पुण्यात्मा ने धर्मकर्मपरायण हतो अने साते क्षेत्रमा धन वापरी जेणे जन्म सफल कर्यो हतो. जेमके, श्री विजयदानसूरि पासे समहोत्सव घणी प्रतिष्ठा तेणे Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह करावी, संघपति थईने सिद्धगिरिनी यात्रा करी, शत्रुजय महातीर्थमां पद्याबंधपुरस्सर (पगथियां बंधावीने) चैत्य कराव्यु. तालध्वज (तळाजा), उज्जयनी[उज्जयंत]गिरि (गिरिनार) ए प्रसिद्ध तीर्थोनो जीर्णोद्धार को. ते संघपतिए ज्ञानावरणकर्मनो नाश करवा गुरुना उपदेशथी पोतानी पदमाइ नामनी स्त्री अने पुत्र विमलदास सहित आ वृत्तिनी पोते शतश: प्रतिओ लखावी." जंबूद्वीप-प्रज्ञप्ति-वृत्ति - आ प्रकट थई नथी. आनी एक प्रत रोयल एशियाटिक सोसायटी मुंबईमा भाउ दाजी संग्रह नं.३०९मा ४५५ पत्रसंख्यानी छे. तेनी प्रशस्ति प्रो. वेलणकरे तैयार करेल केटेलोग नं.१४५९मां आपवामां आवी छे. तेमां एम जणाव्युं छे के ते हीरविजयसूरिए सं.१६३९मां दिवाळीने दिने रची अने तेमा 'कल्पकिरणावली' प्रमुख बहु शास्त्रना रचनार सिद्धांततर्ककाव्यादि वाङ्मयरूपी समुद्रमां मेरुरूप, परवादीना गर्वरूपी पर्वतने छेदनार एवा धर्मसागर नामना वाचके तेमज वानर ऋषि(विजयविमल)ए सहाय आपी तेमज तेनुं संशोधन पाटणमां त. विजयसेनसूरि, कल्याणविजयगणि, कल्याणकुशल अने लब्धिसागरे कर्यु हतुं अने तेनी प्रशस्ति हेमविजये रची. आ परथी कल्पना थाय छे के सूरिना नामे धर्मसागर वाचके मूळमां वृत्ति रची पण ते धर्मसागरजी खंडनशैलीवाळा होवाथी रखे ने तेमां बीजार्नु खंडन होय तेथी तेनुं संशोधन उक्त विद्वानो पासे कराव्यु होय. रच्या मिति सं.१६३९ दिवाळी दिन आपी छे. ज्यारे हीरविजय अकबर पासे हता. ने आ प्रशस्तिमा जणाव्यं छे के अकबरे तेमने बोलाव्या. तेना वचनथी अकबर नृप कृपावाळो थयो ने तेणे - वध्या न देहिन इहेति वदन् वचांसि दत्ते स्म डामरसर: शमि-सिन्दुराणाम्. "प्राणीओ वध्य नथी एवां वचन वदता हवा, शमवंतोमां आगेवान (एवा हीरसूरि)ने डामर सरोवर आप्यु - अर्पण कर्यु.'' धर्मसागरजीना बीजा ग्रंथो - गुर्वावली-पट्टावली सवृत्ति, पर्युषणाशतक सवृत्ति (वे. नं.१८४७, ३६ पत्रनी प्रत रो. ए. सो. मुंबई पासे छे) सर्वज्ञशतक सवृत्ति (के जे ग्रंथे पण मोटो कोलाहल उपजाव्यो हतो), वर्द्धमान-द्वात्रिंशिका (नवरसारूसाज वर्षे (?) १६६९मां ? प्रवर्तक कांतिविजयजी वडोदरा भंडार), षोडशश्लोकी-गुरुतत्त्वप्रदीपदीपिका सविवरण (बुह. नं.३९९) वगेरे छे. आ पैकी 'गुर्वावली'मां तपागच्छना आचार्योनी हीरविजयसूरि सुधीनी परंपरा आपी छे. तेनी एक प्रतनी अंते जणावेलुं छे के हीरविजयसूरिनी आज्ञाथी ते विमलहर्ष, कल्याणविजय, सोमविजय अने लब्धिसागरगणिओए मुनिसुंदरकृत गुर्वावली, जीर्ण पट्टावली, दुःषमा संघस्तोत्र यंत्र वगेरे साथे सरखावी. आ सं.१६४८ना वर्षमा अमदावादमां तपासी हती. लब्धिसागर ते धर्मसागरना शिष्य हता. मुनिसुंदरसूरिकृत 'उपदेशरत्नाकर सवृत्ति'नी 'संवत् १६७२ वर्षे सागानगरे महेत्याध्याय श्री लब्धिसागरगणि वाचन कृते' एम लेखक प्रशस्तिवाळी प्रत खेडाना संघना भंडारमा १९६ पत्रनी छे. हीरविजयसूरिनो स्वर्गवास - सं.१६५२. विजयसेनसूरि खंभातमां - सं.१६५२. Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मसागर उपाध्याय रास ३३१ विजयसेनसूरि खंभातमा ३ वखत आव्या. (१) सं.१६४४मां (चैत्री मारवाडी सं.१६४५) हीरविजयसूरिनी आज्ञाथी सीरोहीथी खंभातमा आवी श्रीमाली ज्ञातिना गंधारवासी परीख जसिया अने जसमादेना पुत्र वजिया अने राजियाए खंभातमां बंधावेला चिंतामणि पार्श्व चैत्यमां श्री चिंतामणिपार्श्वनाथ अने महावीरनी प्रतिमानी प्रतिष्ठा जेठ शुद १२ने सोमवारे करी (जुओ ते संबंधनो ६२ श्लोकनो शिलालेख, बु.र नं.५२९; विजयप्रशस्ति-काव्य, सर्ग ११, श्लो.१७थी ७०; क्षेमकुशलकृत चिंतामणि पार्श्वनाथ स्तवन के जे अप्रगट छे, अने ऋषभदासकृत हीरविजयसूरि रास, पृ.१५२-५४) (२) सं.१६५२मां हीरविजयसूरि भाद्रवा शुद ११ने दिने उनामा स्वर्गस्थ थया त्यारे विजयसेनसूरि पाटणमा हता ने त्यांथी खंभात जई चातुर्मास कर्यु. सं.१६५३ने त्यांथी विहार करी अमदावाद आव्या. (३) सं.१६५६मां आवी विद्याविजयने आचार्यपद आपी विजयदेवसूरि नाम आप्युं ने ते वखते श्रीमल्ले ते सर्व उत्सव करी घj द्रव्य खच्यु. आ पैकी सं.१६५३मा पोते चातुर्मास कर्यु ते वखते तेमणे धर्मसागर उपाध्यायने बोलाव्या हता ने वर्ष पुरुं थतां सं.१६५४ना कार्तिक शुद ९ने दिने उपाध्याये स्वर्गवास कर्यो. उदयकरण - ते संघवी कहेवायो. खंभातनो ओसवाळ अग्रगण्य आगेवान हतो. तेणे हीरविजयसूरि पासे प्रतिमाप्रतिष्ठा करावी हती (ऋषभदासकृत हीरविजयसूरि रास, पृ.२२१) तेनी मिति सं.१६३८ माघ वदी १३ सोम. (बु. २, नं.११२३), तेणे अनेक जिनबिंबो, जिनप्रासादो तेमज उपाश्रयो कराव्यां अने बिंबप्रतिष्ठा पण घणी करावी हती. घणी वार संघ लई यात्राओ करी संघवीनू बिरुद सार्थक कर्यु हतुं. ते महाश्रीमंत हतो. ते माटे सं.१६७९ना मागशर वद मे कवि दर्शनविजये विजयतिलकसूरिना रासनो पहेलो अधिकार रच्यो तेमां जणाव्युं छे के : हवइ निसुणो संयमनी वात, खंभायति नगरी विख्यात; विवहारी कोटीधज घणा, लखेसिरी तणी नही मणा, सहसघरा लहीए लख्य गणा, पार नही विवहारी तणा. ९३ संघवी उदयकरण गुण घणा, बिंब भराव्यां बहु जिनतणां; जिनप्रासाद कराव्या भला, भला उपाश्रय वली केतला. ९४ बिंबप्रतिष्ठा करावी भली, एम काहावति कहीई केतली, 'संघवी' तिलक हवं कई वार, संघे पहराव्या कही कइवार. ९५ लाज घणी वहइ सहु कोइ, उदयकरण मोटो जगि सोई, जेह तणी लखिमीनो पार, न जाणो कुणिं एक लगार. ९६ ऋषभदास सं.१६८५मां ‘मल्लिनाथ रास’नी प्रशस्तिमां खंभातना श्रावको गणावतां कहे छ के सोमकरण संघवी उदयकरण, अधलख्य रूपक ते पुण्यकरण, उस वंसि राजा श्रीमल, अधलख्य रूपकि खरचइ भल. २८४ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह वळी ते ज वर्षमां रचेल ते कविना 'हीरविजयसूरि रास'मां तो ठेकठेकाणे उदयकरणनो उल्लेख आवे छे. (जुओ पृ.२७५) आ उदयकरणे हीरविजयसूरिना स्वर्गवास (१६५२ भाद्र. शु.११)ना पछी विजयसेनसूरिना हाथे महोपाध्याय कल्याणविजय अने धनविजयनी साथे हीरविजयसूरिनी पादुकानी शत्रुजय पर स्थापना करी हती. तेमां संवत १६५२ मागशर वद २ छे ते संवत् प्रकट थवामां के उकेलवामां भूल लागे छे; कारणके विजयसेनसूरि १६५२मां नहीं पण १६५६मां शत्रुजय गया हता. (जि. २, नं.१३)। श्रीमल्ल - सं.१६४६-४७ मां हीरविजयसूरि खंभातमा हता त्यारे श्रीमल्लने त्यां गया हता ने तेणे जयविजयादिने पंन्यासपद आपतां घणुं खर्च कर्यु हतुं. (ऋषभदासकृत हीरविजय रास, पृ.१७०, २७६; विजयतिलकसूरि रास, पृ.२६) विजयसेनसूरि शत्रुजयनी यात्रा करी खंभात पधार्या (सं.१६५६) ते वखते श्रीमल्ले विजयदेवसूरिने आचार्यपद अपाव्यं ने तेना महोत्सव- बधुं खर्च आप्युं हतुं तेनुं वर्णन विजयप्रशस्तिना सर्ग १७ना श्लोक ७थी ५८ तथा ११मां आप्युं छे. [आत्मानंद प्रकाश, आसो वीर सं.२४५७, कारतक, पोष, फागण, चैत्र वीर सं.२४५८, अनुक्रमे पृ.५४-६०, ९२-९७, १४७-५१, १९५-९९, २१४-१७]] Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३३ जिनवर्धनगणिकृत पद्यानुकारी गद्यमय तपगच्छ गुर्वावली (विक्रमना पंदरमा सैकाना उत्तरार्द्धमां – संवत् १४७८मां – जैन श्वेतांबर संप्रदायना अंचलगच्छानुयायी आचार्य माणिक्यसुंदरसूरिए 'पृथ्वीचंद्रचरित्र' नामनी गुजराती भाषामां गद्य रूपे एक रचना करी छ जेनुं बीजुं नाम कर्ताए ‘वाग्विलास' एवं पण आप्यु छे. ए रचना गुजराती भाषाना गद्यना एक उत्तम नमूना रूपे होई घणी सुंदर अने मनोरंजक छे. स्व. साक्षररत्न श्री केशवलाल हर्षदराय ध्रुवे स्वसंपादित 'प्राचीन गूर्जर काव्य'नी प्रस्तावनामां लख्युं छे के: “माणिक्यसुंदरसूरिए जूनी गूजरातीमां गद्यात्मक 'पृथ्वीचंद्रचरित्र' सं.१४७८मां रच्युं छे ते बोलीमा छे. अक्षरना, रूपना, मात्राना अने लयना बंधनथी मुक्त छतां लेवाती छूट भोगवतुं प्रासयुक्त गद्य ते बोली. माणिक्यसुंदर बोलीवाळा प्रबंधने वाग्विलास एटले बोलीनो विलास एवं नाम आपे छे.' एवा वाग्विलासना वर्गमां, उक्त ग्रंथना रचनासंवत्थी चार वर्ष पछी, एटले सं०१४८२मां अक्षयतृतीया दिने, जैन श्वेतांबर तपागच्छना यति जिनवर्द्धनगणिए रचेली, पोताना गच्छनी गुर्वावली, ते ज वर्षमां सुंदर हस्ताक्षरे लखायेली त्रण पत्रनी हस्तप्रत, सद्भाग्ये बीकानेरना साहित्यरसिक बंधु श्री अगरचंद नाहटा पासेथी विगत ओक्टोबर मासमां जे मने सांपडेली तेनी अक्षरश: नकल, काळजीपूर्वक पदन्यास करीने अत्र आपवामां आवे छे. तेनी फोटो नकल पण वडोदराना ओरिएन्टल इन्स्टिट्यूटमाथी में करावी राखी छे. आ कृति परथी विक्रम पंदरमी शताब्दीना उत्तरार्धमां - ईसवी १५मा शतकना प्रारंभमां गुजराती भाषामा विद्वानोनो केवो वाग्विलास हतो, तेमा जोडणी केम लखाती, विभक्तिनां प्रत्ययो, क्रियापदनां रूपो वगेरे कया स्वरूपमा लेखबद्ध थतां एनो सारो ख्याल आवशे; अने ए परथी जूनी गुजरातीमांथी वर्तमान गुजराती उत्क्रान्त थई ते दरमियान जे-जे परिवर्तन थयां ने उत्तरोत्तर क्रमबद्ध परिणतिने भाषा पामती गई तेना थोडा शृंखलाबद्ध अंकोडा भाषाशास्त्रीने मळी रहेशे. विषय ऐतिहासिक छे. श्वे. जैन धर्ममां थयेला अनेक ‘गच्छो' (समूहो)मांना हाल विद्यमान मुख्य त्रण नामे खरतर, तपा, अने अंचल गच्छो पैकी तपागच्छमां जैनोना छेल्ला २४मा तीर्थंकर श्री महावीर स्वामीथी मांडी तेमनी पट्टपरंपरा रूपे जे आचार्यो, अनुक्रमे कर्ताना समयमा सं०१४८२मां विद्यमान ५०मा पट्टधर आचार्य सोमसुंदरसूरि सुधीना थया तेमनी ढूंकी नोंध छे. आ पट्टपरंपरा श्वे. जैन धर्मानुयायीओमां सुप्रसिद्ध छे एटले तेमने मन आमांथी खास महत्त्वनुं बहु ओर्छ मळशे. अत्र आ कृति प्रकाशित करवामां, मारे मन, ऐतिहासिक करतां भाषाविषयक दृष्टि प्राधान्य धरावे छे.) [कर्ता सोमसुंदरसूरिना शिष्य होवानी संभावना छे. प्राप्त प्रतने प्रथमादर्श प्रत लेखीए Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह तो कृति सं.१४८४मां रचायेली मानी शकाय. जुओ जैन गूर्जर कविओ भा.१ पृ.५१-५२ तथा गुजराती साहित्यकोश खं.१ पृ.१२८. – संपा.] ९० श्री वर्द्धमानस्वामिने नमः वितरतु मंगलमाला: समस्तसंघस्य वर्द्धमानजिन:, यत्पदसेवा संप्रति कल्पलताभीष्टफलदाने. १ विमलकेवलज्ञानदिवाकर, सकलत्रैलोक्यलोकशिवशंकर, पादपीठलुठंत चउसट्ठि आखंडल, मोहांधकारसंहारमार्तंडमंडल, देवाधिदेव, त्रिभुवनकृतसेव, मनोवांछितदायक, त्रैलोक्यनायक, प्रतिवोधित-अनेक-भव्यजीवसमाज, अपश्चिम तीर्थाधिराज, श्री वर्द्धमानस्वामि श्रीसंघरहइ मंगलीकमाला करउ. ___ जसनाममंतसमरणि भव्वा पावंति सयलसिद्धीओ, बहुविहलद्विसमिद्धो सो गोयमगणहरो जयउ. २ अनेक गुणतणउ आगर, सकल लब्धितणउ सागर, रूपसौभाग्यतणी खाणि, अमृत समान वाणि, वांछितफलदायक, मुक्तिवधूनायक, सकलजीवलोकपापतापनिर्वापण जलहर, श्री वीर पढम गणहर, श्री गौतमस्वामि श्रीसंघ प्रतिइं ऋद्धि वृद्धि कल्याण निपजावउ. जिणसासणसोहकरो वरदंसणनाणचरणगुणकलिओ, सुविहियगच्छसिरोमणिसिरितवगच्छो चिरं जयउ. ३ जिम देवमाहि इंद्र, जिम ज्योतिश्चक्रमाहि चंद्र, जिम वृक्षमाहि कल्पद्रुम, जिम रक्त वस्तुमाहि विद्रुम, जिम नरेंद्रमाहि राम, जिम रूपवंतमाहि काम, जिम स्त्रीमाहि रंभा, जिम वादित्रमाहि भंभा, जिम सतीमाहि सीता, जिम स्मृतिमाहि गीता, जिम साहसीकमाहि विक्रमदित्य, जिम ग्रहगणमाहि आदित्य, जिम रतनमाहि चिंतामणि, जिम आभरणमाहि चूडामणि, जिम पर्वतमाहि मेरु भूधर, जिम गजेंन्द्रमाहि ऐरावण सिंधुर, जिम रसमाहि घृत, जिम मधुर वस्तुमाहि अमृत, तिम सांप्रति कालि, सकल गच्छ अंतरालि, ज्ञानि विज्ञानि तपि जपि शमि दमि संयमि करी अतुच्छ, ए श्री तपोगच्छ, आचंद्रार्क जयवंतउ वर्तइ. जे श्री तपोगच्छ, मानस सरोवर तणी परि स्वच्छ, आगम-लक्षण-तर्क-साहित्य-छंदअलंकार-प्रमुख सकलविद्या तणउ निधानु, श्री संयमसाधन सावधानु, दुष्कर क्रियाकलापप्रधानु, मुगतिमार्गसाधक, सर्वदोषबाधक, गुणनउ भंडार, चारित्रलक्ष्मीशृंगार, महिमहिमाविशाल, भवताप-तापित भव्यजीवविश्राम रसाल, सकलकुमतखंडन, श्री जिनशासनमंडन प्रवर्तइ छइ. अनइ मुखि तउ जीभ एक, तेहना किम बोलउं गुण अनेक, जिम संपजइ नवनवी संपत्ति, दूरि पलाइ सकल विपत्ति, मनि ऊपजइ मनोहर भत्ति, तेह कारण तउ हिव सांभलउ, श्री तपोगच्छ तणी उत्पत्ति. श्री वर्द्धमानस्वामि तणउ पांचमउ गणघर, चउद पूर्वघर, श्री सुधर्मस्वामि, पाप नासई Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवर्धनगणिकृत पद्यानुकारी गद्यमय तपगच्छ गुर्वावली ३३५ जेहनई नामि, तेह तणइ संतानि, कोटिक इसिई नामिदं गणि, श्री वयरस्वामि तणी शाखां अतुलि, विपुल श्री चंद्रकुलि ए श्री वडगच्छ ऊपनउ, किम, सांभलउ, सावधान थई करी. ईणअं श्री वर्द्धमानस्वामि तणइ पाटि पहिलउ, अनेक गुणमणिभूधर, श्री सुधर्मस्वामि गणघर, जाणिवउ. तेह तणइ पाटि २ श्री जंबूस्वामि हीआमाहि आणिवउ. जीणई श्री जंबूस्वामिइं अतिविनीत, नवपरिणीत, आठ नारी, ९९ कोडि सुवर्णि करी सारी, लीलामात्र परिहरी, अनइ श्री संयमलक्ष्मी वरी. एहं बिहुं आचार्य प्रतिई ऊपनउं विमल केवलज्ञानु, जगमाहि प्रतपिआ जिम भानु. तेह तणइ पाटि ३ श्री प्रभवस्वामि गणधर जीणंइं पांचसई चोर तणउ परिवार छांडी, अनइ संवेग लगइ चारित्रकंन्या मांडी. तेह तणइ पाटि ४ श्री सय्यंभवसूरि, जेह प्रतिइं अज्ञान नाठउं दूरि, जीणं करावतां यज्ञ, मुनिवचन सांभलउं धन्यु, खड्गु काढी पूछिउ तत्त्वविचारु, तउ देखाडइ यानी जिनप्रतिमा सारु, मनि ऊपनउ संवेग अपार, तउ लीधउ संयमभारु, जेहे कीधउ सिद्धांत सारु, ग्रंथ दशवैकालिक चारु, साधिउं मणग चेलानउं काजु, जे अजी वर्त्तइ छइ लगइ आजु. तेह तणइ पाटि ५ श्री यशोभद्र, जेहतउ पामीइं भद्र. हत पाटि ६ बि शिष्य, कृतमोहमल्लविजय श्री संभूतिविजय, अनइ श्री भद्रबाहुस्वामि जे श्री भद्रबाहु गुरु, बुद्धि करी जाणे छइ देवनउ गुरु, जीणअं अनेक नवी नियुक्ति कीधी, तउ पछइ सुखिनं सिद्धांत भणी अर्थसंगति सीधी. अनइ संभूतिविजय तणइ पाटि ७ श्री स्थूलभद्र, जेहनई नामिदं नीपजइ सर्वतोभद्र, जीणं फेडिउ मयण भडवाउ, तउ ऊपनउ जगि जसवाउ, जेह तणउं बोलासिइ चरित्र, चउरासी चउवीसी लगइ पवित्र पछइ गणधर नीपना १४ पूर्वधर. तेह तण पाटि ८, शिष्य २ हुआ; पहिलउ श्री जिनकल्पतुलनाकरणहार, श्री महागिरि गणहार, जेहना संतानविभूषण, अनेक आचार्य नीपना अदूषण. अनइ बीजउ शिष्य, श्री सुहस्तिसूरि दक्ष. तेह तण पाटि ९ श्री सुस्थित- सुप्रतिबद्ध, जगमाहि नीपना प्रसिद्ध, जीहं थिकउ कौटिक गण प्रवर्त्ति. कौटिक किसिउं कहीइ, सांभलउ - जेतलउं वस्तु सर्वज्ञ देखइ, तेहनउ कोडिमउ भाग सूरिमंत्रनउ ध्याणहार पेखइ, तेह कारण कोट्यंश मंत्र बोलाइ, तेह मंत्रनई संबंध गण बोलाइ. तेह तणइ पाटि ११ श्री दिन्नसूरि. तेह तइ पाटि १२ गुणमणिरोहणगिरि, सूरि श्री सिंहगिरि तेह तणइ पाटि १३ दशपूर्वघर, श्री वयरस्वामि गणघर, जीणं बालि कालि रोदननई बलिर्इं माता मनावी, श्री गुरु समीपि आवी, पालनइ सूतई, धर्मनइ धुरि जूतई, ११ अंग Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह सीखी, त्रिनि वरस पडखी, कीधउ राजसभा चमत्कार, पछइ हऊ दीक्षा अंगीकार, जेहनी घणी वार देवे परीक्षा कीधी, तउ आकाशगामिनी शक्ति दीधी, क्रमई पछड गणघर पदवी सीधी. अनइ जीणंई महाविकरालि, दुर्भिक्षनइ कालि, पटविद्यां संघ उद्धरी, जिनशासनि प्रभावना करी, जेह लगइ च्यारि ज्ञान अनइ कोट्यंश मंत्र आविउ, कालविशेषिइं आघउ न चालिउ. तेह तणइ पाटि १४ श्री वयरसेन, तीणं भागी मोहनी-सेन, जीणं न्याय-नीति तणइ आगरि, सोपारइ नगरि, नागेंद्र चंद्र निवृत्ति विद्याधर, गुणमणि तणा सागर, ईश्वरी श्राविकाना ४ पुत्र, दीक्षा देईनइ कीधा पवित्र, तेहं थिकउ ४ शाखा प्रवर्ती. आधी निवृत्ति शाखा न प्रवर्ती. अनइ श्री चंद्र आचार्य थिकउ ए चंद्रकुल, प्रवर्तिउं श्री चंद्रनी परि निर्मल. तेह तणइ पाटि १६ देवदेवीने देवकुलि कसणहार, भीम उपसर्गनउ सहणार, पूर्वगतश्रुतधारक, अरण्यवासकारक, सूरि श्री सामंतभद्र, जिनशासनि हऊउ उनिद्र. तेह तणइ पाटि १७ वडउ श्री देवसूरि. तेह तणइ पाटि १८ श्री प्रद्योतनसूरि. तेह तणइ पाटि १९ श्री मानवदेवसूरि, पुण्यलक्ष्मीतणइ मूलि, जेहे रहे हूंते नडुलि, नगरि सयंभरि मोकलिउ शांतिस्तव, तीणइं विलय गियां संघमाहि अशव. तेह तणइ पाटि २० महिमाउत्तंग, सूरि श्री मानतुंग, जेहे सुप्रभाव ४४ महाकाव्य भक्तामरस्तव जोडी, धाणीनी परि बडबडाट करती ४४ महाअठील फोडी. तेह तणइ पाटि २१ अतिआर्य, श्री वीराचार्य. तेह तणइ पाटि २२ भव्यजीवकृतसेव, सूरि श्री जयदेव. तेह तणइ पाटि २३ सदा परमानंद, सूरि श्री देवानंद. तेह तणइ पाटि २४ जितमोहपराक्रम, सूरि श्री विक्रम. तेह तणइ पाटि २५ बोधितहिंसकयक्ष: श्री नरसिंहसूरि दक्षः. तेह तणइ पाटि २६ गुणसमुद्र, सूरि श्री गुणसमुद्र, जेहे जीपी दिगंबर, नागद्रुह तीर्थ कीधउं श्वेतांबर. तेह तणइ पाटि २७ श्री मानदेवसूरि, अंबिकादत्तसूरिमंत्रकरी गियां कश्मल दूरि, जेह सिउं १४४४ प्रकरणम्उ करणहार, वौधदर्शननिर्धाटनहार, याकिनीसून, महिमा अनून, हरिभद्रसूरि, मैत्री नीपजावइ भूरि. तेह तणइ पाटि २८ श्री विबुधप्रभसूरि. तेह तणइ पाटि २९ श्री जयानंदसूरि. तेह तणइ पाटि ३० श्री रिव(रवि) प्रभसूरि गरिष्ट, जेहे नड्डुलपुरि श्री नेमि कीध प्रतिष्ठ. तेह तणइ पाटि ३१ श्री यशोदेवसूरि. तेह तणइ पाटि ३२ श्री प्रद्युम्नसूरि, जेहरई तपोनियमोपधान तणी घणी सिद्धि, तउ उपधानि आइसी हुई प्रसिद्धि. Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवर्धनगणिकृत पद्यानुकारी गद्यमय तपगच्छ गुर्वावली ३३७ तेह तणइ पाटि ३३ श्री मानदेवसूरि. तेह तणइ पाटि ३४ भव्यकैरवचंद्र, सूरि श्री विमलचंद्र. तेह तणइ पाटि ३५ जिनशासन-उद्योतन, सूरि श्री प्रद्योतन. जे ९९४ विक्रम संवत्सरि, पहुता श्री अर्बुद परिसरि, अर्बुदनी पाजनइ ठामि, प्रसिद्ध टेलीग्रामि, वटवृक्ष हेठि, मुहूर्तरहिं दीधी ट्रेठि. ८ सूरिपद स्थापना कीधी, तिवार पूठिई वडगच्छ प्रसिद्धि सीधी. तेह तणइ पाटि ३६ श्री सर्वदेवसूरि. तेह तणइ पाटि ३७ श्री देवसूरि, जेहरई श्री अर्बुदाचलनइ भूपालि, रूपश्री इसिउं नाम दीधउं ईणं कलिकालि. तेह तणइ पाटि ३८ श्री सर्वदेवसूरि. तेह तणइ पाटि ३९ श्री यशोदेवसूरि. तेह तणइ पाटि ४० श्री मुनिचंद्रसूरि, अनइ श्री मानदेवसूरि, जे श्री मुनिचंद्रसूरिरहिं 'आछणीया' इसिउं नाम, छ विगइपरिहारपरिणाम. तेह बिहुं तणइ पाटइ ४१ श्री अजितदेवसूरि. श्री वादीश्री देवसूरि प्रमुख नही केहनइ घाटि. अनइ श्री अजितदेवसूरितणइ पाटि ४२ श्री विजयसिंहसूरि. तेह तणइ पाटि ४३ श्री मणिरत्नसरि. तेह तणइ पाटि ४४ श्री जगच्चंद्रसूरि, जेहरई प्रमाद नाठउ दूरि. निय गुरु-पयतलि बाल जिम भणतां आइम अंग, ततखणि जस मणि उल्लसिउ बहुत संयमरंग. १ कलिमलकद्दमि अइकलिउं जिणि उद्धरिउं चरित्तु, तिणि कारणि जिणि वीरजिणसासण कीउं पवित्तु. २ जिणि कीधउं आंबिल तणउं जावजीव पचखाण, तिणि गुणि महीयलि ऊपनउं गच्छह तवाभिहाण. ३ जिणसासण-वर-कुमुअवण-बोहण पूनिमचंद, जां रवि चंदा तां जयउ जगचंद मुणिंद. ४ जेहे श्री गुरे वाचतां श्री आचारांग, अध्ययन शस्त्रपरिज्ञा चंग, जाणिउ छ जीव तणउ विचार, मनि ऊपनउ संवेग अपार, पांचइ इंद्रीय संकलई, तउ गुरु मोकलावी नीकलइ, चित्रावाल गच्छ, श्री देवभद्रगणि स्वच्छ, तिहां चारित्र उपसंपद प्रामी, तउ पच्छइ हऊउ सुविहित स्वामी, जेहरइं मोक्षमार्गि अतुल शंबल, जावज्जीव पच्चक्खाण आंबिल, एह वडगच्छरहई तेह कारण, तपगच्छ हुउं नाम पापवारण. जो चंदमंडल-कंति-निम्मल सूरि गुणमणि-सायरो, तव-नियम-संयम-खंति-मद्दव-चरण-करण-गुणायरो, Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह छज्जीवरक्खण अइ विचक्खण लोयबोहण सायरो, जगचंद गणहर वाणि जलहर जयउ जाम दिवायरो. १ तेह तणइ पाटि ४५ श्री देवेंद्रसूरि, जेहरइं अज्ञान गिउं दूरि, जेहे गुरे श्री दिनकृत्यसूत्रवृत्ति, पांच कर्मग्रंथ-सूत्र-वृत्ति, सिद्धपंचासिकासूत्र वृत्ति, श्री धर्मरत्नवृत्ति, सुदर्शनाचरित्र, त्रिनि भाष्य प्रमुख अनेक ग्रंथ कीधा, जे श्री गुरु खंभाइति नगरि कुमारविहार प्रासादि, मेघ जिम गंभीर नादि, धर्मदेशनां ४ वेद वखाणता, ब्राह्मणादिक अनेक सभ्य आवता, तिहां १८ शत मुहपती तणउ व्यापार, जेहे कीजइ षडविध आवश्यक विचार. ___ तेह तणा शिष्य ४६ श्री विद्यानंदसूरि श्री धर्मघोषसूरि, हूया बि वांधव अतिशय तणइ पूरि, जे श्री विद्यानंदसूरि रहइं संवत् १३०२ वरी [करी] कन्या तणउ परिहार, चारित्रकन्या तणउ अंगीकार. सुख संपदा तणइ सागरि, पाल्हणपुरि नगरि, पाल्हणविहार प्रासादि, अनेक तूर्य निनादि, १३२३ आचार्यपद, संघनई मनि आणंद संपद, प्रासाद मंडपि कुंकुमवृष्टि, लोके ते वात दीठी निज दृष्टि, मनमाहि विस्मय अपार, तउ पात्रि अंबिका अवतार, लोक हऊ सावधान, तीणं इसिउं वचन बोलिउं प्रधान, ए उत्तम पुरुष पदठवणि, देवे उच्छव किउ इणि भवणि, ए वड महिमा देखि, तउ संघ नाचइ हर्षविशेषि, अनेकि सीकिरिधर व्यवहारीया तणउ संयोग, तिणि प्रासादि ५०० वीसलपुरीय भोग. तथा – श्री धर्मघोषसूरि सुविचार, जेरहि [ह]उं १३२७ पदठवण आचार, जेहे गुरे अतिशय लगइ योग्य अवधारिउ, सा. पेथड परिग्रहपरिमाण संक्षेपतउ निवारिउ; जेणंइं पेथडसाहि ८४ उत्तुंग तोरण प्रासाद कराव्या, ७ ज्ञानभंडार भराव्या, अनइ २१ धडी सुवर्ण, श्री शत्रुजय मूलप्रासाद कीधउ वर्णि सुवर्णि; जेह तणउ पुत्र, सा. झाझणदे पवित्र, जीणइं बिहु तीर्थ एकूज ध्वज, देईअनइ आत्मा कीधउ अरज. अनइ जे गुरुरहइ देवकई पाटणि, सुमुद्रिइं दिखाडिउं चिंतामणि, अनइ तिहां गोमुख यक्ष, का[उ]सगप्रभावि हऊउ प्रत्यक्ष, उपदेश देई बूझविउ, मिथ्यात्व करतउ ते पाप सूझविउ. ___ तथा - विद्यापुरि ग्रामि, जाणी वडां मूकावियां जूआं, ते संध्यानइ समइ पाषाण हूआं. तथा – एकदा प्रभाति देतां उपदेश, कुणई एकि गलइ विकुर्विया केश, श्राविका जाणी दुष्ट, तउ आसणि विलाइउ पट्ट, जाती देखी लोके हसी, पाछी आवीनइ खूणइ खुसी, गुरु कन्हइ ए स्वरूप पूछी, तउ श्रावके ते अतिघणउं दोछी, पछइ ऊठी पाये पडइ, तउ पाटलउ जूउ अडवडइ. ___ तथा - उज्जयिनी नगरि, एक वसइ योगी पणि प्रत्यनीक, ते माहात्मानइं दिखाडइ बीक, तेह कारण माहतमा तिहां न जाइं, तिम तिम योगी हियामाहि न माई. एकदा गुरु तिहां आव्या, तउ योगीइं बोलाव्या, रहियो धीर थाई इण गामि, गुरि भणिउं रहिया छउं इण ठामि, पटि आछादी कुंभ, गुरि कीधर ध्यान अदंभ, योगी गाढ आरड करंत, तर नमिट गुरुपय अणमग्न. Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवर्धनगणिकृत पद्यानुकारी गद्यमय तपगच्छ गुर्वावली ३३९ एकदा रात्रि मझारि, आवी शाकिणी च्यारि, गुरुनी पाटि उपाडी ते नीकली, गुरे जाणी मंत्र शक्ति संकली, तउ गाढी टलवली, वचनि दीधइ कीधी मोकली. एकदा सर्पनइ डंसि विकरालि, प्रभातनइ कालि, काष्टवाहक भारा अंतरालि, लिवारी विषापहारिणी वेलि, तिणि लांखिउं विष सघलउं ठेलि स्थानकि स्थानकि जेह गुरु तणा अनेक प्रभाव, ते सवे किम हूं बोलउं मूर्खस्वभाव. एकदा एक महुतई, अति विचक्षण हूतई, आठ यमकनउं काव्य भणी, इसिउं बोलिउं गुरु भणी, हवडां ए (ह) वहूं काव्य, कुणहई किमहइ न हुई श्राव्य, गुरे कहिउं नाथि, महानुभाग अणाथि, पछs एक रात्रि मज्झारि, आठ आठ यमक विचारि, स्तवी देव चउवीस, स्तुति कीधी अठ्ठावीस, अमृत पाहई अति मीठी, प्रभाति ते थुई महुंतई दीठी, ऊपन चमत्कार गाढउ, हियइ महुंतउ हऊउ टाढउ अनइ जेहे श्री गुरे श्री संघाचारभाष्यवृत्ति, श्री शत्रुंजयकल्प, कायस्थितिभवस्थिति-स्तवन, अति यमक श्लेषमय अनेक स्तुति स्तोत्र कीधां, ते अद्यापि वर्त्तई छई प्रसीधां. तेह तणइ पाटि ४७ श्री सोमप्रमसूरि, जेहनई ११ आग (म)नां सूत्रार्थ आवतां जिम गंगानइ पूरि, जेहनां कीधां सविस्तर जीतकल्प, यमकमय अनेक स्तुति वर्त्तई छइं. तेह तणइ पाटि ४८ तेह तणा ४ शिष्य श्री विमलप्रभसूरि ( १ ), श्री परमानंदसूरि २, महाजयणापर श्री पद्मतिलकसूरि ३, महाभाग्यसौभाग्य प्रतापिइं करी भूरि, श्री सोमतिलकसूरि ४. जे श्री गुरु भवियण-मण-मिच्छत्त-जण [ जड] - उम्मूलण गयराय, पंडियजणमणरंजणउ सोमतिलय भडवाउ. २ गुरुराय. १ सयलि महीतल झगमगइ अज्जवि जसु जसवाउ, जेहे भग्गउ अतुलबल मोहराय जेहे खेतसमास मुख कीधा ग्रंथ बहूत, गच्छ गच्छंतरि वापर ते अज्जवि सब्भूत. ३ रयणायरि रयणहं तणउ नो लब्भइ जिम पार, जस्स [सस ] हरुज्जल रोग गुण न गणाई तिम सार. ४ देस-वदेसिइं जाणीइ जसु गुरु तणउं [ अ ]भिहाण, सोमतिलय गुरु सो जयउ सुविहिय सूरिपहाण. ५ जेह गुरुना अनेक चमत्कार, किम, सांभलउ मालव मंडल मझारि, संध्यां शकुन विचारि, नवस्थानकि कीधउं संस्तारकसंग, पूर्विलइ स्थानकि शिलापाति हुउउ मात्रक - भंग. तथा – सविहुं देसि पहाणि, देशि गुर्जरात्र [त्रा ] भिहाणि, कुणइ एकं संनिवेशि, उपाश्रय तणइ प्रवेशि, पाषाण ऊपरि मूकिउ पाउ [य], तत्काल जाणिउ अपाय, शिला ऊपाडी दीधी - Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह द्रेठि, दुष्ट क्षुद्र नीकलीउं तउ हेठि. तथा – कुणहं एकं व्यंतरि अवतारि, इसिउं बोलिउं वचन सुविचारि, तुम्हारउं गुरु तेज अम्हे सही न सकउं ए वात सही.. तथा – रात्रिइं पडिकमणानइ कालि, जेह तणा ओघा विचालि, दीसतउ तेजनउ विकाश, जीणंई थातउ कांई एक प्रकाश, जेहना ईस्या अनेक प्रभाव ते सव्वे किम बोलइ अजाणस्वभाव. जे श्री गुरुरहई १३५५ जन्म, १३६७ दीक्षा, १३७३ श्री सूरिपद, १४२४ स्वर्गसंपद. यथा - जो छंद लक्खण तक्क आगम पमुह ग्रंथ सुजाणओ, जो भव्व-माणस-कमल-काणण-बोहणे नव-भाणुओ. सो संघलोयण अमियअंजण सरिस मूरति नंदओ, सिरि सोमतिलओ सूरितिलओ जाम तिहुयणि चंदओ. १ श्री सोमतिलकसूरिना ३ शिष्य, अतिहिं दक्ष. अनेक स्तुति स्तोत्र सूत्रण सूत्रधार, निरंतर विद्याना सत्रूगार, प्रतिबोधित अनेक अनार्य, श्री चंद्रशेखर आचार्य. अनइ सकलविद्या-कंठकंदलहार, स्थूलभद्रचरित्र प्ररूपणहार; नंदपद्रि वर नगरि, अनेक देशांतरागत अनेक विद्वांससभा अभ्यंतरि, वचनकला निर्मित स[क]ल सभा आणंद, सूरि श्री जयाणंद, जेहरइं साजण भाई दीक्षा अंतराय कर[त]उ, देवतां चपेटां आहणी कीधउ मानतउ. ___अनइ त्रीजा शिष्य श्री महावीरथिकउ ४९ पाट-धुरंधर, श्रीमत् श्री देवसुंदरसूरि गुरुपुरंदर. जे श्री देवसुंदरसूरि गुरु महाभाग्यवंत, गुहिर गंभीर, निर्जितकंदर्पवीर, अनेक गुणमणितणी खाणि, अमृत समान वाणि, श्रीसंघलोकमानसहंस, सुविहितसूरिमस्तकअवतंस, निस्संगचूडामणि, सकलजाण-शरोमणि, सर्वविद्या तणउ आगार, नवकल्पविहार, बइतालीसदोषवर्जित आहार, श्री जिनशासनशृंगार, युगप्रधानावतार, सायर जिम गंभीर गुरु तपतेजिहिं नवभाणु, गंगाजल जिम निम्मलउ गुरुअडि मेरु समाण. १ अपमत्तउ भारंड जिम गुत्तिंदिय जिम कुम्म, पंकय जिम निल्लेव बहु लक्खण वंजण रम्म. २ सिरिजिणसासणनहयलदिणयरसरिसं थुणेमि मुणिरायं, सिरिदेवसुंदरगुरुं भारहखित्ते जुगपहाणं. ३ जिणि लीलमित्तिइं मयण जीतउ सयल तिहुअण-सल्लउ, जो सयल सुविहियसूरिमस्तकरयणसेहर तुल्लउ. सोभागसुंदर गुरु पुरंदर वयणि जणमण मोहए, सिरि देवसुंदरसूरि गणघर वीरसासणि सोहए. ४ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवर्धनगणिकृत पद्यानुकारी गद्यमय तपगच्छ गुर्वावली ३४१ कसमीर मरहठ चीण कुंकुण अंग वंग तिलंगए, सोरठ्ठ सवालख देश गुर्जर गौड चौड कलिंगए, कोरंट कोसल देश कोशिक मूलथाण कनूजए, जसु कीर्ति झलकति सूरि नंदउ देवसुंदर सो जए. ५ हमीर हर्मुज सिंधु जलपथ ओडियाण खुरसाणए, पंवाल जंगल मेदपाट करहाट लाट कर्णाटए, नेपाल मंडल मगध मालव पमुह देसविदेसए, जसु कीर्ति झलकति सूरि नंदउ देवसुंदर सो जए. ६ जोगी उदायी पाइ पाटणि गूगडीय सरोवरे, बहु लोय पेखति जस्स पणमिय पायपउम मणोहरो, तउ लोअ पूच्छति जोगि जंपति एस पुरिस जुगुत्तमो, गिरिनारि कणयरी सिद्धि कहिउ तेण कारणि हुं नमो. ७ नहयलिहिं दिणयर जाम जाम रोहणि चिंतामणि, सुरपति मस्तकि जाम तेजि दीपइ चूडामणि, सुरतरु सोहइ जाम मेरु नंदण वणकाणणि, जिणवर भासिय धम्म जाम निवसइ सज्जण-मणि, तामेव गुणवन वर पाटधरण वीरसासणि गणहर भयउ, सिरि संघ गच्छ परिवार सहित देवसुंदर मुणिवर जयउ. ८ अनइ श्री गिरिनार पर्वति श्री कुलमंडनसूरि प्रतिइं हुई अंबिका आदेश सिद्धि, जे श्री देवसुंदरसूरिनइं कही चउथइ भवांतरि सिद्धि, जे श्री गुरु प्रतिइं १३९७ वर्षे जन्म, १४०४ दीक्षा, संवत् १४०२० (१४२०) वर्षे दीउं आचार्यपद, संवत् १४०६८ (१४६८) वर्षे स्वर्गसंपद. जिम जंबूद्वीपमाहि पांच मेरु सुणीइं, तिम तेह गुरुनइ पांच आचार्यशिष्य भणीइं. कुण कुण, सांभलउ - निर्मल वैराग्य तणउ आगर, सकल सिद्धांतनउ सागर, सूरि श्री ज्ञानसागर. १. तथा – सर्वमतवितंडाखंडन, श्री जिनशासनमंडन, सूरि श्री कुलमंडन २. बुद्धिइं सुरु (सुरगुरु) समान, क्रियारत्नसमुच्चय ग्रंथकारक, सकलप्रमादनिवारक, चतुर्दशविद्याकृतनिरंतरयत्न, सूरि श्री गुणरत्न ३.अमीयसमान देशना, बूझवइ लोक अनेक देशना, उपशमरससागर, गुणमणिआगर, भाग्यसौभाग्य-सुंदर, सज्जनजन-पुरंदर, सूरि श्री सोमसुंदर ४. सर्वगच्छकार्यधुरीण, सकलविद्यापारीण, विमलकलाकलापविशाल, जिनशासन-मानस-मराल, श्रीसंयममार्गबहुयतन, सूरि श्री साधुरत्न ५. तेह माहि काल तणइ अनुभावि प्रथम ३ आचार्य अनइ श्री साधुरत्नसूरि गुरु, अनुभवई Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह देवभवनि सुख पूरु. अनइ श्री महावीर थिकउ ५० पाट धुरंधर, सकलसूरिपुरंदर श्री श्री श्री सोमसुंदरसूरि गुरुपुरंदर हवडां जे निज प्रतापिइं जयवंता वर्त्तइं. जे श्री सोमसुंदरसूरि गुरु उत्तम भाग्यनिधान, सकल युगप्रधान, चारित्रलक्ष्मी-कंठ-कंदलहार, निरुपम ज्ञानभंडार, सकलसूरिशिरोमणि, श्री तपोगच्छनभोमणि, कुवादिमतंगजसीह, निर्मल क्रियावंतमाहि लीह, चउद-विद्या-आगर, गंभीरिमतर्जित-सागर, अज्ञानतिमिर-निराकरण सूर, कषायदावानल वारिपूर, निजदशनाविबोधितानेकदेशजन, निजगुणलक्ष्मीप्रीणितसज्जन, नवकल्पविहार, बइतालीस दोषवर्जित आहार, श्रीजिनशासन-शृंगार, युगप्रधानावतार. जेहे गुरे संस्थाप्या ४ आचार्य, चारित्रभारधरण धुर्य. कुण कुण, सांभलउ - भविकजनपुरंदर, सूरि श्री मुनिसुंदर, जेहे चीठ्ठडउं करी अठोत्तर सउ हाथप्रमाणु, परवादी तणउं ऊतारिउं माण. भविककुमुदविकाशन वितंद्रचंद्र, सूरि श्री जयचंद्र, जेहे वृहस्पति जीतउ गुणविवेकि, समस्यास्तव, कलापकसूत्रनिबद्धश्रीशत्रुजयस्तोत्रवृत्ति प्रमुख कीधां शास्त्र अनेकि. बुद्धिइं जितदेवगुरु, श्री भुवनसुंदरसूरि गुरु. निजधैर्यनिर्जितमंदर, सूरि श्री जिनसुंदर. जे करइं करावई स्वाध्याय, इस्या वर्त्तई श्री जिनकीर्त्तिगणि उपाध्याय प्रमुख ४ अनेकगुणमणिमंडित, वर्त्तइ छइं पंडित. मुनि महासती न लामइ पार, जेह गुरुनउ एवडउ परिवार. भवियणकुमुयविबोहणससिकरसारिच्छ तिहुयणाणंदो, सिरि सोमसुंदरगुरु चिरकालं जयउ जुगपवरो. १ आसोअ पुन्निम विमलमंडल चंद्रकंतिहिं सोहणा, जसु कित्तिकामिणि भमइ अहनिशि तिजयजणमणमोहणा, सिरि सोमसुंदर गुरुपुरंदर जणियजणमणतोसओ, सो जयउ सुहुगुरु तिजयलोयह सयलनासियसंसओ. २ तवगच्छ निम्मल विपुल नहयल भासणेह नभोमणी, जो सयलसुविहिअसूरिचूलामण्डणिक्कसिरोमणी, सिरि सोमसुंदर० सो जयउ सुहुगुरु. ३ सिरिवीरसासणपवरजलनिहिवुड्डि-चंदसमाणओ, ___दहचतुरविज्जावहूय-वयणोदारकुण्डलसंनिहो, सिरि सोमसुंदर० सो जयउ सुहुगुरु० ४ जो सयलमवियणपवरसिवपुरनयणविपुलसुसंदणो, संवेगचंगो विगयसंगो मयणमाणविहण्डणो सिरि सोमसुंदर. सो जयउ सुहुगुरु० ५ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवर्धनगणिकृत पद्यानुकारी गद्यमय तपगच्छ गुर्वावली ३४३ गुज्जर मालव मेदपाट मरहट्ट कलिंगिहिं, सिंधु जलपथि कन्यकुब्जि कर्णाटि सुभोटिहिं; हरमुज कोसल पमुह देसि जसु कित्तिअ गज्जइ; जां दिणयर वर चंद मेरु पुहवीतलि छज्जइ; तां वीरनाह जिणवर थिकउ पंचासम वर पाटधर, सिरिगच्छसंघ परिवारिसहित सोमसुंदर गुरु जयउ चिरु. ६ - इति श्री श्री श्री तपोगच्छ गुर्वावली समाप्ता. विबुधवर पं. जिनवर्द्धनगणिभिः विरचिता. सं०१४०८२ (१४८२) वर्षे वैशाख शुदि ३ दिने अलेखि. [पत्र सं.३, अभय. नं.१६७७] [भारतीय विद्या, मार्च १९४०, पृ.१३३-४६] Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ ज्ञानकीर्तिकृत तपगच्छ गुर्वावली (आ कृति सोमसुंदरसूरिना समयमा पंडित ज्ञानकीर्तिगणिए रचेली छे, ते ज्ञानकीर्तिगणि सोमसुंदरसूरिना शिष्य हता अने तेनो उल्लेख सं.१५२४ना ‘सोमसौभाग्य-काव्य'ना सर्ग १०ना श्लोक ५७मां आ रीते छ : श्री. श्रुतशेखराह्वविबुधाः श्रीवीरभृच्छेखरा: श्रीसोमादिमशेखराश्च विदुरा: श्री ज्ञानकीाह्वयाः, चत्वारः श्रुतविश्रुताश्चतुरतासंशोभिता: संशयान् जन्ति स्मासुमतां तमांसि तरणेर्दीप्ता: करौघा इव. “श्रीमान् श्रुतशेखरगणि, श्री वीरशेखरगणि, श्री सोमशेखरगणि, श्री ज्ञानकीर्ति नामना गणि ए चार शास्त्रविख्यात विबुधो – गणिओ चातुर्यथी शोभता हता, अने प्राणीओना संशयोनो, सूर्यना प्रदीप्त किरणोनो समूह अंधकारनो नाश करे तेम, नाश करता हता.' आ कृति सोरठामा छे. भाषा प्राचीन शास्त्रीय गुजराती छे.) [कवि माटे जुओ गुजराती साहित्यकोश, खं.१ पृ.१४२. कृति त्यां नोंधायेली नथी. 'जैन गूर्जर कविओ' मां कवि नोंधायेला नथी. ___ हस्तप्रतमां आ कृति पछी ‘सोमसुंदरसूरि स्तुति' लखायेली छे. बन्ने कृतिओमां कर्तानाम नथी. पण अंते 'पं. ज्ञानकीर्तिगणिभिः कृता:' एम शब्दो मळे छे तेथी बन्ने कृतिओ ज्ञानकीर्तिगणिनी रचेली छे एम समजाय छे. पण आ कृतिमां 'भुवनसुंदरसूरि ने गुरु तरीके उल्लेख्या छे तेथी ‘पट्टावली समुच्चय भा.२' आने भुवनसुंदरसूरिशिष्यनी कृति गणे छे. ज्ञानकीर्ति भुवनसुंदरसूरिना शिष्य पण होई शके. - संपा.] वीरजीणेसरसीस, गोअमसामिय-पय नमिअ, पंचम सोहमसामि, जंबू पभवानुकंमि हुअ. १ सिघ्भवु सुअसारु, सिरि जसभदु सुभद्दकरो, जयउ सामि संभूअ-विजय भद्दबाह सुगुरो. २ थूलभद्द मुणिराओ, राउतु अभिनवु सीहसरि, जिणि लीधउ जसवाओ, मोहनरेसर जाइ घरि. ३ अज्ज महागिरि सूरि, जिणि जिणकप्पह तुलण किअ, अज्ज सुहत्थि सुसूरि, संपइ निवु जिण बूझविअ. ४ कलि करालि दुकालि, जो गयणंगणि निज्ज बलि, लेवि संघ सुभ देसि, पूरि मणोहर फूलि फलि. ५ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानकीर्तिकृत तपगच्छ गुर्वावली देवहं किउ आणंद, बालकालि गुरुजण वसि, सिरि संघह जयकार, होउ सुसामिउ वइर रिसि. वयरसेण तस सीसु, अमिअवाणि गुणरासि गुरु, विज्जाइर नागिदं, निव्वुइ चंद चउ सीस करु. ७ तिर्हि नामिहिं सुपसिद्ध, चउर साखु अनुकंमि हुआ, चंदगच्छ गणहार, भुवणचंदसूरि संघथुअ. て तिणि कम सिरि उज्झाय, देवभद्दगणि गुणनिलउ, तस्स सीस तवाराउ, सिरि जगचंद गणेसु हुउ. तउ गुणमणिभंडारु, सिरि देविंद मुणिंदवरु, जो आगम बहुलीण, सार सुत्त वर वित्ति करु. १० तस पय (प) उम सुभिंग, विज्जाणंद गणेसु वसु(रु), धम्मधुरंधर जाओ, धम्मघोससूरि जुगपवरु. ११ तस पय सोमसरिच्छ, सोमप्पभसूरि अवयरिउ, तं वंदिअ मण-ईस, पूरउ जो गुणगणभरिउ. १२ विमलचरित्ति सुलीण, विमलप्पभसूरि सातिसउ, सिरि परमाणंदसूरि, पउमतिलयसूरि मणिनिसउ. १३ सोमतिलयसरिराउ, जिण दूसमि सूसमु कियउ रूविहिं धम[मो]वएसि, जाणे गोअम अवयरिउ. १४ चंद जिम झलकंतु, चंदसिहरसूरि अमिअघडु, जयकर सिरि जयानंद, सूरि सुहारसवाणि फुडु. १५ सिरि देवसुंदरसूरि, दीठई मणु आणंद दिअए, मुणिअधमु तसु पासि, रागरोस निक्कंदिअए. १६ तस पटगयणदिणिदु, सिरि नाणसागरसूरिवर, अमिअवाणि गुणखाणि, सिरि सिद्धंतुवएसयरु. १७ सिरि कुलमंडणसुरि, पुव्वमुणीसर गुणनिलउ, लक्खणि छंदि पमाणि, कविकुलमंडणु कुलतिलउ. १८ भविअण-भवदहदाह, वाहिविणासण अमिअघडु, सिरि गुयरयणसूरि, दूरि पणासिअ मोह-भडु. १९ संपइ दूसमकालि, सिरि सोमसुंदर जुगपवरो, अमियरसोवमवाणि, सयलजणह जो सुक्खकरो. २० ६ ९ ३४५ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह संघसुमुद्दसुचंद, साहुरयणसूरिप्पवरो, लक्खण अक्व क्क] अणेग. साहिच्चागमगंथधरो. २१ जगविस्सुअ परभागु, विज्जासायर सूरिवरो, निम्मलनाणपहाणु, निरइआर गुरु चरणघरो. २२ सिरि मुणिसुंदरसूरि, भूरि विबुह जण पत्तजउ, नाण-गभ्भ-वेरग्गि, बालि कालि जोगहिअवउ. २३ सिरि जयचंद सुसूरि, दूरीकउ जणदुहनिवहो, सिद्धंतह उवएसि, पयडियभविअणमुखपहो. २४ भुवणसुंदरसूरि गुरुराय, नायसव्वगंथत्थभरो, निअदंसणमित्तेण, बहुजण परमप्पीइकरो. २५ वायग पंडिअ साहु, महतर पवयणि साहुणि अ, नामगहणि जयकारि, चउविह सिरि संघिहिं थुणि अ. २६ इअ गुरुगुणनामं, थुणइ पगामं जो नरु बहुभत्तिहिं भरिउ, जग-जगडण कामं, दोसारामं दलइ सुसिरि मुत्ती वरिउ. २७ - इति श्री तपागच्छ श्री गुरुवावली समाप्ता. (एक पत्रनी प्रति, कुल पंक्ति २८, दरेक पंक्तिमा ५४ अक्षरो, सोमसुन्दरसूरि स्तुति साथे, मारी पासे) [जैन सत्यप्रकाश, मे १९४२, पृ.४६३-६५] Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४७ विनयसुंदरकृत तपागच्छ गुर्वावली स्वाध्याय (२६मी कडी अहीं कौंसमां मूकी छे ते २५मी कडी पासे x निशानी करी छेवटे उमेरी छे. हीरविजयसूरि अने तेमना पट्टधर शिष्य विजयसेनसूरि विद्यमान हता त्यारे ज आ सझाय रचायेली. छे ए स्पष्ट समजाय एबुं छे. हीरविजयसूरि सं.१६५२मां स्वर्गस्थ थया ते पहेलां आ स्वाध्याय रचायेल छे. आ सझाय विद्यापुरमा कविए पोते ज लखेल छे. विद्यापुर ते वीजापुर. प्राप्त थयेली प्रत एम ने एम उतारी छे.) [आ विनयसुंदर ते सं.१६४४मां 'सुरसुंदरी चोपाइ' रचनार विनयसुंदर होवा संभव छे. ए तपगच्छना ज होय. जुओ जैन गूर्जर कविओ भा.२ पृ.२३० तथा गुजराती साहित्यकोश खं.१ पृ.४११. 'जैन गूर्जर कविओ' मां आ कृति नोंधायेली नथी. आ कृति ‘पट्टावली समुच्चय भा.२’ मां छपायेली छे. – संपा.] सकल-सुरासुर-सेवित-पाय, प्रणमी वीर जिणेसर राय; तस शासन गुरूपदपटधरू, जगतिई थुणस्युं सोहाकरू. १ पहिलं प्रणमउ गौतमस्वामि १, सर्व सिधि हुइं जस लीधइ नामि; सुधर्मस्वामि २ पंचम गणधार, जंबूस्वामि ३ नामि जयकार. २ प्रभवस्वामि ४ तस पटधर नमउ, शय्यंभव ५ पटधर पांचमउ; यशोभद्र ६ भद्रबाहु ७ मुणिंद, थुलभद्र ८ नमता आणंद. ३ तेहना शिष्य दोइ पटधार, सूरीश्वर गुणमणिभंडार; आर्य महागिरि आर्य सुहस्ति ९, संप्रतिराय गुरू भणी प्रशस्ति. ४ श्री कौटिक काकंदक सूरि १०, इंददिन्न ११ दिन्नसूरि १२ गुणभूरि; तस पटि सिंहगिरि १३ श्री वयरस्वामि १४, वज्रसेन गुरु १५ नमउं सिर नामि. ५ नागेंद्रादिक कुल हुआं च्यारि, पणि हुओ चंद्रगच्छ विस्तारि; चंद्रसूरि १६ चंद्र जिम निरमलु, सामंतभद्रसूरि १७ गुणनिलउ. ६ देवसूरि १८ अभिनव देवसूरि, प्रद्योतनसूरि १९ शमसुखपूरि; शांतिस्तवकर सूरि मानदेव २०, मानतुंगसूरि २१ कृतसुरसेव. ७ वीराचार्यसूरि २२ जयदेव २३, देवानंदसूरि २४ प्रणमउं हेव; विक्रमसूरि २५ सूरि नरसिंह २६, समुद्रसूरि २७ ठ्माणकुलसिंह. ८ हरिभद्रसूरि मित्र मानदेव २८, विबुधप्रभसूरि २९ सारउं सेव; जयानंदसूरि ३० रविप्रभ ३१ वली, यशोदेवसूरि ३२ नमउं मन-रली. ९ M० Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह भागा पापना. ११ विमलचंद्रसूरि ३३ सोवनसिद्धि, प्रद्योतनसूरि ३४ बहुत प्रसिद्धि; सर्वदेवसूरि ३५ गुरू तस पाटि, ज्ञानादिक गुणनइ नहीं घाटि. १० अर्बुद परिसरि टेली गामि, शुभ मुहरति वड वडतरू - ठामि; आठ पटोधर गुरू थापना, करतां भय वड- गछ नाम हुउं ते भणी, आज लगइ तस महिमा घणी; रूप श्री गुरू श्री देवसूरि ३६, सर्वदेवसूरि ३७ नमउं गुणभूरि. १२ यशोभद्रसूरि ३८ श्री नेमिचंद्र ३९, तस पटि पणमउं श्री मुनिचंद्र ४०; अजितदेवसूरि ४१ गरिमावंत, वादी देवसूरि ४२ अति बलवंत. १३ विजयसिंहसूरि ४३ करउं प्रणाम, सोमप्रभसूरि ४४ नउं लिउं नाम; तास पाटि गुरू श्री मणिरत्न, सूरि ४५ सुगुरूमंडलि सिररत्न. १४ वडतपगछ जलनिधि चंद्रमा, जगचंद्रसूरि ४६ विमल आतमा; संवत बार पंच्यासी वरसि, तिणि तप-गछ थापिउ मनहरसि. १५ तस पटि सूरि श्री देवेंद्र ४७, विद्यानंदसूरि ४८ सदा अतंद्र; सुविहित यति गुरू श्री धर्मघोष, धर्मकीर्ति गुरू ४९ कृत गुणपोष. १६ मालवमंडलि मंडप दुर्गि, पृथ्वीधर साह गुरुसंसर्गि; अठहत्तर जिणहर उद्धरि, निज संपद सुकृतारथ करी. १७ सोमप्रभरि ५० तस पटि भलउं, सोमतिलक सूरि ५१ गुणगणनिल ; श्री देवसुंदरसूरि ५२ मुनिराय, ज्ञानसागरसूरि ५३ प्रणमउं पाय. १८ श्री सोमसुंदरसूरि ५४ तस पटधणी, अष्टविध गणिसंपद जस घणी; मुनिसुंदरसूरि ५५ अति गुणवंत, रत्नशेखरसूरि ५६ महिमावंत. १९ श्री लक्ष्मीसागर सूरिंद ५७, श्री सुमतिसाधुसूरि ५८ नमउं मुणिंद; हेमवरण जिम निरमल काय, श्री हेमविमलसूरि ५९ नमउं मुनिराय. २० तस पटि गुरू- मुनिजन-अवतंस, युगप्रधान सम जास प्रशंस; आनंदविमलसूरि ६० आनंदकार, दूरि करिउ जिणि सिथिलाचार. २१ भव्य जीव प्रतिबोध्या घणा, गीतारथ मुनिनी नहि मणा; उदयवंत जिनशासन थयउं, कलीकसमल सब दूरइं गयुं. २२ विजयदान दायक सपराण, श्री विजयदानसूरि ६१ शासनभाण; विजयवंत जिनशासन करी, वडलीपुर पामिउं सुरपुरी. २३ संप्रति विजयमान गुरूराज, तस पटि हू जिन अविचल राज; श्री हीरविजयसूरि ६२ सुगुरू मुणिंद, तां प्रतपउ जां मेरूगिरिंद. २४ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयसुंदरकृत तपागच्छ गुर्वावली स्वाध्याय श्री आचारिज- पदवी-धार, श्री विजयसेनसूरि ६३ गणधार; तस पटि वर मणि तिलक समान, उदयवंत हु युगह प्रधान. २५ ( धरमसागर उवझाय प्रधान, विमलहर निरमल अभिधान; कल्याणविजय गुरू करइ कल्याण, त्रिणि उवझाय गछि मेरू समाण. २६) श्री विजयहंस पंडित धुरि लीह, इम अनेक पंडित मुनिसींह; सुविहित साधु साधवी जेह. दिनि दिनि उदयवंत हु तेह. २६ तपगच्छ गुरुनी गुरवावली, भगति भणत पुहती मन- रली; अनुक्रम अनुक्रमि लेई नाम, विनयसुंदर करइ तास प्रणाम. २७ - इति श्री तपागच्छ गुर्वावली स्वाध्याय संपूर्ण. लिखित पं० विनयसुंदरगणिभिर्विद्यापुरे. [जैन धर्म प्रकाश, वैशाख १९८०, पृ. ५७-५९] ३४९ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० तपगच्छनी पट्टावली (आ अधूरी पट्टावली अमोने जैन एसोसियेशन ओफ इंडिया पासेना हस्तलेखोमांथी मळी आवी हती अने ते जे प्रमाणे लखायेली हती ते प्रमाणे विशेष फेरफार कर्या वगर अमे उतारी लई अत्र मूकी छे तेथी मूळ प्रति प्रमाणे संस्कृत श्लोकोमा अशुद्धि एम ने एम रही छे. वळी आ जैन प्राचीन गद्य साहित्यनो उत्तम नमूनो पूरो पाडे छे. ते अधूरी प्रत होवाथी तेनी साल मालूम पडी नथी ए खेदनी वात छे छतां बेएक सैका उपर आ प्रत लखायेली जणाय छे.) [श्री देशाईने मळेली प्रत आरंभ अने अंत बन्ने स्थाने खंडित छे. आ ज पट्टावलीनी अखंड प्रत मळी आवतां मुनि जिनविजये 'जैन साहित्य संशोधक' खं.१ अं.३मां तथा 'विविधगच्छीय पट्टावली संग्रह'मां 'वीर वंशावलि अथवा तपागच्छ वृद्ध पट्टावली' ए नामे प्रकाशित करेल छे. ए जोतां जणाय छे के श्री देशाईए मूळ पट्टावलीनु भाषारूप सुधारी कंईक अर्वाचीन कर्यु छे. ने शब्दार्थो पण कर्या छे. एम पण देखाय छे के श्री देशाईने मळेली हस्तप्रतमां पट्टावलीनो लगभग त्रीजो भाग नथी. ___ अहीं जिनविजयजी संपादित पट्टावलीनो पाठशुद्धि करवामां तथा पाटांतर दर्शाववामां लाभ लीधो छे. पण आरंभअंतना खूटता भागो उमेर्या नथी. कृति अखंड रूपे प्रकाशित थई गई होवा छतां देशाई-संपादित वाचना अहीं साचवी लेवानुं योग्य एटला माटे गण्युं छे के केटलेक स्थाने आ वाचना पण जिनविजयजीसंपादित वाचनाना पाठने सुधारे छे ने एमां छूटी गयेली वीगतोने पण कोइ वार साचवे छे. आ पट्टावलीना कर्तृत्व, रचनाकाळ अने एना स्वरूप विशे जिनविजयजी आ प्रमाणे नोंध करे छे : “आ पट्टावलीनो कर्ता कोण छे ते काइ आदि-अंतमां लख्यु नथी. पट्टावलीनी पूर्णाहुति संवत् १८०६मां थयेला विजयऋद्धिसूरिना स्वर्गवास साथे थाय छे तेथी एम अनुमान करी शकाय के ए ज समय दरम्यान एनी संकलना थई होवी जोईए. पट्टावलीनो कर्ता आणंदसूरगच्छानुयायी कोई यति होवो जोईए, कारणके एमां विजयसेनसूरि पछीनी जे परंपरा आवी छे ते ते ज पक्षनी छे अने विजयदेवसूरि जेवा प्रसिद्ध आचार्य अने तेमना समुदायमाथी क्रियाउद्धार करी संवेग पक्ष स्थापनार सत्यविजय पंन्यास आदिनो एमां जराये उल्लेख नथी. पट्टावली-कर्ता खरेखर बहु संग्राहक रुचिवाळो छे एमां संदेह नथी. तेणे पोतानी ए पट्टावलीमा मळी आवती दरेक ऐतिहासिक हकीकतने नोंधवानी काळजी लीधी छे. आटला विस्तार साथे लखायेली बीजी कोई पट्टावली अमारी जाणमां आवी नथी. एमां वळी संवत सुध्धांनो उल्लेख करेलो छे. जे अन्यत्र मळवो बहु दुर्लभ छे. जोके घणाक ठेकाणे संवतना आंकडाओमां मोटी भूलो पण करेली छे.' – संपा.] १. सुधर्मानी उत्पत्ति : जंबुद्विपमा दक्षिणार्ध भरतमा कुल्लाग संनिवेश नामे नगरे Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपगच्छनी पट्टावली ३५१ के जे २१ कोस लांबु, २१ कोस पहोळु, अने जेमां ४ वर्ण ६ दर्शन ३६ पाखंड वसी रह्या छे, ज्यां वेदव्यास थिल्ल [धम्मिल] विप्र तेनी स्त्री भद्दिला (हारिद्रायण गोत्रथी उपजेली) तेनो पुत्र उत्तराफाल्गुन नक्षत्रे जन्म पाम्यो. नाम सुधर्मा राख्यु. अनुक्रमे यौवनावस्थामां वक्षसगोत्रनी एक कन्या परणावी तेथी सांसारिक सुख भोगवतां एक पुत्री थई. हवे सुधर्मा ४ वेद सांगोपांगनो पाठी छे. तेनी पासे ५०० विद्यार्थी वाडवसुत विद्याभ्यास करे छे पण ते सुधर्माना चित्तमां एक महासंदेह छे अने ते संदेह श्री वीरवचनथी नि:संदेह थयो त्यारे ५०० छात्र युक्त ५० वर्ष गृहस्थपणुं भोगवी संशयछेदक श्री वीरहस्ते दीक्षा लीधी. ४२ वर्ष शिष्यपणे श्री वीर-विनय कीधो. [एतला वर्ष बाणु छद्मस्थपद भोगवी, पुन: वर्ष आठ केवलीपद भोगवी, एवं सर्व आयु वर्ष सोनो संपूर्ण. मास एक चउविहार अणसण. पांचमे आरे पश्चिम दिशि श्री वीरने मुक्ति हुआ पछी वीसे वर्षे श्री गिरनारपर्वतोपरि श्री सुधर्मा नामे श्री वीरना पहेला पटोधरने मुक्ति हुइ. श्री वीरशासनोत्पत्ते: चउद वर्षे जमाली प्रथम निन्हव, सोले वर्षे तिष्यगुप्त द्वितीय निन्हव. प्रथम नाम निग्रंथी श्री वीरने प्रथम पाटे सुधर्मास्वामी जाणवा.] २. जंबुस्वामि उत्पत्ति : पूर्व दिशामां मगधदेश वत्स भूमि राजगृहि नगरी काश्यप गोत्रे श्रेष्ठी ऋषभदत्त अने तेनी स्त्री धारणीथी ५मा ब्रह्म देवलोकथी च्यवीने पुत्रपणे धारणीना गर्भमां उत्पन्न थयो. धारणीने स्वप्नं लाध्यं के जंबवक्ष फळयो-फल्यो छे. आ एंधाणथी जंबुकुमार नाम आप्यु. अनुक्रमे १६ वर्ष थयां त्यारे सुधर्मा स्वामी केवली विचरता आव्या तेना मुखे धर्मोपदेश सांभळी लघुकर्मी जीव जंबुकुमारे चो) व्रत आदर्यु. सुधर्मा केवलीए विहार कर्यो. पुत्रने भोगसमर्थ जाणी वारंवार संसारमा पडवा मातपिता कहे पण जंबु पाणिग्रहण वांछे नहि. मातपितानो हर्ष पूर्ण करवा घणा आग्रहथी उत्तम व्यवहारियानी पुत्री साथे परणाव्यो पण ते साथे स्नेहदृष्टि मांडे नहि. संसारिक मृदुवचन बोले नहि. हावो मुखविकार: स्यात् भावो चित्तसमुद्भवः, विलासो नेत्रजो ज्ञेयो विभ्रमो भ्रूसमुद्भवः. आवी आवी कामचेष्टाथी अंग देखाडे पण जंबु दृष्टि जोडे नहि. एवामां घणा मनुष्यना मुखथी जंबु घेर ९९ क्रोड सुवर्णद्रव्य आव्या सांभळी प्रभव नामनो चोर पल्लिवी ४९९ चोर लई रात्रे जंबु घेर द्रव्य लेवा पेठो. घरना छुटक चोकमां द्रव्यनो ढग करेलो जोई अवस्वापिनी विद्याथी सकल घरना मनुष्यने निद्रामां नाख्या. पछी तालोद्घाटिनी विद्याथी तालुं उघाडी गृहाधीशनी पेठे अबीह थका द्रव्यनी गांठडी बांधी माथे मुकी ४९९ चोर सहर्ष चित्तथी स्वस्थाने जवा उद्युक्त थया. एटलामां जंबुना शीलधर्मना महिमाथी शासनदेवीए स्तंभनी पेठे तेमने निश्चल करी दीधा अने जंबु तद्भवमोक्षपामी छे तेथी Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह अवस्वापिनी निद्रा न आवी एटले प्रभव मेडीए चड्यो अने जोयुं तो रंगशालामा जंबु नवोढा स्त्रीओने उपदेशरूप दृष्टांत कही समजावे छे, अने प्रतिबोधे छे. आ जंबुवचन सांभळी स्त्री पण प्रत्युत्तर रूपे दृष्टांत कहे छे. पण संसारविरक्त थका द्रव्यना ढग चोर ले छे ते सामु जोता नथी. आ मोटुं अचरज जोइ लघुकर्मी जीव प्रभव जंबुकथक दृष्टांत सांभळी मनमां विचारे छे के धन्य आ जंबुकुमारने के ९९ कोडि कनक अने नवोढा नव कन्याथी वेगळो छे. धिक मुजने के हुं राजपुत्र कहेवाउं छु, भिल्ल संगे रही घणा जीवने दृढ बंधन तथा दृढ प्रहार करी त्रासे महा दु:ख आपुं छु तो मारी शी गति थशे ? आq विचारी प्रतिबोध पामी ४९९ परिकर सहित प्रभव आवी जंबुने नम्यो एटले शासनदेवीए ते सकळनो व्रत लेवानो आशय जाणी बंधन थकी मुक्त कर्या. जंबुए पण नव स्त्रीओने प्रतिबोधी प्रभाते स्व मातपिता ९ प्रिया अने तेना मातपिता एम ५२७ मनुष्य युक्त, पुन: ९९ कोडि सुवर्ण पर मूर्छा तजी निर्लोभताए त्यागीपणुं लीधुं. ९९ क्रोड द्रव्य आ प्रमाणे : ६४ क्रोड सासरिये दायचे दीधा. ८ क्रोड मोसाळे पाणिग्रहणने अवसरे तिलक तिलके] दिधा. २७ क्रोड घरचें मूळ द्रव्य. ते तजी १६ वर्ष गृहस्थपणे रही श्री सुधर्मा-हस्ते दीक्षा लीधी. [वर्ष वीस श्री सुधर्मानो विनय शिष्यपणे कीधो. वर्ष चउमालीस युगप्रधानपदे केवलीपद भोगवी, छेहला केवली बिरुद धरावी.] श्री वीरे स्वमुखे श्रेणिकने का के पहेला देवलोक थकी आवी आ सुर्याभदेवे नाटक कीधुं ते देवनो जीव छेल्लो जंबु नामे केवली थशे. ए वचनने अनुसारे जाणवू. [सघलो आउखो वर्ष एसीनो भोगवी, संपूर्ण, प्रभवाने स्वपाटि थापि श्री वीरमुक्ति हुआ पछी वर्ष चोसठे श्री जंबु मोक्ष हुआ. तत्र -] बार वरसहि गोयमो सिधो वीराओ वीसहि सुहमो, ___चउसठीए जंबु वुच्छी तत्व दस ठाणा. दश बोल विच्छेद थया. मण परमोहि [पुलाए आहरि खवग उपसमे कप्पे, संजमतित्र केवल सिज्झणा य जंबूम्मि वुच्छिण्णा.] जंबु-उपमा : लोकोत्तरं ही सौभाग्यं जंबुस्वामिमहामुनेः अद्यापि यं पतिं प्राप्य शिवश्री नान्यमिच्छति. चित्तं न नीतं वनिताविकारैर्वित्तं न नीतं चतुरैश्च चोरे:, यद्देहगेहाद् द्वितीये निशीथे जंबूकुमाराय नमोऽस्तु तस्मै. इति जंबु संबंध, द्वितीय पाट. Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपगच्छनी पट्टावली ३५३ ३. प्रभव : विंध्याचल पर्वतनी तलेटीए जयपुर नगरमां कात्यायनगोत्री जयसेन राजा हतो. तेने बे पुत्र १. प्रभव २. विनयधर. तेमां पिताए गुणथी श्रेष्ठ [जेष्ठ] जाणी नानाने राज्य दीधुं एटले प्रभव क्रोधित थइ घर बहार नीकळी भीलनी पल्लिमां पल्लिपति थइ रह्यो. तेने राजपुत्र जाणी आदर दइ ५०० चोरनो स्वामी कर्यो. ते दुष्टात्मा ४९९ चोर लइ अति क्रुरपणे घणा मनुष्यने उपद्रव करे पण तेने कोइ वारवा समर्थ न थाय. एवामां जंबुने घेर द्रव्यना समुह आव्या छ एम जनमुखे जाणी प्रभव पोताना समुदायने लइ रात्रे जंबुने घेर चोरी करवा पेठो. बीजा सघळा चोरो द्रव्य लेवामां वळग्या एटले प्रभवे मेडीए[मालीये] चढी जोयुं तो जंबु-हाथे नवपरिणित कंकण बांध्यु छे अने संसारमा सर्व अनित्यपणुं छे एम स्त्रीओने समजावे छे. आ उपदेश सांभळी जंबु साथे प्रभवे ३० वर्ष संसारी रही सुधर्मा केवली हस्ते दीक्षा लीधी. ४४ वर्ष जंबुनी सेवा शिष्यपणे करी ११ [वर्ष] युगप्रधान [पदवी] भोगवी. ___ एकदा श्री प्रभवे पोतानी पाटयोग्य [स्वसंघने विषे] कोइने न देखी त्यारे शासनउपयोग देवाथी पूर्व देशमा मगध देश राजगृही नगरीमां वक्षसगोत्री यजुर्वेदी यज्ञारंभ करतो शिय्यंभव वाडव वेदकुंभ दीठो. त्यां स्वख[स्वशिष्य] मोकली यज्ञकुंडनी खींटी हेठे श्री शांतिबिंब दर्शन करी प्रतीबोध पामी श्री प्रभव पासे दीक्षा लीधी. [हवे प्रभवस्वामी सर्वायु वर्ष पंचासीन संपूर्ण पाली] स्वर्गवास वीरात् ७५ वर्षे पाम्या. एवामां श्री पार्श्वनाथना प्रथम गणधर श्री शुभ, तस्य शिष्याचार्य श्री हरिदत्त तस्य शिष्याचार्य श्री समुद्रस्वामि, तस्य शिष्य श्री केशीवीरने वारे तस्य शिष्याचार्य श्री स्वयंप्रभसूरि तस्य शिष्याचार्यश्री रत्नप्रभसूरि प्रगट थया. तेने आचार्यपद वीरात् ५२ वर्षे अपायु. वीरात् ७५ वर्षे उइसा नगर चामुंडा प्रतिबोधी घणा जीवने अभयदान दइ साल्लचि नाम दीधुं. पुन: ते ज नगरना स्वामि परमार श्री उपलदेव प्रति धर्मोपदेश दई १ लाख ९९ हजार गोत्र सहित प्रतिबोध्यो. तेणे श्री पार्श्वनाथनो प्रासाद स्थाप्यो अने ए सूरिए प्रतिष्ठा करी. त्यांथी उपकेश ज्ञाति कहेवाणी. श्री रत्नप्रभसूरिने उपकेश गच्छी लोके कह्या. [तिहां पोहकरण भोजग हुआ. इति चोथो पाट.] ४. सय्यंभवसूरी : वक्षस गोत्र. यज्ञारंभे सगर्भा स्त्रीने त्यागी दीक्षा लीधी. [यज्ञ करता शिय्यंभवने प्रभवस्वामीए संवाद करी यज्ञस्तंभथी श्री शान्तिनाथनी प्रतिमा देखाडीने प्रतिबोधी दीक्षा दीधी.] स्त्रीने मनक नामे पुत्र थयो. ते बेटे पण लघु वये पिता पासे दीक्षा लीधी. पुत्रस्नेहथी साधुआचार शीखववाना उपकारना हेतुए श्री दशवैकालिक नामनु सूत्र दश अध्ययनवाळु रच्यु. [ते बालसाधुनी छ मासनी आयुस्थिति थाकते सूत्र नीपजाव्यो.] ते बाळक साधुपणे ६ मासे ए १० अध्ययन भण्यो. अनुक्रमे Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह ते बालक साधु मरण पाम्यो. त्यारे अन्य साधुए पोतानो पुत्र जाणी गुरूने नेत्रे अश्रुपात थतो जाणी साधु वैराग्यवचन कही समजाव्या. निर्मोही दशामां चेतना आणी समतावान थया. हवे श्री सय्यंभव स्वामीए वर्ष २८ गृहस्थपद भोगव्यु. अने वर्ष ११ श्री प्रभवनी सेवा शिष्यपणे करी. पुन: वर्ष २३ सुधी युगप्रधानपद भोगवी सर्वायु वर्ष ६२ संपूर्ण श्री वीरात् ९८ वर्षे स्वर्ग गया. यतः । कृतं विकालवेलायां दशअध्ययनगर्मितं, दशवैकालिकमिति नाम्ना शास्त्रं वमूव तत्. १ अतः परं भविष्यंति प्राणिनो स्वल्पमेधस; कृतार्थास्ते मनकवद भवंत तत्प्रसादत:. २ श्रुतांभोजस्य किंजल्कमिदं संघोपरोधतः, महाफलसमायातौ न संवद्रे महात्मभिः. ३ ५. तत्पट्टे श्री यशोभद्रस्वामी : तुंगीकायन गोत्र. तेणे संसारीपणुं २२ वर्ष भोगवी श्री सय्यंभव गुरूहस्ते दीक्षा लीधी अने वर्ष १४ तेनी सेवा शिष्यपणे करी पुन: वर्ष ५० युगप्रधानपद भोगवी सर्वायु वर्ष ८६ संपूर्ण वीरात् १४६ए श्रुतकेवली यशोभद्र स्वर्गे गया. [इति पंचम पाटे.] ६. तत्पट्टे संभूतिविजयसूरि १ अने श्री भद्रबाहु २: आ बंने गुरूभाइ जाणवा तेमां श्री संभूतिविजयसूरि ते पट्टधर जाणवा. अने भद्रबाहुस्वामि ते गच्छनी सारसंभाळना करणहार जाणवा. तेमां ते माटे बंनेनो नाम जोडी लख्यो छे. तेमां प्रथम वडा गुरूभाइ श्री संभूतिविजय स्वामी तेनो माढर गोत्र छे अने बीजा लघु गुरुभाइ भद्रबाहु स्वामी तेनो प्राचीन गोत्र छे. हवे संभू० वर्ष ४२ गृहस्थाश्रम भोगवी श्री गुरू यशोभद्र स्वामी पासे दीक्षा लीधी अने ४० तेमना शिष्यपणे कर्या. पुन: ८ वर्ष युगप्रधानपद भोगवी सर्वायु ९० वर्ष संपूर्ण करी वीरात् १५६ वर्षे श्री संभू.[श्री वीरमुक्ति हुआ पछी १५६ वीते] स्वर्गे गया. ____ हवे बीजा लघु गुरूभाई भद्रबाहु : तेनुं कंईक स्वरूप कहे छे. दक्षिण देशमां प्रतिष्ठानपुर नगरे प्राचीनगोत्री वराहमिहर अने लघु बंधव भद्रबाहु नामे वाडव रहे छे. तेणे यशोभद्र स्वामी गुरूनी वाणी सांभळी गुरूहस्ते दीक्षा लीधी. ते बंने बंधव घणे दिने विद्याभ्यास करतां षट् दर्शनना शास्त्रना जाणकार थया. एकदा श्री यशोभद्र चितने विषे चिंतव्यं के आ वडो भाई योग्य छे पण अहंकारी छे, तेथी पदयोग्य नहि अने नानो भाइ भद्रबाहु तेने समतायुक्त श्रुतसमुद्र जाणी सूरि कीधो. एटले वराहमीहर वडोभाइ गुरू अने भद्र० उपर घणो क्रोधे यतिवेश लोपी पुनरपि संसारी थयो. आजीविका हेतुथीं Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपगच्छनी पट्टावली ३५५ पोताना नामनुं वाराहीसंहिता नामे ज्योतिष- शास्त्र निपजावी मनुष्यने निमित्त प्रश्न कहेतो हतो. एकदा राजसभामां आवी वराहमिहरे भूमि पर कुंडाळु करी कह्यु के आज थकी पांचमे दिने पूर्व दिशाथी बीजा प्रहरने अंते आ कुशावर्त [कुडलावर्त] मध्ये अभ्रमार्गथी दैवयोगे बावन पान[पल]मां मत्स्य पडशे. ते सांभळी राजाए श्री भद्रबाहुने कडं, 'आ केवी रीते ?' ज्यारे भद्र० का, 'जे मेह पूर्व दिशथी कह्यो ते मेह इशान कोणथी आवशे. थाकता दिन घडी छ पाछळ रहेशे त्यारे पण छठो दिन पांचमामां भळतांनी मुख्य घडीए ते मछ कुंडाळानी बहार किनारे पडशे. साढा एकावन पलनो तोलमान थशे', अने ते तेम ज थयु. राजाए भद्र०ने प्रशंस्या अने वराह. नि_च्छ्यो. राजा कहे, 'हे मूढ ! आनुं शुं कारण ?' त्यांथी आवता पवनना जोरथी ते मछ शोषाणो तेनी मालीम रही नहि. एटली बुद्धि न्युन एहनी जाणवी. पुनः केटलेक दिने राजासदने राणीए पुत्र जम्यो. एटले वरा० का, 'आनुं आयुष्य १०० वर्ष छे' एटले राजाए भद्र०ने पूछ्युं त्यारे तेणे का, 'आजथी सातमे दिने बिलाडीना मुखथी निश्चय मरण छ.' आ सांभळी राजाए नगरथी सर्व मांजारी कढावी सातमे दिने दासी ते बालकने ओशिंग लेइ नरखे छे. एवामां भावीने वशे अकस्मात् मांजारना मुखना आकारे भोगल खेटीएथी पडी. मस्तकघात थयो ने मरण पाम्यो. श्री भन्नो वचन साचो जाणी घणी आदर कीर्ति थई. राजाए वराहनुं वचन असत्य जाणी देश बहार को. ते पण अनादरथी क्रोध-मरणथी व्यंतर थयो. पहेलां भवनो वेर संभारी गुरूना संघने मारीनो उपद्रव कर्यो. त्यारे [गुरूए] श्रुत-उपयोग दीधो. वराहनो जीव जाणी उपसर्गहर-स्तोत्र निपजाव्यो. तेणे जल मंत्री छांटणथी ते व्यंतर नाठो. श्री संघने समाधि थइ. [श्री भद्रबाहु स्वामीए नवमा पूर्व हूंती कल्पसूत्र उधरीने रचना कीधी.] ते भद्रबाहु वर्ष ४५ संसारपद भोगव्यु. पछी श्री यशोभद्रसूरिहस्ते दीक्षा लीधी. वर्ष १७ शिष्यपणे, वर्ष १४ युगप्रधानपद भोगवी श्री स्थूलभद्रने अतियोग्य विद्याधिक जाणी पोताने पाटे स्थापी सर्व आयु वर्ष ७६ संपूर्ण करी बीरात् ११७ (१७०) [भदबाहु]-संहिताकारक, १ आवश्यक-नियुक्ति, २ पचखाण-नियुक्ति, ३ ओघनियुक्ति, ४ पिंड-नियुक्ति, ५, उतराध्ययन-नियुक्ति, ६ आचारांगनियुक्ति, ७ सुयगडांग-नियुक्ति, ८ दशवैकालिकनियुक्ति ९ व्यवहार-नियुक्ति १० दशाकल्पक-[नियुक्ति] ए दश नियुक्तिकार, अने उपसर्गहरस्तोत्रे महामारिनिवारक, पंच श्रुतकेवली बिरूदधारक श्री भद्रबाहु स्वर्गे गया. ७. स्थूलभद्र : तेनो स्वरूप कंइक लखीए छीए. पूर्वदेश पाडलिपुर नगरे नवमो नंद राजा राज्य करे छे. तेनो नागर ज्ञाति गोतम गोत्री शकडाल नामे मंत्री छे. तेने Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह लक्ष्मी नामे स्त्री छे. तेने स्थूळभद्र अने सिरीओ (श्रीयक)नामे बे पुत्र छे. ते उपरांत ७ पुत्री छे. तेना नाम गाथा : १. जखा, २ जखदीना, ३ भुया तचेव ४ भुयदिन्ना य ५ सेणा ६ वेणा ७ रयणा भयणीयो थूलभद्रस्य. हवे ते स्थूलभद्र वडो भाई पोसाल निशाल भणी वेश्या घेर सांसारिकना सुख विषयासन्न शीखवाने नायका घेर मूक्यो. पूर्वकर्मानुयोग्य तेह-श्यु संग थयो. भोगी भ्रमर थको त्यां ज रह्यो. पिता सुखप्रश्न कहावे, लख सवा द्रव्य मोकले. एम विलास करतां बार क्रोड स्वर्ण स्वाध्या. एवामां वररूचि नामे ब्राह्मण पंडित आव्यो अने राजानी कीर्ति कीधी. द्रव्य देवराव्या. तेने शकडाले द्रव्य [न] दीधो. पछी पंडिते प्रपंच करी राजा पोकार्यो. तेथी अकस्मात लघु भाइ सिरीओ तेना हाथे पितानु मरण जाणी प्रत्यक्षपणे संसारनुं स्वरूप असार देखी वर्ष ३० गृहस्थपणे रही वैराग्यवासीत चित्तथी श्री संभूतिविजय स्वामी हस्ते दीक्षा लीधी. राजा कहे 'ए शुं कीधुं ?' त्यारे स्थु. राजाने कहे : हस्ते मुद्रा मुखे मुद्रा स्यात् पादयोः द्वयो, तत्पश्चात् गृहे मुद्रा व्यापारं पंचमुद्रिकं. पुन: श्री स्थूलिभद्रस्वामी चउद पूर्व सूत्रे भण्या अने दश पूर्व अर्थे भण्या, श्री संभूतिविजयनी सेवा वर्ष २४ करी, अने ४५ वर्ष युगप्रधानपद भोगवी सर्व आयुवर्ष ९९ संपूर्णे वीरात २१५ वर्षे कोशा नामे नायका प्रतिबोधक, गुरू श्री संभूतिविजय दुष्कर दुष्कर कथक त्वंक्ष त्वंक्ष इदं वडं व्रतरक्षक बिरूदधारक श्री स्थूलिभद्र स्वर्गे गया. [ते संघातं पहेलुं वज्रऋषभनाराच संघयण १ अने पहेलुं समचउरंस नामे संस्थान २ पुन: पूर्वनुयोग ३ ए चिहुं वस्तु विच्छेद हूइ.] एवामां श्री वीरात् २१४ वर्षे अव्यक्त नामे त्रीजो निन्हव प्रगट थयो. उक्तं - - केवली चरमो जंबूस्वाम्यथ प्रभवः प्रभुः, शय्यंभवो यशोभद्रः संभूतिविजयस्तथा. १ भद्रबाहुः स्थूलिभद्रः श्रुतकेवलिनो हि षट्, ए छ श्रुत केवली जाणवा. स्थूलभद्रवर्णन : वेश्या रागवती सदा तदनुगा षड्भी रसैर्भोजनं [शनं धाम मनोहर वपुरहो नव्यो वय: संगमे, कालोऽयं जलदाविलस्तदपि यः कामं जिगीयादरात् तं वंदे युवतीप्रबोधकुशलं श्रीस्थूलिभद्रं मुनिम् १] Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५७ तपगच्छनी पट्टावली श्री शांतिनाथादपरो न दानी, दशार्णभद्रादपरो न मानी; श्री शालिभद्रादपरो न भोगी, श्री स्थूलिभद्रादपरो न योगी. २ वीरात् २२० वर्षे बौद्ध मत प्रगट थयो. ८. तत्पट्टे आर्य महागिरिसूरि : तेनुं एलापत्य गोत्र, अने बीजा लघु गुरूभाइ श्री आर्य सुहस्तिसूरि ए बेउ गुरूभाइ जाणवा. तेनुं वाशिष्ट गोत्र छे. तेमां प्रथम श्री आर्य महागिरिसूरि ते पधर जाणवा, अने आर्य सुहस्ति ते गच्छनी सारसंभाळना करणहार जाणवा. ते माटे बंनेनो नाम भेगो जोड्यो छे. तेमां प्रथम वडा गुरूभाई श्री आर्य महागिरि वर्ष ३० सांसारिकपद भोगवी श्री स्थूलिभद्र स्वामि पासे दीक्षा लीधी अने वर्ष ४० शिष्यपणे रही ३० वर्ष युगप्रधान, सर्व आयु १०० वर्ष संपूर्णे लघु गुरूभाई श्री आर्य सुहस्तिने गच्छ भळावी जिनकल्पनी तुलना करी वीरात् २८८[२४५] वर्षे स्वर्गे गया. वीरात् २२० वर्षे सामुच्छेदिक नामा चोथो निन्हव प्रगट थयो. वीरात् २२८ वर्षे गंग नामे पांचमो निन्हव प्रगट थयो. एवामां आर्य सुहस्तीसूरि भव्य जीवने परमोपकारी थका विचरतां श्री मालव देशे उज्जेणी नगरीमां भद्रा नामे सार्थवाही पासे वाहनशाला याची चोमासु रह्या छे त्यां नित्य सझाय ध्यान करे छे. एकदा श्री गुरू प्रतिक्रमण करी प्रथम पोरसी नलिनीगुल्म विमान अध्ययननी सझाय करे छे एटलामा सात भूमिए भद्रा पुत्र अवंतिसुकुमाल नामे ३२ स्त्री साथे सुख साथे सुखविलास करता थका गुरू-कथक अध्ययन मधुर सादे सांभळी एक चित्त थकी जातिसमरण पामी नलिनीगुल्म विमाननो देवसुख दीठो. रात्रीनो विलास मुकी उतावळो मेडी थकी उतरी गुरूने नमीने कडं, 'साधुजी ! तमे कहेलुं नलिनीगुल्म विमाननी देवसुखसाहिबीनी वात अहीं रह्या तमे केम जाणो छो ?' आचार्ये का, ‘श्री जिनवचनानुसारे'. श्रेष्ठीपुत्रे कडं, 'पूज्य ! ए सुख भोगवी अहीं हुं उपज्यो छु तो हवे हुं ए सुख पुनरपि केम पामु ?' गुरूए कह्यु, 'व्रत ल्यो तो ते सुख लहो' त्यारे तेणे भद्रा मातानी आज्ञा लइ बत्रीश कन्या कोटि द्रव्य तजी श्री गुरूहस्ते दीक्षा लीधी. गुरूने कह्यु, 'आ कठीन दीक्षामां घणा दिवस जाय ते सहेवाय नहि, माटे अणशण करूं.' आ सांभळी गुरुए कह्यु, 'तमारा जीवने जेम सुखनो हेतु होय तेम करो.' गुरुवचन तहत्ति कही ज्यां श्मशान हतुं त्यां कंथेरीवनमां काउसग रही अणसण कीधुं. मार्गे जतां कोमलपणाथी बंने पगे कांटा कंथेरना लागवाथी लोहीनां टपकां पड्या छे तेथी तेनी गंधथी रात्रीने विषे नवप्रसूता शियालणी पोताना परिवार सहित ज्यां अवंतिसुकुमाल साधु देहनी मूर्छा तजी काउसग्ग रह्या छे त्यां आवी बंने पगथी मांडी सघळा शरीरना भक्षणरूप महा उपसर्ग कर्यो. पण ते मुनि दृढ चित्तथी ध्यानमा रही Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह आयु संपूर्ण थता उदारिक देह तजी सौधर्म राज्यधानीए नलीनीगुल्म विमान देवनी साहबी साथे उपन्यो एटले माताए पुत्र आयु पूर्ण थये क्षणभंगुर देह जाणी एक सगर्भा वहुने घेर मूकी ३१ वहु युक्त भद्रा दीक्षा आराधि देवलोके गया. घेर सगर्भा स्त्रीए पुत्र जण्यो. तेणे पितादग्ध स्थानके प्रसाद निपजावी श्री अवंती नामे पार्श्वनाथनो बिंब स्थाप्यो ते सद्गतिनो भजनार थयो. हवे शियालणीनो संबंध कहे छ : अवंतिसुकुमाल पहेला त्रीजे भवे माछीना अवतार हता. त्या बे स्त्री हती. ते माछीए साधुनो उपदेश सांभळी श्राद्ध धर्म आराधी मरण पाम्यो. नलिनीगुल्म विमाने देवपणे उपन्यो. त्यांथी च्यवी कोटिध्वज व्यवहारिआने घेर अवंतीसुकुमाल नामे पुत्रपणे उपन्यां. अने वडी स्त्री बीजे भवे वणिकपुत्री थई. पुन: न्हानी स्त्री मरी, अपमानी हती ते वाडवी थई. त्यांथी मरण पामी शियालणी थई. ते वैरे भक्षणरूप महा उपसर्ग कर्या. ते पार्थबिंब आज दिन सुधी सप्रभाव उजेणी नगरीए छे. इति अवंतिसुकुमाल संबंध. दशपूर्वधारक श्री आर्य सहस्तीसूरि पुन: जेहनो दीक्षित भिक्षुक जीव तेहनी उपगारीपणे थयां. श्री वीरात् बसे अने पंच्यासी वर्षे संप्रति एवो नामनो राजा थयो. तेनो संबंध कहे छे. संप्रति राजा : एकदा श्री आर्य सुहस्तीसूरि विहार करतां कोशंबी नगरी वनवाटिकाए रह्या. शिष्य गुरूआज्ञा लई नगरमा आहार माटे गया छे. त्यां दुर्भिक्षयोगे अन्नने अभावे घणा भिक्षुक थया हता. पण साधुने घणा आदरथी सरस आहार आपता देखी एक रंक भिक्षक ते साध संघाते गयो. आहार लइ साधु वाटिकाए आव्या. गुरू आगळ आहार आलोवे छे एटले रंक पण द्वारि आवी उभो अने साधुने कहेवा लाग्यो, 'मुजने आहार आपो.' गुरूए कह्यु, ‘साधुनो आहार साधुने ज कल्पे. बीजा गृहस्थने न कल्पे.' आ सांभळीने कडं, 'मुजने ए आहार आपो, मुजने शिष्य करो, पण आहार आपो. हु घणो क्षुधार्त छु.' त्यारे गुरू दश पूर्वना जाण छे, तेणे शुभ उपयोग दीधो. शासन-उद्योतकारक जाणी दीक्षा आपी आहार पण दीधो. घणा दिनथी ते सरस अन्न जाणी आहार विशेष लीधो. निर्बल शरीरथी ते रंकने विशचिका थई. घणी असाता उदरपीडाथी वेदी. पहेला जे गृहस्थ पण भिक्षुकपणे जे आहार न देतां घणा तिरस्कार करता ते गृहस्थ नगरश्रेष्ठी जेवा आवी नवदीक्षितने साधुवेश उदय आव्यो जाणी बहुमूल्य औषधादिके विशेष भक्ति वैयावृत्त साचवे ते देखी रंक साधु मनमां चिंतवे के धन्य आ चारित्र, धन्य आ वेश जेना महिमाथी आ कोटिध्वज लक्षेसरी व्यवहारीआ बहुमाने करी मुज भक्ति साचवे छइ. एवा शुभ चारित्रनी अनुमोदनाए काल पामी उजेण नगरे श्रेणीकनी आठमी पाटे Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपगच्छनी पट्टावली ३५९ कुणाल राजा, ते वर्ष १३मे चक्षुहिण थयो छे ओरमान माताना कपटथी, तेने घेर बेटापणे उपन्यो. केटलेक दिने तेनो जन्म थयो, एटलामा अकस्मात पेटमा शुलरोग पीडा थकी पितानो नाश थयो. तुरत बालक लावि पाट-तखत बेसाड्यो. ते माटे तेनुं नाम संप्रति राजा कहेवायुं. अनुक्रमे जोबन अवस्था पाम्यो. एवामां केटलेक दिने श्री आर्य सुहस्तिसूरि उजेण चोमासुं आव्या. त्यां दिवालीए जुहार भटारा दिने श्री गौतम केवलोत्सव महिमाए श्री वीरचैत्यथे रथजात्राए समस्त संघयुते महामहि राजपंथे जतां गवाक्षे वातायनि बेठां थकां संप्रतिए श्री गुरूने देखी जातिस्मरणनो पूर्वभव दीठो. मनमां चिंतव्यु, ए गुरू पहेलां रंकने भवे मने महाउपकार दीक्षा दइ कीधो छे, आवा विचारथी गउखथी उतरी गुरू वांदी बोल्यो, 'मुजने तमे ओळखो छो ?' गुरूए कह्यु, ‘मालवाधीश प्रबळ पुन्यने जगते ओळख्यो छे.' ते सांभळी संप्रतिए कह्यु. 'आ ज नगरनो कुक्षीत्री रंक नवदीक्षित चेलो तमारो; ते माटे तमे कृपा करी मने धर्मोपदेश कहो,' त्यारे संप्रतिने गुरूए उपदेश कह्यो : दिनेदिने मंगल मंजुलाली सुसंपदे सौख्यपरंपरा च, इष्टार्थसिद्धिः बहुला च वृद्धिः सर्वत्र सिद्धिः सृजतां सुधर्म. अत: कारणात् सर्वत्र चंद्रबल-ताराबल-ग्रहबल, दृग्बल-बाहुबलादिभ्यो बलवत्तरं धर्मबलं विलोक्यते. बीजेनैव भवेद्, बीजं, प्रदीपेन प्रदीपकम्, द्रव्येणैव भवेद् द्रव्यं भवेनैव भवांतरं. आवो उपदेश गुरुमुखनो सांभळी संप्रतिए का, हे तपोनिधि ! उत्तम गति जाणनार ! रूडा जीव तेना कया आचार होय ?' गुरू - संप्रति ! महामतिना स्वामि, तुं सांभळ, उत्तम प्राणीना आ आचार होय : अधः क्षिपंति कृपणा वित्तं तन्नयियासव, संतस्तु सुगुरुचैत्यादौ तदुच्चैः पदकांक्षिण:. आवां वचन उपकारी गुरुना मुखथी सांभळी समकित लही सुकृत करतो हतो. संप्रति नृप जिनप्रासादमंडित पृथ्वी शोभावतो हतो. तेनी संख्या सवा लाख नूतन प्रासाद निपजाव्या. तेने बारणे बे हजार धर्मशाळा मंडावी. सातसे दानशाळा, सवा क्रोड जिनबिंब कीधा. तेमां पंचाणुं हजार धातुबिंब, शेषबिंब उपलना राता पीला श्वेत जाणवा. अग्यार हजार वापि तथा कुंड. कोईक तेर हजार पण कहे छे. छत्रीश हजार जिर्णोद्धार तेमां दिनप्रति एक प्रासाद जीर्णोद्धार थयो एवी वधामणी आवे त्यारे संप्रति दंतधावन करे. पुन: क्यारे के तेज दिने बीजी वारनी वधामणी आवे तो द्वारपालक बीजे दिने कहे. Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह एटले संप्रतिनो आयु १०० वर्षनो जाणवो अने सो वर्ष सर्वे दिन छत्रीश सहस्र थया ए प्रमाणे जिर्णोद्धार जाणवा. तेमां मुख्य जीर्णोद्धार समलिकाविहारनो कर्यो. हवे शकुनिकाविहारनी उत्पत्ति कहे छे. शकुनिका विहारनी उत्पत्ति : श्री नर्मदा उपकंठे भृगुक्षेत्रे कोरंटक वने आमलि वृक्षे एक समली पोताना बालक सहित रहेती हती ते निरंतर पोताना बालकने पोषती. एटले खाटकी विचार करे के आ समली चांचथी सघळु मांस बगाडे छे. एटले समळी आवी चंचपुट मासखंड लई वडवृक्षशाखाए बेठी तेटलामां खाटकीए बाणे करी वींधी. मारग वचमां भूमिए पडी एवामां कोईक जैन गृहस्थे नमस्कार संभळाव्यो ते समलीए सांभळ्यो एटले पोताना बाळक उपर मोह न आण्यो अने नवकार सद्दह्यो. ते पछी [तेना महिमा थकी] मरण पामी सिंहलद्विपना राजा श्री चंद्र घेर बेटी उपनी. ते वृद्धिवंती थई. एकदा पितानी साथे ते काजार्थी भृगुकच्छे आवी; एवामां बजारमा हाटे ऋषभदत्त व्यवहारीना मुखथी नवकार सांभळ्यो एटले जातिस्मरण थयु. पाछलो समलीनो भव दीठो. ते पासेथी नोकार शिख्यो. जैनधर्मी श्रावक थयो[श्रद्धावंत हूइ]. जे ठेकाणे बाणे बंधाणी ते ज ठेकाणे विद्यमान शासन श्री वीसमा तीर्थंकर- जाणी बावन देवकुलिका सहित प्रसाद निपजावी श्री मुनिसुव्रत्त स्वामी, बिंब त्यां स्थाप्यु. ते प्रसाद मांहे वडवृक्ष समलीनु स्वरूप कीधुं. ते बालिका शीलधर्म आराधी तीव्र तप तपी मरण पामी इशान देवलोके बीजो देवतापणे उपनी. यत: हरिवंशभूषणमणिः भृगुकच्छे नर्मदासरे तीरे; श्री शकुनिकाविहारे, मुनिसुव्रतजिनपतिर्जयति. संप्रतिए उत्तर दिशामां मरूधरमां घंघाणि नगरे श्री पद्मप्रभ स्वामिनो प्रासाद बिंब उपजाव्यो. पावकाचले श्री संभवप्रासाद बिंब निपजाव्यो. [वीजागीरी पासनो प्रासाद निपजाव्यो. ब्रह्माणी नगरीश्री] हमीरगढमां श्री पार्थप्रासाद बिंब निपजाव्यो. इलोरगिरि शिखर श्री नेमिबिंब-स्थाप्यो. ए दक्षिण दिशामां जाणवो. पूर्व दिशामां रोहीसनगरे[गिरे] श्री सुपार्श्वनो प्रासादबिंब निपजाव्यो; देवपत्तनमा पश्चिमे, पुन: इडरगढे श्री शांतिनाथनो प्रासादबिंब निपजाव्यो. पुन: संप्रति स्वपराक्रमे त्रीखंडाधिश थयो. मंगल श्रेणिने निमित्ते सदैव सूर्योदये अठोतरि, एकवीसभेदी, सत्तरभेदी, अष्टभेदी, नवपदादि पवित्र मने श्री जिनभक्ति चासवेइ. पुन: श्री सिद्धिगिरि, रिवंतगिरि ३, श्री शंखेश्वर ४, नंदिय ५, ब्राह्मणवाटक ६, रथजात्रादि प्रमुख महातीर्थ जाणी वर्षमां चार वार संघपति थाय. यात्रानो लाभ कमावे. प्रचुर वित्त सप्त क्षेत्रे वावतो थयो. मार शब्द मुखे न कहे. काने पण मार शब्द सांभळे नहि. न्यायघंटा वाजे. एवी रीते संप्रति न्याय-धर्मे राज करे छे. Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपगच्छनी पट्टावली - एवामां एक साधु मासक्षपणनो चोविहार तप संपूर्ण काउसग्ग पारी गिरिगुफामांथी नीकळी उजेण नगरे पारणाने दिने आहार अर्थे आव्यो. त्यां दुर्भिक्षने योगे भिक्षुको घणा. [कोई तेहने अन्न न आपे.] साधुने तपस्वी जाणी गृहस्थे कमाड उघाडी घरमां लीधां. साधुए पारणुं करी, पुनः अठइ पचखी, आवी गुफाए निश्चल काउसग्गमा रह्यो. एटलामा सघलइ भीखारीए मळी चितव्युं, 'ए जति तुरत आहार लइ गयो ते, हजी आहार जर्यो नथी.' एवं विचारीने ज्यां यति काउसग्गे रह्यो छे त्यां भीखारीए आवी ते तपस्वीनो उदर विदारी तेमांनुं अन्न खाई. नगरे वात प्रसिद्ध थइ. संप्रतिए यतिघात जाण्यो. श्री केवली तीर्थंकर वचनानुसारे भस्मग्रहने योगे दिने दिने हानिनो समय जाणी संप्रतिए समग्र देशमां श्री आर्य सुहस्तिसूरि प्रमुख साधुसमुदायने घणा आग्रहे महा महोत्सवे स्वामीने [सुकृत] धर्मशालामां पधराव्या. कपाट-टुआ छे नहि. पुन: ए संप्रति राजाए पोताना दास तथा घरनी दासी तेओने [साधु] साध्वीनो वेष आपी अनार्य देशमा विहार कराव्या. घणा गाढ मिथ्यात्वीने समकित पमाडी आर्य जैन कर्या. इत्यादि उत्तम सुकृते करी यहिभव परभव आत्मकल्याणनो हेतु जाणी निपजावी कोरवकुल मौर्यवंश शोभावी संप्रतिनृप सो वर्ष आयु संपूर्णे सद्गतिनो भजनार थयो. गाथा - कोसंबीए जेणं दमगो पव्वाविओ, तओ जाओ, उजेणीए संपइ राया सो नंदउ सुहस्थी. इति संप्रति नृप संबंध. .. ए श्री आर्य सुहस्तिसूरि लघु गुरूभाइ ते गच्छनी पट्ट पर थया अने वडा गुरूभाइ श्री आर्य महागिरिसूरि तेणे जिनकल्पनी तुलणा करी. दक्षिण्यपणे राज्यपिंड लीधो ते माटे बंने गुरूभाईने मांडले आहारपाणिनो व्यवहार जूदो थयो. श्री महागिरिसूरिए सम्मितशिखरनी यात्राने हेतुए पूर्व दिशामां विहार को. तेनी पेढी चारने आंतरे श्री देवर्द्धि क्षमाश्रमण थया. हवे श्री आर्य सुहस्तिसूरिए वर्ष ३० संसारीपद भोगवी पछी श्री स्थूलिभद्रस्वामीने हस्ते दीक्षा लीधी. अने वर्ष २४ शिष्यपणे गुरू श्री स्थूलिभद्र स्वामीनी सेवा कीधी. पुन: वर्ष ४२ युगप्रधानपदवी भोगवी सर्वायु वर्ष शत संपूर्ण श्री वीरात् बसें एकाणु २९१ वर्ष श्री आर्य सुहस्तिसूरि स्वर्गे गया. तत्पट्टे - ९ सुस्थितस्वामी, लघु गुरूभाई श्री सुप्रतिबद्धस्वामि : ए बेउ गुरूभाईनो एक व्याघ्रापत्य गोत्र. तेमां श्री सुस्थित स्वामी ते पट्टघर जाणवा. अने लघु गुरूभाइ श्री सुप्रतिबद्धस्वामी ते गच्छनी चिंताना करणहार थया. ते माटे ए बेउ गुरूभाइना नाम जोडे लख्या छे. पुनः ए बेउ गुरूभाईए आलीयखंडे काकंदी नगरीए महर्षि श्री गौतम कथक जे सूरिमंत्र तेहनो कोडी वार स्मरण कीधो. त्यारे नवमा पाट थकी कोटिकगच्छ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह एबुं बीजुं नाम प्रगट थयु. ते पहेलां श्री सुधर्मास्वामीथी मांडी ८ पाट सुधी निग्रंथगच्छ एवो नाम कहेवातो. तेने सर्वायु संपूर्ण श्री वीरात् ३७२ वीत्ये श्री सुस्थितस्वामी स्वर्गे गया. पुन: वीरात् ३७९ वर्षे श्री भृगुकच्छ नगरे श्री आर्य खपुटाचार्य प्रगट थया. तत्पट्टे - १०. इंद्रदिन्नसूरि अने लघु गुरूभाइ बीजा श्री प्रियग्रंथसूरि : त्यां वृद्ध गुरूभाई श्री इंद्रदिन्नसूरि तेहनो कौशिक गोत्र छे. अने लघु गुरूभाइ श्री प्रियग्रंथसूरि गोत्र काश्यप छे. श्री इंद्रदिन्नसूरि विहार करतां मुढ्ढेरी नगरीए पहोंच्या, एवामां श्री महावीर मुक्ति पहोंच्या पछी ४७० वर्ष गया पछी मालव देशमा उज्जेणी नगरमां परमार वंशे राजा श्री विक्रमादित्य प्रगट थयो. तेनो [वर्षमुं] मान कहे छे. श्री विरचिरं (?) पालक राज्य वर्ष ६०, नव नंद राज्य वर्ष १५५, मौर्य राज्य वर्ष १०८, पुष्पमित्र राज्य वर्ष ३०, बलमित्र-भानुमित्र ए बे कालिकाचार्यना भाणेज तेनो राज्य वर्ष ६०, नरवाहन राज्य वर्ष ४०, गर्दभिल्ल राज्य वर्ष १३, शकना राज्य वर्ष ४. श्री वीर मुक्ति गया पछी ४७० वर्षे दक्षिण दिशामां श्री गोदावरी नदीने कांठे पैठाणे भुजंगाधिप सांनिध थकी श्री शालिवाहननो शक प्रगट थयो. एवं ४७० वर्षे. श्र वीरप्रभु मोक्ष गया पछी त्रणसे अने वीस वर्ष गया पछी मौर्य राजाने राज्ये श्री आर्य सुहस्तिने संघाडे पहेला कालिकाचार्य प्रगट थया. तेणे सौधर्म इंद्र आगळ निगोदनो विचार कह्यो. पुन: पनवणा उपांगसूत्रना कारक ए चोथा युगप्रधान जाणवा. पुन: बीजा कालिकाचार्य वीरात् ४५३ वर्षे बलमित्र अने भानुमित्र राजाना समये दक्षिण दिशामां गोदावरी नदीने तटे पैठाणे राजा श्री शालिवाहनना आग्रहथी [एकतालीस] जैनाचार्यनी साक्षीए श्री पर्व आव्या होते यक्षोत्सवे महा उपद्रवे श्री पर्वनो अंतराय जाणी भाद्रवा शुदि ५थी ४ना पर्युषण कर्या. एहना विस्तारथी कालिकाचार्यनी कथाथी जाणवो. श्री वीरात् ४४१[४२१] वर्ष इंद्रदिन्नसूरि स्वर्गे गया. हवें लघु भाईश्री प्रियग्रंथसुरी वीरशासने प्रभाविक थया. तेनो संबंध कहे छे. प्रियग्रंथसूरि : अजमेर गढनी तलेटीमां हर्षपुर नगर वसे छे. एकदा त्यां विहार करतां श्री प्रियग्रंथसूरि आव्या. एवामां छागने होमवाने सकल मंत्रशास्त्रना जाण यज्ञ करवा उद्यमी थया. एटलामां जैनी गृहस्थे गुरू महाराजने यागनी वार्ता कही त्यारे श्री गुरू महाराजे सूरिमंत्रथी वाश मंत्री श्रावकने दई कह्यु, 'जे वास ए. छे ते तमे बोकडाना माथे नांखजो जेथी एने अभयदान थशे अने श्री जिनशासननी उन्नति थशे'. श्रावके गुरू महाराजे कडं तेम कर्यु एटले बोकडो देवाधिष्ठित थयो, आकाशे जइ उभो रह्यो. यागकृत वाडव प्रति मनुष्यभाषाए बोल्यो, 'हे विप्रो ! तमे सांभळो. जेटला पशुना देहनी Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपगच्छनी पट्टावली ३६३ रोम होय तेटला हजार वर्ष सुधी पशुना घात करनारनो जीव नरके रह्यो वेदना वेदशे. यतः महतामपि दानानां कालेन क्षीयते फलं, भीताभयप्रदानस्य क्षय एव न विद्यते.' ते छागनां एवां वचन सांभळी सकल मनुष्यना वृंद ते छागने पूछे के, ‘तुं कोण छ ?' त्यारे छागे कह्यु, हुं याचक देवता छु. ए अज मारूं वाहन छे. ते माटे तमे धर्मने वांछो तो आ सर्व मिथ्या छे. साचा धर्मनी परीक्षा करो तो श्री प्रियग्रंथसूरिने पूछो.' ते वाडवे गुरूने धर्म पूछ्यो त्यारे श्री सूरिए धम्मो मंगलमुक्कीठं, अहिंसा संजमो तवो; देवा वि तं नमस्संति, जस धम्मे सया मणो. १ ए गाथा कही. ते सांभळी सर्व वाडवो प्रतिबोध पामी दयाधर्म प्रति आराधता थया. श्री गुरू बोकडाने अभयदानना देणहार जाणी तेनी कीर्ती थई. एटले ए प्रियग्रंथ स्थविर ते श्री वीरशासने प्रभावक सरीखा थया. इति श्री प्रियग्रंथसूरि संबंध. एवे अवसरे प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभ पुत्र नमि, २ विनमि, तेनी शाखाए विद्याघर वंशे श्री वृद्धवादिसूरि तेना शिष्य श्री सिद्धसेनसूरि श्री कल्याणमंदिरस्तोत्रना करनार प्रगट थया. त्यां प्रथम श्री वृद्धवादिसूरिनो संबंध : एकदा विद्याघर शाखाए आर्य श्री स्कंदिल्लसूरि विहार करता गौड देशे कोशलपुर नगरे आव्या. त्यां मुकुंद नामे वाडवे वृद्धपणे गुरूवाणी सांभळी बूझ्यो. चित्त साथे चिंतव्यु, जे शास्त्रने विष पंडित पुरूषे कह्यु छ : यथा चतुर्भिः कनकं परीक्ष्यते, निघर्षणच्छेदन ताप ताडनैः, तथाऽपि धर्म विदुषा परीक्ष्यते श्रुतेन शीलेन तपोदयागुणैः. शिवधर्मने विषे ए चारे आत्मशुद्धिना भेदमांथी एके शुद्ध नथी. [एक जैन विना. तथा अभिनिवेश मिथ्यात्वीना शास्त्र १ शील २ तप ३ दया परिणाम ४ ए चार वाना शुद्ध न कहिए.] एम जैन दर्शनथी साची वस्तु जाणवी. श्री स्कंदलाचार्य पासे मुकुंदे दीक्षा लीधी. वृद्धावस्थाए पण रात्रे मोटे स्वरे विद्यानो उद्यम करे. तेथी गुरूए कह्यु, 'भो ! महानुभाव ! रात्रीए मोटे शब्दे न भणीए. अनार्य मनुष्य जागे, खंडण पीसण आरंभमा प्रवर्ते.' [तेहवे एक वृद्धा स्त्री ते साधु रात्रे भणतां घोष पाठ करता ते • डोसी कहे, 'रे साधु ! तु घरडपणे भणीने स्यूं मूसल फूलावीस? अमने नीद्रा करवा देतो नथी.' ते हेतुथी गाढे शब्दे अहेतु थाई.] भगवतीमां कर्तुं छे के, जागरिया धम्मीणं अहम्माणं तु सुत्तया सेइ, वछाहिव भग्गेणीए[भगोणीए], अकहिसु जिणो जयंति [जयं तिय]. Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह आधुं गुरूनुं वचन सांभळी रात्रीए भणवान मूकी दिवसे घोषपाठक रहे. त्यारे गृहस्थो तथा लघु शिष्यादि हास्य करी हसे. ते कहे के 'तमे वृद्धपणे मोटा शब्दो भणीने शुं मुशल फूलाशो ?' तेवू सांभळी काश्मीर देशे पहोंच्यो. शारदा मंदिरमा उपवास करी बेठो. निश्चले सरस्वति प्रसन्न थई कां, ‘वर माग. हुं तारा पर त्रूठी छु.' तेणे कह्यु, 'वृद्धपणे बुद्धि वाणूं.' ते सांभळी वाग्देवी कहे, ‘जा तुं विद्यापात्र हो.' ते श्रुतदेव्या दत्त वर लइ आवी गुरू वांदी बाजारने विषे घणा मनुष्य समक्षे [ते डोसी समक्ष] शारदादत्त वरना महिमा थकी मुशल सुकुं हतुं ते नवपल्लव कुंपले करी शोभाव्यु, फुलाव्यु. काव्य प्राह - मुद्रो[मुद्गे ?] शृंगं शक्रं यष्टिप्रमाणं शीतो वह्निः मारूतो नि:प्रकंप: यो यद् ब्रूते सर्वथा तन्न किंचिद् वृद्धो वादिः कः किं महिम्नवादी. गुरूए विद्यापात्र योग्य जाणी आचार्यपद देइ श्री वृद्ध वादीसूरि नाम आप्यु. इति वृद्धवादीसूरि संबंध. पुन: हवे श्री कल्याणमंदिर स्तोत्रनी उत्पत्ति : श्री वृद्धवादीसूरि विहार करता भृगुकच्छे आव्या. एवामां मालवमंडले उज्जेणी नगरीए कौशिकगोत्री देवऋषि नामे वाडव रहे छे. तेने देवसीका नामे स्त्री छे. तेनो पुत्र कुमुदचंद्र नामे महा षट् अंगनो जाण छे. तेने अन्य पंडितना मुख थकी वाग्देवी जेने प्रसन्न छ तेवा वृद्धवादीनो घणो महिमा सांभळी अत्यंत गर्व करी जे मने विद्यावादमां जीतशे तेनो हुँ शिष्य थईश एहवी प्रतिज्ञा धारी. ज्यां भरूचे श्री वृद्धवादी छे त्यां आव्यो. एवामां वृद्धवादी देहचिंताए नगर बहार आव्या छे, त्यां बंने एकठा मळ्या. वन विषे गोवालीआ तथा पिंडार गो चारे छे. कुमुदचंद्रे विद्यावादनो आशय जणाव्यो. तेह पिंडारने शाखिया करी विद्यावाद प्रारंभ्यो. त्यां प्रथम कुमुदचंद्रे संस्कृत वाणी कही, पिंडार [न] समजे ने कहे, 'ए विद्या कांइ नहि. ब्राह्मण, तुं फोगट आरडे छे, मूर्ख छे.' त्यारे वृद्धवादिसूरि अवसरना जाण होई कल्पक रजहरण कटिए बांधी डंड उंचो हाथे राखी प्रदक्षिणारूपी घेरणीए नाचता हुआ मुखे एम भणे जे, अथ - चालिए [नवि चोरिए] नवि मारिए, परदारागमण न कीजीए, थोडा श्युं थोडु दीजीए, तउ टगिमगि सग्गि जाइए. १ गाय भिंस जिम नीलुं चरइ, तिमतिम दूधिं दूणां भरइ, तिमतिम गोवाला मनि ठरइ, छासि देयंतां तेहू तरइ. २ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपगच्छनी पट्टावली ३ गुलस्युं चावई तिल तांदुली, देडे [वेड ] वझवि वांसली, पहिरणिं उढणिं हुइ धाबली, गोवाला मनि पुगि रली. मोटा मोटा मिल्या पंडार, मांहोमांहे करय विचार, महिली दूझणि सरजी भली, दीइ दाबेटा [ दाबोटा] पूगी रली. वनमांहि गोवाला राजा, ईंद्र तणि घरि ते नहि आज, भगर भिंस दूझइ वली सोल, सुखि समाधिं हुई रंगरोल. वाटउं भरीउं दहींने घोल, जीमणो कर लेइ घइसिं बोल, इणि परे मुह मेलावर करइ, स्वर्गतणि वात ज विसरइ. हडहडाट नवी कीजइ घणुं, मर्म्म न बोलीजई कैहतणुं, कुड शाखि म ज्यो आल, ए तुम्ह धर्म कहुं गोवाल. ७ गर इस विच्छु नवी मारीइ, मारीतउ पिण उगारीइ, कूडकपटथी मन वारीइ, इणिं परि आप कारिज सारीई. गोवालीआ उठ्या गहगहि, हर्षीत थका ताली देता सहि, भलउ भलउ एहि ज डोकरउ, नहइ भणीउ ए हि ज छोकरउ. भट जे बोल्या भूतप्रलाप, फोड्या कांन विगोइउ आप, त्यो ए हार्यो तुं हल्ला, पाय लागी कहई ए गुरू भल्ला. १० गोवालीयाना वचन सांभळी कुमुदचंद्र श्री वृद्धवादीने कहे के हुं प्रतिज्ञा संपूर्ण विद्यावादे हार्यो ते माटे मुजने शिष्य करो. किश्या थकी? तुमे समयना जाण अने हुं समयनो जाण नहि एटली मारी बुद्धि काची.' गुरूए दीक्षा देई कुमुदचंद्र साधु नाम दीधुं. केटले दिने गुरूसंग थकी श्रुतधर थया. अति विद्यागर्वित थकी एकदा श्री गुरूने कहे, 'गणघर - गुंथीत जे प्राक्तन [ प्राकृत ] सिद्धांत छे ते सघळां संस्कृत करूं.' एम कही महा उद्दाम विद्यापणे नमो अरिहंताणं, ए सकल पंच पद प्राक्तन [ प्राकृत ] छे ते ते संस्कृत निपजावी गुरूने संभळाव्यं. 'नमोऽर्हसिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यः' आ सांभळी गुरु कहे 'सकलगुणसद्म श्री देवाधिदेव सर्वाक्षरसंनिपातलब्धिना धणी गणधरादि थया, पुनः तेहना शासन धर्म मांहि केटलाएक चौदपूर्वी थया. अने श्रुतकेवली पण आगे थया पण जे श्री वीरमुखे गणधरे त्रिपदी पामीने मुग्ध प्राणीने उपकारना हेतुए प्राक्तन [ प्राकृत ] भाषाए रचना करी तेहनुं वचन अन्यथा करे ते अनंत संसारी थाय, ते माटे ‘नमोऽर्हत् सिद्धा' ए वचनथी तमने मोटी आलोयणा आवी.' ते वृद्धवादी गुरूनुं वचन सांभळी कुमुदचंद्र चेलो गुरू पासे वृद्धनुं वचन अन्यथा कर्यानी आलोयणा मागी, त्यारे गुरू कहे, 'गाढा मिथ्यात्वीने प्रतिबोधी समकीत पमाडी जैनपणुं आदराची गतीर्थ ४ ५ ६ て ३६५ ९ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह पाछो वाळे तो श्री संघे गच्छमांडलइ आवइ.' एवं गुरू संघy वचन प्रमाण करी एकाकी विहार करता अवधूत वेशे बारमे वर्षे मालवदेशे उज्जेणि नगरे परमार श्री विक्रमार्क राज्ये सिप्रातटे श्री महाकालेश्वरने प्रासादे शिवलिंग उपर मस्तक देइ सूता. बीजे दिने प्रातसमये अर्चक शिव पूजवा आव्यो एटले प्रौढ शरीर, लंब भूजा, विशाळ अवयव, नि:स्पृह, अबीह देखी अर्चक कहे, 'तुं उठ उठ, ए शिव भोलो भस्मभोगी[योगी] तेहने दूहवी किश्युं मरण मागे छे ?' एम गाढे स्वरे अर्चक वारवार कहे तेटले मनुष्य एकठा थया. कहे, 'उठो उठो', पण केमे न उठे, त्यारे भरडके विक्रम पोकार्यो. विक्रम कहे, 'ताणी घसरडी प्रासाद बाहिर काढी नांखो.' ते भरडक राजाना अनुचर लेइ मनुष्यना समुदाय मिल्यो उठाडवा लाग्या, पण वज्रतुल्य. शिवनी आशातना जाणी पुन: अर्चक विक्रमने पोकारे. विक्रमे शिवमर्यादा लोपी जाणी वाजणा दीधी. ते वाजणा राणिने प्रहार होय. राणी आनंदे. ते सांभळी विक्रम चित्तमां चिंतवे जे ए महा कोइक सिद्ध पुरूष छे. एह-श्युं पराक्रम नहि. विक्रम आवी हाथ जोडी नमी कहे, हे तपोनिधि ! मुज अपराध खमी तुम्हे प्रसन्न प्रत्यक्ष जाओ.' ते सांभळी कुमुदचंद्र तत्काळ उठी कह्यु, 'अहो विक्रम, आ नगरे तुम्ह राज्य कया न्याये करो छो. [राज्ये किसी अन्याय वार्ता छइ.' विक्रम कहे, ते अन्याय वार्ता कहो' त्यारे श्री कुमुदचंद्रे, धुर थकी अवंतिसुकुमालनो संबंध संभलाव्यो. विक्रमने संदेह हुओ. कहे, ते परमेश्वर श्री पास अवंतिनी तुम्हे कीर्ति कहो' तिवारे कुमुदचंद्र श्री पार्श्वनाथ २३मा तीर्थंकरनी स्तुति रूपे श्री कल्याणमंदिरस्तोत्र कह्यो. ११मा काव्ये श्री पार्थ परमेश्वरे पहेलाथी कामराग जीत्यो छे ते स्तवे छे 'यस्मिन् हरप्र.' के शिवलिंगमांथी धुम्रज्वाला प्रगटी. पुनः कुमुदचंद्र १२मा काव्यमा अद्भूत रसे करी श्री पार्श्वदेवनो महिमा वर्णवे छे. 'स्वामिन्नल्पगि.' - कहेतां शिवलिंगनुं तेज हीण थयु. पुन: १३मामां वीररसे करी पार्श्वदेव- धर्मवीरपणुं वर्णवे छे. 'क्रोधस्त्वया' ए कहेतां शिवलिंग स्फोट थयो. पिडीइ विरह हुओ. तेमा तत्काल श्री धरणेंद्र अने श्री पद्मावति सेवित पुन: पार्थजक्ष वेराट्या देवीए युक्त श्री अवंति पासनो बिंब प्रगट थयो. ते देखी विक्रम विस्मय पामी सकळ मनुष्ययुक्त श्री पास प्रणमी बेठो. कुमुदचंद्र कहे, 'हे विक्रम ! किंहा ए हरलिंग अने क्या रागद्वेषविवर्जित ए परमेश्वर !' यत: पापदावाग्निजलद: सुरेंद्रगणसेवित:, समस्तदोषरहितो निस्संग कलषापहः. १ अस्य पूजानमस्कारप्रभावभविनां भवे, भवंति संपदो वश्या मुक्तिश्चापि गृहांगुणे. २ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपगच्छनी पट्टावली ३६७ सततदुच्चरितं येन जिन इत्यक्षरं द्वयं, बदधः परिकरस्तेन मोक्षाय गमनं प्रति. ३. एवी कुमुदचंद्रकथक स्तुति सांभळी मिथ्यात्वशल्य टाळी समकित धर्मे निःशल्य थयो. महा महोत्सवेथी श्री अवंति पास थाप्या. गुरूवचने संघपति श्री सिद्धाचलनो थयो. पुन: महोग्र दाने करी स्व संवत्सर प्रकटावतो हवो. नीष्कंटक एकछत्र राज्य भोगवी पात्रापात्रनी परीक्षा करी एकसो ने बावीस नुतन प्रसाद निपजावी सप्त शत जीर्णोद्धार करावी परदुख टाळवा अग्रेसरी थयो. महापरमोपकारी थको परमार वंश शिरोमणि विक्रमादित्य सुकृतनो संचय करी सद्गतिनो भजनार [भाजन] थयो. श्री कुमुदचंद्रे आ रीते गयुं तीर्थ पार्छ वाळ्यु. घाढा मिथ्यात्वीने गाढो समकीती कीधो. आवा बार वर्षे श्री वृद्धवादी गुरूने वांदी आणाधर्म लोप्यानी आलोयण लइ मिथ्या दुष्कृत देई संघनी साखे स्वगच्छमंडले लीधा. श्री वृद्धवादी गुरूए पोताने पाटे स्थापी श्री सिद्धसूरी नाम दीधुं. संमतिग्रंथकर्ता अनुक्रमे विहार करतां दक्षिण देशे प्रतिष्ठानपुरे दिन ११ अणशण करी श्री वीरात् ४७० वर्ष पुन: विक्रम १८ वर्षे सिद्धसेनसूरि स्वर्गे गया. सव्वे पभाव जातेय जिणसासण संसकारिणां जेउ, भवंतरेण चिणउ ए ए भणिया जिणमयंमि. इति आचार्य श्री सिद्धसेनसूरि संबंध १०. ११. दिन्नसूरि : गौतम गोत्र. तेणे कर्णाटक देशमा विहार कॉ. नित्य एकभुक्ति विगयरहित जाणवा. ए सूरि १४ उपगरणना धरनार थया. अत्र उपकरणनो विवरो कहे छे. एवा अवसरे चंदेरी नगरी साधुशबने दग्ध स्थिति थइ. ते पहेला साधुनी देह जनावरने उपगारे काम आवे एवं जाणी जलथलने विषे साधु एकठा थई परिठवता. तेह वार्ता वृद्धपरंपराए गुरूमुख थकी जाणजो. १२. सिंहगिरिसूरि : कोशीक गोत्र. एवामां १. श्री शांतिसूरि, २. सुधर्मसूरि, ३. आर्य नंदिसूरि, ४. शांडिल्यसूरि, ५. श्री हिमवंतसूरि, ६. श्री लोहितसूरि, ७. रत्नाकरसूरि ए ७ युगप्रधान प्रगट थया. पुन: श्री आर्य महागिरिना शिष्य स्थविर श्री आर्य रक्षितसूरि तेना संघाडे लब्धिसंपन्न श्री दुर्बलिकापुष्पमित्रसूरि प्रगट थया. तेने भणवाने घोषपाठ उद्यमे करी सूर्योदये शेर १० घृत जठराग्निए जतुं. पुन: १. श्री नागार्जुनसूरि, २. श्री स्कंदिलसूरि, ३. पादलिप्तसूरि, औषधिपादलेप करी आकाशमार्गे उडी श्री सिद्धाचल. गिरिनार, समितगिरि ३, नंदीय, ब्राह्मणवाटक ए पांच तीर्थनी यात्रा करी पाक्षिक तपनुं पारणुं करता हता. श्री वीरात् ५२५ वर्ष शेठेजय उछेद हुओ. वीरात् ५४४ वर्षे छठ्ठो निन्हव रोहगुप्त नामे प्रगट थयो. वीरात् ५४७ - पुन: विक्रम २६४ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह वर्षे श्री सिंहगिरिसूरि स्वर्गे थयो. १३. वज्रस्वामी : जंबुद्विपे दक्षिण-अर्द्ध भरते अवंति देशे तुंबवन ग्रामे गौतम गोत्रे श्री धनगिरि रहे छे. तेणे सगर्भा सुनंदा स्त्रीने घेर मूकी आर्य समित साला सहित वैराग्ये श्री सिंहगिरिसूरिनो उपदेश सांभळी दिक्षा लइ गुरू साथे विहार कर्यो. केटलेक दिने घेर सुनंदाने बेटो थयो. सुनंदानी सहियर स्त्री ते बालकने रमाडतां कहे के तारे पिताए दीक्षा लीधी न होत तो जन्मनो उत्सव करत. एवां वचन स्त्रीना ते बाळके काने सांभळी जातिस्मरणे पूर्वभव दीठो. चित्ते चिंतवे के हुँ पण चारित्र लउं. एवं विचारी एकमनो थइ घणुं रूदन करे. तेथी सुनंदा घणी आकुळ थइ मने चिंतवे के आनो पिता आवे तो तेने आपुं. एम करतां छ मासनो थयो. एवा अवसरे श्री सिंहगिरिसूरि शालाए रह्या त्यां धनगिरि, अने आर्य समित ए बंने साधु गुरूनी आज्ञा लइ तंबवन ग्रामे आहारनी गवेषणाए जाय छे एटले ज्ञानोपयोगे शकुन विचारी गुरू कहे, 'हे शिष्य, तमने आज गोचरिए जतां सचित-अचित जे मळे ते लै लेजो.' गुरू-वचन अंगिकार करी ते बंने मुनि संसारिक बंदा विना [वंदाविवा] सुनंदा घेर पहोंच्या. नगर मनुष्यो घर स्त्रीओ ओळखी. रूदन करतो बाळक तेणे पीडाती एवी जे स्त्री कहे, 'आ सुत तमारो तमे ल्यो.' एम कही बेटो धनगिरिने दीधो. एटले तुरत रोतो रह्यो. तेणे कथक गुरू-वचन सांभरी ते बाळक झोळीए लइ धनगिरि गुरू पासे आव्या, घणे भारे बाह नमती देखी वज्र समान भार जाणी गुरूए वज्रकुमार नाम दीधुं. साध्वीना उपाश्रये शिय्यातरी श्राद्धे सुश्रूषा साचवी पालणे पोढाडी रात्रीने विषे साधवी ११ अंगनी सज्झाय करे ते पालणे सुतां बाळकने अंग ११ मुखे आवड्यां सांभळतां थका. ___ एम करतां ते वज्र बाळक त्रण वरसनो थयो एटले तेजवंत पुत्र सुनंदा गुरू पासे मागे, ‘मने माहरो बेटो साधुजी आपो.' गुरू - धर्मलाभे विहराव्यौ, अमो पाछो न दईए. एम करतां राजा समक्ष विवाद थयो. राजा कहे, 'बोलाव्यो जेनी पासे जाय बालक तेहनो ए बालकः एवं राजानुं वचन सांभळी सुनंदाए भातभातनी सुखडी मुकी, गुरूए रजोहरण मूक्यो एटले वज्रकुमार [राजसभा समक्ष] रजोहरण मस्तक लेइ नाच्यौ, सुखडी अने माता सामुं न जोयु, त्यारे ते देखी सुनंदा विचारे जे १ भाईए २ स्वामीए, अने ३ बेटाए पण दीक्षा लीधी. आवा संसारे रह्या मने कोण आधार छ ? एवं जाणीने श्री सिंहगिरि पासे सुनंदाए दीक्षा लीधी. वयरकुमारे ८ वर्षनी दीक्षा लेई दश पूर्व भण्या. एकदा श्री सिंहगिरि पासे बहिभूमि गया हतां त्यां अन्य साधु नगरमांहि आहारने अर्थे गया छे. एवामां शालाए यंत्रकपाटे बाललीलाए साधुनी उपधि एकठी करी विद्यार्थीनी पेठे ११ अंगनी वाचना दीए छे. एटले गुरू शालाने द्वारे विवर थकी गुप्तपणे Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपगच्छनी पट्टावली ३६९ रह्या ते सघळो व्यतिकर देखी योग्य जाणी श्री सिंहगिरिसूरिए दश पूर्वधर श्री वज्रने पोतानी पाटे थाप्या. श्री सिंहगिरिसूरिनी आज्ञा लई ५०० मुनि साथे पूर्व दिशा थकी विहरतां उत्तर दिशामां आव्या. श्री वज्र त्यां दुर्भिक्षयोगे संघ सिदातो जाणी पूर्वभवमित्र जूंभिकदेवार्पित आकाशगामिनी विद्याए श्री संघने बार योजन कल्पकनो विस्तार ६४[६८] कोटे निपजावी सुभिक्षे महानसीपुरे मुक्यो.. ____ पुन: श्री वज्रसूरि उत्तर दिशाथी विहरता दक्षिण पंथे तुंगीया नगरे चोमासु रह्या. त्यां रसविकारना योगथी श्लेष्ण थयो. शिष्य प्रति श्री वज्रसूरिए कह्यु ‘ज्यारे आज तुमे आहार अर्थे गृहस्थने घेर जाओ त्यारे सुंठ खंड याची लावजो.' ते शिष्ये तेमज शुंठ लावी गुरूहस्ते आपी. गुरूए कर्णने विषे शंठ स्थापी चिंतव्यु जे आहार करी खंड वावरीशं. आहारना कर्या पछी शुंठखंड वावरवी विसरी गया. सांजनी पडीलेहण करतां मुखवस्त्रिका पडिलेहतां कर्णथी शंठखंड पृथ्वी पर पड्यो. ते देखी पोतानो प्रमाद तथा पोतानुं विसरपणुं जाणी विचारे जे हुं दशपूर्वनो धारक तेहने ए किम विसरे ? उपयोग दीधाथी पोतानुं आयु थोडं जाणी पोताना शिष्य श्री वज्रसेन पोतानी पाटे स्थापीने कडं, 'तुमे सोपारक पत्तने विचरो त्यां बार वर्षने अंते दुर्भिक्षिने योगे लक्ष द्रव्ये एक हांडी खीरनी विषमिश्रति थकी मरणे श्रे जिनदत्त भार्या इश्वरी पुत्र चार उत्तम पात्र छे तेने अभयदान द्यो. एम कहेजो के प्रभाते बार हजार युगंधरीना भर्या जहाज समुद्रे आवशे परद्विप थकी. ए उपकार त्यां जई करो.' आवी श्री गुरूनी आज्ञा लई श्री वज्रसेनसूरिए विहार कर्यो. एवामां वज्रसेनने युगप्रधानपदवी थई, ते समये बीजो उदय थयो, श्री वीरात् ६१६ वर्षे. ___ हवे वीरात् ४९५ वर्षे वज्रसूरिनो जन्म, ८ वर्ष गृहस्थपणे रह्या; अने ४४ वर्ष शिष्यपणे श्री सिंहगिरि गुरूनी सेवा कीधी. वर्ष ३६ युगप्रधानपदवी भोगवी सघळु आयु ५८ वर्ष संपूर्ण वीरात् ५८४ वर्षे गया हुंते दक्षिण दिशामां मागिया नाम पर्वतने विषे शिला उपरे अणशण करी श्री वज्रस्वामि स्वर्ग हुओ. ए श्री वज्रस्वामिने नामे वज्र शाखा कहेवाणी. पुन: ए ज वर्षे गोष्टामाहिल्ल नामे ७मो निन्हव थयो. जेम श्री जंबु साथे दश बोलनो विच्छेद थयो, तेम श्री वज्र साथे [चोथु] १ अर्ध नाराचसंहनन, अने २ दश पूर्व एम बे उत्तम बोलनो विच्छेद थयो हतो. महागिरिः सूहस्ति २ च सूरिः श्री गुणसुंदर: ३ श्यामाचार्यः ४ स्कदिलाचार्य ५ रेवातिमित्रसूरिराट् ६ श्री धर्मः ७ भद्रगुप्त ८ श्च श्रीगुप्तो ९ वज्रसूरिराट् १०, युगप्रधानप्रवराः दशैते दशपूर्विण:. २ चंद्रकुलसमुत्पत्तिपितामहं महाविभुं, दशपूर्वनिधिं वंदे वज्रस्वामिमुनीश्वरं. ३ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह अत्र श्री वज्रवर्णन उक्तं च - किं रूपं किमुपांगसूत्रपठनं शिष्येषु किं वाचना किं प्रज्ञा किमु निस्पृहृत्वमथ किं सौभाग्यभंग्यादिकं, किं वा संघममुन्नति: सुरनतिः किं तस्य किं वर्ण्यते[वर्णनं] वज्रस्वामिविभौ प्रभावजलघेरेकैकमप्यद्भुतं. ? इति श्री वज्रस्वामी संबंध. आनो अन्य चारित्रे विस्तार छे तेथी वधु नथी जणाव्युं. १४. वज्रसेनसूरि : तेनुं भारद्वाज गोत्र. श्री गुरू वज्रस्वामिने वचने विहार करता समुद्रतटे सोपारकपतन नगरे शालाए रह्या. मध्यान्हे सल्लहड गोत्रे श्रे. जिनदत्त तेहनी पुत्री [स्त्री] ईश्वरी तेने ४ बेटा, नागिंद्र १. चंद्र २, निवृत्ति ३ अने विद्याधर ४ ए नामे छे. तेने घेर श्री वज्र-गुरूना वचनानुसारे भिक्षार्थे पहोंच्या. एटले स्त्री-भर्तार विषमिश्रित आहार देखी सामासामी दृष्टिसंज्ञाए कहे, 'श्री गुरू, तुम्हारे योग्य निर्दोष आहार नहि छे,' ते सांभळी श्री वज्रसेन कहे, “ए आहार भुमिकानां शरण करो.' गृहस्थ कहे, 'विषम समये मर्यादवंत गृहस्थ[नी] मर्यादा किम रहे ?' श्री वज्र कहे, 'प्रभातने समये खाडीए जहाज युगंधरी धान्ये भर्या अवश्य आवशे.' ते सांभळी विवहारी [विषहांडी] भूशरणे करी अने व्यवहारीओ जिनदत्त, स्त्री इश्वरी, पुत्र ४ युत हाथ जोडी श्री वज्रसेनने कहे, ‘तमे महामुनी निस्पृह छो. जो तमारूं वचन सत्य थशे तो अमे तुम पासे व्रत लईशं.' ए प्रतिज्ञा लई महा श्रद्धावंत थया. श्री सूरि शालाए आव्या. एटले [स्मरण करतां] बहार[बार] पहोरे संपूर्ण थया के समुद्रे जहाज, युगंधरीए भर्या आव्या. समुद्रे समाचार थया, घणो सुभिक्ष थयो. देखी श्री गुरू अभयदांनना दातार जाणी जिनदत्त, स्त्री इश्वरी, नागेन्द्र, चंद्र, निवृत्ति, विद्याधर ए चार बेटायुक्त श्री वज्रसेनसूरि पासे दीक्षा लीधी. अनुक्रमे ते चार केटलेके उणा दश पूर्वधर थया, त्यारे गुरू श्री वज्रसेने ते [चिहुंने] आचार्यपदवी आपी. त्यांथी नागेंद्र, चंद्र, निवृत्ति अने ४ विद्याघर ए ४ शाखा प्रगट थई. ते चारेए पण २१-२१ आचार्य कर्या एटले २१४४८४ आचार्य कीधा. तेथी तेनां नामे ८४ गच्छ कहेवाणा. एटले श्री वीरात् ५८५ वर्ष गये हुते ए ४ शाखा प्रगट थई. इति ४ शाखानी उत्पति. त्यांथी वज्रसेनसूरि केटलाक दिवसे विचरतां श्री शोरठ देशमा मधुमति नगरे कपर्दि नामे वणकर वसतो हतो तेने आडि अने कुहाडी नामे बे स्त्री हती. पण ते कपर्दि अभक्ष्य अपेय करी घणो अशक्त हतो. एकदा बंने स्त्री कपर्दीने अभक्ष्य अपेय ए बंनेथी अनाचारी जाणी प्रहारथी शिक्षा देती हती. एवामां श्री वज्रसेनसूरिए ते वणकरने Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपगच्छनी पट्टावली ३७१ दुखीओ देखी बहिभूमि जाता थकां श्री गुरूए कोमल वचनोथी कर्वा के, 'हे कपर्दी, तुं अमारी पासे आव.' ते कपर्दी पण आवी हाथ जोडी उभो रह्यो. एवामां श्री गुरूए आगमज्ञाने दृष्टि दीधी तो ते सुलभबोधि जणायो. वळी तेनुं आयु बे घडीनुं जाणी गुरू श्री वज्रसेने कह्यु, 'अहो कौलिक ! तने महाकष्ट देखी छइ. तुं धर्म करी पचखाणनो प्रमाण कर, कष्ट जेम मटे.' गुरूनुं वचन सांभळी विनयवंत कपर्दीए कह्यु, 'श्री गुरू ! पच्चखाणनी मारा पर कृपा करो.' त्यारे गुरूए 'नमो अरिहंताणं' इत्यादिक नमस्कार मुख थकी उचर्या. पछी कटे-केडे दोरानी गांठ छोडी एक ठेकाणे बेसी भोजन अने जल लीधुं. पछी तेम ज केडे दोरानी गांठ बांधी. ते गुरूनुं वचन अंगिकार करी ते व्रत उच्चर्यु. एवामां ते ज दिने सर्पगरलव्याप्त आमिषखंडनुं तेनुं भोजन थयो तेथी ते कपर्दी मरण पाम्यो. पचखाण अंगिकार कर्याथी ते महिमाए आणपंन्नी-पणपंन्नी मध्ये उपज्यो. अवधिज्ञाने पोतानो पाछलो भव जाण्यो. नमस्कार सहित पच्चखाण- महात्म्य मोटुं दिसे छे. हवे गुरूए पचखाण शिखव्यं, पहेले भोजने तुरत मरण पाम्यो – ए वात जाणी बंने स्त्री मळी अने राजा आगे पुकारती गई के 'आ महात्माए कांई शीखवी मारी नांख्यो.' राजाए श्री वज्रसेन गुरूने रावले (चोकीमां) बेसाड्या अने कह्यु के, ‘तमे साधु थई केम स्त्रीनो स्वामी मार्यो ?' एवामां कपर्दी पोताना ज्ञानथी जोयुं के पोताना उपकारीने कष्ट थयुं छे. तेथी तेणे गामप्रमाणे देवशक्तिथी [पथर] शिला विकुर्वी आकाशे रह्यो थको सकल लोकने कहेवा लाग्यो के, ‘ए मारा गुरूना प्रति खमावो, प्रणमो, नहि तो आ शिला गाम उपर पाईं छं. आ गुरू मारा महा उपकारी छे.' आथी राजाए मरणना भयथी श्री वज्रसेनने प्रणमी शालाए पधराव्या. एटले कपर्दीए शिला संहरी प्रसन्न थई राजादिलोक समक्ष गाथा कही. मंसासी मज्झरओ इकेण चेव गंठि सद्दीएण, सोहंतु तंतुवाओ सुसाहु-वाओ सुरो जाओ. आम कही श्री गुरूने वंदी कहेवा लाग्यो, ‘श्री भगवन, में केवां कर्म कीधा छे. तमे कृपावंत करूणासमुद्र हितकारी कंइ कहो !' आ सांभळी गुरूए कडं, तें पूर्वभवे प्रौढ पाप कीधां छे, पण तेनी पवित्रताना हेतुथी सकलकर्मक्षालण एवा श्री सिद्धक्षेत्रगिरिए श्री संघना सहायकारक थाओ. श्री ऋषभ परमेश्वरनी भक्तिमां रहो.' श्री वज्र[सेन] सूरिनां वचन सांभळी कपर्दीयक्ष हर्ष पाम्यो अने कहेवा लाग्यो, ‘मारो जन्म कृतार्थ थाओ, [जे ए महातीर्थनी भक्ति मुजने आवी.' ए तीर्थ किस्यो छे ?] Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह [यत्र बहुकोटिसंख्या:] सिद्धिमगुः पुंडरिकप्रमुखजिना, तीर्थनामादिपदः स जयति शत्रुंजयगिरीशः. आवा बहुमाने स्तुति करतो ते व्यंतर श्री सिद्धाचले कपर्दी नामे यक्ष श्री संघने कुशलकारक थयो. एटले विरति मास एक सुधी कीजे तो २९ उपवास कीधानो लाभ थाय. यः पूर्वं तंतुवायः कृतसुकृतलवैर्दूरितः पूरितोऽद्ये, प्रत्याख्यानप्रभावादमरमृगदृशामातिथेयं प्रपेदे, सेवा - हेवाकशालि: प्रथमजिनपदांभोजयोस्तीर्थरक्षादक्षः श्रीयक्षराजः स भवतु भवतां विघ्नमर्दी कपर्दी. आ कपर्दी यक्षनो संबंध पूरो थयो . हवे श्री वज्रसेनसूरिए नव वर्ष गृहस्थपणुं भोगव्युं, सर्व वर्ष ११६ श्री वज्रस्वामि गुरूनी सेवा शिष्यपणे कीधी, अने ऋण वर्ष युगप्रधानपद भोगव्युं. सर्व आयु वर्ष १२८ श्री वीरात् ६२० वर्षे [ पुनः श्री विक्रमादित्य थकी १०८ वर्षे ] श्री वज्रसेनसूरि स्वर्ग पाम्या. एवामां श्री वीरात् ५७० वर्षे एटले वि.सं. १०८ वर्षे श्री सिद्धक्षेत्रे शा जावडे तेरमो उद्धार कर्यो. श्री वीरात् श्री वज्रसेनसूरि चिरं राज्ये वर्ष ६०९ पुन: वि.सं. [१३९] वर्षे दक्षिण देशमां कर्णाटक देशे दिगंबर नामे सर्व विसंवादी सातसे बोलनी प्ररूपणा स्थापी आठमो निन्हव प्रगट थयो. गिरिनारे शा जावडे उद्धार कर्यो. पुन: श्री वीरात् ६२० वर्षे श्री १५. चंद्रसूरि : सल्लहड गोत्र श्री वज्रसेन चंद्र शाखानो उदय जाणी चार गुरूभाइमां श्री चंद्रसूरिनी पटस्थापना कीधी. अन्य तृक [तृण] गुरूभाई शालामा रह्या घणा गोत्र प्रतिबोध्या: श्री चंद्रसूरिथी चंद्रगच्छ एवं त्रीजुं नाम पड्यं. ते चंद्रगच्छमां केटलाक गच्छ अने अनेक आचार्य पण थया छे. वि.सं.४७७मां निवृत्ति कुलमां राज चैत्रगच्छीय श्री धनेश्वर [ सूरि] सवा लाख ग्रंथ श्री सिद्धाचल महातीर्थना महात्म्य ए ग्रंथना कर्ता हता त्यारे वल्लभीनगरे श्री शिलादित्य राजा अल्पायु अने अतः विकल्पी ते पूर्व ग्रंथ सवा लक्ष हतो तेमांथी सार-सार-संबंध दश हजारनी संख्याए उद्धरी श्री सिद्धाचल महात्म्य त्यां नदतटि कह्या. ब्रह्मद्वीपिका शाखानी उत्पत्ति : आहीर देशमां अचलपुरना परिसरे कृष्णा अने बेना ए नामनी बे नदीना वचमां ब्रह्म नामे द्विप हतो त्यां ४९९ तापसना परिवार साथे देवशर्मा Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपगच्छनी पट्टावली ३७३ नामे कुलपति रहेतो हतो. ते मुख्य देवशर्मा पोतानो महिमा वधारवा सर्व तापसने बे पगमां ओषधीनो लेप करी संक्रांतिना पर्वना पारणाने दिने बेना नदीना जल उपर चालतो अचलपुरमां आव्यो. आ चमत्कार देखी मिथ्यात्वी गृहस्थ भोजन दइ प्रशंसा करता के आ तपस्वी महा तपशक्तिथी चमत्कारी छे अने जैननी निंदा करी श्राद्धोने कहेता के 'तमारा जैनमां कोई एवा प्रभावक नथी.' एवामां त्यां विहार करता श्री वज्रस्वामीना मामा श्री आर्य समिति [समित] सूरि आव्या त्यारे जैन गृहस्थे तापसनो संबंध कह्यो. आ गृहस्थ वचन सांभळी गुरूए विचार्यु के कोई औषधीना उपयोगथी कपट छे, तपशक्ति नथी. गुरूए श्रावकने तेडी कडं, ‘ए तापसने सारी रीते बे पग धोइ जमाडजो.' गृहस्थे तेम ज कर्यु. 'अमारो हर्ष छे' एम कही बलात्कारे देवशर्मा तापसे ना ना कही बे पग [घणे] पराक्रमे धोया. भोजन दइ वोलाव्या. लोकवृंद भेगो थयो. पाद[लेप]नी औषधी धोवाथी नदीमां अधवच बुडवा लाग्यो त्यारे लोके कपट कही निभ्रंच्छ्यो . मुख झांखुं थयुं. तेवामां तेने प्रतिबोधवा श्री आर्य समिति [समित] गुरू त्यां नदितटे आवी सकल लोकवृंद देखतां चपटी देई गुरूए कह्यु, 'हे बेने,] अमारे पेली पार जवा वांछा छे' एटले नदीना बेउ कुल एकठा मळ्या. सकल लोकना मनमा विस्मय थयु. त्यारे [श्री आर्य समितसूरि] आखा मनुष्यवृंद [साथे] तापस स्थानके जइ धर्मोपदेश दइ ते ५०० तापस प्रतिबोधी दीक्षा आपी अने सघळाने शिष्य कर्या. बधा शालाए आव्या. जिनशासनोन्नति थइ, त्यांथी ब्रह्माणी गच्छनी वीरात् ६११ वर्षे ते तापस साधुथी श्री ब्रह्मद्वीपीका कहेवाणी. १५ पाट सुधी [थिरावली सूत्रे करी]स्थवीर कहेवाणा. हवे तेना शिष्य [आचार्य कहे छइ.] १६. सामंतभद्रसूरि : श्री सूरि वैराग्यनिधि हता. कोई वखत तेओ वाडीने विषे रहेता हता, कोई वखत यक्षना देहरामां वासो करता हता, कोई वारे वनमा वासो रहेता हता. एम यावज्जीव अमायी निस्पृहपणे सकल छत्रीस गुणे संपूर्ण सूरिने देखी लोके वनवासी एवं बिरूद आप्यु. त्यांथी चोथं नाम वनवासी गच्छ कहेवाणुं. वीरात् ८८६ वर्षे चैत्यवासी थया. वि.सं.४२८ वर्षे अनंगसेन तंअरथी दील्ली नगरनी स्थापना थई. १७ वृद्धदेवसूरि : वि.सं.५९२मां श्री साचोरापुर नगरमां उइसा नगरथी आवी चहुआण श्री नाहडे श्री वीरबिंब अढार भार सुवर्णमयी सप्रसाद स्थाप्यु, अने वृद्धदेवसूरिए प्रतिष्ठा करी. १८. प्रद्योतनसूरि : एवामां वि.सं.५९५मां अजयमेर नगरे श्री ऋषभबिंब प्रतिष्ठापित थयु. पुन: सुवर्णगिरिए दोश धनपतिथी द्विलक्ष द्रव्य सुकृति [करी] Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह यक्षवसही नामे श्री वीरबिंबि प्रासाद सहित प्रतिष्ठा थइ अने [ए ज सूरिए] प्रतिष्ठा करी. १९ मानदेवसूरि : मूरिपदना महिमा थकी षटविगयत्यागी. श्री सूरिने भक्तिवंत गृहस्थ भक्ति करी आहार आपे तो आहार न लेवो एवी प्रतिज्ञा हती. षट् विगयना त्यागी. तपना महिमाथी १ पद्मा २ जया ३ विजया अने ४ अपराजिता ए चार देवी श्री गुरूनी भक्ति साचवती. अमारि पलावती. श्री सूरिए नाडोल नगरे लघु शांति निपजावी तेने संभळावी तथा तेने जल मंत्री छांटवाथी चतुर्विधि संघथी महामारी काढी. संघ उपद्रवरहित थयो. श्री सूरि संघना कुशलकारी थया. श्री गुरूनो वृद्ध सिंध देशमा विहार थयो. उच गाजीखान देराउल प्रमुख नगरे घणा सोढा राजकुमार प्रतिबोधी उपकेश कर्या. आनो विस्तार संबंध प्रभावकचरित्रमा छे, ते जोई वांचवो. २०. मानतुंगसूरि : अष्टनयगर्भित भयहरस्तोत्र कह्यो. 'नमिउण' ए नामर्नु स्तोत्र श्री पार्श्वनाथनी स्तवनारूपी श्री पद्मावतिनी कृपा थकी रच्यु. ते माहि 'विलसंते भोग भीसण' ए आठमी गाथा कहेता जेणे नागराजाने वश कर्यो. श्री सूरिए श्री चक्रेश्वरीनी सहायथी वृद्ध भोजराजनी सभाने विषे श्री भक्तामर ए नाम स्तोत्र प्रगट कर्यु. भक्तामरस्तोत्रनी उत्पत्ति : मालवदेशमां उज्जेणी नगरमां राजा श्री वृद्ध भोज राज्य करता हता. त्यां मयूर अने बाण ए नामे बंने वाडव महाविद्यापात्र रहेता हता. एकदा ते बंने विद्याविवाद राजसभामां करता, मांहोमांहे अहंकार धरता हता. एक कहे, 'हुं वधारे भणेल छु, त्यारे बीजो कहे के, ‘हुं अधिक पात्र छु.' आम मांहोमांहे मत्सर धरता देखी वृद्ध भोजे कडं, 'दक्षो ! तमे बंने काश्मिर देशमा जाओ. त्यां शारदा जेने विद्यावंत कहे ते मोटो पंडित.' बंने राजानु वचन सांभळी काश्मीर देश जवा नीकळ्या. अनुक्रमे घणो मार्ग उल्लंघी शारदामंदिर प्रत्ये पामी भोजन करी संध्याए ते बंने सूता छे एटलामां सरस्वतिए परीक्षा अर्थे मयूरने अर्ध जागतां समस्यापद पूछ्यु के 'शतचंद्र नभस्थलं'. आ सांभळी मयूरे का, दामोदरकराघातविह्वलीतनचेतसा, दृष्टं चाणुरमल्लेन शतचंद्र नभस्थलं. आवी रीते मयूरे समश्या पूरी. आ सांभळी पुन: बाणनी परीक्षा करवा शारदाए ते समश्यानुं पद पूछ्युं. त्यारे बाणे अर्ध जागता कह्यु: यस्यामुत्तंगसौधाग्रे विलोलवदनांबुजे, विरराज विभावर्यां शतचंद्र नभस्थलं. आवी रीते समस्या बाणे पूरी. आ बनेनी वाणी सांभळी कुमारिकाए का के Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपगच्छनी पट्टावली ३७५ 'बंने महा प्रज्ञ छो.' आईं बिरूद लइ केटलेक दिवसे घेर आव्या. बंने पंडित कहेवाणा. तोपण मयूरने वृद्ध जाणी भोज घणो आदर आपे एटले बाण द्वेष धरी स्वहस्ते चउरंगो थई चंडिकाना प्रासादे बेठो. चंडिकाना काव्य ६१ करी स्तवना करी एटले चंडी प्रत्यक्ष थइ कहेवा लागी, ‘वर मांग, हुं प्रसन्न थइ छु.' ते बाणे कडं, 'लोकना आश्चर्यपणाथी हस्तपाद नवपल्लव आपो.' देवीए कडं, 'थशे'. एटले राजकचेरीमा हस्तपाद नवा लइ नगर मध्य थइ दरबारमा बाण आव्यो. राजाए तेने महा आम्नायवंत जाणी आदर आप्यो. आवो चमत्कार जोइ राजा श्री वृद्ध भोज सभा समक्ष सकल पंडितमंडळीने कह्यु के 'शिवदर्शन विना आवा चमत्कार-आम्नाय अन्य दर्शनमां न होय'. आq सांभळी राजानो कामदार जैनी हतो तेणे कडं, ‘आ ज नगरमां जैनाचार्य श्री मानतुंगसूरि महाम्नायना धारक महाविद्यापात्र वसे [निगवी] छे.' ते सांभळी वृद्ध भोजे श्री मानतुंगसूरिने कचेरीमा तेडी लावीने [वांदी] का, 'हे दर्शनी ! तमे महा पुरूष छो ते माटे तमे शासननो महिमा करो.' त्यारे श्री मानतुंगे वृद्ध भोजने कह्यु, 'पगथी कंठ सुधी आठील्ल अडतालीस ताळा सहित गाढी मारा देहने करो,' राजाए सहु कचेरीना मनुष्यना देखतां तेम ज कीधुं. पछी त्यांथी उपाडी तुरामां घाली बारणे ताळां दइ रक्षक मूक्या. कडं, 'सज्जपणे रहेजो.' श्री गुरू ओरडामां बेटा. श्री ऋषभस्तुति तद्रूप श्री भक्तामर स्तोत्र कहेतां श्री ऋषभदेवनी किंकरी श्री चक्रेश्वरी शक्ति आवी. एक-एक काव्ये एक निगड एक तालुं उघाडे. आम कहेतां थकां 'आपादकंठमुरुशृंखलवेष्ठितांग' ए ४२मुं काव्य कहेता थकां सर्व आठील्ल भागी तुराना कपाट खूल्या. श्री सूरि रक्षकनी पासे आवी उभा. सेवके जई वृद्ध भोजने विनव्या. श्री गुरू कचेरी आव्या जोई राजा नम्यो अने आश्चर्य पामी कहेवा लाग्यो, धन्य ए धर्म, धन्य दर्शन जैन, के ज्यां आवा प्रभावक महाम्नायना जाण श्री मानतुंग जेवा रत्नत्रयीना आराधक छे.' सूरिने महानिस्पृही निर्लोभी जाणी परमार वृद्ध भोजे का, 'तमे केनुं स्मरण कर्यु हतुं ?' त्यारे गुरूए कह्यु, 'भक्तामर स्तोत्र रूपे श्री ऋषभदेवनी स्तुतिनुं स्मरण कर्यु हतुं.' वृद्ध भोजे कडं, 'ते कहो. ते स्तोत्रने विषे आठील्ल त्रुट्या एवा मंत्राम्नाय छे ?' त्यारे श्री सूरिए स्वर पद अक्षर मंत्र युक्त सभा समक्ष प्रगटपणे श्री भक्तामरस्तोत्र कह्यो. आ सांभळी वृद्ध भोजे सूरिने नमी महामहोत्सवे शालाए पधराव्या. ते दिवसथी भक्तामरस्तोत्रनो महिमा भूमंडले लोकने विषे विस्तर्यो छे, श्री जिनशासननी कीर्ति थई छे. [इति भक्तामर स्तोत्रनी उत्पत्ति जाणवी.] २१. वीरसूरिः श्री सूरीने दक्षिण दिशाए नागपुर नगरमां नेमिनाथना बिंबनी प्रतिष्ठा Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ करी. प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह एवा समामां श्री वीर निर्वाणात् ८४५ वर्षे एटले सं. ४२७ [४२१] वर्षमां पश्चिम दिशाए वल्लभी नगरनो भंग थयो. २२. अभयदेवसूरि [जयदेवसूरि ] : आ सूरिए रणतभमर [रणतंभोर ] ने गिरिशृंगे सं. ५७२मां श्री पद्मप्रभ बिंबनी प्रतिष्ठा करी. अने श्री पद्मावतीनी मूर्ति स्थापी. श्री गुरूए थलेची मरूघरे विहार कर्यो. त्यां भट्टी क्षत्रियना प्रतिबोधक थया. २३. देवानंदसूरि : पश्चिम दिशाए देवकीपत्तने सं. ५८५मां श्री पार्श्वनाथनुं बिंब स्थाप्यं. सं. ५७१मां कच्छ देशमां सुथरी गामे शिव अने जैननो वाद थयो. २४. विक्रमसूरि : श्री गुरूने शारदा प्रसन्न थई. श्री गुर्जर देशमां सरस्वति नदीने तटे खरसडी ग्रामे बेमासी चोविहार तप कर्यो. ते तपना महिमाथी शारदाए गुरूने नमी पिपलीनो वृक्ष सुको हतो ते नवपल्लव कर्यो. श्री गुरूनी कीर्ति थइ. पुनः श्री गुरूए धान्यधार देशमां गोला नगरमां घणा परमार क्षत्री प्रतिबोधी उपकेश कीधा. २५. नरसिंहसूरि : श्री सूरिए उमरगढमां पुहकरना तळावने कांठे भादा प्रमुख नगरमां नवरात्रीए अष्टमीने दिने महिषवधनो व्यंतरयक्ष भोग लेतो तेने धर्मोपदेश दइ महिषनो वध मूकाव्यो. २६. समुद्रसूरि : मेवाड देशमां कुंभलमेरे खोमाण क्षत्री जाति संसार असार जाणी गुरू श्री नरसिंह पासे दीक्षा लीधी तथा [ श्री गुरूए योग्य जाणी गच्छनायकपद दीधुं . ] अणहिल्लपत्तने (?) श्री सूरि बाहडमेर कोटडा प्रमुख नगरमां चामुंडा - प्रतिबोधक थया. पुनः दिगंबर जीती वेराट नगरमां तथा अणहिल्लपत्तनमां जय वर्यो. उक्तं खोमाणराजकुलजोऽपि समुद्रसूरिगच्छे शशांककल्पप्रवणः प्रमाणी, जित्वा तदा क्षपणकान् स्वयंशं वितेने, नागहृदे भुजगनाथनमस्य तीर्थे. एवामां सं. ५२५मां श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ध्यानशतकना कर्ता थया. एवामां छ युगप्रधान थया. तेनां नाम १ नागहस्तिसूरि २ रेवतिमित्रसूरि, ३ ब्रह्मद्विपसूरि ४ नागार्जुनसूरि ५ भूतदिन्नसूरि, ६ भावडहार श्री कालिकसूरि . [ एवं षट् युगप्रधान जाणिवा .] आमां कालिकाचार्य वीरात् ९९९ [ ९९३] वर्षे, केटलाक आचार्य कहे छे ते प्रमाणे ९८० वर्षे एटले वि.सं. ५२३ वर्षे थया. ९४ कालनुं विवरण कं. आ त्रीजा कालिकाचार्य प्रभाविक जाणो. वीरात् १०२१ वर्ष [एक हजार वर्ष माहि २१ ओछइ, पुनः] संवत ५८५ वर्षे याकिनी - महत्तरासुत श्री हरिभद्रसूरि प्रगट थया. हरिभद्रसूरिनी उत्पत्ति : मगधप्रदेशमां कुमारीया गाममां हारिद्रायण गोत्रमां Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपगच्छनी पट्टावली ३७७ हरिभद्र नामे ब्राह्मण व्याकरणप्रमुख षट् शास्त्रना वेत्ता रहेता हता. घणी ब्रह्मक्रियाए करी कुशल हता. पण प्रतिज्ञा हती के 'जे कोई मने प्रश्न पुछे तेनो अर्थ न उपजे - न करी शकुं तो हुं तेनो शिष्य थाउं.' आम चिंतवी तीर्थयात्राए निकळ्या. भृगुक्षेत्र आव्या त्यां एकदा संध्याए नगरमां बजारे जतां धर्मशालाए साधवी प्रतिक्रमण संपूर्ण थतां आवश्यक सूत्रनी गाथा गणे छे ते गाथा आ हती के : चक्की दुगं हरिपणगं पणगं चक्कीण केसवो चक्की, केसव चक्की केसव दुचक्की केसवो चक्की य. १ उभा रही आ गाथा हरिभद्रे सांभळी. शाळाए आवी कह्यु, “भो ! साधवीजी, तमे केवो आ चिगचिगायमान शब्द कह्यो ?' आ सांभळी साध्वीए कह्यु, 'नवू शास्त्र लखीए त्यारे चिग चिग शब्द थाय.' आवं साध्वीकथन[कथक वचन] सांभळी हरिभद्रे चिंतव्यु, ‘मारी विद्यानो प्रयास निष्फळ थयो. आ गाथा साध्वीए कही अने तेनो अर्थ माराथी न थई शक्यो.' तेथी साध्वीने तेनो अर्थ पूछ्यो. साध्वीए कह्यु, 'आ नगर बहार वाडीना स्थानके अमारा गुरू रहे छे ते अर्थ कहेशे.' त्यारे हरिभद्रे वाडीमां जई गुरूने वांदी गाथानो अर्थ पूछ्यो. तेनो अर्थ सांभळी प्रतिज्ञा संपूर्ण करवा शिष्य थयो. योग्य गीतार्थ जाणी श्री गुरूए आचार्यपद दई श्री हरिभद्र नाम आप्यु. ... श्री सूरिए त्यांथी विहार को. श्री हरिभद्र भृगुक्षेत्रे मासकल्पे रह्या. त्यां रहेतां श्री हरिभद्रसूरिने हंस अने परमहंस ए नामे बे शिष्यशिरोमणि शास्त्रना पाठी छे तेणे गुरूने विनव्या के 'अमे बौद्ध मतनी विद्या शिखवा [विद्यानो उद्यम करवा] बौद्ध देशमा जशं.' गुरूए ना कही. तोपण कपटथी बंने बौद्ध मतनी विद्यार्नु रहस्य लेवा बौद्ध देशे गया. बौद्धाचार्य पासे बंने शिष्य विद्या भणता हता. एकदा पुस्तकमां शास्त्रना अक्षर विषे बौद्धाचार्ये खटीका दीधी दीठी. तेणे चितमा विचार्यु के कोईक जैन छे. ते बंनेनी परीक्षा करवा निसरणीना पावडीए जिनप्रतिमान स्वरूप खडीना खंडथी आलेखी गुरू छात्रने भणाववा मेडीए बेठा एटले बौद्धना विद्यार्थी स्वरूप उपर पग मूकीने भणवा लाग्या. तेनी पछी हंस परमहंस आव्या. जिनबिंब देखी खडीना खंड थकी प्रतिमाहृदये जनोइनो आकार करी ते उपर पग थापी आवी आचार्य पासे भणवा बेठा. ____ आचार्ये जाण्यु के ‘आ जैन छे' अने बंने शिष्ये पण जाण्यु के आचार्ये आपणने जैन जाण्या छे. मरणभयथी पुस्तिका लइ नभमार्गे विद्याबलथी पोताना देश जवा निकळ्या. आचार्ये जाण्युं अने बौद्ध राजाने कडं, ‘ए जैन मालूम थया छे. आपणा मतनी विद्याना रहस्यनी पुस्तिका लई जाय छे.' आ सांभळी राजाए सैन्य चढाव्युं. विद्यायुद्ध करतां प्रथम हंसने हण्यो. बीजा परमहंस साथे विद्यायुद्ध [विद्यावाद] करतां Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह परमहंस लडथड्यो अने आवतो आवतो श्री भृगुकच्छे शकुनिका विहारमां तेणे बौद्ध पुस्तिका नांखी. पछी ते बीजा परमहंसने पण हणीने बौद्ध सैन्य प्रात:काळ थयो जाणी पोताना देशे पार्छु वळ्युं. हवे प्रभाते गृहस्थ श्री मुनिसुव्रतना दर्शने आव्या. देवप्रदक्षिणा करतां गृहस्थने रजोहरण अने चोपडी एम बे लाध्यां - ते श्री हरिभद्रने आप्या. गुरूए रजहरण ओळख्युं. बौद्ध पुस्तिकामांथी [पुस्तिकानी चुपडी माहि] घंटाकर्णनो मंत्र वांच्यो . श्री हरिभद्रे चिंतव्युं 'मारा बने शिष्य बौद्ध देशमां विद्या भणवा गया हता तेने बौद्धे कोई रीते [केइ करी] विद्यानुं रहस्य लइ जता जाणी हण्या दीसे छे.' गुरूने क्रोध थयो. शालाने यंत्रकपाट करी तेल पूरीने लोहनी कडाई अग्नि पर चढावी गुरूदत्त पूर्वाम्नाय स्मरी जे वखते कडाइमां कांकरी नांखे ते वखते बौद्ध तपस्वी चौदसें चुमालीस १४४४ मंत्रकार्षित शकुनिका रूपे कडाइने प्रदक्षिणा देवा लाग्या. तेवामां याकिनी नामे साध्वी के जेना मुखमांथी गाथा पूर्व सांभळी हती अने तेनो अर्थ तेना गुरू पासेथी जाणी [वाडीमां जाइ गुरूमुखथकी गाथार्थ सांभळी संपूर्ण प्रतिज्ञाए हरिभद्रे] व्रत लीधुं हतुं अने जेनाथी ने उपकार थयो हतो [एटले इहां याकिनी नामनी साधवी ते श्री हरिभद्रसूरिने उपकारिणी थइ] अने ते माटे याकिनीसूनु श्री हरिभद्रसूरि ए बिरूद कहेवायुं तेणीए [ श्री हरिभद्रसूरिनी गुरूबहेन याकिनी साधवीए] उंचुं जोयुं के शकुनिका रूपे बौद्ध आकर्ष्या [ बौद्धाचार्य आवता] दीठा... साध्वी जाण्य के क्रोधनां फळ कडवां छे. घणा जीवने असंतोष उपजे छे. आम जाणी आचार्यना क्रोधनी शांति करवाना हेतुथी सिझातरी श्राविका साथे लइ शालाद्वारे आवी उभा रही गुरू प्रति एक पंचेंद्रय जीवनी घात अजाणपणे थाय तेनी आलोचणा शुं ?' एम पुछ्युं त्यारे शालाए रह्या थका गुरुए कह्यं, 'पंच कल्याणक तप ते दश उपवास ने दश चोविहार कह्या छे. एटले बे उपवासे एक कल्याणक तप जाणवो. आथी पंच कल्याणकनी आलोयणा तमने आवी.' आ सांभळी साध्वीए कह्युं, 'अजाणपणानी आवडी आलोयण कहो छो त्यारे जाणपणाथी घणा पंचेंद्रिय जीवना वधनी आलोयण केवी थाय?' आ सांभळी गुरूनो क्रोध शांत थयो. आकर्षेला बधा बौद्ध छोडी दीधा. आ असार संसारमां कोण गुरू कोण शिष्य एम चिंतवी स्वचित्तथ कृत पापशुद्धिना हेतुए आकर्षित बौद्धनी संख्या १४४४ प्रकरण पूजा पंचाशक प्रमुख एक एक पंचाशकनी पचाश पचाश गाथा थाय एवा ५० पंचाशक त्रीस अष्टक सोल षोडशक पुनः आवश्यक वृद्ध वृत्तिना करनार थया. वि.सं. ५६५ वर्ष हरिभद्रसूरि स्वर्गे गया. वळी हरिभद्रसूरिना भाणेज श्री सिद्धार्षि उपमितभिवप्रपंच, श्री चंद्रकेवलीचरित्र, Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपगच्छनी पट्टावली ३७९ ३ श्री विजयचंद्रकेवलीचरित्रना कर्ता स्वर्गवास पाम्या. २७. विबुधप्रभसूरि : एवामां वीरात् १०१४ एटले सं.६७१ [६०१] वर्षे मालव देशमां धार नगरे श्री सम्मति ग्रंथना कर्ता श्री मल्लवादीसूरि थया. ते अवसरे श्री बप्पभट्टिसूरि प्रगट थया. बप्पभट्टिसूरि : जूडाहड[जुमाहड] देशे गोपाचलनी तलेटीए गोपनगर (ग्वालीअर) वसेलुं छे त्यां चहुआण श्री ओमराजा राज्य करता हता. एवामां श्री भारद्वाज वंशे प्रश्नवाहनकुलमां हर्षपूरीय गच्छे श्री बप्पभट्टीसूरि विहार करता आव्या. श्री गुरू उपकारीपणे धर्मकथा कहेता हता त्यारे राजा श्री आम [संघ] सहित गुरू प्रत्ये विनति करी के 'तमे महा साधु छो. भव्यजीवने पवित्र करवा जंगमतीर्थ छो. ते माटे आ गोपनगरमां चोमासु अवश्य रहो !' त्यारे गुरूए कह्यु, 'ज्यां लगी तमारी सुदृष्टि हशे त्यां लगी रहीशं !' एम कही श्री गुरू चोमासु रह्या. आम प्रमुख संघ श्री गुरूनी बहुविधि भक्ति साचवी निरंतर गुरू वांदी गुरूमुखे धर्मव्याख्यान सांभळी गुरूवाणिथी रंजित थका परम जैन राजा थयो. एकदा पुन्य तीथिने दिने आम राजानी स्त्री नीलां वस्त्रनो शणगार पहेरी गुरूमुख आगळ गुरूस्तुति साथे [गृहलीए] स्वस्तिक करे छे त्यां पगलेपगले वारंवार मुखे मरकलडा करे. त्यारे आम राजाए गुरूने पूछ्युं : बाला चमक्कंतीए ए ए कुणह थकी समुहभंगी, त्यारे गुरूए कह्यु : नूनं रमणी पएसे महलिया छवइ मुहभंगे. आ वचन सांभळी राजा म्लान मुखवाळो थयो, एटले श्री गुरूने मुक्ताफले वधावतां नील वस्त्र देखी वृद्धावस्थामां चक्षुना तेजनी हीणताना योगे नीला वस्त्र उपर श्री सूरिनी त्यां दृष्टि स्थीर रही. त्यां आमनी पण दृष्टि थई. चित्तमां संदेह थयो के साधुनी दृष्टि नील शणगार उपर रही. व्याख्यान सांभळी घेर आवी राजाए गुरूनी परीक्षा करवा अर्थे पोताना घरनी वडी दासीने नीलो शणगार पहेरावी रात्रीनो सवा प्रहर गया पछी शालामां गुरू पासे मोकली. जेवामां रात्रीए श्री बप्पभट्टीसूरि संथारापोरसी कही संथारामां संथार्या छे, त्यां ज तेणीए आवी आचार्यना चरणनो स्पर्श कर्यो. कोमल हाथ जाणी गुरूए का, “ए स्त्री कोण ?' त्यारे तेणे कर्तुं के 'राजानी राणीनी मुख्य दासी राजानी आज्ञाथी अहीं तुम्हारी भक्ति माटे आवी छु.' गुरूए निरादरे निभ्रंछा करी काढी. ते दासी म्लानमुखी थई. आम पासे आवी सर्व स्वरूप कडं. हवे श्री गुरूए उपयोग देतां थका धर्मकथाए नीला वस्त्रनो उपयोग थयो अने आमना मनमां संदेह थयो ए जाणी सुदृष्टिनी प्रतिज्ञा Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह पूर्ण थई एम समजी प्रभातना प्रतिक्रमणनी क्रिया साचवी गंतुकमन थया. विहार करता पहेलां खडीना खंडथी शालाना बारणे गाथा लखी : दो तुंबडाइ हत्थे वयणे धम्म अख्खराइ चत्तारि, विउलं च भरहवासं को अम्म पहुत्तणं हरइ. पछी आम साथे जे अन्य राजाने माहोमांहि विरोध हतो तेना नगरमां आव्या. त्यां आम राजाना गुरू आव्या जाणी घणो आदर दई बे हाथ जोडी कडं, 'हे पूज्य, ज्यारे आम अत्र आपने तेडवा आवे त्यारे आमना नगर जावं. नहि तो नहि.' एहवी प्रतिज्ञा करी तिहां रह्या. [हवे ग्वालेर नगरे गृहस्थ प्रातकाले देवदर्शन करी शालाए आव्या. गुरू नहीं.] आम नगरमा वार्ता थई एटले आम राजा पण आव्या. शालामां जोतां बारणे ए लिखित गाथा देखी अने ते वांची दासी मोकल्यानी वात सांभरी. मनथी पश्चाताप करतो के खरे माराथी अवज्ञा थइ गई. केटलेक दिने गुरू प्रत्ये विनति कहावी, त्यारे गुरूए धर्मस्नेह जाणी कहेवराव्यु के तमे वेष परावर्ती [परिवर्ते] आवजो. त्यारे कौतकी रूपमा आम राजाए कापडी(कपर्दिक)नो वेष, धुसर मलीन थई मस्तके आम्र [आम्ल] पत्रनो छोगो धरी बंने कान उपर तुअरीपत्र स्थापी, वळी बे हाथमां बीजोरांना फल ग्रही शत्रुना नगरमां ज्यां गुरू पोताना विरोधी राजा सहित संघ समक्ष व्याख्यान कहेता हता त्यां उतावळे आवी उभो रह्यो. आचार्ये आमने ओळख्या. सामु जोई आदर दई का, ‘आम ! आवो, आम ! आवो.' आ सांभळी सकळ सभा महा महा धुंसर रूप देखी. आमना शत्रु राजाए ते श्री गुरूने पूछ्युं, 'आ पुरूषना मस्तके शुं छे ?' त्यारे गुरूए कह्यु, [‘ए आम्ल'. ते सांभळी विरोधी राजा पुन: पुछे, “ए पुरुषने मस्तके शुं ?' त्यारे गुरू कहे,] 'तु अरी.' ते सांभळी विरोधी राजाए गुरूने पूछ्युं, 'आ पुरुषना बे हाथमां शुं छे ?' गुरूए कडं, ‘ए बीजोरां'. आq कही पछी गुरूए समस्यामां आमने 'विहरति’ एम कर्दा एटले गुरूकथन सांभळी शाला बहार नीकळी आमे बारणे खडीना खंडथी ए श्लोक लख्यो : गुरो ! [गिरौ] गोपपुरे रम्ये प्रमो ! तत्र पधार्यतां, सभामध्ये समागत्य प्रतिज्ञा पूरिता मया. 'हे गुरू ! प्रभु ! रम्य गोपपुरमां पधारजो, में सभामां आवीने आपनी प्रतिज्ञा पूरी करी छे.' आ श्लोक सकल लोकनां देखतां लखी आम पोताना नगरे आव्यो. बीजे दिवसे संघ तथा राजा पासे गुरूए आज्ञा मांगी के, 'अमे गोपनगर जईशं.' त्यारे आमनो शत्रु राजाए कह्यु, 'ज्यारे तमने तेडवा आम अहीं आवे त्यारे जवु एवं तमारूं वचन छे.' Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपगच्छनी पट्टावली ३८१ आ सांभळी गुरू कह्युं, 'ते तो काले व्याख्यानमां आवीने गया.' त्यारे विरोधी राजाए कयुं, 'तमे केम मने कह्युं नहि ?' गुरूए कह्यं, 'संघ समक्ष अमे कह्युं के आम ! आवो, आम, आवो ! पुनः अमे कह्युं के तूअरी. पुनः तमे कह्युं के एना हाथमां शुं ? त्यारे अमे कह्युं के ए बीजोरां, एटले आमने नामे आम राजा जाणवो. पुनः तु अरि कहीतां तमारो ए शत्रु; बी जोरा कहेतां तमे पण राजा अने ए पण राजा, वळी ए राजा पण ए जातनो श्लोक पूर्ण प्रतिज्ञानो बारणे सकल लोक देखतां लख्यो छे. आ सांभळी आमशत्रुए विचार्य के शत्रु सांकडमां आव्यो हर्तो पण तेना पुन्यथी ते कुशळ गयो. प्रतिज्ञा संपूर्ण थये संघनी आज्ञा लइ गुरू ग्वाले (ग्वालीअर) नगरे आव्या. आम राजा शालामां महोत्सवथी पधराव्या. महा हर्ष पामी श्री बप्पभट्टी सूरी मुखथी राजाए बार व्रत उचर्या. एकदा गुरूने आमे कह्युं, 'तमे श्री गुरू मारा उपर कृपा करी कई आ जीव उपर सुकृत थाय तेम कहो !' त्यारे गुरूए कह्युं, 'आ असार संसार तेहमां अढार दोष रहित श्री जिनेश्वर, तेनी भक्ति ए ज सार, जे थकी प्राणीने सद्गति थाय. कह्युं छे के, कारयति जिनानां ये तृणावासमपि स्फुटं, अखंडितविमानानि ते लभंतेऽत्र विष्टपे. ते गुरू-उपदेश सांभळी ग्वालेर नगरमां एकसो ने आठ गजना [ उंचो] प्रसाद निपजावी तेमां श्री वीरबिंब सं. ७५६मां भूमिगृहे [ थाप्यो] अने श्री बप्पभट्टीए प्रतिष्ठा करी. ळी आम राजा श्री सिद्धगिरिए ऋण लक्ष मनुष्यनो संघाधिपति थई यात्रा करी. १२ १/२ कोडी सुवर्णनी सुकृति करी श्री जैन धर्म आराधी आम चहूआण सं. ७६०मां स्वर्गवास पाम्यो. पुनः श्री सूरिने बाल्यावस्थामां ७०० गाथा सूर्योदये मुखपाठे चढती ना घोषना शोषथी सात शेर घृत आहारमां जरतुं. श्री वीरात् १३३५ एटले सं. ७६१मां श्री गोपाचलाधीश राजा श्री आमप्रतिबोधक श्री बप्पभट्टिसूरि स्वर्गे गया. यः तिष्ठति वरवेश्मनि सार्द्धद्वादशस्वर्णकोटिनिर्मापिते आमराज्ञा गोपगिरो जयति जिनवीरः ॥ २८. मानदेवसूरि : पोताना देहनी असमाधिथी चित्तथी श्री सूरीमंत्र विसरी गया. केटले दीने श्री सूरिने समाधि थई त्यारे श्री सूरी गिरिनार पर्वते आवी बेमासी चोविहार तप कर्यो. अंबिकाए आवी कह्युं, 'आ शा माटे?" त्यारे सूरिए कह्युं, 'मारा देहे असमाधि थई थी सूरिमंत्र चित्तथी विसरी गयो छु' देवीए सूरीमंत्र संभारी वीजया देवीने पूछी Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह श्री सूरीने सूरिमंत्र कह्यो. विद्यासमृद्र-हरिभद्रमुनींद्रमित्रः सूरिर्बभूव पुनरेव हि मानदेवः, मांद्यान्प्रयातमपि योऽनघसूरिमंत्रं लेभेऽम्बिकामुखगिरा तपसोज्जयंते.. २९, जयानंदसूरि : श्री सूरिना उपदेशथी सं.८२१मां श्री हमीरगढे, विज्जानगरे, ब्रह्माणी, नंदीय ब्राह्मणवाटक मुहुरि श्री पास ईत्यादि श्री संप्रतिकारक नवशत प्रासादनो जीर्णोद्धार प्राग्वाट मंत्री सामंते कीधो. पुन: वि.सं.८४१थी मांडी ८४५ सुधी पंच दुकाली थई. ते अवसरे घणा साधुमर्यादाथी शिथिल थया त्यारे [उ.] श्री गोविंद,[उ०] श्री संभति. श्री दुष्यगणि क्षमाश्रमण, उग्र तपस्वी श्री क्षेमर्षि, मलधारीगच्छ श्री हपतिलक, श्री स्थूलिभद्रवंशे श्री हर्षपुरीगच्छे श्री कृष्णर्षि प्रमुख गीतार्थ मळी श्री सूरिना वचनथी समय विषम जाणी महानगरे शुभस्थानके सिद्धांतना भंडार थया; ज्ञानयत्न कीधो. पुनः सं.८६१मां श्री करहेडा नगरे श्री पार्श्वनाथनो प्रासाद थयो. उपकेश भूत गोत्रे कोठारी खिमसिंघे कराव्यो. एवा अनेक सुकृत श्री सूरिना उपदेशथी थया.. ३०. तत्पट्टे श्री रविप्रभसूरि : वि.सं.९२९ वर्षे दिल्ली चहूआण थया. तुअरने दिल्लीथी काढ्या. सं.९५२मां श्री नाडउल नगरे श्री नेमिबिंबनी सूरिए प्रतिष्ठा करी. ए अवसरे दंडनायक श्री विमल प्रगट थयो. विमल संबंध: श्री गुर्जर देशमा वढीआर खंडे पंचासरा गामथी आवीने वनराज चावडो सं.७९५मा वणोद नगर वसावी रह्यो, पण चारे दिशामां भयंकर वन देखी उदासी थयो त्यारे श्री वीरनिर्वाण पछी १२७२ वर्षमा एटले सं. ८०२मां अणहिलवाड पाटण वसाव्युं. त्यारे विमलना वृद्ध पिताने गाम गांभूथी तेडी लावी श्री वनराजे पाटण मध्यममां वसाव्या. तेना वंशमां प्रा.दो. वीरो तेनी भार्या वीरी कुखे सं.९४५मां विमलनो जन्म थयो. अने ८ वर्षथी ११ वरस सुधी हाटमा वेपार को. १३मां वर्षे श्री धर्मघोपसूरिनो उपदेश सांभळ्यो सं. ९...मां श्री पत्तनाधीश श्री भीम राजाए बाणपराक्रम जाणी प्रधानपद आप्यु. ४ वर्ष सुधी देश साध्यो.[वर्ष....४ देश साध्यो.] सं.९....वर्षमां द्वादश म्लेच्छ छत्रोद्दालिक सकलभूपचूडामणि बिरूदधारक चंद्राउली, आरासण नगर स्थापक, पुन: वि.सं.९८८मां श्री धर्मघोषसूरि नागिंद्र, चंद्र, निवृत्ति, विद्याधर प्रमुख सकल आचार्य मळी श्री अर्बुद उपर नवीन प्रासादकारक, तेमां श्री वालीनाह [बालानाह] क्षेत्रपाले आपेल श्री ऋषभबिंब स्थापक, पुन: आरासणे श्री नेमिबिंब स्थापक, अन्य एकादश शत महाप्रासादकारक, अढी हजार जीर्णोद्धारकारक. एवा सं.९६१ वर्षमां श्री गिरिनारासन्न श्री जीर्णदुर्गाधिपति राखेंगारनो जन्म थयो. सं.९८९मां पोरू वणिक प्रत्ये द्रव्य दई विमले द्वादश गोत्र प्रति प्राग्वाट कीधा. सं.९९१मां सोमपुरा वाडवने विमले द्रव्य दई शिलावट कीधा. सं.९९३मां Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपगच्छनी पट्टावली ३८३ श्र रायखेंगार स्वर्गे गया. एवामां सुत्तते करी सं.९९९मां [९९३ वर्षे] दंडनायक बिरूदधारक श्री विमल स्वर्गे गया. यत: नागेंद्रचंद्रनिवृत्तिविद्याधरप्रमुखसंघेन, अर्बुदकृत्तप्रतिष्ठो युगादिजिनपुंगवो जयति. १ ते ज वेळाए ए सकलाचार्य मळी पाखी चोदशी दिने थापी. इति विमलोत्पति. ३१. श्री यशोदेवसूरि : गूर्जर देशमा वालिम नगरे नागर वाडव कौशिक गोत्रे सं.९९५मां जन्म थयो. एव ९९७ वर्षमां श्री उमास्वाति वाचक थया. पुन: एवामां वि. सं.९४७मां [९४१मां] श्री यशोभद्रसूरि प्रगट थया. यशोभद्रसूरि संबंध : श्री सांडेरगच्छमां श्री इश्वरसूरिए पोतानी पाटे पद देवाने बदरीदेवी स्मरी ते आवीने कहे, 'अर्बुद आसन्न रोहाहिखंडे पलासी गामे प्राग्वाट नारणगोत्रे शापुनी भार्या गुणी तेनो पुत्र सुधर्म वर्ष पांचनो छे. ते हमणां पोशाले निशाळे भणे छे. त्यां पूर्वकर्मानुयोगे कोइक वाडव पुत्र खडीओ-पाटी एकांत स्थानके मूकी घेर जमवा गया एटले सुधर्मे तेनो खडीओ लीधो. पाछो मूकतां अफळाणो एटले भाग्यो अने बे खंड [खंडखंड] थया एटले वाडवपुत्र आव्यो. बालके का, 'तारा खडीआना सुधर्मे बे कटका कर्या.' त्यारे वाडवपुत्रे का, ‘ते ज खडीओ लउं' मनुष्योए घणो ज वार्यो पण रह्यो नहि. 'तारा मस्तकनी तुंबडी तेमां शालीना तंदुलनो करबओ खाउं तो हुं वाडव.' सुधर्म कहे, 'हुं मरूं ने तने मारूं तो वणिक.' बंनेए एवी प्रतिज्ञा कीधी छे. ते सुधर्म तारा गच्छनी पाटनो उदय करनार छे.' आq कही बदरीदेवी अलोप थई. ते देवीनी वाणी सांभळी श्री ईश्वरसूरि रोहाहिखंडे पलासी ग्राममां आव्या त्यां देवीनी प्रेरणाथी सुधर्मे गुरूनी वाणी सांभळी दीक्षा लीधी. त्यांथी श्री सूरि मुडाहडनगर आव्या. पुन: बदरीदेवी आराधी. देवीए कडं, 'अहीं ए सुधर्मने पदवी आपे. हुं तेने साहायकारी छु.' गुरू देवीना वचनथी मुडाहडनगरमां ते ज घडीए पद आपी श्री यशोभद्रसूरि नाम आप्यु. ते ज घडीए नित्य आठ कवल आहारना अभिग्रहधार श्री आचार्य थया. बदरीदेवी भक्ति साचवे. त्यांथी विहार करता गुरू श्री इश्वरसूरि अने श्री यशोभद्रसूरि ए बंने पाली नगर चोमासु रह्या. त्यां निरंतर आचार्य उत्तर दिशाए सूर्यदेवनो प्रासाद छे ते ज दिशामां देहचिंताए जाय. तेने महातपस्वी जाणी श्री दिवाकर (सूर्य) प्रसन्न थया. आचार्यने का, 'कंइक Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह वर मांगो', त्यारे आचार्य श्री यशोभद्रे कह्युं, 'सकल वांछित [ दे].' सूर्यदेवे कह्युं, 'अस्तु'. गुरूशिष्य त्यां निर्विघ्ने रह्या छे एवामां गुरू श्री ईश्वरसूरिए स्वर्गवास कर्यो. चोमासु पुरूं थतां विहार कर्यो. एम करतां श्री यशोभद्रसूरि बलिभद्र गुरूभाई सहित सांडेरनगर आव्या. त्यां श्री सूरिना उपदेशथी थोसिर [ घोषिर ] गोत्रना दोसी धनराजे सं. ९६९मां प्रासाद निपजावी श्री पासबिंब स्थाप्यं. पुनः आज वर्षमां मुंडाहुडनगरे श्री सूरिना उपदेशथी किन्हडीप्रसाद थयो. त्यां स्वामिवात्सल्ये सांडेरनगरमां घी थई रह्यो दोसी धनराजे गुरूने विनति करी जे 'घृत नहि', श्री सूरिए वीरविद्याना पराक्रमे करी पालीथी घी मंगावी आणी, सामीवात्सलमा श्री गुरूनी कीर्ति थई. पछी त्रीजे दिवसे सांडेरथी दो० धनराज घीनो द्रव्य लई पालीनगर आव्या. शा हुकमोजी तेनी वखारे जई कहे, 'घृतनो द्रव्य ल्यो. ' त्यारे शा हुकमोजी कहे, 'घृत शुं काममां आव्युं ?" त्यारे दोसी धनराजे कयुं, 'श्री जिनप्रासाद-उत्सवे साहमीवात्सले काम आव्यो.' तेना गुमास्ता [ते गृहस्थ ] वखार उघडावी घृतनां ठाम जोयां एटले ते ठाली दीठां ते शा हुकमोजी कहे, 'ए द्रव्य अमारा काम नथी. तमे सुकृत करो !” तेथी धनराजे पालीमां सुकृत कीधुं. श्री नवलखा पार्श्वनाथजी प्रासाद कराव्यो. त्यांथी सूरिए आहड, खमणूर, करहेक, कविलाण, भेसर प्रमुख नगरमां घणा मिथ्यात्वी प्रतिबोधी श्री नाडोल नगरमां चोमासे आव्या एटले त्यां पूर्वकलहकारी प्रतिज्ञाधारी पहेलानो बालमित्र दुकाले अन्नना अभावथी कानफूटा योगीनो शिष्य थयो. मलिन विद्या शीख्यो. केटलेक दहाडे पाछो घेर पलासी गाममां आव्यो. वणिकपुत्रनी शोध करतां ज्यां नाडलाई नगरमा शालाए गुरू व्याख्यान आपे छे त्यां आवी मस्तकनी जटा उतारी सर्प कीधा. व्याख्यानना लोक बीहता थया. एटले गुरुए मुखकारी [ मुखाकारी] पूर्व [ पूर्वलो ] बालमित्र विरोधी ओळख्यो एटले श्री सूरिए बदरीदेवी स्मरी. मुहपत्ति फाडी तेना खंङखंडे नकुल प्रकट कर्या. तेथी पन्नग नाठा. योगी म्लान वदने नाठो. पुनः प्रासादनो वाद थयो. गुरू कांतिनगरीथी [ तथा वल्लीपुर थकी] बावनवीरना प्राक्रमे प्रासाद लाव्या. [ योगीइ शंभू प्रासाद आण्यो. बेउ प्रासाद थंभ्या . ] ते देखी जटीले क्रोधने वशे मंत्रयोगे करी प्रतिमाना मुख वांका कर्या. संघे विनति गुरूने करी जे देवदर्शने कोई मनुष्य नथी आवतां त्यारे गुरूए अठ्योतर जलकुंभ मंत्री बिंबने पखाल कर्यो. बिंब मूल रूपे थइ गया. पुनः प्रासादमां थंभ्या तथा पाट डगमगता जाणी गुरूदत्त आम्नायथी पथरने पाटे यंत्र लखी सकल प्रासाद स्थिर कर्यो. श्री जैनशासननो Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपगच्छनी पट्टावली ३८५ जयजयकार थयो. श्री गुरूनी कीर्ति वधी. आम जटीलने अनेक वादे जीत्यो. जटील देश नगरमां फर्यो. एकदा श्री गुरूए संघने कह्यु, 'आज थकी छ मास संपूर्ण थये मारूं आयु पुरूं थशे, ते माटे मारा मस्तकमां श्री मणि छे ते तमे मरण थया पछी मस्तक मोडी काढी [उरही] लेजो, ते पछी मारा देहनो अग्निसंस्कार करजो.' आथी शिष्य तथा संघे कह्यु, 'बहु सारूं.' केटलेक दीने [योगीए] गुरूनुं मरण जाणी पूर्व संकेते आवी दुधपात्र भरी वेगळो गुप्तपणे रह्यो. गुरूकथनथी कल्पकनो चारे कोर [चहि उपरि] चंदरवो कीधो. बदरीदेवी चितानी पूछवाडे प्रदक्षिणा दे छे एटले ते योगीए वर्षावायुनी उत्पत्ति करी, एवं जाणीने के हुँ मणी लई [मस्तकनी खोपरी] लउं. आथी बदरीदेवीए वायुना जोरे[योगे] पोतानी शक्तिथी योगीने उपाडी एमां [चहि माहि] गुरूनी साथे नांख्यो ते मरण पामी श्री सांडेरा गच्छनो रखवाल यक्ष थयो. देवी गुरू[चिताने नमी स्वस्थानके मुडाहड नगरमा आवी. श्री गुरूनी प्रतिज्ञा बदरी देवीना सहायथी संपूर्ण थई. आ रीते सं.९७१ वर्षमां श्री यशोभद्रसूरि हता एम थयु. बहुआ किन्न ऋषि खीम ऋषि चोथा श्री यशोभद्रसूरि. ए बिहु काले प्रणमतां दूरीय पणाशय दूरी. १ इति श्री सांडेरागच्छे श्री यशोभद्रसूरि संबंध. ३२. श्री प्रद्युम्नसूरि : श्री सूरिना उपदेशथी पूर्व दिशामां सत्तर प्रासाद थया. ११ ज्ञानना भंडार लखाव्या. ७ यात्रा श्री सम्मितगिरिनी श्री सूरीए करी. ३३. श्री मानदेवसूरि : श्री सूरिए श्रावकश्राविकाना हेतुए उपधान वहेवानी विधि प्रगट करी. आ बनेनुं अल्प आयु जाणवू. ३४. विमलचंद्रसूरी : जेने श्री पद्मावतिनी साहायथी चित्रफूट पर्वते सुवर्णसिद्धिनी प्राप्ति थई. ३५. श्री उद्योतनसूरि : श्री सूरिये पूर्व दिशाए श्री सम्मेतगिरि पांच यात्रा करी. पण ए तीर्थ केयूँ छ ? विंशत्यास्तीर्थकरैरजितादिभिर्यत्र शिवपदं प्राप्तं, देवकृतस्तुपगणः स जयति सम्मेतगिरिराजा. पुन: एटले सांभळ्यु जे अर्बुदाचल उपर विमल दंडनायके श्री ऋषभबिंब स्थापन करेल छे अने तीर्थ प्रगट कर्यो छे. आ जाणीने श्री सूरिए मनमां चिंतव्यु के - अष्टषष्टिषु तीर्थेषु यत्पुण्यं किल यात्रया, आदिनाथस्य देवस्य दर्शननोऽपि तदभवेत. Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह ते माटे आबु नंदीय बंभणवाड दहियाणक प्रमुख तीर्थ आ नेत्रे नीहाळवां. आवा हर्ष सहित थी गुरू त्यांथी विहार करता थका आबुनी तलेटीए टेली नामे गाम छे तेनी सीममां मोटा घणी शाखे युक्त एवा वडवृक्षनो विस्तार देखी उष्ण काले शितल छायाए श्री सूरिए त्यां विश्राम कर्यो. एटले श्री सर्वानुभूति यक्ष प्रगट थयो. प्रसन्नपणे श्री सूरीने का, ‘आ शुभ घटिका छे ते माटे तमे तमारा शिष्यने आचार्यपद द्यो [तो आ वृक्षनी पेरे अखंड शाखाए करी विस्तार उदय हुइ.]' त्यारे श्री सूरिए देवकथकथी श्री वीरनिर्वाण पछी १४६४मां एटले सं.९९४मां श्री सर्वदेवसूरि प्रमुख ८ आचार्य स्वपाटे स्थाप्या. त्यारे तेथी वडने अहिनाणे पांचमो वडगच्छ एवं नाम प्रसिद्ध थयु; पण ते सघळा गुरूभाई शालाए रह्या. __त्यांथी महीमावंत तीर्थनी यात्रा करी अझाहरि नगरे आव्या त्यां संप्रति-निर्मापित श्री वीरप्रासादे डोकरा शीष्यने योग्य जाणी सूरिपद देई श्री वर्धमान तीर्थंकरना प्रसादने अहिनाणे श्री वर्धमानसूरि नाम दीधुं. गुरूकृपा जाणी श्री शारदाए बालिका रूपे गुंहलीथी स्वस्तिक कर्यो. तुष्टमान थई प्रा. सा रांके उपदेश[पदोत्सव कीधो. श्री गुरूए तेने गुर्जर विहारनी आज्ञा करी. श्री सूरि नित्य एक भुक्त करता. श्री उद्योतनसूरिनो मेदपाटमां धवल[धांवल]नगरे स्वर्गवास थयो. ३६. सर्वदेवसूरि : श्री सूरि विचरतां भरूअछ नगरे आव्या त्यां कान्हडीओ योगी श्री गुरूने गृहस्थनो बहुमान देखी क्रोध करी ८४ सापनो करंडीओ लावी शालाए वाद करवा आवी बेठो. त्यारे श्री सूरिए ते देखतां जमणा हाथनी कनिष्ठ अंगुलिएथी पोताने चारे पास भूमंडले वलण करी त्रण रेखा करी. एटले ८४ सर्प करंडीआथी काढी गुरू स्हामे मूक्या ते त्रण रेखा सुधी आवे पण आगळ न चाले. पाछा करंडीआमां बेठा. पछी ते जटीले क्रोध करी वंशनलिकाथी काढी सिंदुरीओ सर्प महाविषाकुल गुरू सामो मूक्यो. ते त्रण रेखा सुधी जई पाछो आव्यो. एवामां चोसठ योगीणी मांहीली कुरूकुल्ला नामनी देवी के जे ते धर्मशालानी बहार पिंपली वृक्षे रहेती हती तेणे गुरूने उग्र तपस्वी जाणी त्यां आवी सिंदुर सापनी दाढा बंध करी. योगी गुरूने नमी पोताने स्थानके गयो. श्री सूरिनी कीर्ती फेलाइ. पुनः श्री गुरूना उपदेशथी सं.१००२मां सत्तावीस प्रासाद थया. ३७. श्री देवसूरि : श्री सूरिने हुल्लार देशना स्वामीश्री कर्णसिंहे 'रूपश्री' बिरुद आप्यु. पुनः तेना उपदेशथी [ओ.] कुर्कट गोत्रीय सं.गोपे नव प्रासाद कीधा. चउद शत एक (१४०१) श्री जिनबिंब धातुपट्टिकाए भराव्या. दक्षिणमा नाशिक नगरे श्री चंद्रप्रभप्रासादे जीर्णोद्धार थयो. वळी सं.१००४मां श्री रामसेन्य नगरे श्री ऋषभप्रासाद थयो. पुन: श्री सूरिए मालव देशमा घणा पोरू गृहस्थने प्रतिबोधी जैन प्राग्वाट ज्ञाति Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपगच्छनी पट्टावली कीधा. सं.१००७मां शालानी स्थिति थई. ३८. अजीतसिंहसूरि : श्री सूरिना उपदेशथी मेवाड देशमां प्राग्वाट दोशी रूगनाथे ७ प्रासाद कराव्या. सं. १०१० वर्षे श्री रामसेन्य नगरे श्री ऋषभ चैत्ये श्री चंद्रप्रभ स्वामीनी बिंबप्रतिष्ठा थई. चारित्रशुद्धिविधिवज्जिनागमाद्विधाय भव्यानभितः प्रबोधयन्, चकार जैनेश्वरशासनोन्नतिं यः शिष्यलब्ध्याभि मनवो तु गौतम. १ नृपाद्दशाग्रे शरदां सहस्रे यो रामसेन्याह्वपुरे चकार, नाभेयचैत्येऽष्टमतीर्थराजबिंबप्रतिष्ठां विधिवत्सदर्च्यः. २ चंद्रावतीभूपतिनेत्रकल्पं श्रीकुंकुणमंत्रिणमुच्चऋद्धिं, निर्मापितो तुंगविशालचैत्यं योऽदीक्षयत् शुद्धगिरा प्रबोध्य. ३ वामां सं. १०२८ वर्षमां आचारांगसूत्र, सूयगडांगसूत्र तेनी टीकाना करणहार श्री शीलाचार्य प्रगट थया. पुनः ते ज वर्षे निवृत्तिगच्छे अनेक ग्रंथकारक श्री द्रोणाचार्य प्रगट थया. पुन: मालव देशमां उज्जयनिमां श्री लघु भोजराजनो राज्य थयो. तेना बेटा वीरनारायणे सं. १०७७मां सिवाणो गढ वसाव्यो. एवामां वि.सं. १०९४मां श्री वडगच्छे श्री लघु भोजदत्त वादीवेताल बिरूदधारके थिराद्रिय चहुआण क्षत्री प्रतिबोधक श्री शांतिसूरि प्रगट थया. श्री सूरिए चक्रेश्वरी, पद्मावतीना सहायथी छवढण [ छवठण] पाटणे सं.१०९७[१०९१]मां सातसें श्रीमाली गोत्रने धुलिकोट पडतो को एटले श्री संघरक्षक, श्री उत्तराध्ययननी वृद्ध टीका अढार हजारना कारक, पुनः जीवविचारप्रकरणना कारक कांनोहडी नगरे सं.११११मां श्री शांतिसूरि स्वर्गे गया. सं. १११७मां वडगच्छे श्री चक्रेश्वरीसूरिए ४१५ राजकुमार प्रतिबोध्या. पुनः धनपाल पंडिते श्री ऋषभ पंचाशिका, देशीनाममाला करी. ३८७ ३९. श्री यशोभद्रसूरि, लघु गुरुभाई श्री नेमिचंद्रसूरि : एवामां डोकरा आचार्य गुरू श्री उद्योतनसूरिनी आज्ञा लई श्री अझाहरी नगरथी विहार करता श्री गुर्जर अणहिल्लपाटणे आवी श्री वर्धमानसूरि स्वर्गे गया. तेना शिष्य श्री जिनेश्वरसूरि पाटणमां राजा श्री दुर्लभनी सभामां कुर्च्चपुरगच्छीय चैत्यवासी साथे कांस्यपात्रनी चर्चा कीधी. त्यां श्री दशवैकालिकनी गाथा कहीने चैत्यवासीने जीत्या. त्यारे राजा श्री दुर्लभे कं, 'आ आचार्य शास्त्रानुसारे खरूं बोल्या.' तेथी सं. १०८०मां श्री जिनेश्वरसूरिए 'खरतर ' बिरूद लीधो. तेना श्री जिनचंद्र, अने लघु गुरूभाई श्री अभयदेवसूरि, तत्पट्टे श्री जिनवल्लभसूरि थया. तेणे चित्रकूट पर्वते आवी श्री महावीरना छठनुं कल्याणक प्ररूप्यं. पुनः दोढसो छयासीया ग्रंथ निपजाव्यो. १३४ बोले करी खरतरगच्छनी समाचारी स्थापी. Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ तेना शिष्य श्री जिनदत्तसूरि थया तेनो संबंध कहे छे. जिनदत्तसूरि :. सं. ११३२मां जन्म एवामां श्री जयसिंहदेव राजानो जन्म थयो. सं. ११४१मां दीक्षा लीधी. त्यां ११७०मां सूरिपद लीधुं, श्री सूरिने तपस्वी जाणी ६४ योगिणी ५२ वीर, पुन: ५ पीर ए सदैव श्री गुरुनी भक्ति बहुमान करता हता. [ एकदा श्री गुरु विहार करता श्री गुर्जर देशे वडनगरे आव्या. त्यां संघ घणी भक्ति साचवे . ] श्री संप्रतिनिर्मापित महावीरप्रसादे घणा स्नात्रो, अष्टप्रकारी पूजा, अष्टोत्तरी, पंचशब्दे सदैव होय. त्यारे मिथ्यात्वी वाडवे जैनमहिमा जाणी कोईक त्रिवाडी वाडवने घेर डोकरी गाय, केरडी [करेरडी ] ( वाछरडी) जणीने मृत्यु पामी. द्वेषथी ते वाडवे गायनुं शब रात्रे एकठा मळी उपाडी लइ गुप्तपणे जिनगृह-मंदिरमां मूकी. सुप्रभाते शिष्य जिनदर्शने आव्या. प्रदक्षिणा करतां गायनुं शब दीठु. तुरत आवी गुरूने कह्यं. गुरुए उपयोग दई जोयुं तो जणायुं के आ करनार मिथ्यात्वी व्यंतर नहि, पण मिथ्यात्वी वाडव छे. श्री गुरूए देवगृह - मंदीरनी मोटी आशातना जाणी बावन वीरमांनो पूर्णभद्र वीर बोलाव्यो. तेणे हाथ जोडी कह्युं, 'शुं कार्य छे ?' गुरूए कह्युं, 'शासनोन्नति करो. आ प्रासादमांथी छ मासनी अवधिए ए शब सजीवन करी प्रगटपणे काढो के जे रीते तेनी वाछरडीने प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह - वत्सीने अभयदान होय.' आ गुरूवचने देव गो-कलेवरमा पेठो एटले देवगृहथी प्रगटपणे सकल वाडव तथा अन्य मनुष्योना देखतां ते गाय शिंगडुं धुणावती ज्यां त्रिवाडी वाडवनो घर हतुं त्यां शिघ्र देवशक्तिवशे आवे [देवशक्ति वत्सीनइ हेते करी मिली . ] स्तनमां दूधपान ते शक्तिथी आप्यं. [ स्तने दूधपान ते वत्सीए कीधो. ] आ जोई सकल वडनगर वाडव हर्षित थया. मांहोमांहे कहेवा लाग्या, 'अमुक फलाणां [ अनामुका] त्रिवाडी ! आ शुं ?' त्यारे त्रिवाडी बोल्यो, 'ए महा कोइ देवशक्ति छे.' आम वार्ता नगरमा थइ के जैनाचार्य महाम्नायना धारक पुनः अहीं गाय अने वाछरडी ए बने जीवने अभयदानना दातार, कृपावंत, दयावंत जाणी सकल मिध्यात्वी श्री गुरूने नम्या. श्री जिनशासनोन्नति थई... एटले नाम तो श्री जिनदत्तसूरि हतुं पण गाय अने वाछरडीने अभयदान देवाथी उपगारी थया तेथी सकल मनुष्यो वडनगरमां मळी श्री जीवदत्तसूरि [ उपगारीसूरि] ए बीजुं नाम आप्युं. पुन: श्री अणहिल्लपत्तन पार्श्वे श्री वायडनगरि श्री गुरूए वायड ज्ञातिय घणा गृहस्थने प्रतिबोधी जिनधर्मवासित कर्या. पुनः श्री सूरिए वृद्ध सिंधु देशमां ऊंच नगरे पंचनदीना मध्य भागे सैयद मलेच्छने वादमां जीत्यो. घणा जाडेचा क्षत्री प्रतिबोधी अढार गोत्र उपकेश ज्ञातिमा कर्या. ते परम जैनधर्मवासित थया. श्री जिनशासने शोभनिक ए सूरि कहेवाणा. आ गुरूना नामस्मरणथी दुखार्ति विलय थाय. अनुक्रमे श्री कुमारपाल Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपगच्छनी पट्टावली राज्ये सं. १२११मां सूरि स्वर्गे गया. मरू देशमां श्री फलवर्द्धि तीर्थनी उत्पत्ति : नाणावाल गच्छे श्री मानदेवसूरि विहार करता श्री फलवर्द्धिपुरमां चोमासुं रह्या. त्यां [ओ० ] गुरूहड गोत्रना श्रेष्ठ पारस नामे गृहस्थ रहेतो हतो. ते भद्रिक परिणामे निरंतर श्री सूरिने वांदतो. एकदा ते पारस श्रेष्ठ गाम बहार कार्यार्थे जतां बोरडीनी जाल वृक्ष मध्ये कांईक लीला अने कोईक का म्लान फूल पूजित एवो पाषाणनो ढिगल देखी गुरू श्री मानदेवने आवी पूछ्युं के 'आ दृषद् - सदैव पूजित देखूं छं. ते माटे अत्रस्थानके कोईक आश्चर्य वसे छे. ' त्यारे श्री सूरिए पारसने कह्युं, 'आ दृषद् पिहुला करो.' तेथी पारसे गुरूआज्ञाथी ते दृषद जुदा जुदा [वेगला भिन्नभिन्न ] कर्या. तेटलामां श्री पार्श्वबिंब दीठं तेवामां पारसने अधिष्ठायक देवे प्रगट मनुष्यना शब्दे कह्यं, 'प्रासाद करावी पूजा करजे' त्यारे पारसे कह्युं, 'द्रव्य नथी'. अधिष्ठायके कयुं, श्री पारसना मुखाग्रे सुप्रभावे [समु प्रभाति ] सुवर्णना अक्षतनो ढगलो निरंतर व्यय प्रमाणे थशे. ते द्रव्यथी प्रासाद निपजावजे. पण आ वार्ता कोई आगळ न कहेवी . ' ते पारस श्रेष्ठिए अंगिकार करी घेर आवी श्री गुरूने बिंब प्रगट थयानी वात कही त्यारे श्री सूरिए ते अधिष्ठायक देवने आराध्यो. त्यारे ते देवे आवी श्री गुरूने कह्युं, ‘पहेलां आ पुरमां आ ज ठेकाणे संप्रतिनृपकार पार्श्वनाथनो प्रासाद हतो. ते कालानुयोगे जर्जर थये क्षय थयो. ते बिंब आ श्री पासनो प्रगट थयो. श्रेष्ठी पारसने दर्शन दीधो.' बीजे दीने देवकथक प्रमाणे सुवर्ण अक्षतनो ढग थयो ते प्रत्यक्ष साचो देखी श्रेष्ठी पारसे प्रासादनो प्रारंभ कर्यो. मूलमंडप, रंगमंडप, नृत्यमंडप, सर्व निपजाव्या. द्वार कोट निपजाव्यो. तेवामां एक दिने स्वपुत्रे पूछ्युं, 'आ द्रव्य तमे क्यांथी लावो छो?” आम वारंवार पूछतां पारस श्रेष्टी स्वपुत्रने भद्रकपणे यथास्थित कह्युं त्यारे अधिष्ठाय द्रव्यन वार्ता प्रगट करी जाणी सुवर्ण अक्षत द्रव्य आपवुं बंध करी दीधुं त्यारे प्रासाद एटलो ज रह्यो. आथी श्री मानदेवसूरिए श्रेष्ठी पारसना आग्रहथी सं. १११८मां श्री फलवर्द्धि नगरे महामहोत्सवथी श्री पार्श्वबिंब स्थाप्युं. उक्तम् श्रीमत्पाजनाधीशं फलवर्द्धिपुरस्थितं, प्रणम्य परया भक्त्या सर्वाभीष्टार्थसाधकं. ३८९ ४०. श्री मुनिचंद्रसूरि : श्री सूरिना उपदेशना वि. सं. १११५मां श्री दधिपद्रे वायट - ज्ञातीय दो. अंबराजे श्री शांतिनाथनुं बिंब स्थाप्युं पुनः श्री सूरिना उपदेशथी श्री श्री नगरे वि.सं.१११७ वर्षमां विज्जापानस गोत्री चहुआण श्री सहस्समल्ले अमारि प्रवर्तावी. Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह पुनः एवामां वि.सं.११५१मां सिंभराधीश चहुआण श्री पृथ्वीराज थयो . श्री सूरिए पाखीसूत्र निपजाव्यो. एवे वि.सं. १११८ वर्षमां श्री अभयदेवसूरि प्रगट थया. तेनी उत्पत्ति कहे छे. अभयदेवसूरि : मेदपाट देशमां वडसल्ल गाममां तुअर सिंह [ सगो] नामे राजपुत्र रहे छे त्यां कोटिकगच्छे खरतरबिरूदधारक श्री जिनेश्वरसूरि विहार करता आव्या. श्री सूरिने देखी सीधो [सीहो ? ] नम्यो. श्री गुरूए भव्यात्मा जाणी उपदेश आप्यो. ते सांभळी बुझ्यो, तत्काल दीक्षा दीधी. योग्य भणी आचार्यपद दई श्री अभयदेवसूरि नाम आप्यं. अत्युग्र षट् विगयना त्यागथी पुर्व कुर्मानुसारे देहे कुष्ठ थयो. श्री सूरि पूर्वोपार्जित कर्म अहियासता थका गूजरात देशमां भाणपुर गामे आव्या. वडवृक्ष हेठळ रात्रीए सुतां स्वप्नमां तपलब्धिथी अर्धनिशाए शासनदेवीए आवी कयुं, 'ऋषीश्वर ! जागृत छो ?' ते देवीनी वाणी सांभळी सूरिए कह्युं, 'रोगग्रस्तने निद्रा क्यांथी होय ?' आवी आचार्यनी वाणि सांभळी शासनदेवीए बालिकानुं स्वरूप धरी आवी ते आचार्यना जमणा हाथे सूत्रना नव कोकडा दई मुखथी कं, 'श्री सूरि ! तमे आ नव कोकडा उकेळजो, एटले विस्तारजो.' त्यारे आचार्ये कयुं, 'मने देहे समाधि थ उखेळीश [उबेलीश].' आ सांभळी श्री सरस्वतिए कह्युं, 'सेढी नदीने कांठे पलास वृक्ष हेठे चीकणी भूमिका छे ते अहिनाणे पहेलो श्री नागार्जुन योगीए विद्यासिद्धिथी भू -भंडारित बिंब श्री थंभण पासनो समहिम छे त्यां तमे जजो, श्री थंभण पासनी स्तुति करजो. कीर्तना करतां ते बिंब सद्य प्रगट थशे. तेना स्तोत्रने जळे सकळ रोग आ देह थकी जशे, पण कोकडा नव तमे उकेलजो [ उबेलजो] . ' आम कही देवी श्री शारदा स्वस्थानके गया. तेना वचनने अनुसारे गोदूधे चीकणी भूमिने अहिनाणे खाखर वृक्ष हेठे लइ जई श्री अभयदेवाचार्य उभा रही श्री थंभणपासनी कीर्तिने तद्रूप जयतिहुयण बत्रीसीए ‘फणिफणफार फुरंत रयणकर' (१७) ए काव्य सत्तरमुं कहेतां श्री पासबिंब भूमिका तत्काल प्रगट थयुं. श्री संघे [ स्नात्र ] उत्सवे श्री पासना अभिषेकनो जल शुचिपात्रमां भरी गृहस्थे श्री आचार्यनी देहने छांटवाथी गुरू- अंगथी सकल रोग-उपद्रव शम्या. देह तप्त सुवर्णोपम थयो. महोत्सव मंगल जयशब्द थयो. ते ज ठेकाणे सेढी नदीने त थंभणपुर नामे गाम थाप्यो प्रसाद निपजावी वि. सं. १११९ वर्षमां श्री अभयदेवसूरि थंभणपुर प्रासादे श्री पासने स्थाप्या. त्यांथी विहार करतां श्री अणहिल्ल पाटण श्री श्री पंचावर पासने जूहारी चोमासुं रह्या. ते रहेतां थकां एकदा गुरूने शासनदेवीए आपेल नवसूत्रना कोकडानो उपयोग आव्या. त्यारे श्री सूरिए वि. सं. ११२०मां भगवती प्रमुख नव अंग सूत्रना जे सिद्धांत Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९१ तपगच्छनी पट्टावली तेनी टीका रची. एवामां श्री थंभण पास प्रगटकारक वि.सं.११४५मा श्री गोपनगरे श्री अभयदेवसूरि स्वर्गे गया. त्यार पछी केटलाक वर्षे गूर्जर देशे यवन राज्य थयो त्यारे श्री सकल संघे मली सप्रभाव बिंब जाणी वि.सं.१३६२ वर्षमा श्री खंभायत नगरे सारा ठेकाणे घणे यत्ने श्र थंभण पास स्थाप्या. नीलुप्पल सम नीलवर्ण देहधारक सकल क्षुद्रोपद्रववारक ते बिंब आज लगी सप्रभाव छे. कडुं छे के - जयत्यसौ स्तंभनपार्श्वनाथ: प्रभावपूरैः पूरित: सनाथः, [विघ्नसधन्वंतरणैव येन कुष्ठोपतापोऽभयदेवसूरी,] स्फूटीचकाराभयदेवसूरियो भूमिमध्यस्थितमूर्तिसिद्धं. आ रीते श्री अभयदेवसूरि थई गया. इति. श्री अभयदेव सूरि संबंध. सिद्धराज जयसिंह : पुन एवामां वि.सं.११५२मां श्री जयसिंहदेवे श्री सिद्धपुर नगर वास्युं. अग्यार माले करी श्री रूद्रालय थाप्यो. पुन: श्री सुविधिनाथ नवमा तीर्थंकरनो प्रासाद निपजाव्यो. स्वदर्शन अवरदर्शन पोषी घणुं सुकृतइ द्रव्य कीधो. वि.सं.११५४ वर्ष वृद्ध तटाक १७ कराव्या. ४१ जलनी दीर्घ वापिका निपजावी; कुंड बंधाव्या, ६७ लघुतटाक; दर्भावती, साहेली[सहेली], झंझूवाडा, प्रमुख नगरमा ८ गढ बंधाव्या. लधुवापिक १०२१, विराम[विश्राम स्थान १०६८, देवदेवीयक्ष-प्रासाद एक लक्ष निपजाव्या. एवामां गूजरे अणहिलपत्तनाधीश श्री जयसिंहदेव राज्ये श्री कोटिक गच्छे चंद्रकुले वज्रशाखामां श्री देवचंद्रसूरि तेहना शिष्य श्री हेमचंद्रसूरि प्रगट थया. हेमाचार्यनी उत्पत्ति: गूर्जरदेशमा धंधुकानगरमां मोढ ज्ञाति गोत्रमा सा साचो रहे छे तेनी स्त्री चंगी नामे, तेनो पुत्र चंगदेव नामे छे. त्यां विहार करतां श्री देवचंद्रसूरि आव्या. श्री सूरिनो धर्मोपदेश सांभळी तेणे चंगदेव नामे वणिकपुत्र परमश्रावक थयो. तेहनो वि.सं.११४५वर्षमां जन्म थयो. अनुक्रमे तेणे गुरूसंयोगे पांचमा वर्षे वि.सं.११५०मां दीक्षा लीधी. सोमदेव ऋषि नाम कीg, श्री गुरूए महाकृपाए. अनुक्रमे गुरू श्री देवचंद्रसूरि अने शिष्य ऋषि सोमदेव ए बंने कलिंजर नामे पर्वतमां कोईक औषधीने शोधवा गया त्यां मार्गमां श्री मलयगिरिसूरि मळ्या. त्यांथी कुंभारीया गामे जता थकां तटाके धोबी वस्त्र धोतो दीठो. पद्मनीचीर देखी पुछ्युं त्यारे ते वस्त्रक्षालके गुरूने का, 'आ गामनो श्रेष्ठी तेहनी स्त्री छे. तेनां (चीर) पखालूं छु.' आ गाममा चोमासुं रह्या. केटलाक दिने ते गृहस्थ श्रीमाली ने पद्मनीना मुख आगळ विद्यासाधन- रहस्य कडं. ते श्रीमालीए अंगिकार कर्यु.. श्री जिनशासननी भक्तिनो हेतुए शुभदिने श्री ऋषभदेव प्रासादे भूमिगृहे श्री Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह देवचंद्रसूरि, श्री मलयगिरिसूरि, अने सोमदेव ए त्रणे साधु दिगंबर बनी काउसग्गे रह्या. ते सन्मुख नग्न पद्मिनी स्त्री उभी रही. तेनो स्वामी ग्रामश्रेष्ठी ते नग्न खड्ग हाथमा झाली श्री गुरूनी पासे आवी साहस धैर्य धरी उभो रह्यो. गुरूए गृहस्थने का "ध्यान थकी चूकीए तो तेना मस्तके खड्ग तत्काल देवी. विलंभ न करवो.' आम [विधि] विद्या साधतां साहसिक धैर्यपणुं जोइ ते देव अग्यारमे दिने आवी कह्यु, 'त्रुठ्यो छु. वर मागो'. त्यारे गुरू श्री देवचंद्रसूरिए ५२ वीर वश थाय तेवो वर माग्यो, श्री मलयगिरिसूरिए त्रिहुं सौधै सिद्धांतनी टीका करवानो वर माग्यो अने ऋषि सोमदेवे राजा प्रतिबोधवानी शक्ति मांगी. त्रणे साधुने ते देव वर आपी अलोप थयो. गृहस्थने कोटि द्रव्यनी प्राप्ति थई. त्यांथी देवदत्त वर लइ श्री मलगिरिसूरिए मालव देशमा विहार कर्यो अने गुरू श्री देवचंद्रसूरि अने शिष्य ऋषि सोमदेव ए बंने गुरूशिष्य श्री गिरनारमा श्री नेमिश्वरनी यात्राए दर्शन करवा गया. त्यां मारगमां कोई गाममा एक वणिक दरिद्री रहेतो हतो. पेला तेना मातपिता श्रीमंत हता, ए भ्रांतिथी ते वणिके घरनी पृथिवी खणीने त्यांथी द्रव्य प्रगट कर्यो. व्यंतराधिष्ठित सेवंत्रा प्रगट थया. तेथी घरने मध्य भागे ढगलो कीधो. प्रत्यक्ष लीहालानो समूह देखाय. ते समये बपोरे मध्यान्हे श्री गुरू अने शिष्य तेने घेर आहार अर्थे गया. तेणे सुक्ष्मरव्वा (?) दान दीधुं. ते आहार देखी सोमदेव शिष्य वारंवार गुरू सामी दृष्टि करी रह्या. संज्ञाए समजाव्युं. पण गुरू संज्ञाए न समज्या. एटले वणिक समज्यो, जे ए ऋषि महाभाग्यना स्वामि जाणी उतावळो आवी तत्काल ते सोमदेव ऋषिने बे हाथे उपाडी [सेवंत्राना ढगला उपरि बेसाड्यो. एटले ते गृहस्थना पुन्यने योगे ते] सेवंत्रा समूहना ढगलाथी ऋषि सोमदेवनी दृष्टिना प्रभावथी ते व्यंतर नाठो. एटले ते वणिके साक्षात् प्रगटपणे सुवर्णनो ढगलो दीठो. त्यारे गृहस्थे घणा आग्रहे गुणनिषन्न श्री गुरूने विनति करी. वि.सं.११६६ वर्षमा श्री सोमदेवने श्री गुरूए आचार्यपद दइ श्री हेमचंद्रसूरि नाम दीधुं. वि.सं.११६७ वर्षमां गुरू श्री देवचंद्रसूरि स्वर्गे गया. एवामां अनेक ग्रंथना कारक श्री मलयगिरिसूरि स्वर्गे गया. श्री मुनिचंद्रसूरि जावज्जीव लगी छ विगयना नियमधार सूरिए सोरठदेशमा प्रासाद, बिंबप्रतिष्ठा, सुमतादि चरित्रे समर्थ. संविग्नमौलि: विकृतीश्च सस्तित्याज देहेऽप्यममः सदा यः, विद्वद्विनेयालिवृत: प्रभावप्रभागुणोधैः किल गौतमाम:. १ अष्टहयेश ११७८ मितेऽब्दे विक्रमकालाद्दिवं गतो, भगवान् श्रीमुनिचंद्रमुनींद्रो ददातु भद्राणि संघाय. ४१. तत्पट्टे श्री अजितदेव सूरि १ ने लघु गुरूभाई सकलवादीमुकुट बिरूदधारक श्री वादिदेवसूरि : आ बंने भाई, तेमां वडा गुरूभाई ते पट्टधर अने लघु गुरूभाई ते Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपगच्छनी पट्टावली ३९३ गच्छ मर्यादाना सारसंभाळना करणहार जाणवा. वि.सं.११६८ वर्षमा निवृत्ति कुलमां श्री महिंद्रसूरिना उपदेशथी घोघा बंदरे श्रीमाली ज्ञातीय नाणावटी शा हीरूए श्री नवखंडा पार्श्वनाथनो बिंब भराव्यो. वि.सं. ११७७ वर्षमां श्री नागुरी शाखा कहेवाणी. श्री अजितदेव गुरू प्रत्ये गुरूवाणीथी रंजित थई अणहिलपत्तनाधीश श्री जयसिंहदेव निरंतर त्रण प्रदक्षिणा दई वांदता. श्री सूरिए पश्चिम दिशाए देवकीपत्तने श्री जिनशासनने शोभाकारक थया अने लघु गुरूभाई श्री वादिदेवसूरि तेना शिष्य पं. श्री रामचंद्रसूरि तेणे स्नात्र विधि प्रगट करी. तेवामां श्री मरूदेशमा जीराउली तीर्थनी उत्पत्ति थई. जीराउल्ली तीर्थनी उत्पत्ति : आबूनी पासे जीराउल्ली गामे धोसिर [घोसिर] गोत्रे श्रेष्ठी धांधल रहेतो हतो. तेनी गाय सेहली नदीने कांठे बोरडीनी जालमां सीमाडे चरवा जती. त्यां दूध झरती. संध्या समये गाय वणिक घेर दूध आपती नहि. त्यारे ते धांधल गृहस्थ जाणे के कोई सीमे दोहीने दूध लई ले छे एवी भ्रांतिथी ते गाय संघाते पुत्रने मोकल्यो. ज्यां गाय चरे त्यां पृथ्वीना ठेकाणे दूध झरी गयु. ते देखी पुत्रे घेर आवी पिताने दूधझरणनी वात कही. आथी धांधले आश्चर्य समजी ते दूधझरणनी भूमिका खणी एटले घणा काळनी श्री पार्धमूर्ति प्रगट थई. एटले अधिष्ठायके स्वप्न आप्यु के मने जीरावल्ली नगरमा स्थापजो. त्यारे धांधले प्रासाद निपजावी महोत्सव करी वि.सं.११९१ वर्षमां श्री पासने प्रासादे स्थाप्या. श्री अजितदेवसूरिए प्रतिष्ठा करी. घणा दिन सुधी श्री पार्श्वनाथनी भक्ति साचवतो श्रेष्ठी धांधल सदगतिनो भजनार थयो. तेथी पार्थ परमेश्वर जीरापल्ली नगरमा रह्या. अने ते सकल भक्ति करनार लोकनी वांछापूरक मारिउपद्रववारक सप्रभाव तीर्थ थयु. का छे के : प्रबलेऽपि कलिकाले स्मृतमपि यन्नाम हरति दुरितानि, कामितफलानि कुरुते स जयति जीराउलिपार्श्व:. . आ रीते श्री जीराउली श्री पासतीर्थ प्रगट थयुं. पुन: वि.सं.११९१ वर्षमां दिल्ही नगरे विल्हाति पठाण आव्या. चहुआणने काढ्या. म्लेच्छ यवन थया. श्री लोडण पासतीर्थनी उत्पत्ति : गुर्जर देशमा सेरीसा नगरमा नागेंद्रगच्छना श्री देवेंद्रसूरि शिष्य सहित विहार करता आव्या. गुरू शिष्यथी वीराकर्षणविद्यानी पुस्तिका गुप्तपणे राखे. एकदा गुरू रात्रे निद्रावश थया, एटले एक शिष्ये ते पुस्तिका चंद्रमाने उद्योते वांची एटले बावन वीर आव्या अने का, 'शुं काम छे?' ते शिष्ये का, 'आ पुरमां जिनप्रासाद नथी, ते माटे पश्चिम दिशाना जैन कांतिनगरथी श्री जिनदर्शननुं अगणित पुण्य जाणी तमारी शक्तिथी अहीं एक प्रासाद लावो.' त्यारे ते शिष्यवचन Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह प्रत्ये वीरे कह्युं, ‘अमारूं पराक्रम प्रभाते कुर्कटशब्द थाय त्यारे न थाय. तो त्यां सुधी अमारूं चालशे तेटलं करीशुं.' आम शिष्यनी आज्ञा लई बावन वीर जैन कांतिनगरथी रात्रीए प्रासाद लेई सेरीसा नगरे आव्या. एवामां उंघथी गुरू जाग्या त्यारे आकाशनो कोलाहलथी बावन वीरनो आणेल श्री पासनो प्रासाद देखी चितमां चितव्यं आ शुं ? पुस्तकनो उपयोग आव्यो लागे छे. एटले त्यां पुस्तिका जोई पण देखाई नहि. श्री गुरूए शिष्यनुं ए काम जाणी श्री चक्रेश्वरीदेवोने स्मरीने कां, 'आ शिष्यने मालम न पडे तेम रात्री पण घणी छे ते माटे तमे कारमा कुर्कट बोलावो.' गुरू आज्ञाथी ते देवीए तेम ज कीधुं. एटले प्रभात थयो जाणी वीर स्वस्थानके पहोंच्या. तेथी वि. सं. ११ .. वर्षमां सेरीसा नगरे श्री लोडण पासनी स्थापना थई. श्री देवचंद्रसूरि त्यांथी विहारता अणहिलपत्तने श्री पंचासरने प्रणम्या. ४२. तत्पट्टे श्री विजयसिंहसूरि : श्री सूरि चारित्रचूडामणि बिरूद धरता विचरता हता. तेवामां सोलंकी श्री कुमारपाल प्रगट थयो. कुमारपालनी उत्पत्ति : गुर्जर देशमां अणहिल्लवाड पाटण पासे देवथली नगरमां श्री त्रिभुवनपाल भार्या वाघेली काश्मरी. पुत्र पांच तेमां कनिष्ठ कुमारपाल नामे तेनो जन्म वि. सं. ११७७. श्री खंभातमां श्रीसूरिमुखे धर्मोपदेश सं. ११८७ [११९७ ] मां लीधो. वि.सं.११९९मां टीको (राजा) थयो. एटले गुरूने घणा उत्सवे शालाए पंधराव्या. सदैव गुरूमुखे व्याख्यान सांभळे. एकदा गुरू श्री हेमचंद्रसूरिने राजा श्री कुमारपाले कह्युं, 'मारा प्रति कृपा करी कई सार सुतत्त्व [ सुकृत] कहो त्यारे सूरिए क. दीर्घमायुः परं रूपमारोग्यं श्लाघनीयता, अहिंसायाः फलं सर्वं किमन्यत् कामदेवसा [ कामयेदेव? ]. आवां वचन श्री गुरूनां सांभळी चोमासामां जीवाकुल भूमिका जाणी गुरूमुखे कुमारपाले नियम लीधो के चोमासामां सैन्य चढाई युद्ध न करवुं. आ वार्ता केटक दिने दील्ली नगरे म्लेच्छे सांभळी त्यांथी सैन्य लावी अणहिल्लवाडे उतर्यो सहिर पाखलि गढ नहि त्यारे कुमारपाले गुरूने विनव्या के 'सैन्य अने युद्धना तमारा मुखथी मारे नियम छे.' सूरिए कह्युं के 'धर्मथी कुशल थशे'. श्री सूरिए कंटेश्वरी पादरदेवी स्मरी कं, 'जिनशासनमा आ राजा नियमधारक छे तेथी परचक्रनो उपद्रव निवारो.' ते गुरूनी आज्ञा लई देवीए रात्रीए निद्रामां सूतेल म्लेच्छने उपाडी कुमारपालना महेलमां लावी मूक्यो प्रभाते जागी उठ्यो. स्वसैन्य, अनुचर नहि एटले चढते दिने राजर्षिना अनुचरे दंतधावन निमित्ते पावन जल संपूर्ण पात्र अंचलो लावी मूक्यो. ते देखी मुगल कहे, 'ए कयुं स्थान छे ? तुं कोण ?” त्यारे अनुचरे कह्युं, 'आ राजा कुमारपालनुं मंदिर, हुं तेन Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपगच्छनी पट्टावली ३९५ सेवक.' आ सेवकनां वचन सांभळी मुगले मनमा विचार्यु, हुं एनुं राज्य लेवा आव्यो छु. सांकडे पण हुं आण्यो आणे. अने ए महाभाग्यनो स्वामी माराथी मैत्री वांछे छे. एना पीर पण साचा छे. तो ए राजानो हुँ मित्र.' त्यारे मुगल अने कुमारपाल बंने मित्र थई मांहमांहे भेट्या. पीराण पत्तनतुं नाम आपी कुमारपालने स्वधर्ममां दृढतापणुं अने उपगारीपणुं जोई प्रशंसा करतो दील्लिनगरे मुगल पहोंच्यो. श्री जिनशासननो महिमा थयो. गुरूकीर्ति थई. एटले वि. सं.१२०७ वर्षमा कुमारपाले अढार देशमा अमारि पळावी. हवे ते अढार देशनां नाम कहे छे : कपट गर्ने लोट सौराष्ट्र कच्छ-सिंधवे उच्चायां चेबं भंभे- मारवे मालवेस्तथा, कोंकणे च तथा राष्ट्रे कीर जालंधरे पुन: पंको लक्षमे दी काशीतटे पुन:. मारि शब्द एवं मुखे कहेवाई जाय तो चोविहार उपवास एक करे. सकल पाणी छाण्यो पाणी पीवे. पुन: १२०९ वर्षमां लाड वणिकने गाढा मिथ्यात्वी जाणी देश बहार कीधा. सं.१२१३[१२०९] वर्षमा हैमी व्याकरण श्री हेमाचार्ये प्रगट कर्यो. सं.१२११ वर्षमां सप्त लक्ष मनुष्ये श्री सिद्धाचल संघपति थयो. सं.१२१२ वर्षमा लेउआ गाथापतिने दयापात्र जाणी सांडेरिया बिरूद दीई. सं.१२१३मां श्रीमाली मंत्री बाहडदेए श्री सिद्धाचलनो १४मो उद्धार निपजाव्यो. सं.१२१६मां बंबेरागढथी श्री शांति पूजीने नूतन वस्त्रार्थे शालवीना ७००० घर पाटणमां लावी वसाव्या. सं.१२१८मां श्री हेमाचार्ये अमावास्यानी पूर्णिमा देखाडी. सं.१२२१मां तारणगिरिए श्री अजितबिंब स्थाप्या. ते ज वर्षमा सातसें लेखकने द्रव्य आपी एकवीस ज्ञानकोश लखाव्या. न्याय घंटा सदैव वाजता. श्री गुरू-उपदेशे १४४४ चोरासी मंडप सहित प्रासाद निपजाव्या. पुन: २१०० जीर्णोद्धार कर्या. एकदा बाहडदे श्री गुरूने विनवतां गुरूए कह्यु के - नूतने श्रीजिनागारविधाने यत्फलं भवेत्, तस्मादष्टगुणं पुण्यं जीर्णोद्धारे विवेकिनां. एवं वचन सांभळी मंत्रीए १५०० जीर्णोद्धार निपजाव्या. तेमां प्रथम जीर्णोद्धार सं.१२२०मां श्री भृगुकच्छे श्री शकुनिकाविहारे कर्यो, श्री गुरूनी सहायथी. वळी आ ज वर्षमां आगिमगच्छ थयो.. एकदा कुमारपालने रात्रे सूतां पूर्वे बालावस्थाए अभक्ष भक्षण थयुं, पछी तेणे गुरू पासे १२ व्रत उचर्या, ते मांसनो स्वाद दाढमां उपज्यो. जागी चिंतव्यु. अभक्षभक्षने Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह सांभरवाथी मारो व्रत खंडित थयो. प्रभाते गुरूने वांदी पूछ्युं त्यारे गुरूए कह्यु, ‘एनी आलोयण तमे बत्रीस लक्षणा पुरूष छो तेथी बत्रीस घरो प्रासाद बावन देवकुलिका सहित निपजावो. ए व्रतभंग हुवानी आलोयण तमने दीधी.' ते गुरूवाणी अंगिकार करी स्वपिता त्रिभुवनपालने नामे त्रिभुवनविहार बहोतर देवकुलिका सहित निपजाव्यो. तेमां २४ बिंब रत्न, २४ बिंब सुवर्ण पितलमय, बिंब २४ रूप्यमय, पुन: मुख्य प्रासादे १२५ अंगुल प्रमाण अरिष्ठ रत्नमय मूलनायक श्री ऋषभदेवबिंब स्थापितं. सकल देवकुलिका सुवर्ण कलशथी युक्त जाणवी. निरंतर सत्तरभेदी पुन: षट्पर्वी अष्टोत्तरी जिनभक्ति करी बंने टंक प्रतिक्रमण, त्रण टंक देववंदन साचव्यु. सूर्योदये स्वगृहे श्री शांतिनाथनी पूजा करे, वीतरागना एकसो आठ नाम स्मरी पछी अढारसें कोटिध्वज गृहस्थ युक्त त्रिभुवनपालविहारे श्री ऋषभ दर्शन करी गुरू वांदी उपदेश सांभळी घेर आवी सदैव सातसें साधार्मिक जमाडी पछी एक भुक्त करे. मासे मासे लक्ष साधर्मिक पोषे प्रतिवर्षे सात यात्रा सवा सवा लक्ष मनुष्ये करवी. अने द्रव्यसंख्या - कोठार चार अघटित सुवर्ण भरेल, कोठार चार अधटित रूप्य भरेल, कोठार एक मुक्तफले भरेलो, कोठार बे[एक] नानाविध रत्ने भरेल, पार्श्वपाषाणना खंड चार, कोठार एक विद्रुमना खंडथी भरेल, १५ लक्ष कोठार पवित्र धान्ये करी भरेला. अथ सैन्य द्विपद संख्या - ७२ सामंत, ४०० प्रधान, ७०० कोटपाल, १८ लक्ष पायक, १ लाख दूत, १७ हजार सूअर, १२ हजार अंगमर्दक, १५ दास अने दासी, २ स्त्री. अथ चउपद संख्या - ११ हजार गज, ११ लक्ष [हय], ११ हजार पालखी, ५० हजार रथ, २४ हजार करभ, १७ हजार वेसर, २२ हजार महिषी, दोढ लाख वृषभ, १ लक्ष गाडां, १५ सो चकडोल कोतुकी. आ रीते [पूर्वभवपून्ये भोगवे.] ___ पूर्व भवे कोई व्यवहारीआने घेर कुमारपालनो जीव चाकर हतो. त्यां निर्मल श्रद्धाथी नव कपर्दिकानां अढार फूल आव्यां ते लई [सिद्धगिरिए] श्री परमेश्वरने चडाव्या. ते पुन्यथी १८-देशनी साहबी भोगवतो श्री गुरूवचने सुकृति करतो जिनशासन शोभावतो थको दिन निर्गमतो. एवामा वि.सं.१२२९ वर्षमा सार्धत्रिकोटि ग्रंथकारक कालिकालसर्वज्ञ बिरूदधारक अष्टादश देशाधिपति बोधक श्री तारणगिरितीर्थस्थापक श्र हेमचंद्रसूरि स्वर्गे गया. उक्तं च - सो जयउ १ वुड्डवाई २ सिद्धसेनो जयउ खलु ३ हरिभद्दो, सिरि ४ बप्पभट्टसूरि ५ पालितो ६ अभयदेवो य. १ सिरि ७ मलयगिरिसूरि सूरि श्री ८ यसभद्दो य ९ हेमसूरि य, एयंमि पवरथेरा जयंतु युगपवरसूरिवरा. २ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपगच्छनी पट्टावली ३९७ पुन: वि. सं.१२३० वर्षे कलिकालराजर्षि बिरूद धारक श्री कुमारपाल स्वर्गे गया. उक्तं दयाधर्म-सुवेलडी, रोपी ऋसह जिणंद, श्रावककुलमंडप चढी, सिंची कुमर नरिंद. इति श्री कुमारपाल संबंध. अंचलगच्छनी उत्पत्ति : वडगच्छबिरूदधारकश्री उद्योतनसूरि, तेनी पाटे श्री सर्वदेवसूरि तेहना लघु गुरूभाईश्री पद्मदेवसू। तेना शिष्य श्री उदयप्रभसूरि २ धर्मचंद्रसूरि ३ विनयचंद्रसूरि ४ गुणसागरसूरि ५ विजयप्रभसूरि ६ तेना श्री नरचंद्रसूरि ७ तेहना श्र वीरचंद्रसूरि ८ तेहना शिष्य श्री जयसिंहसूरि, ९ ते आबुनी तलेटीए दत्ताणिनगरे शालाए रह्या छे एहवे तिहां उ०[ओ०] वृद्ध द्रोण नामे शेठ रहे छे तेने नाढी[नाटी] नामे स्त्री छे. तेने गोदउ नामे बेटो छे. तेनो विक्रम सं.११३६ वर्षे जन्म थयो. पुन: तेणे पुन्यने योगे विक्रम संवत ११४२ वर्षे श्री जयसिंहसूरिहस्ते दीक्षा लीधी त्यां प्रथम साधुनो आचार ओळखवाने हेते श्री दशवैकालिक सूत्र गुरू तेने भणावता हता. भणतां थकां अध्ययन सातमानी गाथा छठी भणवा मांडी. अथ ते गाथा आ छे : साउदगं न सेविज्जा शालाबुद्धं [शिलावुठं] हिमाणिय उसिणोदगं तत्थ फासुयं पडिगाहिज्ज संजइ. ए गाथानो अर्थ गुरूए भणाव्यो. ते अर्थ गोदे चित्तमा विचार्यो. पोशालमांहि टाढा सचित पाणीना भांड भर्या देखी गुरूने पूछे, 'श्री गुरूजी ! अन्नहा बा[हा]इ अन्नहा किरिया कई ?' गुर कहे, 'सुशिष्य ! ए क्रिया आ समये न चाले'. त्यारे ते शिष्ये कडं, “ए क्रिया करे तेने लाभ किंवा त्रोटो ?' त्यारे गुरू कहे, 'लाभ, पण तेने त्रोटो नहि.' एवं गुरूवचन सांभळी ते शिष्ये सघळी क्रिया सिद्धांतने भणवे करी ओळखी. तेहने गुरूए योग्य क्रियाथी तपस्वी जाणी उपाध्यायपद देई श्री विजयचंद्र नाम दीधुं. तेणे त्यांथी गुरू वांदी आज्ञा लइ चार साधु साथे विहार कर्यो. केटलाक दिवसे पावा पर्वते आव्या. त्यां संप्रति नृपे करावेल प्रासादमा श्री संभवदेवने नमस्कार करी चउविहार मासखमणे उपाध्याय काउसग्गमा रह्या. मास संपूर्ण थये जितेंद्रिय अने तपस्वी जाणी महाकाली देवीए वांदीने कडं, ‘हुं तमारा पर प्रसन्न छु. तुह्मो संघने कल्याणकारी छु. मने संभारतां उपद्रव दूर करीश. पण आज कृष्णाष्टमी छे ते माटे मने अष्टमीए दीने उपवासे तमे संभारजो.' ते देवीए आपेल वरथी उपाध्याय श्री विजयचंद्र पावा गिरि पीठथी उतरी भालिज नगरमां आवी मासखमणने पारणे यशोधन भणशालीने घेर आहार लीधो. एटले देवीना वरथी मुख्य गृहस्थ यशोधन धनाशाली थयो. Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह एटले पांचमा आराने योगे केवलीना अभावे आपआपणी स्वइच्छाथी नवनवी क्रिया नवनवी समाचारी आदरी. एटले पोताना गुरूनी मूल सामाचारी लोपीने विक्रम सं.११६९ वर्षे श्री जयसिंहदेव राज्ये एकसोने सिंतेर बोलनी प्ररूपणाए श्री विधिपक्षगच्छ नाम दीधुं. त्यांथी केटलाक दिवसे श्री विजयचंद्र उपाध्याय विहार करतां बेणप नगरमां आव्या. त्यां श्रीमाली कोडि नामे व्यवहारीआने प्रतिबोधी स्वगच्छमां लीधो. त्यांथी विहार करता [घणा] गृहस्थने प्रतिबोधी दीक्षा दीधी. पुन: श्राद्ध प्रमुखने श्री दीक्षा देता थकां पश्चिम देशमा मंदाउर नगरमां आव्या. त्यां विक्रम सं.१२०२ वर्षे [उ०] श्री विजयचंद्रने सूरिपद मळ्युं. श्री आर्यरक्षितसूरि नाम दीधुं. केटलांक चोमासां पश्चिम देशमां कीधां. त्यांथी विहार करतां श्री विधिपक्ष [गच्छ] बिरूदधारक श्री आर्यरक्षितसूरि गुजरातमा अणहिलपतनना पंचाश्वरने नमवा आव्या. त्यां शालवी गृहस्थने तंइ जीवनी उत्पत्ति देखाडी स्वगच्छमां लीधा. त्यां चोमासु रह्या. एवामां बेणप नगरथी कोडि व्यवहारिओ कोईक कार्य अर्थे पाटण आव्यो. त्यां देवदर्शन करी सभा समक्ष जे शालामां श्री कुमारपाल श्री हेमचंद्रना मुखथी उपदेश सांभळे छे त्यां आवी सभा समक्ष श्री हेमचंद्रने वस्त्रांचले वांद्या. ते देखी राजा कुमारपाले कडं, ‘ए कोण गृहस्थ के जे वगर वांदणे एम वांदे ?' ते सांभळी श्री हेमचंद्रे कडं, ‘ए विधिपक्षिक छे.' त्यारे कुमारपाले कह्यु, 'ए वस्त्राचले गुरूने वांदे छे तेथी एy नाम आंचलिक कहो.' एटले विक्रम १२२१ वर्षमां बीजुं नाम 'अंचलगच्छ' कहेवाणो. त्यांथी श्री आर्यरक्षितसूरि विहार करतां श्री बइणप नगरे आव्या. सो वर्ष आयु संपूर्ण करी विक्रम सं.१२३६ वर्षे श्री आर्यरक्षितसूरि स्वर्गे गया. एवामां विक्रम सं.१२३६ वर्षे साई पूर्णिमा मत प्रगट थयो. आ अंचलगच्छनी उत्पत्ति छे. जगडूशा : जे वखते गुजरातमा सोलंकी श्री कुमारपालनु राज्य हतुं ते समये सोरठ देशना हल्लर खंडमां भद्रेश्वर नगरमा श्रीमाली शा सोल्हा, भार्या रेवंति, तेना पुत्र शा जगडू ते दरिद्रपणे नगरमां मनुष्यना कार्य करतो माता सहित कठिण रीते उदर पूर्ण करे छे. एकदा त्यां विद्याधर शाखाए श्री धर्ममहेंद्र सूरि आवी चोमासु रह्या. एकदा एकादशीने दिवसे सकल गृहस्थ प्रतिक्रमण करी पोते पोताने घेर गया, पण शा जगडू शालाना खूणामां एकांते अंधकारमा सूतो छे. तेवामां अर्ध रात्रिए गुरूए तारामंडळना नव ग्रहना तारा जुए छे. त्यां आकाशमाथी एक तारानु उत्पतन थयुं एटले शिष्ये पूछ्युं, 'श्री गुरू ! आ शुं ?' त्यारे गुरूए कह्यु, ‘पांच वर्ष लागट दुर्भिक्ष थशे. तेथी घणा जीवनो संहार मालूम पडशे.' आ सांभळी शिष्ये कयं, 'ते समये कोई अभयदाननो Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपगच्छनी पट्टावली ३९९ देनार थशे किंवा नहि ?' त्यारे गुरूए कह्यु, ‘आ नगरमां शा जगडू श्रीमालि रहे छे. हमणां ते दरिद्री छे पण तेना वृद्ध पिता श्रीमंत हता ते पोताना घरनी भूमि खणी द्रव्य काढी व्यापार चढावी द्रव्यनो वधारो करीने घणा जीवनो रक्षक थई जिनप्रासाद निपजावी श्री सिद्धाचले यात्रा करी श्री जिनशासनमां आचंद्रार्क विख्यात थशे. आ गुरूवचन सांभळी ते जगडूए ते मुजब कर्यु. समुद्रनो व्यापार ते जेम पूरी[तुरी]नी वुहरति करी द्रव्य वधारी देशेदेश द्रव्य मोकली अन्न उदक घृत गुड खांड साकर तेल प्रमुखनो संग्रह कराव्यो. ते विक्रम सं.१२११ वर्षथी विक्रम १२१५ सुधी एम पांच वर्ष शा जगडू घणा जीवने अभयदान आपनार थयो. श्री सिद्धशैले, २ श्री गिरनारे, ३ श्री वेलाकुले ४ श्री नर्मदातटे ५ श्री अजयामेरूए इत्यादिए महादानशाला करी. [दूहो –] नोकरवाला मणि अडा, (पुन: कवित) अठ सहस्स मुंड. एवो जगडूनो अति उदार उपकारी गुण जाणी दूर्भिक्ष वृद्ध वाडव(ब्राह्मण)ना रूपमा जगडूनी परीक्षा करी वाचा दीधी के 'तारूं मारूं मळवू थयुं, मित्राइ थई, तेथी पन्नर वर्ष हवे पछीना जशे तेमां दुर्भिक्ष नहि थाय.' एम कही दुर्भिक्ष पोताना स्थानके गयो. श्रीमाली शा जगडू पण देवगुरूनी भक्ति साचवी घणां सुकृत करी सद्गतिनो भजनार थयो. कडुं छे के - दानामृतं यस्म करारविंदे वाक्यामृतं यस्य मुखारविंदे, तपामृतं यस्य मनोऽरविंदे स वल्लभ: कस्य नरस्य न स्यात्. देयं देयं सदा देयं अन्नदानं विचक्षणैः, __ अन्नदातुर्यशो नित्यं जगडूकस्य यथाद्भुतम्. इति श्रीमाली शा जगडूनी उत्पत्ति. ४३. सोमप्रभसूरि अने तेना लघु गुरूभाई मणिरत्न : बंने गुरूभाई हता. श्री सूरि उत्तम प्राणीने धर्मोपदेशना आपी उपकार करता विचरता हता एवामां प्राग्वाट मंत्री वस्तुपाल अने तेना लघु भाई तेजपाल थया. वस्तुपाल अने तेजपालनो संबंध : गुजरात देशमा धुलका नगरमां उबरड गोत्रमा प्राग्वाट ज्ञातिमां शा आसराज रहेता हता. ते पाटणमां वस्त्रव्यापार अर्थे आव्या. त्यां हाट मांडी रह्यो. मालसुद गाममा व्यापार करे छे. एकदा पंचासरा पासनी यात्रा करी धर्मशालामां चित्रवालगच्छना श्री भुवनचंद्रसूरिने वांदी बेठो. एवामां त्यां श्रीमाली ज्ञातिनो वणहर गोत्रनो शा आंबो तेनी स्त्री लक्ष्मी अने तेनी पुत्री बालविधवा कुंवर नामनी Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह ते श्री गुरूने वांदे छे, एटलामां गुरूने वांदतां थकां श्री सूरिए वामकुक्षीए तलव्रण देखी मस्तक धुणाव्युं त्यारे पासे बेठेला शिष्ये का, 'श्री गुरू ! आनुं कारण शुं ?' गुरूए कह्यु, 'आवी कुक्षीमां युग्मपुत्र वस्तुपाल तेजपाल नामे घणा पुन्यकरणीना कारक थशे अने तेनां नाम आचंद्रार्क रहेशे !' ते गुरूकथक वचन शा आसराजे सांभळ्यां. केटलाक दिवसे पूर्व कर्मसंचयना योगथी ते बंनेनो संग थयो एटले त्यांथी ते बंने पलायन थया. मांडलि नगरे जई रह्या. अनुक्रमे विक्रम सं.१२६० वर्षे वस्तुपालनो जन्म थयो. पुन: एकसो अने पचाश पलने अंतरे तेजपालनो जन्म थयो. ते आसराजे पहेलां गुरूए जे नाम कह्यां हता ते ज नाम आप्यां. एवामां मालव देशमां नलवर नगरमा शालिकुमर प्रगट थयो. तेने मनुष्य 'ढोलो' नाम कहे छे. राजा वीरधवलना राज्यमा पुन: विक्रम सं.१२४१ वर्षमा लाखो फुलाणी थयो. एटले वस्तुपाल तेजपाल मांडलि नगरमां वर्ष पांचनां थया त्यारे त्यां मनुष्ये ज्ञात पूछी एटले त्यांथी आसराज पश्चिम दिशाए थई देवकीपत्तन रह्यो. त्यां मनुष्योए बालकने मोटा तेजवंत जोई गाम ठिकाणुं पूछ्युं एटले त्यांथी धोडिआल [घोडिआल] गाममां पोताने देश आवी रह्या. त्यां वर्ष आठना बे बालक थया त्यारे घी-कूपिकानो व्यापार को. एवामा त्यां श्री भुवनचंद्रसूरि विहार करता आव्या. आ आसराज ने कुंवर स्त्रीने ओळख्या. गुरूए बंने बालक पुन्यवंत जाण्या त्यारे श्री गुरूए विक्रम सं.१२६९ वर्षमा वस्तपालने जिनशासनमां कीर्तिकारक उत्तम योग्य जाणी अंबिका अने कवड यक्षनो वर दीधो. ___गुरूए विहार करतां तारणगिरिए श्री अजितनाथनी यात्राए गया. केटलेक दिवसे सा आसराज त्यांथी कुंवरने लईने बंने बंधव साथे धवलक नगरमा आवी रह्या. त्यांथी गुरूए आपेल वरना महिमाथी दिने दिने व्यापारथी उदयवंत थया. एवामां विक्रम सं.१२७४ वर्षमा वस्तुपालने ललितादे साथे पाणिग्रहण थयु. पुन: तेजपालने अनोपदे साथे पाणिग्रहण थयु. एवामां माता कुंवरनो स्वर्गवास थयो. अग्यार दिवसने अंतरे पिता शा आसराजनो स्वर्गवास थयो. आवी रीते १८ वर्ष व्यापारमा थया. ते ज वर्षे अंबिका अने कवड यक्षनी कृपाथी राज श्री वीरधवले वस्तुपालने घणा आग्रहे मंत्रिपद आप्युं. [तेजपालने भंडारीपद दीधुं. अणहिलपाटणे आगार निपजावी त्यां रह्या.] तेटलामां त्यां भंडारीपद तथा मंत्रीपदना तिलक करवाना अवसरे मंत्री वस्तुपाल ज्ञाति त्रीस पाटण पाखले [माहलि] पोखतो हतो. एवामां पाटणमां नगरश्रेष्ठीने घेर भविष्यताना योगे नोतरूं वीसयुं. अजाणपणे ते शेठनो पुत्र वर्ष १३नो ते सामान्यपणुं Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपगच्छनी पट्टावली ४०१ थवाथी घी तेल हळदर हींग वेची बपोरे (बे प्रहरे) घेर आव्यो एटले पोतानी माताने रूदन करती दीठी. आ देखी पुत्रे कां, ‘आ केम ?' त्यारे माताए कह्यु, 'आपणा पाटण नगरना मुख्य श्रेष्ठी तारा पितानुं मरण तारा बालपणाथी थयुं छे. द्रव्य पण नहि. तेथी आपणे घेर नोतरूं न आव्युं अने राजमंत्रि भाग्यवंत थयो पण छिद्र सहित छे.' अत: वयोवृद्धास्तपोवृद्धा ये च वृद्धा: वहुश्रुताः, __ सर्वेऽपि धनवृद्धस्य द्वारे तिष्ठति किंकराः. आम विचारी तेणी[वृद्धा]ए बधी बेटा आगळ आसराज प्राग्वाट, कुंवर बालविधवा ए श्रीमाली मंत्रीने मोटो छिद्र ए छे - आ वात पुत्रने सघळी कही. आ सांभळी बेटाने हर्ष थयो. एटलां ज्यां समग्र साजनो भोजन करे छे, मुख्य गृहस्थ हर्षमां बेठा वार्ता करे छे त्यां तेणे आवी चोरासी साजनानी आज्ञा करी बे हाथ जोडी माताए जे विपरीत वात कही हती ते बधी वात सकल साजनने करी, त्यारे तेने साजनोए का, 'रे तुं कोण घर ? आ पतनमां मुख्य थईने आ केवी वात कही ? लाजतो नथी ?' एटले तेणे मंत्रीनी उत्पत्ति सघळी वृद्ध गृहस्थो पासे प्रकाशी. आ सांभळी सकळ लज्जावंत थया. चित्तमां संदेह पेठो. सकल साजने तेनी वृद्ध माताने पूछ्युं. तेणीए कयुं, 'मुख्य घेर नोतरूं नहि अने तेने घेर तमे द्रव्य खातर गया, पण तमे सकल साजनो जई बरूडी गाममां तेनी उत्पत्तिना कारक श्री भुवनचंद्र गुरू सप्त[सत्य]गोत्रीआने पूछो'. तेथी साजनाए बधुं गुरूने पूछ्युं त्यारे श्री गुरूए यथार्थ वात कही दीधी. एटले ते पाटणे आव्या. मंत्रीनी वात माहोमांही कहेवातां नगरमां अने अन्य गाममां विस्तरी. एटले त्यांथी विक्रम संवत १२७५ वर्षमां मंत्री वस्तुपाल अने तेजपालथी प्राग्वाट लघुशाखा प्रगट थई. एटले स्वज्ञातिना परज्ञातिना दुर्बल गृहस्थने भोजनमा तेडी कवले कवले सुवर्णमहोर दइ स्वज्ञाति वधारी नाम राख्यु. सकळ ज्ञाति [जम्या ते] लघुशाखा थई. एटले श्री भुवनचंद्रसूरि विहार करतां पाटण आव्या. महामहोत्सवे शालाए पधराव्या. त्यां चोमासुं रह्या. मंत्री वस्तुपाल गुरूवचनथी पंचाश्वर पास प्रासादे वर्षमा चार प्रौढ रथयात्रा निपजावी करी. चार वार प्रौढ साधर्मिकने संतोष्या. पुन: कुमारपाल विनिर्मित श्री तिहुयणपाल विहारमा एकादशी चतुर्दशीए अठ्योत्तरी पुजाए स्वज्ञाति साधर्मिक पोषी नित्य सत्तरभेदी पूजा स्वनिर्मापित श्री वासुपूज्य प्रासादे करता. एकदा श्री भुवनचंद्रसूरि मंत्री प्रत्ये उपदेश कहे छ : जीयं जलबिंदूसमं संपत्तिओ तरंगलोलाओ, सुमिणं य समं पिम्मं जं जाणिज्ज करिज्ज सु. Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन मध्यकालीन साहित्य संग्रह एवो उपदेश गुरूमुखथी सांभळी मंत्री वस्तुपाले वि.सं. १२८०मां श्री अर्बुदगिरि उपर प्रासादारंभ [प्रसादथंभ] थाप्यो पुनः वि. सं. १२८२मां प्रासादे कलश ध्वजदंड चडाव्यो. श्री नेमिश्वर स्थाप्या. त्यां श्री भुवनचंद्रसूरिए स्वशिष्य श्री जगच्चंद्रने तथा पंडित देवेंद्रने सूरिपदे कीधा. ते ज प्रासादमां बने भ्रातनी स्त्रीओए नवनव लक्ष द्रव्य वापरीने स्वस्व नामना बे आळीआ निपजावी नाम राख्यं ते ज वर्षमां श्री गीरीनार पर मंत्री वस्तुपाले उद्धार कर्यो. एटले श्री आबु, सिद्धाचल, गिरिनार ए त्रण तीर्थे अढी लक्ष मनुष्यो श्री देवभद्र, श्री जगच्चंद्र, श्री देवेंद्र प्रमुख श्वेतांबर अग्यार आचार्य पुनः एकवीस दिगंबर आचार्य युक्त यात्रा करी सकल संघ सहित मंत्री वस्तुपाल पाटणमां आव्या. ४०२ केटलाक दिवसे गुरूश्री भुवनचंद्रसूरि स्वर्गे गया, त्यारे मंत्रीए घणा आग्रहथी श्री देवभद्र, अने जगच्चंद्र अने श्री देवेंद्र एने विनति करी पाटणमां चोमासुं राख्या. चोमासुं उतरतां मंत्रीनी आज्ञा लई त्रणेए विहार कर्यो. भीलडी नगरमां श्री पार्श्व दर्शने आव्या. एवामां त्यां हिदूआणी देशथी श्री सोमप्रभसूरि पण विहार करतां भीलडी नगरमा सहर्ष पार्श्वदर्शने आव्या, त्यारे श्री देवभद्र, अने श्री जगच्चंद्र अने श्री देवेंद्र, त्रणे श्री सोमप्रभसूरिने वांदणाथी वांद्या. त्यारे श्री सोमप्रभसूरिए खरतर, स्तवपक्ष, आगिमयापक्ष, बेवंदणिक, उपकेश, जीरापली, नाणावाल, निंबजीय, इत्यादि आचार्यनी साक्षी विक्रम सं. १२८३ वर्षमां श्री सोमप्रभसूरि, श्री मणिरत्नसूरिए जावजीव आंबिल तपना धारक पुनः समता आदि [ गुण] मां आगळ जाणी स्वगच्छे लई श्री जगच्चंद्रसूरिने पोतानी पाटे स्थाप्या. श्री विजापुर नगरे श्री देवभद्र, श्री जगच्चंद्र अने श्री देवेंद्र ए त्रणेए चोमासुं कर्यं अने श्री सोमप्रभसूरि अने श्री मणिरत्नसूरि वडाली नगरमां चोमासुं रह्या. एटले पुनः मंत्री वस्तुपाल बीजी वार संघपति थया. श्री सोमप्रभसूरि श्री मणिरत्नसूरि अने श्री जगच्वंदसूरि, श्री देवेंद्रसूरि सहित श्री सिद्धाचल यात्राए जतां मार्गमां श्री वढवाण नगरमां संघ उतर्यो. त्यां श्रीमाळी ज्ञाति शा रत्ने दक्षिणावर्त शंखना महिमा वडे सात दिन तांई नानाविध सुखासिका ने भोजन तथा सहवस्त्र आभूषण पहेरामणी सकल संघने दीधी. त्यांथी मंत्री मोरवी प्रमुख नगरे स्वज्ञाति साधर्मिक प्रति नगरे नगरे गामे गाम पकवान आभूषण वस्त्रथी संतोषवा गया, श्री सिद्धाचल श्री गिरनारनी यात्रा करी देवकी पाटणमां संघ आव्यो त्यां मंत्रीए नूतन प्रसाद निपजावी श्री चंद्रप्रभस्वामिनो बिंब स्थाप्यो श्री सोमप्रभसूरि श्री जगच्चंद्रसूरिए प्रतिष्ठा करी. त्यां मंत्रीए स्वज्ञातिने घणी संतोषी. साधर्मिकने संतोष्या. अणहिल्लपाटणमां संघयुक्त श्री सूरि अने मंत्री आव्या. Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०३ तपगच्छनी पट्टावली श्री देवभद्र, श्री जगच्चंद्र, अने श्री देवेंद्र श्री सोमप्रभसूरिनी आज्ञा लइ पाल्हणपुरमा चोमासु रह्या. श्री सोमप्रभसूरि अंकेवालीए चोमासु रह्या. श्री मणिरत्नसूरिए हिंदूआणि देशमा विहार करी श्री सत्यपुरमा चोमासु रह्या. श्रीवंत मंत्रीए संघयात्राना दरेक मनुष्यने पाटणमां सुवर्ण महोर दीधी. चोमासु उतरतां पाल्हणपुरथी श्री देवभद्रसूरि, श्री जगच्चंद्रसूरि, अने श्री देवेंद्रसूरि विहार करता करता आबु, दहिआणक, नंदीय, ब्राह्मणवाटक इत्यादी तीर्थ फरसी अजारी नगरमां श्री वीरप्रासादे श्री सूरिए अठम तप करी श्री शारदानुं स्मरण कर्यु. ब्रह्माणि प्रसन्न थइ बोल्यां, 'तारी कीर्ति जामशे.' आ शारदानो आपेलो वर लइ श्री सूरिए मेवाड देशमा विहार कर्यो. एवामां श्री सोमप्रभसूरि के जे एक शब्दनो शत अर्थना कर्ता हता अने श्री सिंदुरप्रकर ग्रंथना कर्ता हता ते श्रीमाल नगरमां स्वर्गे गया. अने लघु गुरूभाई श्री मणिरत्नसूरि नवतत्त्वप्रकरणना कर्ता ते बे मासने अंतरे श्री थिराद्र नगरमा स्वर्गवास पाम्या. हवे मंत्री वस्तुपालने अणहिलपत्तनमां, आशापल्ली, खंभात, प्रमुख नगरमां छप्पन कोडि द्रव्य भूमध्ये जोई जोई शांति (?) ते उपर देव संबंधी [सनिधिओ] भेरी शब्द थयो. ते समये द्रव्य सुकृति कीधो ते कहे छे - अढार कोडि द्रव्य तीर्थयात्रामा उजमणी व्यय कर्यो, आबु, पाटण, वडनगर, खंभायत, देवकीपाटण, भृगुकच्छ, गुंजा[गुज्ज], घुडियाल [थुडियाला] गंछेरा [सांडेरा], प्रमुख नगरमां पांच हजार प्रासाद निपजाव्या. सवा लाख जिनबिंब निपजाव्या तेमां एकतालीस हजार सुवर्ण पितल धातुमयी जाणवा. श्री तारणगिरिमां, श्री भीलडी नगरे, श्री इडरगढे, श्री वीजानगरे, श्री शंखेश्वरे, श्री विजापुर चिंतामणि पार्थप्रासादे, पुरहातिज पद्मप्रभ प्रासादमां इत्यादि २३०० जीर्णोद्धार निपजाव्या. ९८४ धर्मशाला निपजावी. ५०० समोसरण निपजाव्या. पनः देवकीपाटणमा ११ ज्ञानकोश लखाव्या शोधाव्या. ३२००० श्वेत चंदननी ठवणी, १९००० रहिल्ल (?) निपजावी, ४२००० सांपुडी कवली (?) निपजावी. पुन: स्मरणी, श्वेत चंदन, मोती, प्रवाली सूत्र प्रमुखनी निपजावी नगरे नगरे गामे गामे देश देशांतरे पुण्यार्थे दीधी. हवे द्रव्य संख्या कहे छे : ८ कोडी अने ९३ लाख टका यात्रा स्नात्र प्रासाद बिंब स्थापना ए श्री पुंडरिक गिरिए आत्महेतुना कारण माटे सुकृतिइ वावा. वळी अढार कोडी अने ८३ लक्ष टका श्री रेवताचले सुकृतिए कीधा. पुनः १२ कोडी अने ५३ लक्ष अधिक श्री अर्बुदाचले सुकृतिए कीधा. एटले ओगणीस सय कोडी अने आसी कोडी ऐसी लाख हजार वीस हजार नवसें अने नवाणुं [ताणुं] टका ते नव चोकडीए उणा एटलो द्रव्य मंत्री श्री वस्तुपाले त्रिहूं तीर्थे सुकृतिए कीधा. पुन: Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह कवित - पांच अरब ने खरब कीधे जेणिं जिमण-वारह, सात अरब नि खरव दीध दुब्बल परिवारह, द्रव्य पंच्यासिय कोडि कीध भोजक वरविड] भट्टां सप्ताणुंए कोडी फूल तंबोली हट्टां. चंदन चीर कपूर मअि [मखि] कोडी बहुत्तरि कापडे, पोरवाड वंश श्रवणे श्रुण्या श्री वस्तुपाल महिमंडले. इत्यादि अन्य अनेक सुकृत्तिकारक श्री भुवनचंद्रसूरि उपदेशात् श्री अंबिका कवड यक्ष सांनिधकारक प्राग्वाट लघुशाखा बिरूदधारक एव वर्ष १८ सुकृत कीg. सर्वायु वर्ष ३६ संपूर्ण तेहनो वि.सं.१२९८ वर्ष अंकेवालिया गामे मंत्री श्री वस्तुपालनो स्वर्गवास थयो. पुन: विक्रम सं.१३०२ वर्षे लघुभाई मंत्री तेजपाल चंद्राणा गामे स्वर्गवास पाम्या. इति मंत्री वस्तुपाल भाई मंत्री तेजपाल संबंध समाप्त. ४४. तत्पट्टे श्री जगच्चंद्रसूरि : श्री गुरू जावजीव आंबिल तप अभिग्रहना धारक थका मेवाड भूमंडले विहरता श्री आहाड नगरी आव्या. एवामां गच्छना साधुसमुदाय प्रति क्रिया आचारे शिथिलपणुं जाणी पहेलां दीधो जे श्री शारदानो वर तेना तप थकी अने श्री देवभद्रनु सायुज्य पामी उग्र क्रियानो आरंभ श्री आहाड नगरे कीधो. त्यां श्री सूरि वर्षाकाले चोमासु रह्या एटले जावजीव आंबिल तप करतां वर्ष बार थया त्यारे चित्रोडपति राउल श्री जयतसिंह घणा मनुष्य मुखे छ विगयना त्यागकारी सचित्त परिहारी आंबिल तपनाकारक सां[भली शालाए आवी देही कुशल कहे.] (अपूर्ण) [जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स हेरल्ड, जुलाई-ओक्टो.१९१५, पृ.३२८-७३] Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०५ लोंकागच्छीय पट्टावली (लोंकागच्छना एक साधुए लखेली छे.) [आ कृति 'जैन गूर्जर कविओ' ने गुजराती साहित्यकोश खं.१'मां नोंधायेल नथी. - संपा.] __अथ पट्टावली लिख्यते. अथ हि वै भगवंत श्री महावीरजीनौ सर्वायु बहोत्तर वर्ष पूरो थको कांइ एक उणौ एतलै एक अंतर्मुहूर्त्तनौ सेष आयु आवी रह्यो छे ते समानै विषै सकेंद्र प्रश्न करै छै - श्री भगवंतजी आगलि कहै छै के हे भगवंतजी, तमारे नामै भस्मग्रह द्वितिय सहस्त्र वर्षनो अशुभ ग्रह वसै छे तेणै करीनै श्री जैन सासन डोहलाई जास्यै, श्री दयाधर्म डोहलास्यै अने लोक कहिस्यै, श्री महावीर श्री चौवीसमा तीर्थंकरनौ सासन डोहलाई छै इम लोक कहस्यै ते वास्तै आउषो एक अंतर्मुहूर्त्तनो वधारौ. तिवारै भगवंत कहै, हे सक्का, हे सकेंद्र, बीजा सर्व वात घटाडी घटै अने वधारी वधै पिण आउखौ-कर्म घटाड्यो घटै नहीं, वधार्यो वधै नहीं तथा भस्मग्रह सुधी तौ दयाधर्म डोहलास्यै अनै पछै रूपा जीवा नाम आयरिया भविस्सई तेह श्री दयाधर्म प्रवर्त्तावस्यै. एह प्रश्न पूरो थयौ थकै भगवंत श्री महावीरजी मोक्ष गयै थकै अजर अमर निरंजन भगवंत थया. हिवै अनुक्रमै पाट श्री गणधरादि आचार्यरा अनुक्रमै पाट लिख्यते. हिवै श्री महावीरजीनै पाटे सुधर्मास्वामीजी ते भगवंतथी २० वर्ष मोक्ष पुंहता. १ __ सुधर्मा स्वामीने पाटै जंबुस्वामी ते वीरात् चौंसठिमें वर्षे मोक्ष पुंहता. २ जंबुस्वामीने पाटै प्रभव स्वामी ते वीरात् ...देवलोक पुंहता. ३ प्रभवा-स्वामीने पाटै सिज्झंभव ७५ वर्षे दिवंगत पुंहता. ४ सिझंभव-स्वामीनै पाटै यसोभंद्र १४८ वर्षे देवंगत पहुंता. ५ यसो. संबूतविजै १५९ वर्षे देवं. ६. जिह पाटै भद्रबाहु-स्वामीने वीरात् १७० वर्षे देवं ७ भद्रबाहु पाटै स्थूलभद्र ते वीरात् २१५ वर्षे देवं. ८ स्थूलभद्र पाटै आर्य महागिरि ते वीरात् २४५ वर्षे देवं. ९ आर्य महागिरि पाटै बलसिंहाचार्य ते वीरात् २८० वर्षे देवं. १० बलसिंह पट्टे शांत आचार्य वीरात् ३३२ वर्षे देवं. ११ शांत पट्टे स्यामाचार्य ३७३ वर्षे देवं. १२ स्यामाचार्य पट्टे सांडिल्लाचार्य ४०६ वर्षे देवं. १३ सांडिल्लाचार्य पट्टे जितधर्म आचार्य वीरात् ४५४ वर्षे देवं. १४ जितधर्म पट्टे आर्य समुद्र वीरात् ५०८ वर्षे देवं. १५ आर्य समुद्र पट्टे नंदिलाचार्य ते वीरात् ५९१ वर्षे देवं. १६ नंदिल पट्टे नागहस्ती वीरात् ६४४ वर्षे देवं. १७ नागहस्ती पट्टे रेवती आचार्य ते वीरात् ७१८ वर्षे देवं. १८ रेवती पट्टे खंदिल आचार्य ते वीरात् ७८० वर्षे देवं. १९ खंदिल पट्टे सिंहगणि वीरात् ८१४ वर्षे देवं. २० सिंहगणि पट्टे समिताचार्य ते वीरात् ८४८ वर्षे देवं. २१ समिता पट्टे नागार्जुन ते वीरात् ८७५ वर्षे देवं. २२ नागार्जुन पट्टे गोविंद आचार्य वीरात् ८७७ वर्षे देवं. २३ गोविंद पट्टे भूतदिन्न वीरात् ९४२ वर्षे देवं. २४ भूतदिन्न पट्टे लोहिताख्य वीरात् ९४८ वर्षे देवं. २५ लोहिताख्य पट्टे दूषगणी ते वीरात् Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह ९७५ वर्षे देवं. २६ दूषगणी पट्टे देवढि गणी ते वीरात् ९८० वर्षे देवं. २७ तिहां ३२ सूत्र लिखाणा इति श्री महावीरथी सत्तावीस पाट कह्या. अथ देवढिगणीनें वारै पुस्तक लिखाणा ते किम ते कहे छे : तथा ईहां सूधी तो श्री सूत्रसिद्धांत मुंहडे आवता हता अने देवढिगणिय विचार्यो जे पंचम कालने विषै बुद्ध विद्या थोडी होस्यै, अने शास्त्र मुखै नावस्यै अने सूत्र विगर धर्म किम दीपाविस्यै, किम उद्देसिस्यै, दयाधर्म किम चालस्यै एहवो विचारीनै ताडपत्रे सूत्र लिख्या. हिवै देवढिगणीनै पाटै वीरभद्र २८, तेहने पाटै संकरभद्र २९, तेहनै पाटै जसभद्रसेण ३०, तेहने पाटै वीरभद्रसेण ३१ तेहनै पाटै वरियामसेण ३२, तेहनै पाटै जससेण ३३, तेहनै पाटै हर्षसेण ३४, तेहनै पाटै जयसेण ३५, ते. जगमाल ३६, ते. देवऋषि ३७, ते. भीम ऋषि ३८, ते. कर्मसी ३९, ते. राजऋषि ४०, ते. देवसेण ४१, ते. संकरसेण ४२, ते. लक्ष्मीलाभ ४३, ते. रामऋषि ४४, पद्मसूरि ४५, ते. हरिसमा ४६, ते. कुशलप्रभु ४७, ते. उप्रण ऋषि ४८, ते. जयऋषि ४९, ते. वाजऋषि ५०, देवऋषि ५१, ते. सूरसेण ५२, ते. महासूरसेण ५३, ते. महसेण ५४, ते. जयराज ऋषि ५५, ते. गयसेण ५६, देवढिगणीशिष्यमें हुवा. संवत् १४३. गयसेण, पट्टे मित्तसेण थया ५७, ते. विजैसिंह ऋषि ५८, ते. सिवराज ऋषि ५९, ते. लालजी ऋषि जातना वाफणा ६०, ते. ज्ञानजी ऋषि ६१ जात सूराणी. __ अथ लुके-गच्छरी उत्पत्त कहै छै. संवत् पनरैसै अठ्यावीसा वर्षे (ई.स.१४७१) श्री अहल्लपुर पाटण मध्ये मुंहता लुक्का सुबुद्धियै श्री सूत्रसिद्धांत लिखतां थकां सूत्रार्थ विचारीनै मनमैं विचारतौ साधु श्रावक बार व्रत धारीनै पूजवी प्रतिमा न कही, प्रासादनो अधिकार नहीं अने बीजा यती आचार्यना घणाइक तो पौसाल प्रतिमाधारी थया. सुध दयाधर्मरी प्ररूपणा करनें गच्छ काढ्यौ. अन्य दर्शनियै लक्वामती नाम कहिनै बोलाव्या तिहां थकी लुंका-गच्छरी स्थापणा थइ. शुभ वेलाई शुभ दिने शुभ पक्षे शुभ वारे शुभ नक्षत्रे शुभ योगे आव्ये थके लूंका-गछरी स्थापना थई. प्रथम भाणा ऋषजीएं श्री अहमदावाद मध्ये संवत् १५३१ वर्षे जात पोरवाड अरहटवाडाना वासी स्वयमेव दीक्षा लीधी. मोटे वैरागै संसार असार जाणीने १ लाख रूपैया मूंकीने दीक्षा लीधी, ६२. ते. ऋषि भीदाजी थया. महात्मा साधु थया; जात उसवाल सिरोहीना वासी पोताना कुटुंबी मनुष्य ४५ संघातें सर्व जणै संसार अनित्य जाणीनै संयम लीधो,' ६४. ते. ऋषि भीमाजी पालीना वासी जाति उसवाल गोत्र लोढा अलक्ष द्रव्य मूंकी. नूनाजी पार्टी दीक्षा लीधी, सं.१५५० सै थया, ६६. तैहनै सरवोजी थया. पातसा अकबरनौ बजीर दीवान हता. २५ लाख रूपैया मूकीनै दीक्षा लीधी, सं.१५५४नौ दीक्षा लीधी. भीमाजी पासैं दीक्षा लीधी, ६७. __ अथ हिवै पाहुड २ ग्रंथने विषै पुन: शकेंद्र आगलि भगवंते कह्या छै. रूपा जीवा १. अहीं नूनाजीनी वात छूटी गई छे. – संपा. Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोंकागछीय पट्टावली ४०७ नाम आयरिया भविस्सई तेहवै ऋषि श्री सर्वाजीनै पाटै आचार्य रूप ऋषिजी ते बैद गोत्र पाटण सहरवासी लाख द्रव्य मूकी घर हाट हता ते धर्मस्थानक निमित्तै मैल्या, घणो कुटुंब छोडी दीक्षा लीधी, सं. दिवाली दिने १५६६, शुद्ध केवली प्रणीत श्री दयाधर्म प्ररूप्यौ. नवसै घररी सामग्री श्री पाटण मध्ये लुंकागच्छना थया. आचार्य रूप ऋषिजी १९ वर्षनी दीक्षा पाली सं.१५८(५) दिवंगत. तिहां थकी लंकागच्छरौ आचार्यपद थयो. ६८. तेह. जीवो साह ते सुरत नगरना वासी तेजपाल साहरा सुत माता कपूरांबाई रूप ऋषिजीनी वाणी सुणी प्रतिबोध पाम्यो. ३२ लाख महमूंदी तथा घरहाट धर्मस्थानकै निमित्त कीधी, संसार असार जाणीनैं दीक्षा लीधी, सुरत मध्ये नबसै घर लंकागच्छना थया. आचार्य जीव ऋषिजी थया, ६९, जीव ऋषि पछै नागौर मध्ये नागौरी लंकागच्छ थाप्यौ ते जीव ऋषिजीने पाटै वरसिंहजी थया. (बाबु पुरणचंदजी नहारनो भंडार) [जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स हेरल्ड, एप्रिल-जून १९१८, पृ.१६९-७१] ५४ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयो. ४०८ बे ऐतिहासिक नोंध १ ( जुदांजुदां शहेर वसवानी तिथि तेमज बीजी हकीकत.) सं. १११५ नागोर कोट मंडाणो वैशाख सुद ३ ( ) ठे वासिदाहिमौ. सं.१२१२ रावल [जेसले ] जेसलमेर वसायो. श्रावण शुद १२. सं. ११८१ फलोदी पार्सनाथ देवलरी थापना हुई. सं. १२०२ अजैयासार अजमेर वसायो सही. सं. ७०३ दिली तुवर वसाई अनंगपाल तुअर. सं. १३१३ अलावदी पातसाह जालौर सं. १५०० राणो उदैसंध उदेपुर वसायो. सं. १२१५ सेहसमल देवडे सीरोई वसाई. था लडीयो [ पालटीयो ? ]. वीरमदे कांम सं. १५१५ जोधपुर वसायो जोधैराव जेठ सुद ११. सं. १५४५ वीकांनेर वसायो राव वीके जोधारे बेटे. सं. १५४५ फलोदीरो कोट करायो हमीर नरावत. सं. १६४५ नवो कोट वीकानेर करायो, राजा रायसंघजी, कांमदार करमचंद बछावत करायो. सं.१६१६ अकबर पातसाह अकबराबाद कोट करायो, आगरी जमुना नदीरे उपरै तो. सं.१६२४ चितोडगढ पालटीयो, पातसांही अकबर पालटीया. जैमल इसर मेडीयो कांम आयो. सं. ११०० नामहडराव मंडोवर बसायो. सं. १४७१ अहमद पातस्याह अहिमदावाद वसाई. सं. १६४४ पतिसाह अकबर अहमदाबाद लीधो. सं. १६६९ किसनसंघ राजा किसनगढ बसायो. सं.१२४० राजा कुमारपाल हुओ, जइन धरम राखीवो. सं.११९३ विमल मंत्रीसर हुआ, आबु देहरा कराया. सं.१२९३ वस्तपाल तेजपाल हुआ. आबु जात्रा करनै आबु उपर देहरा कराया. वीरधवल वाघेलारा कामदार हुआ. पगेपगे निधांन हुआ. वरस ३६नो आउखो हुआ. Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०९ बे ऐतिहासिक नोंध सं.१५९९ दुदैजी मेडतो वसायो. आगै मानधातारो हुतौ सं.१५५[१६५५ ?] जांम नवोनगर वसायो हलारमै. सं.१७३५ ओरगांवाद वसायो औरंगसा पातस्याह. सं.१७८३ सवाई जेसंघ जैपुर वसायो. सं.७०७ राजू वीर नारायण सिवांनोगढ करायो. सं.६०९ चित्रांग दसोरीयो चित्रोड वसाई. - इति श्री गावोटरी वीगत संपुरणं. सं.१८२२ गांव दीयावड नागोररी पटी कुपावत राज श्री ठाकुर सीवकरणजी लुणकरणोत लुणकरण केसरसंघोत केसरसंघ सब भए मोत सबलसंघ दलपतसंघोतरी सीवकरणजी दैकवर[कुवर ?] चैनसंघजी कुंवार कनजी कुवार सेरसंघ कुवार प्रथीराज. सं.८८० देहरा प्रतिमा धर्मनइ खातै कराया संप्रतिराजा. सं.६०९ दिगंबर थया. प्रथम भगवंत पछी हुआ कीत. प्रथम गच्छ नहि कोइ सहू कोई साध कहंता, पार्श्वनाथ गणधार तीके पूजायां मंता; श्र माहावीर संतान साधु किरिया अतिसारी, राजा दुरलभनी सभा मझि अति चरचा भारी. हार्या तिके कवला कह्या, जीत खरतर जाणीया, गछ दोय तिण कालमे सहू संधे वखाणीया. १ संवत बार चोवीस ( सं.१२२४ ) नगर पाटण अणहलपूर. हूवो वाद सुविहित चैत्यवासीसुं बहु परि; दुरलभ राजा सनमुख जिण हेलै जीतो. चैत्यवास उथाप देस गुज्जरहि वदितो, सुविहित गछ खरतर वीरूद दुरलभ राजा तिहां दियो; श्र वर्द्धमान पाटै तिलक सूरि जिणेसर गहगह्यो. २ तास परंपर पुन: हूवा गिरूआ गुणे गंभीर, परउपकारी परम गुरू अभयदेव गुणधीर. १ सं.७०० मानतुंगाचार्य भक्तामरकर्ता. सं.१००८ पोषधसाला ८४ गच्छै बाधीनै बेदा तीवारे पछी जै वीरला साधु वनखंडवासी रह्या. साधु श्रावकनी पूजा नही तिवारे. Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह सं.१२०४ खरतरा वनवासी देवता सांनिध्ये अणहिलपूर पाडणे आव्या. नगरनै लोके महाकष्टधारी देखीनैं वांद्या. तिवारे पोषधसाला नामथेनांनै कोई न मान. तरे पोषधसालियां खरतर वनवासीयासुं विवाद विग्रह घणो करणो मांड्यौ. पोषधसालीया दुर्लभ राजानै पूकार्या, राजायै सगला भेगा करी न्याय करीयो. पोषधसालीयानै हार्या देखी कवला नाम दीधो ने वनवासीयांनै खरा मती जांणी खरतर विरूद थाप्यौ. तिहांथी खरतरगछ मती थया. सं.११५९ पूर्णमागच्छ.. सं.१६१२ भावरिषीया खरतर नीकळ्या. सं.१२०५ रुद्रोलीया खरतर नीकल्या. सं.१२१५ वली महूकरा खरतर नीकल्या. सं.१२२४ आंचलीयागछ नीकल्या. सं.१२८५ वड पोसालीया माहातमै तपस्या कीनी, वस्तपाल तेजपालसुं प्रतिबोघ पायो, तद पछै तपगछ नीकल्यौ. घाणोरारी पोसालथी नीकळ्या. जगचंद्रसूरी थया. सं.१२८५ पूनमीया नीकल्या. सं.१३३१ छोट खरतर नीकल्या. सं.१३३३ आगमीयां नीकल्या. सं.१४२२ वडगच्छा खरतरा नीकल्या. सं.१४३३ खेम कीर्ति साखा खेमधाड कहांणा. सं.१४६१ पीपलीया खरतरा नीकल्या. सं.१५६० श्री शांतिसागरतो वद्ध आचारजीया खरतर नीकल्या. सं.१६१२ भावरिषिया खरतर नीकल्या सं.१६६७ लघु आचार्जीया खरतर नीकल्या. सं.१३३६ आयमीयआ गछ नीकल्या. पाठांतरे १०८० वरसे दुर्लभ राजा तमपतीनुं जीव्या खरतर विरूद प्राप्त थेटमें चंद्रगच्छा वी.सं.१५ आसरे वर्ष वीरात् २००० लगी साधु साधवी श्रावक श्राविका पूजा प्रतिकार नहीं पामै ते वरस २००० पूरा थया तै हवे रतनपाल लखमसी प्रमुख श्रावक थया तथा श्री. ऋ. रतना हवा. पाटणमाहै घणचंद हवा. पछै पतिसाह मुदाफर वडरा छापा आंण्या, देहरा पराया भूतफरौसीन करावी, पछै कोईक कहै परमेसर न माने, पछै काजी साहेब दीधुं, सीख दीधी, जिनमत कह्यु, चंद्रमा तुरकना देव सूर्य हिंदुना देव इम ज मांगें छु, पछै पातिसाह छापा करि दीधा, पछै अहिमदावाद मध्ये सिधंतनुं ढगलं करावी कुंवारी कन्यातीरा एक परत Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बे ऐतिहासिक नोंध ४११ कढावी. तेणे बालिकायै ढिगला माहिसं दशवैकालिकनी काढीनै वै परति पंडते वंची, दयाधर्ममूल थाप्यु, देहरा प्रतिमा खोटा जाण्या. सं.१५०८ वर्षे ऋ० नाना १ गुजरातिमांहि हूवा. तिवार पछि ऋ० धर्मसी, ऋ० रतना, ऋ० उदा, ऋ० वीजा, ऋ० चंदा, ऋ० लालजी प्रमुख हूवा. तिहांथी साध साधवी श्रावक श्राविकानी पूजा सतकार पांमता हूवा. सूगडांगनै २७ अध्येने अभिवंदियाए ए पाठ छै. (कलकत्तावाला बाबु पूरणचंद नहार भंडार) [जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स हेरल्ड, एप्रिल-जून, १९१८, पृ.१६३-६४] Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ खेताकृत अगमवाणी निसाणी [जैन गूर्जर कविओ' मां कृति नोंधायेली नथी. कृति राजस्थानी-हिंदीमां रचायेली छे अने ऐतिहासिक भाविकथन करे छे. पाबूए सपनामां कहेला आ शब्दो छे एथी कृति खेताकृत गणाय. - संपा.] आखातीज अठाणवै, आगम पंवे(चे) दीह, पाबूरा फुरमाण सौं एहवी बोली जीह. सुपनामै सुणीया सबद, मुझ वीचकीयो मन, जाणूं घर ऊजड हूवै, वसती हुवै जु वन, अनचिग थ्यो दीसै ईला, सुलसी काइ सडसी, विग्रही इसडो ऊठसी, वडली विगडसी. पडसी ईसडों पीटणो, माहे मुगलाणां, ऊसरै हडो ऊठसी, जुडसी जुमलाणां. खूटिसि दल खूरसांणरा, खूटिसि तुरकाणां, साहिजादा आवटसी, आंका वाचाणां. पातिसाही जातां पगां वडसी निबलाणा, मरसी म्लेच्छ मिरगीयां, गुरूलां महाणां. गुप तीसै गैबी मर्द ऊठिसी उणि ठाणां, चकता सौ निरबाण बुढि, जुडसी जुमलाणां. का पैंतीसे समै जै कोइ जाणै, पडिसी इसडो पीटणो, जालिम जोधाणै. मरसी खत्री मंडोवरौ, थिर काबिल थांणै, पतिसाही पालटसी साका दीवाणै. हेकरसो हुइसी इसी हलचल हीदवाणै, चढि पातसाह चलावसी, राजा कोइ राणै. कोइक गैबी ऊठसी, ओसर उणि ठाणे, उत्तरखंड सौ आवसी, जोधाण सिवाणै. जालिम कोइक जागसी, राठौड घराणे, अवतारी हुई ऊठसी, नर कोईक जाणै. Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१३ खेताकृत अगमवाणी निसाणी करसी इसी मंडोवरौ, दाडिम दीवाणै, जेती धरती तुअरा जी चहुवाणै. एती आण वरतसी राठोड घराणे, के भणियां के जोतिषी के आगम जाणे. आका ऊथलपथल आइ ढूका टाणे, औ वातां औली नही पले फूरमाणै. खेत से पाबू कहै बोल ठिकाणै, हिवै होसी हो ठाकरा दि हिंदवाणै. - इति अगमरूप वाणी नीसाणी. (सत्याशिया दुकाळना वर्णननी प्रतने अंते) [जैन युग, भाद्रपद १९८५-कार्तिक १९८६, पृ.३५५] Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ दीपविजयकृत सुरतनी गझल ('कविबहादुर' ए नामथी पोताने ओळखावता दीपविजय मुनि विक्रम १९मी सदीमा थई गया छे. तेनी गुजराती भाषामां अनेक कृतिओ नामे ‘सोहमकुल पट्टावली' आदि छे के जेनी वीगत हवे पछी छपानार अमारो ग्रंथ नामे ‘जैन गूर्जर कविओ, भाग त्रीजो' बहार पडशे तेमां आवशे. आ कविना समय पहेला मुसलमान राज्य गुजरातमा घणी सदीओ थयां होवाथी पर्शियन शब्दो गुजराती भाषामां खूब प्रवेश पाम्या हता अने पर्शियन भाषाना खास जाणकार हिन्दुओमां पण मुनशीओ अने मुसद्दीओ तरीके कार्य करी गया हता. केटलाक हिन्दुओए पर्शियन भाषामां ग्रंथो पण - कृतिओ पण रचेल छे. कविना समयमा ईस्ट इंडिया कंपनी बहादुर- राज्य पण गुजरात पर शरू थयुं हतुं. आ कविए गुजराती भाषामा पर्शियन (उर्दू) शब्दोनी सेळभेळ करी एक विचित्र जातनी 'गझल' करी छ; अने ते एक सूरत पर नहीं पण बीजां शहेर नामे खंभात, जंबूसर, उदेपुर पर पण बनावी छे. प्रास लाववा गमे ते अक्षरो गमे तेम मेळवी दीधा छे. आ सुरतनी गझलमा पहेलो दुहो छे ने वचमा त्रण दुहा छे अने छेल्लो छप्पय छे. ७८ कडी गझलमां छे. कुल ८३ गाथा छे. रच्या संवत् १८७७ मागशर शुद ५ छे. आ लखवानो हेतु कवि जणावे छे के सुरत शहेर सुंदर अने वेपार- मथक होवाथी हुँ जोवा आव्यो अने गच्छपति आचार्यश्रीने विज्ञप्तिलेख - चित्रलेख मोकलवामां आवे छे ते प्रमाणे चित्रलेख लखी मोकलवा माटे आ गझल में बनावी. आ कविना पोताना स्वहस्ताक्षरमां रच्या पछी चोथे दहाडे लखेली, १३ पंक्तिवाळु एक एम पांच पानानी प्रत के जे विजयधर्मसूरि पासे हती ते उपरथी आ उतारी छे. विक्रम सं.१६(सो)मां सुरत नामनी गणिकाना नाम परथी तेना परनी पातसाहनी महेर थतां सूरत शहेर वस्यु. गोपीशा नामना साहुकारे गोपीपुर वसाव्युं अने गोपी नामनुं तळाव तेमज वाव पथ्थरबंध बंधाव्या. (ते) गोपीदासे सूरजमंडन श्री पार्श्वनाथनी स्थापना करी. पातशाहे तापी (नदी) पर मोटो किल्लो बंधाव्यो तेनो पायो ऊंडो करी अने सीसुं भरी मोटा बुरज कराव्या. कोटने फरती खाई करावी ते किल्लामां नालगोळा - तोपगोळानो साज राख्यो के जे एवा हता के तेने छोडतां जबरो अवाज थतो हतो. अहीं दिल्हीना पातशाहे ते किल्लो बनाव्यो ने त्यांथी मोटा सूबा - खान आवता. किल्लाने बार दरवाजा हता. ए नीका - सुंदर सुरत शहेर पर तापी मातानी महेर हती. तापी नदीमा बे वखत वेळ चढती हती, ने तेमां होडी - फतेमारी चालती हती. ते होडीओना प्रकारनां जुदांजुदां नाम आप्यां छे ते जाणवा जेवां छे. दरियामहेल हतो. लाखो रूपियानो माल सफरी जहाजमा आवतो. ७२ जातनां Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपविजयकृत सुरतनी गझल ४१५ करियाणांनो वेपार वेपारीओ करता हता. फुरजामां माल आवतो ते पर दाण लेवामां आवतुं. आ वखते नवाब नसिरूद्दीन खान हतो अने ते पोतानी सवारी काढतो त्यारे सारा गजराज झूलता अने काबूली कनोजी कच्छना घोडाओ तेमां चालता हता. वळी बक्षी तरीके बहारतेग अने काजी तरीके ममदहसन हता. अने तेओ कंपनी बहादुरना हुकमथी हाकमी चलावता हता. ते बहादुर कंपनीनो सरदार मिस्तर वान साहेब हतो अने सुरत परगणाना अधिकारवाळो किल्लेदार मालेसन (नामनो साहेब) हतो. नगरशेठ लखमीदास नामनो हतो के जेनी प्रभा शहेरमां पडती हती; ईमानी मिरज्यां, कायदो जाणता पिरोजशाह, बुद्धिशाली सणवी नामे नाजरशाह अने महेता वल्लभ अने गिरधरलाल बंने पुण्यशाली हता. शास्त्री तरीके आणंदराम, मोटा मकानवाळा बाबा दूमरो नामना हता. हवे शहेरना शाहुकारोमा अगणित लक्ष्मीवाळा तरवारी नामनी अटकना आतमाराम भूखण नामना भणशाली हता के जेमनुं पुण्य घणुं हतुं, नव लाख लक्ष्मी हती. बीजा नामे लालीबिरह चुनीलाल लक्ष्मीवान हता, कलाशाह, श्रीपत्त ए नामना श्रीमंतो उपरांत क्षत्री जातना दूलाचंद, मोटरमल्ल, जोयतादास अने माधोदास हता. मारवाडी शाहुकारो सुविलासी अने मोटी पेढीओ राखी लाखोनी हुंडी लखनारा अने गुंडी पाघडी बांधनारा - एवा घणा शाहुकार हता. तेथी केटलांनां वर्णन करूं? ___गुजरीमा जे चीज मलती हती तेनुं वर्णन करुं छु. गुजरी किल्ला पासेना मेदानमा भराती. त्यां मशरू, हिमरू, किनखाब, जरबाब दोशी वेचता हता. छायल, छिंट रोकड लई अपाता, कापड बंगाली सरत्ता, बिलाती, चीन, मधराजी, नगरी, सोरठी, नवनव जातनां पटकूल वेचातां. दलाल कजिया मटावता. धोती किरमजी कोरा, दुपटा कसबवाळा, मशरू, मिस झरडो (?), रंगीन वस्त्र शोभता. पाघडी बांधी वेचता, साडी, सालदुशाला लहेरीलालाओ खरीदता... घणी जातना चोक हता. एक पास मुगलीसरा के ज्यां मुगली लोको रहेता, बीजी बाजु चिनाइ मालनी दुकानो, पटवा - रेशम वेचनारनां मकानो हतां. घणां हजवाइ (?) बेसी सुंदर माल बतावता. नवनवी चीजो मळती तेमां केटली जोईए ? फरीने नाणावटमां आव्या पछी केला पीठमां जवानुं मन थाय के ज्यां भातभातना मेवा लालालोक लेता. कमरख, कमरखां, खिरनी, किसमस स्वाद आपे तेवा हता. सीता नामनां फळ – सीताफळ, जांबु, फन्नस, नारंगी, दाडम, फालसा, अन्नासनी सुंदर मधुरी वास आवती हती. शेरडी, आंबा [केरी] एम अनेक भातनुं शी रीते वरणाय ? घणा तंबोली पाननी चोळी लई बेसता, अत्तरदार सरैया थोकबंध रहेता. घणा कंदोईओ सारो माल - बहु जातनां पकवान करी बेसता. सूरत शहेरनी ए ‘सोगात' (सारी चीज) जुदी जुदी जातनी बरफी हती. अझोख पाट्या (?) चकलामां गोपीपुरामां महेलो – मोटां मकान हतां के ज्यां, बुजरग – वृद्ध लोको कहे छे के, गोपीशाह रहेतो हतो. तेना नामर्नु Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह बजार हतुं ने त्यां आखी दुनियानो वेपार चालतो, सं.१६७९मां सेनसूरि (विजयसेन सूरि)ना (हस्तथी) गोपीदासे सुरजमंडन पार्श्वनाथ स्थाप्या. झवेरी लोक मोज करता अने बीजी कंई पण शोध-वातमा न पडतां हीरा, नंग, पांचे जातनां मोती परखता हता. पन्ना पीरोजा लाल लईने दलाल फरता. सर्वे पोतपोतानो धर्म पाळी पोतानां षट्कर्म साधता. कोई वेदपाठी. ठाठवाळी भाषाना रचनार, जोतीषी, निमित्तिया, छंद पढनार, वाद करनार वादी, फूल लई फरता माली, फूल मूल दई लेनारा भोगीओ, भांग बूंटनार भंगी, अमल लेनारा रंगी अमलीओ (अफीणना अमलवाळा), कंसारा, घाट घडनार सोनीओ, गुंडा मरजी प्रमाणे सीवनारा दरजी, नंगने जडनारा जडिया, चूडा करनारा दंतारा, चूडीओ पहेरनारी स्त्रीओ एम चोरासी बजारमा जदाजदा वेपार वाणियाओ करता हता. वळी बहु पारसी लोक हता ते रोकडा दमडा लई वेपार करता. . आम सर्व लोक सुखिया हता. कोई वातनुं दु:ख नहीं हतुं. अंग्रेजी राज्यमा शहेरना लोकने सर्व सुखनी सामग्री हती. शहेरमा घणां कमठाण(?) छे, आकाशनी चांदनी ज्यां रेलाय छे एवी ऊंची हवेलीओ छे ने एना गोखमां नरनारीओ बेसे छे. देवालयोमां अंबा बहुचरा माताजीनां स्थानो हतां के जेने लोको सन्मानता, विष्णु ने शिवना प्रासादो हता के ज्यां घेरा नादो थता, जैनोना सुंदर प्रासादो हता के जे जोतां आलाद थतो. जैनोनां दहेरामा सुरतमंडन पार्श्वनाथनुं खास देवल, शंखेश्वर (पाच)- उबरवाडीमां, गोडी पार्थ, शांलिनाथनु, आदिनाथy, महावीरनु, चिंतामणि पार्श्वनाथ एम ४२ देवल हतां. विजयदेव(सूरि)न आलय (उपाश्रय) उंचा गोख ने माळवाळु हतुं. विजयानंद(सूरि)नुं आलय उपरांत सागरगच्छनो, खरतरगच्छनो, अंचलगच्छनो, पासचंद, कमलशाखा, कलशशाखा, कत(पुरा)शाखा, आगमगच्छ, पूनमियागच्छ, लुंकागच्छ एम सहुसहु गच्छनां स्थान हतां. चोरासीगच्छना पोतपोताना गच्छवासी हता. संवेगी साधुओ निरुपाधिकपणे आगम वांचता, ने तात्त्विक ग्रंथो पढता. दिगंबरोनां सात देवल हता. आम जैन (धर्म) विख्यात हतो. ___हवे पुराओ वर्णवू छु. गोपीपुरा, साहपुर, हरिपुरा, रूगनाथपुरा, महिधरपुरा, महेझर(!)पुरा, रामपुरा, मंछरपुरा, बेगमपुरा, सलातपुरा, सगरामपुरा, रूस्तमपुरा, सुलतानपुरा, रूदरपुरा, नांनपुरा, नवापुरा, सईयदपुरा, इदरपुरा, एम अढार पुरा छे. बाग, वन, आराममां मोजी विश्राम लेता. फूलथी महमहता. हरियाळी भूमि हती. बागमा फरता. कारंज (?) ऊंचा ऊठता, ख्यालीओ शेतरंज खेलता. फिरंगी लोकना कमठानमां रागतान थतां. शहेरमा अढारे वर्ण हता. सुरत सुंदर शहेर हतुं ने तेना पर प्रभुनी महेर हती. नवलाख (!) घरो हतां ने राज कुंपनीनुं हतुं. जेम देख्यु तेम वर्णन कर्यु छे. हे तपगच्छभानु (आचार्य) ! अही कृपा करी शहेरने पोतानु जाणी आवो. संघ पोतानो मानी अहीं पूज्यजी ! चोमासुं करवा आवो. सं.१८७७ मागशर मासनी (शुद) बीजने दिने दीप Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१७ दीपविजयकृत सुरतनी गझल कविराजे शहेरमा सम्राट एवा सूरतनुं वर्णन कर्यु छे. जेवू देख्युं तेवू लखी चित्रलेख दीपविजये गच्छपतिने मोकल्यो.) [दीपविजय कविराज ने एमनी कृतिओनी विशेष माहिती माटे जुओ जैन गूर्जर कविओ, बीजी आवृत्ति भा.६, पृ.१८६-१९५ तथा गुजराती साहित्यकोश खंड १, पृ.१७४-७५. - संपा.] श्री गुरू प्रेमप्रतापथें उगति उपाई अवल्ल, वरनुं सूरत सेहेरकी अभिनव खुब गज्जल. १ अथ गज्जल सारद चरन चितलाईक् बुद्धि देत महमाईक्, गज्जल खूब अनुसरतुक् सूरत सेहेरकुं बरनुक्. १ सूरत सेहेर सुथानाक् बंदिर दीपता दानाक्, भालुं आदिसें उतपत्त, सुणिई गुनिजना इकचित्त. २ संझा सोल विक्रमराज, सूरत नाम गणिक साज, ता पर पातसाहकी मेहेर, तानें वस्यो सूरत सेहेर. ३ फिरक गोपिसा सहकार, गोपीपुरा वास्या सार, गोपी नाम सरवर वाव, पथ्थर केलबंधी साव. ४ सूरजमंडना श्री पास, थापन किया गोपीदास, तापि छफरांसी पतसाह, किल्ला कीन वड उच्छांह. ५ किल्ला खूब हे उंचाक्, सीसागारसें सिंचाक्, गाडा वट्टसें चोडाक्, उचा बुरज हे प्रौढाक्. ६ अलका भूम इथ आइक्, फिरतें कोटसें खाईक्, . किल्ले नाल-गोला साज, सखरे होत हे अव्वाज. ७ बुरजें तालकी पांतांक, निरखण होत हे खाताक्, नव गज बार गजके मान, मानु जोगणीको ध्यान. ८ घणणं बाजती घंटाक्, मानु मेघको गड्डाक्, किल्ले फिरत खाइ खूब, भरि हे नीरसें महमुब. ९ तापि छफरांसी पतसाह, किल्ला दिया दिल्लीसाह, किल्ला पातसाही मान, फरके वावटा असमान. १० ज्या पर पातसाहका मान, आते बड़े सूबे खांन, सूरत सेहेर हे नीकाक्, मानुं धरनिका टीकाक्. ११ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह नीके बार दरवाजेक्, अलका नयरके लाजेक्, नीका नाम सूरत सेहेर, तापी मातकी हे महेर. १२ भटणी मान तापी सार, चहती वेल दोन वार, चढते पांणियांके पूर, होडी आत हे ससनुर. १३ बेडी बेड वेगड दोण, खादर बखरा फिरकें सौण, । गदबद फेर फतमारीक, ज्याकी पवन गत चारीक्. १४ पीनस कथथ पनसोइक्, वज्रापटल हाहोइक्, बतेला पल्लवारा नाम, खेलण पौनगत अभिराम. १५ ईंसे बहोत नावां नाम, ज्याका थंभ हैं असमान, सढचे दोर हे खासाक्, खेडुत देत हलेसाक्. १६ अटवे उंबरेसें होय, आवे जिहाज सबही कोंय, गोला नालसें छोडीक्, बंदिर आत हे होडीक्. १७ मुल्लां-बारि नि चौमाज, छुटे नालगोला वाज, दरिया-मेहेल निचौ आय, फरके वावटा समुदाय. १८ लाखौ माल चल आवेक्, सफरि जिहाज भर लावेक्, बहोतर क्रियाणाके थोक, लेवे साहुकारां लोक. १९ फूरजें आत हैं जब माल, सबका लेत हे संभाल, दाणि करत ती पर छाप, जेंसो डाल तेंसा माप. २० बरनुं सेहेरको राजान, नेकी राज हे गुनखांन, नसिरुद्दिन हे नव्वाप, ज्याको देसदेसों माप. २१ अच्छे झूलते गजराज, मानु मेघ जसो गाज, नव नव जात घोडे व्याह, सोहें सवारिके मांह. २२ काबिल कनोजी कछीक्, जिनकी जाल हे अछीक्, बहारतेग बखसीजीक्, ममदहसन है काजीक्. २३ कुंपनी हुकमसें आयाक्, हाकम हाकमी ल्यायाक्, हाकमसें हर हुकमीदार, बहादर कूपनी सरदार. २४ मिस्तर वान साहेब नाम, समजण बहोत होई तमांम, मालेसन हे किल्लेदार, सुरत परगणे अधिकार. २५ मरशेठ लखमीदास, ज्याको सेरमें उज्जास, मिरज्यां इमांनी बडनूर, मांनु भागको ससनूर. २६ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपविजयकृत सुरतनी गझल पिरोजसाहजी पुनवंत, ज्याको कायदो महमंत, सणवी नाम नाजरसाह, ज्याकी प्रगल बुद्धि थाह. २७ हेंता वल्लभ गिरधरलाल, दोनुं पुन्य थें वडभाल, सास्त्रि नाम आणंदराम, बाबा दूमरो बडधांम. २८ बरनुं सेहेंरके साहुकार, ज्याकुं लच्छिको अधिकार, अगणित लछमी भारीक्, ज्याकी अटक तरवारीक्. २९ आतमारांम भूषण नांम, पेंसें बहोत कोई तमाम, भणसालीक्, परगट पुन्य परनालीक्. ३० सबही बातसें दरखाक्, लछि- तेज लछमीवास नवलखाक्, लाली - रह लछि- तेज थें चुनीलाल, श्रीपत्त, कलासाह हें ज्याकौ लछि परघल वित, उज्जास जरबाब. ३६ खतरी जात दूलचंद, जोमदा माधौदास मरूधर साहु सुविलासीक्, पेढ्यां बडी हें खासीक्. ३३ लिखते लखौ की हुंडीक्, पघडी बांधते गुंडीक्, इंए बहोत साहूकार, बरनुं नांम कितने सार. ३४ गुजरी चीज ज्यों मिलती, ताकुं बरनवुं तहतीक्, किल्ला पास हें मेंदान, गुजरी भरत हें बहोमान. ३५ मिसरू बेचते केइ लाल, कजिया मेटते दल्लाल, हिमरू वेचते किनखाब, दोसी बेचते छायल छिटके लेतेक्, रोकड दांमकुं कापड बंगाली सरत्ता, दोसी लोक हे मरत्ताक्. ३७ बिलाति चीन मधराझक्, नगरी सोरठी ताझक्, नवनव जातके पटकूल, अद्दल करत ताको मूल. ३८ कपडे बेचते पडदे, रोकड लेत हें खुडदेक्, जंदे अडत हें अलमस्त, अपने हाल सों मदमस्त ३९ धोती किरमझ कोरांक्, दुपटें कसबकी लेहेरांक, मिसरू मिस झरडौ हौ धाकू, रंगत वस्त्र सौ हौ धाकू. ४० पाघौं दोरि ए विकतेक्, अदल मूलही करतेक्, साडी साल दोसालाक्, खरिदां करत है लालाकू. ४१ देतेक्, वडभाल. ३१ मोटरमल्ल कुलपें चंद. ३२ लछि- तेजको ४१९ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह बहोविध चोक्की हें रीज, बरन जात हें तजवीज, मुगलीसरा हे एक पास, मुगली लोकके आवास. ४२ चिनाइ मालकी दुकान, पटवे रेसमी मक्कान, बेठे बहोत हजवाइक, के माल बतलाईक्. ४३ मिलती नवनवी चीजांक, देखन होत हे रीझीक्, नाणावट्टमें फिर आय, केलापीठमें मन भाय ४४ भांतौभांतके मेंवेक, लाला लोक बहोले चेक, कमरख कमरखां खिरनीक्, किसमस स्वादसें बरनीक्. ४५ सीता नामके फल चंग, जांबू फन्नसे नारंग, दाडम फालसे अन्नास, ज्याकी मेंहेर मधुरी वास. ४६ ईक्षू खंड अरू अंबाकू, भरके बेंठते लंबाकू, इंसी बहोत भांतो जात, बरनुं कौन विधसें भांत. ४७ बेठे बहोत तंबोली, लेकर पानकी चोलीक्, अत्तरदार सरिया लोक, बैठे ओल थोकाथोक ४८ बेठे बहोत कंदोई, अछे माल वहां होइक्, बहोविध भांतके पकवान, मिलते बहोत थानोथान. ४९ सूरत सेंहेरकी सोगात, बरफी होत नवनव जात, अझौख पाट्या चकलाक्, गोपीपुराका मेहेलाक्. ५० गोपी साह जिहां रेहेंतेक्, बुजरूक लोक सो केहेंतेक् उनका नामका बाजार, करते खलक वहां वेपार. ५१ संवत सोल अगन्यासीक काला मास गुनरासीक्, से गोपीदास, थापे सूरजमंडन पास. ५२ झवेरी लोक करते मोज, नांही करत किनकी खोज, हीरा परखते हें नंग, मोतीपन्ने पांचो रंग. ५३ पन्ना पिरोजा अरू लाल, लेकर फिरत हें दल्लाल, सबही मांनते निज धर्म, अपने साधते खटकर्म. ५४ छेली मर्द्दबी केतेक्, दांनी दांनकुं देते, कितने वेदके पाठीक, भाषा रचत के ठाठीकू. ५५ जोतष जोतषी जोतेक्, केते निमितिये होते, केते छंदकुं पढतेक्, वादी वादसें भीडतेक्. ५६ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२१ दीपविजयकृत सुरतनी गझल माली फिरत हे ले फूल, भोगी लेत हे दे मूल, भांगां घूटते भंगीक्, अमली अमलके रंगीक्. ५७ बेठे सीख कंसाराक्, घाटी घडत सोनाराक्, गुंडे बहोत हे दरजीक्. सीवें आपकी मरजीक्. ५८ जडिये जडत हे बहो नंग, मोती पना पांचौ रंग, चूड़े चीरते दंतार, चूडियां पेंहेंरती बहो नार. ५९ एंसे चोरासी बाजार, बणिये करत हे व्यापार, फिर पारसी बहो लोक, वणजां करत दमडे रोक. ६० यौं सब लोक हे सुखियेक्, नहि कोई बातसें दुखियेक्, सेहेरमें अंगरेजी राज, पावत लोक सब सुखसाज. ६१ पुरमें बहोत हे कमठांन, चांदनी पोहोचती असमान, उंची हवेल्यां भारीक, बैठे गोख नरनारीक्. ६२ आं बेहेंचराके थान, आलम करत हे सनमान, विषु सिवांका परसाद, वामें गाजे गुहिरा नाद. ६३ के जैनके प्रासाद, देखत होत हे आल्हाद, सूरतमंडना श्री पास, फिरके धर्म देवल पास. ६४ संखेसरा श्री जिनराज, उबरवाडि श्री महराज, गोडे पास जिनवरदेव, सारें भक्तजन प्रभु सेव. ६५ सांतीनाथका देहराक्, मार्नु सिवपुरीसेंराक्, आदीनाथ जिनवर वीर, तारे भवां-सागरतीर. ६६ चिंगी पारसनाथ, मेलें सिवपुरांको साथ, देवल बडें बेहेंतालीस, वंदे सुरनरांका ईस. ६७ विजयादेवका आलाक्, उंचा गोख हे मालाक्, आलय फेर विजयानंद, सारछ खरतर वृंद. ६८ लोढी वडी हे पोसाल, परगट धरमकी परनाल, अंचलगछ पासचंदसूर, कम्मल कता कत प्रभसूर, ६९ आज पुने लक्क सब सब गछके सककेक्, इसे गछ चोरासीक्, अपने गछ-मत-वासीक्. ७० फिरके संवेगीके साध, आगम वांचते निरूपाध, साधु साधते सिवपंथ, पढते तत्त्वके बहु ग्रंथ. ७१ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह देवल दिगंबराके सात, या विध जैनको विख्यात, बरनुं पुरा• अहिठान, ज्यामें सहस लाखो थांन. ७२ पुरा युहि केहेंवत होय, वस्ति सेहेर सरसि सोय, च्यारो तरफ मिलकें सार, वस्ति पुरांकी अढार. ७३ दोहरा गोपीपुरा फिर साहपुर, हरिपुरा रूघनाथ, मेर मेंबर रापुर, मंछ बेगम साथ. १-७४ सलतपुरा सगरामपुरा, रूस्तापुर सुलतान, रूदरपुरा अरू नानपुर, नवापुरा बड थांन. २-७५ सग ईदरपुरा, पुरे अठार बखांन, बडे बडे थानक सरस, भूम सात आरांम. ३-७६ पुन: गज्जल बरनुं बाग वन आराम, मोजी करत हे विसरांम दाखत फूलसें फूलेक्, नीके रसभरे झूलेक्. ७७ फिरते बाग बहो दूजेक्, मानुं सुरसके कुंजेक् नीली भूम हरियालीक्, निरखत दृष्टिभर भालीक्. ७८ उंचे ऊठते कारंज, ख्याली खेलते सेतरंज, फिरंगि लोकके कमठान, होते राग छत्तिस तांन. ७९ पुरमें अठारौं ही बरन, सबके जूजूए आचरन, सूरत नयर चावा सेहेर, ज्या पर देवताकी मेहेर. ८० नव लख घरां वस्तिमान, ज्याको कुंपनी राजान, कीनो -सेहेंर बरनन एह, अपनी दृष्टि देख्यो जेह. ८१ करके कृपा तपगछभान, आंना सेंहेंर अपनी जान, जांणी संघ अपनो खास, आना पूज्यजी चोमास. ८२ सतोतर संवतां अठार, मगसिर मास द्वितियां सार, बरन्ये . दीपश्री कविराज सुरत सेहेरको साम्राज. ८३ कलस : छप्पय रि सुरत सेंसेर, ता बरनन इह कीनो, सब सेहेरां सिरताज, सुरत सेंहेंर नगीनो; Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपविजयकृत सुरतनी गझल देखनकी जस हौंस, श्री गछपति महाराजकुं दीपविजय कविराजने इह नीको सूरत सेंहेर, लख कोसां लग चावो, सो देखनपें आवो, चित्रलेख लिखने लीउ, सुरत सेंहेंर बरनन किउ. १-८४ इति श्री पं. दीपविजय कविराज बहादरेण विरचिताया सूरतकी गज्जल. सूरतकी गज्जल ८३ गाथाकी १, खंभातकी १०३ गाथाकी २, 'जंबूसरकी गज्जल ८५ गाथाकी गज्जल ४, उदेपुरकी गज्जल १२७ गाथाकी गज्जल प, ए पांच गज्जल बनाई है. सं. १८७७ शाके १७४२ प्रवर्त्तमाने मागसिर सुदि ५ रविवारे लि. पं. दीपविजय कविराज बहादरेण. (कविना हस्ताक्षरमां विजयधर्मसूरि पासेनी प्रत, पत्र ५ – १३ ) [जैनयुग, कारतक - मागशर, १९८५, पृ. १४१-४६] - १. अहीं वडोदरानी गझल ६० गाथानी रही गई जणाय छे. संपा. ४२३ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ एक घरेणाखतनो दस्तावेज (आ लेख लूगडा – कापड पर लखायेलो छे अने ते अमने जैन गूर्जर कविओ संबंधीनी हस्तलेखित प्रतानी शोधमा पहेलांप्रथम अमदावाद जतां अमारा मित्र मि. छोटालाल वाडीलाल पासेथी मळेलो. ते अत्यार सुधी साचवेलो ने ते परथी आबाद नकल करी अत्र आपवामां आवे छे. आ लेख सं.१७७१नो छे एटले औरंगजेब बादशाहना पछीना समयनो, तेना मरण पछीना सातमेआठमे वर्षनो छे. ते वखते दिल्हीमा फरोकशीर बादशाह हतो. वजीर नवाब अब्दुल्लाखान हतो अने अमदावादमां सत्ता जोधपुरना अजयसिंह राजाना नायब (दीवान) विजयराजनी प्रवर्तती हती पण अमलदारो बधा मुसलमान हता. पातशाही दीवान मोहोतरमखांन, बक्षी मीा महेरअलीखांन, काजी अब्दुल खेरल्लाखान, मुफती मुल्लां नूरल्ला अने कोटवाल मीा अबूताल्यब नामना हता. ए बधानो उल्लेख आ लेखमा छे अने आ लेख देवनागरी लिपिमा लखायेल छे ने ते वखते केवी जातना दस्तावेज लखाता हता तेनो नमूनो आपणने आथी मळे छे. संस्कृत शब्दो पण अत्रतत्र वपराता हता ने विशेषे गुजराती भाषा वपराती. मुसलमानी वखतमा लखाता दस्तावेजो पैकी बेना नमूना श्री जिनविजये 'पुरातत्त्व' त्रिमासिकमां बहार पाड्या छे अने ते पर पोता- विवेचन पण कर्यु छे. तेमां आ लेखथी एक वधु नमूनानो उमेरो थयो छे. आमां दस्तावेज करी आपनार अने करावी आपनार मोढ गोभूजा वणिक छे अने ते पैकी एकनो वकील (मुखत्यार) ब्राह्मण छे. घरनी चतु:सीमामां जैनोमां प्रसिद्ध नगरशेठ शांतिदासना कुटुंबना फरतखानानो उल्लेख छे. आथी घणी बाबतो पर पडता प्रकाशथी पुरातत्त्वना शोखीनोने आनन्द थशे.) __ श्री गणेशाय नमः. स्वस्त श्रीमन्नृप विक्रमाऽर्क समयातित संवत् १७७१ वर्षे शाके १६३७ प्रवर्त्तमांने असाड वदि ११ भ्रगूवासरे लीषीतमीदं. ग्रह १ तस्य अडाणक परस्पर खतपत्रममी लीष्यंते. समस्त राजावली समलंकृत वैरी वीरूथीनी गजघट्टा कुंभस्थलवीदारणैकएव पंचानना न्यायेन वृक्षोन्मूलन तेज प्रौढ प्रतापमार्तंड रीपूवनदहन दावानल माहाराजाधीराज सूरत्राण पातशाहा श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री ७ पातशाहा फूरूकशाहा बाहाधूरागाजी श्री धल्लामध्ये विजयराज्यं क्रीयते. तत्र वजीरां वजीर श्री ५ नबाब अब्दुल्लाखान. तत्र श्री एंहेंम्मदावाद मध्ये सोबे साहेब माहाराजाजी श्री ५ माहाराजा अजीतशंघजी श्री ज्योद्धपुरमध्ये विराजें छि तेना सकलकार्घ्यकर्ता नायब श्री ५ भंडारी वीजयराजजी धर्मायां प्रवर्ततेत. तत्र पातशाही दीवांन श्री ५ मीर्जी मोहोतरमखान, तत्र बकशी श्री ५ मीर्जी मेंहेंरअलीखान, तत्र काजी श्री ५ शेख अब्दुलखेरल्लांखान, तत्र मुफती श्री ५ मूल्लां नूरल्ला, तत्र कोटवाल श्री ५ मीर्जा अबूताल्यब. तत्र चोतरानो अमल दस्तुर मंडपीका माफ छि. तत्र हवालदार कांहानूंगो Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक घरेणाखतनो दस्तावेज ४२५ श्रेष्ठ तथा धर्मे दीपक समस्त माहाजन संज्ञके एवं पंचकुलान्वये, तत्र श्री श्री हवेल्यां च्यकले ढीकूआ ने झवेरी पाडानी पोल्य मध्ये देवशी साहाना पाडानी पोल्य मध्ये, तत्र स्थांने वास्तव्य लेनार वणीक मोढ गोभूजाज्ञातीय लघु शाखायां साहा लक्ष्मीचंद बीन हरीदास बीन द्वारकादास ए साहा लक्ष्मीचंद पारस्यात्, आपनार वणीक मोढ गोभूजाज्ञातीय स्वज्ञातीय साहा जसवंत बीन कल्याणजी बीन महंकाल ते साहा जसवंत श्री उज्येण मध्ये विराजे छि, तेना वकील पोताना गोरभट गणेश बिन इश्वर बीन लक्ष्मीधर ते भट गणेश हस्ताक्ष्यरांणी दत्ता. यत् घर १ पश्चमाभीमूखनूं छि. ए घर मध्ये ओरडो २ पश्चमाभीमूखना बे डागला जडी अत्र छि. अग्रे पटशाल्यो २ बे पश्चीमाभीमूखनी डागला जडीत्र छि. अग्रे चोक अगासो छि. ओरडी १ दक्षणाभीमूखनी छे. ते ओरडीनी जोडे पाणीहारू १ दक्षणाभीमूखनूं छि. ते मध्ये घडुं १ उदक भरवानूं छि. ते ए घर केसे(डे) छि तथा भाग २ बे बीजा अनामत छि ते घर २ बेना छि. ए घरना ढाल २ बे छि. ए घरना खूट ४, पूर्व दीशे ए घरनां पछीत्य पाछला पडालनां नेव गोझार्यनां नेव मोहोतीएं छि तथा घरमां नेव कीनारीएं छि. पश्चम दीशे ए घरनं द्वार चालै नेव छि तथा गोख छजानी बारी १ छि. चोक साथ्य छि. दक्षिण दीशे ए घरना घरेणाना आपनारनूं घर छि. ते साहा हीरचंद बीन रहीआ पासे आडघरेणे छि. करो तथा फडेताल साथ्य छि. तथा ए गोझारीनू द्वार चाल नेव चोकमां पड़े छि ते गोझार्य तथा ए ओरडी एक कर्यां छि. उत्तर दीशे ए गोझार्यनो करो छि. ते मोरां मुगलांणी बीबीनी छीडी छि. तथा ओरडीने करे ए साहा सेठ सांतीदास साहाना परीवारना फरतखांना मध्ये पडे छि. एहवे मखा पछीत्य नेव उपर ल्यख्यां छि ते मगलांणी बीबीनी बीजी छींडी मध्ये पडे छि. एहवी वीध्यनूं घर १ भट गणेशे ए साहा लक्ष्मीचंद हस्ते घरेणे आप्यूं ते साहा लक्ष्मीचंदे लीबूं तस्य द्रव्यमांन नांणावट फडी अटचल न्यायेन नवी २ नां मासा ११ ना अमदावादी टंकसालना बाकरखांनी यत् रूपैआ ४०१) अंके रूपैआ च्यार सेंहे ने एक पूरा साहा लक्ष्मीचंदे भट गणेश हस्ते एक मूष्ट्वा दत्ता. भट गणेश तेना ग्रहीता एगूरूथ रूपैआ ४०१ अंके रूपैआ च्यार सेंहे ने एक पूरा साहा लक्ष्मीचंद पासेथी लेईने ए घर घरेणे आप्यूं ते साहा लक्ष्मीचंदे लीबूं ते घर भाडुं नही, द्रव्य व्याज नही, नेवां रहेनार संचरावे, खोट नलीयांनी धणीने माथे, वलतीयूं वर्ष १ प्रत्ये दोकडा २५ छूटा त्रांबाना वले सही, ए घर पड्यूं आखड्यूं धणी समरावे. धणी हाजर न होय तो पंचने देखाडी खरचे. मूल द्रव्य साथें वर्ति आपें. हवे ए घर मध्ये साहा लक्ष्मीचंद तथा लक्ष्मीचंदना पुत्र परीवार वसे वसावे भाडे आडघरेणे मूके त्यारे ए घरना धणी कशी वातनी कनवार न करे. ए घर मध्ये साहा लक्ष्मीचंद त्यार लगण रहे, झार लगण भट गणेश द्रव्य Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह नापे. झारे भट गणेश तथा भट गणेशना पुत्र परीवार द्रव्य रूपैआ ४०१ अंके रूपैआ च्यार सेंहें ने एक पूरा आपे त्यारे ए घर घरेणेथी छूटे, खाली करी आपे, घडी १ नो अजर न करे, ए घरनूं को वारस हीसादार सफादार कर्जदार जे कोइ आवी प्रगट था तेने भट गणेश तया गणेशना पुत्र परीवार ज्यवाब करे, समझावे सही. ए घरनो खाल प्रनाल नेव नीछारो वाडो खारा पांणी नीकैई ए सर्व पूर्व रीत्ये संमंध सहीतं एहवां खत साहांमसांहांमां ल्यखी लीधां छि. रूपैआ २७५ अंके रूपैआ ब्यसेंहें नें पंच्योतेर पूरा बा राजकुंअर्थ साहा मांण्यक पंजीनीं दीक्यरीने अपाव्या, समस्त पंच हजूर अपाव्या छि, तथा रूपैआ १२६ अंके रूपैआ एकसो ने छवीस पूरा ए घर उपर खर्च्या छि, जमल्ले रूपैआ ४०१ अंके रूपैआ च्यार सेहे ने एक पूरा माटे ए घर घरेणे आप्यूं छि. एवां खत सांमसांमां छि. १ अत्र मतुम् १ साहा जस्वंत कलाणजीना वकील दवे गणेस इसवरजी मतु उपर लखा पमणे खत रू. ४०१नुं करी आपु छे. 9 अत्र साक्षराणी १ सा. रणछोडदासा दावारकादास साख, धाणा [ धणी] बी हाजरी १ सा. रामादास कासीदास साखा ला खाता भरवी जो.... १ सा. नाता वाछाराज साखा धाण [ धणी ] बी हाजरी 9 सा. हरमां दरत्ररी [सा] खा धान ब हरज [धणी बे हाजरी ] 9 सा. नानचंद लाल साख १ परी. ताराचंद ठकरसी मंतु उपर लखु त सही १ सोमचंद नानजी साख धणी २ हजुर करी छे १ नाथ अमरसी साख धण [णी] ब[ बे] हजुर कर छ १ आमारसी नाळकजीना सखा धण इ[धणी बइ] हजुर (खत पाछळ जमणी बाजु आ प्रमाणे बीजा बार जणनी साख लीधी छे ने ते बधाए बोडीआ अक्षरमां साख करी छे.) Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक घरेणाखतनो दस्तावेज ४२७ (वळी खत पाछळ डाबी बाजुए पण उक्त गणेशना हस्ताक्षरमां लख्यं छे. के:-) ४॥ जमे ए घर उपर खरच थउ ४||) रू. ४॥नो गत २) रू. चोरसां चेठणा पछते २) मजुरी कडीआ o॥ सुखडी ल. गणेश इसवर सं. १७७४ श्रावण शुद १० नोंध उपरना संबंधी साक्षरश्री दीवानबहादुर कृष्णलाल मोहनलाल झवेरी (M.A., LL.B.) मुंबइ स्मोलकोझ कोर्टना माजी चीफ जज) एक पत्र द्वारा जणावे छे के : _ "अमदावादनो बादशाही समयनो गीरो दस्तावेज जोयो. हालमा हुं गुजरातनो फारसीमां लखायेलो ते समयनो इतिहास 'मिराते अहमदी' नामनो वाचुं छु. तेनुं गुजरातीमां भाषांतर करवू शरू कयुं छे. ए लेखमां ते समयना अमदावादना जे-जे अमलदारोनां नाम आप्यां छे ते एकेएकनुं नाम लगभग ए ज orderमां ए तवारीखना पुस्तकमां मळी आवे छे. एटले एना खरापणा विशे शंका होय ज नहीं. आपनार-लेनार मारी न्यातना एटले मोढ गौभूजा वणिक छे. एमा केटलोक भाग असल जोतां वधारे समजाय. दाखला तरीके, (१) “चोतरानो अमल दस्तुर मंडपीका माफ छे.' (२) “सांतीदास (साहाना परिवार)ना फरतखांना" ए बराबर समजातुं नथी. एमां जे बाकरखांनी सिक्का लख्या छे तेनो पण इतिहास छे. ए सिक्का अमदावादनी टंकशाळमां ओछा वजनना पडता होवाथी चूवोतरो काळ पड्या बाद तेने सुधारी पूरा वजनना बनाववामां आवेला. 'अमदावाद मध्ये सो बे साहेब' छे त्यां खरी रीते ‘सोबे साहेब' (सूबा साहेब) जोईए. 'हीसादार सफादार' छे त्यां 'सफीलदार' (One who claims a right of preemption) जोईए. मतलब के आजथी २१५ वरस पर पण गुजरातमा सफीलदारनो हक recognise थयेलो हतो. मुसलमान अमलदारोने पण हिंदु बनावी तेना नाम आगल श्री ५ लखवानुं मान तेमने आपवामां आव्यु. 'अजर' छे ते फारसी शब्द 'उझर' (an excuse) छे. हवालदार कांहांनूंगो, एटले हवालदार काननू गो (कानूगो). ढीकवा चकलो : आजे त्यां ढीकवानी पोलीसगेट छे. वकील एटले agent, represntative. सुरत्राण= सुलतान." (anनन् गो (कानगो कील एटले agen Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह ___मंडपीका एटले तो मांडवी के ज्यां दाण लेवामां आवे छे ते, पण 'चोतरानो माफ छे' ते अमने समजातुं नथी. फरतखांनानो अर्थ फरवार्नु स्थान (place for strolling के privy हरवाफरवान के झाडे फरवानुं स्थान) हशे. [फा. फर्त एटले अधिकता, बाहुल्य एवो अर्थ छे. तेथी फरतखानुं एटले कोठार एवो अर्थ होई शके. – संपा.] [जैनयुग, मागशर-पोष तथा महा-चैत्र १९८६, पृ.१८४-८७ तथा २५५] Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२९ - महमद पातशाहनुं वर्णन (आ वर्णनमां ज्ञाति वगेरेना जुदाजुदा प्रकार ऐतिहासिक दृष्टिए ध्यान खेंचे छे.) गजैस्तुरंगैश्च पदातिवृदैः षट्-त्रिंशता राजकुलैश्च सेव्यः, पाता प्रजानां विजयी विभाति भूषः सुरत्राण-महम्मदाह्वः. १ आसमुद्रांत पृथ्वी तणु स्वामी, मर्यादा मयरहर, शरणांगत-वज्रपंजर, परनारीसहोदर, रद रावण, सत्यप्रतिज्ञा हरिश्चंद्र, न्याय श्री राम, दानी श्री विक्रमादित्य, कलिकाल कर्ण, धनुर्वेदि द्रोणाचार्य, प्रकट प्रताप, श्री महम्मद पातशाह. भद्रजाती, मृगजाती, मिश्र जाती, मदकल गजेंद्रघटा, अनई जात्य घोडा, हरीडा, नीलडा, गोरडा, कालूआ, कीसोडा, रातडा, सेराहा, खुरासाणी, सींधवा, पारिसा, कंबोजा, काजूजा, काछेला, तेजी तुखार एवमादि तुरंगम. अनइ खान, खोजा, मीर, मलिक, मला, मलालिम, खतीब, सिदकादी, हाबसी, बलोखी, बंगाली, दक्षिणी, तिलंगा, काह्नडा, अनइ, प्रधान पोतदार, परिवरिउ. अनइ सूर्यवंश, सोमवंश, यादव, कदंब, इक्ष्वाकु, चहुआण, सोलंकी, मोरिअ, सेलार, छिंदक[बिंदक], चाउडा, पडिहार, लुब्धकार, राठउड, शाक, करकठ, गुहिल, धान्यपाल, राजपाल, कालुबक, दिल्ल, डाभी, वागडी, धर्कट, वंश राजकुली. अनइ अनेराई वाघेला, झाला, देवडा, बोडा, जाडे, चाचूडा, समा, सोढारा, राठी, काठी जेहनी सदा नीपजावई सेवा, अनइ जे श्री महम्मद पातसाह तणी छत्रछायाई, विवेकनारायण गूजरदेशाभरणि श्री अणहिलवाडइ पाटणि, अहम्मदावादि नगरि, अनइ खंभाइति श्री धर्म तणइ आगरि, अनेरइ गामि नगरि पाटणिए चउरासी ज्ञाति महाजन तणी सांभलि प्रतिपन्नपाली श्री श्रीमाली, प्रकट प्रताप पोरूआड, अरडकमल्ल ओसवाल, भला दीसई डीसावाल, डीडू, हरसुरा, वघेरवाला, भाभूखंडा, अडमेडत्तवाल, दाहिण सूराणा, खंडेरवाल, कथरूटिआ, कोरंटावाल, जोधसोन, जाइल्लवाल, नागर, नाणावाल, खडायता, पल्लीवाल, जालहरा, वायडा, चित्रवाल, छांचा, कपोल, पुष्करवाल, जंबूसरा, नागद्रहा, सुहडवाल, मुढेरा, करहिआ, उग्रवाल, बांभण, अच्छित्तवाल. श्रीगुड, गूजर, श्रीमाल, प्रोढ, अडालिजा, मांडलिआ, गांभूआ, मोढ, लाडूआ, श्रीमालीया, लाड, जागड, सोरठिआ, पोरूआड, नयसरूस्तकी, नरसिंघउरा, हालर, पंचम, काथउरा, वाल्मीक, कंबो, तिसुरा, तेलुउटा, अष्टवग्री, बघप्पुरा, सिरिखंडेरा, मेवाडा, लोडिआडा, काटजिणडा, जेहराणा, सोहरिआ, धाकडा, मुहवरया, भडिआ, मूंगडिआ, हुंबड, नीमा, मजहडा, ब्राह्मणा, वागडू, चीत्रउडा, वीघू, माघसुनाउरा, पद्मावती, काकला, आणंदुरा, मंडोर, साचुरा, गोलावाल, राजउरा, लाडीसखा, आउसखा, चउसखा, एवमादि साढी बार Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह ४३० ज्ञाति शाखा प्रशाखा. अनइ वली जेह श्री महम्मद पातसाह तणी सोम्य द्रष्टि छइ दर्शन, आपणा आपणा धर्मशास्त्र वांचइ, श्री देवगुरूतत्त्व राखई, विद्याबलि माचई. किसिओ कहीई ते छई दर्शन, सांभलि, जिम सरोवर माहि मानससर, जिम दातार मांहि जलधर, जिम समुद्र मांहि स्वयंभूरमण, जिम धनमाहि वैश्रमण, जिम तेजवंतमाहि सूर, जिम वाजित्र माहि तूर, जिम सर्व दर्शन माहि धर्म विद्या महिमा करी प्रधान श्री जैन दर्शन जाणिवं, जिहां निरतीचार - चारित्रपात्र, मलमलिन गात्र, तपोधन तपोधन, श्री वयरस्वामितणी शाखाई छई, जीवनिकाय राखई, दयामूल धर्म भाखरं, सर्व आरंभ पाखई मोक्षमार्ग दाखइं, जिहां श्रावक श्राविका श्री वीतरागदेव पूजनं, तिहां हवडा, गंगाजलनिर्मल, ज्ञानक्रियानिधान सर्वगच्छप्रधान, अतुच्छ श्री तपागच्छ विसेषिईं दीपइ. अनेराइ चहदसिआ, पूनिमिआ, वडगच्छ, खरतर, मलधार, आंचलिआ, आगमिआ, आगुरिआ, पीपलीआ, मडाडा, देहराती, ब्राह्मणा, विद्याधर, थिराद्रा, नायला, नाणावाल, चित्रावाल, कोरंटावाल, ओसवाल, एवमादिक घणा गच्छ मिथ्यात्व उथापइं, श्री जिनधर्म थापइ. तथा बीजई दर्शनि, नैआयक, कपाली, घंटाला, पाहू, केदारपुत्र, च्यापरिअ, गडवी, पती आणा एवमादि. त्रीजइ दर्शनि, सांख्य, भरडा, भगवंत, त्रिदंडिआ, मूनी, कवि, कूडा, एवमादि भेद. चउथइ दर्शनि बौद्ध, सातघडिआ, दगडा, डांगुरा, भांड, पावया, गरोडा, वासबेडिआ एवमादि भेद, पांचमई दर्शनि वैशेषिक, ब्राह्मण, आवस्तिआ, आग्निहोत्रआ, दीक्षित, जानी, दुवे, त्रिवाडी, व्यास, जोसी, पंडित, बडूआ एवमादि भेद. छठई दर्शनि नास्तिक, योगी, हरमेखलिआ, इंद्रजालिआ, नागमतिआ, तोतलमतिआ, धनंतरिआ, नोरसिआ धातुर्वादिआ एवमादि भेदप्रभेद बहुल छइ दर्शन कहिईं. अनइ वली, श्री महम्मद पातसाह तणइ राजि, चारि वर्ण, नव नारू, पाच कारू ए अढार प्रकृति सदा सुखित, मदमुदित वसई. तिसिउ राजाधिराज, सर्ववयरी जीपतु, सूर्यनी परिइं तेजिइं दीपतु, तुरष्ककुलमंडन, सोमतणी परि सोम्यदर्शन, प्रजापीहर, सेवक-सदाफल, सुरत्राण, श्री महम्मद पातसाह, तणु पुन्न तूर वीराधिवीर, श्री महम्मद पातसाह वर्णवीतु शोभइ. ( एक जूनी प्रत ) [जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स हेरल्ड, जान्युआरी १९१६, पृ.२६] Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुंदरकृत सत्याशिया दुकाळजें वर्णन. (सं.१६८७मां गुजरातमां पडेला महादुकाळनु आ वर्णन छे. आ वर्णन सं.१६८८मुं वर्ष सुखकारीभर्यु नीवड्या पछी कविए कर्यु जणाय छे. आ उपरांत कविए पोतानी एक कृतिमां आ दुकाळनुं वर्णन गुजरातीमां कर्यु छे ते माटे जुओ आ कवि परनो मारो निबंध (आनंदकाव्य महौदधि मौ.मुं). कविए संस्कृतमां पण आ दुकाळजें वर्णन कर्यु छे. (जुओ मारो जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास) ) [श्री देशाईए सौप्रथम एक पानानी एक प्रत जेनुं बीजं पान मळ्युं नहोतुं तेने आधारे १६ कवित छापेलां. (क प्रत) पछी अगरचंद नाहटा पासेथी मळेली २४ कवितवाळी बे पानांनी प्रतने आधारे केटलीक पाठशुद्धि नोंधी अने वधारानां कवित - अहींना क्रमांक ४,८,१०थी १२, १६थी १८, २०, २०थी २५ - आप्यां. (ख प्रत) अगरचंद नाहटा संपादित 'समयसुंदर-कृति-कुसमांजली'मा ३६ कवितनी पूरी कृति छपाई छे (ग प्रत) अने पाठांतरो पण नोंधवामां आव्यां छे. (घ) अहींनां छेल्लां आठ कवित एमाथी छे. उपर निर्दिष्ट करेला संकेतोथी अहीं पाठांतर पण दर्शाववामां आव्यां छे. कृति अन्यत्र अखंड छपाई होवा छतां देशाईनुं संपादन एना केटलाक पाठने कारणे साचवी लेवा जेवू गण्डे छे. समयसुंदरना परिचय माटे जुओ 'जिनचंद्रसूरि संबंधी त्रण गीतो.' कृति 'जैन गुर्जर कविओ' तथा 'गुजराती साहित्यकोश खंड १'मां नोंधायेली छे. कृति सं.१६८८मां रचायेली छे ते अंतभागमा स्पष्ट छे. एटले 'जैन गूर्जर कविओ' मा र.सं.१६८७ दर्शाववामां आवी छे ते भूल छे. - संपा.] रूडी' श्री गुजराति देश, सगलामां दाखी, धर्म कर्म सुविवेकर, मुखइ लोक मीठं भाखी, सुखी रहि शरीर, शाक तो सखरा भावई, उंचा करइ आवास, लाख कोडि द्रव्य लगावि, गेहीनी-देह गहणे भरइ, होसि लोक तणो हीओ, समयसुंदर कहि सत्यासीओ, असइ पड्यो अभागीओ. १ जोयो टीपणो जाण, साठ संवच्छरी साथि, गुराचार शनिचार, हुता ते लीधा हाथि, कपूरचक्र पणि काढि, जाण जोतकीए' जोओ, आराधक थया अंध, खिजमति फल सघलो खोयो, १. ग. गरूइ, २. ग. परधान ३. ग. लोक मुख मीठु भाखी, ४.ग. इसडह, ५. ख.ग. ज्योतिषीए. Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह निपट किणइ जाण्यो नही, खरो शास्त्र खोटो कीओ, समयसुंदर कहि सत्यासीओ, पड्यो अजाण्यो पापीओ. २ महिअल न हुआ मेह, हुआ तिहां थोडा हुआ, खड्या पड्या रह्या खेत, कलंबी जोतरीया कुआ, कदाचित् निपनो केथ, कोली ते लीधो कापी, घटा करी घनघोर, पणि वूठो नही पापी, खलक लोक सहु खलभल्या, जीवई किम जल बाहिरा, समयसुंदर कहि सत्यासीओ, ते करतूत सहु ताहरा. ३ गद्धह गाइ नै भैसि, ऊंट छालीनइ एवड, अम्हनई ए आधार, तिया धणियां नै त्रेवड, चरिवा मूंक्या च्यारि निजीक निज नगरनी सीमई, खड त्रिणा पणि खाई, कदाचित जीवै कीमइ, तेहवइ धाडि कोली तणी, सगला ले गया सामठा, समयसुंदर कहै सत्यासीया, तूं तो पड्यो जठातठा. ४ लागी लुटालूट, भयै करी मारग भागा, लतो न मूंकि लंठ, नारि नरनि करइं नागा, बईरनि" झालिं बंदि, माटीनि मुह कडा मारई, बंदिखानि बंध', उभी थइ सउ पर झारई, दुहिलो दंड माथइं करी, भीख मगाविं भीलडा, समयसुंदर कहि सत्यासीओ, थारो कालो मुह पग नीलडा. ५ भला हुता भूपाल, पिता जिम पृथवि पालिं, नगरलोक नरनारि, नेहस्युं नजर निहालिं, हाकमनि । हुओ लोभ, धान लेइ पोतिं धारइं, महा मोगो करई मोल, देखी वेचइं दरबारिं, मसकीन लोक पामई नही, लेता धन लागई धका, समयसुंदर कहि सत्यासीओ, तई कुमति दीधी तका. ६ सुंठि रूपइयई सेर, मूंग अढीसेर माठा, साकर घी त्रण्य सेर, मँडो गोल माहि भाठा; ६. घ. अचिंत्यो, ७. ग. बइयर, ८. ख. बंदि., ९. ख. उन्हाथी सउ पर. ग. ऊन्हीं घिसी उपरि. Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३३ समयसुंदरकृत सत्याशिया दुकानुं वर्णन चोखा गोहूं च्यारि सेर, तूंयर पणि न मलि तेही, बहुला बाजरी पाड, अधिक उछाहुईं एही, सालि दालि घृत घोल-स्युं, जे नर जिमता सामटउ, समयसुंदर कहि सत्यासीओ, तई खवराव्यो बावटो. ७ अध-पा न लहै अन्न, भला नर थया भिखारी, मूंकी दीधउ मान, पेट पिण दूभर भारी, पमाडीयाना पान, केई बगरौ नै । कांटी, खावै खेजड छोड, सालि-तुस सबलां वांटी, अन्नकण चुणे के अइठिमें, पीयै अइठि पुसली भरी, समयसुंदर कहै सत्यासीया, एह अवस्था तें करी. ८ माटी मुंकी बयरि, मूक्या बइरे पणि माटी, बेटे मुक्या बाप, चतुर जे देता चाटी, भाइ मूकि भइण, भयण पणि मुक्या भाइ, अधिको वाल्हो अन्न, गइ सहु कुटुंब-सगाइ, घरबार मूकी माणस घणा, परदेशईं गया पाधरा, समयसुंदर कहि सत्यासीओ, तइ नव राख्या आधरा. ९ आपणा वाल्हा आंत्र, पड्या जे आपणां पेटां, नाण्यो नेह लिगार, बापइ पिण वेच्या बेटा, लाधउ जतिये लाग, मूंडिनइ माहे लीधा, हुती जेतरी हुंस, तीए तितरा हिज कीधा, कूक्या" घणुं श्रावक किता, तदि दीख्या-लाभ देखाडिया, समयसुंदर कहै सत्यासीया, तें. कुटुंब-विछोहा पाडिया. १० खातां खूटा गरथ, पछै घर वेच्या परगट, वलि ग्रहणा दीया वेच, किमही रहई घरनी कुलवट, पणि पसर्यो दुर्भक्ष, कहउ केही पर कीजइ, आपै न को उधारि, सत्त नही सगइ-सणेजइ, लाजते भीख लीधी नही, मुंढई पग सूजी मूया, समयसुंदर कहै सत्यासीया, तेह चाल ताहरा हूया. ११ १०. ग. भरइ न, ११. ख. चूक्या, Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह तइं हींदू कीया तुरक, विप्र तो मूल विटाल्या, वणिके गइ विगत्ति, रांक करि लंगरि राल्या, दरसणी दुखिया किद्ध, जती योगी सन्यासी, जटाधार जलधार, प्रगट जे पवन अभ्यासी, अन्न मात्रइ ए अपामते, भागा२ सूंस भूखालू ए समयसुंदर कहै सत्यासिया, ते तुझ पाप त्रिकालूं ए. १२ घरे तेडि घणी वार, भगवनना पात्रा भरता, भागा ते सहु भाव, निपट विहरण थया निरता, जिमतां जुडे कमाड, कहै सवार छि केइ, द्यइ फेरा दस पांच, यती नेटि जाइ लेइ. आपइं दुखइ अणछूटता, ते दूषण सहु तुझ तणा, समयसुंदर कहि सत्यासीओ, ए विहरणा नही विगोवणा.१३ १३ पडिकमणो पोशाल, करण को श्रावक नाविं, देहरां सघलां दीठ, गीत गांधर्व न गाविं, शिष्य भणइ नही शास्त्र, मुख भूखइ मचकोडिं, गुरू-वांदण गइ रीति, छती प्रीति माणस छोडिं. वखाण खाण" माठा पड्या, गछ चोरासी एह गति, समयसुंदर कहि सत्यासीओ, कां दीधि तिं ए कुमति. १४ दूखीया थया दरसणी, क्षुधा आघी न खमायइं, श्रावक न करईं सार, थिर धीरज किम थाए, चेले कीधी चाल, पूज्य परिग्रह परहो छांडउ, पुस्तक पाना वेचिं जिम तिम अह्मनिं जीवाडउ,१६ वस्त्र पात्र पुस्तक७ वेचिं करि, केतो काल काटीयओ,१८ समयसुंदर कहि सत्यासीओ, तीए तूनइ निरघाटीओ. १५ पाटण अहमदावाद, पूरो९ सूरति खंभाइत, लायक लखपति लोक, वणिक पिण हुंता विलाईत, १२. ग.आगां, १३. ग. विगुचणउ. १४. ख. माण. १५. ग. आधी. १६. ख. उद्यत करउ विहार, मांड कइ बीजी मांडउ. १७. ग. 'पुस्तक' नथी. १८. केतौक तो काल काढीयउ. १९ ग. खरो. Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुंदरकृत सत्याशिया दुकाळनु वर्णन ४३५ जगडूसाहनी जोडि न०, उठ्यो को नाम उगारइ, सबलो सत्कार, मांडि महियल साधारई, केतेक दिवसि दीधउं किए, पणि थिर थोभ न को थयो, समयसुंदर कहे सत्यासिया, तेतइ तूं व्यापी गयो. १६ मृया घणा मनुष्य, रांक गलिये रडवडीया, सोजो वल्यउ शरीर, पछइ पाडा' मांहि पडीया, कालइ२२ कवण बलाइ, कुण उपाडइ किहां काठी, ताणी नांख्या तेह, मांड थई सगली माठी, दुरगंधि दिसोदिसि ऊछली, मडा पड्या दीसइ मुया, समयसुंदर कहे सत्यासिया, किणि घरि न पड्या कूकुया. १७ श्री ललितप्रभुसूरि, पाटण पुनमियो सदगुरू, प्रभु लहुडी पोसाल, पूज्य पीपलिया बे खरतर, गुजराती गुरू बेउ, वडउ जसवंत नइ केसव, शालिवाडीयो सूरि, कहुं कितक पुरउ तेहवई,२३ सिरदार घणेरा संहर्या, गीतारथ गणती नही, समयसुंदर कहै सत्यासीया, तूं हतियारो साचउ, सही. १८ पछि आयो मो पासि, तुं आवतो मइ दीठो, दुरबल कीधी देह, म करि कहिउ भोजन मीठो, दूध दही घृत घोल, निपट जीमिवा न दीधा, शरीर गमाडी शक्ति, केई लंघण पणि कीधा. धरमध्यान अधिका. धर्या, गुरू दत्त गुणणो पिण गुण्यो, समयसुंदर कहि सत्यासीओ, तुंनि हाक मारिनि मिं हण्यो. १९ पाटण थकी पांगुरी, इहां अहम्मदावादई आयो, देखी माहरी देह, मच्च बल गंध२४ गमायो, गरढो गीतारथ, गच्छ चउरासी चावो, श्रावक न करी सार, पिण रहिस्यइ पछातवउ, श्रावकदोष न को सही, म-ण (मत) जाणउं वांक माहरो, समयसुंदर कहै सत्यासीआ, ते दूषण सहू ताहरो. २० २० ग. जगडु भीमो शाह. २१. ग. पाज. २२. ख. बालक. २३. ग. हि सब. २४. ग. माच्छ गलबंध. Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह साबासि शांतिदास, परगल आपणा गुरू पोष्या, पात्रां भरि भरपूर, साधनि घणुं संतोष्या, उसापाणि आणि, वस्त्र पणि भला विहराव्या, सखर कीया लघु शिष्य, गच्छ पणि गरूअडि पाया, सागर जिके साहमी कीया,२५ सहु जिहनिं२६ संतोषीया, समयसुंदर कहि सत्यासीओ, तइं सागरांनिं न संतापिआ. २१ कुयरजी करमसी रतन, वछराज उदो विछियायत, जीवो सुखीयो जाण, वली वीरजी विख्याइत, मनजी केसो मेलि, साह सूरजी सवायउ, पंचपरबी कीयउ पुन्य, मास च्यार पांच चलावउ, जिनसागर समवाय जस, हाथी साह उद्यम हूयो, समयसुंदर कहै सत्यासीया, तां सीम साहमी न को हूयो. २२ नागोरी नाम जाद साह लटूको सूणीयई, वस्यउ ते अहम्मदावादि, भलउ प्रतापसी भणियई, वडउ पुत्र वर्द्धमान, भलउ तिलोकसी भाइ, कीजइ . पुण्य क्रतूत, इणि घर एह वडाइ, सांभले वात सत्यासिया तूं, म करे केहनइ आकुला, प्रतापसी साहरी प्रोलिमई, दीजै रोटी बाकुला. २३ पाटण मांहि प्रसिद्ध, मोटो सामलदास मारू, जयतारणीयो जाण, वित्त तिण वावर्यो वारू, तपा जतीनइ तेडि, अन्न बे टंक विहराव्यो, सउ-सवासउ साधु, सहूको साता सुख पाव्यो, दोहिला- दुखिया दूबलां, सत्कार दीयो सदा, समयसुंदर कहै सत्यासीया, ताहरउ बल न चाल्यउ तदा. २४ श्रीमाली श्रावक, गच्छ कडुवामती गरूयो, पूजा करें प्रधान, चाढइ चांपो नइ मरूयो, दान-बुद्धि दातार, पड्यउ ते दुरभिक्ष पेखी, खोला धान-वखारि, अन्न द्यइ अवसर देखी, २५. ग. हूया. २६. ग. तेहनइ. Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३७ समयसुंदरकृत सत्याशिया दुकाळनु वर्णन दरसणी सहुनइ अन्न द्यइ, थिरादरे थोभी लीया, समयसुंदर कहइ सत्यासीया, तिहां तुझनइ धका दीया. २५ सत्यासीइं संहार, कीयो नरनारि केरो, आणदाण वरतावि, ढुंढ ढंढेरो फेरउ, महावीरथी मांडि, पड्या त्रण्य वेला पापी, बारवरसी दुकाल, लोक लीधा संतापी, पणि एकलि एक तईं ते, कीओ बारवरसी बापडा, समयसुंदर कहि सत्यासीओ, थारि लोकिं न लह्या लाकडा. २६ इसई प्रस्तावि ईंद्रसभा सुधरमा बइठो, दीठो अवधि दूकाल, पापी भरतमि पईठो, गिरूई श्री गुजराति, निपट दुखी करि नांखी, सीदाणा सहु२८ साध, सही हुं न शकुं सांखी, तुरत अठ्यासीउ तेडिनिं, ए हुंकम ईंद्रई कीओ, समयसुंदर कहि अठ्यासीआ, तुं मारि काढि सत्यासीया. २७ ईंद्रनो · लेई आदेश, आयो अठ्यासिउ ईहां, अहम्मदावादि आवि, पूछो कासमपूरो किहां, महि वरसाव्या मेह, धान धरती नीपजायो, आणी नदी अताग,२९ प्रजा लोक धीरज पायो, गुल खांड चावल गोहुँ तणा, पोठ आणि परगट३० कीया, समयसुंदर कहि सत्यासीआ, तुं परहो जा हिव पापीआ. २८ आव्या पोठी ऊंट, धान चूंना गाडा, भऱ्या खंभाइत भार, आंण्या इहां परठी भाडा, सबल थयउ संग्राम, भिडतउ रण माहे. भागउ२१, सत्यासीयउ सत्त छोडि, लालच करि चरणे लागउ, घी तेल मूंग थाइस घणा, द्यै मुझनै एतउ दूयउ, समयसुंदर कहइ सत्यासीया, कहइ पडि रहिस अधमूयउ. २९ अठ्यासीयइ इहां३२ वेढि, सजी सत्यासीयइ सेती, सत्यासीया सुणि वात, कहि हिक [हिय] जाइस केती, २७. ग. वार. २८. घ. घj. २९. ग. अथाग. ३०. घ. परघलि. ३१. घ. ति रिण माहे वलि भागउ. ३२. घ. हिव. Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह इंद्र तणउ ए क्षेत्र, भरत दक्षिण ए भणीयइ, निरपराध नरनारि, हा हा पापी किम हणीय, निंदा करइ गुरुनी निपट, दया दान मुकी दिया, पापीया पाप पच्या पछी, मइ क्रतूत माहरा किया. ३० सत्यासीयउ साहसी, ऊठि वलि सामउ२३ थावइ, पड्यउ न रहइ पापीयउ, धांन मुहगउ करि धावइ, अठ्यासीयउ अन्न आणि, करइ वलि सुंहगा कांई, लागी लत्थापत्थि, किस्युं थास्यइ हो सांइ, अन्नपुण्यतणउ संचउ अधिक, लोक जिके करस्यइ लही, समयसुंदर साचउ कहइ, सुखी तिको थास्यइ सही. ३१ सगलइ हुवउ सुगाल, अन्न, चिहुं दिसिथी आयउ, आपआपणइ व्यापारी, स[हू]को अधिकारइ लायउ, बाजरी चउंला मउठ, के के धान सुंहगा कीधा, सुंहगा-मुंहगा सर्व, लोक ते आणी लीधा, नर-नारी नूर वाध्यउ नगरि, चहल-बलाई चहुटइ थई, समयसुंदर कहइ अठ्यासीया, हिव चितनी चिंता गई. ३२ मरगी नइ मंदवाडि, गया गुजरातथी नीसरि, गयउ सोग संताप, घणो हरख हुयउ घरिघरि, गोरी गावइ गीत, वली विवाह मंडाणा, लाडू खाजा लोक, खायइ थालीभर भांणा, शालि दालि घृत घोल-सुं, भला पेट काठा भर्या, समयसुंदर कहइ अठ्यासीया, साध तउ अजैन सांभर्या. ३३ श्रावक कहइ सुगाल, सहु धान थया सुंहगा, दरसणी कहै दुकाल, अम्हे जाणां छां मुंहगा, आदर-सुं को अन्न, अजी आपै नही अम्हनै, श्रावक पिता समान, तिण कही छइ तुम्हनै, दया मया दिल धर्म धरी, श्रावक सार सहु करइ, समयसुंदर कहै अठ्यासीया, धीरज तउ सहू को घरइ. ३४ ३३. घ. उभउ. ३४. घ. लछापछि. ३५. ख. धान. Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३९ समयसुंदरकृत सत्याशिया दुकाळनुं वर्णन अठ्यासी कहै एम, म करो तुम्ह चिंता, मुनिवर, करौ क्रिया अनुष्ठान, तप जप संजम तत्पर, वांचो सूत्र-सिद्धांत, भलउ धरममारग भाखउ, महावीरनो वेश, रीति रूडी परि राखउ, वखाण खाण थास्यै वली, श्रावक सार सहु करै, समयसुंदर कहै सत्यासीया, धीरज तउ सहु को धरै. ३५ दुरभिक्ष महादुकाल, वरस सत्यासीयउ - बूरो, दीठा घणा दुकाल, पणि एहवउ को न हूवो, सत्यासीया-सरूप, दीठउ मइ तेहवो दाख्यउ, गया मूआ गइंद, रह्यौ भगवंत तौ राख्यउ, रागद्वेष नही को माहरइ, मइ ख्याल-विनोदइ ए कीयउ, समयसुंदर कहइ सहु सुखी, कवि कल्लोल श्राणंद करउ. ३६ [जैन युग, भाद्रपद १९८५थी कार्तिक १९८६, पृ.६८-६९ तथा वैशाख–जेठ १९८६, पृ.३५३-५५] Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० महाजननी ८४ न्यातनां कवित [कर्ता संघतिलकसूरि हशे? के संघतिलकसूरिना कोई शिष्य-अनुयायी? – संपा.] श्री श्रीमाल श्रीमाल बडा औसवाल वदीजै, पोरवाड परसिद्ध डीडूबाल सुजस दखिजै; पोढा पोहकरवाल मनु मेडतवाल मुणिजै, वले हरसोरावाल थिर दीसावाल थुणिजै, पल्लीवाल कहीइं प्रगट भंभूवाल भणेल, खंडोअडवाल इम अखीईं दोहिलवाल दिणेल. १ खंखेरवाल खरवट्ट साहस खरा सूरांणा, गूजरवाल गजमोज के सुहदुवाल कहांणा; अगरवाल उपम जायलवाल . रिद्ध जेहा, नांणावाल सुनिधि धरकटकाल[वाल ?] सुथेहा, चित्रावाल कोरंटवाल चवि सोनीवाल सुचित, सोझितवाल दानी सरस नागरवाल सुनित. २ मोढवाल मतिवंत जालहरवाल सुजाणुं, लाडवाल कालखदेण(?) कपोलवाल सुकिताj; चंडाइत धरती चवित वायडा जांबूसराजदेवा, बाचवाल बलबुधि नाग-हा सुभनेवा, करहीयां भटेरा कहां मेवाडा मोटै मनै, नृसिंघपुरा दीपै निधै कथरोटीआ छाजै कनै. ३ संख्या ४० हमेरवाल कहि हेत सिरखांडा सुविचारी, वायसीया वडविध सस्तकीआ आचारी; कंबोवाल भारी करग झीझटीआ भलवारी, भेमडीआ दाखां भला बांभणीआ रिंधुबारी, श्री गुरू अछितवाल-सुं काटहडा मकवांणरा, निसोरा पोरूआ निपट लाडीरसंखा सांणरा. ४ वधनेरीआ कहि विध राजेश्वरीआ वडराजा, वधेरीआ नेमा वदे हूंबड पदमावतीआ हाजा; Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४१ महाजननी ८४ न्यातनां कवित सोरहवाल जेह राणा धाडकीआ माघवेरा, गोलावाल गणि चीलोरा महूवरीआ महेडेरा, कांकलीआ मिडीया कहां अणदोसांरा नाबरा, भल साचोरा भंगडा जगि मडाहाडा जावरा. ५ ब्रह्मांण सावंगेढा मंडोवरा मछराला, जांगडा भूअडा जोर चउसरवाल चोसाला; दोसरवाल दुबाह अष्टवर्गी अधिकेरा, सोरठा पेईवाडा सुजस न्यात चोरासी नवेरा; श्री संघतिलक उदयो सरिस औसवाल धुर आंणीआ, न...ड माहै नित नवा वडा प्रिथीमें वांणीआ. - इति ८४ न्यात महाजनरा कवित संपूर्ण. . (एक पत्र, मुनि जशविजय संग्रह.) [जैनयुग, वैशाख–जेठ १९८६, पृ.३६८] Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ उदयचंदकृत देशदेशनी नारीओनुं वर्णन (सं.१७१४नी उदयचंदकृत 'माणिककुमर चोपाई'मांथी आ उतारेखें छे. मालवा, गुजरात, लाट-भरूच प्रांत, ईडर, वडनगर, बोकड (मारवाड-गुजरात वच्चेनो ?), सोरठ, कच्छ, सिंध, मारवाड, दक्षिणदेश, मलयागिरि - मलबार, बंगाळ, सिंहलद्वीप - लंका, कामरू - गौड वगेरेनी नारीओनुं वर्णन छे. पछी गुजरात देशनुं ट्रंकुं वर्णन छे.) [कवि अचलगच्छना विजयचंद्रना शिष्य हता. कर्ता तथा आ कृति जैन गूर्जर कविओ, भा.४, पृ.२६५-६६ तथा गुजराती साहित्यकोश, खं.१, पृ.३० पर नोंधायेल छे. - संपा.] देशनी वात कहो वरणी रे, नारी तणां जे करणी; वेस-आचार वखाणो रे, जे जिहांनां जाणउ. ४७ दुहो जाण एक बोल्यो तिस्ये, सांभलि सेठ महंत; मि दीठा देस मोटिका, ते कहुं हुं एकांति. ४८ चालि एक मालवातणी जे नारी रे, रूप कला गुण सारी; निसनेही ते जाति रे, फारफेर नही इणि वाति. ४९ काव्यं रामा मालवदेशजातिचतुरा पुष्पैः सुगंधप्रिया, तन्वी तेजसरोजकोकिलरवा नाशा शुकानुत्तरा । कंबूग्रीववरा च भालतिलका वेणीभुजंगा परा, नित्यं हंति स कामवंतपुरुषं भ्रूकार्मुकैर्दृक्शरैः ॥ ५० चालि गुज्जरडी गुणवंत रे, फलफूलभोग महंत; मनमान्यइ आपे प्रांण रे, धूर ति हीइ वखाण्य. ५१ काव्यं कुवलयदलवर्णा चारुविस्तीर्णकर्णा, चकितहरितनेत्रा पुष्पराजीववक्त्रा । लघुजीवनरक्ता ....... सुललितगतिरेषा गूर्जरी चारुवेषा ॥ ५२ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४३ उदयचंदकृत देशदेशनी नारीओनुं वर्णन चालि लखलखती लाड देसी रे, मिथ्यातणि अभिनिवेसी; भलुं देखी मुह मचकोडे रे, जू मारे ने लीख फोडइ. ५३ दुहो लाड देसी लबाड, मुहछुटी माटुं लवे; जमतां जडे कमाड, लाड तणी रमणी तिका, ५४ चालि ईडर देस नई दांते रे, खल खंचे न को खांते; ‘राज्य' ‘राज्य' कही मुखि बोले रे, रातिदिवस डींग डफोले. ५५ दुहो मोटी नारि नर नान्हडा, जुगती न को जोड; वडनगरि नारी नागरी, प्रीउ न पुहचे कोड. ५६ चालि 'आभस्यो' 'आभस्यो' ऊचरती रे, दिनराति रहे फिरती; ताति पीआरी मीठी रे, निलज नारि ए मिं दीठी. ५७ दुहो बोकड देस बंभण घणा, न लहे पीआरी पीड; रामा मस्त ने नर रांकडा, लीध न मुके चीड. ५८ चालि प्रीती भली परिपाले रे, चतुराईए गुण अजूआले; प्रिउ-स्युं आपे प्रांण रे, सोरठडी सुंदरि सुजाण. ५९ दुहो सोरठडी सिरदारि, दूहे-स्युं दिल भेलवे; लोचन-लटका बारि, बीजी को आवे नही. ६० चालि कछ देसी ज्याडेजी नारि रे, भोग-त्रिपति नहीं लगार; प्रीउ वादि बोले रे, विण अवसर अवगुण खोल्लइ. ६१ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह दुहो खोले झोले मोकली, गंभीर नही लवलेस; सकार न को सुंदरी, कुछित कासी वेस. ६२ _ चालि सिद्धी सिंधुनी खोल्ली रे, सुभ-असुभ न वेइ भोली; बोले बंध नही बीजो रे, साची वाति मत खीजो. ६३ दहो खीजो मत खळं बोलतां, सिंधू न को सकार; पुन्य पाप प्रीछे नही, वत्रि न को विकार. ६४ चालि नवकोट मारू देसि रे, सुवनीत सीलि सुवसेसि; सुध शील सुंदर आचार रे, अयुक्त न बोलइ किवारि. ६५ दुहो वारिं वदने नारी तणे, वास कीउ विनाणि; प्रथक् प्रथक् पुहचे नही, तिणि नीर न को निह्वाणि. ६६ चालि रंगे वेस धरे विशेषे रे, मुख चरण नर न देखे; दाता भुक्ताने उपगारी रे, एहवी मरूदेसनी नारी. ६७ दुहो गाहा गूढा गीत रस, सुघड ने सुकलीण; गुण राचे विरचे नही, वयण न भाखे दीण. ६८ चालि दक्षणी दाखिणविहुणी रे, सघळी दीसे उंणी; हलद्रने रंगे राचे रे, मान मूके द्राबीइ काचे. ६९ दुहो काचह काबली करि धरे, सेला पहिरणि चीर; पांनफूले पूरी रहे, सुरहां तैल सरीरि. ७०. Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४५ उदयचंदकृत देशदेशनी नारीओनुं वर्णन चालि कर चरण ऊघाडां सीस रे, गडबड गाइ निशदीस; घी चोपडे ने तेल खाइ रे, तिहां कहो कुण जाई ? ७१ दुहो जाति न को प्रगट तिहां, कांदी सहुई खाइ; भाजी भाखरी भोजने, पत्राले प्रीसाइ. ७२ चालि विषयवांछा ना निवारे रे, सुंदर देह समारे; पंच भरतारी पनोती रे, मलयागिरि मान-वदीती. ७३ श्लोकः बंगदेशे हि प्रमदा, चित्रिणी देहकोमला, मिष्टान्नभोजनी ज्ञाता, मृदुवाणी प्रीभाषिणी. ७४ चालि मदनपूतली सम दीसे रे, पदमिणि देखी मन हीसे; भमरा केडि न मूंके रे, मुनिनां मन न चूके. ७५ श्लोकः जले शुक्ति: स्थले हीरा, वने मत्ता च दंतिनः, गृहे पद्मिणी नारी, धन्यदेशो हि सिंहल:. ७६ .. चालि कामरू देसि कुहाडि रे, प्रीउने बांधे झाडि; नर ना लेखे आणइ रे, बईल करी नाथि तांणइ. ७७ श्लोक: गोडदेशेषु या रामा, चंचला हंसगामिनी; गीतनादरता नित्यं, बिनयावनतकंधरा. ७८ चालि भोट मोट करणाटक कलीआ रे, अंग तिलंग अटकलीआ; भली भली धरती दीठी रे, सवारथि सहूइ मीठी. ७९ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह (८०थी ८४ लखेल नथी.) देस सकलनो सिणगार रे, गुज्जर मंडल मनोहार; आंबा राइण रूख जिहां झाझा रे, भोगी भमर नर बसे ताजा. ८५ सहु सुहातुं बोले रे, कदही अवगुण न खोले; कदाचि कुवचन बोलाई रे, फिरि पाछी पस्ताइ ८६ आप का ना विणसाडइ रे, ते नयणे सरग देखाड ; विधि विवहार (न) चूकई रे, हठि भराणी ऊडाडइ फूकि. ८७ वरणवतां लागइ वार रे, ग्रंथ तणउ वाधइ विस्तार; सेठजी, जे चित जाणउ रे, ते देसनी बहु घरि आउं८८ [जैनाचार्य श्री आत्मानंदजी जन्मशताब्दी स्मारक ग्रंथ, १९३६, गुजराती विभाग पृ. १९२ - ९६ ] Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४७ ऊना संघ तरफथी विजयसिंहसूरिने विज्ञप्तिपत्र (सं.१७०५. चारे बाजु लाल, वादळी, काळा एम त्रण रंगमां वेलडीओ – भात मूकी पछी लाल पीळा रंगनी लीटी दोरेली छे एवा बे फूट लांबा ने दश ईंच पहोळा कागळमां बाळबोध - देवानागरी लिपिमा सळंग लखाणरूपी आ विज्ञप्तिलेख ऊनाना संध तरफथी पाटण बिराजेला, तपगच्छीय भट्टारक श्री विजयसेनसूरि के जे हीरविजयसूरिना पट्टधर थाय तेमना शिष्य विजयदेवसूरि अने तेमना शिष्य विजयसिंहसूरि (स्व.सं.१७०९) प्रर मोकलेल छे. प्रथम भाग नीकळी गयो छे. तेमां एवी विनंती करी छे के ऊना पधारवू, सोरठमां शत्रुजय गिरिनार अजाहरा पार्श्वनाथनी जात्रा करवा पधार. पर्युषणमा जे-जे बन्यु ते जणाव्युं छे. आ वखते हरखविजय बे ठाणां ऊनामां विराजता हता, संवत्सरीनां पारणां दीवना प्रसिद्ध श्रावक कीका हीरजीए कराव्यां ने उपर श्रीफळनी लहाणी करी हती. ऊना पासे अजाहरा पार्श्वनाथ छे अने आ ऊनामां हीरविजयसूरिए सं.१६५२मां काळ कर्यो ने त्यां ते वखते बनावेली थूभ ते वखते हती ने हजु हयात छे.) ___...स अक्षर ब्राह्मी लिपिनइ विषइ, विराजमान सततालीस सहश्र जोयण झाझेरा थकी सूर्य माहि: लिइ आवई तेहना प्रकाशक, अडतालीस सहश्र वर पाटणना धणी चक्रवत्तिना वंदनीक छउ, उगणपंचास दिहाडा सत्त सत्तीया भिक्षुपडिमाना उपदेशक, नव ब्रह्मचर्यना एकावन उद्देशण कालना प्रकाशक इत्यादि बहुभिज्ञायक श्री पूज्यजी जायसंपन्ने कुलसंपन्ने बलसंपन्ने रूपसंपन्ने विनयसंपन्ने नाणसंपन्ने दंसणसंपन्ने चारितसंपन्ने उयंसी तेयंसी वच्चंसी जस्संसी जीयकोहे जीयमाणे जीयमाए जीयलोहे जीयपरीसहे जीयईंदीय जीवियासा मरणभय विप्पुमुक्के तवप्पहाणे गुणप्पहाणे एवं चरणकरण निग्गह निच्छह खंत्तीय अज्जव मद्दव गुत्ती मुत्ती विद्यामंत बंभचेर नयनियम सच्च सोय नाण दंसण चरित्ते उराले घोर तवस्सी घोर बंभचेरवासी अच्छढ सरीरे इत्यादि गुणे करी अलंकृत.] असितगिरि-समस्या-कज्जलं सिंधुपात्रे, सुरतरूवरशाखालेखिनी पत्रमुर्ती, लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकाले, तदपि तव गुणानामीश पारं न याति. १ दूहा गयणंगण कागल करूं, लेखण करूं सब वणराय, महिय करूं मसिभाजणूं, तुहि गुण लख्या न जाय. २ अम्ह हियडुं दाडिमकुली भरिउं तुम्ह गुणेण, । अवगुण एक न संभरइ, वीसारीज्जइ जेण. ३ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह हियडा ते किम वीसरइ, जे सुहुगुरू सुविचारि, दिन दिन प्रति ते सांभरइ, जिम कोइल सहकार. ४ चित्तं तुह पासठ्ठी, तुह गुण सुणि एण श्रवण संतोसो, जीहा नामग्गहणे, एगा दिठ्ठी तड्डफडए. ५ यथा स्मरंति गो वत्सं, चक्रवाकी दिवाकरः, सती समरंति भरिं, तथाहं तव दर्शनं. ६ नित्यं ब्रह्म यथा स्मरंति मुनयो हंसो यथा मानसं, सारंगा स्फुटशल्लकीवनयुतां ध्यायति रेवां गजा, युष्मद् दर्शनलालसा प्रतिदिनं युष्मन्स्मरामो वयं, धन्य: कोऽपि स वासरोऽत्र भविता यत्रावयो संगम:. ७ सो देशो जत्थ तुमं, ते दीहा जेहि दीससे निच्चं, नइणां ते सुक्यत्थो, जे तुम्ह मुहिए लोयंति. ८ यथा केकी स्मरंति मेहा, चंद्र खीरपयोनिधे, मानसं राजहंसाश्च तथाहं तव दर्शन. ९ वीसार्यो न वीसरइ, समर्यो चित्त न समाहि, ते साजन किम विसरइ, जे विणु घडीय न जाइ. १० भूमौ कलापी गगने च मेघो लक्ष्यांतरे भानु: जलेषु पञ, धौलक्ष्यसोमे कमलं प्रदंते यो यस्य चित्ते न कदापि दूरे. ११ अहो ते निज्जिओ कोहो, अहो माणो पराजिओ, अहो ते निक्किया माया, अहो लोहो वसी कओ. १२ त्वं नाम नाममंत्रोऽयं तस्य जगति विश्रुतः क्रोधादिविषसंकीर्णं किं स्यादेतज्जगत्रयं. १३ इत्यादि सर्बोपमायोग्य आचार्यपुरंदर आचार्य श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री (एम २१ वार श्री) विजयसिंह सूरीश्वरणां ऊनानगरात् सदा आदेशकारी चरणसेवक दो. कावा कुंयरजी दो. तेजपाल हरजी दो० अमीपाल देवचंद दो. वीर नान व. रूपा हीरजी दो. रामजी देवजी दो. गोविंद वीरपाल दो. माधव पदमसी दो. मंगलजी धरमसी दो. कमलसी भूधर दो. धनजी केशव व. श्रीपालजी पूरजी व. कान्हजी भाया व. सोमजी भाया दो. सिवचंद उदयकरण दो. विजयकरण सिवसी दो. मककू धनजी दो. राम कुंयरजी दो. श्रीमल्ल सिवजी दो. प्रेमा देवजी दो. केसव हरजी दो० विश्राम जायासाळ विमल रायचंद सं. केशवजी दो० वछराज रामजीकेन Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊना संघ तरफथी विजयसिंहसूरिने विज्ञप्तिपत्र ४४९ प्रमुख समस्त श्री संघनी त्रिकाल वंदना अविधारवी. यत: श्री पूज्यजीना चरणकमलप्रसादथी सुखसाता-स्युं धरम ध्यान निरवहई छइ. श्री पूज्यजीना शरीरना सुखसमाधना लेखप्रसाद करिवा जिम संघनइ संतोष ऊपजइ अपरं श्री पर्जूषणा पर्व महा महोछव सेती आराध्या छइ तथा सतरभेद पूजा ७ थइ छइ. पूजा संक्षेपइ ५ देहरे ५०, ५० एक, एक समस्त देहरई थइनइ बसई अनइ ५० थइ छइ अपरं चेत्य परिवाड सरव देहरईं थूभईं महा महोछव पूरवक हुया छइ तथा पाखीना पारणा समस्त चाले छइ. तथा संवत्सरीना पारणा सा. कीका हीरजी दीवना श्रावकई कराव्या छई तथा पारणा करावी ऊपरि श्रीफल आप्या छइ, शतशत नइ माजनइ श्रावक श्राविकानई समस्तनइ आप्या छइ. तथा श्री (पू)ज्यजीने आदेसई गणेश श्री हरखविजय ठाणुं २ साथे पधार्या तिणईं समस्त संघने संतोष ऊपना तथा गणेस घणुं वइरागी संवेगी, जे जेहवा श्री पूज्यजीना शिष्य जोइयंई तेहवा छइ ते अविधारवा. तथा समस्त ऊनाना संघ श्री अज्झाहरा पार्श्वनाथनी यात्रा करइ छइ १० दशमइ तिहां श्री पूज्यजीनइ संभारइ छइ. तथा दिनप्रतिइ परम भट्टारक श्री श्री श्री हीरविजयसूरिनुं थुभ वांदइ छइ तिहां श्री पूज्यजीनइ संभारइ छई ते अविधारवं. श्री पूज्यजीना चरणकमल भेटवानी उत्कंठा छइ छे ते माटइ श्री पूज्यजीयइ श्री सोरठ देश पाठन करिवा, श्री शेजेजउ श्री गिरिनारि श्री अजाहर पार्श्वनाथ जुहारिवा पधारिवू जिम शोरठ देशना संघनइ परम संतोष ऊपजइ ते अविधारवू. तथा श्री पूज्यजीना समस्त परिवारनइ ऊनाना संघनी त्रिकाल वंदना प्रसाद करवी. संवत् १७०५ वर्षे आसू वदि ७ दिने. [जैनयुग, वैशाख–जेठ १९८६, पृ.४००-०१] Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० बे पत्रो ___(पहेलो पत्र खंभातथी भूपतिविजये वडोदरा विजयलक्ष्मीसूरिने सं.१८२५मां लखेल छे. बीजो ढूंको पत्र विजयलक्ष्मीसूरिए छाणी मुकामे प्रेमविजयने लखेलो छे.) [विजयलक्ष्मीसूरि तपगच्छमां विजयसौभाग्यसूरिने पाटे आवेला. एमनो जीवनकाळ सं.१७९७थी १८५८ छे. एमणे गुजरातीमां स्तवन-पूजादि कृतिओ रचेली छे. संस्कृतमा 'उपदेशप्रासाद' एमनी प्रसिद्ध रचना छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ, भा.६, पृ.१२२-२५ तथा गुजराती साहित्यकोश, खं.१, पृ.४०२ ।। भूपतिविजयनो कोई परिचय प्राप्त नथी. प्रेमविजय ते विजयसौभाग्यना शिष्य अने सं.१८३३मां 'वासुपूज्य स्तवन' ना रचनार (जुओ गुजराती साहित्यकोश, खं.१, पृ.२५९) होवा संभव छे. आ बीजो पत्र क्याथी अने कया वर्षमा लखायो छे तेनी माहिती नथी. - संपा.] १. भूपतिविजयनो विजयलक्ष्मीसूरि पर पत्र श्री स्वस्त श्री आदिजिन प्रणम्य श्री वडोदरा नगर महाशुभस्थाने पुज्याराध्ये महिमामेयंसमस्तगुणगणालंकृतगात्रचारित्रचूडामणि सकलशास्त्रसिद्धांतना पारिण वर छत्रीस गुणें करी वीराजमांन दिनकर शमांन तेजश्वी शरदऋतु पूर्णचंद्रमंडलानन पांच सुमति त्रिण गुप्ति पालक मिथ्यात्वना टालक विद्वज्जन मुगटामणि सकलकलाकुशल इत्यादि अनेक उपमा विराजमान पूज्य शिरोमणि भ. श्री विजयलक्ष्मी सूरीस्वर वरनांणचरणकमलान्. प्र स्थंभतीर्थथी आशावंत पं. भुपतिविजयग. लखीतं वंदना १०८ वारऽवधारज्यो यतःऽत्र सुखस्याता छे. तुह्मारी सुखस्याताना पत्र प्रसाद कर्या ते वांची घणुं ज संतोष उपना. बीजु लख्या कारण ए , जे तुह्मो पत्र गांधी उपरें लख्यो उपधांन आष्टी[आश्री?] संवेगी पासें पेंसवानी रजा आपी ते. तो स्यारू कयें. पण तुह्मो तो मोटा छो. तुझे जे लख्यु ते अमे महा अंतराय कर्यो, पण अमारें एहमा जे हांसल खावाने वास्ती अथ लांच लेवा वास्ती ए कर्म बांध्युं छे ते अह्मे पातकी थया ते तुह्मनें मलीस्युं तीवारें आलोयण तथा तप करवो घटस्ये ते तुह्म पासें करी अंतराय छोडीस्युं. पण गच्छमां तुह्मारी तथा सा(मा)नी आज्ञा रजा अडकाव छई तीवारें मांगीवी, पण अडकाव न होत तो तुमनें तथा अमनें कोइ श्रावक रजा मगावत नही. तुमनें न कहजे तुझो किहां वसो छो अनें बीजु गछथी बीजा गछना जतीनी करीया सुधी करीने गछना जतीनी तथा गछनायकनी करीया नथी करता ते माटें ओसवालने ए वातनो ममत्व घणो छे जे ए Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बे पत्रो ४५१ अपासरे ए गछवासीओ कनें उपधांन माल नहीं करीएं. एहवा कदाग्रह करें ते अह्मे तो न खमाय माटें गांधीनइ आगल करि मारग गछ ना भागे ते माटे अडकाव क[?] छे अने तुह्मने ए वात गमती होय तो अमारे काइं काम नथी. सुखें गछ(नो) छेद जाओ पण तुह्मारा सारा वास्ती अमो पण एटला श्रावकनें अलखामणा थइइं ने तुह्मो ईम कहुं लख्युं तो सुखें पेंसवा देस्यु. पछी खंभाति श्रावक छे. हवें मारग मोकलो थयो, हवें सर्व श्रावक संवेगीनी करीया कर(स्ये). गछमां जतीनी करीया नहीं करे. तीवारें सारूं गछनी सोभा सीरी[सी] रहेस्यें ....छे', अपासरें आवे छे कोइ ते पण नहीं आवई माटे तुझो श्री खंभायत अ.....गांधीने उपधांन वहेबरावी माल पहेंरावी ओछव करी तुह्मो वीहार करवो घटें तो सुखें करज्यो. ते वातनी चिंता न करवी. आपणे गछनी उन्नत दीसें, तुह्मारी सोभा जस थाई ते वातें राजी छीइं. ओसवालीए तपीयाने मोहे अगडं करी जे तुह्म पासे ओण उपधांन वहीस्ये ते वातने पण वर्ष १॥ थयुं पेंसायु नथी ते अडकाव माटें तुह्मो पधारस्यो ते हवें तुम पासें वरस्य इति तत्त्वं. बाकी रजा आपुं तो आखा गछना श्रावक श्राविका सर्व तेहु पासें जस्य त्यारें तुह्मारे पांतीइं कांई रहेंस्थे ते नथी माटें तुह्मो जरूर एक वार पधारज्यो. पछे तो तुह्मो डाह्या छो. तुह्मनें तो झाझु लखवू ते कारमुं छे. न आवो तो अमें सर्वनइं रजा आपीस्यु. ज्यारें अडकाव को छई तीवारें तुह्म उपरें राग तेडाव्यानो करो छे माटें जेहवं होई तेहबुं लखी जणावज्यो. जो (भा)वो तो समाचार फरी लखज्यो जे आज्ञा आपीईं. संवत १८२५ मागसर सुदि १० रवौ. ए गुनहो पड्यो ते माफ करज्यो. एक ज (स)मे चूका छु. पण हवें नहीं (चूकुं). २. विजयलक्ष्मीसूरिनो प्रेमविजयगणि पर पत्र श्री. ॐ नत्वा भ. श्री विजयलक्ष्मीसूरभिलिख्यते पं. श्री प्रेमविजय ग. वराणां. अत्रथी अनुनति अमारि तथा पं. नर पं. हित पं. न्यान प्रमुखनी वंदना जाणयो. तत्र पं. मोहनजीनें केंहयो तथा प्रति केवलदाशनी परिखझीनें आपी छ. बिजी प्रति २ केवलदासनी आपणे इहां छे ते मोकलीसुं. आपणी प्रति २ सीरप्रश्न [हीरप्रश्न?] १, सीत्तउसा ठाणुं २ ए केवलदास पासें छे ते आपे तो लेयों. बि. सुरतिमा गणेशजी कालं प्राप्त छे ते उपर पं. पुरुषोत्तमजी ठाणु २ तिहां गयां छे. मणिभद्र यात्रानी इछा छे पिण तथाविध सामग्री सर्व मिलस्यं तों लखीस्युं. सर्व श्रावक श्राविकानें धर्मलाभ केंश्यो. मार्गशिर वदि १० दिने प्रत्युषे, परं श्री प्रेमविजय ग. वराणां श्री छांणीपुरे. [जैनयुग, भाद्रपद-आश्विन १९८३, पृ.२५-२६] Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ केटलाक आज्ञापत्रो अने माफीपत्रो [ अहींना लेखमांथी पहेला त्रण विजयदानसूरिनां आज्ञापत्रो छे. क्र. ४ हीरविजयसूरि वगेरे साथे मळी काढेलुं आज्ञापत्र छे. क्र. ५ धर्मसागर उपाध्यायनुं माफीपत्र छे अने क्र.६ शिवानुं माफीपत्र छे. आ शासनपत्रोना संदर्भ माटे जुओ 'केटलाक वधु आज्ञापत्रो'नी संपादकीय नोंध . विजयदानसूरि तपगच्छनी ५७मी पाटे थयेला आचार्य छे. एमनो समय सं. १५५३थी १६२२ छे. धर्मसागर उपाध्यायनो समय सं. १५७९थी १६५३ अने अकबर प्रतिबोधक हीरविजयसूरिनो समय सं. १५८३थी १६५२ छे. शिवा विशे विशेष माहिती प्राप्य नथी. आ आज्ञापत्रो ने माफीपत्रो 'जैन गूर्जर कविओ' के 'गुजराती साहित्यकोश खं. १ ' नोंधायेल नथी पण हीरविजयसूरि जैन गूर्जर कविओ, भा. २ पृ. २३९-४० पर तथा गुजराती साहित्यकोश खं. १ पृ.४९५ पर नोंधायेल छे. धर्मसागर उपाध्याय गुजराती साहित्यकोश खं. १, पृ. १९६ पर नोंधायेल छे. संपा. ] १ संवत् १६१९ वर्ष मार्गशीषें अशित पक्षे १ दिने श्री विजयदानसूरिभिर्लिखति. आज पछी परंपरागत सामाचारी केणई आघी पाछी करवी नही. नवु विचार गछ विरूद्ध के प्रकाशव नही. कोई नवो विचार गछविरूद्ध प्रकाशई तेहनई गछनउ ठबकउ. सही सही सही. अत्र आचार्यश्री हीरविजयसूरि मतं. उ. सकलचंद्रगणि मतं. उ. श्री धर्म्मसागरगणि मतं. उ. श्री राजविमलगणि मतं. पं. कुशलहर्षगणि मतं. पं. श्री श्रीकरणगणि मतं. पं. विमलदानगणि मतं. पं. सूरचंद्रगणि मतं. पं. संयमहर्षगणि मतं. पं. कुलहर्षगणि मतं. छ. २ संवत् १६२१ वर्षे रायधनपुरे श्री विजयदानसूरिभिर्लिखतं. आज पछी किणइ सात अधिक ह्निव न कहइवा, जिको कहइ तेहनइ गछनउ ठबको प्रतिमा आश्री जिम Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केटलाक आज्ञापत्रो अने माफीपत्रो ४५३ चालिउ आवइ छइ ते तिम ज चलववउं. अत्र श्री हीरविजयसूरि मतं. उपाध्याय श्री सकलचंद्रगणि मतं. उ श्री धर्मसागरगणि मतं. पं. विजयहंसगणि मतं. पं. रूपऋषिगणि मतं. श्री कुशलवर्द्धनगणि मतं. पं. श्रीकर्णगणि मतं. पं. वानरगणिमतं. पं. सूरचंद्रगणि मतं. पं. दी(हा)पागणि मतं. महं गला योगं. ए लेख चिहुं जणे मलीनइ महं गलानइ मोकल्यो छइ. श्री विजयदानसूरिभिलिखितं - १. दिगंबरनां चैत्य यती श्रावकनई वांदवा योग्य नही. २. एकला श्रावक गृहस्थनां प्रतिष्टां(ष्ट्यां) चैत्य वांदवा योग्य नही. ३. अभिनिवेश मिथ्यात्वीनू धर्मकर्त्तव्य अनुमोदवा योग्य नही. ४. उत्कट उत्सूत्रभाषी- धर्मकर्त्तव्य अनुमोदवा योग्य नही. ५. द्रव्यलिंगीना द्रव्यईं प्रासाद-प्रतिमा नीपना हुई ते वंदनीक नही. ६. स्वपंखीना घरनईं विषईं अवंदनीक प्रतिमा हुईं ते साधुनइ वासक्षेपइ वंदनीक ७. साधुनी प्रतिष्टा शास्त्रईं छईं. स्वस्ति श्री आदिजिनं प्रणम्य, राधिनपुरत ) हीरविजयसूरि, उ. सकलचंद्रगणि, उ. धर्मसागरगणि, पं. वानरगणिभिर्लिखतं श्रीमति अहम्मदावादे महं गला योग्यं. धर्मलाभ जाणयो. अपरं सात अधिका निह्नव शास्त्रइ नथी तुझे तिम सद्दहइयो. प्रतिमा आश्री पूर्वईं जिम चालिउ आवइ छइ तिम सद्दहयो इति मंगलं. स्वस्ति श्री शांतिजिनं प्रणम्य, तिरवाडा नगरत: परमगुरू श्री विजयदानसूरि सेवी उ. श्री धर्मसागरगणि लिखति समस्त नगरे सााधुसाधवी श्रावक श्राविका योग्यं. आज Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह पछी अम्हे पांच निह्नव न कहउं. पांच निह्नव कह्या हुइ ते मिछामि दुक्कडं. उत्सूत्रकंदकुद्दाल ग्रंथ न सद्दहउं, पूर्वइ सद्दह्यउ हुइ ते मिछामि दुक्कडं. षट्परवी चतु:परवी आश्री जिम श्री पूज्य आसि द्यइ छई ते प्रमाण. छ. सात बोल जिम भगवन् आसि द्यई छई ते प्रमाण. चतुर्विध संघनी आशातना कीधी हुइ ते मिछामि दुक्कडं. चैत्य पांचनां उथाप्यां हूई ते मिछामि दुक्कडं. आज पछी पांचना चैत्य वांदवां. तिरवाडा माहि श्री पूज्य परमगुरू श्री विजयदानसूरि नईं मिछामि दुक्कडं दीधउं छइ संघ समक्ष. ए बोल आश्री जिणइ खोटउं सद्दह्यउं हुई ते मिछामि दुक्कडं देज्यो. छ. ६ स्वस्ति श्री वीरजिनं प्रणम्य, श्री डीसा स्थाने परमगुरू गछनायक श्री ६ श्री विजयदानसूरि चरणान् चरणसेवक शिवा लिखतं, श्री पतन नगरे समस्त साध साधवी श्रावक श्राविका योग्यं तथा परपक्षी समस्त. शिवईं जे अस्यो आज पछी पांच निह्नव कह्या हता तेहनउं मिछामि दुक्कडं. छ. उत्सूत्र कंदकुद्दाल ग्रंथनी सद्दहणा पूर्विइं हती सद्दहइता ते मिछामि दुक्कडं. खोटी प्ररूपी ते भणी श्रीपूज्य आशातना ते भणी अणास्ता तिम बोल्या जिम श्रीपूज्य आसि धइ ते तिम प्रमाण. चतुर्विध संघनी आशातना शिवई कीधी ते मिछामि दुक्कडं. चैत्य पांचनां उथाप्यां हुइ ते मिछामि दुक्कडं. छ. आज पछी पांचइनां चैत्य वांदउं. डीसा माहि श्री पूज्य परमगुरू श्री विजयदानसूरिनइ मिछामि दुक्कडं दीधां. संघसमक्ष्य एतला आश्री जे खोटां सद्दयां हुइ तेहनो मिछामि दुक्कडं. (मुनिश्री जशविजय संग्रह) [जैनयुग, असाड-श्रावण १९८६, पृ.४८३-८४] Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५५ केलांक वधु आज्ञापत्रो ( क्र. १ नो प्राचीन लेख अमने एक सहृदय मित्र तरफथी प्रकाशनार्थ मळ्यो छे जे प्रसंगे आ आज्ञापत्र लखायुं छे एटलेके सं. १६४६ (सने १५९०) मां, ते प्रसंगे खरतरगच्छ अने तपगच्छ बच्चे बहु सख्त विखवाद चालतो हतो. बन्ने पक्ष तरफथी खंडनमंडनना पुष्कळ ग्रंथो रचाया हता अने बेउ पक्षो एकबीजा पर अणछाजता हुमला करता हता. ए धांधल वधी पड्या पछी समाधानार्थे तपागच्छना ए वखतना नायक श्रीमद् विजयदानसूरिए धर्मसागर उपाध्याय रचित 'उत्सूत्रकंदकुद्दाल' [कुमतिमतकुद्दाल] नामना खंडनात्मक ग्रंथने उत्सूत्र तरीके जणावी अमान्य ठराव्यो अने जलशायी कर्यो. धर्मसागरनी सही साधेनुं आज्ञापत्र श्रीमद् विजयदानसूरिनी संमति लई हीरविजयसूरिए लखी जग्याजग्याए फेरव्युं. आ समाधानकारक संत महात्मा पुरुषने केटलोबधो धन्यवाद घटे छे ! उपरोक्त 'कंदकुद्दाल' [के 'कुमतिमतकुद्दाल' ] ना रचनार धर्मसागर उपाध्याये पोते ते ग्रंथने जलशायी करवामां संमति आपी छे ए तेमनी अममत्वबुद्धि, ऐक्य प्रत्ये भावना अने सुज्ञता सूचवे छे. ते समर्थ विद्वान पुरुष हता ते निःसंशय छे. तेमणे दरेक मतमतांतरमां जई तेनुं खंडन करवा माटे पुरुषार्थ सारो सेव्यो होय एम जणाय छे. कारणके सं. १६१७मां 'औष्ट्रिकमतोत्सूत्रदीपिका' अने त्यार पछी 'कुपक्ष - कौशिक - सहस्रकिरण' नामनो विशाल ग्रंथ रचेल छे. हीरविजयसूरि : तपागच्छनी ५८मी पाटे. जन्म सं. १५८३ मार्गशीर्ष सुदि ९ प्रह्लादनपुर [ पालनपुर ] मां. दीक्षा पाटण सं. १५९६, सूरिपद सं. १६१०, स्वर्गगमन सं. १६५२ भाद्रपद सुदि ११ उम्ना(उना)मां. कल्याणविजयगणि: जन्म सं. १६०१, दीक्षा सं. १६१६ हीरविजयसूरिना हस्तथी, उपाध्यायपद सं. १६२४ पाटणमां. प्रख्यात यशोविजय उपाध्यायना प्रगुरुना गुरु. सविस्तर चरित्र माटे जुओ जैन ऐतिहासिक रासमाळा, पुष्प १लं. विजयसेनसूरि : तपागच्छनी ५९मी पाटे थया. जन्म सं. १६०४ नारदीपुरीमां, दीक्षा सं. १६१३, बादशाह अकबरे 'कालि-सरस्वती' ए बिरुद आप्युं. स्वर्गगमन सं. १६७१ जयेष्ठ दि ११ स्तंभतीर्थ [ खंभात ] मां.) [ प्रथम आज्ञापत्र हीरविजयसूरिए विजयदानसूरिनी संमतिथी तैयार कर्तुं छे, जे एमना बार बोल तरीके जाणीतुं छे ने 'जैन गूर्जर कविओ' तथा 'गुजराती साहित्यकोश खं. १ 'मां नोंधायेलुं छे. बीजां त्रण विजयसेनसूरिनां आज्ञापत्र नोंधायेल नथी. छेल्लं आज्ञापत्र कोना तरफथी छे ते बतावायुं नथी ने एमां विजयसेनसूरिनुं नाम बेवडाय छे तेमां कोई भूल रहेली छे. जुओ 'केटलांक आज्ञापत्रो अने माफीपत्रो'नी संपादकीय नोंध. देशाईनी नोंधमां उत्सूत्रकंदकुद्दालने जलशरण करावनार तरीके विजयदानसूरिने स्थाने विजयसेनसूरिनुं नाम हतुं ते अहीं सुधारी लीधुं छे. संपा. ] Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह श्री विजयदानसूरिगुरूभ्यो नम:. संवत १६४६ वर्षे पोष शुद १४ शुक्रे श्री पत्तन नगरे श्री हीरविजयसूरिभिर्लिख्यते, समस्त साधु साध्वी श्रावक श्राविका योग्य श्री विजयदानसूरिप्रासादात् सात ७ बोलनाऽर्थ आश्री विसंवाद टालवानइ काजई तेह ज सात बोलनो अर्थ विवरीनइं लिखिइं छइं. बीजा पणि केटलाएक बोल विवरीनइं लिखीइं छइं, परपक्षीनिं कुणइ किस्यो कठिन वचन न कहिवं. १ तथा परपक्षीकृत धर्मकार्य सर्वथा अनुमोदवा योग्य नहीं इम कुणइ न कहि, जे माटइ दान, शुचिपणुं, स्वभावइ विनीतपणउ, अल्पकषायीपणुं, परोपकारीपणुं, दाखिणालूपणूं, प्रियभाषिपणुं, इत्यादि जे जे मार्गानुसारी धर्मकर्त्तव्य ते निज शासनथी अनेराइं समस्त जीवसंबंधिया शास्त्रनइ अनुसारइ अनुमोदवा योग्य जणाइं छइं तो जैन परपक्षी संबंधी मार्गानुसारी धर्मकर्तव्य अनुमोदवा योग्या होइं ते वातनुं स्युं कहवं. २ गछनायकनइ पूछ्या विना शास्त्र संबंधिनी किसी नवी परूपणा न करवी. ३ दिगंबर-संबंधियां चैत्य १, केवल श्राद्धप्रतिष्ठित चैत्य २, द्रव्यलिंगीनिं द्रव्यनिष्पन चैत्य ३ ए त्रिणि चैत्य विना बीजां चैत्य वांदवा पूजवा योग्य होइं ए वातनी शंका न करवी. ४ ___ तथा स्वपक्षीना घरनइ विषइ पूर्वोक्त त्रिणिनी अवंदनिक प्रतिमा होइ ते साधुनइ वासक्षेपइ वांदवा पूजवा योग्य होइ. ५ तथा साधुनी प्रतिष्टा शास्त्रइ छइ. ६ साधर्मिक वात्सल्य करतां स्वजनादिक संबंध भणी परपक्षीनिं जमवा तेडइ तो साहमीवत्सल फोक न थाइं. ७ तथा शास्त्रोक्त देश विसंवादि निह्नव सात सर्व विसंवादी निह्नव १, ए टाली बीजा कोइनिं निह्नक न कहवा. ८ परपक्षी संघातई चर्चानी उदीरणा कुणइ न करवी, परपक्षी कोइ चर्चानी उदीरणा करइ तो शास्त्रनइ अनुसारइ उत्तर देवो. पणि क्लेश वाधइ तिम न करवू. ९ तथा श्री विजयदानसूरई बहु जन समक्ष जलशरण कीधो ते उत्सूत्र कंद कुंद्दादल ग्रंथ ते माहिलो अर्थ बीजाई कोइ शास्त्रमाहिं आण्यो होइ ते अर्थ तिहां अप्र(माण जाणवो. १० स्वपक्षीय सार्थनइ अनुयोग्यईं परपक्षीय साथई यात्रा कर्या माटइ यात्रा फोक न थाइ.११ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केटलांक वधु आज्ञापत्रो ४५७ तथा पूर्वाचार्यनइं वारे जे स्तुति स्तोत्रादिक कहवातां कुणै ना न कहवी. १२ ए बोलथी अन्यथा परूपई तेहनइ गछनो तथा संधनो ठबको सही. अत्र श्री विजयसेन सूरि मतं. उपाध्याय श्री धर्मसागर मतं. उ. श्री कल्याणविजय ग. मतं. उ. विमलहर्ष ग. मतं. उ. सोमविजय ग. मतं. पं. श्री सहजसागर ग. मतं. पं. श्री कान्हर्षि मतं. श्री हीरविजयसूरिपरमगुरूभ्यो नमः. संवत १६५८ वर्षे फाल्गुन सित दसमी रवौ अहवमदावाद नगरे श्री विजयसेनसूरिभिर्लिख्यते. समस्त [साधु] साध्वी श्रावक श्राविका योग्य. १. साध्वीइं वखाण वेलाए आवq अने आठिम पाखिये आखो दहाडो आवे तो ना नहि. २. तथा श्राविकाए पिण वखाणनि वेलाएं आवq अने वखांण उठ्या पछी श्राविका वांदवा आवे तो वांदिने पाछि वले पण बेसबुं नहि तथा उभा रहेवू नहि तथा सांझे दिवानुं काम होय तिहारें श्राविकाए उपाशरा बाहिर बेसी सांझी देवी तथा उपधाननी क्रीया करणहारि श्राविका सर्व एकठी मिलिने उपाश्रयें आवq अने तरत क्रिया करीने जQ पण बेसी न रहेवं. ३. तथा गीतार्थे मास मध्ये आठम चउदसी पंचमी ए छ दिवसने विषे ज आलोअण देवी कारण विना. ४. तथा पचास वर्ष मध्यवर्ति पन्याविकाने (?) आलोयण देवी नहि. ५. तथा उत्तराध्ययन प्रमुख कालिक सिद्धांत संभळाव्यु जोइए तो सांझनी पडिलेहण कर्या पछी आठम पाखिने दिहाडे संभलावq, कारण विना. ६. तथा श्री विजयदानसूरीने वारे तथा श्री हीरविजयसूरीने वारे जे ग्रंथनी थापना छे ते ग्रंथ गछनायकनी आज्ञापूर्वक गीतार्थे सोध्यो होय तो ते प्रवर्ताववा तथा लिखाववा, अन्यथा नहि. ७. तथा यति समस्ते आद्रा पहेलो आदेश होय तेणे क्षेत्रे पोहोचवू. मुहुर्तादिकनुं कारण होय तो क्षेत्रने दस कोसिमाहे जइ रहेQ, छते योगे. Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह ८. तथा जेणे गीतार्थे आलोयणनुं आम्नाय जाण्युं होय अने गछनायकने संभाव्यो होय तेणे श्राविकाने आलोयण देवी. ३ श्री हीरविजयसूरिपरमगुरूभ्यो नमः . श्री विजयसेनसूरीभिर्लिख्यते. संवत १६७० वर्षे द्वितीय ज्येष्ठ वदि त्रयोदसी दिने अपर. चोमासाना आदेश सारू देसांतरे विहार करता वस्त्रपात्रादिक कोणे बांधि जावु नहि अने जे कोइ बांधिने मुकी गया छे तेणे आविने खरचवं वस्त्रपात्रादिक, अन्यथा तेहने दिशानो आदेश प्रस्तावने मेले थास्ये. १ तथा एकदेश मध्ये विहार करतां कदाचित् कारण माटे वस्त्र मुकी जाय तो पोथीने आकारे बांधि मुकवुं नहि. ए रीत विना जे कोइ वस्त्रादिक मुकी जासे तेहनुं वस्त्रादिक खरचास्ये पणि तेहने नहि अपाय. २ तथा जेनीश्राये ज्ञानद्रव्य पाछिल होय तेणें पोतानि नीश्रार्थे टालवं अने पुस्तकनी सामग्री ना मिले तो जेणें गांमें भंडार होय ते गामना संघनी साखे भंडारें मुंकवुं अन्यथा तेने दिशानो आदेश प्रस्तावें थास्ये अनें वैशाख पछी जेह नीश्रामां ज्ञानद्रव्य संभलास्यें तेहनें मोटो ठबको लखास्ये. ३ तथा जेणे घरे कोइ माटि न होय अने एकली ज श्राविका होय तेणे घरे कोणे वस्त्रपुस्तकादिक बांधी मुकवुं नहि. ४ तथा जेणे यतियें दिक्षानो भाव उपायो होय तेणे यतिये मुलगे मार्गे भव्य पासे लिखावि लेवुं नहि अने कदाचित् लिखावि लीये तो ते गांमना वडा ४ श्रावकनी साक्षिपूर्वक लिखावि लेवुं अने भव्यनो भांव कदाचित पलटाय तो वर्ष २ पछी तेहनो संबंध नहि. तें भव्यनो जिहा भाव होय तिहां दिक्षा लेतां कुणे अंतराय न करवो. अंतराय करस्ये तेहने ठबको आवस्ये सहि. ६ ४ श्री विजयसेनसूरिभिर्लिख्यते समस्त साधुसमुदाय योग्यं अपरं. ज्ञानद्रव्य कुणे यति गृहस्थ कले मागवुं नहि अने गृहस्थ आले तो निश्राईं राखवो हि. कदाचित् सिधि परति गृहस्थ आले तो तेह इहतडां (?) लेवी नहिं तथा मासकल्पनि मर्यादा कुणे भांजवी नहि; शेष काले पिण यथायोग्ये फिरते क्षेत्रे विहार करवी तथा वस्त्रपात्रादिक उपकरण गृहस्थ पासे कुणे उपडाववुं नहि, संककटादिके घालवु नहि तथा डाबडा पाठां निमित भरत भरिया तथा बिजाई लुधडा रूमाल लेवां नहि, तथा देव जुहारवा, गोचरी स्थंडिल प्रमुख कार्ये साधु साध्वी कुणे एकला जावुं नाहि अने Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केटलांक वधु आज्ञापत्रो ४५९ जे एकला जाय तेहने पाटीयाना धणीइं यतिने, वडि साध्वीये साध्वीने आंबिल कराव, अने आंबिल कराव्यं न करे तो ते साथे मंडलीनो संबंध कुणे करवो नहि. तथा पुंगीफलना खंड, तेह- चूर्ण अने आइपत्र तथा शुष्कपत्र ए २ नुं चुर्ण ए वस्तु सर्वथा विहरवू नहि. ए सर्व मर्यादा रूडि पेरें पालवी. जे ए मर्यादा भांजसे तेहने मंडलि-बहिष्करण प्रमुख आकरो ठबको आवस्ये ते प्रीछज्यो. इतिश्री साधुमर्यादापट्टक. शासनभट्टारक श्री हीरविजयसूरीश्वर-पट्टालंकार भट्टारक श्री विजयसेनसूरीश्वरगुरूभ्यो नमः. संवत १६७२ वर्षे असाद शुद्ध द्वितीया वासरे श्री पत्तननगरे श्री विजयसेनसूरिभिलिखते समस्त साधु साध्वी श्रावक श्राविका चतुर्विधि संघ समुदाय योग्यं. १. अपरं भट्टारक श्री हीरवीजयसूरिश्वरें जे बार बोल प्रसाद कर्या तथा भट्टारक श्री वीजयसेनसूरीश्वरे प्रसाद कर्या जे सात बोल तथा भट्टारक श्री हीरवीजयसूरीश्वरे तथा भट्टारक श्री विजयसेनसूरीश्वरे बीजाये जे बोल प्रसाद कर्या ते तिमहि ज कहेवा पणी कोणे विपरितपणे न कहेवा. जे विपरितपणे केहेस्थे तेहने आकरो ठबको देवरासे. २. तथा मासकल्पनि मर्यादा समस्त यतीइं सुधि पालवी अने फीरते क्षेत्रे विहार करवो. ३. तथा गृहस्थादिकने घरे जइने पुस्तकादिकने बांधवू नहि अने घरे मुकवू ते पोताना गुरूने पूच्छीने मुकबु. गृहस्थे पण तेहेना गुरूने पूछीने ज राखवू. सर्वथा पूछ्या विना न राखg. ४. तथा मार्गे देहरें गोचरीइ स्थंडिल प्रमुख कार्ये जातां वात न करवी अने कदाचित् बोलवू पडे तो एक जण पासे उभा रहिने बोलq. ५. तथा दीवान मध्ये गछनायकनी आज्ञा विना सर्वथा न जावू अने कदाचित् सर्वथा जावं पडे तो वडेरा गृहस्तने संमत करी जावू पण तिहां जइ नवो किस्यो उपाधि न करवो. ६. तथा छ घडि मध्ये सर्वथा उपाश्रय बाहिर न जावं, कदाचित् जावू पडे तो गुरूने पुछीने. ७. तथा षटपर्वीइं सर्वथा विक्रति वि[]हरवी नहि. ८. तथा चउमासाने पारणे गीतार्थे दस कोसीईं तथा पनर कोसीइ फागुण चोमासा लगे फिरते क्षेत्रे विहार करवो, कारण विना. ९. तथा वर्षाकाल विना साध्वीइं वस्त्रक्षालन कारण विना न करवां. अने साबुए तो Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह सर्वथा वस्त्रादिकनुं क्षालन न करवं. अने गृहस्थ पासे ज्ञानद्रव्य न मांगवो, मागे तेने गृहस्थे पिण नापवो. साध्वीने तथा साविकाने रासभास गीतादीक भणववां नहि. एकला साधुसाध्वीये किस्में कार्ये सर्वथा उपाश्रय बाहिर न जाएं. इत्यादिक भट्टारक श्री वीजयसेनसुरीश्वरे तथा भट्टारक श्री वीजयसेनसूरीश्वरे प्रासाद करी जे सकल मर्यादा ते साधुसाध्वीइं रूडि परे पालवी.. [जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स हेरल्ड, जुलाइ-ओक्टोबर १९१५, पृ.४६६-७१] Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६१ विजयसेनसूरिना दश बोल (धर्मसागर उपाध्याये जे अनेक प्ररूपणाओ करी आखा श्वेताम्बर संप्रदायमां कोलाहल उपजाव्यो हतो ते संबंधी विजयसेनसूरिए दश बोल जाहेर कर्या हता ते एक प्राचीन हस्तपत्र परथी उतारी अत्रे मूक्या छे.) - [आ बोल विजयसेनसूरि वती बीजा कोईए जाहेर कर्या होय एवो पण संभव छे. "सर्वज्ञशतक' उपाध्याय धर्मसागरनो ग्रंथ छे. आ बोल विजयसेनसूरि (सूरिपद सं.१६५६) सागरमतने मान्यता आपता हता ते संदर्भमा जाहेर थया जणाय छे. जुओ 'बीजां केटलांक आज्ञापत्रो'नी संपादकीय नोंध. - संपा.] श्री हीरविजयसूरि प्रमुख पूर्वाचार्य इम कहइ छइ जे खरतर प्रमुख मोक्षनई अर्थि जीव मुंकावइ, सील पालइ, तप करइ, श्री वीतरागदेवनी पूजा करइ इत्यादिक मार्गानुसारी धर्मकर्त्तव्य अनुमोदवानी ना नथी, अनइं सागर तु इम कहइ जे अनुमोदीइ नहीं. ए प्रथम बोल. १ तथा श्री हीरविजय प्रमुख इम कहइ छइ जे श्री भगवतीसूत्र तथा श्री महावीरचरित्र प्रमुख शास्त्रनइ अनुसारि जमालिनइं पनर भव जणाइ छइ, अनि उपदेशमालानी सिद्धर्षि टीकानइं अनुसारि जमालिनइ अनंता भव जणाइ छई, पछइ केवली कहइ ते प्रमाण, अनइं सागर तु इम थापइ छइ जे जमालिनईं अनंता ज भव कहीइ, अनइं पनर भव कहइ छई ते अनंता तीर्थंकरनी आशातना करइ छइ एह, पोताना कीधा ग्रंथमाहि पणि लख्यं छइ सागरइं. ए बीजुं बोल. २ तथा श्री हीरविजयसूरि प्रमुख इम कहइ छइ जे खरतर प्रमुखनइं निन्हव न कहीइ, अनइं सागर तु इम कहइ छइ जे निन्हव कहीइ. ए त्रीजुं बोल. ३ तथा हीरविजयसूरि प्रमुख इम कहइ छइ जे खरतर प्रमुखनइ देहरइ देव जुहारइ देव पूजइ तेहनइं लाभ हुइ, अनइं सागर तु इम कहइ छइ जे खरतर प्रमुखनां चैत्य होलीना राजा सरिखां. एहवं ग्रंथ मध्ये पणि सागरिं लख्यु छइ. ए पांचमु बोल. ५ तथा श्री हीरविजयसूरि प्रमुख इम कहइ छइ जे उत्सूत्रभाषी आलोया पडिकम्या विना मरइ तेहनइ संख्यातो असंख्यातो उत्कृष्टो अनंतो पणि संसार हुइ, अनईं सागर तु इम कहइ छई जे उत्सूत्रभाषी आलोया पडिकम्या विना मरइ तेहनइ नियमई अनंतु संसार हुइ. ए चुथु बोल. ४ तथा श्री हीरविजयसूरि कहइ छइ जे खरतर प्रमुख जैन तथा मिथ्यात्वी नुकार गणइ तेहनईं लाभ हुइ; अनइ सागर तु इम कहइ छइ जे खरतर प्रमुख नुकार गणतु अनंतु संसार वधारइ. एहवू पोताना शास्त्रमांहि पणि आण्युं छइ. ए छठु बोल. ६ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह तथा श्री हीरविजयसूरि प्रमुख इम कहइ छइ जे केवलीना शरीरथी अवश्यभावी पण कदाचित् त्रस थावरना जीवनी विराधना थाइ तु नहीं; अनइं सागर तु इम कहइ छइ जे केवलीना जीवथी विराधना मानइ ते उत्सूत्रभाषी. एहवू पोताना शास्त्रमांहि पणि सागरे आण्यु छइ ए सातमुं बोल. ७ तथा श्री हीरविजयसूरि प्रमुख इम कहइ छइ जे अनादि सूक्ष्म निगोदीया जीवनइं अव्यवहारीया कहीइ बीजा सर्व जीवनइं व्यवहारीया कहीइ; अनइं सागर तु इम कहइ छइ जे सूक्ष्म निगोद १, बादर निगोद २, सूक्ष्म पृथ्वीकाय ३, सूक्ष्म अपकाय ४, सूक्ष्म तेजकाय ५, सूक्ष्म वाउकाय ६, ए छ प्रकारना जीवनईं अव्यवहारीआ कहीइ, जे कोइ एकला सूक्ष्म निगोदना जीवनइं अव्यवहारीआ कहइ छइ ते सघला अज्ञानी जाणवा. एहq पोताना शास्त्रमांहि पणि सागरि लख्यु छइ. ए आठमुं बोल. ८ तथा श्री हीरविजयसूरि प्रमुख कहइ छइ जे मरीचिं कपिल आगलि ‘दुप्भासिएण इक्केण सिरीई दुखसागरं पत्तो' ए वचन कहिउ ते उत्सूत्र कहीइ; अनई सागर तु इम कहइ छई जे ए वचन उत्सूत्र न कहीइ, दुर्भाषित कहीइ. ए नुमु बोल. ९. तथा श्री विजयसेनसूरई खोटा जाणी सर्वज्ञशतक ग्रंथ अप्रमाण कर्यु छई, अनइ सागर तु इम कहइ छइ जे ए ग्रंथ अह्मो प्रमाण करसिउं. इत्यादिक घणा बोलनी सागरनी विपरीत प्ररुपणा छइ ते प्रीछ्यो अनइं एहवा उपरि श्री विजयदेवसूरि सागरनुं पासुं करइ छइं अनइ वारता नथी ते माटइ धर्मना अर्था हुइ तेणे विचारवं. ए दसमु बोल. १० (जैन एसोसिएशन ओफ इंडियानी एक पत्रनी प्रत नं.११८२.) [जैनयुग, आश्विन १९८१, पृ.५९-६०] Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६३ अज्ञातकृत हीरविजयसूरि बार बोल सझाय [आ कृति विजयदेवसूरिना राज्यकाळ (सं.१६७१-१७१३)मां रचायेली जणाय छे. कृति 'जैन गूर्जर कविओ' के 'गुजराती साहित्यकोश खं.१'मां नोंधायेल नथी. - संपा.] राग गोडी सरसति मात मया करो, भवि प्राणी रे, निरमल मति द्यो सार, भाव मनि आणी रे; श्री हीरविजय गुरू वयणडा, भवि० पभणुं ते सुविचार. भाव. १ बार बोल गुरू हीरनां, भवि० सुणयो अमिय रसाल, भाव. (१) कठिन वचन नवि बोलीइ, भ. कहिनइं न दीजें गालि. भा० २ (२) बोल बीजें गुरू हीर भणे, भ०, भावें सुणो नर नारि, भा० जैन विना जे प्राणिया, भ., धरम करिं उदार. भा० ३ अल्प कषाय विनय वहें, भ०, वली करें उपगार, भा० ते अनुमोदQ जो कह्यु, भ०, शास्त्र तणे अनुसार. भा० ४ तो परपक्षी जैनना, भ०, मार्गानुसारी जेह, भा. अनुमोदवू वली किम नही, भ०, पुण्य काज सवि तेह. भा० ५ (३) शास्त्र संबंधी प्ररूपणा, भ०, नवी न करवी कोई, भा. गछपतिनें पूछ्या विना, भ०, बोल त्रीजो ए होईं. भा. (४) केवल श्रावक थापीओ, भ., बीजु दिगंबर चैत्य, भा० त्रीचं नीपy जे होइ, भ०, द्रव्यलिंगीने वित्य. भा. एह विना बीजी जीके, भ०, बोलवो थई जे चैत्य, भा. नमता में वली पूजतां, भ०, शंका न करवी चिति. भा० ८ (५) अवंदनीक वली त्रिणी कही, भ०, पूरवें प्रतिमा जेह, भा. साधुतणें वासें करी, भ०, पंचनें वांदवी तेह. भा. ९ बोल छठे कही साधुनें भ०, प्रतिष्ठा शास्त्र मझारि, भा. (७) स्वजनादिक कोइ कारणे, भ०, सातमो बोल उदार. भा. १० परपक्षे सामिवच्छलें, भ०, तेडें जिमवा काजें, भा. पुण्य फोक न हुई ते वली, भ., ईम कहें गुरूराज. भा. ११ (८) आठमें निन्हव नवि कह्या, भ०, अवर न कहीइं कोई, भा. (९) नोमें चर्चा-उदीरणा, भ०, म करो परपक्षी-स्युं सोई. भा. १२ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह (१०) श्री विजयदान सूरीश्वरें भ०, विसलनयर मझारिं, कुमति - कुद्दाल ग्रंथ बोळीओ, भ०, पेखंता नरनारि. भा० १३ वचन अरथ ते ग्रंथना, भ०, जिणि ग्रंथे आण्यां होई, भा० दसमें बोलें कह्युं भ०, अप्रमाण तिहां सोइ. भा० १४ (११) परपक्षी साथें वली, भ०, जे कोइ यात्रा जाइ, भा० इरमो बोल कहिं हीरगुरू, भ०, यात्रा फोक न थाई. भा० १५ (१२) परपक्षी जे जोडियां, भ०, स्तुति स्तवनादि जेह, भा० पूरवाचार्ये आदर्या, भ०, मांडीने कहेवा तेह. भा० १६ पालें पलावं ए बार बोल, भ०, श्री विजयदेव सूरींद, भा० तस पदपंकज सेवतां भ०, सकल संघ आणंद भा० १७ [जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स हेरल्ड, एप्रिल-जून १९१८, पृ.१६१] Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६५ साधुमर्यादापट्टक (प्रात:स्मरणीय पूज्यपाद महोपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी विक्रमनी १७मी सदीना अंते अने १८मी सदीना पूर्वार्द्धमां एक महान् विभूति थयेल छे. ते दरमियान आचार्यश्री हीरविजयसूरिनी पट्टपरंपरामां विजयदेवसूरिना स्वर्गवास पछी अने तेमना पहेलां युवराज आचार्यश्री विजयसिंहसूरिनो स्वर्गवास थई गयेल होवाथी विजयप्रभ नामना आचार्य गच्छनायक तरीके हता. तेओ बहुश्रुत के विद्वान् नहोता. तेमनी साथे मतभेद रहेतो. साधुसमुदायनी स्थिति छिन्नभिन्न थई हती. विजयदेवसूरिना समयमां ज बीजा आचार्य विजयतिलकसूरि स्थपाया ने तेमना विजयाणंदसूरि सं.१७११ सुधी हयात हता अने देवसूरिगच्छ ने आणंदसूरिगच्छ एम बे गच्छभेद थया हता. बीजी अनेक घटना बनी हती. तेवा समयमा श्रीमान् यशोविजयजी अने अन्य संवेगी साधुओए मळीने साधुसमुदाय माटे मर्यादापट्टक को हतो ते मने वीजापुरना श्री बुद्धिसागरसूरिस्थापित जैन ज्ञानमंदिरमांथी हमणां प्राप्त थवाथी अने ते अत्यार सुधी अप्रकट रहेल होवाथी अत्र प्रसिद्ध करवामां आवे छे. ) . [देशाईए अहीं तथा जैन गूर्जर कविओ, भा.४ पृ.२३४ पर आ लेखने यशोविजयजीनी कृति तरीके रजू करेल छे. परंतु आ लेख केटलाक साधुओए साथे मळीने तैयार कर्यो छे अने एमां पहेलुं नाम पण यशोविजयजी- नहीं, जयसोमगणितुं छे. - संपा.] _____९०. श्री वीतरागाय नमः. संवेगी साधुसमुदाययोग्यं व्यवहार मर्यादाना बोल लिखिये छीई. यथा - . १. पदस्थ आचार्य, उपाध्याय विना नाणे अंगपूजा न करवी. २. पदस्थ विना सोनेरी रूपेरी साजनां झरमर चंदुआ बंधाववा नहि. ३. जेणे प्रतिबोध्यो होय तेणे शिष्य तेहने देवो, पदस्थने पूछीने. ४. कोई शिष्य गुरुथी दुमणो थई पर संघाडा मांहे जाय तिवारे तेहना गुरुनी आज्ञा विना तेणे न संग्रहवो अने वडे-लहुडे व्यवहारिं वांदवो पण नहि अने गुरुना अवर्णवादी प्रत्यनीकता करीने जाय तिवारे वेष लेइने काढी मुंकवो. ५. आचारिया योग विना व्यवहारी गीतार्थे आहारपाणी आण्यो न लेवो, रोगादि कारणे जयणा. ६. सामान्य यतिए अधिक वस्तुनुं मुठीयुं न राखवू, पदस्थे पण यथायोग्यपणे कारण जाणि ४ मास उपरांते न राखवं, पर्वदिने दृष्टि पडिलेहण करवी. ७. मासकल्प पालटवो ते जिहां गोचरी वसति स्थंडिल भूमिका पलटाइ तिम पालटवो, रोगादिक कारणे जयणा.. ८. हाजा पटेलनी पोले नवा फतानी पोल मध्ये कारण विना चोमासुं न रहे, बीजे Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह स्थानक पण त्रस जीवादि विशेष होय तिहां न रहेवू. ९. तथा एक सामाचारीएं एक मांडलीना एक परिण[णा]तिने घेरे उपराउपरी न जवं. १०. तथा सामान्य यतिए स्त्रियादिकने घरे जई भणावq नही, आलापसंलाप न करवो, जो अक्षरादिक पूछे तो उपाश्रय मध्ये कहेवो. ११. तथा सामान्य यतिए १००० श्लोकथी अधिक लखाव_ नही, ते पिण लेखकने घरे जावू आवq नही, पुस्तक वेचाता लेवा आश्री पण क्रयविक्रय गृहस्थ हाथे करवी कराववो पण स्वयं संयतें न करवो. १२. तथा वयो वर्ष ६० दीक्षापर्याय वर्ष २० तथा १२ वय विना एकले जावू आवर्बु, स्त्रियादिकने भणावQ निषेध, रोगादि कारणे जयणा. उपाश्रय मध्ये आव्याने बोलाववानी जयणा. १३. तथा थापना घर कल्पीत होय तिहां नित्ये आहार अर्थे न जावं. १४. तथा परिणातीनो संघवी थइ सचित्तपरिहारि प्रमुख छ-री पालतो न होय ते साथे यात्राए न जावं, कारणे जयणा.. १५. स्थलभंडारनुं पुस्तक परगामें लेइ न जावं, कारणे लेइ जाय तो ४ गृहस्थने पूछीने लेइ जावू, वर्ष २ मधे पोहचाडवू. १६. सामान्य यतिए स्त्रीने आलोयण न देवी. १७. तथा वडलहुडाइ व्यावरन विधि साचववो अने जो कदाचित् व्यानादिक २६नो वडेराने कर्यानी जयणा. १८. परणातिमां समग्र घर थया विना साधारणादि न लेवं, पर-समवायी गुणानुरागे आवे तो ते समवायनी स्थितिमर्यादा दानादिक छंडावईं नहिं. १९. तथा जे आवीने क्रियाव्यवहारमा भलाई तेहने नि:परिग्रहीपणुं अने योगादि क्रिया सकल विधि मोटा मर्यादापट्टक प्रमाण साचवतो जाणीए तो एक मांडलें आहारादि विधि साचववो, अन्यथा तेहने आहारादि देवो पण ते पासे अणाववो नहि. २०. जिवार लगें गछनायकनो दिग्बंधादि करीए तेणे संबंध टाळ्यो न होय तिवार लगें ते गच्छनायक मील्ये संजाय मांडली अने शय्या अने पाखि खामणादिक व्यवहार साचववो अने क्षेत्रादि शयणस्य व्यवहार गोचरी प्रमुख आर्द्रानक्षत्र पहेलां जवाइ इत्यादि व्यवहार साथें आदेश साचववो अने गच्छनायक गाम मध्ये छतें प्रभाते व्याख्यान न मांडवू, कारणे पाछले प्रहरे मांडे तो ना नहि. २१. अने गच्छनायके गछसंबंध टाल्या पछी मांडली व्यवहार नहि मिल्ये फेदावंदांन व्यवहार करवो, लोकसमक्ष अवर्णवाद न कहेवो, पूछे तेहने कहेवू जे अम्होने Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुमर्यादापट्टक ४६७ भिन्न कर्या छे ते माटे अलगा रहीए छे. २२. तथा पात्रे बेठा आहारादिकार्ये तथा अकुदिपणे थंडिलादिकार्ये तथा अगाढ कारणे एकलां जावं पण अन्यथा एकलां जावु नहि. २३. तथा सामान्य यतिए वाटें वोलाववो न लेवो, विशेष कारणे जयणा. गृहस्थादिक साथै आवीने लीए तो ना नथी. २४. तथा संवच्छरी पडीकम्योई संवछरी-दांने स्वसमवायी परसमवायी टाळवो नही अने तीर्थंकरनी भक्तिनी स्वगच्छी परगच्छी न जोवो, गुणानुरागबंधनई अंगीकार करवो. २५. तथा देवद्रव्य, ज्ञानद्रव्य, साधारणद्रव्यनी विशुद्धता जाणीए तेहy सांहमीवच्छल लेवू काराववू. ज्ञाति विवाहादिक तो जिनधर्मनी शोभा दिसे तिम वर्तवं. गृहस्थने ए रीते पण तिहां साधुए जाणी अंधल-सामल करी पक्षपात न करवो. २६. अने कोइ यतिए गृहस्थने छंदे प्रवर्तीने गछ गछनायकथी विपरीतपणे करी पोताना पक्षपाते न करवा अने गुणानुरागे रागी यथा गृहस्थ ते पण पोतानो धर्म रहे ते तेहने जणावq पण तेहनी वृत्ति भाजे एम व्युद्ग्राहित न करवा. २७. तथा रात्रे धर्मजागरिकानी थाती होय तिहां यतिए न रहेg, गृहांतरे श्रावकधर्म जागे तो सांभले, ऊदेरी जावु नहि अने दिवसे श्राविका गीतगानादि करे तो सांभले अने रात्रे श्रावक धर्मजागरिका करे तो सांभले अने मासकल्पादि गृहे पालटतें पदस्थादिकने पण अविकार धर्मजागरिका गृहांतरे करे पण एक वसतिमां न करे अने कोइ विशेष कार्ये लाभालाभ देखीने तो ना नहि. २८. सामाचारी गुरुपरंपरागत श्रावकने उपघान वह्या विना मांडलीमध्ये आदेश विशेष पर्वे न देवो, साहमीवछलादि विशेष योगे ना नही. २९. साध्वी न करवी, कदाचित स्वयंबंधिनी होय तो ४० वर्ष पछी देवानी जयणा अने परगच्छी आवे तो वडेराने पूछीने राखवी. ३०. गीतार्थ विना व्याख्यान न करवं. जघन्यथी समवायांग सूत्र गमा मेलवी जाणे, संस्कृतभाषानिपुण, श्रद्धावंत, शुद्ध प्ररूपक, भाषा कुशील नहि, सुशील गच्छनायकनो दिग्बंधी ते गीतार्थ व्याख्यान करवानो अधिकारी. एकली श्राविकानी पर्षदा आगले व्याख्यान न करवू, रोगादिक कारणे जयणा. ३१. विशेष कारण विना पहेली ६ घडी दिन पाछली ४ घडी मध्ये आहार न करवो. वसति बाहिर न नीकळवू, कारणविशेषे वडाने पूछीने जावानी जयणा. ३२. मांडली विना विगयादि सरस आहार न करवो, पारणादिकने कामे शीतल Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह اله भक्तादिकनी जयणा. ३३. षट्पर्वीए विगय न लेवी, विशेष तपादिकनी जयणा. ३४. वसति पोतानी निश्राए न करवी अने बीजाने उतरवानो एक समाचारीनाने बाध न करवो. पात्रादि धर्मोपकरण नवदीक्षित मनोरथे वेचातां लीए पण पोतानी निश्राए न लेवां. ३५. शिष्यादिक लेतां धनादिकनी सहाय करवी ते दीक्षा लीधा पछी ते गुणवंत थयो जाणी तेहना संबंधो श्रावकने शासनशोभा माटे धर्मरुचि प्राणी ते सहाय करे पण यतिए तेहनी उदीरणा न करवी अने पहेलां साहाय द्रव्यनुं करावीने दीक्षा न देवी; नवदीक्षित शिष्यनें गृहस्थ गृहस्थिणी साथे आलापसंलाप न करवो, गृहस्थ गृहे भणवा-भणाववादिकें जावानो प्रसंग न करवा देवो. वस्त्रपात्रादिकनो खप होय तिवारे जे प्रवर्तक होय तेहने कहेवू, वडलहुडाई वस्त्र कराववी कल्पक १, कांबली १, चोलपट १, संथारीयुं उत्तरपट्टो १, लुंछणो १, मुहपत्ति २ अने पात्रांनां उपगरण पात्रा सामान्य यतिने ढाकणा सहित ५ तथा ७ पट्ट(पद)स्थने, विशेष कामें अधिकनी जयणा. पात्रां पण कालां रोगान विना राखवा. पदस्थने आहारनुं तथा पाणी पीवानो चेतनो सफेद वर्णे राखवो. ३७. तथा नवदीक्षित शिष्यने विशेष ज्ञान तप वेयावचादि कला गुण नीपना विना संसारीया मध्ये विहार न करवो. ३८. तथा अवधादिक द्रव्य एकना गृहथी लेइ स्वनिश्राए गृहांतरे न मुकवो. ३९. तथा कुणे स्वसमाचारीना गीतार्थ तथा स्वपरिणति समुदाय मुकीने अपरमत गच्छना यति पासे भणवा न जावं. ४०. सात क्षेत्रमाने नामे द्वव्य जे श्रावके कर्या होय तिहांथी लई अपर श्रावक पोतानो मेलापी होय तिहांने घेर यतिए उदीरणा करी मुकाववो नहि, गृहस्थ मली मूके ते वारु; तीर्थादिकने ठामे विशेष कारणे जयणा. ४१. तथा विद्यमान गच्छनायके संबंध टाल्यो होय तोहे पण अपरगच्छनायकने न आश्रया होय तिहां लगे गच्छ तथा गीतार्थनी निश्रा न मुकवी, दिग्बंध तेहनो राखवो अने जो अपरगच्छनायक करे ते पण पोताना गुरवादिकना अनुयोग होय ते परंपरानो गच्छनायक पंच संमत सूरिमंत्रना पीठ संस्थापनयुक्त करीने तेह निश्रा पण वर्जवी. ४२. तथा एक सामाचारीना गीतार्थ एक वसति मध्ये होय तो वडलहुडाइए पटीउं आपq पण गृहस्थने पक्षपातें क्लेश उदीरवो नही, तेहनी आज्ञाथी व्याख्यानादिकनो . Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुमर्यादापट्टक ४६९ व्यवहार साचववो. इत्यादिक मर्यादापट्टक सर्वसंवेगी समुदायें पालवा-पलाववा विशेष बोल श्री जगचंद्रसूरिकृत मोटा पट्टाथी जाणवा, तद्दनुसार श्री आणंदविमलसूरिप्रसादिकृत ५७ बोल, भ. श्रीहीरविजयसूरिप्रसादीकृत ३६ बोल, भ. श्री विजयदानसूरिप्रसादीकृत ३५ बोल एवं भली रीते मर्यादा पालवी. अत्र पं. जयसोमगणीमतं, पं. जसविजयगणी ग०, सत्यविजय ग. ऋद्धिविमल ऋ०, मणीचंद्र ऋ०, वीरविजय. (वीजापुर जैन ज्ञानमंदिर) [जैनाचार्य श्री आत्मानंद जन्मशताब्दी स्मारक ग्रंथ, गुजराती विभाग, पृ.२२१-२४] Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० यशोविजयगणिकृत १०८/१०१ बोल (आ बोल धर्मसागरकृत 'सर्वज्ञशतक' नामना ग्रंथमां जे अप्रमाण अथवा अस्पष्ट श्रीमद् यशोविजयजीने लाग्युं ते स्पष्टपणे दर्शाववा लख्या छे एवं जणाय छे. आनी हस्तलिखित प्रत एक ग्रेज्युएट तरफथी मळी हती तेथी तेनो उपकार मानीए छीए.) [आ ज प्रतने आधारे यशोदेवसूरिए करेलु संपादन १०८ बोलसंग्रह आदि पंचग्रन्थी' (१९८०)मां छपायेलुं छे, पण एमने प्रतनुं पहेलुं पार्नु मळ्यु नथी एटले कृतिनो आरंभ खंडित छे. यशोदेवसूरिनो पाठ श्री देशाईनी केटलीक सरतचूको सुधारवामां काम आव्यो छे, जोके सामे यशोदेवसूरिना पाठमां पण कोईक सरतचूक नजरे चडी छे. कांनी स्वलिखित प्रतने आधारे मुनि शीलचंद्रविजये करेलुं संपादन 'अनुसंधान ७' (१९९६)मां छपायेल छे. एनो लाभ अहीं शुद्धिवृद्धिमा लीधो छे, जोके स्वलिखित प्रतना कोईक पाठ पण भ्रष्ट के शंकास्पद होय एवं जणाय छे. कोईक छापभूल पण हशे. स्पष्टपणे भ्रष्ट पाठ (के छापभूल) लाग्या तेनी नोंध लीधी नथी, पण विकल्पात्मक स्थिति लागी त्यां पाठांतर रूपे नोंध लीधी छे. कृतिने अंते १०८ बोल होवानुं दर्शाववामां आव्युं छे, पण वस्तुत: १०१ बोल छे. ए स्पष्ट छे के देशाईए अर्वाचीन भाषारूप करी नाख्युं छे – ‘घटइ'ने स्थाने 'घटे' वगेरे. जवल्ले ज अर्वाचीन पर्यायशब्द पण मूकेल छे. आवा स्वल्प फेरफारो पछी पण भाषा मध्यकालीन ज रहे छे. त. नयविजयशि. प्रसिद्ध न्यायाचार्य उपाध्याय यशोविजय सं.१७मी सदी उत्तरार्ध - सं.१८मी सदी पूर्वार्धमां थई गया. एमनी संख्याबंध कृतिओ संस्कृत, प्राकृत, गुजरातीमां मळे छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ भा.४, पृ.१९३-२३४ तथा गुजराती साहित्यकोश खं.१, पृ.३३२-३३. आ कृति ए बन्नेमां नोंधायेली नथी. - संपा.] सर्वज्ञशतकादिक ग्रन्थ मांहेना विरुद्ध बोल जे धर्मपरीक्षा ग्रन्थ मांहे देखाड्या छे ते मांहेना केटलाक मतभेद जाणवाने अर्थे लखीए छीए. _ 'उत्सूत्रभाषीने अनन्तो ज संसार होय' एवं लख्यु छे ते न घटे; जे माटे महानिशीथादिक ग्रन्थने विषे अध्यवसायविशेषनी अपेक्षाए तीर्थंकरनी महा अशातनाना करनारने संख्यातादिक त्रण भेदे संसार कह्यो छे; तथा मरीचि प्रमुख उत्सूत्रभाषीने असंख्यातादिक संसार पण शास्त्रे छे. १ 'निह्नव तीर्थोच्छेदनी बुद्धिथी उत्सूत्र भाखे ते माटे तेने अनंतो ज संसार होय; यथाच्छंद ते रीते उत्सूत्र न भाखे ते माटे तेहने अनन्त संसारनो नियम न होय' एवं Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोविजयगणिकृत १०८/१०१ बोल ४७१ लख्यु छे, ते न घटे; जे माटे यथाच्छंदने पण सूत्रोच्छेदनो परिणाम होय; अने तीर्थोच्छेदनी परे सूत्रोच्छेद पण योगवीसी प्रमुख ग्रन्थमां भारे कह्यो छे. २ 'नियत उत्सूत्र भाखे ते निह्नव, अनियत उत्सूत्र बोले ते यथाच्छंद' एबुं लख्यु छे तिहां उत्सूत्रकंदकुद्दाल विना बीजी कांइ साक्षी नथी. ३ 'यथाच्छंदने उत्स्त्र बोल्यानो निर्धार नथी' एवं लख्युं छे ते न मले, जे माटे आवश्यकव्यवहारभाष्यादिक ग्रंथमां यथाच्छंद उत्सूत्रचारीने उत्सूत्रभाषी ज कह्यो छे. ४ ___'नियत उत्सूत्रथी अनियत उत्सूत्र हलवू ज होय' एवं कहें छे ते न घटे, जे माटे एक जातिने पापे हिंसादिक आश्रवनी परे नियतानियतभेदे फेर कह्यो नथी. ५ कीधा पापर्नु प्रायश्चित ते ज भवे आवे पण भवान्तरे न आवे' एवं लख्युं छे ते न घटे, जे माटे पंचसूत्रचतु:शरणादि ग्रंथने अनुसारे भवान्तरना पापर्नु पण प्रायश्चित्त जणाय छे. ६ ___ 'अभव्यने अनाभोगरूप एक ज अव्यक्तमिथ्यात्व होय [गुणठाणुं न कहीए]' एवं व्याख्यानविधिशतकमां लख्यं छे ते अयुक्त छ, जे माटे गुणस्थानक्रमारोहादिक ग्रन्थे अभव्यने व्यक्ताव्यक्त बे प्रकारे मिथ्यात्व कह्यो छे. ७ वळी त्यां एवं लख्यु छ जे 'एक पुद्गळ परावर्त संसार शेष जेने होय तेने ज व्यक्तमिथ्यात्व कहीए' ते सर्वथा न घटे, जे माटे तेथी अधिक संसारी पण पाखंडी व्यक्तमिथ्यात्वी ज कह्या छे. [अने व्यक्तमिथ्यात्व ते गुणठाणुं छे.] ८ 'अनाभोगमिथ्यात्वे वर्तता जीवने, न मार्गगामी वा उन्मार्गगामी कहीए' एवी कल्पना करी छे ते कोई ग्रंथमां नथी, अने एम कहेतां सघळे त्रण राशि कल्पाय. ९ 'अभव्य अव्यवहारीआ' कह्या छे ते उपदेशपदादिक ग्रंथ साथे तथा लोकव्यवहार साथे पण न मळे. १० _ 'व्यवहारीआ जीव सर्व आवलिकाना असंख्येयभागसमयप्रमाण पुद्गलपरावर्त पछी अवश्य मोक्षे जाय' एवं लख्यु छे त्यां कोइ ग्रंथनी साक्षी नथी, सामु भुवनभानुकेवळिचरित्र, योगबिंदु प्रमुख ग्रंथनी मेळे व्यवहारीआ थया पछी अनंत पुद्गलपरावर्त्त पण दीसे छे. ११ 'सूक्ष्म पृथिव्यादिक ४ तथा निगोद २, ए छ भेद अव्यवहारीआ कहीए' एवं लख्युं छे ते न घटे, जे माटे उपमितिभवप्रपंचा नय[सनय/समय]सारसूत्रवृत्ति, भवभावनावृत्ति, श्रावकदिनकृत्यवृत्ति, पुष्पमाळावृत्ति, धर्मरत्नप्रकरणवृत्ति, संस्कृतनवतत्वसूत्रादिक ग्रंथनी मेळे प्रगट ज बादरनिगोदादिक व्यवहारीआ जणाय छे, एक सूक्ष्म निगोद ज अव्यवहारीआ कह्या छे. १२ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह ____ ए उपमितिभवप्रपंचादिकनां वचन, पनवना साथे विरुद्ध अनाभोगपूर्वक (छे?)' एवं लख्यु छे ते पूर्वाचार्योनी आशातनानुं वचन, जिनशासननी प्रक्रिया जाणे ते केम बोले ? १३ 'अभव्य व्यवहारीआथी तथा अव्यवहारीआथी बाह्य छे' एवं पण व्याख्यानविधिशतकमां लख्यु छे ते पण कल्पना मात्र ज. [जे माटइ अव्यवहार निगोदमां अभव्यनी विवक्षा नथी, आपातमात्रइ संभव हो तो हो, पणि बहुथी बाह्य कल्पना नथी.] १४ ___ 'अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व आभिग्रहिक सरखं आकरूं' एवं तत्र जे लख्यं छे ते पण न घटे, जे माटे योगबिंदु प्रमुख ग्रंथमां अनाभिग्रहिक आदि धर्मभूमिका [गुण] रूप दीसे छे. १५ 'मिथ्यात्वीने देवाराधन अध्यवसाय जीवहिंसादिक अध्यवसायथी पण घणुं दुष्ट' एवं सर्वज्ञशतकमां लख्यु छे, ए एकांत ग्रहवो ते खोटो, जे माटे आदि धार्मिकने साधारणदेवभक्ति, योगबिंदु प्रमुख ग्रंथमा संसारतरणनो हेतु कही छे. १६ 'मिथ्यात्वीना गुण ते सर्वथा ज गुणमां न गणाय' एवं कहे छे ते पण न घटे; जे माटे मिथ्यादृष्टिना गुण आव्ये ज सुंधुं पहेलुं गुणठाणुं होय, एवं योगदृष्टिसमुच्चय ग्रंथमां कडं छे. १७ ___ 'परसमयमां न कही, ने स्वसमयमां कही एवी क्रिया, सुपात्रदान, जिननी पुजा, सामायिक, प्रमुख मार्गानुसारीपणानुं कारण' एवं कर्तुं छे ते पण एकांत न घटे, जे माटे उभयसंमत दयादानादिक क्रियाए पण मार्गानुसारिपणुं योगबिंदु प्रमुख ग्रंथमां कडं छे. १८ 'उत्कर्षथी अपार्धपुद्गलपरावर्त्त शेष संसार होय, ते ज मार्गानुसारी' एवं लख्यु छे ते पण विचारवं, जे माटे उपदेशपदमां वचनौषधप्रयोगकाळ, चरम पुद्गलपरावर्त्त ज कह्यो छे तथा योगबिंदु, वीसवीसी प्रमुख ग्रंथानुसारे पण एक चरम पुद्गलपरावर्त मार्गानुसारीनो काल जणाय छे. १९ _ 'सम्यक्त्वथी घणो ढुकडो ज मार्गानुसारी होय ते संगम-नयसारादिक सरखो ज, पण बीजो न कहीए' एवं कहे छे ते न घटे, जे माटे अपुनर्बंधक १, सम्यक्दृष्टि २, चारित्री ३, ए त्रण शास्त्रे धर्माधिकारी कह्या छे ते तो आपआपणे लक्षणे जाणीए पण एक एकथी ढुकडापणानो तंत नथी ते माटे जेम सम्यग्दृष्टि चरित्रथी वेगळो पण पामीए, तेम मार्गानुसारी सम्यक्त्वथी वेगलो पण होय ते वातनी ना नहीं. २० 'मिथ्यात्वीनी दया व्याधादिकना मनुषपणाने सरखी' एवं लख्युं छे ते महाद्वेषनुं Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोविजयगणिकृत १०८/१०१ बोल ४७३ वचन; जे माटे अपुनर्बंधकना दयादिक गुण उपदेशपदादिक ग्रंथमां वीतराग देवनी सामान्य देशनाना विषय कह्या छे. २१ ___ 'जननी क्रियाए अपुनर्बंधक होय पण अन्यदर्शननी क्रियाए न होय ज' एवं जे कां छे ते न मानवं; जे माटे सम्यग्दृष्टी स्वशास्त्रनी ज क्रियाए होय अने अपुनर्बंधक अनेक बौद्धादिक शास्त्रनी क्रियाए अनेक प्रकारनो होय एवं योगबिंदु प्रमुख ग्रंथमां कडं छे. २२ _ 'असद्ग्रहपरित्यागेनैव तत्त्वप्रतिपत्तिार्गानुसारिता' एवं वंदारवृत्तिमां कर्तुं छे ते माटे 'जैनशासनना तत्व जाण्या विना मार्गानुसारी न होय ज' एवो एकान्त पण न घटे, जे माटे ए तंत ग्रहतां मेघकुमार हस्तिजीवने पण मार्गानुसारिपणुं न आवे, योग्यता लइए तो कोइ दोष नथी. २३ ___भगवतीसूत्रमा ज्ञानरहीत क्रियावंत देशाराधक कह्यो छे ते भांगानो स्वामी खारीने टीकामां बालतपस्वी वखाण्यो छे ते मार्गानुसारी ज मिथ्यात्वी होय ए अर्थ उवेखीने ए भांगानो स्वामी द्रव्यक्रियावंत अभव्य जे कहे छे आप-छंदे ते न घटे, जे माटे अभव्यादिकने देशथी आराधकपणुं नथी. 'व्यवहारे अराधकपणुं तेहने छे' ते पण न घटे, जे माटे ए मुग्ध व्यवहार लेखामां नहि. लिंगव्यवहारनी परि क्रियाव्यवहार पण अपुनबंधकादि परिणाम विना पंचाशकादिक ग्रंथे निरर्थक कह्यो छे. २४ 'निह्नवे क्रियाज्ञा नथी भांगी अने सत्काज्ञा [सम्यक्त्वाज्ञा] भांगी छे ते माटे देशाराधक तथा देशविराधक कहिये' एवं लख्युं छे ते सर्व विरूद्ध, जे माटे ते सर्वया आज्ञाबाह्य ज कह्या छे. २५ _ 'जेने ज्ञान छते पाम्या चारित्रनो भंग होय अथवा चारित्रनी अप्राप्ति होय ते देशविराधक' एवं भगवतीसूत्रनी वृत्तिमा लख्युं छे तेमां ‘चारित्रनी अप्राप्ति देशविराधक न घटे' एवं लख्युं छे ते प्रगट पूर्वाचार्यनी आशातनानुं वचन, जे माटे परिभाषा लेतां कोई दोष नथी. २६ 'सव्वप्यवायमूलं दुवालसंगं जओ जिणक्खायं, रयणागरतुल्लं खलु तो सव्वं सुंदरं तमि.' ए उपदेशपद गाथामा अन्य दर्शनमा पण जीवदयादिक सुंदर वचन छे ते दृष्टिवादना, ते माटे तेनी आशातनाए दृष्टिवादनी आशातना थाय एवो अर्थ छे ते उथाप्यो छे. २७ तेनी वृत्तिमां ‘उदधाविवेत्यादि काव्यनी साक्षी लखी छे ते अयुक्त' एवं का छे. २८ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह ते काव्यनो अर्थ फेरव्यो छे. २९ 'मिथ्यात्वीनी क्रिया आंबाना फळना अर्थीने वटवृक्ष सरखी; चारित्र रहित ज्ञान पोस मासे आंबा सरखं' एवं लख्युं छे, त्यां ए ओछु जे अपुनर्बधादिक क्रिया आंबाना बीजांकुर आदि सरखी गणी नथी. श्री हरिभद्रसूरिना घणा ग्रंथमा ए अर्थ प्रगट छे. ३० _ 'लौकिक मिथ्यात्वथी लोकोत्तर मिथ्यात्व भारे' एवं लख्युं छे ते पण एकांत नथी, जे माटे बंधनी अपेक्षाए लौकिक पण भारे दीसे छे. योगबिंदुमां भिन्नग्रंथी- मिथ्यात्व हलवं कर्तुं छे, अभिन्नग्रंथी- भारे का छे. ३१ 'अनुमोदना तथा प्रशंसा ए बे भिन्न कहीए' एवं लख्युं छे ते न घटे, जे माटे पंचाशकवृत्ति प्रमुख ग्रंथमा प्रमोदप्रशंसादिकलक्षण अनुमोदना कही छे. ३२ 'मिथ्यादृष्टिना दयादिक गुण पण न अनुमोदवा' ए कहे छे ते न घटे, जे माटे परसंबंधिया पण दानरुचिपणा प्रमुख सामान्य धरमना गुण अनुमोदवा योग्य आराधनापताकादिक ग्रन्थमां कह्या छे. तथा साधारणगुणप्रशंसा ए धर्मबिन्दुसूत्रमा पण लोक लोकोत्तर साधारण गुणनी प्रशंसा करवी कही छे. ३३ ___ 'मिथ्यात्वीना दयादिक गुण प्रशंसीए पण अनुमोदीए नहीं' एवं कहे छे ते मायानुं वचन, जे माटे खरी प्रशंसाए अनुमोदना ज आवे अने खोटी प्रशंसानो तो विधि न होय. ३४ ___“सम्यग्दृष्टि ज क्रियावाळी होय' एवं कहे छे ते न घटे, जे माटे एक पुद्गलपरावर्त्त शेष संसार क्रियारुचि क्रियावादी दशचूर्णि प्रमुख ग्रंथे कह्यो छे. ३५ _ 'मिथ्यात्वीने दयादिक गुणे करी पण सकाम निर्जरा न होय' ए, लख्यं छे ते न घटे. जे माटे मेधकुमारनो जीव हस्ति प्रमुखने दयादिक गुणे संसार पातलो थयो ते सूत्रे ज का छे ते सकाम निर्जरा विना केम घटे? तथा मोक्षने अर्थे निर्जरा ते सकाम निर्जरा कही छे. ३६ _ 'कविला इत्थंपि इहयंपि' ए वचन मरीचिनी अपेक्षाए उत्सूत्र नहिं अने कपिलनी अपेक्षाए उत्सूत्र, ते माटे ‘उत्सूत्रमिश्र कहीए' एवं लख्युं छे ते न घटे, जे माटे एम कहेता सिद्धांत वचन पण सम्यग्दृष्टि मिथ्यादृष्टिनी अपेक्षाए उत्सूत्रमिश्र थई जाय, तथा श्रुति भावभाषामिश्र होय ज नहि एवं दशवैकालिकनी नियुक्तिमां का छे. ३७ ‘मरीचिनुं वचन दुर्भाषित कहीए, पण उत्सूत्र न कहीए' एयूँ कहे छे ते न मिले, जे माटे पंचाशकवृत्तिमा ‘दुर्भाषित' पदनो अर्थ 'उत्सूत्र' कर्यो छे. ३८ _ 'उत्सूत्रलेश मरीचिनुं वचन कह्यु छे ते माटे 'उत्सूत्रमिश्र कहीए' एवं कहे छे ते न घटे, जे माटे द्रव्यस्तवमां भावलेश पंचाशकादिक ग्रन्थे कह्यो छे ते पण भावमिश्र Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोविजयगणिकृत १०८/१०१ बोल ४७५ होइ जाय. ३९ ‘इयमयुक्ततराद् दुरंतानंतसंसारकारणं' एवं श्राद्धप्रतिक्रमणचूर्णिमां कर्तुं छे तेहनो अर्थ ए, ए विपरीत प्ररूपणा, ‘घणुं अयुक्त दुरंतानंत संसार- कारण इहां' एवं लख्यु छे, ते दुरंतानंत शब्दनो अर्थ न मिले. दुरंत तो जेनो दु:खे अन्त आवे, अनंत ते जेनो अंत न आवे ते, ए पूर्वाचार्यना ग्रंथ खंडियानी खोटी कल्पना, जे माटे दुरंतानंत कहेतां महानंत कहीए. 'कालमणंतदुरंतं' ए उत्तराध्ययन वचनननी साखे ईहां कोई दोष नथी. ४० जिनवचननो दूषनार जमालिनी परे नाश पामे, अरघट्टघटीयंत्रन्याये संसारचक्रवाल भमे एवं सूयगडांगनियुक्तिवृत्तिमां कर्तुं छे ते माटे जमालीने अनंतो ज संसार' एवी कल्पना करे छे ते न घटे, जे माटे दृष्टांतमात्रे साध्यसिद्धि न होय; नहिं तो उत्सूत्रप्ररूपणा अनंतसंसारहेतु कही छे त्यां श्राद्धप्रतिक्रमणचूर्णि, श्राद्धविधि आदि ग्रंथमां मरीचि दृष्टांत कह्यो छे ते भणी मरीचि पण अनंतसंसारी होई जाय; तथा सूत्रविराधनाए अनंता जीव चतुरंत संसार जमालिनी परे भम्या एवं नंदिवृत्तिमां कर्तुं छे ते भणी जमालीने चारे गति होइ जोईए. ४१ _ 'जमाली णं भंते ! देवे ताओ देवलोगाओ कहिं गच्छिहिति कहिं उववज्जिहिति, गोयमा ! चत्तारिपंच तिरिक्खजाणिय-मणुअ देवभवग्गहणाइं संसारं अणुपरिअट्टित्ता तओ पच्छा सिज्झिहिति' ए भगवतीसूत्रमा ‘चत्तारि पंच' कहेतां नव भेद तिर्यंचना लेइ एम अनंता भव जमालीने थाय' एवं लख्युं छे ते न मले, जे माटे एवो विषम अर्थ पूर्वि कणि विवरीओ नथी तथा नव भेद तिर्यंचमां पण नियमे अनंता भव आवे नहि. ४२ कोईक 'तिर्यंचनी कायस्थिति लेइ जमालीने अनंता भव' कहे छे ते पण कल्पना मात्र, जे माटे सूत्रमा भवग्रहण ज कह्या छे. ४३ च्युत्वा तत: पंचकृत्वो भ्रान्त्वा तिर्यग्नृनाकिषु, अवाप्तवोधिनिर्वाणं जमालिः समवाप्स्यति. ए हैमवीरचरित्र श्लोकमां एवं कर्तुं छे जे जमालि त्यांथी चवी पांच वार तिर्यंच मनुष्य देवतामा भमी मोक्ष जशे, एथी अनंत भव नथी जणाता; तिहां कोई कहे छे जे ‘पांच वार तिर्यंचमां भमतां अनंत भव थाय' ते न मिले, जे माटे भवग्रहणे भमतां अनंत भव न घटे. ४४ ___'देवकिब्बिसिया णं मंते ! ताओ देवलोगोओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं गच्छिंति कहिं उववज्जिंति, गोयमा ! जाव चत्तारि पंच णेरइअतिरिक्खजोणिया-मणुस्सदेवभवग्गहणाइं संसारं अणुपरिअट्टित्ता तओ पच्छा सिझंति Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह बुझंति जाव अंतं करंति' ए सामान्य सूत्रे सामान्यथी देवकिल्विषियाने ‘चत्तारि पंच' शब्दथी अथवा 'जाव' शब्दथी जेम अनंतो संसार लीजे तेम जमालिन सूत्रे पण 'जाव' शब्द 'ताव' शब्द बाहिरथी लेई अनंतो संसार कहेवो' एवं लख्युं छे ते ताण्यु प्रतिभासे छे तथा ए सामान्य सूत्र ज एवं पण संभवतुं नथी, जे माटे अत्थेगइआअणादीयं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरिअट्टति' ए सूत्र अनंत संसार आगळ कर्वा छे ते भणी पहेलुं सूत्र जमालि सरिखा देवकिल्बिषियानुं ज संभवे. ४५ 'अत्थे गइआ' ए सूत्र अभव्य विशेषनी अपेक्षाए, जे माटे एमां छेडे निर्वाण नथी कां' एवं लख्यं छे ते पण न घटे, जे माटे 'असंवुडनई' सूत्रे पण छेडे निर्वाण कह्यो नथी; तथा भव्यविषय पण एवां सूत्र घणां छे. ४६ तिर्यग्-मनुष्यदेवेषु भ्रान्त्वा स कतिचिद्भवान्, भूत्वा महाविदेहेषु दूरान्निर्वृतिमेष्यति. ए उपदेशमालानी कर्णिका श्लोकमां तिर्यंच-मनुष्य-देवतामा केटलाक भव करी जमाली मोक्ष जशे एवं कर्तुं छे तेणे करी अनंता भव न आवे. तिहां कोईक कहे छे जे ‘आ भव लोकनिंदित केटलाक लीधा, बीजा सूक्ष्म एकेन्द्रियादिकमां अनंता जाणवा' ए पण घणुं ज ताण्डे जणाय छे, जे माटे नाम लेई व्यक्तिं भव कह्या ते स्थूल केम कहीए ? अने थाकता अनंता भव पण शाथी जाण्या ? ४७ __ 'कर्णिकामां दूरे मोक्ष जशे एवं कर्तुं ते माटे केटलाक भव कह्या तो पण थाकता अनंता लेवा' एवं लख्युं छे ते पण पोतानी ज इच्छाए, जे माटे तिर्यक्षु कानपि भवानतिवाह्य कांश्चिद्देवेषु चोपचितसंचितकर्मवश्यः । लब्ध्वा तत: सुकृत जन्म गृहे विदेहे जन्मायमेष्यति सुखैकखनिर्विमुक्तिम् ।। ए सर्वानंदसूरि विरचित उपदेशमालावृत्तिमा 'दूर' पद विना पण केटलाक भव कह्या छे. ४८ सिद्धर्षिनी हेयोपादेय उपदेशमालावृत्तिनी केटलीक प्रतोमां अनंता भव दीसे छे माटे ते प्रतनी अपेक्षा तेम कहेवी पण बीजा ग्रन्थनी अपेक्षाए परिमित भव ज जमालिने कहेवा एहवं परमगुरू वचन उवेखी अन्यथा एकांत अनंता भव जमालिने कहे छे ते नव घटे. ४९ तिर्यग्योनिक' शब्द ज सिद्धान्तशैलीए अनंत भवनो वाचक छे' एवं लख्यु छे तिहां 'तिर्यग्योनीनां च' ए तत्त्वार्थसूत्रनी साक्षी दीधी छे ते न घटे, जे माटे तत्त्वार्थसूत्रमा कायस्थितिने अधिकारे तिर्यंचने अनंतकाल स्थिति लखी छे पण तिर्यग्योनिक' शब्दशैलीए अनंता भव आवे एवं किहांई कह्यु नथी. ५० Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोविजयगणिकृत १०८१०१ बोल 899 'अशक्यपरिहार जीवविराधनाए केवलीने जीवदयानो काययत्न नि:फल थाय' एवं लख्युं छे ते न घटे, जे माटे देशना देतां अभव्यादिकने विषे जेम केवलीनो वचनयत्न निःफल न होय तेम विहारादिक करतां काययत्न पण जाणवो. ५१ तस्स असंवेयओ संवेयओ अ जाई सत्ताई, जोगं पप्प विणस्संति, णत्थि हिंसाफलं तस्स. ओघनियुक्ति गाथानो एवो भाव छ जे ज्ञानी कर्मक्षयने अर्थे उजमाल थाय तेने यतना करतां पण जीवने अणजाणवे तथा जाणतां पण यत्न करतां न राखी शकाय तेणे करी तेना योग पामी जे जीव विणसे छे तेनुं हिंसाफल सांपरायिक कर्मबन्धरूप नथी, केवल ईर्याप्रत्ययकर्म बंधाय; ईहां ज्ञानी ११ गुणस्थाननो ज जे ले छे तो न मिले, जे माटे सामान्यथी ज ज्ञानी इहां कह्यो छे अने अशक्यपरिहार तो योगद्वाराए केवलीने पण संभवे. ५२ 'जीवरक्षोपायना अनाभोगथी ज यतिने जीवघात होय तेटलो तो केवलीने न होय' एवं जे कहे छे ते न घटे, जे माटे ए रीते सहज ज केवलीने जीवरक्षा होय तो पन्नवणामां ३६मा पदे जीवाकुल भूमि देखी केवलीने उल्लंघन प्रलंघन क्रिया कही छे ते न मिले. ते आलावानो ए पाठ - कायजोगं जुंगमाणे आगच्छेज्ज वा गच्छेज्ज वा चिटेज णिसीएज्ज वा तुअट्टिएज्ज वा उल्लंघेज्ज वा पलंघेज्ज वा पाडिहारियं पीठफलगसेज्जासंथारं पच्चप्पिणिज्ज त्ति. ५३ वर्जना-अभिप्राय छते अनाभोगे जीवघात तथा तत्कृतकर्मबंधाभाव यतिने होय अने वर्जनाभिप्राय तो पोताने दुर्गतिहेतु कर्मबंध थातो जाणी होय ते भय केवलीने नथी ते माटे वर्जनाभिप्राय नथी, तथा अनाभोगे जीवघात नथी ए कल्पना खोटी, जे माटे अशुद्ध आहारनी पेरे जीवहिंसाए पण केवलीने स्वरूपे वर्जना-अभिप्राय होय तथा अवश्यभावि जीवघात पण संभवे, जेम नदी उतरता यतिने. ५४ । वीतराग गर्हणीय पापहिंसादिक कशुं न करे एवं उपदेशपदमां कर्तुं छे ते माटे द्रव्यहिंसा केवळीने न होय, जे माटे ते लोकदेखीती गर्हणीय छे' ए वात कही छे ते न मिले, जे माटे प्रतिज्ञाभंगे ज गर्दा होय पण लोकगर्हाए तंत नथी अने अकरणनियममा उपदेशपदनुं वचन छे ते भणी भावहिंसानो अकरणनियम ज केवलीने देखाड्यो छे. ५५ 'उपशांतमोहने मोहनीय कर्म छे ते माटे गर्हणीय हिंसानो प्रतिसेवा होय तोपण मोहनीयना उदय विना उत्सूत्र प्रवृत्ति न होय एवं लख्युं छे' ते न मळे, जे माटे प्रतिसेवीने उत्सूत्र प्रवृत्ति ज होय तथा अवश्यभावि द्रव्यहिंसाने दोष न कहीए तो ज अगीयार Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह गुणठाणे अप्रतिसेवीपणुं तथा सूत्रचारीपणुं घटे. ५६ 'गर्हणीय पाप मोहनीयमूळ; ते उपशान्तमोहने ज होय अने अगहणीय पाप अनाभोग मूळ आश्रवछायारूप क्षीणमोहने पण होय' एवं लख्यं छे ते कोइ ग्रंथथी मळे नहीं. आश्रवछाया कहेतां आश्रव ज आवे ते तो अगर्हणीय तुमारे मते भावपाप छे तेनी सत्ता क्षीणमोहने कहेतां घणुं ज विरुद्ध दीसे. ५७ ___'मोहनीय कर्मना उदयथी भावाश्रव परिणाम होय तेनी सत्ताथी द्रव्याश्रव परिणाम होय' एवं कहे छे ते न घटे, जे माटे एम कहेतां द्रव्यपरिग्रह पण धर्मोपकरणरूप केवळीने न जोईए. ५८ एणे ज करी उदित चारित्रमोहनीय असंयतिने भावाश्रवकारण प्रमत्तसंयतने पण सत्तावर्ति चारित्रमोहनीय द्रव्याश्रवनुं कारण तेमां अयतना सहित रागद्वेष ज प्रमाद गणीए तेथी प्रमत्तसंयत लगे द्रव्याश्रव होय अने अप्रमत्तने मोहनीय अनाभोगथी ते होय' ईत्यादिक कल्पना पण निषेधी जाणवी, जे माटे अप्रमत्तने द्रव्यपरिग्रहने ठामे ए युक्ति न मले तथा चारित्रमोहनीय सर्वने उदयथी भावाश्रव कहीए तो ४ गुणठाणादिक न घटे. केटलाकनो उदय लीजे तो ते यतिने पण छे. त्रण कषायनी उदयसत्तानी मेले भावाश्रव, द्रव्याश्रवनो परिणाम कहीए तो तेने क्षये छद्मस्थने पण द्रव्याश्रव न होवो जोईए तथा प्रमादे भावाश्रव कह्यो छे इत्यादिक न घटे. ५९. 'अयतनया चरन् प्रमादानाभोगाम्यां प्राणिभूतानि हिनस्ति' एवं दशवैकालिकसूत्रनी वृत्तिमा कयुं छे ते माटे प्रमाद-अनाभोग विना केवलीने द्रव्यहिंसा न होय' एवी मूळ युक्ति कहे छे तेह ज खोटी, जे माटे अवश्यभावी हिंसाना ए कारण न कह्या, केवळ अयतनाने उद्देशे ए कारण कह्यां, सघळे ए हेतु लीजे तो आकुट्टिकादिक भेद न मिले. ६० ___ 'केवळीने द्रव्यहिंसा होय ते सर्व प्रकार जाणतां हिंसानुबंधी रौद्र ध्यान होय' एवं कहे छे ते खोटुं, जे माटे एम कहेतां द्रव्यपरिग्रह छ तेहना सर्व प्रकार जाणतां संरक्षणानुबंधी रौद्रध्यान पण न वायुं जाय. ६१ प्रमत्तसंयत शुभयोगनी अपेक्षाए अनारंभी, अशुभयोगनी अपेक्षाए आरंभी, भगवत्तीसूत्रमा कह्या छे, त्यां 'शुभयोग ते उपयोगे क्रिया, अशुभयोग ते अनुपयोगे' एवं वृत्तिमा कयुं छे ते उवेखी अशुभयोग अपवादे कहे छे ते प्रगट विरुद्ध, जे माटे जाणी मृषावाद मायावट्टि[त्ति]या क्रिया भणी अप्रमत्तने पण प्रकट जणाय छे तथा अपवादे पण शास्त्ररीतिए बृहत्कल्पादिके शुद्धता ज कही छे तो अशुभयोग केम कहीए ? ६२ _ 'आरंभिकी क्रिया ६ गुणठाणे सदा होय' एवं लख्युं छे ते न घटे, जे माटे अन्यतर Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोविजयगणिकृत १०८/१०१ बोल प्रमत्तने कायदुः प्रयोगभावे ज आरंभिकी क्रिया पन्नवणासूत्रवृत्तिमां कही छे. ६३ 'केवळीने अपवाद न होय ज' एवं कह्युं छे ते न घटे, जे माटे निशाहिंडन श्रुतव्यवहार प्रमाण राखवा निमित्त अनेषणीय आहारग्रहणादिक अपवाद केवळीने पण कह्या छे. ६४ 'ते अनेषणीय आहारग्रहण केवळीने सावद्य नथी ते माटे तेहथी अपवाद न होय अने जो छद्मस्थ अनेषणीय जाणे तो केवळी भोजन न करे; केवळीनी अपेक्षाए व्यवहारशुद्धि एम न होय, ते भणी अत एव रेवती अशुद्ध जाणे छे ते भणी तेहनों कर्यो कोहलापाक महावीरे न लीधो' एवी कल्पना करे छे पण निरर्थक, जे माटे निशाहिंडनादिक छद्मस्थ दुष्ट जाणे छे तो पण भगवंते अपवादे आदर्यो छे तथा निषिद्ध वस्तुलाभ जाणी उत्तम पुरुषे आदरी ते अदुष्ट कही, अपवाद न कहीए तो अपवाद क्यांये पण न होय. ६५ “जाणीने जीव घात करे ते ज आरंभक कह्यो' एवं कहे छे ते न मिले, जे माटे एम कहेतां ऐकेन्द्रियादिक सूत्रे आरंभी कह्या छे ते न घटे. ६६ 'आभोगे जीवहिंसा अवश्यभावीपणे पण यतीने होय ज. नदी उतरतां जळ जीवविराधना होय छे ते पण सचित्तता निश्चय नथी ते भणी अनाभोगजन्यअशक्यपरिहारे' एवं कहे छे ते न घटे, जे माटे व्यवहार सचित्तता न आदए तो सघळे शंका न मिटे तथा नदीमां अनंतकाय निश्चये सचित्तपणे छे, आगमथी निश्चय ये पण देख्या विना अनाभोग कहीए तो विश्वासी पुरुषे कह्या जे वस्त्रादिके अंतरित सजीव तेनी विराधना पण अनाभोग थाय ६७ 'यतिने अनाभोगमूल ज हिंसा होय तेमां स्थावर, सूक्ष्म, त्रसनो अनाभोग केवलज्ञान विना न टळे अने कुंथु प्रमुख स्थूल त्रसनो अनाभोग घणी यतनाए टळे; अत एव नदी उतरतां जलसंयम दुराराधन को पण कुंथुनी उत्पत्ति थइ कहीआ ते माटे नदी उतरतां जळजीवने अनाभोगे संयम न भाजे' एवी कल्पना करे छे ते खोटी, जे माटे सनी परे स्थावरनो आभोग पण यतिने करवो कह्यो छे, अत एव ८ सूक्ष्मादिक जीवनी यतना दशवैकालादिक ग्रंथे प्रसिद्ध छे. ६८ ४७९ ‘एजनादिक्रियायुक्तस्यारंभाद्यवश्यंभावाद्यदागमः । ' 'जावणं एस जीवे एयइ वेयइ चलइ फंदइ ईत्यादि यदारंमे वट्टइ' इत्यादि एवं प्रवचनपरीक्षाए लुंपकाधिकारे क छेने सर्वज्ञशतके केवलीने अवश्यंभावीपणे आरंभ निषेध्यो छे ए परस्पर विरुद्ध. ६९ ‘विनापवाद जाणी जीवघात करे ते असंयत होय' एवं कहे छे ते खोटुं, जे Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह माटे अपवादे आभोगे, हिंसाए पण जेम आशयशुद्धताथी दोष नहीं तेम अपवाद विना अशक्यपरिहार जीवविराधनाए पण आशयशुद्धताए ज दोष न होय, नहीं तो विहारादिक क्रिया सर्व दुष्ट थाय. सिद्धांतथी विराधनानो निश्चय थये पोताने अदर्शनमात्रे जो विहारादिक क्रियामा जे विराधना छे ते अनाभोगे ज कहीए तो निरंतर जीवाकुल भूमि निर्धारी, तिहां रात्रिविहार करतां विराधनानो अनाभोग ज कहेवाय. ७० 'नदी उतरतां आभोगे जळजीवविराधना यतिने होय तो जळजीवघाते विरति परिणाम खंडित होय ते भणी देशविरति थाय जाणीने एकव्रतभंगे सर्वविरति रहे तो सम्यग्दृष्टि सर्वने चारित्र लेतां बाधक न होय' एवं कहे छे ते न घटे, जे माटे नदी उतरतां द्रव्यहिंसाए आज्ञाशुद्धपणे ज दोष नथी. तथा सम्यग्दृष्टियोग्यता जाणीने ज चारित्र आदरे, जेम व्यापारी व्यापार प्रते. पछे थोडी खोटी होय अने संभाळी ले तो बाधा नहीं, पण पहेलां खोटी जाणी कोई सबलो व्यापार आदरे नहीं ते प्रीछवं. ७१. __'अपवादे जिननो उपदेश होय पण विधिमुखे आदेश न होय' एवं कहे छे ते खोटुं, जे माटे छेदग्रंथे अपवादे घणां विधिवचन दीसे छे. ७२ 'वस्त्रे गळ्युं ज पाणी पीq - इहां पीवानो सावधपणा माटे विधि नहीं पण गळवानो ज विधि' एवं कहे छे ते न मिले, जे माटे गाळ्युं पाणी पण शास्त्रे कर्तुं छे. यतः उस्सिंचणगालणधोअणे य अवगरणकोसभंडे य, वायर आउक्काए, एयं तु समासओ सत्थं. इति आचारांगसूत्रस्यनिर्युक्तौ ७३ 'द्रव्यहिंसाए द्रव्यथी हिंसानु पच्चखाण भांगे' एवं कहे छे ते न घटे, जे माटे धर्मोपकरण राखतां द्रव्यथी परिग्रहनु पच्चखाण भांगे एवं दिगंबरे कर्तुं छे तिहां विशेषावश्यके द्रव्यक्षेत्रकाळथी भावनु ज पच्चखाण होय पण केवळ द्रव्यथी भंग न होय ए रीते समाधान कर्यु छे. ७४. 'श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रवृत्तिमां हिंसानी चोभंगीमां 'द्रव्यथी तथा भावथी न हिंसा, मनोवाक्कायशुद्ध साधुने' ए भांगो कह्यो छे तेनो स्वामी १३मा गुणठाणानो धणी ज, जे फलावे छे अने १४मा गुणठाणानो धणी निषेधे छे. मनवचनकाययोग विना तेथी शुद्ध न कहेवाय, जेम वस्त्र विना वस्त्रे शुद्ध न कहीए ते भणी' ते खोटुं, जेम जळस्नाने जळy संसर्ग टळ्या पछी पण जळे शुद्ध कहीए तेम अयोगीने योग गया पछी पण योगे शुद्ध कहीए, ते माटे साधु सर्वने जे वारे द्रव्यहिंसा गुप्तिद्वाराए न होय ते वारे ४थो भांगो घटे. ७५ 'द्रव्यहिंसा पण हिंसादोषस्वरूप' एवं कहे छे ते न घटे. जे माटे Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोविजयगणिकृत १०८/१०१ बोल ४८१ 'समितस्येर्यासमितावुपयुक्तस्य याहत्य कदाचिदपि हिंसा भवेत्सा द्रव्यतो हिंसा, इयं च प्रमादयोगाभावात्तत्वतोऽहिंसेव मंतव्या प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा' ' ( तत्त्वार्थ) इति वचनात् ' ए बृहतकल्पनी वृत्तिवचने अप्रमत्तने द्रव्यथी हिंसा ते अहिंसा ज जगाय छे. ७६ बृहतकल्पनी भाष्यवृत्तिमां वस्त्रछेदनादि व्यापार करतां जीवहिंसा होय, जे माटे ‘ज्यां सुधी जीव चाले हाले त्यां सुधी आरंभ होय' एवं भगवतीसूत्रमां कह्युं छे एवं प्रेरके कह्युं ते उपर समाधान करतां आचार्ये ए भगवतीसूत्रना आलावानो अर्थ भिन्न न कह्यो; केवळ एम ज कह्युं जे आज्ञाशुद्धने द्रव्यथी हिंसा ते हिंसामां ज न गणी . यतः 'यदेवं 'योगवन्तं' छेदनादिव्यापारवन्तं जीवं हिसकं त्वं भाषसे तन्निश्चीयते सम्यक् सिद्धान्तमजानत एवं प्रलापः सिद्धान्ते योगमात्रप्रत्ययादेव न हिंसोपवर्ण्यते, अप्रमत्तसंयतादीनां सयोगिकेवलिपर्यन्तानां योगवतामपि तदभावात्' इत्यादि तथा ‘आद्यभंगे हिंसायां व्याप्रियमाणकाययोजोऽपि भावत उपयुक्ततया भगवद्भिरहिंसक एवोक्त' इत्यादि. एकरी जे एम कहे छे केवलीना योगथी द्रव्यहिंसा न होय तेना मते अप्रमत्तना योगी ज द्रव्यहिंसा न होवी जोईए, जे माटे पहेले चोथे भांगे करी अप्रमत्तादिक सयोगी केवली तांई सरखाज जाण्या छे. तथा अप्रमतने ज द्रव्यहिंसा कही तेणे करी प्रमत्तसंयमने पण जे द्रव्यहिंसा करे छे ते सिद्धांत विरुद्ध; इत्यादिक घणुं विचारयुं. (७७) 'जावं च णं एस जीवे सया समिएयइ वेयइ [ चलइ फंदइ] जाव तं तं भावं परिणमइ तावं च णं एस जीवे आरंभइ सारंभइ समारंभइ' इत्यादिक भगवती मंडियपुत्रना आलावामां ‘इह जीवग्रहणेऽपि सयोग एवासौ ग्राह्योऽयोगस्य जनादेरसंभवात्' ए वृत्तिवचन उल्लंघीने ‘सयोगीजीव केवलि व्यतिरिक्त लेवो' एवं लख्युं छे ते प्रकट ह जणाय छे. ७८ " ज्यां सुधी एजनादि क्रिया त्यां सुधी आरंभादिक ३नो नियम न घटे, ते माटे आरंभादिक शब्दे योग ज कहीए. योग होय त्यां सुधी अंतक्रिया न होय एवो ए सूत्रनो अभिप्राय' एवं कहे छे ते अपूर्व ज पंडित, जे माटे ए अर्थ वृत्तिमां नथी तथा आरंभादि अन्यतर नियमने अभिप्राये सुत्रे विरोध पण नथी, ए रीतीनां सूत्र बीजांए दीसे छे. तथाहिं 'जाव णं एस जीवे सया समियं एयइ जाव तं तं भावं परिणमइ ताव णं अट्ठविह बंध वा सत्ताविह वंधए वा छव्विह बंधए वा एगविह बंधए वा नो णं अबन्धए' Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह इत्यादिक तथा आरंभादिक त्रण शब्दे एक योगनो अर्थ ए पण संभवे इत्यादि विचारवं. ७९ 'तस्मात् . [तत्साक्षाज्जीवघातलक्षण आरंभो नांतक्रियाप्रतिबन्धकस्तदभावेऽन्तक्रियाया अभणनात् प्रत्युताऽन्निकापुत्राचार्यगजसुकुमालादि-दृष्टान्ते न सत्यामपि जीवविराधनायां केवलज्ञानान्तक्रिययोर्जायमानत्वात् कुतस्तत्प्रतिबंधकत्वशंकापि' एवं सर्वज्ञशतकमां लख्यं छे ते प्रगट स्वमतविरुद्ध. ८० शैलेश्यवस्थायां मशकादीनां कायसंस्पर्शेन प्राणत्यागेऽपि पञ्चधोपादानकारण योगाभावान्नास्ति बन्ध: उपशान्तक्षीणमोहसयोगिनां स्थितिनिमित्त कषायाभावात्सामयिक' इत्यादि आचारांग सूत्रनी वृत्तिमां कर्तुं छे के 'सेलेसि पडिवन्नस्स जे सत्ता फरिसं पप्प उद्दायंति मसगादी, तत्थ कम्मबंधो णत्थि सजोगिस्स कम्मबंधो दो समया' एवं आचारांग सूत्रनी चूर्णिमां कडं छे तिहां चउदमे गुणठाणे योग नथी, ते माटे तिहां केवलिकर्तृक मशकादिवध न होय. पण मशकादिकर्तृक ज होय, तद्गतोपादान कर्मबंधकार्यकारणभावप्रपंचने अर्थे ए ग्रंथ छे' एवी कल्पना कहे छे ते खोटी, जे माटे सामान्यथी साधुने अवश्यभावि जीवघातने अधिकारे ज ए ग्रंथ चाल्यो छे तथा चौदमे गुणठाणे मशकादिकर्तृक ज मशकादिघात कहीए, तो पहेला पण तेवो ज ते होय, युक्ति सरखी छे. ते माटे मोहनीय कर्म होय तिहां सुधी जीवघातकर्ता कहीए ए वचन पण प्रामाणिक नहीं, जे माटे प्रमादि ज प्राणातिपातकर्ता कह्यो छे, इत्यादिक इहां घणुं विचारवं. ८१ 'प्राये असंभवी, कदाचित् संभवे ते २ अवश्यभावि कहीए एवो द्रव्यवध [जीवघात] अनाभोगे छद्मस्थ संयतने होय पण केवळीने न होय' एयूँ कहे छे ते न घटे, जे माटे अनभिमतपणे पण अवर्जनीय ते अवश्यभावी कहीए तेवो द्रव्यवध अनाभोग विना पण संभवे, जेम यतिने नदी उतरतां. ८२ 'केवळीना योग ज जीवरक्षानुं कारण' एवं कहे छे तेना मते चौदमे गुणठाणे जीवरक्षा कारणयोग गया, ते माटे हीनपणुं थयुं जोइए. ८३ 'केवळीने बादर वायुकाय लागे ते वारे तथा नदी उतरतां अवश्यभाविनी जीवविराधना थाय तिहां जे एवं कल्पे छे, 'बादरवायुकाय अचित्त ज केवळीने लागे तथा नदी उतरतां केवळीने जळ अचित्तपणे ज परिणमे' तिहां कोई प्रमाण नथी, केवळीयोगनो ज एवो अतिशय कहीए तो उल्लंघन, प्रलंघन, प्रतिलेखनादि व्यापारनुं निरर्थकपणुं थाय. ८४ एणे ज करी ए कल्पना निषेधी जे केवळी गमनादिपरिणत होय ते वारे आपे Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोविजयगणिकृत १०५/१०१ बोल ४८३ ज कीडी प्रमुख जीव ओसरे अथवा ओसर्या ज होय पण केवळीनी क्रियाए प्रेरी क्रिया न करे, जे माटे एम कहेतां जीवाकुळ भूमि देखी केवळीने उल्लंघनादि व्यापार पन्नवनासूत्रमा कह्यो छे ते न मिले तथा वस्त्रप्रतिलेखना पण न मिले. ८५ ___ 'अभयदयाणं' ए सूत्रनी मेळे भगवंतना शरीरथी जीवने सर्वथा भय न उपजे' एवं कहे छे ते न मिले, जे माटे भगवंत वस्त्रादिकथी जीव अलगा मूके तेने भय विना अपसरण न संभवे तथा ‘अभयदयाणं' ए वचने केवळीना शरीरथी कोइने भय न उपजे एवं कल्पीए तो ‘मन्ता मतिमं अभयं विदित्ता' इत्यादिक सूत्रनी मेळे यतिमात्रना शरीरथी जीवने भय उपजवो न घटे. ८६ श्री वर्धमानने देखी हाली नाठो त्यां कोइ एम कल्पना करे छे जे 'तिहां हालीना योग कारण पण भगवंतना योग कारण नहीं' ते अति खोटुं, जे माटे 'भगवतं दद्रुण धमधमेइ' एवं व्यवहारचूर्णिमां कर्तुं छे तेने अनुसारे भगवंतना योग ज तिहां कारण जणाय छे तथा अन्यकर्तृक भय १३मे गुणठाणे होय तो १४मा गुणठाणानी परे अन्यकर्तृक हिंसा पण होवी जोईए ते तो स्वमतविरुद्ध. ८७ ___'सव्वजीयाणमहिंसं' इत्यादिक सूत्रनी मेळे जे केवळीने अवश्यभाविनी हिंसा उथापे छे तेने मते 'हिंसाइ दोससुन्ना' इत्यादिक सूत्रनी मेळे सामान्य साधुने पण ते उथापी जोईए. ८८ - 'जळचारणादिक लब्धिमंत यतिने जळादिकमां चालतां जलादिक जीवनो घात जो न होय तो सर्व लब्धिसंपन्न केवळीने ते केम होय' एवं कहे छे ते न घटे, जे माटे लब्धिफळ सर्व केवळीने छे, तो पण लब्धिप्रयोग नथी. ८९ । __'घाति कर्मक्षयथी उपनी जीवरक्षाहेतु लब्धि प्रयुंज्या विना ज केवळीने होय' एवं माने छे तेने मते १४मे गुणठाणे मशकादिकर्तृक मशकादिवध मान्या छे ते पण न मिले, नहीं तो १३मे गुणठाणे पण तेवो ते मान्यो जोइए. ९० 'द्रव्यहिंसाए केवलीने १८ दोषरहितपणुं न घटे' एवं कहे छे तेहने मते द्रव्यपरिग्रह छतां [इछतां] पण १८ दोषरहितपणुं न मिले. ९१ _ 'प्राणातिपात मृषावादादिक छद्मस्थलिंग मोहनीय अनाभोगमा एके विना न होय ते माटे १२मे गुणठाणे मृषाभाषा कर्मग्रंथादिकमां कही छे ते संभावनारूढ जाणवी' एवं कहे छे तेने पूछवं, जे द्रव्यभाव विना संभावनारूढ त्रीजो किहां कह्यो छे ? काळशूकरिकने कल्पित हिंसानी पेरे ऐ संभावनारूढ मृषावाद लेवो एवं लख्युं छे तेने अनुसारे तो अंतरंग भावमृषावाद ज १२मे गुणठाणे आवे. ९२ 'प्रतिलेखना प्रमार्जनादिक क्रिया क्षुद्रजंतुभयोत्पादकपणे अपवादकल्प कहीए ते Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह छद्मस्थy लिंग केवळीने न होय' एयूँ कहे छे ते न घटे, जे माटे उत्सर्गअपवाद टाळी त्रीजो अपवादकल्प कीहाए कह्यो नथी. इच्छाए त्रण भेद कल्पीए, उत्सर्ग-कल्पनामां चोथो भेद कल्पतां पण कोण ना कहे? तथा केवलीव्यवहार-अनुसार प्रतिलेखनादिक क्रिया पण केवळीने छे ते प्रीछवं. (९३) ___'बिलवासी मनुष्य पण जातिस्मरणादिक मांसभक्षण अतिनिंदित जाणी परिहरे छे ते माटे मांसभक्षणथी सम्यक्त्वनो नाश ज होय' एवं लख्यु छे ते न घटे, जे माटे मांसभक्षणनी परे परदारगमन पण महानिंदित छे तेथी सत्यकी विद्याधर प्रमुखने जो सम्यक्त्व न गयुं तो मांसभक्षणथी कृष्णादिकने सम्यक्त्व न जाय तिहां बाधक नथी. (९४) 'मांसाहार नरकायुबंधस्थानक छे ते माटे तेनी अनिवृत्तिए सम्यक्त्व न होय' एवं लख्युं छे ते न घटे, जे माटे महारंभ, महापरिग्रहादिक पण नरकायुबंध स्थानक छे, तेनी अनिवृत्तिए पण जेम कृष्णादिकने सम्यक्त्व छ तेम मांसभक्षणनी अनिवृत्तिए पण सम्यक्त्व होय तेमां बाधक नथी. (९५) 'तए णं से दुवए राया कंपिल्लपुरं णगरं अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेइ उवक्खडावित्ता कोडुबिय पुरिसे सद्दावेइ सद्दावित्ता एवं वयासी गच्छह णं तु () देवाणुप्पिया ! विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुरं मज्जं मंसं पसन्नं च सुबहुपुष्फफलवत्थगन्धमल्लालंकारं वासुदेवप्पामोक्खाणं रायसहस्साणं आवासेसु साहरह ते वि साहरंति तए णं ते वासुदेवप्पामोक्खा विउलं असणं जाव पसन्नं असाएमाणं विहरंति' ए षष्टांगसूत्र वर्णन मात्र लख्युं छे एम सद्दहतां नास्तिकपणुं थाय, जे माटे स्वर्गादि सूत्र पण वर्णनमात्र कहेतां कोण ना कहे ? (९६) ए सूत्रमा 'वासुदेवने मांसपरिभोग ते आज्ञाद्वाराए जाणवो. आज्ञा पण ते ते अधिकारीनी द्वाराए, पण साक्षात नहीं' एवी कल्पना करी छे ते न घटे, जे माटे आस्वादनक्रियानो अन्धय वासुदेव प्रमुखने कह्यो छे तेमांथी वासुदेवने आज्ञाद्वाराए आस्वादनक्रियानो अन्वय कहीए तो वाक्यभेद थाय एवी कल्पना शास्त्रज्ञ न करे. (९७) ___विधि प्रतिष्ठित ज प्रतिमा जुहारवी ते तपागच्छनी ज पण गच्छान्तरनी नहीं' एवं कहे छे ते न घटे, जे माटे प्रतिष्ठादिकनो सर्व विधि जोतां हवडा प्रतिमावंदनदुर्लभपणुं होय तथा श्राद्धविधिमां आकारमात्रे सर्व प्रतिमा वांदवाना अक्षर पण छे; अविधि चैत्य वांदता पण विधिबहुमानादिक होय तो अविधिदोष निरनुबंध होय इत्यादिक श्र हरिभद्रसूरिना ग्रंथने अनुसारे जाणवू. ९८ 'गच्छान्तरनो वेषधारी जेम वांदवा योग्य नहीं तेम गच्छान्तरनी प्रतिमा वांदवा Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८५ यशोविजयगणिकृत १०/१०१ बोल योग्य नहीं' एवं कहे छे ते न घटे, जे माटे लिंगमा गुणदोषविचारणा कही छे पण प्रतिमा सर्व शुद्धरूप ज कही. यत: - जइविय पडिमाउ जह, मुणिगुणसंकप्पकारणं लिंग, उभयमवि अत्थि लिंगे, ण य पडिमासूभयं आत्थि. १ वन्दनकनियुक्तौ. ९९ 'जा जयमाणस्स भवे, विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स, सा होइ णिज्जरफला, अज्झत्थविसोहिजुत्तस्स.' ए गाथामां अपवादपदप्रत्यय विराधना निर्जराहेतु होय ए, पिंडनियुक्ति वृत्तिमां विवर्यु छे ते उवेखी ते जे एम कल्पे छे जे ‘इहां विराधना [निर्जरा]प्रतिबंधक नथी, जीवघातपरिणामजन्यपणाने अभावे वर्जनाभिप्रायोपाधिनी अपेक्षाए दुर्बल छे ते वती' ते खोटुं, जे माटे ए कल्पनाए कदाचित अनाभोगहिंसा अदुष्ट आवे पण अपवादनी हिंसा अदुष्ट ना आवे, ति वारे मलयगिरि आचार्यना वचन साथे विरोध थाय ते विचारवं. १०० _ 'दुष्ट मंडळने विशे जे साधु दीसे छे तपागच्छना, ते टाळी बीजे क्षेत्रे साधु नथी' एवं कहे छे ते न मिले, जे माटे महानिशीथ दु:षमा-स्तोत्रादिकने अनुसारे क्षेत्रांतरे साधुसत्ता संभवे एवं परमगुरु- वचन छे. १०१ ___ इत्यादिक घणा बोल विचारवाना छे ते सुविहित गीतार्थना वचनथी निर्धारीने सम्यक्त्वनी दृढता करवी. - इति श्री १०८ बोल उपाध्याय श्री जसविजयगणिकृत संपूर्ण. संवत १७४४ वर्षे चैत्र वदि १० वार रविदिने लखीत श्री राजनगर मध्ये मंगलमस्तु. गणिश्री ऋद्धिविमल तत्शिष्य मुनि कीर्तिविमल लखापितम्. भद्रं संघने. _ [जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स हेरल्ड, जुन तथा जूलाई १९१४, एप्रिल १९१५, अनु. पृ.१७७-८०, २२८-३२ अने १२३-२९] Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ लोकाशाह अने लोंकामतविषयक काव्यो ( अमारा पर एक लेखके हिंदीमां 'लोकाशाह कब हुए ?" ए नामनो लेख सन १९२७ना डिसेंबरमां मोकली आप्यो हतो तेमां लोकाशाह नामनी कोई ऐतिहासिक व्यक्ति थवानो शक बताव्यो हतो. आ शक खोटो छे एवं इतिहास कहे छे ए अमोए जाणवा छतां ऐतिहासिक प्रमाणो आप्या वगर लेखक के एना विचारना बीजाने संतोष न थाय तेथी ज्यां सुधी चोक्कस प्रमाणो आखां एकत्रित करी न शकाय त्यां सुधी ए लेखने दाबी राख्यो हतो. ते प्रमाणो लोंकाशाहना समसमयी या तेमना समयनी नजदीकमां थयेलानां होय ते वधु ऐतिहासिक अने विश्वसनीय गणाय एम ते शंकाशील लेखकना लेखमां ज छे. तेथी प्रसिद्ध कवि अने 'विमलप्रबंध' ने गुजराती काव्यमां मूकनार तपागच्छना मुनि लावण्यसमये सं. १५४३ना कार्त्तिक शुद८ ने रविने रोज रची पूर्ण करेल 'सिद्धांत चोपई' आखी, तथा ते समयमां ज थयेल खरतरगच्छना कमलसंयम उपाध्याये रचेल गद्य पुस्तक नामे 'सिद्धांत सारोद्धार - सम्यक्त्वोल्लास टिप्पनक'नी आदिमां १३ कडी गुजराती काव्यमां रची छे ते अहीं मूकी छे बने सामा पक्षना - मूर्तिपूजक होवाथी मूर्तिनिषेधक लोंकाशा संबंधी अंगत कंईक वधु पडतुं जो तेमणे कहेलुं लागे तो ते ते समयना सहज अभिनिवेशने परिणामे खंडनात्मक लखवानुं बनतां तेम बन्युं गाय. अमारा विशे जणावीए छीए के ज्यारे मूल उत्पत्तिनो सवाल शंकावाळो कोईने गणाय, त्यारे तेनी सामे ऐतिहासिक बिनावाळु साहित्य शोधी तेने मूळ आकारमां आपवानी उचितताने लईने सळंग आप्या सिवाय अमारे छूटको नहीं, ए हेतुथी ज ते आपवामां आवेल छे. आमां अमारो हेतु कोईने पण लेशमात्र दूभववानो नथी अने न ज होई शके. वळी अमे कहीशुं के लोंकाशाना अनुयायीओए पोताने त्यांनी सर्व ऐतिहासिक हकीकतो जूनामां जूनां प्रमाणथी बहार पाडवी घटे छे. तेमनो मत बहु चाल्यो ने अनुयायीनी संख्या लगभग श्वेतांबर मूर्तिपूजक जेटली ज थई गई, छतां ते स्थापतां मूळ मंतव्यो शुं हतां, पोते दीक्षा केम न लीधी तथा तेमना नाम परथी पडेला लोंकागच्छ नामना गच्छमां मूर्तिपूजा छे, ज्यारे अन्यमा नथी ज, वगेरे अनेक हकीकत प्रकाशमां लाववानी छे. मूळ मंतव्यो पर लावण्यसमय अने कमलसंयमनां वक्तव्य खास प्रकाश पाडे छे एमां कंई शक नथी. आ बने अमने घणी महेनतथी प्राप्त थला होई पाटण भंडारना वहीवटदारनो उपकार मानीए छीए. उपर्युक्त बे प्राचीन ग्रंथ परथी सर्वने दीवा जेवुं जणाशे के लोंकाशा ए ऐतिहासिक व्यक्ति छे ज, अने ते विक्रम सोळमी सदीना प्रारंभमां ज. उपरांत ए पण जणाशे के लोंकाशाह अने लखमशी गुरुशिष्य हता अने बने जुदीजुदी ऐतिहासिक व्यक्ति छे.) १. लावण्यसमयकृत सिद्धांत चोपई (रच्या संवत १५४३ का शु८ रवि.) [ कविपरिचय माटे जुओ 'रावण- मंदोदरी संवाद' आ कृतिना पाठशुद्धिमा ला. द. Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८७ लोकाशाह अने लोंकामतविषयक काव्यो भारतीय संस्कृति विद्यामंदिरनी हस्तप्रत क्रमांक १५४२७ (ले.सं.१६६५)नी मदद मळी छे. -- संपा] दूहा सकल जिणंदह पय नमुं, हियडई हरिख अपार, अक्षर जोई बोलसिउं, साचउ समयविचार. १ सेविअ सरसति सामिणी, पामिअ सुगुरू पसाउ, सुणि भवियणजिण वीर जिण, पामीउ शिवपुरि ठाउ. सईं उगणीस वरिस थयां, पणयालीस प्रसिद्ध, त्यार पछी लंकु हूउ, असमंजस तिणइ किद्ध. लुंका नामिइं मुहंतलु, हुउ एकई गामि, आवी खोटि बिहुँ [बहु?] परि, भागु करम विरामि. रलइ खपइ खीजइ घj, हाथि न लागइ काम, तिणि आदरिउं फेरवी, करम लीहानुं ताम. ५ आगम अरथ अजाणतु, मंडई अनरथ मूलि, जिनवरवाणी अवगणी, आप करिउं जग धूलि. रूठउ देव किसिउं करइ, वदनि चपेट न देई, किसी कुबुद्धि तिसी दीइ, जिणि बहु काल रूलेइ. देश अवंतीमई सुणिउ, तिहा मंडपगढ जोइ, तिहां वछीआती आविआ, मिल्या लखमसी सोई. लुंकइ द्रव्य अपावि करि, लोभिईं कीधउ अंध, लंकामत लेवा भणी, पारखि ओडिउं खंध. पारखि हुउ कुपारिखी, जोइ रचिउ कुधर्म, पारखि किंपि न परिखिउं, रयणरूप जिनधर्म. १० चुपइ लुंकई वात प्रकासी इसि, तेहनुं सीस हुउ लखमसी, तीणइं बोल उथाप्या घणा, ते सघला जिनशासन तणा. ११ धन धन जिनशासन सिणगार, जिनभाषित सिद्धांत-विचार, जास प्रतापिइं लहीई मांन, कुमती कोई न काढई कांन. १२ आंचली. मति थोडी नई थोडुं ज्ञान, महीयलि वडूं न माने दांन, पोसह पडिकमणुं पच्चखाण, नवि माने ए इस्या अजाण. १३ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह जिनपूजा करिवा मति टली, अष्टापद बहु तीरथ वली, नवि माने प्रतिमाप्रासाद, ते कुमती सिउं केहु वाद. १४ कुमति सरिसुं करतां वात, नव निश्छे लागें मिथ्यात, जिनशासने मंडिउ संताप, ऊवेखिइं अधिकेरूं पाप. १५ जिनमति वली न माने जेअ, आवो उत्तर आपूं तेअ, चिहुं दिशि चुपट मंडिओ वाद, ऊतारिसु कुमतिनो नाद. १६ धुरि नवि मानउ दे, दान, इण वातें लहिसिउ अपमान, आचारांग माहिं मति आणि, संवत्सरीदान तूं जाणि. १७ पोरसि माहि जिनवर वीर, वरिसई सोवन साहसधीर, एक कोडि अड लख एतलूं, वरसि दिवसि हुई केतलूं, १८ त्रिणि सईं तिम अठ्यासी कोडि, लाख असी तिहां सरिसा जोडि, छठे अंगे मल्लि जिन वली, इण परि दान दिउं मनि रली. १९ परदेसी राउ सत्कार, रायपसेणी माहि विचार, चित्रसारथि छे तास प्रधान, चिहु पर्वी पोसह ऋषि दांन. २० पुनरपि सुणज्यो भगवई अंगि, तुंगीया नयरी श्रावक रंगि, नितु दें दान सुपरि ते तिसी, एक जीभ परि बोलू किसी. २१ जिम अविरल जलहर जलधार, वहे अवारी तिम अनिवार, मनवंछित जाचक दिए अन्न, त्रिभुवनि ते श्रावक धन धन्न. २२ कल्पसूत्र सुणतां आणंद, ऋषभ नेमि जय पास जिणंद, वीर तणी परि संवत्सरी, दीधा मयगल मलपत तुरी. २३ धण कणि मणि मुक्ताफल बहू, आज लगे ते जाणे सहू, साते क्षेत्रे देवू दान, . भत्तपयन्ना मांहि प्रधान. २४ रे कुमी तुझ मनि संदेह, मईं नव निश्चें प्रीछिओ तेह, दानिईं तु वाधे संसार, किम पामीजे मोक्षदूआर. २५ जाण जीव कुमतीने नटे, हाहा ए सहू साचुं घटे, तु कहु जे तिथंकर भया, देइ दान शिवपुरि किम गया. २६ ठालु घडु घणुं झलहलइ[झलझलइ], द्रव्यहीण इतर झलफले, पोतइ पहिरणि नहि पोतीउं, वंछइ पट्टकूल धोतीउं. २७ तिम नवि जाणे आगम मर्म, जाणे खरू प्रकासउं धर्म, ए एतली न जाणे वात, दानिईं कर्म तणउ उपघात. २८ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५९ लोकाशाह अने लोंकामतविषयक काव्यो दानिईं जु घट पापि भराइ, तु तुम्हे भिक्षा मागु कांइ, वचन तणो हठ छे अति घणो, परमारथ प्रीछिउ तुम्ह तणो. २९ छेदग्रंथमाहि संग्रहिउ, कल्पसूत्र सविशेषह कहिउ, दीवाली दिनि उत्सव सार, लिइ पोसह तव राय अढार. ३० भगवइ अंगे अमावस तणा, आठमि चऊदिसि पूनिमि घणा, तुंगीया नयरी श्रावक तेउ, पोसह लेता भाव धरेइ. ३१ नंदि सूत्र जोयो उत्साहि, वली विशेषावश्यक माहिं, द्वार अछे अनुयोगह ठाम, चऊविह संघ तणां तिहां नाम. ३२ तिहां थापना ठणहारी भणी, छ आवश्यक करिवा भणी, उभय काल पडिकमणुं सही, बोलिउं छे शुभ ध्यानिइं रही. ३३ पांच समिति तव हिअडई धरे, त्रिणि गुपति सरिसी आदरे, इम छ आवश्यक उच्चार, करि भविअण, भूलि गमार. ३४ भगवइ अंग अने ठाणांग, तिहां में दीठा अक्षर चंग, आवश्यकि बोल्यां पचखाण, दसे प्रकारे जाणे जाण. ३५ कुमति बोले कुडो मर्म, जिनपूजा करतां नहीं धर्म, पूजा करतां हिंसा हवई, एहवी वात अनाहत लवइ. ३६ श्री आवश्यक अति अभिराम, जिहां चउविसत्थानूं ठाम, श्रावक पूजाने अधिकारि, ते गाथा तुं हीइ विचारि. ३७ पूजा करतां हुई व्यापार, टले पाप जिम कूप प्रकार, कूप खणंतां कादव थाई, कचरे (कज्जरइ) लागे शिर खरडाई. ३८ धन. निर्मल नीरि भरिउ ते जिसिइं, विमल देह त्रस भाजइ तिसिइं, घणा जीव पामे संतोष, त्रिषा-रूप नासे मनि रोष. ३९ कूप तणे दृष्टांते कही, द्रव्यपूजा श्रावकनें सही, यति श्रावक मारग नही एक, अंग उपासक मांहि विवेक. ४० बि मारग आवश्यक ठामि, धुरि सुश्रामण (सुविहित) सुश्रावक नामि, संविग्नपाक्षिक त्रीजा जोई, मुनिवर पूजा भाव जि होई. ४१ पंच महाव्रत आदिइं जाणि, दशविध यतिनु धर्म वखाणि, भाव द्रव्य पूजा व्रत बार, धुरि समकित श्रावयकुलि सार. ४२ राय प्रदेसी केसी पासि, जिनमत जाणिउं मनउल्लासि, पुहुतई आयु दिवंगत भयु, सूरिआभ नामिइं सुर थयु. ४३ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह सतरभेदि जिनपूजा करी, आविउ वीर पासि संचरी, चउद सहस मुनिवर मनि धरूं, देव कहु तु नाटक करूं. ४४ धन. वीर न बोले, अनुमति हुई, तु तिणि परि मंडी जूजूइ, पहिरिया सुर सरिखा सिणगार, पय घम घम घुघर घमकार. ४५ दुंदुभि गयणंगणि गडगडी, सरमंडल भूगल दडदडी, धप मप धो धो मद्दल साद, आलविउ तिणइं अनुपम नाद. ४६ नवल छंदि नवि चूकु ताल, रंज्या इंद्रचंद्र भूपाल, तव जिन वीर मौन परिहरई, साते पदे प्रशंसा करइ. ४७ द्रव्यपूजानी जाणे सही, ऋषिनें अनुमति देवी कही, ए अक्षर बोल्या छे किहां, जोयो रायपसेणी जिहां. ४८ कुसुमादिक लेइ मनरंगि, सतरे भेदे छठइ अंगि, दोवइ सयंवरमंडप ठाणि, जिन पूज्या मोटे मंडाणि. ४९ जीवाभिगम मांहि छे तथा, विजय देवपूजानी कथा, जिनपूजा ऊथापी जिहां, रे कुमति ते अक्षर किहां. ५० तीरथ अष्टापद गिरनार, नंदीसर शत्रुजय सार, भगवइ अंगि कह्या छे वली, कई मुनिवर कई जिन केवली. ५१ ए एकईं वंद्या विण सही, असुर प्रतिइं ऊंची गति नही, तां गति जां सोहम्मु लहई, तीरथ नहीं तु इम का कहइ. ५२ जंघा चारण विद्या होई, सुरगिरि नंदीश्वरे तूं जोइ, अष्टापदि जइ आवइ इहां, वंदई चैत्य वली हुइ जिहां. ५३ भगवई अंगि जिसि वीससइ, ए अक्षर नुमइ उद्दिसइ, श्री आवश्यकि वली विशेषि, हृदयकमलि तस आणी देख. ५४ रिषभ तणी वाणी मनि धरी, थापी भरति भली परि करी, जिणहर जिणप्रतिमा चउवीस, अष्टापदि प्रणमूं निसिदीस. ५५ जिवि घणे इहां सिवपद लहिलं, सिद्धिक्षेत्र तिणि कारणि कहिलं, इक सु थूभ कराव्यां जोइ, जिम भू चलणि न चंपइ कोइ. ५६ एक बोल ए काढिउ मथी, प्रतिमा भराविवी कही नथी, घडतां लागइ पातक घणूं, पाथरमांहिं किसिउं जिनपणूं. ५७ ईस्यां वचन दूरिइं परिहरू, एहनुं उत्तर छई पाधरू, आज लगई जोउ बहु ठामि, चंपानगरी जीवतसामि. ५८ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाह अने लोंकामतविषयक काव्यो ४९१ सोपारइ पट्टणे छई जेअ, आदिनाथनी प्रतिमा तेअ, विस्तर कहितां लागई वार, तिणि कारणि कहूं बोल बिच्यार. ५९ राउ उदायन जगि जयवंत, प्रभावती राणीनू कंत, वीभई पाटणि विलसई राज, लावू खोड, सरिआं सवि काज. ६० विज्जुअमालि तणी मोकली, गोसीरष चंदनी भली, जीवत प्रतिमा वीरह तणी, प्रगटी पेखि नमइ नरधणी. ६१ जेहनई मनि संदेह लगार, जोज्यो दसमई अंगि विचार, .. वली अपूरव बोलूं वात, चेला मणग तणउ जे तात. ६२ प्रतिमा देखि हुइ प्रतिबुद्ध, तिणि लीधुं चारित्र विशुद्ध, दशवैकालिकनुं करणहार, सिज्जंभव गिरूउ गणधार. ६३ अंग उपासक मांहे पेखि, समकितनुं आलावउ देखि, नव श्रावक सरिसु आणंद, लिई समकित, दिइ वीर जिणंद. ६४ परतीरथि जिनप्रतिमा ग्रही, आज पछी ते वंदू नहीं, इणि अक्षरि जाणई जिनमती, जिनप्रतिमा सही आगई हती. ६५ छेदग्रंथ अति रूअडउ होई, कलपसूत्र सविशेषु जोई, तिहां बहु सुख बोल्यां सोहिलां, पणि दस जिण दर्शन दोहिलां. ६६ धुरि तीर्थंकर जाणे सही, छेहडइ जिनवरप्रतिमा कही, आठ वचन जे विचिलां अछइ, भविअण पूछी लेज्यो पछई. ६७ ए दसनु परमारथ सुणउ, दीठई लाभ हुइ अति घणउ, प्रतिमा पेखि आर्द्रकुमार, क्रमि क्रमि पामिउ मोख-दुआर. ६८ लिखी पूतली देखी भीति, राग वसई रागीनई चीति, जिम जिनप्रतिमा-पय मन वसई, तिम समकित अधिकू उल्लसई. ६९ छेदसूत्र अक्षर अभिनवा, जिनप्रासाद करावई नवा, ते सुरलोक जिहां बारमु, हुई सुरपति कई सुरपति समु. ७० मूलसूत्र आवश्यक सार, अंग उपासकमांहि विचार, ठामि ठामि अक्षर छइ घणा, जिनप्रासाद करावा तणा. ७१ छइ गणिविज्ज पयन्नू जिहां, जिनपूजानां महुरत तिहां, आगइ इम बोल्या जिनराज, ते कुमती नवि मानई आज. ७२ जंबूदीव-पनत्ति जाणि, देविंदत्थु पयन्न वखाणि, त्रीजइ अंगि वली अवलोइ, जीवाभिगम भली परि जोइ. ७३ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह देवलोकि बारे सुविचारि, पर्वतकूट तणइ अधिकारि, शाश्वत जनसंख्या सुणि जाण, बोल्या जिनप्रासाद प्रमाण. ७४ मोटां काज प्रतिष्ठा तणा, तीरथ जिनयात्रादिक घणां, डाहु मुनि जु तेडि उजाई, घणउ लाभ लाभइ तिणि ठार. यात्रा तणी घणी छई साखि, नवि कीजइ ते अक्षर दाखि, रथयात्रा राउ संप्रति तणी, बीजी अवर हुई अति घणी ७६ मुनिनई चैत्य- भगति एवडी, बोली छइ सुणज्यो जेवडी. गामि नगरि पहुतु किणि ठाय, दीठूं चैत्य न वउली जाई. पइठउ जिनप्रासाद मझारि, देखइ आशातना अपारि, भमरी मंदिर झाझां जाल, पडक़ोलिआ तणां चउसाल. ते ऊवेखी जाई किवारि, प्रायश्चित गुरू लागई च्यारि, जउ फेडइ तु लहुआं जाणि, चैत्य-भगति करतां सी कांणि. जिनतीरथ रथयात्रा कही, चैत्य- भगति मुनिवरनईं सही, छेदग्रंथि ए अक्षर ईस्या, ते मझ हिअडई गाढा वस्या. रिषिनईं पूजानुं उपदेस, देतां दोष नहीं लवलेस, भद्रबाहु जे श्रुतकेवली, तिणि आवश्यकि बोलिउं वली. वईरसामि परि कीधी किसी, जोज्यो हृदय विमासी तिसी, नगरी माहेश्वरी मझारि, संघ भणई सहिगुरू अवधारि आविउं परव पजूसण आज, बौद्धमती राजानुं राज, तिणि राखी मालीनी कोडि, श्वेतांबरनई लागइ खोडि. जाणी फूल न मूकिउं एक, वइरसामि मनि धरइ विवेक, या पदमद्रहि हरख्या हीइ, लक्ष्मीदेवि कमल करि दीईं. ८४ पंथि हुताशन वन अभिराम, आपइ यक्ष कुसुम बहु ताम, कुसुम कमल आप्यां संघनई, जिणहरि जिण पूज्या इक मनई. ८५ स्नात्र महोत्सव केरा जंग, करतां हिअडइ धरिज्यो रंग, जिनवर - जनम - समय जव होई, अच्युत ईंद्र तणी परि जोई. ८६ शिखर जिन लेइ जाई, चउसठि इंद्र मिलइ तिणि ठाइ, ७५ ७७ ७८ ७९ το ८ १ ८२ ८३ आई कमल सहस - पांखडी, जोतां सुख पामइ आंखडी. ८७ भरिआ कलसला निर्मल नीर, न्हवीउ जिनवर साहसधीर, जंबूदीव पनत्ती जिहां, ए आलावउ विगतिईं तिहां. ८८ Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाह अने लोंकामतविषयक काव्यो ९४ हूआ जे तीथंकर हुसिइ, जनमसमय परि एह जि तिसिह, इणि उठइ जिनवरनां स्नात्र, करिज्यो जिम निर्मल हुई गात्र. ८९ जिहां जिन बोलई तिहां सिउं वाद, धुरि उत्सर्ग अनइं अपवाद, एक जि जीवदया यति तणई, ए उत्सर्ग सहूको भणइ. द्रव्य क्षेत्र नई काल जि भाव, ते ऊपरि तुम्हे धरिज्यो भाव, जे पद छई अपवादह तणूं, लाभ छेहानूं कारण घणूं. ऋषिनई विराधना जल तणी, तिम बीजी वरजी छइ घणी, कल्पसूत्रमईं मन उल्लासि, सुणिउ सुललित सहिगुरू पासि. ९२ वीर तणु तिहिं वचनविलास, सुणि एकई ऊणा पंचास, आलावा बोल्या जिनराज, रिषिनईं सामाचारी काजि. तिहिं विहरिवा तणइ अधिकारि, ते आलावउ हीइ विचारि, कही कुणाला नामिईं किसी, इंद्र तणइ नहीं नगरी इसी . ऐरावती नदी तसु तीरि, गाऊ अंढइ वहइ नितु नीरि, इसि उपहट उल्लंघी वेगि, आगइ मुनि जाता संवेगि. एक पय जलि भीतर थलि एक, इणि परि जइ आवता अनेक, दोषरहित भिक्षानई काजि, न गणी विराधना रिषिराजि. इम अपवाद तणां पद जोइ, निश्चईं भंगि भलां फल होइ, केवलि वात प्रकासई इसी, ते मानतां विमासण किसी. त्रिणि ऊकाला वलिआ पखई, फासु नीर कहई ते झखई, चाल - धोअणनूं जल जेउ, बि घडी पूंठि फासू तेउ. ग्लान महारिषि सहिगुरूतणी, उपधि विधिईं सिउं धोवी [घेवो] भणी, ए त्रिणि तिहिं बोली उक्ति, जोज्यो पिंडतणी नियुक्ति. यतिनई रोगि चिकित्सा कही चउमासी पडिकमणुं सही, सूतिकर्म तीथंकर तणा, अठाइ दिनि उत्सव घणा. १०० थानक वीस कह्यां छई सही, जेह विण तीथंकर पद नहीं, छठ अनइं अठम तप जेउ, वली विशेषत जाणे तेउ. १०१ शत्रुंजय तीरथ गिरनार, सिद्धखेत्र थापना विचार, छठइ अंगि अनइ आठमइ, ए छ बोल कह्या मझ गमई. १०२ गहिला गामट मूढ गमार, पभणइ श्री सिद्धांतविचार, योग अनइ उपधांन विहीन, जाते दिनि ते थासिई दीन. १०३ ९० 669 ९१ ९३ ९५ ९६ ९७ ९८ ९९ ४९३ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह भाव हुइ जु दीक्षा तणउ, छज्जीवणी लगई तु भणउ, योग वह्या विण आघउ सही, श्री सिद्धांत भणाइ नहीं. १०४ सीकी पडिलेहण अति खरी, लेवा काल अवधि परिहरी, त्रिहुत्तिरि बोल भला मनि वसई, तु समकित सू● उल्लसइ. १०५ जसु घरि झाझा माणस जिमई, ते उद्देशिक म कहु किमई, हरिकेसी रिषि लिई आहार, नवि लागई तसु दोष लगार. १०६ हरिकेसी नामिइ मातंग, पामी दोष हूउ मुनि चंग, इक दिनि विहरंतु संचरइ, यक्ष तणइ देउलि उतरइ. १०७ तिहिं आसनूं नयर सुविशाल, कोसल नामि भलु भूपाल, तसु बेटी छइ भद्रा नामि, यक्ष प्रतिईं नितु जाइ प्रणामि. १०८ तिणि दिणि यक्षभवनि गई जाम, रिषि रहीउं तु काउसगि ताम, पेखी दूबल मल-आधार, कुंअरी कीधउ धूधूकार. १०९ कुपिउि यक्ष तव कुंअरि छली, धूजंती धर-मंडलि ढली, मात तात मिलिउ परिवार, नवि लागइ ऊषध उपचार. ११० भूत प्रेत वरि व्यंतर कोइ, भणई भूप, कुण वलगु होइ, प्रगट थई ते कारण कहु, जिम मनवंछित बिमणां लहु. १११ जिम घृत वैश्वानरि धडहडिउ, भणइ यक्ष तिम कोपिईं चडिउ, सुणज्यो बोल अम्हारू कहिउ, अम्ह देउलि रिषि आवी रहिउ. ११२ क्षमावंत ते महामुनि तणी, कीधी कुंवरि अवन्या घणी, हासईं बोल्या बोल कुबोल, मुनि मूंकिउ अवगणी निटोल. ११३ नहीं सांखू एहनु अन्याउ, सिउं करिसिइ रीसाविउ राय, तु मूंकू जु रिषिनई वरई, नहींतरि कुंअरी निश्चईं मरइ. ११४ इसिउं वचन राजा संभलइ, कुंअरी दूखि घणुं टलवलइ, वेदन टालि भणइ नरनाह, करिसिउं रिषि सरिसु वीह्वाह. ११५ ततखिणि आणिउ सवि समुदाय, कुंअरी चेत वलिउं तिणि ठाय, यक्ष महारिषि सिरि अवतरी, तिणि वेलां ते कुंअरि वरी. ११६ रिषि प्रभाति चालिउ सज थई, कुंअरी पिता तणई घरि गइ, भूपति भणइ अम्हारइ राजि, रिषिरमणी नवि आवइ काजि. ११७ यज्ञ-जाण ब्राह्मण छइ जिहां, रिषिरमणी ते आपी तिहां, केते दिनि अंतरि लही लाग, ब्राह्मण मंडइ मोटउ याग. ११८ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाह अने लोंकामतविषयक काव्यो ४९५ ब्राह्मणवर्ग मिलिउ तिहिं बहू, हुइ किंपि ते सुणज्यो सहू, राजकुंअरि परणीती जेणि, ते रिषि आविउ भिक्षा लेणि. ११९ सिरि मइलु पणि मति ऊजली, हाथिईं दंड कंधि कांबली, यज्ञ-पाटि जइ ऊभउ रहइ, धर्मलाभ हरिकेसी कहइ. १२० तव बइठा बंभण खलभलइ, के त्रासइ के अलगा टलई, के ऊतावलि ऊंचा चडई, ए वरतीउ रखे आभडई. १२१ यागमांहि जे बंभण वडा, ते बोलइ रहिआ इक तडा, धांन अम्हारइ अछई अबोट, जा नहींतरि कई पामिसि चोट. १२२ ऊट्या लुंठ केवि अतिचंड, मेल्हई साट सरीसा दंड, के हासई तरूणा छोकरा, लहकई सिउं लांखइ कांकरा. १२३ राजकुंअरि ते रिषि ओलखई, चिंतइ लोक किसिउं ए झखइ, हासू छाजइ जेह सिउं लाड, ए रिषि हसतां भांजइ हाड. १२४ कुंअरी बोलई सहुको सुणउ, ए मुनिवर- महिमा घणउ, जइ ए रिषिनइ ऊदेखिसिउ, तु फिरतां देउल देखिसिउ. १२५ एहनूं हांसूं अम्हनई फलिउं, राजरिद्धि सुख सघलूं टलिउं, जिम जिम कुंअरि निवारई फिरइ, तिम उपसर्ग घणेरा करइ. १२६ रिषिनईं वेदन जाणी घणी, आविउ यक्ष सखायत भणी, इसिउं पेखि कोपिईं धमधमई, पडीआ विप्र, मुखि लोही वमई. १२७ कुंअरि भणई हिव किम ऊठिसिउ, संकष्टथा दोहिला छूटिसिउं, ए ऊखाणु साचउ होई, विण भाटका न मानई कोई. १२८ तुम्हे मंडिउ गिरि नखि भेदिवा, तरू मंडिउ मूलिईं छेदिवा, तुम्हनई रीस करूं हिव किसी, सवि कुबुद्धि तुम्ह हिअडइ वसी. १२९ तुमि जाणिउं इणि सिउं थाइसिइ, ए कूटिउ वाई जाइसिइ, एहना चरणशरण हिव लीउ, ए पाधरसी नहीं वरतीउ. १३० तव बंभण बोलइ कर जोडि, देव, दया करि अम्हनइ छोडि, छोरू होई कुछोरू कदा, मायबापि सांसहि सदा. १३१ ए उत्तमना घरनी रीति, कुवचन किसिउ न चुहटइ चीति, गुणमणि-रयणायर छउ तुम्हे, एक वरांसु लहिणउ अम्हे. १३२ विनयवचनि मनि रंजिउ यक्ष, तव मूक्यां माणसना लक्ष, गयु यक्ष जइ बइठउ ठामि, ऊठ्या विप्र सवे सिर नामि. १३३ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह भइ विप्र, होरिषि, धन धन्न, कृपा करू लिउ खपतूं अन्न, यज्ञ भणी झाझा परहूणा, अम्ह मंदिर आव्या छई घणा. १३४ मासखमण केरई पारणइ, गया विप्रनईं घर-बारणइ, सरस गविल विहरावइ पाक, कूर दालि घृत झाझां शाक. १३५ विहरइ मुनिवर खपती खीर, घोल घणूं नई फासू नीर, भाव सहित ईम भिक्षा देइ, वंदइ बंभण भाव धरेइ. १३६ दान पुण्य महिमा विस्तरइ, कुसुमवृष्टि तिहिं सुरवर करइ, ततखिणि विप्र तणई अंगणइ, सोवनवृष्टि हुइ सहू भणइ. १३७ वारकरी मुनि बइठउ जिसि, ब्राम्हण वंदणि आव्या तिसिइ, धर्म तणइ उपदेशिइं करी, प्रतिबोध्या बंभण कूंअरी १३८ हरिकेसी रिषि विहरिउं इम, ऊद्देशिक नवि लागु नींम, श्री उत्तराध्ययन छइ सार, ए सघलु तिहिं करि हिउ विचार. १३९ वीर सामि अतिशय परवरिया, ते नावइ बइसी ऊतरिया, मारगि गंगा नदीप्रवाहि ए अक्षर आवश्यकमांहि. १४० श्री ईनकापूत्र सूरिंद, बइठा बेडी मनि आणंद, लोक तणउ मिलीउ बहू वर्ग, वयरी देव करइ उपसर्ग. १४१ जिहां बइसई सहिगुरूराय, तिहां तिहां बेडी नीची जाइ, गंगा नदी महाजलि भरी, लोके गुरू लांख्या करि धरी. १४२ तिणि अवसर ते सुर प्रतिकूल, पडतां हेठलि धरइ त्रिशूल, सिर वींधाणइ शोणित झिरई, सहिगुरू हीइ विमासण करई. १४३ मझ सिरि लोही खारूं हुसिई, जलना जीव मरण पामिसिई, सविकहइ ऊपरि समता धरइ, शुभ ध्यांनि केवलसिरि वरइ. १४४ बइठा बेडी - ईस्या सुमेध, किम थाई तेहनु निषेध, जमली साखि समयनी देखि, संथारग पयन्नं पेखि. १४५ श्रीमुखि अरथ कहइ अरिहंत, रचइ सूत्र गणधर गुणवंत, प्रतेकबुद्ध नई श्रुतकेवली, दस पूरवधर बोल्या वली. १४६ एहनु भाखिउ आगम होइ, जिनशासनि जयवंतु सोइ, तासु पक्ष मई अंगी कीध, रे कुमती तुम्ह उत्तर दीध. १४७ जे पूछवूं हुइ ते कहु, कांई म अणबोल्या थई रहु, सुगुरू- पसाई त्रिभुवनि सार, जाणूं आगम- अरथविचार. १४८ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाह अने लोंकामतविषयक काव्यो तेजपुंज जां सोहइ भाण, तां खजुआनूं किसिउ पराण, जां हुई चिंतामणिनुं द्याप तां काकरनुं किसिउ प्रताप. १४९ जां सुरगिरितां सरिसव किसिउ, मृगपति आगलि जंबुक जिसि, तिम आगमि जु एहवूं कहिउ, तु बोलवूं तुम्हारूं रहिउं. १५० जिनवरि भाखिउं जिनमत जाणि, लुंकट मत फोकट म वखाणि, जिनमत ए मत अंतर घणउ, सावधान थई सहू को सुणउ . १५१ दूहा मदि झिरतु मयगल किहां, किहां आरडतूं ऊंट, पुन्यवंत मानव किहां, किहां अधमाधम खूंट, १५२ राजहंस वायस किहां, भूपति किहां दास, सप्त भूमि मंदिर किहां, किहां उडवले वास. १५३ मधुरा मोदक किहां लवण, किहां सोनूं किहां लोह, किहां सुरतरू किहां कयरडुं, किहां उपशम किहां कोह. १५४ किहां टंकाउलि हार वर, किहां कणयरनी माल, शीतल विमल कमल किहां, किहां दावानल- झाल. १५५ भोगी भिक्षाचर किहां, किहां लहिवूं किहां हाणि, जिनमत लुंकट मत प्रतिईं, एवड अंतर जाणि. १५६ आवई इणि दूसम समइ, जिनमत मानई आज, ते नर पुरूषोत्तम हुसिई, लहिसिइ सिवपुर-राज. १५७ अथ चुपइ कट मतनुं किसिउ विचार, जे पुण न करइ शौचाचार, शौचविहूणउ श्री सिद्धांत, पढतां गुणतां दोष अनंत. १५८ फगर देखी उंदिर डरई, नीसासा डचका जिम करइ, रात्रिदिवस एहन परि एह, परनिंदा नवि लाभइ छेह. १५९ पातक- भय देखाडई घणउ, बहु आरंभ करइ घर तणु, कूट कपट मायाना धणी, जाते दिनि थासिउ रेवणी. १६० गुरू नवि मानुए अति भलूं, तु तुम्हि किम जाणिउं एतलूं, शास्त्र पढावी कीधी मया, तेह जि गुरूनईं साम्हा थया. १६१ जे लुंकट -मति गाढा ग्रहिया, ते केता भिक्षाचर थया, नवा वेष तसुनवली रीति, नवि बइसइ भविअणनईं चींति. १६२ ४९७ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह इच्छां हीडइ इच्छां जिमइ, नरभव लाधउ मुहिआं गमइ, मुह मचकोडइ मंडई वात, अलविइं बोलइ रिषिनी घात. १६३ श्री सिद्धांत रचिउ चउपइ, बालाबोध तणी परि जूई, विण व्याकरणिईं गाढा रलई, सूत्र अरथ सूधां नवि मिलई. १६४ जे जिनवचन ऊथापई कीम, ते नव निश्चईं निन्हव-सीम, निन्हव-संगति जे नर करइ, पापईं पिंड सदा ते भरइ. १६५ मातापिता सहोदर कोई, जइ ए मतनई मिलीउ होइ, रे भविअण, मझ वारिउं करे, तसु संगति दूरिईं परिहरे. १६६ कुमति केरा सुणीइ बोल, तु जाइ जिनधर्म निटोल, ते सोनानई केहूं मांन, जीणइं सोनई त्रूटई कान. १६७ कहु केथउ कीजइ ते पूत्र, जीणइ भाजइ घरनूं सूत्र, लंकट-मतनूं किसिउं प्रमाण, जिहां लोपाई जिनवर-आण. १६८ जे मई थापिउं सभा मझारि, ते पुण आगमनइं आधारि, आगम सूत्र कह्यां छईं सार, ते सविहुं धुरि अंग अग्यार. १६९ बार उपांग पयन्ना दसई, छेद ग्रंथ छ मझ मनि वसईं, मूल सूत्र बोल्यां छइ च्यार, नंदिसूत्र अनुयोग द्वार. १७० ए अकेकां अति सुविसाल, आगम सूत्र कह्यां पणयाल, तिहां भाखिउं तुम्ह चित्ति सुहाइ, तु ए बोल न मानु कांइ. १७१ सुणज्यो भविअण केरी कोडि, लुंकटमतनइं लागी खोडी, मंडिउ वाद, थया ता धीर, पण त्रिभुवनि ऊतरिउं नीर. १७२ साचउ धर्म तिहां जय होइ, एह वात जाणइ सहू कोइ, हारिउं लके गयु सकार, जिनशासनि वरतई जयकार. १७३ क्रोध नथी पोषिउ मई रती, वात कही छइ सघळी छती, बोलिउ श्री सिद्धांत विचार, तिहां निंदानु सिउ अधिकार. १७४ जीव सवे मझ बंधव समा, पडिई वरांसइ धरिज्यो क्षमा, जे जिम जाणई ते तिम करू, पणि जिनधर्म खरू आदरू. १७५ धन धन जिनशासन० अम्ह गुरू श्री सोमसुंदरसूरि, जासु पसाई दुरिआं दूरि, तपगछनायक सुगुणनिधान, लक्ष्मीसागरसूरि प्रधान. १७६ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाह अने लोंकामतविषयक काव्यो ४९९ श्री सोमजय सूरिंद सुजाण, जसु महिमा जगि मेरू समाण, अहनिस हरखइ प्रणमु पाय, सुमतिसाधुसूरि तपगछराय. १७७ गुणमंडित पंडित जयवंत, समयरत्न गिरूआ गुणवंत, तसु पयकमलि भमर जिम रमूं, ईणिं परि भगतिइं दिन नींगमूं. १७८ जसु महिअलि रूअडउ जसवाउ, ते सहिगुरूनू लही पसाउ, ए चउपई रची अभिराम, लुंकट-वदन-चपेटा नाम. १७९ संवच्छर दह पंच विशाल, त्रिताला वरषे चउसाल, काती शुदि आठमि शुभ वार, रची चउपइ बहुत विचार. १८० नरनारी एकमनां थइ, भणई गुणइ जे ए चउपइ, मुनि लावण्यसमय इम कहइ, ते मनवंछित लीला लहइ. १८१ - इति श्री सिद्धांत चतुःष्पदी. लुंकटवदनचपेटाभिधाना. लिखिता परोपकाराय. शुभं भवतु. लेखक पाठकयोः. श्री. (पत्र ७-१५, हा. भ. पाटण दा.८२ नं.१३६) २. 'कमलसंयम उपाध्यायकृत सिद्धांत सारोद्धार - सम्यक्त्वोल्लास टिप्पनक'मांथी (कमलसंयम उपाध्याय खरतरगच्छना जिनहर्षसूरिना शिष्य हता, तेमणे सं.१५४४मां 'उत्तराध्ययनवृत्ति' रची अने सं.१५४९मां 'कर्मस्तवप्रकरण' रच्यु. ए परथी तेमनो समय निश्चित छे. आ ग्रंथ १८ पत्रनो पाटणना हालाभाई भंडारमा डा. ८३ नं.१२७नो अपूर्ण छे ने तेमा पत्र १८मे पहेलो देवतत्त्व स्थापनाधिकार पूरो थयो छे. तेमां जणाव्यु छ के 'इति श्री बृहत्खरतरगच्छे श्री जिनहर्षसूरि शिष्य श्री कमलसंयमोपाध्याय विरचिते सिद्धांतसारोद्धारे सम्यक्त्वोल्लासटिप्पनके देवतत्त्वस्थापनाधिकारः'. पछी जिनप्रतिमा संबंधीना अवर्णवाद माटेना उत्तर आपवानुं शरू कर्यु छे. आगळ शुं अधिकार छे ते आखं पुस्तक मळ्ये जणाय तेम छे.) [जुओ जैन गूर्जर कविओ, भा.१, पृ.२६९-७० तथा गुजराती साहित्यकोश खं.१, पृ.४५. - संपा.] ९०. ॐ नम: श्री अर्हच्चैत्येभ्य. वीर जिणेसर पणमिय पाय, समरिय गोयम गणहर-राय, कुमतनिवारण कहउं संखेवि, एकमना थईनइ सुणउ हेवि. १ संवत पनर अठोतरउ जाणि, लक लेहउ मूलि निखाणि, साधुनिंदा अहनिसि करइ, धर्म धडाबंध ढीलउ धरई. २ तेहनइ शिष्य मिलिइ लखमसी, तेहनी बुद्धि हीआथी खिसी, Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह टालई जिनप्रतिमानइ मान, दया दया करि टालई दान. ३ टालइ विनय-विवेकविचार, टालइ सामायिक उच्चार, पडिकमणानउं टालइ नाम, भामइ पडिया घणा तिणि गाम. ४ संवत् पनरनुं त्रीसइ कालि, प्रगट्या वेषधार समकालि, दया दया पोकारइ धर्म, प्रतिमा निंदी बांधइ कर्म. एहवई हूउ पीरोजिखान, तेहनइ पातसाह दिइ मान, पाडइ देहरा नइ पोसाल, जिनमत पीडई दुखमा काल. ६ लुकानइ ते मिलिउ संयोग, ताव माहि जिम सीसक रोग, डगमगि पडीउ सघलउ लोक, पोसालइ आवइ पणि फोक. ७ जोउ हीआ संघातिइं काई, बूडउ लोको कुमती थाइ, एक अक्षर ऊथापइ जेउ, छेह न आवई दुखनई तेउ. हिंसा धर्म दयाइ धर्म, कुमती पूछइ न लहई मर्म, श्रावक सहूइ पाणी गलइ, धर्म भणी किम हिंसा टलइ. ९ नदी ऊतरवी जिणवरि कही, कहउ तुम्हि हिंसा तिहां किम नही, करिइ कराविइ सरीखउं पाप, बोलइ वीतराग जगबाप. १० घोडे हाथी बइठा जाई, जिणवर वंदणि धसमस थाइ, कहउ तेहनइ किम न हुइ धर्म, कांइ ऊथापी बांधउ कर्म. ११ एवंकारइ कउं केतलउं, जाणउ भाइउ तुम्हि एतलउ, जिनशासननउ एह जि मर्म, वीतरागनी आज्ञा धर्म. १२ एणि उपदेसि दूहवाइ जेउ, पाग लागी खमावउं तेउ, जीव सविहु-स्यु मैत्रीकार, जिनशासननउं एह जि सार. १३ - इति चउपई समाप्त. [क्र.१,२ : जैनयुग, वैशाख–जेठ १९८६, पृ.३३९-४९] ३. वीकाकृत असूत्रनिराकरण बत्रीशी । ['जैन गूर्जर कविओ'मां आ कर्ता-कृति नोंधायेल नथी. 'गुजराती साहित्यकोश खं.१'मां आ संदर्भने आधारे ज नोंधायेल छ (पृ.४२०), पण त्यां कर्ताने लोंकागच्छना जैन साधु कहेवामां आव्या छे ते भूल छे. कृति लोंकामतना खंडननी छे अने कर्ता श्रावक पण होई शके. - संपा. ] वीर जिणेसर मुगति हिं गया, सई ओगणीस वरस जव थयां Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाह अने लोंकामतविषयक काव्यो ५०१ पणयालीस अधिक माजनइ, प्रागवाट पहिलई साजनई. १ लूंक लीहानी उतपत्ति, सीख्या बोल दस वीसनी छित्ति, मति आपणी करिउ विचार, मूलि कषायवधारणहार. २ तस अनुवइ [अनुवाइ] हऊओ लाखणसीह, जिनवर तणी तीहां लोपी लीह, चउप्पदी कीधउ सिद्धांत, करिउ सतां संसार अनंत. ३ विण व्याकरणि हिं बालाबोध, सूत्र वात बे अर(थ विविध)[?]; करी चउपडा जण जण दया, लोक तणा तीणं भाव जि गया. घरखूणइ ते करईं वखांण, छांडइ पडिकमणूं पचखाण, छांडी पूजा, छांडिउं दान, जिनपडिमा दीधउं अपमान. ५ पांचमि आठमि पाखी नथी, मा छांडीनईं माड्डी ईच्छी, विनयविवेक तिजिउ आचार, चारित्रीयांनइं कहइ ( )खाधार. मुग्धस्वाभावी जे गुणवंत, ते भोलवीया एणं अनंत, नालक नालकि त्रस बहू कहइ, तीणं वात भवियण लहि बहइ. ७ स्वामी तो नवि बोलइ ईम, आपण पूजा कीजई कीम, अचित प्रदेशि सचित किम चडई, ईणं बोलिई सहू संशय पडइ. ८ ज्ञाताधर्म कथा जे अंग, तेहy एहे कीधउ भंग, दोवई सइवरमंडप-ठाणि, जिन पूज्या जिणहर-संठाणि. ९ उपपातिकनइं राजप्रश्रेणि, जीवाभिगम सुत्त मज्झेण, अष्टपगारी पूजा खरी, सूरीयाभ देविई तिहां करी. १० श्री आवश्यकि बोलिउं सही, नाम ठवण द्रव्य भाव जि कही, चिहु भेदे बोल्या जिनराज, कुत्सित मती न मानईं आज. ११ अष्टापद कुणि दीठउ कहईं, नंदीसर वर नवि सांसहइं, मेरू-चूलां, जे वनि प्रासाद, ते उथापईं करईं कुवाद. १२ भुवनाधिप व्यंतर माहि जेउ, देवलोकिं योतिष बिहु लेउ, जिणहर-पडिमा सासइ बहु, ते मतवाले लोपिउं सहु. १३ समवसरण जे समइ प्रसिद्ध, तेह तणउ ए करई नषिद्ध, पूजा द्रव्य भाव बिहुं तणा, ठामि ठामि अक्षर छइ घणा. १४ एक वचन तीथंकर तणूं, जम्मालिइं कुथापिउं घणूं, तीणं कीधई बहू काल जि रलिउ, एहू मत तेहनईं जइ मिलिउ. १५ अर्थ प्ररूपई श्री अरिहंत, सूत्र रचईं गणधर गुणवंत, Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह चऊद अनइं दश पूरवधार, सूत्र रचईं बिन्हइ सुविचार. १६ प्रत्येकबुद्ध विरचई ते सही, एह वात जिनआगमि कही, सूत्र न मानइं ते कुहु किस्या, आराधकनईं मनि किम त्रस्या[वस्या ?]. १७ बि मारग श्री जिनवरि कहिया, भव्य जीव तेहे ते ग्रहिया, धुरि सुश्रमण सुश्रावक पछई, संविग-पाखिक त्रीजा अछइं. १८ महाव्रत अणुव्रत छांडी बेउ, तीहं टलतु तप बोलई जेउ, बेडी छतां सिलां ते चडईं, भवसागरि ते निश्चिईं पडईं. १९ सुंदर बुद्धि विमासई घणूं, रूडउं विचारिलं तु हुई आपणुं, जिनवाणी जे बहू अवगणईं, तेहनइं पात्र मूरख वली भणईं. २० षडावश्यक जे जिनवरि भण्या, एहे ते सघळां अवगण्यां, अणुव्रत सामाइक उच्चार, पोषध प्रतिमा नही विवहार. २१ थापइं जीवदयामइ धर्म, सूक्षम बादर न लहइं मर्म, सन्नि असन्नी जे आतमा, एकंद्री पंचेंद्री समा. २२ भव्य अभव्य जेहवइ, वीतराग दलवा डंसवइ, खांडइ पीसईं छेदईं सदा, प्राशुक विधि नवि मानई कदा. २३ पूजा टालई हिंसा भणी, सवरिं भीते हु[?] धणी, सर्वादरि मांडईं व्यवसाय, धन मेलई बहू करी उपाय. २४ खत्र-अखत्र थकी नवि वमई, मनगमतू भोजन नित जिमइ, ते मनि मानेइ तेह जि सही, धर्मध्यानथी वात जि रही. २५ नीसासा डचका दिई घणा, परनिंदानी नही कांई मणा, राग दोस बे महुवडि करिया, क्रोधादिकि मदि छइं परिवरिया. २६ टीटहुंडी ऊंचउ पग करई, आभ पडतां ठाढण [ढाहण?] धरइ, तिम जाणईं अम्हे तारक अर्छ, पात्रपणुं सघलइ अम्ह पर्छ. २७ नवा वेष नवला आचार, भणइं गुणईं विण शौचाचार, ज्ञान विराधइ मूरखपणईं, जाण-शिरोमणि तेहनईं भणइं. २८ लाभ छेहा नवि जाणईं भेउ, उत्सर्ग अपवाद न मानइं बेउ, निश्चय नईं व्यवहार जि किसिउ, स्वामीबोल न बो... ...उ २९ द्रव्य क्षेत्रनई काल जि भाव, तेह ऊपरिं छई खरउ अभाव, मूलोतर गुण जे छईं घणा, ते लोप्या जिनसासन तणा. ३० निन्हवि आगइ बोल्या बोल, आ तो सविहुं माहि निटोल, Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाह अने लोंकामतविषयक काव्यो ५०३ निन्हव - संगति जे नर करइ, काल अनंत संसारि जि फिरनं. ३१ इम जाणी संगति म न करउ, आपणपूं आपिहिं सम धरउ, ए बीसी लूंका तणी. शिरोमणि वीकइं भणी. ३२ • इति असूत्रनिराकरण बत्रीसी. समाप्ता. छ. श्री. - ( पत्र १ पं. १५, गोकुळभाइ नानजीनो संग्रह, राजकोट.) [ जैनयुग, भाद्रपद १९८५ - कारतक १९८६ पृ. ९९-१००] Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ लालविजयकृत रेटियानी सझाय (आ लालविजय ते शुभविजयना शिष्य थाय. जुओ जैन गूर्जर कविओ, प्रथम भाग, नं.२३०, पृ.४८७. रतनबाईनी रेंटियानी सझाय प्रसिद्ध थई गई छे तेमां एक रेंटियाथी केटलुं बधुं थई शके छे ते जणाव्युं छे. आ सझाय एक वधारो छे. कर्ता लालविजय एक साधु - मुनि छे अने तेमणे बतावी आप्युं छे के सधवाविधवानो खास तारणहार आ रेटियो छे.) [काव्यमा गुरुपरंपरा नथी. कविने तपगच्छना शुभविजयना शिष्य मानीए तो एमनी स्तवन-सझायादि प्रकारनी केटलीक कृतिओ मळे छे जे सं.१६६२थी १६७३नां रचनावर्षो धरावे छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ, बीजी आवृत्ति भा.३, पृ.१८-२२ तथा गुजराती साहित्यकोश खं.१ पृ.३८६. आ कृति 'जैन गूर्जर कविओ' मां नोंधायेली नथी. कृतिमां रेंटियाने रतनसीने नामे ओळखावायेल छे अने एथी कृति 'रतनशी सझाय' एवे नामे पण नोंधायेली छे. - संपा.] प्रथम नमुं मरूदेवी-मल्हार, जे जिन ऊतारि भवपार, कलि-कालि भावो भावना, लाभ घणा होइ तेहना. १ श्रावकनि घरि होई संतान, कइ बेटो कि बेटि जाणि, सरिखि धरम वंश विवाह, करि धरी निज मन उछाह. २ माबापिं वर जोउ भलो, सहू सम, सखि ! परणु नाहलु, जाण्युतुं सुख सरजु हसि, परणि मूउ, पनोतो तसि. ३ जिणि जिमणो दीधो हाथ, तिणि भरतारि मेहल्यु साथ, तव आदर्यो सुगुण रतनसी, तेह-सुं प्रीति ज गाढी वसी. ४ कहीइं ते नवि अलगो रहि, घरनो भार सहू निरवहि, हाथि हाथ न मेलि कदा, नित नाचि, वात करि सदा. ५ रतनसीनो रूडो साथ, घरसूत[स]रूं एहनि हाथि, कहिइं पासु मेहलि नही, कहुं करइ सुकलीणो सही. ६ ए भईआ सम अवर न कोइ, पेटाफटीउं एहथी होई, विधवा सधवा सहू आदरि, कलियुग पेट भराइ करि. ७ पांच सात मलि गाउं गान, रतनसीनि करो कल्याण, कुवचन कलंक तणो भय धरो, तो ए रतनसी आदरो. ८ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०५ लालविजयकृत रेटियानी सझाय ए रहिटीउ मह करयो कोइ, हीआ आगलि राखो सोई, धणीआणी सुश्रुषा करि, रतनसी रखे वीसरइ. ९ प्रथम दुख जे स्त्री अवतार, बीजउ दूख जे मुउ भरतार, त्रीजुं दुख जे नहीं सुत-रतन, चोथु दुख जे नहिं घर धन. १० पांचमुं दुख जे कर, पाप, छठे दुख जे नहि मायबाप, गरभ धरो तो वहिवो भार, बहुलां दुख तणो भंडार. ११ इम जाणी चारित्र आदरो, नहिंतरि सूधो संवर करी, जिम छूटो स्त्रीवेदह थकी, काढो जड सघली पापकी. १२ दुख घणां सुख थोडां होइ, जिनवर वचन विचारी जोइ, ए संसार एहवो जाणयो, लालविजय दुख मांणयो. १३ - इति श्री अरटीया सझाय. [जैनयुग, अषाड-श्रावण १९८६, पृ.४२३-२४] Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ दीपविजयकृत कविवचन विशेनां बे कवित [कविपरिचय माटे जुओ ‘सुरतनी गझल'. - संपा.] घोरेकुं घोरा गधेकुं गधा केहेंसी, कायरकुं कायर अरू सूरनकुं सूर हैं, सपूतकुं सपूत कपूतकुं कपूत केहेंसी, न्यायकुं न्याई अरू अन्याईकुं दूर हैं, साहनकुं साह चोरनुं चोर केसी, मूरखकुं मूरख अरू पंडितकुं पूर हे, कहत कविराज दीप सुनिओ सुजांन लोक, कवि तो देखती तेंसी कहेंसी जरूर हैं. १ पुन:जतीकुं जती अरू सतीकुं सती केहेंसी, कपटीकुं कपटी अरू ध्यांनीकुं ध्यानी हे, मुंजीकुं मुंजी अरू धीरनकुं धीर केहेंसी, दासीकुं दासी अरू रांनीकुं रांनी हे, गंडिएकुं गंडिए अरू मरदकुं मरद केसी, सुंबनकुं सूंब अरू दांनीकुं दांनी हे, कहते कविराज दीप सुनिओ सुजान लोक, कवि तो देखसी तेंसी केहेंसी प्रमांनी हे. २ (कविना हस्ताक्षरमां विजयधर्मसूरि पासेनी प्रत, सुरतनी गझल साथे, पत्र ५-१३) [जैनयुग, कारतक-मागशर १९८५, पृ.४६] Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०७ जमलकृत स्त्रीगुण सवैया [जटमल धर्मसी नाहर ए हिंदी कविनी रास, गझल वगेरे प्रकारनी कृतिओ सं. १६८३थी १६९३नां रचना वर्षो बतावती कृतिओ मळे छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ भा. ३, पृ. २७१-७४. - संपा. ] छूट छूट कंठने पर्यो हे हार टूट टूट, फूट फूट भुवन भए है धूर छारसी, फूलन सी से छारि चरनि पसार डार, परी हे बेहाल बल काट भ्रम डारसी, कैले हे न चालै है न खेले है न खासै है, न बै गयो चिठो ग सरी चक धारसी, मेरठ कह्यौ जउ मानों तों तुम्ह जाइ देखों, कहा कउ गहि केरै कंकनकु आरसी. १ कुरंग से नयन कटि के हरतंइ अति कृश कुंबल ससा सी गति गजकी विशेषि है, कोकिल से कंठ कीर नाक सो कपोत ग्रीव, चलत मराल चाल सुंदर सु देखि है, कुसुम अनार से कपोल देह केतकी सी, कवल से कर नाभ केसूफल रेखि है, अधर अरण बिंब दाढौं दन्ति ढौंडी अम्बि, जटमल कुच श्रीफल स्त्रीय हसि देखि है. २ [जैन गुर्जर कविओ, बीजी आवृत्ति भा. ३, पृ. २७४] Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ तेजपालकृत कुगुरुपचीसी [कर्ता तपगच्छना आणंदविमलना शिष्य छे. तेथी एमनो समय सं. १६ मी सदी उत्तरार्ध गाय. विशेष माहिती प्राप्य नथी. आ कवि ने कृति 'जैन गूर्जर कविओ' मां नोंधायेल नथी, 'गुजराती साहित्यकोश खं. १ 'मां नोंधायेल छे (पृ. १५८). कृति 'जैन सज्झायमाला, भा.१' ( बालाभाई) तथा 'जैन सज्झायसंग्रह' (जैन ज्ञानप्रसारक मंडळ) मां छपाई छे. 'जैन सझायमाला भा. १' घणा पाठभेदो बतावे छे. कोई पाठ सुधारायेलो होय एवो पण लागे छे. आ कृतिनी लींबडी भंडारनी प्रत क्र. ३१७९ पण मळे छे. एनां पण अहींनी २०-२१ कडीने स्थाने बीजी कडीओ छे. हस्तप्रत तथा मुद्रितना महत्त्वना पाठोनो अहीं पाठशुद्धि तथा पाठांतर माटे लाभ लीधो छे. - संपा. ] दुहा श्री जिनवर प्रणमी सदा, लेई सदगुरू - आधार, कुगुरू तणा लक्षण कहुं, सुंणयो सहु नरनार. १ ढाल चोपाइ मनशुद्धि सुंणयो नरनार, हृदय न धरजो रीस लगार, पंचप्रमाद जे नवि छांडसिं, ते गुरू केम तरसिं तारसिं. १ कंठ लगें नित्य भोजन करे, जे परलोक थकी नवि डरे, समी सांझी संथारसिं. ते गुरू० दिन उग्या विण दातण करे, मनमां [ नि] सुगपणुं आदरे, न करे कदि ए नवकारसि ते गुरू० २ पटियां पाडे समारे केश, नित्यनित्य नवा बनावे वेश, मुख धोवें जो [व] इ आरसि ते गुरू० ३ साकर दुध पीयें परभात, चावलदाल जमें नित्य भात; २ सखर साक विण नवि सारसि ते गुरू. ५ स्त्री सुं वात करे जे घणी, मनिमें शंका करे [धरे] को तणी; जे खट काय न उगारसि. ते गुरू० ६ उनुं नीर नवि पीये कदा, [स]जल कुंभ भरि मुंके सदा; झरझरीए पांणी ठारसि ते गुरू० ते मुनि राते दीवो करे, पडदो बांधि खुंणे उतरे; भक्ष्य अभक्ष नवि जांणसि [ न विचारसि ]. ते गुरू० ७ ८ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेजपालकृत कुगुरुपचीसी ५०९ सेवें मैथुन, राखें दांम, नाम धरावें गौतमसांम; विषय-कषाय जे नवि वारसि. ते गुरू. ९ दिवस सारे जे भमता भमें, रात पडें सारे पासे रमें; एक [जण] जीतें एक हारसिं. ते गुरू. १० धम धम मारग चाल्यो जाय, इर्या समिति नवि जोवाई, ___ मनमां जयणा नवि धारसि. ते गुरू. ११ जडी बुटि ने जन्मोतरी, हलुओ हाथ करें हितं धरी, साप विछु जे उतारसि. ते गुरू. १२ गाडा भर्यां चलावें [गाडइ भार्य लाक्इ] वली, वणज व्यापार करें मनरली, सावध करणी [कारीज] संभारसी. ते गुरू. १३ पांचे आश्रव सेवें सहि, सु) मारग चालें नहिं, हाथें करी फूलफूल वीदारसि. ते गुरू. १४ [जे ओछा ने अधिक काटलां, साथइ जे राखइ पाटला] ___ मानवभव एम [आलइ] हारसि. ते गुरू. १५ कुडप्रपंच करें जे घणा, मनमां कांई न राखें मणा, पोते पिंड पापें भारसि. ते गुरू. १६ गुणवंतना अवगुण दाखवें, आप तणा अवगुण ओलवे, __ जे आधाकरमी आहारसि. ते गुरू. १७ सूरज उगें करें स्नान, धूप उखेवें, बेसें ध्यान, मिथ्या सुरा देव मन [सुर मनमें] धारसिं. ते गुरू० १८ एकण घर खमासण दिए, अशनादिक आपे ते लिए, बीजें दिन ते घर व्होरसिं [बीजा घर तिण दिन वारसि]. ते गुरू. १९ भाडे बलध करें जे पंथ, नाम धरावे छे निर्ग्रन्थ, वाटें बलध पोते चारसि. ते गुरू. २० वेचाता लेही चेला करें, विनवें रागें, चारित्र आचरें, भविजन बोधबीज केम ठारसि. ते गुरू. २१ मातपितानां बालक जेह, तेहने वियोग पडावे तेह, तेह थकी दुरगति पामसि. ते गुरू. २२ पांचे परबी वोहरे विगें, जमणवार देखीने रगें, भावे कदा देव न जुहारसिं. ते गुरू० २३ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह कुगुरू तणा लक्षण छे अनंत, कहेतां किमहि न आवे अंत, कुगुरू तणी संगत सारसिं [छाडसि]. ते गुरू० २४ श्री आणंदविमलसूरि गुरूराज, पंचम आरे दीठों आज; तेह तणो लही सुपसाय, भणें तेजपाल सुखदाय. २५ - इति कुगुरू पचीसि समाप्त. लिखितं पटेल कल्याण लक्षमीचनदा. श्री शुभं भवतु. (आ पछी महानिशीथमांथी गाथाओ मूकी छे. मुनि जशविजय संग्रह) [जैनयुग, मागशर-पोष १९८६, पृ.१८१-८२] Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५११ ज्ञानमेरुकृत कुगुरुछत्रीशी चोपाई [खरतरगच्छना महिमसुंदरशि. ज्ञानमेरुनी कथात्मक कृतिओ सं.१६६५थी १६७६नां रचनावर्षो बतावे छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ, भा.३, पृ.९४-९६ तथा गुजराती साहित्यकोश, खं.१ पृ.१४५. आ कृतिमां गुरुपरंपरा नथी तेमज ज्ञानमेरुने 'गणि' कहेवामां आव्या छे, अन्यत्र 'मुनि' छे तेथी आ कृतिना कर्ता ए ज्ञानमेरुने ज गणक विशे संशय रहे छे. - संपा.] प्रणमुं जिनवर गुरूना पाय, प्रणमुं जे सूधा गुरूराय; भविक सदा इम विचारसी, किम तरसी गुरू किम तारसी ? १ पृथिवी पाणी अग्नि ने वाय, वनस्पती छठी त्रसकाय; त्रिविधि जीव जे संहारसी. किम० २ साधु थइने बोले कूड, तिणि वांद्यां जाए द्रह बुड; प्रपंच करी बोले पारसी. किम. ३ अणदीधे लीधे ईक तणे, जिनवर चोर सरीखो गणे; भजे सदा गत सोनार सी. किम. ४ न रहे साधु जिहां हुवे नारि, जागे नारी देखि विकारई, करे स्त्रीसंग चारित छारसी. किम. ५ सचित अचित परिग्रह दोइ भेद, साध न राखे दू वेद; परिग्रह राखे करम भारिसी. किम०६ दोषण राती भोजन जिके, केवलनाणी जाणे तिके; ____दोष लगावे जिह्वा-रसी. किम. ७ क्रोध करीने बोले गाल, देवानुप्रिय वचन रसाल; वाणी अति बोले खार सी. किम. ८ करत रहे आठे अभिमान, भण्यो गुण्यो तेहनो अप्रमाण; गादह जिम नितु हूंकारसी. किम. ९ कूड कपट बोले अणगार, साधु तणो साचो विवहार; मनि धारे जे मंजार सी. किम. १० जैन परवनो जे उपवास. करतो वीस करे वेखास; करे सोम आदित ईग्यारसी. किम० ११ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह चवदसि रे दिन चव वार, खूणे बेसी करे आहार; करे चोथि नोरता बारसी. किम० १२ महा माई खेतल अंबाई, जपति रहे जिनधर्म विहाई; ते मिथ्यात्व किमे वारसी. किम० १३ ओषध मंत्र तंत्र ने यंत्र, साधु प्रयुंजे नही कुतंत; कहे जोतिष निज व्रत डारिसी. किम० १४ करे पीठी लगावे तेल, दिनमांहि नाहवे दो वेल, लाइ फूलेल देखे आरसी. किम. १५ केसर चंदननी करावे खोल, पहिरे झीणा वस्त्र अमोल; __ ईम देही जे संगारसी. किम० १६ घरि पहिरण न हूंता त्रापडा, पछे वणावे सखर कापडा; फूलडी जाल तिहां कारिसी. किम. १७ हीयडामाहि नही जिनधर्म, दे उपदेश, वधावे[२] कर्म; मातो करे निर्भय सारसी. किम. १८ साधुवचननो एह विवेग, सुणि सुणि मन जागे संवेग; कहे दोहा विरही संहारसी. किम० १९ रास धमाल विरह चउपइ, कहे वखाण विषे मति दई; सुणि सुणि रीझे नार सी. किम० २० आगे नारी पु(ठे) नारी, मूसक हसे मनमें सविकार; तिहांथी दृष्टि न जे डारसी. किम० २१ लिंगिनि विधवा संगे दोष, समकित-नाश कह्यो निरघोष; तेह-सुं रमी जनम हारिसी. किम० २२ जेहवो-वंत अने उच्चार, तेहवो आधा कर्म आहार; - स्वाद अरथे जे मुनि आहारसी. किम० २३ साधु सरस आहार न लेए, शीलरत्न-राखण मति देए; सर्वथी भजने वारिसी. किम० २४ क्रोध लोभ माया ने मान, करे सदा न करे धर्मध्यान; कर्म-अगिनि ते स्युं तारिसी. किम० २५ विरति नही को नही पचखाण, कूडो लंपटी निपट अजाण; ते गुरू नरके संचारसी. किम० २६ Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमेरुकृत कुगुरुछत्रीशी चोपाई न करे क्रिया सूद्ध सज्झाय, मादह जिम छूटे मुख खाय; अहिनिशि सिज्या संथारिशी किम० २७ करे पुस्तक चेलारूं काम, श्रावक पासे राखे दाम; ( मुनि जशविजय संग्रह) ५१३ इम भोला जन संभारसी. किम० २८ अर्थविहूणी सोभ न होइ, एहवी वात जाणे सहु कोइ; कहावे पाठक वाणारसी. किम० २९ भलो कुगुरूथी कालो साप, आगे कोई न करे संताप; कुगुरू अनंत भव लगि मारिसी. किम० ३० कुगुरू गावे समकित नग्ग, कालो मुह तसु नीला पग; जातां कुगति न आधारसी. किम० ३१ आप न चाले सूधे माग, सुधा साधां सुं करे लाग; न्यायमति कदे न धारिसी. किम० ३२ पीवे राबडीया ने दूध, जाणे मुगति जाईसि सूध, तिणि न करे नवकारिसी. किम० ३३ इह परभव-सुं जास न काज, धीठा न करे किणनी लाज; तेहने जिन क्युं सिक्कारसी. किम० ३४ सीख कहे ज्ञानमे मुनि ईसी, भविका लागे अमृत जिसी; जे मनमांहि न संभारिसी. किम० ३५ [जैनयुग, मागशर - पोष १९८६, पृ. १८० - ८१] Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ जिनहर्षकृत सुगुरुपचीसी - [खरतरगच्छना शांतिहर्षशि. जिनहर्षे रास अने स्तवनसझायादि प्रकारनी संख्याबंध कृतिओ रची छे, जे सं.१७०४थी १७६२नां रचनावर्षो बतावे छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ भा.४ पृ.८२-१४२ तथा भा.५. पृ.३९८-४०० अने गुजराती साहित्यकोश खं.१ पृ.१३१-३३. आ कृति 'जिनहर्ष ग्रंथावली' (संपा. अगरचंद नाहटा) तथा अन्यत्र छपायेली छे. अहीं 'जिनहर्ष ग्रंथावली' (पृ.४६३-६५)नो पाठशुद्धि ने पाठांतरमा उपयोग कर्यो छे ने एना पाठो [ ]मां मूक्या छे अगर 'ख' संज्ञाथी दर्शाव्या छे. – संपा.] ढाल : आदर जीव क्षमागुण आदर - ए देशी सुगुरू पिछाणो इणि आचरणे, समकित जेहनो शुद्धजी, कहेणी करणी एक सरीखी, अहनिशि धरम विलुद्धजी. १ सु० निरतिचार महाव्रत पाले, टाले सघला दोषजी, चारित्र-सुं लयलीण रहे नित, चित्तमां सदा संतोषजी. २ सु. जीव सहुना जे छे पीयर, पीडे नहीं षट्कायजी, आप वेदन परवेदन सरिखी, न हणे न करे घायजी. ३ सु० मोह कर्मने जे वश न पडिया, नीरागी निर्मायजी, जयणा करतां हळवे चाले, पुंजी मूके पायजी. ४ सु० अरहोपरहो दृष्टि न जोवे देखइ], न करे चालतां वातजी, दूषणरहित सुझतो आहारे, ते ल्ये पाणी भातजी. ५ सु० भूख तृषा पीड्यां दुख पीडे[भीड्या], छुटे जो निज प्राणजी, तोय पिण अशुधाहार न वांछे, जिणवर-आण प्रमाणजी. ६ सु० अरस नीरस आहार गवेषे, सरस तणी नहीं चाहजी, ईम करतां जो सरस मिले तो, हरखे नही मन मांहजी. ७ सु० शीतकाले शीते तनु धूजे, उनाले रवितापजी, विकट परिषह घट अहियासे, नाणे मन संतापजी. ८ सु० मारे कूटे करे उपद्रव, कोई कलंक दे सीसजी, करम तणां फल जाणी उदीरे', पिण नाणे मनमां रीसजी. ९ सु० १. ख. निज कृत कर्म तणा फल जाणे. Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्षकृत सुगुरुपचीसी ५१५ मनवचन कायाने जे दंडे, छंडे पंतप्रमादजी, पंच प्रमाद संसार वधारे, जांणे ते निसवादजी. १० सु० सरल स्वभाव भाव मन रूड़ो, न करे वादविवादजी, चारे कषाय करमना[कुगतिना] कारण, वर्जे मद-उन्मादजी. ११ सु० पाप तणां स्थानक अढारे, न करे तास प्रसंगजी, विकथा मुखथी च्यारे निवारे, सुमति गुप्ति सुरंगजी. १२ सु० अंग उपांग सिद्धांत वखाणे, दे सूधो उपदेशजी, सूधे मारग चले चलावे, पंचाचार विशेषजी. १३ सु. दशविध यतिधर्म जिन भाख्यो, तेहना धारणहारजी, धर्म थकी जे किमहि न चूके, जो होवे क्रोड [लाख] प्रकारजी. १४ सु० जीव तणी हिंसा जे न करे, न वदे मृषा अधर्मजी, तृण मात्र अणदीधुं न लीये, सेवे नहि अब्रह्मजी. १५ सु० नव विधि परिग्रह मूल न राखेरे, निशिभोजन परिहारेजी, क्रोध मान माया ने ममता, न करे लोभ लगारेजी. १६ सु० जोतिष आगम निमित्त न भाखे, न करावे आरंभजी, ओषध न करे, नाडि न जोवे, सदा रहे निरारंभजी. १७ सु. डाकणी साकणी भूत न काढे, न करे हलवो हाथजी, मंत्र जंत्र राखडी करीने नापें, विचारे परमारथजी. १८ सु० विचरइ गाम नगर पुर सघलेइ, न करे[रहे] एकण ठामजी, चउमासा उपरि चउमासो, न करे एकण गामजी. १९ सु० चाकर नफर न राखे पासे, न करावे कोई काजजी, नाहण धोवण वेश बनावण, न करे देह-इलाजजी. २० सु० व्याजवटानो नाम न जाणे, न करे विणज व्यापारजी,. धर्महाट मंडीने बेठा, विणजे पर-उपगारजी. २१ सु० सुगुरू तरे अवरने तारे, सायर जेम जिहाजजी, काष्ठ-प्रसंगे लोह तरे जिम, तरू संगतिए पाजजी. २२ सु. सुगुरू प्रकाशक लोयण सरखा, ज्ञान तणा दातारजी, सुगुरू दीप घट अंतर केरा, दूर करे अंधकारजी. २३ सु० २. ख. द्रव्यादिक परिग्रह नवि राखे. ३. ख. राखडी न बांधइ. ४. ख, न करे गोली कांथजी. ५. क. शरीरनी सारजी. ६. ख. व्याजवटाव करे नही कइयइं. ७. ख. गुरु. ८. ख. गमइ अंधारजी. Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह सुगुरू अमृत सरिखा शीला, दिए अमरगति वासजी, सुगुरू तणी सेवा नित्य करतां, करम विछूटे पाशजी. २४ सु० सुगुरू पचीशी श्रवणे सुणीने, करज्यो सुगुरू प्रसंगजी, ___ कहे जिनहर्ष सुगुरू पसाये शांतिहर्ष उछरंगजी. २५ सु. (मुनि जशविजय संग्रह) [जैनयुग, मागशर-पोष १९८६, पृ.१८३] Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१७ धरमसीकृत १४ गुणस्थान स्तवन [धरमसी/धर्मसिंह/धर्मवर्धन खरतरगच्छना विजयहर्षना शिष्य छे. एमनी गुजराती, राजस्थानी, हिंदी भाषानी रास, स्तवन-सझाय वगेरे प्रकारनी घणी कृतिओ मळे छे, जे सं.१७१९थी १७८१नां रचनावर्षो बतावे छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ, भा.४, पृ.२८६-९८, भा.५, पृ.४०२-०३ अने भा.६, पृ.४७७ तथा गुजराती साहित्यकोश खं.१ पृ.१९६-९७. आ कृति सं.१७२९मां बाहडमेरमां रचायेली छे अने 'धर्मवर्धन ग्रंथावली' 'रत्नसमुच्चय' 'जैन प्रबोध पुस्तक' वगेरेमा छपायेली छे. - संपा.] सुमति जिणंद सुमति-दातार, वंदु मन-शुद्ध वारोवार, आणी भाव अपार, चौदे गुण-थानक सुविचार; कहिशुं सूत्र अरथ मन धार, पामे जिम भवपार. १ प्रथम मिथ्यात्व कह्या गुणठाणो, बीजो सास्वादन मन आणो, त्रीजी मिश्र वखाणो, चोथो अविरत नाम कहाणो, देशविरति पंचम परिमाणो, छठो प्रमत्त पिछाणो. २ अप्रमत्त सत्तम लहीजे, अठम अपूर्वकरण कहीजे. अनिवृत्ति नाम नवम्म, सूक्ष्मलोभ दशम सुविचार; उपशांत-मोह नाम अग्यारम, क्षीण-मोह बारम्म, ३ तेरम सयोगी गुणधाम, चौदम थयो अयोगी नाम, वरणुं प्रथम विचार, कुगुरू कुदेव कुधर्म वखाणः तेह लक्षण मिथ्यात्व गुणठाणे तेहना पांच प्रकार, ४ ढाल : सफल संसारनी जेह एकांत नय-पक्ष थापी रहे, प्रथम एकांत मिथ्यामति ते कहे, ग्रंथ उथापी थापे कुमत आपणी, कहे विपरीत मिध्यामति ते भणी, ५ जैन शिव देव सह नमे सारिखा, तृतीय विनय मिथ्यामति पारिखा, सूत्र नवि सद्दहे, रहे विकल क्षणे, संशयी नाम मिथ्यात्व चोथो भषो. ६ समझ नहि कांड निज धंध रातो रहे, एह अज्ञान मिथ्यात्व पंचम कहे, एह अनादि अनंत अभव्यने, कहीय अनादि स्थिति अंत-सुं भव्यने. ७ जेम नर खीर घृत खंड जमीने बमे, सरस रस पाई वकि स्वाद केवो गमे, चोथ पंचम छठे छापा चढ़ते पढे, किमाही कषाय कर[बसि] आय पहिले अहे. ८ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह रहे वचे एक समयादि षट आवलि, सहीय स्वासादिनी थिति इसी सांभली, हवे इहां मिश्र गुणठाण त्रीजो कहे, जेह उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त रहे. ९ ढाल : बे कर जोडी पहिला चार कषाय सम कर समकिती केतो सादि मिथ्यामति ए, बैहि ज लहे मिश्र सत्य असत्य जिहां सद्दहणा बिहुं छती ए. १० मिथ गुणालय माहे मरण लहे नहि, आयु बंधन पडे न वेए, केतो लहि मिथ्यात के समकित लही मति सरिखी गति परभवे ए. ११ चार अप्रत्याख्यान उदय करी लहे व्रत विण शुध समकितपणो ए, ते अविरति गुणठाण तेत्रीस सागर साधिक थिति एहनी भणो ए. १२ दया उपशम संवेग निर्वेद आस्था समकित-गुण पांचे धरे ए, सहु जिनवचन प्रमाण, जिनशासन तणी अधिक अधिक उन्नति करे ए. १३ कंइक समकित पाइ, पुद्गल अरधना उत्कृष्टा भवमा रहे ए, कंइक भेदी ग्रंथी अंतर-मुहुरते चढते गुण शिवपद लहे ए. १४ चार कषाय प्रथम त्रण वली मोहनी मिथ्या मिश्र सम्यक्त्वनी ए, साते परिकृत[परकृति] जास परही उपशमें ते उपशम समकित धणी ए. १५ जिण साते क्षय कीध ते नर क्षायकी, तिणहि ज भव शिव अनुसरे ए, आगळ बांध्यो आय तो ते तिहां थकी तीजे चोथे भव तरे ए. १६ ढाल : इण परि कंबल पंचमे देश विरति गुण ठाण, प्रगटे चौकडी प्रत्याख्यान, जिणे तजे बावीस अभक्ष, पाम्यो श्रावकपणुं प्रत्यक्ष. १७ गुण एकविंशति पण धारे, साचा बारे व्रत संभारे, पूजादिक षट कारिज साधे, अग्यार प्रतिमा आराधे. १८ आर्त-रौद्र ध्यान होय मंद, आव्यो मध्य धर्म आणंद, आठ वरस उणी पूरव कोडि, पंचम गुणठाणे थिति जोडी. १९ हवे आगे साते 'गुणस्थान, एक एक अंतर-मुहुरत मान, पंच प्रमाद वसे जिण ठाम, तेह प्रमत्त छठो गुणधाम. २० स्थविर-कल्प जिन-कल्प आचार, साधे षट आवश्यक सार, उद्यत चोथा चार कषाय, तेण प्रमत्त गुणठाण कहाय. २१ सुधी राखी चित्तसमाधि, धर्मध्यान एकांत आराधी, ज्यां प्रमाद क्रियाविधि नासे, अप्रमत्त सत्तम गुण भासे. २२ Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१९ धरमसीकृत १४ गुणस्थान स्तवन ढाल : श्री संखेसर पास जिणेसर पहेले अंशे आठम गुणठाणा तणे, आरंभे दोय श्रेणी संक्षेपे ते भणे, उपशमश्रेणि चढे जे नर उपशमी, क्षपक श्रेणी क्षायक प्रकृति दशक्षय गमी. २३ ज्यां चढता परिणाम पूरव गुण लहे, अठम नाम अपूर्वकरण तिणे कहे, शुक्ल ध्याननो पहेलो पायो आदरे, निर्मल मन परिणाम अडग ध्याने धरे. २४ हवे अनिवृत्तिकरण नवमो गुण जाणिये, ज्यां भाव स्थिर रूप निवृत्ति ना आणिये, क्रोध मान ने माया संज्वलनरहेणे, उदय नहि जिहां वेद अवेदपणे तिणे. २५ जिहां रहे सूक्ष्म लोभ कांईक शिव अभिलखे, ते सूक्ष्म संपराय दशम पंडित दखै, शांत-मोह इण नाम इग्यारम गुण कहे, मोह-प्रकृति जिण ठाम सहू उपशम लहे. २६ श्रेणि चढ्यो जो काल करे किणही परे, तो थाये अहमिंद्र अवर गति आदरे[नादरे], चार वार समश्रेणि लहे संसारमां, एक भवे कोइ वार अधिक न हुवे किमे. २७ चढी अग्यारमी सीम शमी पहेली पडे, मोह उपर उत्कृष्ट अरध पुद्गल रहे. क्षपकश्रेणी अग्यारम गुणठाणो नहि, दशम थकी बारम चढे ध्याने रही. २८ ___ ढाल : एक दिन कोई आयो मगध पुरंधर पास एहनी क्षीणमोह नामे गुणठाणो बारम जाण, मोह खपायो नेडो आयो केवळनाण, प्रगटपणे ज्यां चारित्र अमल यथाख्यात, हवे आगे तेरम गुणस्थान तणी कहे गत. २९ घातीय चोकडी क्षय गइ रहीय अघाती तेम, प्रकृति पंचाशी जेहनी जूना कप्पड जेम, दर्शन ज्ञान वीर्य सख चारित पांच अनंत, केवलज्ञान प्रगट थयो विचरे श्री भगवंत. ३० देखे लोक अलोकनी छानी परगट वात, महिमावंत अढार दूषणरहित विख्यात, आठे वरसे उणी कही एक पूरव कोडि, उत्कृष्टी तेरम गुणठाणे ए थिति जोडी. ३१ करी शैलेशी करणी निरूंध्या मन वच काय, तेणे अयोगी अंत समे सह प्रकृति खपाय, पंचै लघु अक्षर उचरतां जेहनो मान, पंचमगति पामे सुख सौ चौदम गुणस्थान. ३२ तीजे बारमे तेरमे मांहि न मरे कोइ, पहेलो बीजो चोथो परभव साथे होइ, नारक देवनी गतिमां लाभे पहिला चार, धुरिला पांच तिरियमें मणुए सरव विचार. ३३ कलश एम नगर बाहडमेरमंडण सुमति जिन सुपसाउले, गुणठाण चौद विचार वो भेद आगमने भले, संवत सतर ओगणत्रीसे श्रावण वदि एकादशी, वाचक विजयहर्ष सांनिध कहे एम धरमसी. [जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स हेरल्ड, जून १९१७, पृ.१७३-७५] Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० मानविजयगणिकृत सात नयनो रास [कवि तपगच्छना शांतिविजयना शिष्य छे. एमनी कृतिओ सं.१७२५थी १७४१नां रचनावर्षो दर्शावे छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ भा.४, पृ.३५९-६५ तथा गुजराती साहित्यकोश खं.१, पृ.३०८. आ कृति पर टबो पण नोंधायेलो छे - संभवत: कर्तानो स्वोपज्ञ. _ 'हेरेल्ड'ना पाठमां कडी १७४ पछी १९० छे. वच्चेनो भाग खंडित छे. पण नवाईनी वात छे के 'जैन गूर्जर कविओ' (भा.४, पृ.३६०-६१)मा ए भागनी केटलीक कडीओ उद्धृत थई छे. अहीं ए समावी लीधी छे. उपरांत ला.द. भारतीय संस्कृति विद्यामंदिरनी हस्तप्रत क्र.८२१३ (ले.सं.१८३२)माथी बाकीनी खूटती कडीओ उमेरी लीधी छे तथा पाठशुद्धि अने पाठांतरमां पण एनो लाभ लीधो छे. जोके ए प्रत पण केटलेक स्थानोए अशुद्ध होवानुं देखाय छे. - संपा.] श्री गुरूचरणकमल अनुसरी, श्री श्रुतदेवी रीदय धरी, तत्त्वरूचीनइ बोधन काजि, करूं नयविवरण गुरू साहाजि. १ सूत्र-अर्थ सविनय संमति, संदरभित छइ श्री जिनमति, आवश्यक नियुक्ति अश्यु, देखी कहिवा मन उल्लस्यु. २ नयें करीने सयल पयत्थ, विचारवा बोल्या छे तत्थ, नयविचार करवो ते माटि, जिम पामो समकितनी वाटि. ३ जो एणें न विचारे अर्थ, तो तस सूत्र भण्यां सवि व्यर्थ, युगतायुगति भासे विपरीत, महाभाष्य मांहीं कही रीति. ४ सूत्रे कह्यं षडविध व्याख्यान, तेहमां एहवी पदादिक भान, ग्रंथ विशेषावश्यके अश्युं, ते पंडितजनरीदये वस्यु. ५ श्रुतज्ञांनइ ति एहने अधीन, एहथी हुइ निज मति पीन, .. ए चउथो अनुयोग-दुआर, एहनो छे बहुलो विस्तार. ६ चरण करण जे धरतो सदा, स्वसमय संभालें नवि कदा, निजपर समय विवेचन करी, आत्मतत्व न निहाळें फिरी. ७ चरण करण तस जाइ वद्यं, संमति ग्रंथमांहिं इम का, नयविचारथी ते तो होय, ते माटि अभ्यासो सोय. ८ भावनज्ञानें एहथी मिलें, सुद्ध मारगि दुरमतमति टले, विसंवाद वरजीत हुइ बुद्धि, सकल तत्त्वनी पामे शुद्धि. ९ त Gm Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानविजयगणिकृत सात नयनो रास ५२१ नय-लख्यण दृष्टांत स्वरूप, जाणी माहोमांहिं विरूप, अनेकांतपणे आदरो, मिथ्यामत दूरे परिहरो. १० महाभाष्य तत्वार्थभाष्य, संमति प्रमुखनी लेइ साखिं, श्री गुरूवचन थकी पणि लही, नयपरमार्थ कहुं महगही. ११ ढाल : राग आशावरी; नमो नमो श्री शेāज गिरिवर – ए देशी प्रस्तुत वस्तु तणो अंशग्राही, अनिराकृत प्रतिपख्य रे, अध्यवसायविशेष जे एहवो, ते नय कहीइ लख्य रे. १२ श्री जिनप्रवचन-शुं रंग कीजे, जिम मिथ्यामत बीजे रे, रागद्वेषनो नाश करीजे, केवलग्यान लहीजे रे. श्री जिन. आंचली. १३ जे प्रतिपख्य तणो प्रतिखेपी[पेखी], तेहने दुरनय जाणो रे, इम नय दुरनय जाणी पटंतर, जिनमत कीजे प्रमाणो रे. श्री. १४ नय प्रापक, साधक, निरवरतक, निरभासक इति भाष रे, उपलंभक, व्यंजक, एक अर्थे, इति तत्वार्थभाष्य रे. श्री. १५ द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक इति, मूल भेद तस दोय रे, द्रव्य ज अरथ विषय छे जेहने, ते द्रव्यार्थिक होय रे. श्री. १६ ए परमार्थे द्रव्य ज वंछे, पज्झयनय उपचारि रे, सामान्य रूपें अनवस्थानें, नहीं अरथांतर क्यारि रे. श्री. १७ आविर्भाव तिरोभाव मात्रे, परिणामे द्रव्य ज नान्य रे, उतफण कुंडलितादि अवस्था नही अहिद्रव्यथी अन्य रे. श्री. १८ जो द्रव्यथी पर्याय भिन्न तो, हुइ अवयय निजमात्र रे, तथा भिन्न वेशइ पण लहीए, इयते कल्पित मात्र रे. श्री. १९ बीजो पज्झय विषयी माने, लयपरकाशनि वृत्ति रे, तदभावे द्रव्य उपचारी, गुणसंतानें नित्ति रे. श्री२० पज्झयथी नहीं द्रव्य अनेरो, तह उवलंभ अभावे रे, जीवादिकना ज्ञानादिक गुण तैलधार परि थावे रे. श्री. २१ कल्पितमात्रे षष्टी संभव, राहुना शिर परि वेदे रे, कारण कार्ये नित्यानित्य, संततिगुणनें भेदे रे. श्री. २२ कोइ कहें दव्व पज्झय नयने, संमत दोवि पयत्थ रे, पणि आदिम एकांत अभेदे, भेदें अंतिम तत्थ रे. श्री. २३ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह तेह मृषा गुण गुणि दोय होवे, पर्याय मात्र अभेदे रे, भेदें अंत्यनये द्रव्य ग्रहे ते, द्रव्यार्थिक कुण वेदे रे. श्री० २४ एह विशेषावश्यक ग्रंथिं भाख्यो [लख्यो] सार विचार रे, यथासूत्र सद्दहणा धरता, लहीए मान उदार[भवजलपार] रे. श्री. २५ -- इति द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक नयस्वरूपं. अथ उत्तरभेद कथनं. चाल : राग सामेरी चालि द्रव्यार्थिकना चउ भेय, श्री जिनभद्रादि कहेय, नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र चोथो मनि धारि. २६ एक द्रव्यावश्यक भाखी, ऋजुसूत्र सूत्रे इति साखी, ऋजुसूत्र विना नय तीन, सिद्धसेन मते द्रव्यलीन. २७ ए सदावश्यक पर्यायें, द्रव्यपद उपचार कहायें. शब्द समभिरूढ एवंभूत पर्यायार्थिकं अनुस्यूत. २८ सिद्धसेन मते नय च्यार, पर्यायार्थिकना प्रकार, ए उत्तर भेद छे सात, तत्त्वार्थ पमुहथी ग्यात. २९ एकत्वें अंतिम नय तीन, शब्द नामे अंतरलीन, आदेशंतरि तव पंच, एहनो छ बहुल प्रपंच. ३० भेदाभेद तणी विवख्याई, प्रत्येके नय सत थाइ, सप्त भंगी जो अभ्यासे, तो समकित-वासना वासे. ३१ मुख्यवृत्ति द्रव्यार्थिक, गुणगुणिने अभेदे कथक, अन्योन्ये जे तस भेद रे, उपचार वले ते वेद. ३२ पर्यायार्थिक मुख्य वृत्तिं, भेद माने तेहनो नित्तिं, उपचारें तास अभेद, मनि धारो धरी उमेद. ३३ ग्रहे मुख्य अमुख्य प्रकार, नय जे दोय धर्मप्रचार, कल्पीजे ते अनुसार रे, तस वृत्ति अने उपचार. ३४ भिन्न विषय न भासे जेह, नय-ग्नानमां सर्वथा तेह, परनय-निरपेखी माटि, जावे मिथ्यामत-वाटि. ३५ एह छ महाभाष्ये विचार, संमति संमति पणि धार, स्याद्वाद मतें अनुसरे, जिम शिववधुलीला वरे. ३६ - इति मूलनय जातिभेद कथनं. Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानविजयगणिकृत सात नयनो रास अथ सप्त नय दृष्टांत कथनं. ढाल ४ : राग मारूणी, रायपद मरथ ए देशी ए नय सप्तक हुई विशुद्ध यथाक्रमे रे प्रस्थकवसति प्रदेश; दृष्टां करी भावो निज अनुभव करी रे निसुणी शास्त्रनो लेश. ३७ भविजन सांभळोजी नयसमुदाय, आयती समुदयनो कारको रे. आंचली वनगम दारू छेदन छोलन कोरवे रे, मृदु कारणे [करइ] उदभेद; एह स्थले नैगम व्यवहारह नय तणो रे, सुद्ध यर्थोत्तर भेद भ० ३८ संग्रहचित मित[निच्च] धान्यादिक भृतनें कहे रे, नहीं न्यूनाधिक रत्ति; मान्य[न] मेयो भयने ऋजुसूत्र कहे नही रे, एके मानो [व] पत्ति भ० ३९ प्रस्थक भावे परिणत आतम प्रस्थको रे, शब्दादिक मत एह; प्रस्थक ज्ञायक प्रस्थक करतृक ज्ञानथी रे, नही अतिरिक्त को तेह. भ० ४० लोक प्रभृति गृह कोण लगें निवसन कहे रे, नयनेगम-व्यवहार; संग्रह संथारा वृत खेत्र प्रदेशे रे, अन्य सकल उपचार. भ० ४१ जे आकाशप्रदेशे स्वयं अवगाढ छे रे, ऋजुसूत्र माने तिहांय; तेह पण वर्तमान सामायिकी जाणवी रे, प्रतिख्यण थिरता किहांय. भ० ४२ आतमभावे आतमवसति न परद्रव्ये रे, इम शब्दादिक भाव; विण संबंधे नहि अन्यनो अन्य स्थले रे, आधाराधेय भाव. भ० ४३ पंचास्तिकायने देश ए छनो प्रदेश छे रे, इम नैगम कहणार; देश विना पंचनो हुई कहे संग्रहनये रे, पणविह इति व्यवहार. भ० ४४ प्रत्येकें पणविधनी हुइ प्रसंजनो रे, इति ऋजुसूत्र कहेय; ते माटे पंचनो भजनाइं भाखवो रे, हवे शब्द वदेय. भ० ४५ तेहने विषे तथा तेह ज तेहनो प्रदेशको रे, अन्यथा न हुइ निर्देश; समभिरूढ वदे हुइ सप्तमी भेदिका रे, तेह ज तेहनो प्रदेश. भ० ४६ एवंभूत मते सवि द्रव्य अखंडका रे, नहि देशादि प्रकार; - इम दृष्टांत घटादिक द्रव्ये भावता रे, हुइ सुमतिविस्तार. भ० ४७ इति सप्त नय दृष्टांत दर्शनं. ५२३ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह अथ नैगम स्वरूप कथनं. ढाल ५ : राग सारिंग मल्हार; इडर आंबा आंबली रे - ए देशी हवे नैगमादिक नय तणां रे, लक्षण विवरी कहीश, विण लक्षण किम जाणीए रे, वस्तुस्वरूप विशेष. ४८ चतुर नर निसुणो श्री जिनवाणी, ए तो सवि नयरयणनी खाणी. चतुर० आंचली निगम नाम संकल्पको रे, तद्-विषयी अभिप्राय, ते नैगम नाम भाखीए रे, क्रम विशुद्ध बहु थाय. चतुर. ४९ सामान्य ने विशेषने जी, माने युक्ति तस एह, नित्य अखंड अनेकंग रे, हुइ सामान्यह तेह. चतुर० ५० एकाकार प्रत्यय तणो रे, हेतु द्रव्यादिक वृत्ति, नहि तो भिन्न विलक्षणे रे, किम सन [सत] इति अनुवृत्ति. चतुर० ५१ इति[म] गोत्वादिक मानवां रे पण सामान्य-विशेष, स्वजातीय विजातीए रे, वृत्ति व्यावृत्ति विशेष. चतुर० ५२ तुल्य संस्थानादिक छते रे, हुइ व्यावृत्ति बुद्धि, कस कारण परमाणुं ए रे, वरती विशेषनी शुद्धि. चतुर० ५३ हवे सिद्धांती वदे यदा रे, सामान्य बुद्धिन हेत, सामान्य गोत्वादिके रे, तह विशेषे लहेत. चतुर० ५४ जो जेणे विशेषीए रे, बुद्धिवचन ते विशेष, तो पर-अपर सामान्यने रे, मान्यो जोइए विशेष. चतुर० ५५ ते माटि जे वस्तुनो रे, हुइ समान परिणाम, ते सामान्य जे विसदृशे रे, तेह विशेषतुं नाम. चतुर०५६ अनुवृत्ति व्यावृत्ति बुद्धिनो रे, हेतु तेह ज पर्याय, इति अर्थान्तर वस्तुथी रे, किम एकांते कहाय. चतुर० ५७ एह विशेषावश्यके रे, छे सघलो विस्तार, नैगम निक्षेपा तणा रे, माने चार प्रकार. चतुर० ५८ घट इति नाम ते घट ज छे रे, वाच्य वाचकने अभेदि, हुइ नियत पद शक्तिनो रे, एकांत भेदि उच्छेद. चतुर. ५९ तुल्य परिणामपणा थकी रे, घटाकार घट एव, मृत पिंडादिक द्रव्य घडो रे, ते पणि घट ज कहेव. चतुर० ६० Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानविजयगणिकृत सात नयनो रास ५२५ परिणाम-परिणामी भावनी रे, अन्यथा न हुइ उपपत्ति, भाव घटें घटपद तणी रे, असंदिग्धपणे वृत्ति. चतुर० ६१ भावनिक्षेपो मानते पण, नहि द्रव्यार्थिक हाणि, परतंत्रे पज्झय गहे ए, श्री भद्रबाहुनी वाणि. चतुर० ६२ प्रत्येकें नामादिका रे, सामान्यग्राही एक, वंछे विशेषग्राही तथा रे भिन्न विगति अनेक. चतुर० ६३ - इति नैगमनय लक्षण स्वरूप कथनं अथ नामादि निक्षेपा स्वरूप कथनं. ढाल ६ : राग परजीओ; सीता हरी रावण जव आव्यो - ए देशी इहां प्रसंगे विवरी कहीइ, निक्षेपानो विचार रे, जेहनो अनुयोगद्वारे बोल्यो, सवि वस्तुई अधिकार रे. ६४ सुणो प्राणी रे जिनवाणी गुणनी खाणी रे. आंकणी नाम जे वस्तु तणुं अभिधानक, थापना तस आकार रे, भूतभावीभाव- जे कारण, तेह द्रव्य मनि धारि रे. सु. ६५ कार्यापन्न ते भाव कहीजे, ए चउ वस्तुना धर्म रे, वाच्यवाचक भावे संबंध, नाम तणो ए मर्म रे. सु. ६६ थापना समपरिणामपणे करी, परिणामिताए द्रव्य रे, एम विशेष परस्परि भावी, कीजे निज मति भव्य रे. सु. ६७ नामने वंछे शब्दनयवादी, वस्तुस्वरूप प्रशस्त रे, तत् प्रत्यय हेतु माटे धरम परि नामरहित नहीं वस्तु रे. सु. ६८ लक्ष्य लक्षण व्यवहार शब्दथी, क्रिया सवि तदधीन रे, शब्दनय एम निज मति थाप्ये, थापना नय वदे पीन रे. सु. ६९ शब्द वसु क्रिया फल संज्ञा, मत्यादिक सवि भाव रे, छे आकार रूप जगमाही, निराकार अभाव रे. सु. ७० वदति द्रव्य नय स्वपरिणामथी, कोण अनेरो आकार रे, उतफण विफण कुंडलिताकृतियुत, अहि परि ते अविकार रे. सु. ७१ उदभवलयने कार्योपचारें, कल्पित हेतुता एंहने रे, नट परि नित्य इति हेतु ज मानो, कार्य नहीं त्रिण्य भुवनें रे. सु. ७२ अह भावनय बोले क्षणवादी, भाव विना नहि द्रव्य रे, प्रतिक्षण भाव ज उपजे विणसे, हेतु विना जगे भव्य रे. सु. ७३ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह प्रतिसमयें अपरापर रूपें, थावाथी सवि वस्त रे, [कार्यरूप छे नही को कारण इम च्यारे वदे व्यस्त रे.] सु० ७४ तव सवि नयमय जिणमय बोले, मूको निज मत कूप रे; शब्द अर्थ बुद्धि परिणति भावे, सवि च[उ] पज्झय रूप रे. सु. ७५ एह विलक्षण निज आश्रयनें[नय], भेद अभेदना कार रे; प्रत्येके द्रव्यादि विकल्पे, आश्रयभेद अपार रे. सु. ७६ जव एके वस्तुए चउनी विवक्षा होए, अभेदक त्यारे रे, एम नय-समुदयथी सवि लहीए, शास्त्र-अर्थ सुविचारे रे. सु. ७७ - इति निक्षेपा स्वरूप. अथ संग्रहनय स्वरूप कथनं. ढाल ७ : राग केदारो गोडी; कपूर होए अति उजलू रे - ए देशी नैगमादिक अंगीकर्या रे, अर्थ सकल विस्तार, सामान्य रूपे संग्रहे रे, ते संग्रहनय सार रे. ७८ भविजन धारो गुरू-उपदेश, एहथी नाशे कुमत-कलेश रे. भ. आंचली केवल सत्ता मात्रने रे, अंगीकरे नय एह, सकल विशेष सत्ता रूपे रे, अंतरलीना लेह रे. भ. ७९ वृक्षादिकनी प्रतीतिका रे, होइ वनस्पतिजन्य, जेणे जेह पतीजीए रे, तेहथी ते नहीं अन्य रे. भ० ८० अंगुल्यादिक हस्तथी रे, जिम कांइ भिन्न न होय, वनस्पति सामान्यथी रे, तिम वृक्षादिक जोय रे. भ. ८१ इम दृष्टांतें भावीए रे, शत शब्दं सवि भान, तह द्रव्यत्वादिक रूपे रे, सवि द्रव्यादिक ग्यान रे. भ. ८२ ए पणि निक्षेपा चउ रे, माने प्रत्येके एक, कोइ कहे ए थापना रे, वंछे नही सुविवेक रे. भ० ८३ नामसंकेत विशेष छे रे, ते थापनाए संत, ते माटे नामनिक्षेप रे, थापना संग्रह हुंत रे. भ० ८४ तेह मृषा पित्रादिके रे, विहित संकेत विशेष, शब्दपुद्गलरूप नाम छे रे, थापना आकृतिविशेष रे. भ. ८५ Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानविजयगणिकृत सात नयनो रास ५२७ ते माटि नामादिके रे, बहु संख्याए जेह, निज निज जाति एकता. रे, ग्रहीए संग्रह तेह. रे. भ० ८६ - इति संग्रहनय. अथ व्यवहारनय. ढाल ८ : रामग्री; छानो ने छपीने कंता - ए देशी जे अनुयायी लोकव्यवहारने रे, अध्यवसाय विशेष; ते व्यवहार कह्यो नयसूत्रमा रे, माने एह विशेष. ८७ श्री जिनवाणी प्राणी आदरो रे, हरखी परखी रे चित्ति; नय-अंतर निरपेखी देखी उवेखीए रे, सवि मिथ्यामत नित्ति. श्री जिन० आंचली. ८८ घटपट प्रमुख विशेषथी अन्यनो रे, नहीं लोकें व्यवहार; वार्ता मात्र प्रसिद्ध सामान्य छे रे, खकुसुम परि ते असार. ८९ श्री. जलआहारणादिक उपयोगिया रे, घटपट आदि विशेष; अर्थक्रिया अनिमित्त सामान्यने रे, मान्यतानो श्यो किलेश. ९० श्री. जे संग्रह दृष्टांते वनस्पति दाखीओ रे, ते पणि मुझ अनुकूल; कुण वृक्षादि विशेषथी अन्य छे रे, वनस्पतिर्नु रे मूल. ९१ श्री. संग्रह संगृहीत अर्थ विभाजको रे, जिम सत् द्रव्य पर्याय, जीव अजीव दुविध द्रव्य भावीए रे, एम पज्झय पणि थाय. ९२ श्री. सहभावी क्रमभावी इति दुविधा कह्या रे, रूपादिक सहभावी; नवीन पुराणादिक क्रम भावीया रे, इम बहुविध मनि भावि. ९३ श्री. पज्झयथी गुणविगति भिन्न न दाखव्यो रे, संमति ग्रंथे रे जोइ; जो गुण त्रीजो पदार्थ पामीए रे, तो त्रीजो नय[गुण] होइ. ९४ श्री. निश्चयथी पंच वर्णे भमरे कालिमा रे, अंगीकरे सवि लोक; तिम एह नय पणि अंगीकरे मुदा रे, इति लौकिक सम रोक. ९५ श्री. कुंडीश्रवे वाट जाई इत्यादिकें तथा रे, प्रायें छे उपचार; ए नय इति तत्त्वार्थभाष्यमां रे, माने निक्षेपाचार. ९६ श्री. - इति व्यवहारनयस्तृतीयः. Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह अथ ऋजुसूत्र. ढाल ९ : राग सारिंग; पूरवभव हवें सांभलो जातिस्मरण योगे रे - ए देशी निज अनुकूल अर्थ जिके, वर्तमानकालीन रे । तदग्राही अभिप्रायको, ते ऋजुसूत्र अदीन रे. ९७ सवि नय सवि नय धारीए, वारीए स्वाभिनिवेश रे. सवि. आंचली ए नय माने नहीं कदा, अतीत अनामत वस्त रे; उपलंभा भावे करी, गगनकुसुम परि अस्त रे. सवि. ९८ परकीय वस्तुने पणि नही, माने प्रयोजन भावे रे; परधन परिं कुण कामर्नु, निजथी निज फल पावे रे, सवि. ९९ व्यवहारवादीनें वदे, जो व्यवहारे भावे रे; संग्रह संमत पणि तज्यु, सामान्य निज भावे रेसवि० १०० अतीत अनागत पारकुं, तो किम मानें वस्तु रे; व्यवहाराभाव कल्पता, निष्फलता पण जुस्तु रे. सवि० १०१ तादृश अर्थनो वाचको, किम माने अभिधान रे; तथा तथाविध अर्थन, विषयीपणि किम ज्ञान रे, सवि० १०२ परमारथ ए नयतणो निज संप्रतिकालीन रे; नामादिक चउ निक्षेपा, प्रत्येकें एकलीन रे, सवि० १०३ तह पर्याय अनेकनो अर्थ अभिन्न ज मूल रे; सूक्ष्म क्षणिक पज्झय कह्यो, मनुष्यादिक स्थूल रे. सवि० १०४ - इति ऋजुसूत्रश्चतुर्थः. अथ शब्दनयः. दाल १० : राग - सुणो बहेनी पीउडो परदेशी - ए वेशी जे विशिषित ऋजुसूत्र संमत, अर्थग्राही अभिप्राय रे, ते नय शब्द कह्यो एह माने, भाव रूप परयाय रे. श्री जिनमत धारी एकांते, जिहां सवि नय अनेकांते रे. श्री० आंचली १०५ नामादिक घट त्रयने माने, तत कार्य अपाकरवे रे; पट परि इति प्रत्यक्ष विरोधे, तह लिंगने अपाधरवे रे, श्री १०६ कहे ऋजुसूत्रने अतीत अनागत, जो घटतुं नवि माने रे; तुल्य प्रयोजना भावें हुते, नामादि किम वाने[काने] रे. श्री. १०७ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानविजयगणिकृत सात नयनो रास ५२९ बहु पर्यायें अर्थ एक वंछे, पणि लिंग वयणने भेदे रे; भिन्न अर्थ माने इति ऋजुथी, शब्द विशेषित वेदे रे. श्री. १०८ सप्त भंग भाख्या जिनशासने, तेमांहि ले कोइ भंगे रे; सुविशेषित घट संमत एहने, अविशेषित ऋजु अंगे रे. श्री. १०९ सप्तभंगी इहां कहीए विवरी, प्रथमे छतो घट देखो रे; उर्ध्वग्रीवादिक निज पर्यायें, सद्भावे सविशेष रे. श्री. ११० परपर्यायें असद्भावें करी, विशेषित नहीं कुंभ रे; स्वपरोभय पर्यायें सत्ता, असत्ताएं कुंभ रे. श्री. १११ युगपद विशेषित होइ अवाच्यो, एकदा एकादेश रे; असंकेतिक दोय अर्थ कहे नहीं, ए त्रण सकलादेश रे. श्री. ११२ तह एकदेशे निज पर्यायें, सद्रूपे सविशेष रे; अपरे परभावें असत्वे, अस्ति नास्ति इति रेख्यो रे. श्री. ११३ एकदेशे निजभावें सत्यें, विशेष्यो अन्य देशे रे; युगपद ग्रहते घट तब हुवें, अस्ति अवाच्य आदेश रे. श्री. ११४ परभावें एकदेशे सत्त्वे, अपरें युगपद कहवे रे; अर्पित नास्ति अवाच्य कहीजे, सघले स्यात पद वहवे रे. श्री. ११५ सद्भावे एकदेशें स्वभावे, एके परपर्याये रे असत्वें अन्यदेशें युगपद, विशेषित कहवाइ रे, श्री. ११६ घट अस्ति अवाच्य आदेशें, ए सप्तभंगी पूरी रे; स्याद्वाद-मतलीना माने, शब्दादिक अधूरी रे, श्री. ११७ एह विशेष कह्यो महाभाष्ये, सप्तभंगीन बीज रे; ते अभ्यासी परमार्थ साधी, भीजाडी निज मीज रे, श्री. ११८ - इति शब्दनयः पंचमः. अथ समभिरूढः ढाल ११ : राग सामेरी पर्याय बहुनो अर्थ रे एकत्वे इंछे व्यर्थ रे, अर्थ रे प्रत्येके सवि शब्बनी रे. ११९ एहवी अध्यवसाय रे, ते समभिरूढ कहाय रे, थाय रे पूरबी पणि सूक्ष्मो रे. १२० Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह कहे शब्दवादी वेदे रे, लिंग ने वयणने भेदे रे, भेद रे माने जो तुं अर्थनो रे. १२१ संज्ञांतरे तो केम रे, माने नही भेद एम रे, तेम रे इहां पणि ध्वनिभिन्नता रे. १२२ ते माटे संज्ञाभेदे रे, अर्थनो मानो भेद रे, उच्छेद रे अन्यथा हुइ नियतनो रे. १२३ घट कुंभ कुट इत्यादि रे, थंभादि परें अन्यवादि रे, नादि रे भिन्न, प्रवृतिनिमित्तथी रे. १२४ घट कहीए चेष्टा-योगिरे, कुट शब्द कौटिल्ययोगि रे, लोगि रे कुंभ कुस्थिति पूरवे रे. १२५ घटकारथी अभिन्न रे घटकरणक्रिया-विन्न रे, भिन्न रे होये ते घटकर्मथी रे. १२६ पर्यायसंकर-दोष रे, अन्यथा हुइ इति रोष रे, कोष रे वस्तु निजनिज धर्मनो रे. १२७ इत कर्तृक्रियाकरमि रे, संक्रमे नहि त्यजी भरम रे, मरम रे, ए घट कुंभादिके रे. १२८ एह युक्तिनो विस्तार रे, विशेषावश्यके सार रे, प्यार रे एहनें पणि भाव-शुं रे. १२९ - इति समभिरूढ: षट:. अथ एवंभूत नयः. ढाल १२ : राग गोडी; इणी परि राज करंत रे - ए देशी अध्यवसाय विशेषे रे व्यंजन अर्थनो, जेह विशेष गवेषतो ए. १३० एवंभूत नय तेह रे सूत्रे दाखीओ, क्रियापरिणति मानतो ए. १३१ दीपनक्रिया शून्य रे, जिम दीपक नही, दीप शब्द वाचक नहीं ए. १३२ शब्दवशें अभिधेय रे, अभिधेयवशे शब्द इम उभयथी विशेषीए ए. १३३ स्त्रीमस्तके आरूढ जलआहरणादि क्रियायुतने घट कहीए ए. १३४ गृहकोणादिके थाप्यो रे तेह घडो नही चेष्टा विण ए नय-मतें ए. १३५ समभिरूढनय भाखे रे घटपद व्युत्पत्ति अछते जो कुटपद तणो ए. १३६ माने अर्थ तु भिन्न रे तो चेष्टा विण कालें घट पण किम घडो ए. १३७ व्युतपत्ति अर्थ अभाव रे बे ठामें तुल्य सूक्ष्म दृष्टि इम कीजीए ए. १३८ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानविजयगणिकृत सात नयनो रास ५३१ इम संसारी जीव रे प्राणधरण माटि सिद्ध जीव नहीं ए मते ए. १३९ ए महाभाष्ये भाख रे ए अनुसारथी कहं श्वेतांबर प्रक्रिया ए. १४० जीव नोजीव अजीव रे, तेहनो अजीव कीधे एम आकारणे ए. १४१ जीव प्रत्ये पण भाव रे ग्राही नैगम पमुह जीव पण गति वंछे ए. १४२ नोजीव इति आहवाने रे, अजीव के जीवना देशप्रदेश प्रत्ये वदे ए. १४३ आकारित अजीवें पुदगल द्रव्यादी तेहनो अजीव आकारितें ए. १४४ जीवद्रव्य पतीजे रे केतो अजीवना देशप्रदेश हवे ए नयो ए. १४५ जीव प्रति ऊदयिक भाव ग्राहक एह जीव वदें संसारीने ए. १४६ नोजीव इति अजीव रे के सिद्धह प्रतंई अजीव इति आकारितें ए. १४७ पुद्गलादिके सिद्धे रे नोअजीव इति आकारण कीधे हुँते ए. १४८ ग्रहे संसारी जीव रे देशप्रदेशनी कल्पन तो एहनइ नही ए. १४९ एवंभूताभिप्राये रे, सिद्ध ज जीव छे भाव प्राणने धारवे ए. १५० इति कोइकने मिथ्या रे, जीव प्रते एह तुरिय भावग्राहक कह्यो ए. १५१ आयु कर्मोदयरूप रे, जीवन अर्थनो छे सद्भाव संसारीए ए. १५२ सिद्धनें जीवत्व दाख्यु रे, मलयगिरि मुखे ते तो नैगमादिक मतें ए. १५३ एह नयाभिप्राये रे, पन्नवणादिके जीव न पज्झययुतपणे ए. १५४ जीव अशाश्वतो दाख्यो रे, इम सवि ग्रंथने संमत अर्थ विभावीए ए. १५५ ए नयमतें पणि सिद्ध रे, सत्त्वेने आतम ए व्यपदेश लहे सही ए. १५६ ए नयनइं पणि इष्ट रे भावनिक्षेपक, इति नय सप्तक दाखीया ए. १५७ ईत्येवंभूतनय: सप्तमः. ढाल १३ : राग मल्हार; वीरमाता प्रीतिकारणी - ए देशी मूल नय जातिभेदें कह्यां, नैगमादि स्वरूप; सूक्ष्म भेद एहना हुए, प्रत्येके सत्रूप. १५८ श्री जिनवर मत निर्मलुं, जिहां सवि नय भासें. अर्थ नय आदिम चउ यदा, त्रिण्ये शब्द नय एक; मूल नय पंचना पंचसे, आदेशांतरि छेक. १५९ संग्रहनय व्यवहारथी नैगम किहां एक भिन्न; एह कारणि परिभाषिका, सूत्रे सातनी थिन्न. १६० भेद असंख्य पणि संभवे, इति भाष्यमां भाख्यु; ते सवि समुदित जे धरे, तेणे समकित चाख्यु. १६१ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह एकेक अंश ग्रही अंधका, कहे जिम गज पूरो; तिम अहंकार नयवादीने, जाणे अंश अधूरो. १६२ चक्षुदर्शी जिम हाथीओ, जिम पूरण देखे; समकिती तिम नय सकलस्युं पूरण वस्तु विशेषे. १६३ यौग वैशेषिक विचरिया, नैगम अनुसारे; संग्रहरंगी वेदांतीया, कांपील व्यवहारे. १६४ बौद्ध ऋजुसूत्र सुख[मुख]नय थकी, मीमांसक नय भेले; पूरण वस्तु जैना वदे, षट दर्शन मेले. १६५ छूटक रतन माला इति व्यपदेश न पामे; एकादोरे तेह संकुल्यां, माला संपजे नामे. १६६ तिम सवे दर्शन साचलां, एकेकां न कहाय; सार स्याद्वाद सूत्रे करी, गूंथ्या समकित थाय. १६७ नित्य अनित्य पक्षपातीया, मांहोमांहे ते दूषेः जिम बेहू कुंजर झूझता, कर दंत ने मूखे. १६८ साधक स्याद्वादक तिहां, लक्षे भिन्न स्वरूप; दोय नय समवडि लेखवे, न हारे निजरूप. १६९ ढाल १४ : राग धन्याश्री; कहणी करणी तो विण साची - ए देशी सुर नर तिरजग जो नमे, नरक निगोद भमंत; महा मोहकी नींद सों सोए,' इम विरोध परस्परे देखी सवि नयने निज रूपे रे; जे संदेह धरे मनि बुडे ते मिथ्यामत कूपे रे. १७० श्री जिनवाणी अमृत समाणी, पीजे लीजे स्वाद रे; जिनमत जाणी थिरता आणी, त्यजीए आग्रहवाद रे. १७१ श्री. संदेहे हुइ समय-आसायण, इति महाभाष्ये भाख्यं रे; तेह कारणे समुदित अभ्यासो, जो वांछो श्रुत राख्यं रे. १७२ श्री. श्रुतपरिशीलन ए विण न हुइ, ए श्रुत जलनिधि-पोतजी; एह थकी घटि परगट होइ, निर्मल ज्ञानउद्योतजी. १७३ श्री. भिन्न भिन्न विषयक नयलयथी, होवे मुनि श्रुतज्ञानीजी; बृहत्कल्प भाष्ये ते भाख्यं केवली सम शुभ ध्यानीजी. १७४ श्री. १. अहीं सुधीनी दोढ पंक्ति अन्य हस्तप्रतमां नथी ने ए असंगत पण लागे छे. - संपा.] Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानविजयगणिकृत सात नयनो रास ५३३ एह अनोपम चिंतामणी सम, शास्त्र पिटकथी लेइजी; प्राकृतभाषा-दोरे गूंथ्यो, [भविजन कंठ ठवेइजी. १७५ श्री. सम्यग्दृष्टिनी रुचि वाधे, एह विचार सुणंताजी; जेह नही छलछलीआ गुणभरी, तस अनुमति एह भणंताजी. १७६ श्री. नयरहस्य जो लघुने दीजे, तो हुइ अरथनी हाणीजी; योगदृष्टिसमुच्चय मांहि एहवी रीति वखाणीजी. १७७ श्री. श्रोतामति परमाणिक हवो, नयविशारद सूरिजी; आवश्यकनियुक्ति भाख्युं, नही बुधजनमने दूरि जी. १७८ श्री. एहथी मिथ्यामति सवि भाजे, होय वस्तुप्रकाशजी; आरतिध्यान निवारी उलसे चिदानंदविलासजी. १७९ श्री. एह विचित्र नयवाद विचारी, कीजे उपशमभावजी; सूत्रे पणि फल एहनुं फल दाख्यु, रागद्वेष अभावजी. १८० श्री. ते माटे उपशमना अरथी, साधु महावैरागीजी, ते धरयो करयो मुझ उपरे कृपादृष्टि वडभागीजी. १८१ श्री.] राग धन्यासी, गुणतणी वेलडी - ए देशी श्री तपागछनंदनवनिं सुरतरू, जाणीइं ते जगि युगप्रधानो, जगतगुरू बिरूदधारी महिमानिधी, श्री गुरू हीरविजयाभिधानो. १८२ श्री. श्री जिनशासन जगि जयजयकरू. तास पाटिं हवो सुरगुरू अभिनवो, श्री विजयसेनसूरी प्रसिद्धो, साहि वर परषदे वाद जीती करी, गुरू सवाइ जिणिं बिरूद लीधो. १८३ श्री. श्री विजयतिलकसूरीसरू तस पाटि, उदयगिरि उगीओ वर दिणंदो, कुमतिमतितिमिरहर सुमति-उद्योतकर, विहित भविजन-चकवय आणंदो. १८४ श्री. तास पाटिं जनानंदकारी गुरू, श्री विजयाणंदसूरि सिंहो, ज्ञानसमतादिक गुणरयण रोहणगिरी, प्रवर वैराग्यरंजित निरीहो. १८५ श्री. [तास पाटि सदा गुणगण राजतो, श्री विजयराजसूरी सूरीसो, देशना सरस भविमन रीझतो, जेहनी चढती दिनदिन जगीसो.] १८६ श्री. तास गुरूभाई बुध शांतिविजय गुरू, शमदमादिक गुणवंत संत, जास सुपसायें सुरमणि सम मि लहिउं, श्री जिनवरमत अति लसंत. १८७ श्री. तस विनयी नयी मानविजयाभिधो, वदति निज शकति श्रुतभगति आणी, तत्त्वरूचि भविकजन भणत सुणतां, हुयो सुभफलदायिनी एह वाणी. १८८ श्री. Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह [जेह मति मंद] भावे करी एहमां, शास्त्र विपरीत कहेवायुं होय; तेहनु मुझनइ मिच्छामि दुक्कड होयो, सोधयो अंत गीतार्थ सोय. १८९ श्री. भणतां सुणतां होइ समकित निरमलं, एह सुरमणि समो नयविचार, सतत अभ्यासता होइ समता गुणो, एह अनंत कल्याणकार. १९० श्री. - इति श्री मानविजयगणिकृत नयविचारनो रास संपूर्णः. ग्रंथाग्र २४०. छ. [जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स हेरल्ड, मे १९१७, पृ.१५१-६१ तथा जैन गूर्जर कविओ भा.४, पृ.३६०-६१] २. आ कडी श्री देशाईना पाठमां क्र. ७५ पर छे. Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्लुकृत बार भावना (कर्मसिंहकृत बालावबोध साथे) (१. अल्लु नामना कविए अनित्यत्व आदि बार भावना पर हिंदी भाषामां दोहा अने छंद मळीने ३८ पद - कडीओ रचेल छे. ते कवि कोण हतो अने क्यारे थयो ते जाणवाने कंई साधन उपलब्ध थयु नथी. भाषा जूनी हिंदी छे तेथी ते बनारसीदासना समयमां थयेल होय तो ना नहीं. तेना पर बाळावबोध थयेल छे तेथी ते कृति खास समजवा जेवी रहस्यवाळी होवी घटे एम अनुमान थाय छे. रचनारमा आध्यात्मिक भाव खीलेलो होई ऊंडा उद्गार बहार आवेला छे एवं ते कृतिनो अभ्यास करतां जणाय छे. २. आ हिंदी कृति पर कर्मसिंह नामना मुनिए गुजरातीमां बाळावबोध लखेल छे. तेनी आदिमां पार्श्वचंद्रने सद्गुरु तरीके नमस्कार कर्यो छे. ते पार्धचंद्र ते सं.१५८६थी १६००मां थयेल अने नागोरी तपागच्छनी शाखा पायचंदगच्छना स्थापक हता. (जुओ जैन गुर्जर कविओ, प्रथम भाग, नं.१०८ पृ.१३९). आथी बाळावबोधकार ते पार्श्वचंद्रना शिष्य या तेनी शिष्यपरंपरामां थयेल एक मुनि छे. बाळावबोधमां मात्र पदनो अर्थ न आपतां विस्तारवाळू पण मुद्दासर विवेचन करेलुं छे अने 'नोकषाय' ए दिगंबर संप्रदायमां मळतो शब्द वापरेल छे ते परथी दिगंबर आम्नायना ग्रंथोथी ते परिचित होवा जोईए. तेनी भाषा पोताना समयनी शुद्ध संस्कारी छे तेथी चालु प्रचलित भाषामां मूकवामां थोडोघणो जूनां रूपो वगेरे बदलवा जेटलो फेरफार करवामां आव्यो छे. मूळ कडीओनी अंकसंख्या जे भावनाना संबंधमां ते छे ते भावनाना आंकडा प्रमाणे छे ने बाळावबोधमां पण ते प्रमाणे छे. में तेना आंकडा कौंसमां मूकी तेनी साथे सळंग संख्या पण बतावी छे. ३. आ बाळावबोध सहितनी एक प्रत आचार्य श्री विजयमोहनसूरिना स्थापित वडोदराना श्री मुक्तिकमल जैन मोहन ज्ञानमंदिरमाथी तेमनी कृपाथी प्राप्त थयेल छे. अने ते उपयोगी धारी में उतारी लीधेल छे. ते साफ अने सवाच्य अक्षरोमां सं.१८००मां नव पानामां लखायेली छे. ए लख्या साल करतां बाळावबोध अने कृति प्राचीन छे ए स्पष्ट छे. ४. आध्यात्मिक विकाराक्रममां भावना अति अगत्यनो भाग भजवे छे. धर्मना चार प्रकार नामे दान, शील, तप अने भावना. एमां भावना जोके छल्ली मूकी छे छतां दान, शील अने तप ए दरेकमां भावनानुं ज महत्त्व छे. 'यादृशी भावना तादृशी सिद्धिः - जेवी भावना तेवी सिद्धि - ए सूत्र सामान्य व्यवहारमा प्रसिद्ध छे. श्री भगवद्गीतानुं वाक्य 'मन एव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयोः' अर्थात् बंध अने मोक्ष- कारण मनुष्यने मन: ज छे - ए पण सुविदित छे. एम अनेक दृष्टिथी विचारतां भावनानुं गौरव जबरुं छे. ५. प्राचीन आचार्योए प्राकृत अने संस्कृतमां अनित्यादि बार भावनानुं स्वरूप जुदीजुदी Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह ते आलेख्यं छे, ते सर्वनो संग्रह एक लेख के पुस्तकना आकारमां प्रसिद्ध करवो योग्य छे. गुजराती काव्यमां सत्तरमी सदीमां तपागच्छना सकलचंदे 'बार भावना सझाय' अने खरतरगच्छना जयसोमे 'भावनासंधि' सं. १६७६मां (जैन गूर्जर कविओ, प्रथम भाग, पृ. २८० अने ४९३), अढारमी सदीमां तपागच्छना जयसोमे 'बार भावनानी सज्झाय' सं. १७०३मां (जैन गूर्जर कविओ, बीजो भाग, पृ. १२६) रचेल छे अने वीसमी सदीमां श्री रायचंद कविए गुजराती गद्यमां भावनाबोध नामनी कृति रची तेमां ते बार भावनानुं सुंदर स्वरूप आळेख्युं छे.) [ने कर्ता- कृति 'जैन गुर्जर कविओ' अने 'गुजराती साहित्यकोश खं. १ 'मां नोंधायेल नथी. बालावबोधना कर्ता पार्श्वचन्द्रगच्छना धर्मसिंहना शिष्य कर्मसिंह (जैन गूर्जर कविओ, भा. ५ पृ. २२१ तथा गुजराती साहित्यकोश, खं. १ पृ. ४८) होवानो तर्क करी शकाय केमके ए पोताने 'मुनि' तरीके उल्लेखे छे अने एमनी सं. १७६२मां रचायेली ने स्वलिखित 'मोहचरित्रगर्भित अढार नात्रां चोपाई' मळे छे. जोके खातरीपूर्वक आ हकीकत स्थापी न शकाय. संपा. ] - ९०. अथ अवधुकीरति लिख्यते. १. अनित्यभावना दुहा ध्रुव वस्तु निश्चित सदा, अध्रुव भाव परजाव, शुद्ध रूप जो देखीए, पुद्गल तणो विभाव. १ छंद जीव सुलक्षणा हो, पो प्रतिभासिउं आज, परिग्रह पर तणा हो, तासों को नही काज; कोई काज नांही, परहुं सेती सदा एसो जानीइं, चैतन्यरूप अनूप निज धन तास सो सुख मानीइं; पि पुत्त बंधव सयल परियण पथिक संगी पेखणा, समणाण दंसण सो चरितह रहइं जीव सुलक्षणा. ( १ ) २ २. अशरण भावना दुहा अशरण वस्तु जु परिणवण, सरण सहाय न कोइ, अपनी अपनी शक्ति के, सबे विलासी जोइं. (२) ३ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्लकृत बार भावना ५३७ छंद मरणां जांणइं आयु कायर सोइ होइं, मोहइं व्यापइं तास सरण विसोइ जोइ; नवि सरण जोवहिं अप्प सो वहिं सत्य वैन जु भासही, पहिचानि कृतकर्मभेद न्यारो शुद्ध भानु प्रकाशही; जिम धाईं बालक अन्नभेदी बाहरि मारग सम धरई, जीवतव्यता सों देह पोषी मरण सेती को डरई. (२) ४ ३. संसारभावना दुहा संसाररूप कोई वस्तु नाही, ए भेदभाव अग्यान, ज्ञानद्रष्टि धरि देखि जीअरे सबई सिद्ध समान. (३) ५ छंद ए संसारहि भाव परसों कीजईं प्रीति, जिहां सुखदुख मानीआ हो देखी पुग्गलकी रीति; पुद्गलद्रव्यकी रीति देखी, सुखदुखा सब मानीआं, चिहुं गति चउरासी लक्ष योनि, आपनां पद जांनीआं; यह आपनो पद सुद्ध चेतन, मांहि द्रष्टि जुं दीजीयें, अनादि नाटक नटत पुग्गल, तास प्रीत न कीजीयें. (३) ६ ४. एकत्वभावना दुहा एक दशा निज देखिकें अप्पा लेहुं पिछानि, नाना रूप विकल्पना, सो तुं परकी जानि. ७ बोलत डोलत सोवतइं, थिर मौने जागंत, आप-सभावइं एक मुणि, जिति-तिति अनयन भंत. (४) ८ छंद हंस विचक्षणा हो, विचारहुं एक तास, जन्म किणई धर्यो हो, मरणां को नहीं पासि; मरण किस किण जन्म धरिआ, स्वर्ग नरगइं को गयो, अनंत सुख बल वीर्य जाकें, दुःख कहो किण भोगव्यो; Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह निज सहजानंद सुभाव अपनो, थिर सदा चिद-गुण धणा, धरि ध्यान जोया नहि रूप दोया, जांनि हंस विचक्षणा. (४) ९ ५. अन्यत्व भावना दुहा अन्न अन्न सत्ता धरई, अन्न अन्न परदेश, अन्न अन्न थिति मंडिआ, अन्न अन्न परदेश. (५) १० छंद हंस सयानडा हो, आप्पा अन्न ही जोई, द्रव्य सहावे हो, मिलीउ किसहि न कोई; नवि कोइ मिलिउ किसही, सेती एक क्षेत्र अवगाहिआ, परदेश परचें करे नाही, नियत लक्षण वाहिआ; सोभावि राजित सर्वे भूषित एक समइ अयानडा, को नाहि साहिब उर सेवक, जाने हंस सयानडा. (५) ११ ६. अशुचित्व भावना दुहा निर्मल गति जिय अप्प, जो हो जानि अयास, आया सब जड जांणी तुं, चेअण अप्प-पयास. (६) १२ छंद हंसा निम्मला हो, जाणि हुं अप्प सरीर, संग न व्यापइं हो, दुख न दारिद्र पीर; प्रीर न व्यापइं दुःख दारिद रोग निकट (न) आवहीं, ग्यान दंसणसें चरितहं शुद्ध अप्पाभावही; मलमूत-धारि अति विधारी, जानि पुग्गल भिंभला, निज देह तेरी सुखह केरी, जानि हंसा निम्मला. (६) १३ ७. आस्रव भावना दुहा आस्रव-बंध अप्पा नही, अप्पा केवलनाण, जो इण भावई अणुसरई, तो निम्मल होय विहांण. १४ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३९ अल्लकृत बार भावना केवल मलपरिवज्जीओ, जिह सो ठाइं अणाई, तिस उर सब रस संचरें, पारें न कोई जाईं. (७) १५ छंद आस्रव एहु ज्जिया, पुग्गल तणो पज्जाव, सहजें होइं जिया, ताकी शक्ति स्वभाव; स्वभावशक्ति सब तास केरी देखी मूढो माणए, यह सकल रचना मैं जु कीनी नांहि कोइ आन ए; तिस भर्मबुद्धि सों आप आलूझ्यो, एक खेत ही वासओ, अनादिकाल विभाव ऐसो, जाणि जियडे आस्रवो. (७) १६ ८. संवर भावना दुहा इह जिय संवर अप्पणो, अप्पा अप्प मुणेई, सो संवर पुग्गल तणो, कम्मनिरोध हवेइ. १७ सत्तारूप जु द्रष्टि हैं, जांणि गुण परजाई, सो जिय संवर जांणि तूं, अपणो पदें सुभाइ. (८) १८ छंद संवर एहुं जिया अपने पदहुं विचार, जो परदव्व जिया, ताको नांही संचार; संचार नांही परदव्व केरो, पदहि अप्प विचारई, पंडितगुण सो भयो परचों, मुढ दोष निवारइं; सहज परणति भइ परगट, किम हुई कम्म कदंबरो, अनादि वस्तु सुभाव प्रणवें जांणि जियडे संवरो. (८) १९ ९ निर्जरा भावना दुहा (उ)पयोगी अपनें (उ)पयोगसों, न्यारें जानत जोग, आपे देख न शक्ति हैं, वाको धारण योग. २० यह योगीकी रीति हैं, मिलि मिलि करै संयोग, तासे निर्जरा कहत है, विछुर होत वियोग. (९) २१ Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह छंद निर्जरा तास की हो कम्मह तणा संयोग, थिति पूरी भई हो ताको होत वियोग; होत वियोग तिकां न राखै गवन दह दिसि धावही, पिछलो निवारो होइं ऐसो आगे ओर न आवही; यह शक्ति पुद्गल द्रव्य केरी मिलन विछुरन आसकी, ग्यानद्रष्टि धरि देखि चेतन होत निर्जरा तासकी. (९) २२ १०. लोक भावना दुहा सकल द्रव्य त्रिलोकमें मुनिके पदतर दीन, जोग-जुगति करि थप्पिआ, निश्चयभाव धरीन. (१०) २३ छंद जे बाह्यांतर परमा तीन्यों लोक एहो, परम कुटी सुखवास मुनिज्जोगेंदी ऐहो. शुद्ध निरंजन भास तिन्हको सहज लीला कीजीए, तिस कुटी मांही भावधारा बाहरि पैर न दीजीइं; किस गुरू नाहींन कोई चेला रहैं सदा उदास ओ, आ लोक मध्ये कुटी रचना तीन काल सुखवास ओ. (१०) २४ ११. धर्म भावना दुहा धर्म करावें धर्म करइं, किरिया धर्म न होई, धर्म जु जाणण वस्तु वहें, ग्यानदृष्टि धरि जोई. २५ करन करावन ग्यान नहीं, पढन अर्थ नहीं ओर, ग्यानदिष्टि नहीं उपजें, मोहां तणई झकोर. (११) २६ सोरठी धर्म न पढीया होइ, धरम न काय तप तपें, धरम न दीइं दान, धरम न पूजा जप जपैं. (११) २७ Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्लुकृत बार भावना ५४१ दुहा दान करो पूजा करो, जप तप करो दिन राति, इक जाणण वस्तु जु वीसरी, ईण करणी मदमाती. २८ धर्म जु वस्तु-सुहाव है, जो पहिचानें कोई, ताहि अवर क्यों पूछीए, सहजें उपजें सोई. (११) २९ छंद धर्म जु निर्मला हो, जाणहु वस्तुसुहाव, अप्पई धम्मिया हो, धर्म ही अप्पसभाव; अपणे सभावेंध जांणो, जाणि धर्मी अप्पहुं, संकल्प विकल्प दूरि करि कें, यहई निज करि थप्पहुं, विवेक व्रत नित हित धरि, कंतिह सहित सोभित सब कला, अनादि वस्तु सुहाएं सो, जानि जु निर्मला. (११) ३० १२. दुर्लभत्व भावना सोरठी दुर्लभ परको भाव, ताकी प्रापति दुल्लही, जो अप्प-सुभाव, सो क्युं दुर्लभ जानियें. (१२) ३१ छंद दंशन दुर्लभा हो, मुक्ति-सरोवर-नीर, इंद्री रहित जीया हो, पीवहुं निर्मल नीर; निर्मल नीर पीवईं तिरस भाजईं, विरह व्याकुल सो नहीं, सुगम पंथहि पथिक चालें, सप्त भयमें को नहिं; आत्म सरोवर ज्ञान सुखजल मुगति पदवी सुल्लभो, सुखेत सुकाल सुसमय गंमनो नहीं जोनि दुर्लभो. (१२) ३२ दुहा सो सुण बारह भावना, अंतरंगति उल्लास रमत्थ, सोति सपंडित जाणि तुं, ओर सबें अकयत्थ. (२) ३३ सुद्रव्य सुक्षेत्र सुकाल सुसुभाव समलीण, सहज शक्ति परगट भइ, आन न भासइ दीन. (३) ३४ Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह गुणसत्ताके जानतें, सांत भइ चिहुं ओर, विन जानें ऐसी हुंती, जिति तिति लागत सोर. (४) ३५ सोर गयो चिहुं ओरकों, वीती तिसा अयाण, निज सत्ताके जाणिवें, निर्मल दृष्टि विहांन. (५) ३६ करम सुभासुभ उदय गति, समें समें रसलीण, साखीभूत थित्या थकां, देखई ग्यानप्रवीन. (६) ३७ अकथ कहानी ग्यानकी, कहन सुनन की नाहि, आपहि आपें पाइए, जब देई घट मांहि. (७) ३८ - इति श्री अल्लकृत १२ भावना समाप्ता. संवत १८०० वर्षे शाके १६६५ प्रवर्त्तमाने पोस शुदि ११ दिने सकलपंडित शिरोमणि पंडित श्री विनीतविजयगणि तच्चरणसेवक देवविजयेन लिपीचक्रे श्री सूर्यपुरमहाबंदिरे श्री सुरतमंडण पार्थजिनप्रसादात्. मुनि कर्मसिंहकृत बालावबोध ९०. श्री परमगुरवे नमः. नमः श्रीवर्धमानाय पार्श्वचंद्रं च सद्गुरून्, अल्लुकृतभावनायां टबार्थो लिख्यते मया. १ यद्यपि सुगमसुदेशीभाषामर्थं च लम्यते प्रगट स्तदपि हि मंदमति स्यात् मत्सदृशः कोऽपितस्यार्थे. २ श्री वीतराग देवने नमस्कार करीने अथ कहेतां हवे अवधु कहीए आत्मा, तेहनी कीर्ति कहेतां गुण- कहेवू, एटले आत्माना गुण, अवदात, वृत्तांत, भावनासंबंध लखीए छीए. भावना विना आत्मवृत्तांत संबंध गुणप्रबंध न पामीए, अने भावना विचारतत्त्व चिंतवनाध्यवसाय, शुभ लेश्या परिणाम शुद्धोपयोगें जीवाजीवास्तव संवर निर्जरा बंध मोक्षादि तत्त्वपदार्थ तथा द्रव्य गुण पर्याय स्वपर समयादि अनेक भेद पामीए; ते माटे १२ भेदे भावना लखीए छीए ए संबंध. तत्र पहेली अनित्य भावना भावे छे. अनित्य भावनाए नित्यानित्यपणुं जाणीए. नित्यानित्यपणुं जाणतां षद्रव्यने विषे द्रव्य अने पर्याय ए बे नय जाणीए. तिहां द्रव्य विषे नित्यपणुं, पर्याय विषे अनित्यपणुं - ए बे उपयोग थया. ध्रुव कहेतां शाश्वत नित्यपणुं, वस्तु कहीए पदार्थ - बहु द्रव्य विषे, निश्चल - अचल - निजनिजरूपें अच्युतपणुं छे; सदा कहेतां अतीत, अनागत अने वर्तमान विषे, अध्रुव कहेता पदार्थ तेहनां परजाव कहीए पर्याय. एटले द्रव्यार्थ पर्यायार्थिक Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्लुकृत बार भावना नये वस्तुविचार जाणवो. संसारमांहि स्कंधादिकनां जे रूप देखीए छीए ते सर्व पुद्गलद्रव्यना विभागपर्याय जाणवा अने एह ज पुद्गलपर्याय औदारिक, वैक्रिय, आहारक, मनोवाक्कायादि वर्गणारूप स्कंध ते आत्मप्रदेशे एकक्षेत्रावगाहनयोगे वाश्या आत्मपणे मानी स्वप्रदेशे परिणमाव्या ए अशुद्धचेतना. ते चेतनाना विभावपर्याय. वली तेह ज नित्यानित्यपणुं द्रव्यपर्याय आदि भेदे कहे छे. १ अहो जीव ! शुद्धसत्तावंत, स्वभावसुलक्षणवंत, रत्नत्रय अनंतचतुष्टय आदि स्वलक्षणवंत ! 'तुं आज मुझनें प्रतिभासिओ' एटले में आज समय लब्धियोगें सम्यक्त्वनी उत्पत्ति समये जाण्युं; अने आ इंद्रिययोगप्रत्यक्ष जे परपरिणति पर्यायरूप परिग्रह, ते अहो जीव ! परद्रव्य पर्याय जाणजे. ते औदारिक आदि देह पुद्गलरूप परद्रव्य पर्यायनी मांहे कोइ सत्य बोले ते शुं जाणीने ? ते कहे छे. 'पहिचानी' कहेतां ओळखी – जाणी - देखीने. शुं देखी? कृतकर्मपरिणतिनो भेद; आत्मा-स्युं आत्माथी न्यारो शुद्धात्मद्रव्योपयोगरूप वेदनज्ञानसूर्यनो प्रकाश उदय करे छे. वली ते अंतरात्मा संसार मांहि रहे छे. ते केम रहे छे ? ते दृष्टांत देखाडे छे. जेम धाइ - माता स्व- पर संतान पाळे छे स्व- पर संतानंनी भेदबुद्धि छे अने बाह्य वृत्ति सरखुं जल्पन लालीपाली सुश्रूषा - स्नान - विलेपनादि करे छे, परं अंतरगति हेत आपार बुद्धिम अध्यवसाय विषे सामान्य - विशेष स्निग्ध- रूक्ष परिणाम पर्याय विषे संख्यात असंख्यात हा वृद्धि जाणवी, तद्वत् जीवतव्यने संबंधे देह पोषी, पण भिन्नपणानी बुद्धि माटे, मरणनो भय तेहने ते अपर बाळकनो नथी, त्यम सम्यक्त्वी जीव अ (ए) क संबंधे शरीर पाले. परं अंतर भिन्न. २ - - - ५४३ - हवे नित्य अशरण ए बे उपयोग थया त्यारे द्रव्यकर्मफलचेतना, भावकर्मफलचेतना रूपे द्रव्यसंसार, भावसंसार ए जाण्या त्यारे संसारभावना उपजी ते माटे त्रीजी संसारभावना भावे छे : संसाररूप कोई वस्तु पदार्थ नथी. ए 'भेदभाव' कहेतां नर-नारकादिक, स्वामीसेवक, जन्ममरण, सुखदुःखादि सर्व भेदो अज्ञान मांहि छे. परं अहो जीव ! सम्यग्ज्ञानद्रष्टि 'देखी' जोय - विचार शुद्धनयार्थ द्रष्टिए जोतां सर्वे जीव चतुर्दश भेदे चतुर्दश रज्ज्चात्मवर्ती सिद्धा. सिद्ध - सर्व सिद्ध समान छे. ३ छंद : शिष्य संदेह टाळवाने संसारस्वरूपनी मूलोत्पत्ति कहे छे. संसारभावे संसारोत्पत्ति जाणवी. ते संसारभाव शुं ? ते कहे छे. ए संसारभाव निश्चये-शुं ते कहीए, जे बाह्याभ्यंतर द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्मादि परपरिणति कार्य प्रयोजन नहीं Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह एम सम्यक्त्वी जीव चिंतवे. कोई कार्य नहीं, सर्वथा प्रकार परवस्तु परपर्यायसंघाते निश्चयथी सदा - सर्वदा त्रिकाल विषे सम्यग्द्रष्टिए एम जाणवं. चैतन्यात्माचं जे अनुप रूप तेज निज धन निधान - निधिरूप अक्षय भंडार, ते ओळखी - जाणी तेहथी सहजोत्पन्न आत्मीय अद्वितीय रूप सुख मानीये. हवे परसंयोग बाह्यरूष देखाडे छे. पिता पुत्र भाइ सकल समस्त ‘परियण' कहेतां परिजन - परिवार - सर्व संबंधीसगां ए सर्वे केवा छे ? पंखीना मेळा समान छे. वळी केवा छे ? पेखणा समा. सा रूप पेखj छे, अथवा पथिक संगीरूप पेखणा कहेतां देखणा जाणवा. सम कहेतां सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्रादिक जे आत्मगुण अनादि सहभूत संघाती जे जे गुण ते सहित रहे छे जीव सुलक्षणवंत. ए पहेली अनित्यभावना कही. ते अनित्य भावनाए पर्यायोगपयोग थयो. पर्यायोपयोग थातां तत्पूर्वक द्रव्य ते जाण्यु. ए बे जाणतां नित्यानित्यपणुं जाण्युं. नित्यपणुं जाणतां अशरणपणुं जाण्यु. ते माटे बीजी भावनाए अशरणपणुं भावे छे. अशरण वस्तु शुद्धात्मवस्तु शुद्धात्मद्रव्य शुद्धनिश्चय मया उक्त. तिहां स्वभाव परिणति शक्ति पामी शुद्ध सत्ता स्वरूपे परिणमन समये अपर द्रव्य कोइ शरण – सहाय नथी एटले परद्रव्य परगुण परपर्यायावलंबन ए सर्व व्यवहारनये छे. निश्चयनय अपेक्षाए आपआपणी शक्तिना षटषटे (छ-छए) द्रव्य ‘सर्वविलासी' – भोगी छे. ते शक्ति कोण द्रव्यत्व गुणत्व पर्यायादि तेहना विलासी जोई - देखी, एटले परद्रव्य-स्युं कार्यकारण विशेष ते उपचरित व्यवहारनय छे, तेनो निश्चय. जे बहिरात्मा देहादि विणास्ये आपणो विणास - मरण जाणे छे ते मूढ जीव देहादि वियोगथी कायर थाए छे. ते मूढ मोहें व्यापे छे अने ते मोह व्यापी छे; एटले मोहे ते, ते तेने मोहे - एम परस्पर व्यापकपणुं छे. शरणपणे ते ज सोचे छे, पण जे अंतरात्मपणे परिणम्या छे ते शरण कोईनो नथी जोता अने ते सम्यकत्वी द्रव्यभावनिद्राए अल्प सूए छे, अने वचन पण 'कीजे प्रीत' - स्नेहममत्वादिक. वळी संसारभाव शुं ते कहीए. अहं सुखी-दु:खी, धनी-निर्धन, पंडित-मूर्ख, राजा-रंक इत्यादि आत्माने मानीए ते संसारभाव कहीए. ए सर्व शुभोदयवशात् मनोज्ञ पुद्गलद्रव्यनी रीति देखीने पोतापणुं मान्यु ए संसारभाव; एटले द्रव्यकर्मजनित व्यवहार शुभाशुभ क्रिया ए ज भावकर्मना कारण, अने विभावजनित अनेक विकल्प - अध्यवसाय ते ज द्रव्यकर्मना कारण - इम माहोमांहि कार्यकारणनी संकलना जाणवी. इम इष्टानिष्ट संयोग-वियोगादि पुद्गलद्रव्यनी रीति देखी एह ज भावकर्मोत्पत्ति कारण पामी सुख-दु:खादि व्यवस्था आप विषे मानी. वळी संसारभाव ए कही, जे चार गति चोराशी लाख जीवायोनिमाहि Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४५ अल्लुकृत बार भावना जे जे रूप धर्यां ते ते रूप देखी विभावपरिणतिरूप भावकर्म उपन्यु, तेथी ते ते रूप सर्व पोतानां करी जाण्यां. तेणे जे जे क्रिया नाट नाच्यो ते द्रव्यकर्म बंधरूप परिणमे. तेणे अनादिनो संसारी संसारमांहि रह्यो अने जो ए संसारभाव मिटे तो संसार कोइ वस्तु नथी. हवे संसारभाव मटे ते शुद्ध भाव कहे छे. समकिती जीव आत्माने एम समजावे, जे अहो आत्मा ! आपणो पद ते शुद्ध चेतनद्रव्य, ते शुद्धपणाने विचारवो. तेह ज तत्प्रगटन बीज अने संसारावस्था नाशनो उपाय, पण ते जो अंतरंग चित्तवृत्ति मांही दृष्टि दीजे तो आत्मपद पामीए. पण बाह्य दृष्टि जोतां केमेय न पामीए. ते माटे पर्वतोभिन्न निज पद जाणी ते मांहि ध्यानदृष्टिमग्न रहीए; अने बाह्य आ शं अनादि संबंधी पुद्गलद्रव्य नाटक करे छे, स्कंधादि रूपे ते नाटक आत्माथी अन्य संसाररूप जाणी उदास भावे वीए. ते पुद्गलना औदारिकादि स्कंधरूप स्वांग - भेष पामी, तेने विषे प्रीत न करीए. आपणे शुद्ध रूपे प्रीत कीजे तो ए भावना संसार मटे. (३) दूहा : हवे कर्मचेतना कर्मफलचेतना ए बे ज्ञानचेतनाए जाणी ते माटे त्रीजा ज्ञाने रमना (?) तेणें ज्ञानचेतनाए ते संसारभावना उपरी संसार भावनाबले द्रव्यसंसार, भावसंसारथकी आत्मा रहित जाणीए. तेनुं कारण एकेक भावनारूप शुद्धोपयोग शुद्ध ज्ञानगुणांशोत्पत्तिरूप एकत्वभावनामां ज्ञानंपर्याय उपज्यो. अहीं एकेक भावना ‘मुख्य' समये एकेक माहिथी अनेक भावनोपयोग उपजे छे. जेम द्रव्यने विषे अनेक गुणपर्यायांशनी सत्ता छे तेम एक पर्यायांश विशेषपणे द्रव्यगुणादिकांश सत्ता छे; वळी पर्याय विषे प्रतीपपर्यायांश सत्ता छे. यथोक्तं उत्तराध्ययने : रागो दोसो बिअ कम्मबीअं कम्मं च मोहप्प तवं वयंति, कम्मं च जाई मरणस्स मूलं दु:खं च जाइं मरणं वयंति. १ एम द्रव्ये पर्यायसत्ता पर्यायें द्रव्यसत्ता पर्यायें सत्ता - ए रीते परंपराभाव जाणवो. हवे एकत्वभावना समकिती जीव एम भावे छे जे अहो जीव ! आत्मा अन्य द्रव्यपुद्गलादि तदोत्पत्ति तस्य गुणपर्यायादि संसारविकल्प तेथी रहित तूं एवी ताहरी एक दशा देखीने एकत्वभावनाए करी अप्पा - आत्माने जाणी ले, शुद्ध निश्चयनये. एटले विकल्प ते अनेकपणुं अशुद्ध पर्याय ते व्यवहारनय, अने निर्विकल्प ते एकत्वपणुं ते निश्चयनय. तेथी शुद्ध एकत्वपणुं विचार अने 'नाना' कहेतां अनेक भेद नयांश - पर्यायविकल्पन – स्वपन. द्रव्यादिकनी भेदभावविचारणा ते शुं ? - जे आ नर, आ नारकी, आ देव, आ तिर्यंच, आ एकेंद्रिय, आ बेंद्रिय, एम मार्गणा तथा गुणथाणादि भेद ए सर्व विकल्पना कहीए. ते तुं परनी जाणजे, एटले आत्माना जे भेद कहेवाय ते जे उपचारे परसंयोगोत्पन्न ते माटे परविकल्प जाणी ए दशा चिंतवीए. ४ H Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह - 'बोलत' कहेतां बोलतां थकां, तथा 'डोलत' कहेतां गमनागमन करता, शयनरूप क्रिया करतां थकां धीरता रूपे चेष्टाए मौनपणारूप क्रियाए, जाग्रतपणारूप चेष्टा करतों - इत्यादिक विपाकोदयजनित अनेकपणुं देखी तुझ वेषें अनेकत्वपणुं न मानीश. तो मानीए शुं ? ते कहे छे. विकल्प मांहि निर्विकल्पपणुं जाणी निर्विकल्पोपयोगभावनाए आत्मामां आपणे स्वभावे एक जाणीए. 'जितितिति' कहेतां ज्यांत्यां संयो[ गो]त्थ तथा सविकल्पनाएं द्रव्य विषे अनेकत्वपणानी भ्रांति न करीश. ४ छंद : ते ज एकत्वपणुं. अहो ज्ञानसरोवरना हंस ! अहो विचक्षण ! 'विचारो एकपणें तास' कहेतां आत्मा प्रति वलि तूं विचार, जे ए जन्म कोणे धर्यो एटले कोण जन्म्यो अने मरण ते केनी पासे छे केनो स्वभाव छे ? तो तूं विचार, जे मूओ कोण, जन्म्यो कोण ? उत्पत्ति विनाश ए तो पुद्गलपर्यायनां लक्षणधर्म छे. अने वली जो स्वर्गे कोण गयो, नरके कोण गयो ? स्वर्ग नरक ए तो कर्मचेतनाफल छे. क्ली तुं विचार, जेने अनंत सुख, अनंत बलपराक्रम, तेने दुःख केवुं ? तो कहे जे दुःख कोणे भोगव्यं ? इंद्रियगम्य सुखदुःख ते तो पुण्यपापनुं फल; ते पुण्यपाप तो पुद्गलकर्मपर्याय छे, अने निज - पोते आत्मा तेनो स्वभाव तो सहेजें आनंदरूप छे, थिर रूपें त्रण काल विषे ज्ञानरूप गुण घणा छे एहवं तुझपणुं जो एनं ध्यान धरी जो. ताहरे बे रूप नथी. तुं अद्वितीय छे. हे विचक्षण हंस ! एहवं तुं हकीकत करी जाण. एम एकत्वभावना भावतां एकएक अनेकएक, एकअनेक, अनेक अनेकादि भंग्यांश विचारतां सर्व द्रव्य, सर्व द्रव्यना गुणपर्यायादि विशेष जाण्यां जाय. ते जाणतां द्रव्याद्रव्य विषे अन्यत्वपणुं जाण्युं, ते जाणतां द्रव्यना गुणपर्यायादि सर्व संयोग - भिन्नत्व- अन्यत्वादि भेद विचारोपयोग उपज्यो, माटे पांचमी अन्यत्व - भावना ते भावे छे. ४ शाश्वत ५४६ छंद : अहो हंस ! आत्मा शाणो – डाह्यो – चतुर - विचक्षण - सुजाण, प्रीछक इत्यादिक संबोधने करीने आप आप स्युं कहण, सुणण, आलोच कहे छे. तुं आत्मा अने आत्माथी जे अन्य पदार्थ ते जो देखे, अथवा आत्मा सर्व द्रव्यथी अन्य न्यारो जुए; अहो चेतन ! सर्व द्रव्यस्वभावे कोइ द्रव्य कोइ द्रव्य- स्युं मळेलुं नथी. कोइ कोइ - स्युं द्रव्यार्थिक नये मळेलुं नथी, अने सर्व एकक्षेत्र अवगाहीने रह्या छे. परं- पर्यायार्थिक नये परप्रदेश परिचय परस्परें नथी करता एटले प्रदेशार्थिक नये पण भिन्नत्वपणुं छे, ते शा माटे ? जे निश्चयनयना धर्मे, जे माटे 'निच्च दव्वा निच्च पएसा निच्च गुणा निच्चानिच्च पज्जवा सर्व पदार्थ नित्यत्वधर्मी छे. आपणो स्वभाव लक्षणधर्म नित्यपणें' छे. आपआपणी शोभा विराजमान सर्व द्रव्य भूषित - अलंकृत छे. (४) हवे पांचमी अन्यत्व भावना भावतां अन्य जे पुद्गल द्रव्य, तेना - - - 1 Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्लकृत बार भावना ५४७ द्रव्यगुणपर्यायांशभावना विचारें शुभअशुभ शुद्ध-अशुद्ध पर्यायांश विचार उपजे छे, त्यां अशुभशुद्ध विभावपर्याय स्वरूप विचारतां पुद्गलद्रव्य थकी नीपजेलो उदारिक वर्गणासमूह - उदारिकदेहरूपस्कंध पर्यायादिक तेहथी उपजेलो वितर्क स्वरूप कुरूपादिवर्गणा गंधरसस्पर्शादि विचारतां अशुचि भावना उपजे, माटे अशुचि भावना कही ते भावीए छीए. एकसमें परस्परें आपापरपणांने 'अयानडा' अजाण छे. वली माहोमांहि कोइ द्रव्य कोई द्रव्यनो स्वामी नही अने सेवक पण नहीं. 'सव्वे दव्वा अहमिंदा' एवं जाणी अहो हंस सयांणा - डाह्या. ५ ___ दुहा : निर्मल गति छे. जीव आपणी पोतानी मुक्तावस्थारूप काललब्धियोगें उपजेली शुद्ध चेतना-आविर्भाव छे त्यारे चेतना चेतनने कहे छे. ए शुद्ध चेतनांश कहीए, पण जो होइ जाणो तो, वा होइवा चाहो तो खप करो, वा ‘आयास' आत्मा तेथी; वा जोई हो जाणीने - परिश्रम करीने, वली अहो आत्मा ! तुज विना बीजा सर्व द्रव्य जडरूप जाणजे. तुं चेतन - आत्मा एक, तुं आप आपपर सर्व प्रकाशक छे. ६ छंद : अति निर्मल स्वरूप जाण. आपणो आत्मसत्तारूप शरीर ते तुं जाण - ओलख – तहकीक कर; पण ते केवो छे आत्म-शरीर ? जे शरीरे रोग न व्यापे, दु:ख न व्यापे, दारिद्र पीडा न व्यापे एवो. छे. शुद्ध सत्ता शरीरे पीडा न व्यापे, दुःख दारिद्रादि न व्यापे, रोग - द्रव्यरोगादिक नावे जेने; वली केवो आत्मशरीर ? ज्ञान, दर्शन अने चारित्र ते सहित छे. सर्वमा छट्ठी अन्यत्वभावनाए षट् द्रव्यर्नु अन्यत्वपणुं चिंतवतां द्रव्यगुणात्मकपणुं जाण्युं त्यां परिणामी-अपरिणामी, सक्षेत्री-अक्षेत्री, रूपीअरूपी, एक-अनेक, कर्ता-अकर्ता इत्यादि गुणात्मक नय विषे अनेक भेद, त्यां परिणामलक्षण गुण बे द्रव्य विषे जोईए - एक पुद्गलद्रव्य, बीजो चेतन. ए बे परिणामी, ते रीते बनेनां परिणाम शुद्धाशुद्ध बे रूपे थाय, ते मध्ये पुद्गलनु तो शुद्ध परिणाम ते जे सूक्ष्मपणुं परमाणुरूप परिणमवं अने अशुद्ध ते जे स्कंधादिरूपे परिणमवु तथा आतमचेतन- शुद्ध परिणाम जे ते केवलज्ञान केवलदर्शनना उपयोगे सिद्धत्वावस्थाएं परिणमएं अने अशुद्ध परिणाम ते जे परपुद्गलादि स्कंध स्पर्श पामी आत्मत्वपणे मानी पर विषे परिणमवू ते. द्रव्य-भावभेदे बे आश्रव कहीए – तेह- चितवq ते आश्रवभावना सातमी. एहवू शुद्धात्मरूप शरीरनुं भावी - चिंतवी विचारशो. मलमूत्रनी धरणहारी अत्यंत बे धाराए चालता एहवा औदारिक देहने जाणी पुद्गल भिंभला – मेला - डोहळानो शुद्धरूप पर्याय निज पोतानो जे देह ते तो अंतसुखमां ताहरो देह एवं जाणी तुं हो हंस ! निर्मल रूपना धरणहार. ६ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह दोहरा ते कहीए छीए. आस्रव अने बंध ते आत्मा नही; केवलज्ञानमय ते आत्मा. 'जो इण भावई' कहेतां ए अध्यवसायें – ए ध्याने – विचारें – अनुचितवने ‘अणुसरई' कहेतां चाले – संमुख थाय – गुरू-आदिकने पूछीने शोचे, तो निर्मल केवल सूर्योदयवेळा - प्रभातवेळा थाय - एटले पूर्वविचारसमये परोक्षानुभव होय तेह ज प्रत्यक्षानुभव थाय.७ केवल – नि:केवल सर्वमलवर्जित – रहित एवा जे शुद्ध सत्तास्थानक, ते अनादि सिद्धस्थानक केवलज्ञान-दर्शनरूपपणे तेहवो छे जे, तेमांहिं सर्व संचरे छे - एटले केवलज्ञान मांहि सर्व ज्ञेय समाय छे; परंतु तेने अतिक्रमीने कोइ पदार्थ जातो नथी -- एटले सर्व द्रव्यनी मर्यादानो स्थानक छे. छंद : हो जीव ! आस्रव ते ए, जे आ सांप्रत कहीए छीए ते, जे पुद्गलद्रव्य परमाणु घणा मळी स्कंधरूप पर्यायपणे परिणमे. अहो जीव ! ते सहजें ज होय छे - एटले ए पुद्गल द्रव्यनी शक्ति स्वभावें छे, एटले ए पुद्गल-पदार्थना विभावपर्याय ते विभावपरिणमनशक्ति ते ज स्वभावगुण ओघशक्ति स्वभावसहज शक्ति छे. पूरण गलणरूप ते पुद्गलनी; ते देखीने मूढ - अज्ञानी एम मानी ले छे जे पूरण मिलित द्रव्यकर्मवर्गणा तदोदय-कारणोत्पत्ति क्रिया न [ने ?] क्रियानित पूर्व स्कंधपर्याय विव[घ?]टन-नौतन संवरण इत्यादि ए सर्व पुद्गलरचना देखी मूढ – तत्त्वना अजाण एम मानी ले छे जे ए सर्वस्व नामें करी, एहनो कर्ता बीजो कोइ अन्य नहीं, तेह ज भर्मबुद्धि-स्युं आप - आत्मा पुद्गलस्कंध बंधसमयें 'आलुझ्यो' एटले आप बंधाणो. एक क्षेत्रविषये वासो छे जीवपुद्गल बेठो अनादिकालनो एवो विभावपरिणाम ते तुं जाण, जीव, आस्रव.७ दोहा : सातमी आस्रवभावनाएं द्रव्यकर्मवर्गणाने आत्मप्रदेशे आश्रव दीधो ते द्रव्य ते द्रव्यास्रव अने विमोह, विभ्रम, संशयादि रूपें परिणमी जे आ शुद्ध चेतना, तेहनें अज्ञानचेतनपणे कहीए – विभावचेतना कहीए - द्वैतचेतना कहीए - समलचेतना (कहीए) इत्यादि अनेक नाम छे एवो भावकर्मचेतनारूप जे परिणामी तेहनें जे आश्रव दे ते भावास्रव कहीए, जेम जे द्रव्यना गुणपर्याय ते स्वस्व द्रव्यने आश्रयी रहे छे तेम पण बंधसंबंध. 'इह' कहेतां ए, जीवसंवर आपणो, ते कोण आपे ? आपणुं जाणीए एटले आपणो ज स्वसंवेदनोपयोग, तेणें आपणुं स्वरूप जाणीने ते आत्मिक संवर कहीए अने ते पुद्गलनो कहीए - जाणे. द्रव्यकर्म, पुद्गलवर्ग जाण, तुं संवर ए आपणो आत्म-प्रदेश स्वभावे ज छे, अथवा Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्लकृत बार भावना ५४९ ते संवर आत्मप(द) विषे भावी चिंतवी(ए). ८ ___ छंद : वली तेह ज भावसंवर वखाणे छे. हे जीव ! संवर ते ए ज के जे आपणा आत्मपदनो विचार विचारवो, पण ते केवो छ ? आत्मपदविचार जिहां अहो जीव ! जे पुद्गलादि सर्व परद्रव्य, तेनो नथी संचार. आत्मप्रदेश संघाते संचर, संचरण प्रवेश नथी. सर्वथा परद्रव्यनों जे शुद्ध सत्ता विषे परिणामरूप परिणाम-उपयोग ते भावसंवर, शुद्ध निश्चयनयोचित अने शुद्ध व्यवहारनयोचित ते शुद्ध सद्धर्माचारोपयोग अने शुभ संवर सराग संयमोपयोग, संयमासंयमपयोग, श्रुतधर्माचारोपयोग ए सर्व शुभ संवर - ए विपरीत ते आस्रव. ज्यां केवळ आत्मपदनो ज विचार छे, वळी त्यां 'पंडितगुण' ते अंतरात्मपणुं - साधकपणुं - स्ववेदनपणुं, तेहथी थयो छे परिचय - ओळखाण, तेणे स्वानुभव पंडितपणे करीने मूढ कहीए ते बहिरात्मपणानो दोष निवारे छे, त्यां अंतरात्मापणारूप सहजात्मपरिणति थई छे प्रगट - मिथ्यात्वावृत तिरोभावे हतां जे स्वसंवेदकताशक्ति ते सहजपरिणति आविर्भावे थई छे त्यां कर्मकर्दम केम थाय ? अपितु न थाय. अनादिसंसिद्ध जे वस्तुस्वभाव शुद्ध रूपने पण परिणमवू जाणे जे जीव ते निश्चय संवर. ८ दुहा : '(उ)पयोगी' कहेतां आत्मा, जे आपणा उपयोगथी न्यारा जाणे छे – मन, वचन, कायाना योग प्रतें, ए आत्मा कन्हे देखवा-जाणवानी शक्तिबद्ध ते ज प्रति अने योगविषये ते आत्मशक्ति धरवापणानी शक्ति छे. जेम सूर्यकिरण पृथ्वीने विषे, तेम ज्ञान ज्ञेय विषे योग सहित जे आत्मा ते योगी कहीए, तेहनी ए रीति छे. जे सर्वे संवरभावना कही ते ज्ञानसूर्योदय वेळा प्रभात समान छे, अने वलतु जेम जेम ज्ञानसूर्यनां किरण विस्तार पामे, तेम तेम मोहांधकार नासे, कर्मकर्दम सूकाय. जेम जेम जे पुद्गल पाणी सूकाय, विखरी जाय तेम तेम विभावपरिणतिरूप पाणी सूकातां कर्मपुद्गल द्रव्य-स्युं मळी मळी संयोग करे छे तेहने निर्जरा कहे छे. तीर्थकरादि तत्त्वना जाण तेहने एटले केने निर्जरा कहे छे ? ज्यां पुद्गल द्रव्यस्कंध पर्यायरूप विभावपरिणति परिणम्यो अने जीव द्रव्यपणे विभ्रम, विमोह आदि विभावपर्याय - परिणति परिणम्यो - एम बेउने द्रव्यनी विभावपरिणति ए क्षेत्रे एक समये परस्परें कार्यकारणरूप थई प्रकृति, स्थिति, रस, प्रदेश, बंधरूप संबंधे मळी ते जीवपुद्गलसंबंधन विछडवू - बेउनी विभागसत्तानो अनादि संयोग तेहनो जे वियोग तेने तीर्थंकर गणधरादिक तत्त्ववेदी निर्जरा कहे छे. ९ छंद : अहो चेतन! निर्जरा ते तेने कहीए - तेने एटले केने ? – जे कर्म पुद्गलात्मक संयोग आत्मप्रदेश साथेनो, तेनी संबंधस्थिति पूरी थई ज्यां बंध त्यां पुरणरूप Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह पुद्गल विभावपरिणति अने ज्यां निर्जरा त्यां गलणरूप विभावपरिणति - एम बेउ ठामे पूरण गलणरूप पुद्गल विभावधर्म थयो. अत्र वितर्क : “स्वामी ! पूरण गलण सहावो' ए शब्दार्थथी पूरण गलण स्वभावे छे, एम बोलतां तो तेमां विभाव केम रह्यो ?' गुरू कहे छे – “अहो शिष्य ! अत्र स्वभावथी बोलायुं ते सामान्यपणे परिणमनशक्तिनी अपेक्षाए कह्यु. पुद्गलपरमाणु विषे स्कंधरूप परिणमनशक्ति स्वभावे छे तो परिणमे छे, नहि तो एम अन्य द्रव्य कां नथी परिणमती ? ए एनी ज शक्ति छे, माटे स्वभाव कह्यो; तथा पुद्गलनी पूरण गलणरूप अशुद्ध सत्ता विभाव परिणति, तेम चेतननी अशुद्ध सत्ता विभावचेतना ज्ञानात्मक परिणमी ते संयोग-स्थिति पूर्ण थतां ते विभावोत्पन्न जे अनादिकालीन संबंध पुद्गलजीवद्रव्ये देशत: तेनो थाय छे वियोग, द्रव्यभाव भेदे ज्यां, ते निर्जरा कहीए. थइ छ पुद्गल अने जीवने अशुद्ध परिणति - तेनो वियोग तेमने आपआपणी शुद्ध परिणति परिणमतां संयोग-परवियोग-रूप स्वभावकार्य करतां कोण राखे, कोण रोके ? जेम विभावपरिणति कारण पामी विभाव रूपें निज शक्ति परिणमेली हती तेम स्वभावपरिणति कारणोपदानयोग पामी स्वभावशक्ति परिणमे, त्यां अन्य द्रव्यनो सारो (आधार ?) नही, त्यारे ते परमाणु तथा जीवप्रदेशस्कंधबंध छूटे. ते पुद्गल परमाणु दशे दिशाए विखरता जाय अने चैतन्यप्रदेशपणे निरावरणपणे पोतानी शुद्ध सत्ता दर्शन ज्ञान चेतनारूप ते सर्वत्र विस्तारे. हवे जे ज्ञानचेतनाए शुद्धपणुं पोतानुं जाण्यु, जाणीने ते शुद्धोपयोग चेतना शुद्ध रूपे परिणमी, त्यारे परपरिणतिने कोण संग्रहे ? एटला काल लगी पुद्गल द्रव्य संबंधी जे परपर्याय तेने चेतन विभाव परपरिणति ते संग्रहती हती. विभावपरिणति जातां थकां पिछलो निवारो' कहेतां छेल्लो वियोग चैतन्यपुद्गलने थयो, पण ए चैतन्य-पुद्गलापेक्षाए परं-पुद्गलने नही, जे माटे पुद्गलनो विभाव ते पुद्गलविभावे अनादिअनंतरूप छे, अने जीव विषे पण जे अभव्य दुर्भव्य तेने पण अनादिअनंत स्थिति विभाव छे, ते माटे छेल्ली मकाम निर्जरा ते भव्यापेक्षाए जे माटे भव्यनो विभाव ते तिरोभावे छे ते आविर्भावापेक्षाए सादि अनंत, सत्तापेक्षाए अनादिअनंत - एम अनेक भांगा जाणवा. हवे छेल्ली निर्जरा केवी छ ? – ते कहे छे. 'आगे' कोइ काल विषे ते परपरिणति आत्मप्रदेश संघाते संबंध संबंधे एकत्वपणे नहि परिणमें. यद्यपि जीव लोकाग्रक्षेत्रे रहे छे त्यां सिद्धपणे पुद्गलद्रव्यना स्कंध, देशप्रदेश, परमाणु सर्व भेद छ, तथा पूर्वे संसारावस्थाए जेम चेतनप्रदेश ते रूपे परिणमतां ते परिणमनसत्ता गइ ते माटे पुनबंध न थाय, अने 'यह' कहेतां ए शक्ति पुद्गलद्रव्यनी छे एटले शुं ? – ते कहे छे. Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्लुकृत बार भावना ५५१ 'मिलन' मिलवारूप 'विठुरन' कहेतां वीछडवारूप - एटले परमाणु मळीने स्कंध थाय, वळी ते ज परमाणु स्कंधपणुं छांडी परमाणु थाय - अने पुद्गल द्रव्यने 'आसकी' - लग्नप्रीतिस्वभाव अनादिअनंतरूप परिणति छे. अहो चेतन ! तुं ज्ञानद्रष्टि धरीने देखी जो. एवी रीते जे पूर्वे बंध प्रबंध रचना कहेशे थइ छ निर्जरा तेनी. कोण ते, जे ए भेद स्वपरिणितना जाण, ते जाणीने स्वभावाभ्यासार्थे परभावत्यागोद्यमी थाय ते. ९ दोहा : नवमी निर्जराभावना भावतां आवरणने झुडीने त्राडीने वेगलं करीने अनंत ज्ञानशक्ति निरावरणपणुं जेम जेम पाम्युं तेम तेम लोकमांहि द्रष्टि के लीपण जे परोक्ष लोकभाव रह्या ते जाणवानी इच्छा - विचारणा – चितवन ते लोकभावना दशमी कहीए छीए. 'सकलद्रव्य' – समस्त षटद्रव्य ते त्रणे लोक मध्ये छे, पण ते षटद्रव्य मुनी कमुनी कहीए. मुनीश्वर तेने ध्यानने पतरि दीधा छे - एटले मुनिओने ध्यान परिणामस्थान पन गेय [पण ज्ञेय?] छे, अथवा मुनि कहीए ज्ञान, तेने जाणवा हेतें 'दीनि' कहेतां दीधा छे एटले स्थाप्या छे. ज्ञान गुणचेतनाने जाणवाने ज्ञेयक्षेत्र करी अने जे ए आत्माने संसारपणुं थाप्युं ते सर्व द्रव्यना संयोगपणानी युक्ति करी. श्री उत्तराध्ययनसूत्र मोक्षमार्गाध्ययनमां एम कर्तुं छे के धम्मो अहम्मे. एम व्यवहारनयें सर्व द्रव्यसंयोगे संसारलोक एम नामस्थापना, अने निश्चयनये शुद्ध द्रव्यार्थिक विचारे; न संयोग, न संसार, न लोक - आपआपणे रूपे सर्व पृथक् पृथक् छे. १० छंद : अहो आत्मा ! ए त्रण लोक षद्रव्य रहेवाने परम – मोटी कुटी छे, अथवा त्रण लोक - अध, उपर, तिरछा रूपे - एहने विषे परम कुटी जे मोक्ष ते सुखनो वारा छे, अथवा त्रणे लोक जे बाह्य अभ्यंतर परमात्मारूप ते मध्ये परमात्मारूप जीवभेद तेने विषे सुख छ, अथवा त्रणे लोक 'अहो' कहेतां ज्ञान-दर्शन-चारित्रधामपणुं - सकलात्मक भाव ते त्रिलोकीपणुं - ते मध्ये सुखवास ते एकत्वपणुं. त्रिधापणुं एकत्र - रूपे परिणमे ते ज सुखवास. ते ज्ञानक्रियारूप जे ‘मुनियोग' ते सुखवास प्रत्ये दे छे. अथवा तो मुनि ज्ञानोपयोग देता होवाथी ते सुखवास स्थानवर्ती चेतनद्रव्य केवा छे ? - शुद्ध निरंजनरूप भास छे - देखवू जेनु एवा सिद्ध भगवान शुद्ध निरंजन भास - विलोकनशक्ति छे जेनी स्वपर ज्ञेय वस्तु विषे, सहज - आत्मसुखनी लीला करे छे, ज्यां अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख, अने अनंत वीर्य ए अनंत चतुष्टयरूप स्वभावलहरी लीला करे छे. सदा त्रिकाळ विषे निरंतरपणे ज्यां मुक्तिसत्ता – कुटीमां शुद्ध सत्ता परिणामीक पणरूप जे पारिणामिक भावधारा, ते 'बाहिर' कहेतां परद्रव्य विषे खंडता नथी, परद्रव्य ते धाराने विषे प्रतिबिंब रह्या छे. जेम जलनी स्वच्छता विषे समीपवर्ती चैत्य स्थुभवालि[स्थुभावलि ?] पगथीआं, वृक्षनी शाखा, प्रशाखा, पत्र, पुष्प, Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह फलादि सर्वतः समीपवर्ती नरनारी पशुपक्षी जोतीष्चक्राकाशादि अनेक वस्तु प्रतिबिंबित थाय छे, जल जलनी सत्ता छे; जेम मुक्ताफल मणि कांति प्रभादि ज्योतिवंत पदार्थ विषे आपआपणे द्रव्य प्रमाणे सर्वनी सर्व वर्षे जेम रहे तेम जीव विषे, अने ते परम कुटी -- मुक्ति विषे गुरूशिष्यादि व्यवहार नथी. वली बीजो अर्थ जे : संसारावस्था छतां लोक कुटीमा रहेतां सम्यक्त्वोत्पतिसमये उत्पन्न थयेली भावधारानी लहरी पर्याय ते धारा पर्याय यावत् वर्ते तावत् ते धारानो स्वामी एम विचारे छे - कोइ कोईनो गुरूशिष्य नथी. ए व्यवहारनयकथननो शुद्ध निश्चयें अने वली ते परमकुटी - मुक्ति तेहना वासी जे सिद्ध ते रहे छे ‘सदा उदासी' कहेतां न्यारा - सर्व सर्वथी सर्वपणे अने अंतरात्मापणे एकदेशी श्रद्धादृष्टि उदासी रहे छे. परसंयोग बाटक [नाटक?] थकी, त्रणे लोककुटीरचनाथी रहे छे उदास सदा. अने ते मुक्ति जीवनो आ लोक देखवो ते मध्ये त्रण लोक कुटनी रचना प्रतिभासे छे, अने ते समकितीनो आ लोक देखवो सम्यग ज्ञानदर्शने करी कुटी लोकरूपी तेहनी रचना न्यारो थइ निरखे ने तेथी सुखरूप परिणमे छे, अथवा आ लोक देखवामां कुटी कहेतां कुडी भास छे. लोक षट्द्रव्य तेनी पर्यायरचना सिद्धने सर्वथी अंतरात्मने देश, देशीक, देश, अनेकविधि. तेथी त्रण लोकनो आ लोक देखवो तेमां षट्द्रव्य नाटकने देखवे त्रण काल विषे सुखी छे ते परम कुटी – मुक्तिवासी जीव अने जे अंतरात्मापणे वर्ते छे समकिती जीव ते त्रण लोक मध्ये रहेतां थका ज अंतरदृष्टि सर्व पर ज्ञेयथी भिन्न भावे निजात्मा प्रति, तेथी संसार दुःख व्यापतो नथी ते माटे अंतरात्मापणे त्रण काल विषे त्रणे लोक सुखरूप छे. (१०) दुहा : दशमी लोकभावना विषे लोक षद्रव्य रचना चौद राजलोकने विषे समकितीए जिनवचने जाणी तिहां षट्द्रव्यरचना स्वभाव, विभाव, लक्षण, धर्म जाण्यां, ते मध्ये निज स्वभाव लक्षणधर्म उपादेय जाणी भावे छे. बहिरात्मा - जीव परपुद्गलधर्मने आत्मिक धर्म जाणे छे ते निर्णय करी न्यारो देखाडे छे. यद्यपि उपचरित व्यवहारनये ए क्रियारूप पुद्गल धर्मसाधनरूप छे, तथापि शुद्ध निश्चयनयापेक्षाए हेय. अग्यारमी धर्मभावना कहे छे. व्यवहारधर्मी जीव व्यवहारक्रियाधर्म उपदेशविधि करावे छे अने आपण - पोतानी मेळे करे छे, पण शुद्ध ज्ञानोपयोगरहित एकल क्रिया ए धर्म न होय, श्रुत चारित्ररूप धर्म ते व्यवहारधर्म छे अने त्रीजो 'वत्थुसहावो धम्मो' ए उत्तराध्ययने उक्त वस्तुस्वभावधर्म ते निश्चयधर्म जाणवा योग्य उपादेय ते हे आत्मा ! निश्चय स्वभाव जे Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्लुकृत बार भावना शुद्ध नये ताहरो ते जिनधर्म जाणी, ज्ञानदृष्टि धरी, जोई, देखी अने वळी ज्ञान ते करणकरावणरूप नथी, ए तो सर्व शुभाशुभ कर्मजनित कर्मफलचेतना ज्ञेयरूप छे, अने द्रव्यशास्त्र ते ग्रंथनु भणQ सूत्र तथा अर्थ ते पण ज्ञान ज. ज्ञान वस्तु ते ‘ओर' - बीजु नथी. ते साचं जे सम्यग्ज्ञान ते न उपजे त्यां सुधी, ज्यां सुधी मोहनना 'झकोर' कहेतां मोहनीय प्रकृति कषाय नोकषाय मिथ्यात्वादिक तेनो उदय छे ज्यां लगी. ११ सोरठीया-जाति : धर्म ते द्रव्यग्रंथ भण्यो न होय, ते शा माटे ? जो पढेलुं धर्म होय तो अभव्य जीव साडी नव पूर्व पर्यंत भणे अने मुक्ति न जाय माटे शास्त्रमा मुनिधर्म नही, पुण्य छे अने भावश्रुत सहित होय तो द्रव्यश्रुत पण धर्म छे अने कायाए तप तपीए ते पण धर्म नहीं. शा माटे ? जे एकांते तप-जप धर्म होय तो पूर्व कोडि तपना धणी मुक्ति विना बीजे न जाय अने ते संसारमा रोळाता दिसे छे. दान दीधे पण नियमाधर्म न कहेवाय, जे माटे दानीपणे संसारमा रूळे. पूजा, जप विषे पण एकांते धर्म नहिं जे माटे ‘आकर्णितोऽपि माहितोऽपि निरीक्षितोऽपि' (जुओ कल्याणमंदिर स्तोत्र) इत्यादि द्रष्टांतें. ११. दुहाः तो कोई कहेशे जे एवामां धर्म ज नहिं तो न करीए, ते उपर कहे छे के करो श्युं ? दान करो, जिनपूजा करो, पंचपरमेष्टि जप करो, द्वादश भेद तप करो, शीलसंयमादि क्रिया रात्रिदिन संबंधी ते सर्व करो पण एक जाणवानी वस्तु जे श्री जिनाज्ञानुरूप निश्चयव्यवहारोक्त स्वपरसमयादि भेद ज्ञानोपयोग ते जो वीसराय वा न जणाय तो ते रहित जे तपजपादि करणीनो मद अहंकार ते ‘मान' एटले निरर्थक अथवा ए करणीए मद-पुण्य तेमां तो थाय, अथवा ए करणी ते धणी मुक्ति विना बीजे न जाय अने संसारमा रोळातां दीसे छे, उपयोग विना मदमाता - मतवालाना सिंह छे.... तो शिष्य पूछे छे 'स्वामि ! धर्म ते शुं ?' तत्रोत्तरे कहे छे 'हे शिष्य ! धर्म ते वस्तुनो स्वभाव छे. तेने साधवो ते धर्मसाधन. जो कोइ ‘पहिचाने' कहेता ओळखे - जाणे तो. एटले वस्तुस्वभाव धर्म जो कोई जाणे तो तेने अपर विधिनुं शुं काम ? एटले ते उपयोगधर्मने अन्य उपायनी नियमा नथी.(११) छंद : ते ज स्वभाव-धर्म द्रढावे छे. परद्रव्य सर्व हेयरूप छे, परंतु उपादेय नही. जे द्रव्य विषे उपादानपणुं नहीं तेना गुणपर्याय विषे पण उपादानपणुं न होय, तें माटे ए क्रिया ते पुद्गलद्रव्यनो पर्याय छे. ते उंची दशाना धणी मुनीश्वर यद्यपि करे छे, तथापि वीतरागभाव थकां, परं(तु) सरागपणे नहीं, जे भणी सराग संयमी देवगति पामे पण मुक्ति नहीं. मुक्ति ते वीतरागभावे, ए विचार भगवतीथी जाणज्यो. ते माटे Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह सर्वतोभिन्न वीतरागभावोपयोग ते आत्मिक धर्म कहीए; पण ते केवो छे आत्मधर्म ? अहो आत्मा ! ते धर्म निर्मल परमोत्कृष्ट छे; ते स्वभावधर्म स्वभावे ज काललब्धियोगें उपजे छे; ते निर्मल धर्म छे ते तुं जाण. निश्चयशुद्ध सत्तारूप स्वभावधर्म ते प्रति एटले वीतरागभाव ते निश्चयात्मक धर्मसिद्धांते पंदरे भेदे सिद्ध कह्या ते वीतरागभावे. अहीं क्रियानो मदार दिसतो नथी. ते स्वभावधर्मनो धारक स्वामी जे आत्मा ते धर्म कहीए, ते माटे ते स्वभावधर्म जाणे, आदरे, पाले ते धर्मी आत्मा अने जे आपणो स्वभाव ते ज आत्मानो धर्म, ते माटे आपणे वीतरागभावरूप शुद्धोपयोग स्वभाव तेणें ज जाणो निश्चयधर्म, अने धर्मीपणे आत्मा ज जाणो एटले शुद्ध चेतनारूप आत्मधर्म ते अन्य द्रव्यने विषे न पामीए ते माटे समस्त विकल्प क्रियोपयोगादि सरागपरिणामी ते दूर करीने एटले क्रिया जेम परपर्याय छे तेम क्रियोपयोग ते पण पर छे. परसंयोगोत्पन्न माटे विभावरूप आत्मपर्याय ए पण हेय छे, ते केम? जे शुभाशुभ कर्मजनित शुभाशुभ क्रिया ते पर कहीए. तज्जनित औदयिक भावरूप क्रियोपयोग ते क्रियाद्रव्यकर्म. अने उपयोग ते भावकर्म, ते द्रव्यभाव बेउ कर्मशुद्धोपयोग, निर्विकल्परूप निश्चयात्मक धर्मापेक्षाए हेयरूप छे. अहीं कोइ कहेशे जे तीर्थंकरे क्रिया उपादेय कही. विधिवादोपदेश विषे ते हेय कहेतां निन्हवपणुं थाय छे. तत्र तरत गुरू कहे, साचुं, ए व्यवहारनये उपादेय छे, पर न के निश्चये इत्यर्थ; माटे क्रिया करे पण शुद्धोपयोग सहित अने शुद्ध-अशुभशुभ विकल्प टाळीने ए ज शुद्धोपयोग शुद्धचेतना - आत्मपरिणती ते निजधर्म - आत्मधर्म करी हृदय विषे स्थापो. मुक्ति नहि माटे निश्चयधर्म नहीं, ते माटे मुक्तिवांछक पुरूष भेदज्ञानि क्रिया करे, पण भिन्नबुद्धि परंपर साधन जाणीए अने प्रत्यक्ष साधन ते स्वसंवेदनोपयोग जाणी तेनो खप करे. जे गरज सो धीरज केलवे, पण सुरत द्रव्य विषे तेम.(११) सोरठीआ : ईग्यारमी धर्मभावना कही ते धर्म आत्मसत्ता स्वरूप बोधज्ञान कहीए. ते पंच कारणना योग विना पामबुं दुर्लभ दिसे छे माटे बारमी बोधिदुर्लभ भावना कहे छे. अहो आत्मा ! दुर्लभ छे ‘परभाव' कहेतां द्रव्यचारित्रादि क्रिया ए भावकर्मजनित माटे तेनी प्राप्ति विचारी – चिंतवी -- होवी. दुर्लभक्रिया व्यवहाररूप धर्म ते सर्व उदय वर्ते, माटे चितव्यं आवे पण न ये आवे, पण - परंतु जे आत्मिक स्वभावधर्म ते तो स्वाधीन छे ते दुर्लभ शा माटे जाणीए ? देहादि सखायातां - मित्रताबुद्धि तजी स्वसंवेदन स्वशक्ति शुद्ध सत्ताधर्म सुसाध्य जाणवो. १२ छंद : अहो मुक्ति सरोवरनां हंस ! आत्मा ! नथी दुर्लभ तुजने एवं मुक्तिसरोवरनीर - पाणी, अतींद्रिय सुखरूप; हे जीव ! तुं इंद्रियरहित जेवो छे तेवो इंद्रियरति Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्लुकृत बार भावना थइ पीओ. निर्मल केवलज्ञान-दर्शनरूप निर्मळ नीर वडे शुद्ध चेतनोपयोगे करीने ते शुद्ध चेतनोपयोग मुखे निर्मल केवलज्ञाननीर पीधाथी अनादिकालीन विभावरूप अशुद्ध चेतना तेथी जे उपजेली इंद्रियसुखाभिलाषा अतृप्त तृष्णाने भांगे. पण ते शुद्धोपयोंगें पीधुं जे केवल नीर ते पीतां जे उपजेल तृप्ति - संतोष - अनंत सुखरूप ते तृप्ति केवी छे ? जेनो विरह नथी, जेने विषे व्याकुलता नथी ते शुद्धात्मपरिणति – परिणमवारूप जे पंथ - मार्ग ते सुगम पंथ छे. ते परमोत्कृष्ट परिणामरूप मार्गे चाल्या जे पंथी तेमने सप्त भयमांथी कोई एक पण भय नथी. आत्मरूप सरोवर ज्ञानरूप सुखजल छे ज्यां अने आत्मानी ज पोतानी मुक्तिरूप पदवी ते सर्व सुलभ छे. अहीं परसहायगें कोई काम - प्रयोजन नथी. सुक्षेत्र शुद्धसत्तारूप तेने विषे वर्तवू; स्वसमय स्वद्रव्यपणुं तेने विषे जे 'गमन' कहेतां परिणमन - ते लक्ष लक्षण विषे एकीभाव ते न जाणे तो अतिदुर्लभ, अहो जीव ! 'स्वायत्तं स्वपदं' एव इति वचनात्. १२ दुहा : 'सो' कहेतां ते एक ज जे अंतर्ज्ञानलोचनरूप द्वादश भावना ते सुणीजाणी - सद्दहीने जे जीव अंतर्गत चित्त माहि उल्लास पामे, रोचक भावे वारंवार स्मरे, धर्मे परिणमवू एवो द्रव्यभाव शुद्धोपयोगी शुद्धात्मा कार्यकर्ता ते पंडित जाणे तुं, ओर सर्व कर्तव्य अकर्तव्य अकृतार्थरूप जाणवा. २ ___ पोते आ सिद्धत्वावस्थारूप ते द्रव्य शुद्धसत्तावगाहनसुक्षेत्र ते सत्ताए परिणमवु ए स्वकाल कहीए, अने पोतानी शुद्ध सत्ताए परिणमनशक्तिरूप जे परिणाम ते स्वस्वभाव त्यां जे लीन - तत्पर - सावधान, ते माटे प्रगट थई छे सहज शक्ति, त्यां नथी भासतुं अन्यपणुं ने नथी भासतुं दीनपणुं. ३ पोताना गुण पोतानी सत्ता तेने जाणवाथी शांत थई छे चारे दिशा एटले सर्व उपाधि उपद्रव्य टल्या छे अने ते पोताना गुणसत्ताने विना जाणे एवी हुंती जे ज्यां त्यां ‘सोर' - ध्वंध लागतो हतो. ४ ___'सोर' – वादविवाद संशयादि ध्वंध गयो चार दिशानो अने अज्ञान दशारूप तृषा ते वीती गइ, निजगुणसत्ताने जाणवाथी निर्मल द्रष्टि स्वसंवेदन ज्ञानानुभव 'विहाणु' - प्रभात थयो छे. ५ ते प्रभातोदयथी निर्मल प्रकाशे शुभाशुभ कर्मनी उदय गति प्रतिसमयेसमये पोताने रसे लीन - तत्परथकी अने उदयगतिने साक्षीभूत कहेतां तमासगीर थकां देखे छे. कर्मनाटक प्रति ज्ञानप्रवीण जीव ज्ञाननी कहाणी - कथा ते अकथ एटले कही न जाय. जाणवारूप छे, कहेवा-सुणवानी नथी. ते आप-स्युं आपणे ज पामीए, ज्यारे देखे घट मांही द्रष्टि दइने. ६-७ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह - इति श्री अल्लुकृत १२ भावना समाप्त. संवत् १८०० वर्षे शाके १६६५ प्रवर्त्तमाने पोस शुदि १२ दिने इति श्रेय: अल्लुकृत भावनाया बालाबोधो यथामति कर्मसिंहेन मुनिना परोपकृत्ये कृतः. (पत्र ९ प्रत नं.६३४ श्री मुक्तिकमळ मोहन जैन ज्ञानमंदिर, वडोदरा) __ [आत्मानंद प्रकाश, वैशाख, जेठ, असाड, भादरवो, आसो वीर सं.२४६० (पु.३१ अं.१०-११-१२, पु.३२ अं.१-२) पु.२३६-३९, २८९-९५, ३१८-२१, ४४-४९, ६८-७१] Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५७ गुणाकरसूरिकृत श्रावकविधि रास (रचना संवत् १३७१. आ रास, कविराज धनपाले प्राकृतमा 'श्रावकविधि' रचेल छे तेनो अनुवाद छे.) [कर्ता पद्मानंदसूरिना शिष्य छे. विशेष माहिती प्राप्य नथी. जुओ जैन गूर्जर कविओ भा.१ पृ.२०-२१ तथा गुजराती साहित्यकोश खं.१ पृ.९१. ला. द. भारतीय संस्कृति विद्यामंदिरनी खंडित, कडी ३७थी शरू थती प्रत क.५८०८नो अहीं पाठशुद्धिमा लाभ लीधो छे. कृतिनी भाषा अपभ्रंशनी छायावाळी प्राचीन गुजराती छे. - संपा.] श्री जिनाय नमः. अथ श्रावकविधि रास. पाय-पउम पणमेवि, चउवीसवि तित्थंकरह; श्रावकविधि संखेवि, भणइ गुणाकरसूरि गुरो. १ जिहिं जिणमंदिर सार, अनइ तपोधन पामियए; श्रावकजन सुविचार, धणुं तृणुं इंधन जल प्रघलो. २ न्यायवंतु जहिं राउ, जण ध[घ ?]ण धन्न रमाउलउ ए; सूधी परि ववसाउ, सूधई थानकि तिहिं वसउ ए. ३ धम्मिहिं हुइ परलोइ, घर-कम्मिहिं इहलोय पुण; तिहिं नर आह न ओह, जिहिं सूता रवि ऊगमइं ए. ४ तउ धम्मेवि ऊठेवि, निसि चउघडियइ पाछिली ए; जिण नवकार पढेवी, पहिलउं मंगल मंगलांह. ५ तक्खणि मेल्हवि पाट, कवण देव अम्ह कवण गुरो; अम्ह कवण कुलवाट, कवण धम्म इम चिंतवई ए. ६ कइ घरि कइ पोसाल, लेइ सामायक पडिक्कमउ ए; । पच्चखाण प्रह-कालि, जं सक्कइ तं पचखउ ए, ७ वस्तु अररि संभलि अररि, संभलि दत्त सचित्त, विगअ तह वाणहीय, वत्थ कुसुम तंबोल वाहण; सयण सरीरविलेवणह, बंभचेर दिसि न्हाण भोयण; ए जो जाणइ चउद पय, नितु नितु करइ प्रमाण, सो नर निश्चइ पामिस्यइ, देवह तणउ विमाण ! ८ Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह भास सयरह ए सोच करेवि. धोअति पहरवि निरमलीय; पूजइ ए भाव धरेवि, घरि देवालइ देव जिण. गंधिहि ए धूविहि, सार अरकहिं फुल्लिहिं दीव इम; नेवज ए फल जल सार, अट्टपयारी पूज इम. १० देवह ए तणउ जे देव, पूजउ जाइवि जिणभवणि; निम्मल ए अकल अमेय, अजर अमर अरिहंत पहो. ११ एकहि ए मोख तुरंत, राग दोस बे जो जिणई ए, यहि ए तिहि सोहंत, नाणिहिं दंसणिहिं चारितिहिं. १२ मेलवि ए च्यारि कसाय, पंच- महव्वय-भार-धरो; छव्विह ए जीव-निकाय. सदय अभय जो नितु चवई ए. १३ अठहिं ए मदिहिं विमुक्त, बंभगुत्ति नव साचवई ए; आल िए खणविन ढुक्क, दसविह धम्मसमुद्धरण. १४ जाईवि ए पोसह - साल, एरिस सुहगुरु वंदियां ए; माणस ए निकर सियाल, जाह न धम्म न देव गुरु. १५ अरकई ए सुहगुरु धम्म, सावधान धांमी सुणउ ए; धम्मह ए मूल मरम्म, जीवदया जं पालीयई ए. १६ झूठह ए नवि बोलेहु, आल दीयंतउ अलसू ए; देख िए मानु लेहु, परधन तृण जिम मन्नियई ए. १७ निय तीय करि संतोस, परती मन्नह मा बहनि; परिहरउ ए कूडउ सोस, करि परिमाण परिग्गह ए. १८ जाणवी ए धम्मह भेद, दान- सीयल-तप-भावनाहिं; देणा ए एम सुवि, वंदवि गुरु जो घरि गयउ ए. १९ धोवती ए मिलवि ठाइ, तउ ववसाय समाचरई ए; परिहरउ ए पाप-व्यापार, न्यायहि धण कण मेलवई ए. २० वस्तु कहउं पनरस कहउं पनरस कम्म-आदाण; इंगाली वण सगड भाड फोड जीवय विवज्जहु, दंत लक्ख रस केस विस वणिज कज्जि न कयावि संचहु; ९ Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणाकरसूरिकृत श्रावकविधि रास जंतपीड निल्लंछणह असइ - पोस दवदाण, सरह सोस सो किम करइ, होइ जु माणस जांण. २१ ढाल ५५९ लोहकार सोनार ढंढार, भाडभुंज अनइ कुंभार; अरु पीरु आजु नर वीकंते, ते रंगाली [ इंगाली ] कम्म करंति. २२ कंद कठ तृण वणफलफुल्लइ, विक्कइ पत्त जि लब्मइ मुल्लई, खंडण पीसण दलण जु कीजइ, वण-जीविया कम्म सु कहीजइ. २३ घडइ सगड जो वाहइ वीकइ तीजइ कम्मादाणि सु ढक्कइ; खर वेसर महि सुड्डु बलद्द, भाडइ भार म वाहिसि भद्द. २४ कूव सरोवर वावि खणंते, अन्नुवि उड्डह कम्म करते; सिलाकुट्ट - कम्म हलखेडण, फोडि कम्म जि भूमिहिं फोडण. २५ दंत केस नह रोमइ चम्मइ, ख कवड्डय पोसय सुम्मइ; कस्तूरी अगरु जिवि साहइ, सो नर सावय- धम्म विराहइ. २६ लाख गुली धाडी महुआ, टंकण मणसील वणिज; पूरी वज्ज लेवसा कूडा, हरियाला नवि रूडा. २७ सुर विस आमिस महु अनुभाषण, रसविजण किय करइ विचक्षण; दुप्पइ चउपइ वणिज जु लग्गइ, केस वणिज निय मन सु भग्गइ. २८ विस कंकसीया हल हथीयारा, गंधक लोह जि जीव हमारा; ऊखल अरहट घरट वणिज्जइ, इम विस वाणिज करइ अणज्जइ. २९ घाणी कोह्लू अरहट वाहइ, अन्नु दलि दाजिको करावइ; इणि परि कहियइ कम्मादाण, जे [जी] वपीडा परिहरइ सुजाण. ३० जो घणु निग्घण अंक दियावइ, विंधइ नाक, मुक्कु छेदावइ; गाई कन्न गलकंवल कप्पर, सो निल्लंछण दीसिहिं लिप्पइ. ३१ कुक्कड कुक्कुर मोर बिलाडइ, पोसंतह नवि होइ भलाइ; सूआ सारहि अनइ पारेवां, धम्म धुरंधर नहीय धरेवा. ३२ दव देविण घण जीव म मारहू, सरवर द्रह जल सोसु निवार; पनरस कम्मादाण विचारू, जाणवि सूधउ करिव [उ] ववहारू. ३३ धातु धमइ रस अंजण जोअइ, जय ( जुअ) रमइ इम दविण न होइ; कुविसन एक विसवउ न गमीजइ. निय आगति चिहुं भागिहि कीजइ ३४ Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह पहिलउ भाग निधिहि संचारउ, बीजउ पणि ववसाय वधारउ; तीजउ धम्मभोग निग दोस. चउथइ चउपइ पोस. ३५ वस्तु निसुणि धम्मिय निसुणि धम्मिय कूड तुल माण, कइ कूडा वय हरउ कुड लेह तह साखि कूडी; दुत्थिय दीण सुहासणिय मित्रद्रोह नहु वात रूडी, देव दविणु जो गुरु दविण भक्खय भमइ अणंत; विण संमत्तह सो भमइ, भवसंसार अणंत. ३६ ढाल जिय आहारह तणीय सुद्धि मुणि चारित लीणउ, तिम ववहारह तणीय सुद्धि श्रावक सुकलीणउ; हाटह हुंतउ घरि पहुत जइ भोजन वार, पूजा बीजी वार करइ भाविहिं सुविचार. ३७ दीण गिलाणउ पाहुणउ ए संभाल करावइ, सइ-हत्थिहिं सूधउ आहार मुणिवर विहरावइ; ओसह वसह भत्त पाण वसही सयणासण, अवर वि जं इहंति साहु तं देइ सु वासण. ३८ जउ तिणि ठार न हुंति साहु, तउ दिसिअ वलावइ[दिसि आलोयइ होयइ], मनि भावइ आवइ सुपात्र तउ भल्लउ. होवइ; कवण कीयउ पच्चखाण आज मइं इम संभालइ, वइठउ ठामि सचित्त ठाइ आहार आहारइ. ३९ करि भोयण निद्राविहीण पिण इक वीसमइ, तो पाच्छिल्लइ पहरि पुणवि पोसालइ गम्मइ; [पढइ गुणइ वाचइ सुणेवि पूछेइ पढावइ,] अह जि वियालू करणहार सो निय घरि आवइ. ४० दिवस अठम भागि सेसि जीमेइ सुजाण, पाच्छिल दुइ घडीयाह दिवस चरिमं पचखाण; सांजइ तीजी पूज करवि सामाइक लीजइ; तउ देवसीय पडिकमेवि सज्झाय करीजइ. ४१ Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणाकरसूरिकृत श्रावकविधि रास ५६१ रयणिहि वीतइ पढम पहरि नवकार भणेविण, अरिहंत सिद्ध सुसाध धम्म सरणइ पइसेविण; पचखाण सागार करवि सवि जीव खमेविण, सावय सोवइ पुव्व तिहां बंभइ भावई मणु. ४२ वस्तु अत निद्दिहिं अत निद्दिहिं चित्ति चिंतेइ, सतुज्जि उज्जउ चडवि जिणइ पूय कइयइ कराविसु; साहम्मिय गउरव करिसु कइय कइय पुत्थय भराविसु, छंडवि धंधउ इय घरह कइयइ संजम लेसु; समरसि लग्गवि कइय हुं फेडिसु कम्मकिलेसु. ४३ भास नितु नितु सहगुरु-पाय वंदिज्जए, संभलउ साविया सीख तुम्ह दिज्जए; गलह उह्नालए तिन्नि वारा जलं, लेविण गलण ए तुम्ह अइ नीसलं. ४४ सेस काले वि बे वार जल गा(ल)उ, मीठ-जल खार-जल जीव मा मेलहो; राखउ सूखतउ तुम्हि संखारउ, वत्थह धोवण गलिय जलि कारउ. ४५ दुद्ध दहि तेल घृत तक्क ढंकवि धरउ, माखीय पमुह तिहि जीव मा पडि मरउ; । सोधवि धन्न रंधन पीसउ दलउ पउंजि बे वार ए चुहलि घर ऊखलउ. ४६ जाणवि जीव जो इंधण जालंए, अड्डमी चउदसी पमुह तिहि पालए; जीवदयं सार जिणवयण जो संभरइ, जयण पालति नरनारि ते भव तरइ. ४७ पक्खि चउमासि संवच्छरी खामणा, सुगुरु पासंमि उच्चरिय आलोयणा; करइ जो आउ पज्जंत आराहणा, तासु परलोय गइ होइ अइ सोहणा. ४८ एम जो पालए ए वर सावय-विही, अट्ठ भव माहि सिवसुख सो पाविहि; रास पदमाणंदसूरि सीसहि कीयउ, तेर इगहत्तइ एह ललियंगउ. ४९ जो पढइ जो सुणइ जो रमइ जिणहरे, सासणदेवि तासु सानिधि करइ; जाम ससि सूर अरु मेरुगिरि नंदणं, तां जयउ तिहुयणे एह जिणसासणं. ५० - इति श्री श्रावकविधि संपूर्ण लि. पुरोहित लक्ष्मी (ना)रायण (सं.१९८४) (पत्र ३-१६ नवीन प्रत, प्राचीन प्रत परथी नकल नं.२३२९ श्री मुक्तिकमल जैन मोहन ज्ञानमंदिर, वडोदरा) [जैनाचार्य श्री आत्मारामजी जन्म शताब्दी ग्रंथ, १९३६, हिंदी विभाग, पृ.७५-८०] Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ ज्ञानवैराग्यनां केटलांक अप्रसिद्ध काव्यो १. भोजकृत महावीर जिन स्तवन (हमणां शोध करतां श्री महावीर जिन स्तवन आनंदघनजीना नामर्नु बीचं पण मळी आव्युं छे. आ कदाच भोजकविकृत होय तोपण ना नहीं.) [एम लागे छे के आ स्तवन भोजकृत ज मानवू जोईए. कृति अन्यत्र नोंधायेली नथी ने कविपरिचय अप्राप्त छे. – संपा.] देशी - कडखानी अहो वीर जगवीर व्यवहार निश्चे नये, सुगम करी पंथ शिवपंथ दीनो; एक रूचि-अरूचि जिम अगुण भोजन करे, परिहरे अनुसरे धर्मभीनो. अहो !०१ पंच दर्शन धरे, एक पख आदरे, किम वरे आप निधि दूरवर्ति; कथनरूपी हुआ एह मत जूजूआ, व्योमना फूल जिम छे अमूर्ति. अहो !० २ समय निज ताहरे उभय पख जे धरे, ज्ञानकिरिया करी शुद्ध परखे; चेतनारूप निज-रूप-संपति सदा, अनंत चतुष्टय सही जीव निरखे. अहो !० ३ जेम पाषाणमां हेम, घृत दूधमां, तेल ज्यम तल विषेष रह्यो व्यापी; काष्टमां आग निश्चे लखे लोक सवि, प्रगट प्रत्यक्ष व्यवहार थापी. अहो !० ४ शुद्ध निराकार अविकार निज रूप श्यो, धरत गुण आठ शिवरूप देहे; कर्मपरिणति खरे ज्ञान उदयो धरे, ताम किरिया करे पामि गेहे. अहो !० ५ द्रव्य ने कर्मनो कर्मविरहित भयो, निश्चयाकार चेतन विराजे; एक उपदेश घर वेश तिण अवसरे, अवर जगजाल-संगति न छाजे. अहो !०६ प्रगट ए वात दिनरात आगम वहे, उभय चारित्र विन शिव न साधे; आपी अनंतर परंपरा तिण विधि, एकता थापीए किम विराधे ? अहो !०७ कल्पना कर्मगुण आप चेतन अगुण, सरण थिति बंध गुण विविध गावे; एह विपरीत निज दरस रक्ते सहज, भोज आनंदघन रूप पावे. अहो !० ८ २. ज्ञानसारकृत जगत्कर्तृत्व विषयक पद [अध्यात्मी कवि ज्ञानसार खरतरगच्छना रत्नराजना शिष्य छे अने एमनो कवनकाळ सं.१९मी सदी उत्तरार्ध छे. बहुधा हिंदीमा एमणे पदो ने स्तवनो उपरांत अन्य ज्ञानात्मक, ऐतिहासिक अने पिंगलशास्त्रीय कृतिओ रचेली छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ, भा.६, पृ.१९९-२१२. अहींनां त्रणे पद 'ज्ञानसारग्रंथावली' (संपा. अगरचंद नाहटा)मां पृ.५४-५५, ५८-५९ तथा ७५ पर छपायेल छे. - संपा.] Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानवैराग्यनां केटलांक अप्रसिद्ध काव्यो ५६३ आशा अवधु ! ए जगका आकारा, कोइ कस्या न करणहारा. पृथ्वी पानी पवन आकाशा, देखत होत अचंबा, इत्यादिक आधेयै परगट, दीसत कोइ न थंभा. अवधु !० १ या भरमै भूले जगवासी, करता कारण गावे, करमरहित जगकर्ता कारक, कयसे कर संभावे ? अवधु !० २ कर्तु अकर्तु अन्यथा करणे, समरथ साहेब माया, घटपट घटनायै पुन पटवी, या रस जग निर्माया. अवधु !० ३ कस्यो न कोई करै न करसी, एह अनादि सुभावे, बिनस्यो कबही न बिनसे ये जग. जिन-आगम जिन गावे. अवधु !० ४ अगनशिला पंकज नहि प्रगटै, शशक उठे नहि सींगा, आकाश न हुवे फुलवारी. कयसो माया अंगा ? अवधु !० ५ कृत बिनाश अकृत अविनाशी, शब्दप्रमाण प्रमाणे, ये लक्षण तुमरी लछनाए, संकर दूषण आते. अवधु !० ६ अंत आदि बिन लोक न कहीस्यो, घण अहीरण संडासी, प्रथम पछे घटना नहि संभव, समकाले हि घडासी. अवधु !०७ प्रथम पछे पुरषा नहि नारी, तैसे ईंडां पंखी, बीज वृक्ष नहि पीछे पहेले, है समकाल अपेखी. अवधु ! ८ लोक अनादि अनंत भंगथी, है खट द्रव्य बसेरा, याके अंते ज्ञानसार पद, सब सिद्धोका डेरा. अवधु !० ९ ३. ज्ञानसारकृत जिनमत विषयक पद सारंग अवधु ! जिनमत जगउपकारी, या हम निश्चे धारी. अवधु !० १ सरबमें सर्वांगे माने, सत्ता भिन्न स्वभावे, भिन्न भिन्न षड मत गम भाखे, मत ममत हठ नावे. अवधु !० २ नयवादी अपनो मत थापे, ओर सहु उत्थापे, एहने थाप उत्थापक बुद्धि, एक एक देश व्यापे. अवधु !० ३ जे जे सिद्धांतोमां भाख्या, खट मत अंग बतावे, जिनमतने सर्वांगी दाखे, पण न विरोध जणावे. अवधु !० ४ Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह मतमत वातां न उदीरे, तदगत शुद्ध स्वभावे, वंदे नहि निंदे नहि सबकुं, यथायोग्य पर चाले. अवधु !०५ एहवो नि:क्रोधी निर्मानी, अममायी [अमायी] अममत्ती, तेणे जिनमतरहस्य पिछाण्यो, अन्य ते मतममत्ती. अवधु !० ६ ऐसे शुद्ध जिनागम वेदी, जे निज आतम वेदे, ज्ञानसारथी शुद्ध सुपरिणित, पावे सिद्धि अखेदे अवधु !०७ ४. ज्ञानसारकृत वेशविडंबक विषयक पद मालकोश वेशधर युंही जन्म गमायो, संजस - करणी सुपनन- करणी, साधु नाम धरायो. वेश० मुखमुनिकरणी पेट कतरणी, अयसो जोग कमायो, देखी गृहधार कमीठीनी पर, इंद्रिय गोप बतायो. वेश० मुंड मुंडाय गाडीरीनी पर, जिनमत जगत लजायो, भेख कमायो, भेद न पायो, मन-तुरंग वश नायो. वेश० मन साधे बिन संजमकरणी, मानुं तुस फटकायो, ज्ञानसार ते नाम धरायो, ज्ञानको मर्म न पायो. वेश० ५. ज्ञानविमलकृत सुविहित गुरु वर्णन ( ' अशोक रोहिणी रास 'मांथी.) [ज्ञानविमलसूरि माटे जुओ 'आनंदघन चोवीसी/बावीशी अने छेल्लां बे स्तवनो. ' 'अशोकचंद्र रोहिणी रास' सं. १७७४मां रचायेल छे. संपा. ] तेने सुविहित बिरूद न कहिये, सुविहित सुधुं भाखे, यथालाभ निज शक्ति न गोपे, गुणिजन श्यं हित राखे रे, निंदा विकथा वदने न बोले, जिनभक्तिए चित्त खोले, पर उपकार न कीधो टोले, वरते अबुध जन टोले रे. कोइक 'दिगपट' कोइ 'मलिन', कोइक 'सितपटे' वरते, सुविहित भाव न तेहने कहिये, जे दंभिक्रिया करते रे. समय प्रमाणे समाचारी, धारी करे जे किरिया, गुरूकुलवासी नहि पर - आशी, तेह ज गुणना दरिया रे. Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानवैराग्यना केटलांक अप्रसिद्ध काव्यो ५६५ वीर तणुं शासन जयवंतुं, वरस सहस्र एकवीश, मर्यादाए छे मलपतुं, सुविहित सूरि छे इश रे. आप-वखाणे मिथ्यामदथी, जगे जशवाद न वाधे, जिम वायस निज नाम पोकारे, पण हंस कीर्ति नव साधे रे. निश्चय-दृष्ट्या शास्त्र निहाळे, क्रिया शुद्ध व्यवहारे, निज गुणमां ही| करी भाखे, रहे गुणिजन-आधारे रे. परगुण देखी मन संतोषे, जिनवाणीने हिंसे, चढते गुणठाणे गुणपोषे, पापपडलने शोषे रे. स्तुति-निंदा सुणी तोषे न रोषे, रहे निजानंदमां जोशे, मिथ्याभाव करी जन्म नवि मोघे, भरे पून्यनो कोश रे. अहनिश श्रुत-सज्झाय-प्रसंगी, अनोपम उपशम-लिंगी, गुणरागी संयमरसरंगी, ते सूधा संवेगी रे. तेहि ज सुविहित साधु कहावै, अवर ते नाम धरावे, गुण विण डाकडमाल चलावे, तेहि ज काम न आवे रे. गुण विण दीक्षा पंचवस्तुमां, कही होलीनृप सरखी, तेह भणी सुविहितपणुं प्राणी, जो-जो परि-वरि परखी रे. सुविहित गीतारथने वचने, विष हलाहल पीजे, अगीतारथ वचन विष परि तजिये, मिथ्याचारे कहीजे रे. भिन्न शंखने जंतु जिम दाधे, ते फरी काम न आवे, तिम गुणविण लिंग उभय लोके हिणु, ईम उपदेशमाल भावे रे. एम जाणीने साधु सद्दहणा, दु:षम समये पण धरजो, तरतम-योग विचारी जोतां, नास्तिकभाव न करजो रे. तेह जाणी सुविहित वाणी-स्युं, नेह धरी किरिया करजो, दान शील तप भावना भेदे, शक्ति अति आदरजो रे. शठ हठ छोडी गुरूवचने रहेतां, लहता आनंद अनंता रे, ज्ञानविमल गुण अंगे धरतां, शुभ करणी ईम करतां रे. [क्र.१थी ५ : जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स हेरल्ड, ओक्टो.१९१३, पृ.५०५-१०] Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह ६. लावण्यसमयकृत वैराग्य स्वाध्याय (विक्रम सोळमुं शतक.) [कविपरिचय माटे जुओ ‘रावण मंदोदरी संवाद'. आ कृति 'गुजराती साहित्यकोश खं.१'मां नोंधायेली नथी. ए ‘सज्झायमाला (भीमसिंह माणेक)मां पृ.३१४ पर छपायेल छे. - संपा.] चउपइ तो सुख जो मति[नि] आवै संतोस, तो सुख जो मन नावै रोस, तो सुख जो ममता हुई दूर, हंस रमे समता भरपूर. १ टुक इक टली कलह वारीयें, टुक इक रोस मनें मारीयें, टुक इक नमीयें दुर्जन लोक, संपद विपद हरख न शोक. २ जब लग जरा दूर देहथी, जब लगि रोग सोग भय नथी, जब लगि इंद्री तणी नहि हांणी, तूं तप करतो म करिस काण. ३ गहिला ! गर्ब न कीजें किमें, गांठे गरथ हुइ जिण समे, विसमे मागे तेह ज भीख, हरिचंद राजा देखी शीख. ४ डाहो नर न करे अन्याय, डाहो मरम न बोले धाय, डाहो न दीए केहनें कलंक, डाहो माणस होए निकलंक. ५ उदय परायो नवि सांसहे, फिरि फिरि आघी पाछी कहे, जनम लगें पिशुन पापीयो, निश्चें उजड तेहनो हीयो. ६ नवि कीजें निंद्या पारकी, निंदक होए निश्चें नारकी, जेहने होइ निंद्यानो ढाल, ते कहीयें चोथो चंडाल. ७ विद्या विनय करी मागीयें, वइरी-वास वसतां जागीइं, मद आदे जे नर परिहरे, तेहनो महिमा जग विस्तरे. ८ लावण्यसमे कर जोडी कहै, साचा वचन प्राणी सद्दहे, जिनवर-भगति भली परि करै, मुगतिवधु ते निश्चे वरे. ९ [जैनयुग, माघ १९८२, पृ.२४०] ७. लावण्यसमयकृत वैराग्य गीत [आ अने पछीनी कृति 'जैन गूर्जर कविओ' अने ‘गुजराती साहित्यकोश खं.१मां नोंधायेली नथी. - संपा.] एह संसार सवे मोहजाला, जे कुछ दीसई आलपंपाला, पुण्य करेवा पाप हरेवा, जई लोडइ मानवफल लेवा, Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानवैराग्यनां केटलांक अप्रसिद्ध काव्यो ५६७ भला करेवा बुरा हरेवा, जइ लोडइ किरतार मिलेवा. १ आंचली. उरतिकुं बिरूइ निदर न देणी, वोरी[चोरी] पिआरी वस्तु न लेणी. २ पुण्य करेवा. पूत्र कलत्र लाई मंदिर माया, लोचन मींचे सहू रे पिराया. ३ पुण्य. फूल मरइगा रहिगा वासा, कोइ न जीवई तीन पंचासा. ४ पुण्य. मुनि लावण्यसमय कहइ लाइ, मिहुर सरीसी करू रे सगाइ. ५ पुण्य. (पत्र ७–१५, हा.भं. पाटण, दा.८२ नं.१३६, सिद्धांत चोपई साथे) __[जैनयुग, वैशाख–जेठ १९८६, पृ.३४८] ८. लावण्यसमयकृत पाक्षिक चातुर्मासक सांवत्सरिक गीत राग धन्यासी समकित सरिखां रयणा न राख्यां, सत्यवचन नवि भाख्यां, परनारी-सिउं रंगिइं रमीआ, पसूअ पराणिईं दमीआ रे, खमावर रे खमावउ हेव, चित चोखई रहीए, वरस दिवसनां पातक धोई, नरवर निरमल थईए रे. १ खमा० जीव-यतन सूधां नवि कीधां, आल अयुगतां दीधां, गुरू-गुरूणीना विनय न करीआ, देव तणां द्रव्य हरीआ रे. २ खमा० अणजाणतां अबोला कीधा, परधन चोरी लीधां, बार व्रतना नियम विराध्या, सद्गुरू वचन न साध्यां रे. ३ खमा० ईंद्री पंच अलीढां(ढीलां) मेहल्यां, दान पुण्य जे ठेल्या, लाख चुरासी योनि प्रसिद्धी, तेहनी दहूवण कीधी रे. ४ खमा० कुंभकार-घरि चेलई कुंभ जि काकरि काणां करीआं, क्षणि क्षणि मिछा दुक्कड देतां बिहुना काज न सरीआं रे. ५ खमा. चंदनबाल अनई मरघाविई, तीणई जेम खमाविउं, कूडकपट जु मनथी टालिं, तु केवल करि आविउं रे. ६ खमा. खमा खमावी उपशम आणउ, जु जिनशासन जाणु, मुनि लावण्यसमयची वाणी, क्षमा मुगति-पटराणी रे. ७ खमा. (मुनि जशविजय संग्रह, एक पत्र) । असाड-श्रावण १९८६, पृ.४९४] ९ श्रीसारकृत स्याद्वाद सझाय [श्रीसार खरतरगच्छ क्षेम शाखाना रत्नहर्षना शिष्य छे. एमनी रासादि प्रकारनी घणी कृतिओ मळे छे जे सं.१६७८थी १७०२नां रचनावर्षो बतावे छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ, Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह भा.३ पृ.२१३–२२ अने ३७९ तथा गुजराती साहित्यकोश खं. १ पृ. ४४३. आ कृति 'जैन गूर्जर कविओ' मां नोंधायेली नथी. अहीं पण 'श्री सागर' हतुं ते 'श्रीसार' करवानुं थयुं छे. आकृति 'सज्झायमाला भा. १' (भीमसिंह माणेक ) पृ. ४०१ - ०३ पर छपायेली छे. - संपा. ] स्यादवाद मत श्री जिनवरनो तेहनें किम कहीए एकांत, मति एकांत कहे ते मिथ्यात्वी, साखी सघळा सुण हो सिद्धांत. त्रियारूप तिहां न रहे मुनिवर सोलमें उत्तराध्ययन विचार, साधु साधवी वसे एकठा, श्री ठाणांगे पंच प्रकार. जीव असंख्य काजल - टपके पन्नवणा सुत्रे श्री जिनराय, कल्पसूत्रमां नित नदीने लंघे मुनिवर वहिरण काज. श्री ठाणांगे चोथे ठाणे मांस-आहारी नरके जाय, मद्य मांस मधु पिण आचरणा आचारांग कह्यो जिनराज. पांचमे अंगे न करे श्रावक, निषेधे पनरे करमादान, १ स्या० २ स्या० ३ स्या० ४ स्या० ६ स्या० निर्वाह तणो पण दीसें, सप्तम अंगें किओ परिमाण. हिंसा न करे त्रिविध त्रिविध मुनि, पांचमें अंगे जुवो हीर, जिनवर तेजोलेश्या उपर शीतोलेश्या मुकी वीर. महावेदना हाथ लगायां वनस्पतिनें थाएं अंग, पडतो मुनिवर तेहि ज पकडें, एह अर्थ छे आचारंग. उत्तराध्ययनें भाख्यो मुनिवर, समय मात्र न करे प्रमाद, दशवैकालिक त्रीजी पोरसी, निंद तणी कीधी मरजाद. अंध भणी पिण न कहे अंधक, दशवैकालिक ए विधिवाद, ज्ञाता अंगे जतीयें भाख्या नागश्रीना अवर्णवाद. सूत्रे देव अविरति बोल्या, हवे पांचमें ठाणे मनरंग, ब्रह्मचर्य तप अति उत्कृष्टो, देव भणी भाख्यो ठाणांग. १० स्या० सूत्र नवि घटें, प्रकरण नवि घटे, प्रश्न पुछीजे तिणनुं एह, ऋषभ बाहुबल शिवपुर पुहुता, एकण दिन भाज्यो संदेह. ११ स्या० सात जणा सु मल्लि दीक्षा, सातमें ठाणें श्री ठाणांग, छठे अंग सात सह्या-सुं, कुण खोटो कुण साचो अंग. १२ स्या० नारी सहस बतीसे ज्ञाता, अंतगडे (सुगडांगे ?) सोल हजार, केशव तणी अंतेउरी भाखी, किम मेलीजे एह प्रकार १३ स्या० ५ स्या० ७ स्या० ८ स्या० ९ स्या० Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानवैराग्यनां केटलांक अप्रसिद्ध काव्यो ५६९ कुलगर पनरे जंबु पन्नती समवायांगे कुलगर सात, हरी बारमो जिन आठमे अंगे तेरमो चोथे अंग कहात. १४ स्या० सूत्र टीका नियुक्ति वखाणी चूर्णी भाषा ए मेलो पंचांग, ए पंचे कहे ते मानो साचुं, एण अर्थे म करो खल खंच. १५ स्या. जीवाभिगम असंघयणी भाख्या, नारकी श्री भगवंत, उगणीसमें श्री उत्तराध्ययने मांसपिंड बोल्या सिद्धांत. १६ स्या० चारित्र विराध्यु पंचमे अंगे भुवनपतिमां सुर थाय, सुकुमालिका छठे अंगे, किम दुजें देवलोक जाय. १७ स्या. विण व्याकरणे अर्थ जे भाखे, अर्थ नही ते अनरथ जाण, भागी नाव नदी किम तरीईं, दसमें अंगे कहे जगभाण. १८ स्या. श्री जिनप्रतिमानो वेयावच कर्मनिर्जरा काज, दशमे अंगे साधु भणी ए, अर्थ विचार कह्यो जिनराज. १९ स्या. हेय ज्ञेय उपादेय वखाण्यो इम उत्सर्ग अने अपवाद, विधि चारितानुवाद नयसंस्थित निश्रय ने व्यवहार माद. २० स्या. अनेकांतनयवादी जिनवर सिद्धांतमांहि कह्या दस बोल, कहे श्रीसार परिक्षा परिखो, श्री सिद्धांतरत्न बहुमोल. २१ स्या. [जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स हेरल्ड, एप्रिल-मे-जून १९१८, पृ.१३५-३६] १०. मानविजयकृत अध्यात्म ऋषभ नमस्कार स्तुति (विक्रम १.मुं शतक.) ['जैन गूर्जर कविओ' मां आ कृति नोंधायेली नथी. गुजराती साहित्यकोश खं.१ पृ.३०९ पर ए नोंधायेल छे, पण कविनी विशेष ओळख नथी. आ कृति 'जैन काव्यप्रकाश' (भीमसिंह माणक) पृ.८६ पर छपायेल छे. - संपा.] अलख अगोचर अकलरूप अविनाशी अनादि, एक अनेक अनंत संत अविचल अविषादी; सिद्ध बुद्ध अविरूद्ध अजरामर अभय, अव्याबाध अमूरतीक निरूपाधि निरामय; परमपुरुष परमेसरू ए प्रथम नाथ प्रधान, भवभयभावठभंजणो भजीइ श्री भगवान. १ रसना तुझ गुण संस्तवें, दृष्टि तुज दर्शन, नव अंगे पूजा समें काया तुझ स्पर्शन; Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह तुज गुणश्रवणें दो श्रवण मस्तक प्रणिपाते, शुद्ध निमित्त सवे हूया, शुभ परिणति थाते; विविध निमित्त विलास सवी ए विलसे प्रभु एकांत, अवतरीओ अभ्यंतरे निश्चल ध्येय महंत. २ भावदृष्टिमां भावते - व्यापक सवि ठामे, उदासीनता अवर-सुं लीनो तुझ नामे; दीठा विणु पण देखीए, सूतां पण जगवे, अपर विषयथी छांडवें इंद्रिय बुद्धि त्यजवे; पराधीनता मिट गइ ए, भेदबुद्धि गइ दूर, अध्यातम प्रभु प्रणमिओ चिदानंद भरपूर. ३ पूजक-पूज्य-अभेदथी कुण पूजारूप, द्रव्यस्तव रहिओ द्रव्यरूप एह शुद्ध स्वरूप; आतम परमातम भयो, अनुभवरस सगतें, द्वैतभाव-मल नीकल्यो भगवंतनी भगतें; आतमछंदे विलसतां ए प्रगट्यो वचनातीत, महानंद रस मोकलो, सकल उपाधि व्यतीत. ४ ज्योति शुं ज्योति मली गइ, पर रहें निज अवधे, अंतरंग सुख अनुभवं प्रभु आतमलबधे; निरविकल्प उपयोगरूप पूजा परमारथ, कारक ग्राहक एह प्रभु चेतन समरथ; वीतराग इम पूजतां ए, लहीए अविहड सुख, मानविजय उवझायना, नाठां सयल दु:ख. ५ लि० राजनगरे. (१-११ प्रत) [जैनयुग, आषाढ श्रावण १९८३, पृ.५०२] ११. आनंदघननु एक अप्रसिद्ध पद । [आनंदघनना परिचय माटे जुओ 'आनंदघन चोवीशी/बावीशी अने छेल्लां बे स्तवनो,' - संपा.] सोरठ कंत चतुर दिल ज्यांनी हो मेरे, ज्यों हम चीनी सो तुम कीनी, प्रीत चोर दोय चुगल महिलमै, वात कछू नही छांनी. हो मेरे. २ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानवैराग्यनां केटलांक अप्रसिद्ध काव्यो ५७१ पांच रू तीन त्रिया मंदिरमे, राज करै राजधानी, हो, एक त्रिया सब जग वस कीनौ, ज्ञानखडग वस आनी. हो मेरे० ३ च्यार पुरूष मंदिरमें भूखै, कबहुं त्रिपत न आंनी, हो, दस असील ईक असली बूझै, बूझ्यौ ब्रह्मज्ञानी. हो मेरे. ४ च्यारूं गतिमैं रूलतां बीते, कर्मकी किनहुं न जानी, आनंदघन इस पदकुं बूझै, बूझ्यौ भविकजन प्राणी. हो मेरे० ५ [जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स हेरल्ड एप्रिल-मे-जून १९१८, पृ.१६०] Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ देवचंद्रजीकृत केटलांक स्तवन-सझाय (वि. अढारमी सदीने अंते.) [खरतर दीपचंदशि. देवचंद्रजी अध्यात्मी अने तत्त्वविचारक कवि छे. एमनो जीवनकाळ सं.१७४६थी १८१२ छे. एमनी कृतिओ माटे जुओ जैन गूर्जर कविओ, भा.५, पृ.२३२-५७ तथा गुजराती साहित्यकोश, खं.१, पृ.१८१-८२. क.३ अने ५ 'श्रीमद देवचंद्र भा.२' (बुद्धिसागर)मां छपायेल छे. - संपा.] १. अष्टापद स्तवन श्री अष्टापद गिरिवर उपर, जिनवर चैत्य जुहारो, भरतभूपकृत चोमुख सुंदर, शिवसुखकारण धारो. १ भेटो शिवसुखकारण काजि, भविजन ए तीरथने, मेटो मोह अनादि भव भवना संकटने. भेटो. २ बहु भवसंतति कर्म सहि, पिण जे भेटे ए ठाम, क्षेत्र निमित्ते शुचि परिणामें, पामें निजगुणधाम. ३ ऋषभ जिनेसर परम महोदय, पाम्या इंण गिरिशृंगें, चिदानंदघन संपत्ति पूरण, सीधा बहु मुनि संगे. ४ भरत मुनिसर आतमसत्ता, सकल प्रकट इंहां कीध, इंण परि पाटें असंख्य संयमी, सर्व संवरपद लीध.. ५ जे जिनसत्ता तत्त्वसरूपें, ध्यान एकलय ध्यावें, अनेकांत गुणधर्म अनंता, थायें निर्मल भावें. ६ तेहर्नु कारण आत्मगुण त्रय, तस कारण जिनराज, तस बहुमान भान हेतुथी, तिण ए भवोदधि पाज. ७ मिथ्यामोह विषयरति धीठी, नासें तीरथ दीठे, तत्त्वरमण प्रगटें गुणश्रेणिं, सकल कर्मदल नीट. ८ ठवणा भाव निक्षेप गुणीनो, सम आलंबन जाणी, ठवणा अष्टापद तीरथवर, सेवो साधक प्राणी. ९ भवजलपारउतारण कारण, दुखवारण ए शृंग, मुगतिरमणीनो दायक लायक, नित वंदो मनरंग. १० Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७३ देवचंद्रजीकृत केटलांक स्तवन-सझाय तीरथसेवन शुचिपदकारण, धरी आगम-साखें, श्रद्धा आणी जे तीरथ पूजे ते शिवसुखने चाखे. ११ साध्य दृष्टि साधननी रीतें, स्याद्वाद गुणवृंद, देवचंद सेवें ते पामें, अक्षय परमाणंद. १२ २. समेतशिखर स्तवन ढाल : बेडले भार घणो छे राज, वातां किम करो छो - ए देशी जंबूद्वीप दक्षण वर भरतइं, पूरवदेश मझार, श्री समेतशिखर अतिसुंदर, तीरथमें सरदार. १ भेट्या भाव धरि में आज, ए तीरथ गुणगिरूयो. भेट्या. वीस जिणेसर शिवपद पांम्या, इंण परवतर्ने शृंग, नाम संभारी पुरुषोत्तमना, गुण गावो मनरंग. २ इंम उत्तर दिश ऐरवत खेत्रे, श्री सुप्रतिष्ठ नगेंद्र, श्री सुचंद्र आदिक जिननायक, पाम्या परमाणंद, ईम दस खेत्रे वीसे जिनवर, इक ईक गिरिवर सिद्धा, तित्थुगालि पयंना माहे, ए अक्षर परसिद्धा. ४ ए तीरथ वंदि सवि वंद्या, जिनवर शिवपद ठाम, वीसे टुंक नमो सुभ भावें, संभारी प्रभुनाम. तरीये जेहना संग भवोदधि, तीन रतन जिहां लहीयें, जे तारें निज अवलंबनथी, तेहनें तीरथ कहीयें. ६ शुद्ध प्रतित भगतथी ए गिर, भेट्यां निर्मल थइयें, जिनतति फरसभूमि दरसणथी, निज दरसण थिर करीयें. ७ सूत्र-अर्थधारी पिण मुनिवर, विचरें देशविहारी, जिनकल्याणकथांनक देखी, पछी थायें पदधारी. श्री सुप्रतिष्ठ समेतशिखरनी, ठवणा करी जे सेवें, श्री सुकराज परें तीरथफल, ईहां बेठां पणि लेवें. तसु आकार अभिप्राय तेहने, ते बुधे तस करणी, करतां ठवणा शिवफल आपें, ईम आगममें वरणी. १० जिण ते तीरथ विधि-स्युं भेट्यो, ते तो जग-(ज)स लहीजें, ते ठवणा भेटत अमे पिण, नरभव लाहो लीजें. ११ Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह दश खेत्रे ईक इक चोवीसी, वीस जिनेश्वर (सीझें), सिद्धक्षेत्र बहु जिनना देखी, माहरो मनडो रीझे. १२ दीपचंद्र पाठकनो विनयी, देवचंद्र ईम भासें, जे जिनभगतें लीण भविजन, तेहने शिवसुख पासें. १३ . [क्र.१,२ : जैनयुग, कारतक-मागशर १९८३, पृ.१४५-४६] ३. सहस्रकूट स्तवन सहस्रकट जिनप्रतिमा वंदिये, मन धरी अधिक जगीस, विवेकी, सुंदर सुरत अति सोहामणी, एक सहस चउवीस, विवेकी. स. १ अतीत अनागत ने वरतमाननी, तीन चोवीसी हो सार, विवेकी, बहुत्तर जिनवर एक क्षेत्रमा प्रणमीजे वारोवार, विवेकी. स. २ पांच भरत वळी ऐरवत पांचमे, सरखी रीते समाज, विवेकी, दश क्षेत्रे करि थाये सातसें, वीस अधिक जिनराज, विवेकी. स. ३ पंच विदेहे जिनवर साठसो, उत्कृष्टी एहि ज टेव, विवेकी, जिनसमाज जिनप्रतिमा ओळखी, भक्ते कीजे हो सेव, विवेकी. स. ४ पंच कल्याणक जिन चोवीसना वीसा सो तेहि ज थाय, विवेकी, कल्याण ने विध-श्युं साचव्या, लाभ अनंत कहाय, विवेकी. स. ५ पंच विदेहे हमणां विहरता, वीस अछे अरिहंत, विवेकी, शाश्वत प्रभु ऋषभानन आदिदे, चार अनादि अनंत, विवेकी. स. ६ एक सहस चोवीस जिनेशनी, प्रतिमा एकण ठाम, विवेकी, पूजा करतां जन्म सफळ हुवे, सीझे वंछित काम, विवेकी. स. ७ तीन काल अढाइ द्वीपमा, केवलज्ञान वहाण, विवेकी, कल्याणकारी प्रभु इहां सामटा, लाभे गुणमणि खाण. विवेकी. स. ८ सहस्रकूट सिद्धाचल उपरे, तिमहि ज धरणविहार, विवेकी, तिणथी अद्भुत ए छे थापना, पाटण नगर मझार, विवेकी. स. ९ तीर्थ सकल वळी तीर्थंकर सहु, इण पूज्यां तेह पूजाय, विवेकी, एक जीहथी महिमा एहनी, किण भाते कहेवाय, विवेकी. स. १० श्रीमाली कुलदीपक जेतसी, शेठ सुगुणभंडार, विवेकी, तसु सुत शेठ शिरोमणि तेजसी, पाटण मांहे दातार, विवेकी. स. ११ तिणे बिंब भराव्यां भाव-शं, सहस अधिक चउवीस, विवेकी, कीध प्रतिष्ठा पूनमगच्छधरू, श्री भावप्रभ सूरीश, विवेकी. स. १२ Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवचंद्रजीकृत केटलांक स्तवन-सझाय ५७५ सहस जिणेसर विधि-श्युं पूजशे, द्रव्य भाव शूचि होई, विवेकी, इहभव परभव परम सुखी होशे, लहशे नव निधि सोई, विवेकी. स. १३ जिनवरभक्ति करे मने रंग-श्युं, भविजननी ए छे नीत, विवेकी, दीपचंद सम श्री जिनराजथी, देवचंदनी प्रीत, विवेकी. स. १४ [जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स हेरल्ड, जुलाई-ओक्टोबर १९१५, पृ.४४०-४१] ४. श्री सिद्ध महावीर स्तवन (थोडा फेरफार सहित. वाघेसरीमां सुंदर रीते गवाशे.) प्रभु तुं अनंत महंत प्रशान्त, प्रभु तुं बधा कर्मनाशे कृतान्त; प्रभु पूर्ण आनंद आस्वादवन्त, प्रभु तुं थयो सिद्धिलक्ष्मि-सुकांत. १ रहित वर्ण-गंध-स्पर्शन-रूप, प्रभु तुं थयो रससंस्थानहीन, अमोहि अकर्ता अभोगी अयोगी, अवेदी अखेदी गुणानंद-पीन. २ जाणे तुं ज्ञाने छती सर्व वस्तु, अने देखतो सर्व सामान्य भाव, रमे आत्मगुणे, घुमे रस-अनुभव, अने पूर्ण लेतो शुद्धात्मभाव. ३ वस्यो दानलाभे अनंततात्मगुणे, थयो भोग-उपभोग निज धर्मलीन, वस्या सर्व गुण कार्य सहकार वीर्य, चपल वीर्य जातां थयो स्थिर अदीन. ४ क्षमी तुं दमी तुं मार्दवमय तुं, ऋजुता ने मुक्ति समता अनंत, असंगी अभंगी अनंगी प्रभु तुं, सर्व प्रदेशे तुं गुणशक्तिवंत. ५ प्रमाणी प्रमेय अमेय अगेही, अकंपात्म देशी अलेशी अवेश, स्वयं ध्यान मुक्त सदा ध्येयरूप, मुनिमानसे जेहनो वास देश. ६ ५. साधक स्वाध्याय साधक साधज्यो रे निज सत्ता इक चित्त; निज गुण प्रगटपणे जे परिणमे रे, एहि ज आतमवित्त. १ सा. पर्याय अनंता निज कारणपणे रे, वरते ते गुणशुद्ध; पर्याय गुण परिणामे कर्तृता रे, तो निज धर्म प्रसिद्धि. २ सा. परभावानुगत वीर्य चेतना रे, तेह वक्रता चाल; कर्त्ता भोक्तादिक सवि शक्तिमा रे, व्याप्यो उलटो ख्याल. ३ सा० क्षयोपशमिक ऋजुताने उपने रे, तेहि ज शक्ति अनेक; निज स्वभाव अनुगतता अनुसरे रे, आर्जव भाव विवेक. ४ सा. Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह अपवादे परवंचकतादिका रे, ए माया परिणाम; उत्सर्ग निज गुणनी वंचना रे, परभावे विश्राम. ५ सा. ते वर्जी अपवादे आर्जवी रे, न करे कपट कषाय; आतमगुण निज निज गति फोरवे रे, उत्सर्ग अमाय. ६ सा० सत्तारोध भ्रमण गति चारमे रे, पर-आधीने वृत्ति; वक्र चालथी आतम दुख लहे रे, जिम नृपनीति विरत्त. ७ सा. ते माटे मुनि ऋजुताये रमे रे, वमे अनादि उपाधि; समतारंगी संगी तत्त्वना रे, साधे आत्मसमाधि. ८ सा. मायक्षयें आर्जवनी पूर्णता रे, सवि ऋजुतावंत; पूर्व प्रयोगे परसंगीपणो रे, नहि तसु कर्तवंत. ९ सा० साधनभाव प्रथमथी नीपजे रे, तेहि ज ध्याये सिद्ध; द्रव्यत साधन विघन निवारणामे, निमित्तक सुप्रसिद्ध. १० सा. भावे साधन जे ईक चित्तथी रे, भवसाधन निजभाव; भावसामग्री हेतुता रमे, निस्संगी मुनि भाव. ११ सा. हेय-त्यागथी ग्रहण स्वधर्मनो रे, करे भोगवे साध्य; स्वस्वभाव रसियाने अनुभवे रे, निज शुद्ध अव्याबाध. १२ सा. निस्पृह निर्भय निर्मम निर्मला रे, करता निज संम्राज; देवचंद्र आणाये विचरता रे, नमिये ते मुनिराज. १३ सा. [जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स हेरल्ड, एप्रिल-मे-जून १९१८, पृ.१७५] Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७७ समयसुंदरनां केटलांक नानां काव्यो [खरतरगच्छना सकलचंद्रशि. समयसुंदरनी रास अने स्तवन-सझायादि प्रकारनी संख्याबंध कृतिओ मळे छे, जे सं.१६४१थी १७००नां रचनावर्षों बतावे छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ भा.२ पृ.३०६-८१ अने भा.३ पृ.३६९-७१ तथा गुजराती साहित्यकोश खं.१ पृ.४४८-५०. क्र.५ अने १०थी १६ 'जैन गूर्जर कविओ' मां नोंधायेल छे. . क्र.१थी १० अने १२थी १६ ‘समयसुंदर-कृति-कुसुमांजली' (संपा.अगरचंद नाहटा)मां अनुक्रमे पृ.३११-१२, ३, ४३३, ७, २९०-९१, १, २८५-८६, २००, ९६-९७, ७६-७७, १७६, १६१-६२, १६९, १७०, १६८-६९ पर छपायेल छे. एना पाठोनो लाभ अहीं लेवामां आव्यो छे. ('ख' संज्ञा) क्र.१मां त्यां बे कडी वधारे छे. क्र.२ तथा ४ चोवीसीमांनां स्तवन छे. क्र.५मां पंक्तिओनी वधघट छे, देशाईना पाठनी पंक्तिओनो क्रम बदलवानो थयो छे अने पाठांतर तो महत्त्वना ज नोंधी शकाया छे. ए नोंधपात्र छे के 'जैन गूर्जर कविओ'मां आ कृतिना आरंभ-अंतनी जे पंक्तिओ नोंधायेली छे ते पण अहींना पाठथी जुदी पडे छे. क्र.१७ने देशाईए समयसुंदरनी कृति कई दृष्टिए गणी छे ते समजातुं नथी. एमां नामछाप तो 'कवियण' एटली ज छे ने देशाईए समयसुंदर (कवियण) एक जुदा नोंधेल छे (जैन गूर्जर कविओ भा.२ पृ.१२४-२६) जेनो 'स्थूलिभद्र रास' सं.१६२२नो मळे छे. आ कृति एनी होई शके ? 'समयसुंदर-कृति-कुसुमांजलि'मां पण आ कृति प्राप्त नथी. - संपा.] १. स्थूलिभद्र गीत राग सारंग प्रीतडिआ न कीजइ हो नारि, परदेसीया रे, क्षणे क्षणे दाझे देह. वीछडिया वहालेसर मलवो दुहिलोजी, साले साले अधिक स्नेह. प्रीतडिया न कीजे नारी, परदेसीआ रे. काल आव्या ने आज उडी चालसे रे, भमर भमतो जोई, साजणिया वळावीने पाछा वळतांजी, धरति भारणि होइ. प्रीत. मनना मनोरथ सवि मनमा रह्याजी, कहीए केहनि साथि, कागलीओ लखतां भीनो आंसुएजी, चडियो हो दुर्जन-हाथ. प्रीत. थूलभद्र कोसा बुझवीजी, पालि हो पूरव प्रेम, सील-सुरंगी पेहरो चुनडिजी, समयसुंदर कहे एम. प्रीत. Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह २. ऋषभदेव गीत राग मारूणी रीषभदेव मेरा हो, पुन्यसंयोगें पांमीया, में दरसण तेरा हो. रीषभदेव मेरा हो. १ लख चोरासि हुं भन्यो, स्वामी, भवका फेरा हो, दुख अनंता में सह्यां, सामी, तीहां बहोतेरा हो. २ चरण तुमारां में ग्रह्यां, सामी अबकी वेलां हो, समयसुंदर कहे तुम्हथी, सांमी कोण भलेरा हो. ३ ३. आरतिनिवारण गीत राग गुजरी मेरा जीव आरति काहा धरे, जेसा वखतमें लखित विधाता, तिनमें घटे न बढे[कछु न टरे]. मेरा. १ चक्रवर्ति शिर छत्र धरावत, के कण मंगत फरे, एक सुखीया अक दुखीया दीसे, ए सब करम करे. मेरा० २ आरति अब छोर दे जीउडा, रोते न राज चडे[चरे], समयसुंदर कहे जो सुख वांछे, कर धरम चित खरे. मेरा० ३ [क्र.१,२,३: जैनयुग, वैशाख १९८५, पृ.३५३] ४. सुविधिनाथ गीत राग केदारो गुण अनंत अपार प्रभु, तोरा गुण अनंत अपार. सहस रसनां करत सुरगुरू, तौही न पावै पार. १ प्रभु० कौंन अंबर गिणे तारा, मेरू गिरको भार, चरमसागर लहिरमाला, करत कौंन विचार. २ प्रभु० भक्ति गुण लवलेस भाखै, सुविध जनसुखकार, समयसुंदर कहत हमकुं, स्वास तुम्ह आधार. ३ प्रभु. (मुनि जशविजय संग्रह) [जैनयुग, महा-चैत्र १९८६, पृ.२२४] Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुंदरनां केटलांक नानां काव्यो ५७९ ५. भवदेव-नागला सझाय भवदत्त भाइ-घरे आविया रे प्रतिबोधवा मुनिराय रे, अर्ध मंडित [नारी] नागला रे, खटके मोरा हयडला मांहि रे, साले मोरा हयडला मांहि रे. नव-परणित गोरी नागला रे, नवयौवन गोरी नागला रे. १ हाथे देइ घीनो पातरो रे, वीरा, मुने आधेरो वोलावि रे, इम करि गुरूजी पासि आविया रे, गुरूजी पुछे दीक्षानो भाव रे. अर्ध. २ लाजे नाकारो नव कीयो रे, दीक्षा लीधी भाई-बहुमानि' रे, बार वरस इण परि उगिया' रे, हैये धरता नागलानो ध्यान रे. अर्ध. ३ हा हा मुरख में सुं करो रे, काइ पडिउ कष्ट मझारि२ रे, चंद्रवदनी मृगलोयणी रे, वलवलती ते मुकी घरनी नार रे, भवदत्त भाइए मुझने भोलव्यो रे, हवे करसुं किस्या विचार रे. अर्ध. ४ भवदेव भागेल चित्ते आविउ रे, अणओळख्या पूछे वाट' रे, कहो किणि दीठी गोरी नागला रे, अम व्रत छोडवाने माट' रे. अर्ध०५ नारि कहे सुणो साधुजी रे, वम्यो कोई नवि लीये आहार रे, हस्ति चडी खर को नव चडे रे, तिम व्रत छोडीनइ नारि रे. अर्ध०६ नागलाए नाह समझावीओ रे, वली लीधो संजम-भार रे, भवदेव देवलोक पामीओ रे, समयसुंदर सुखकार रे. अर्ध. ७ ६. चोवीस जिन स्तवन राग ललित जीव जपि जीव जपि जिनवर अंतरजामी, ऋषभ अजित संभव अभिनंदन, सुमति पद्मप्रभु शिवगतिगामी. १ जिन० सुपास चंद्रप्रभू सुविध शीतल श्रेयांस वासुपूज्य विमल अनंत हितकामी, धर्म शांति कुंथु अरि मल्लि मुनिसुव्रत नमी नेमि पार्श्वनाथ महावीरस्वामी. २ जिन. चोवीस तीर्थंकर त्रिभुवन-दिनकर, नाम-ग्रहण जाके नवनिधि पामी, मनवांछित पूरण सुरतरू सम प्रणमत समयसुंदर शिर नामी. ३ जिन. १. क. भाईने पास. २. ख. व्रत मांहि रह्यउ. ३. ख. जंजाल. ४. ख. वात. ५. ख. किहां वसइ केही छइ धात. ६. क. चेतो चेतो चतुर सुजाण. Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह ७. धनानी सझाय वीर जिणंद समोसर्याजी, राजग्रही उद्यान, समोसरण सुरवर रचेजी, बेठा त्रिभुवनभाण, जगि जीवन वीरजी कवणि तमारो शीष, आप तरे ओर तारवे, उग्र तप धरे निशदिस. जगि. १ प्रभु आगमन सुणी करीजी, श्रेणिक हरख अपार, प्रभुपायवंदन आवीयोजी, हय गय रथ परिवार. जगि० २ श्रेणिक प्रभु देशना सुणीजी, प्रश्न करे सुविचार, चउद सहस अणगारमांजी, कवण अधिक अणगार. जगि. ३ काकंदी नगरी वसेजी, भद्रामात-मल्हार, संयमरमणी आदरीजी, जाणी अथिर संसार. जगि. ४ छठ तप आंबले पारणेजी, उचित लीए आहार, माया ममता परहरीजी, देहे दीए आधार. जगि० ५ शीख दुविध पाले भलीजी, शमदमसंयम सार, तप जप प्रमुख गुणे करीजी, अधिक धनो अणगार. जगि०६ धनो नाम सुणी करीजी, परख्यो श्रेणिक. राय, त्रण प्रदक्षणा देइ करीजी, वांदे मुनिवर पाय. जगि० ७ नवमे अंगे ए अछेजी धनानो अधिकार, सोहमस्वामी उपदेशीयुंजी, जंबूने हितकार. जगि० ८ एहवा मुनिवर वांदीए, चरणकमल चित्त लाय, समयसुंदर भगते भणेजी, निरूपम शिवसुख थाय. जगि. ९ [क्र.५,६,७ : जैनयुग, आसो १९८४, पृ.५०-५१] ८. जिनप्रतिमा स्तवन श्री जिनप्रतिमा हो जिन सारखी कही, ए दीठां आणंद, समकित बिगडे हो शंका कीजतां जिम अमृत विषबिंद. श्री. १ आज नहि कोइ तीर्थंकर इहां, नही कोइ अतिशयवंत, श्री जिनप्रतिमानो एक आधार छे, आपे मुगति एकांत. श्री. २ सूत्र सिद्धांते हो तर्क व्याकरण भण्या, पंडित पण कहे लोक, जिनप्रतिमाने हो माने नही, तेहनो सगलो फोक. श्री. ३ Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुंदरनां केटलांक नानां काव्यो ५८१ जिन-अर्ह-प्रतिमा हो आगे नमोत्थुणं कहे पूजा सतर प्रकार, फल पिण बोल्या हो हितसुख मोक्षना दूपदीने अधिकार. श्री. ४ रायपरोणी हो ज्ञाता भगवती, जीवाभिगम मांहि, ए सूत्र माने हो, प्रतिमा माने नहीं, ‘माहरी मा ने वांझि'. श्री५ साधुने बोल्या हो भावस्तव भला, श्रावकोने द्रव्यभाव, ए विहुं करणी हो करता निस्ता , जिनप्रतिमा-प्रभाव. श्री. ६ पारसनाथ हो तुझ परसादथी, सद्दहना मुझ एह, भवभव होज्यो हो समयसुंदर कहे, श्री जिनप्रतिमा-सुं नेह. श्री. ७ [जैनयुग, अश्विन १९८१, पृ.६२] ९ शीतलनाथ स्तवन राग सारंग मुख नीको शीतलनाथको ऊठ प्रभात जिके मुख निरखत, सफल जनम ताहीको. मु. १ नयणकमल नीकी मधु तारा, उपम ताहि अली को, सूंदर वदन मनोहर मूरति, भाल उपर भलो टीको. मु. २ शीतलनाथ सदा सुखदाइक, नायक सकल दुनीको, समयसुंदर कहे जनम जनम लग, हुं सेवक जिनजीको. मु. ३ १०. विमलाचलमंडन ऋषभदेव गीत राग तोडी रिषभकी मेरे मन भगति वसीरी, मालती मेघ मृगांक मनोहर, मधुकर मोर चकोर जिसीरी. १ रिषभ. प्रथम नरेसर प्रथम भिक्षाचर, प्रथम नरेसर प्रथम ऋषीरी, प्रथम तीर्थंकर प्रथम भुवनगुरू, नाभिरायां-कुल-कुमुद-शशीरी. २ रिषभ. अंश उपर अलिकावली ओपत, कंचन कसवट रेख कसीरी, श्री विमलाचलमंडन स्वामी, समयसुंदर प्रणमत उलसीरी. ३ रिषभ. [जैनयुग, मागशर-पोष १९८६, पृ.२००] ११. समयसुंदरकृत आबूतीरथ भास आबू परबत रूयडउ, आदीसर, उंचउ गाउ सात रे, आदीसर देव, पाजई चडतां दोहिलउं, आ. पणि पुण्यनी घणी वात रे. आदीसर देव. १ Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह आबूनी यात्रा करी आ. सफल कीयउ अवतार रे, आ. आबूनी यात्रा करी. आदी. आंकणी पहिला आदीसर पूजिया, आ. विमल वसही सुजगीस रे, आदी. देव जुहार्या देहरी, आ. अस(श्व) चड्या विमल मंत्रीस रे. आदी. २ श्री नेमीसर निरखीया, आ. सामसूरति सुकमाल रे, आ. कुण मंडपनी कोरणी, आ. धन वसतपाल तेजपाल रे. आदी. ३ भीम लूणग वसही भली, आ. खरतर वसही जिणंद रे, आ. सगला बिंब जुहारिया, आ. दूरि गयउ दुखदंद रे. आदी. ४ अचलगढई पछइ आवीया, आ. चउमुख प्रतिमा च्यार रे, आ. श्री सांतिनाथ कुंथनाथनी, आ. प्रतिमा पूजी अपार रे. आदी० ५ आबूनी जात्रा करी, आ. आव्या सीरोही उलास रे, आ. देव अनई गुरू वांद्यां तिहां, आ. सहुनी पूगी आस रे. आदी. ६ जात्रा करी अठ्योतरई, आदी. श्री संघ पूजा सनात्र रे, आ. समयसुंदर कहइ सासती, आदी. भास भण्या हुयइ जात्र रे. आदी. ७ - इतिश्री आबूतीरथ भास. [जैनयुग, असाड-श्रावण १९८६, पृ.४८४] १२. मंगलोरमंडन नवपल्लव पार्श्वनाथ भास नवपल्लव प्रभु नयणे निरख्यउ, प्रगटउ पुण्य नइ हीयडइउ हरख्यउ. नव. १ वलभीभंगइ मूरति आणी, मारगि बे अंगुली विलंबाणी. २ वलीय नवि आणी [आवी] ते जाणउ, नवपल्लव ते नाम कहाणउ. ३ मंगलोरगढ मूरति सोहइ, भवियण लोग तणां मन मोहइ. ४ जाप करी श्री संघ संघाति, समयसुंदर प्रणमइ परभाति. ५. (जुओ क्र.१६ने छेडे.) १३. खंभायतमंडन भीडभंजन पार्श्वनाथ भास भीडभंजण रे दुखगंजण रे, रूडी मूरति जमनमनरंजण रे, निरखीजइ पास निरंजण रे. १ दरसणइ मनवंछित-दाता रे, पणमीजइ उठि प्रभाता रे, कंसारी नाम कहाता रे, खंभायत मांहि विख्याता रे. २ भीड. चिंता आरति सवि चूरइ रे, प्रभु सहुना परता पूरइ रे, दुखदोहिग टालई दूरि रे, समयसुंदर पुण्य पडूरइ रे. ३ भीड. (जुओ क्र.१६ने छेडे.) Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुंदरनां केटलांक नानां काव्यो ५८३ १४. सेरीसामंडन पार्श्वनाथ भास सकल [सकलाप] मूरति सेरीसइ, पोस दसमि पारसनाथ भेट्योउ, देहनामी [देवनीमी] देहरउ दीसइ. १ प्रतिमा लोडति जाइ पातालइ, धरणि आउं धिरइ [आधीरइ] सीसइ, भाव-भगति भगवंतनी करतां, हरख घणइ हियडउ हीसई. २ पटणी पारिख सूरजी संघ-सुं, जात्र करी भली [लाभ] सुज़गीसइ, समयसुंदर कहइ साचउ मइ जाण्यउ, वीतराग [देव] वीसवीसइ. ३ (जुओ क्र.१६ने छेडे.) १५. पार्थवीर भास राग धन्याश्री पदमावति सिर उपरि, पारसनाथ प्रतिम सोहइ रे, नगर नलोलइ निरखतां, नरनारीनां मन मोहइ रे. १ पदमा. भुंहरा माहि अति भली, महावीरनी प्रतिमा मांडी रे, भगति करउ भगवंतनी, मोक्षमारगनी ए दांडी रे. २ पदमा० लोक जायइ जात्रा घणा, पदमावती परता पूरइ रे, समयसुंदर करइ जिन बेऊ ते, आरति चिंता चूरइ रे. ३ पदमा. (जुओ क्र.१६ने छेडे) १६. असाउली भाभा पार्श्वनाथ भास भाभउ पारसनाथ मइ भेट्यो, आसाउलि माहि आज रे, दुखदोहग दूरि गया सगला, सीधा वंछित काज रे. १ श्रावक पूजा सनात्र करइ [सहु] सपूरव ताल पखाज रे, [भगवंत आगल भावन भावइ, भय संकट जावई आज रे, २ अश्वसेन राजाकउ अंगज, तेवीसमउ जिनराज रे,] समयसुंदर कहइ हुँ सेवक तोरउ, तुं मेरे सिरताज रे. ३ - सं.१७०० वर्षे आषाढ वदि १ दिने श्री अमदावाद नगरे हाजा पटेल पोलि मध्यवर्ति वृद्धोपाश्रये...पंडित श्री समयसुंदरोपाध्याय लिखिता...हर्षनंदनगणि सहित. (प.सं.११-१३, रो.ए.सो.बी.डी. २६ नं.१९०६ 'तीर्थ भास छत्रीशी'-अंतर्गत) १७. आदीसर विनति आदीसर हो सोवनकाय, तेजई रवि जिम दीपतो, Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह सुर किंनर हो सेवइ पाय, मोह महाभड जीपतो. १ जे अहनिशि हो प्रणमे सामि, त्यां घर सदा वधामणा, चउगइ-दुख हो टालणहार, जिनवर नाम सुहामणो. २ वीनतडी हो इक अवधारि, कर जोडी कवियण कहे, तुं समरथ हो घण संसारि, तुझ कीरति जगि महमहे. ३ (अपूर्ण, मारी पासे.) [क्र.१२थी १७ : जैन गुर्जर कविओ, बीजी आवृत्ति भा.२, पृ.३६५-६६, ३६७-६८, ३७४] Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८५ केटलीक हरियालीओ १. सुधनहर्षकृत (सुधनहर्ष ए तपगच्छ प्रसिद्ध, हीरविजयसूरिना शिष्य धर्मविजयना शिष्य हता. तेमणे सं.१६७७मां 'जंबुद्वीपविचार स्तवन' तथा बीजी कृतिओ नामे 'देव-कुरूक्षेत्र स्तवन' अने 'मंदोदरी रावण संवाद' रचेल छे. हरियाळी एटले समस्या. कोई शब्द के अर्थ गूढ राखी ते पछी ते गूढ शब्द के अर्थ शोधी काढवानो. आ हरियाली शब्द रूढ जणाय छे ने तेनुं मूल संस्कृत शुं ते कोई जणावशे तो उपकार थशे. आ शब्द नीचेना स्थले वपरायो छ : • गुणावली कहे “प्रभु ? अवधारी, एक हरिआली कहो सुविचारी" “मोटां पांच ध्येयनां नाम, आराधइ सवि सीझइ काम; त्रण अक्ष्यर मांहि ते जाणि, ईह परभवि सुखीआ मन आंणि." ८८ • मुज हरीआली कवण विचार. ते कहेजो प्रभु अरथ उदार. ९३ (प्रेमलालच्छी रास, आ का.म., मौ,१ पृ.४४३) • काव्य सिलोक अनइं हरीआली रे, गाहा पहेली कहे रसाली रे. (पृ.४०६) [कवि अने एमनी कृतिओ माटे जुओ जैन गूर्जर कविओ भा.३ पृ.२०५-०९ तथा गुजराती साहित्यकोश खं.१ पृ.१९१. आ कृति 'जैन गूर्जर कविओ' मां नोंधायेल नथी. - संपा.] पुरुषि एक नपुसंक जायो, ताणी आगलि कीधो रे; जावजीव ते ऊभो रहवइ, जगमा तेह प्रसिद्धो रे. १ पु० तेहगें मंदिर छई अति ऊंचं, मवतां पार न आवइ रे; सहुई माणस तेहना घरथी, जे जोइं ते पावइ रे. २ पु० जेहनइ आपलि ते हुइ ऊभो, तेहनइ ते नहि देखइ. रेः प्राहिं मोटा कारण पाखई, तेहनइं को न उवेखे रे. ३ पु. चांद सूरय पासिं तस वासो, निरमल नर-स्युं राचइ रे; मस्तकि मेरू ताणइं ते रहवई, ए मई बोल्युं साचइं रे. ४ पु० अंबरताइ ते छइं ऊंचो, को नवि ढांकइं तेहनइं रे; धनहर्ष पंडित इणि परि बोलई, एथी रूडु सहुनइं रे. ५ पु० Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह (२) (हवेथी जोडणी वर्तमान रूपमा मूकवामां आवी छे.) बेउ नपुंसक एकठा रे, करिया एक ज ठामि; माहोमांहे मेळव्या, ते त्रीजें नर नामि रे; पंडित सांभलो. अरथ कहे मुझ एह रे, पंडित सांभलो. आंचली ते त्रणे नारी-स्युं मिल्या, पुत्री हुइ ताम; डगलुं एक न चातरें, जो होये शत काम रे. २. पं० चोखा मुक्ताफल तणो, जेणे पहेर्यो हार; माणिक ठविउं हारमां, जे छे गुणनो भंडार रे. ३ पं० रंग धरे सहु तेह-स्युं, ते पण रंग धरंति; बे रंगीलां जो मिले, तो पूगें मन खंति रे. ४ पं० ते सहु मुख आगल रहे, न होय केहने दुःख; हींदु सहुने वल्लही, जे दीठे होय सुख रे. ५ पं० गुण मोटा छे जेहमां, करे तो मंगलमाल; धनहर्ष पंडित एहनो, जाणे अरथ विशाल रे. ६ पं० (३) राग आसावरी कान छे पण सुणे न कांइ, दांत नहीं पण चावे रे; तेहने आभडछेट न होवे, सहुनुं पीरस्युं खावे रे. १ का. पूरव पश्चिम दक्षिण उत्तर, काम होय तो हीडे रे; हीडतां जे हडिएं आवे, तेह तणुं फल फेडे रे. २ का. तेहना पेट थकी जे जायो, ते नान्हडिओ वारू रे; परउपगारी तेह भणिजे, प्राण तणो आधारू रे. ३ का. अर्द्ध तेह- भूमिं दीसें, अर्द्ध ते गिरिने शृंगे रे; कान मांहिं जो कामिनि पेसे, तो तो आवे रंगे रे. ४ का. में जोया पण पाय न दीसे, कर दीसे वलि तेहने रे; पांव तणुं ते कडं करेवे, तो होय ऊंधी गति तेहने रे. ५ का. मास बेचार विमासी जो-जो, ते शुं नर के नारी रे; धनहर्ष पंडित इणि परि पूछे, कहेज्यो अरथ विचारी रे. ६ का० Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केटलीक हरियालीओ (४) १ डुं० डुंगरडे रलियामणे, एक नारी चाले; साथे एक पुरूष भलो, वलि पाछी वाले. एकलडी बहु-स्युं भडे, पण तोहे न हारे; जे नर ए-स्युं बल करे, तस मूलथी वारे. २ डुं० वदन चरण तेहने नहीं, नवि कांइ खावे; दांते छोरू प्रसवती, तस तृप्ति न आवे. ३ डुं० ते नारी घरि घरि अछे, पण साधु न राखे; धनहर्ष पंडित इम कहे, जिनवर ईम भाखे. ४ डुं० (५) सात नारी शिर उपरे, एक नर उपाडे; आप गुणे करी लोकने, घणो हरख पमाडे. जेनर बहु छोरू जणे, बे नर संयोगे; ते छोरू सघलां भलां, आवे सहुने भोगे. सात कान तेहने छे, चांपतां रोवे; सभा माहिं नागो रहे, तेहने सहु जोवे. एक उदर छे तेह ने, मल मूत्र न राखे; अरधो केडे कंदोरडो, पंडित इम भाखे. धनहर्ष पंडित ईम भणे, जो तुम्ह समर्थ; गरथ न कांइ मागिये, कहो एहनो अर्थ. (६) एक नगर उंचुं अछे, पोलि नीची जोए; एक वर्ण तेहमां अछे, नवि बीजो कोए. १ एक० साहमा पांच जणा गया, तस आवत जाणी; तेणे आदर बहुलो करी, घरि आण्यो ताणी. २ एक० पाछो जइ ते नवि शके, तिणि नगर प्रधाने; बीजो तिहां आवी रहे, तेहने अभिधाने. ३ एक० आव्यो तेणे प्राहुणे, बहु वाध्यो नेह; सर्व कुटुंब खुशी थयुं, भले आव्यो एह. ४ एक० धनहर्ष पंडित इम भणे, ते कवण कहीजे; जस सेवा महिमा थकी, बहु बुद्धि लहीजे. ५ एक० (७) धवल शेठ निज नगरथी जस मंदिर आवे; ते तेहने रहेवा भणी, घर एक करावे. १ धवल ० चतुर ते चार दिशे थकी, आवे घर मांहि; श्रवणे घूघर घमकता, सांभलतां प्राहिं. २ धवल ० तेहने अहीं आव्या पछी, बहु संतति होवे; ते तिहां हतो एकलो, पण कुण जइ जोवे. ३ धवल० ५८७ १ सा० २ सा० ३ सा० ४ सा० ५ सा० Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह निज वर्णे दूरे कर्यो, तस चोथो परिओ; कहो पंडित ते श्या भणी, जे बलनो दरियो. ४ धवल. चोथे परिएं तेहने, घणुं वाध्यं मूल; जे सेवंतां सर्वने, बल होय असूल. ५ धवल. धनहर्ष पंडित ईम भणे, कहो तेहर्नु नाम; प्राहिं सर्व मनुष्यने, जे साथे काम. ६ धवल. (५) राग आसावरी बोलावी एक बोल न बोले, कोईक कामिनी काली रे; मोटी थई पण लाज न आणे, नवि ते पहेरे फाली रे. १ अग्नि न चोले, नीर न बोले, नवि ते वाये हाले रे; कडं करे ते निज मातानुं, मातने पासें चाले रे. २ बो० अन्न न खावे नीर न पीवे, भूत न ग्रहवे तास रे; पंडित अरथ विचारी जुओ, तुम्ह पासे तस वास रे. ३ बो. नवि ते राती नवि ते माती, नवि कहे ते मांडी रे; साधु तणे पण पासे रहेवे, न सके को तस छांडी रे. ४ बो. ए तो कुण थकी नवि बीए, विषम ठामे पण पेसे रे; ते छोकरडी माने खोळे, बेसारी नवि बेसे रे. ५ बो. हाथ पग माथु तस दीसे, चांपी दु:ख न पावे रे; मा बेटीने नेह नहीं पण, माने पासे थावे रे. ६ बो० काम न जागे, शस्त्र न वागे, भार न लागे कोय रे; सुधनहर्ष कहे अरथ कहेजो, एह तणो जे होय रे. ७ बो. राग आसावरी मंगलकारी अंत्याक्षर विण सहुये जग जस कहवे रे; निशाले आवि प्रथमाक्षर, हर्ष धरी धरी ग्रहवे रे. १ मध्याक्षर विण ते उत्तमने, होय न कहींए प्यारी रे; अक्षर त्रण करी ते पूरण, राजकुले घणी सारी रे. २ मं० Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केटलीक हरियालीओ ५८९ पहेला अक्षरने छे कानो, बीजो केवल जाणो रे; त्रीजे अक्षरे जिम निरखी, वहेलो अर्थ पिछाणो रे. ३ मं. आवे एक न कांइ कामे, बे तो कामे आवे रे; धनहर्ष पंडित इण परि पूछे, ते श्युं नाम कहावे रे. ४ मं. (१०) डाळे दीठी सूडली, तस पांख न आवे; चुण करवाने कारणे, तोहे न पण जावे. १ डाळे. देह वर्ण नीलो नहीं, तस चांच ज नीली; चांचे इंडां मुंकती, सागरमां झीली. २ डाळे. ते इंडां चाप्यां घणां, तोहे (ये) नवि फुटे; इंडानी भगति करे घणी, तस पातक खूटे. ३ डाळे. धनहर्षपंडित इम भणे, कहो ते कुण सूडी; अरथ विचारी जे कहे, तेहनी मति रूडी. ४ डाळे. (११) कामिनी कोइ कोपे चडी, निज नाथने मारे; मारतां देखे घणा पण कोई न वारे. १ का. नाठो नाथ जाणी करी, पूठे ऊजाणी; माथे मारी आणिओ, घरमाहिं ताणी. २ का. परपुरूष हाथे ग्रही, तव माने सुख; उंधमुखी धणी आगळे, हिये नाथने दु:ख. ३ का. धनहर्ष पंडित इम कहे, सुणजो गुणवंत; नाम कहो ते नारीनु, जो हों बुद्धिवंत. ४ का. - इति हरिआली ११ संवत् १७१५ वर्षे आसो शुदि १३ दिने लिखितं सा. रतन पठनार्थं. श्री शांतिनाथाय नमः. (एक चोपडी, ना. भं., यति नानचंदजीना शिष्य मोहनलाल पासेथी) [जैनयुग, ज्येष्ठ १९८२, पृ.४६१-६२] २. धर्मसमुद्रकृत (सं.१६मुं शतक) [कविपरिचय माटे जुओ 'शकुंतला रास'नी नोंध. आ कृति 'जैन गूर्जर कविओ' मां नोंधायेली नथी. - संपा.] चंपकवन्नी चतुरपणइ, इक दीठी रूपि रसाली, देसविदेसप्रसिद्धी बाली, मूढ मूरिख सा टालीजी. बाल-कूआरी नारी, सोहई काजल सारी, तिसरी सिरि वरि दोरि अनोपम दीसई सा सिणगारीजी. बाल० द्रूपद त्रिणि चरण दूणी तस नासा, पणि भींतरि अति मईली, तोई विचक्षण सेवइं वहिली, राजवरगि वली पहिलीजी. बाल० २ Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह अचरिज एक अनोपम मोटउं, कहतां मनि न समाइं, स्त्री स्त्री-स्युं भोग करंतां, जोओ जामारउ जाईजी. बाल० ३ सघली वरण जाति उतपतिनुं, थानक तेह ज लहीई, तेहनुं भोलउ किणइं न सहीई, वली कुंडलणी कहीईजी. बाल० ४ वाचक धरमसमुद्र पयंपई, हरखित एह हीयाली, दाहिण पासि रमई रलीयाली, भली यंगी लटकालीजी. बाल. ५ [जैनयुग, कारतक-मागशर १९८३, पृ.११७] Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९१ भावप्रभसूरिकृत अध्यात्महरियाली - स्वोपज्ञ बालावबोध सह (आना कर्ता भावप्रभसूरि विक्रम अढारमा सैकामां थया छे. तेओ मुख्यत्वे करी पाटणमां ढंढेरवाडाना अपासरामा रहेता हता. तेमणे यशोविजयकृत 'प्रतिमाशतक' पर संस्कृत टीका सं.१७९३मां रची छे. तेमनी गुजराती कृतिओ सं.१७९७मां 'सुभद्रा सती रास', सं.१७९९मां 'बुद्धिल विमला सती रास', सं.१८००मां ‘अंबड रास’ अने बीजी नानी स्तुति आदिरूप कृतिओ छे. विशेष माटे जुओ मारो निबंध नामे 'आध्यात्मरसिक पंडित देवचंद्रजी' के जे 'श्रीमद् देवचंद्रजी जीवनचरित्र' ए नामना पुस्तकमां प्रस्तावना रूपे अध्यात्म ज्ञानप्रसारक मंडळ तरफथी बहार पडेल छे तेमां पृ.४ अने तेनी टिप्पणी तथा हवे पछी प्रकट थनार जैन गूर्जर कविओ, बीजो भाग. आ कृतिनो टबो जे स्वरूपमा मळ्यो छे ते स्वरूपमा विरामादि चिह्नो मूकीने अत्र में उतारी मूक्यो छे. आ कृतिने कोई अध्यात्म-कथलो, कोई अध्यात्म थुइ - स्तुति अने कोई अध्यात्मकथलास्तुति पण कहे छे.) [भावप्रभसूरि पूर्णिमागच्छना महिमाप्रभसूरिना शिष्य हता. जुओ जैन गूर्जर कविओ भा.५ पृ.१६५-७९ तथा गुजराती साहित्यकोश खं.१ पृ.२८२-८३. कृति (मूळ मात्र) 'चैत्यवंदन स्तुति स्तवनादि संग्रह' भा.१ तथा भा.३मां छपायेल छे. - संपा.] उठि सवेर सामायिक कीy, पण बार| नवी दिबूंजी, कालो कुतरो घर मांहिं पेठो, घी सघलुं तइणें पीपुँजी. उठो वहूयर आलस मुको, ए घर आप संभालोजी, निज पतिनें कहेवीरजिन पूजी, समकीतने उजुआलोजी. १ बालावबोध श्री ऐही. श्री महिमाप्रभसूरी सद्गुरू चरणांबूज नमीनइं श्री श्रुतदेवताने मनमांहें ध्याईने अध्यात्मोप(यो)गीनी स्तुतिनो अर्थ करूं छु. ____संसारी जीव बे प्रकारना छे - एक भवबाल्यकाल, बीजो धर्मयौवनकाल. ते मांहि धर्मयौवनकाल प्राणिने अर्द्धपुद्गल कालनी स्थिति उत्कृष्ठी छइं तेणें सदागम गुरूनी देशना पामी तिवारे शुभ विचारणा जागी. ते शुभविचारणारूप सासु, में सुमति नामा (रूप) वहुने शिखामण घे छई. (ए संबंध इति) हे वहुअर, सवेर - प्रभातें अथवा स्ववेलाई – अवसरे उठीने सामायिकव्रत लीधुं पिण संवररूप कमाड देइने आश्रवद्वार रूप बार[ दीधुं नही एटले रूंध्यं नहीं, तिवारे मिथ्वात्वरूप कालो कुतरो मनरूप घरमां पेठो छे. Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह कुंण जाणे ते किवारे पेठो - अनादि कालवें मिथ्यात्व जीवने लोलीभूत छे. एटला माटे ते श्वानें ज्ञानदर्शनरूप चारित्ररूप घृत सघळु पिधुं ते सेभावई रूध्यं (पा. तिरोभावें राख्यं). जीवने ज्ञानादिक उदये (पा.त्रिण) छे तेह ज तेज-बल छे तेणें घृत उपमान युक्त छई. (इति तत्त्व.) हे वहु ! हे कुमरी ! तुमे उठो शक्ति सारू आत्मवीर्य फोरवो. अनुपयोगरूप आलस मुको, ए मनमंदिर आपणुं छे अने ते धर्मसंस्काररूप संभालना(वा) विना घर दिपें नहीं अने वली समकित विना सामायिकादिक सर्व व्रत-आखडी फोक छे, द्रव्यक्रियान कांई फल नथी. उलटुं मंडुक चुर्ण परे दुखदाई छई. एतला माटे हे वहु ! तुमे आत्मारूप निज पति कहेतां धणीने कहो के श्री वीर (परमात्मा) जिननी पूजा करी ए समकीतने उजुआलो. वि# विशेष अष्टकर्मनइं ईरयति - विनाशयति ते सार्थक नाम 'वीर' कहीयें तेहनें वंदननमनादिक द्रव्यभावभेदे पूजा करवें समकित शुद्ध थायें. (इत्यार्थः). अढार दोष रहित (श्री अरिहंत) ते देव, अर्हत्प्रणित धर्म (वली) जैन साधु – एहनी सद्वहणा समकीतलक्षण छे. इत्यर्थः. प्रथम स्तुति अर्थ:. १ बलें बिलाडें झडप झंपावि, उत्रेवड सवि फोडिजी, चंचल छइयां वार्यां न रहे, त्राक भांगी, माल त्रोडीजी. ते विण अरहंटीओ नवि चालें, मौन भलुं कोन (कुंनइं)कहीयेजी, ऋषभादिक चउविस तीर्थंकर, जपिइं तो सुख लहीइजी. २ लोकवार्ताई महादेवे कामने बाल्यो ते कारणे दग्ध कंदर्प(रूप) बलें बिलाडे फालरूप - झडप-आक्षेपणारूप झंपावी नांखि शीलनी नववाडरूप उत्रेवड सर्व भांगी नांखी छे, अथवा ए कामें हरीहरादिक उत्रेवड सर्व भांगी छे, अथवा संसाररूप बलें बीलाडे विभावरूप (झडप घाली) झंपावी धर्मकरणीरूप उत्रेड भांगी छे. आलिप्त प्रलीप्त (संसारः) इत्यादि वचनात्. पंच इंद्रियरूप चंचल, अथवा चंचल चित्तं - अंतकरणं सुतानि - पुत्राणी पंचेंद्रियाणि एवं इंद्रिय नोइंद्रिय डिंभरूपाणी - ते वार्यां रहेतां नथी, कदाचित हठयोगे वराय, पिण तेहनी तृष्णा टलती (टली) नथी. ते चंचल छोरूयें (छोकरें) सुद्धोपजोगरूप त्राक भांग्यो, ने वलि क्रीयारूप माल त्रोडी, उपयोग विना ज्ञान ज्ञानपणे क्रिया, क्रियापणे परिणति थाति नथीं - अनुपयुक्तं द्रव्यं. ते ज्ञानक्रिया विना धर्मरूप रहेंटीयो (अरटीओ) चालतो नथी पण (पणि) किम करीयें. इंद्रिय नौद्रियनें वस्य पड्या 'असमर्थो भवेत् साधुः' इति न्यायात्. मौन (मौनपणुं) भलुं - अणबोल्या रहिये ते भलुं. केने (केहने) कहीयें ? परनु उपादान आत्माने लागे नहीं, आत्मानुं उपादान जे, ते आत्माने लागें Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्रभसूरिकृत अध्यात्महरियाली स्वोपज्ञ बालावबोध सह ५९३ अथवा मौन कहेतां मुनीपणुं ते भलुं छे. ते दिन किवारेक आवसे जे सर्व वीरतीपं भजीसुं. ईत्यर्थम्. वलि ऋषभादिक चउवीस तीर्थंकरने जपतां सुखसंपदा पामीर्इं, उपलक्षणाथी बीजा जिन पण जपिये, एक महाविदेहे बत्रिस विजय एहवें पांच महाविदेहे एकसो साठ विजयें उत्कृष्टें कालें १६० तीर्थंकर : पंच भरत ५, पांच ऐरवत पू, ए दश समयक्षेत्र कहीयें. तेहना दश तीर्थंकर एतले ५ भरत ५ ऐरवत पांच महाविदेहं ए पनर कर्मभूमि कही. सरवाले १७० जिन जपीयें थापनादीकपणे नमीइं सिद्ध. इत्यर्थ:. (ए बीजी स्तुतिनो अर्थ:.) ०२ घर वासिदुं करोने वहुयर, टालोनें ओजीसालुजी, चोरटो एक करे छे हेरा, ओरडे धोने तालुंजी. - लक्या प्राहुणा च्या आवे छे, ते उभा नवि राखोजी, शिवपद सुख अनंता लहीये, जउ जिन वाणि चाखोजी. ३ - इति श्री अध्यात्मोपयोगीनि स्तुति परिपूर्णाजाताः -ल० मुं० देविंद्र, ३ यं (जं) बुसुराद्रि स्थितौ. हे सुमती ! हे कुमरी ! तुमे मनमंदिर माहें अतिचार - आलोचनादिरूप वासिदुं करो. आहट (आ) दुष्ट रौद्र ध्यांन, कृष्ण नील कापोत लेश्यारूप ओजीसालुं मनमंदिरथी टालो. इहां यद्यपि व्रतने विषें अतिचार - आलोयण छें तथापि मनमंदिर व्रतमंदिर अभेदपणें ईहा जाणियें जे कारणे द्रव्य - आलोयण न थायें. इति रहस्यं. हे सुमति वहु ! मोहादिक विभावरूप एक चोरटो हेरा करे छे ताकी रहे छे, जाणे छई, अवसर पामुं तो धर्मरूप धन चोरी जाउं ए कारणें तुमें स्वभावरूप ओरडे शुभ ध्यानरूप तालुं द्यो. अथवा प्रभाते उठी शरीरात्मारूप ओरडे नमस्कारादिक प्रत्याख्यानरूप तालुं साचवो (द्यो, जे कारणें) अविरतिनां फल माठां छे, अने विरतिनां फल ते सुरसुख, तेथी शिवसुख छे. हे सुमति वहु ! च्यार कषायरूप च्यार प्राहुणा लबक्या आवे छें. अनादि कालना हाल्या आवे छे पण धणि-धणीयाणीने अंधेरे क्षमादिक रसवति सर्व खाइ गया, चारीत्र - धर्मराजाना प्राणने घुमावे छे. तेहनें यथार्थ नांम 'प्राहुणा' कहीये. हवें हे सुमति बहु ! तुक्षांत्यादिक आत्मशक्तिरूप करडी निजर देखाडो, जिम ते उभा न रहे. हे सुमति ! त्वया किं बहुना, स्तोकस्यमिति बहवइ ज्ञातव्यं. हे सुमति ! रागद्वेष जीत्या छे जेणें एहवा जे जिन तीर्थंकर तेहनी वांणि आगमपाठरस कर्णपुटें चाख्यो पियो, कर्णपुटे सांभल्यो घणे आदरें करी, तो शिवपद मुक्तिनां — Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह सुख अनंतां लहीइं - पामीइं, जे सुखनी संसारमें कोई उपमा नथी, जे सुखनी आदि छे पिण अंत नथी एहवां सुख छे. इत्यर्थं द्वितीया स्तुतीरस्तु. ३ घरनें खुणे कोल खणे छे, वहु, तुमे मनमा लावोजी, पोढे पलिंगें प्रीतम पोढ्या, प्रेम धरीने जगावोजी, भावप्रभसूरी कहें ए कथलो, आध्यातम उपयोगीजी, सिद्धायिका देवी सानिध्ये, थईयें सिद्धपद भोगीजी. ४ - (१) इतिश्री अध्यात्मोपयोगिनी स्तुति परिपूर्णा जाता. ल. मुं. देविंद्र. यं(ज)बुसुराद्रि स्थितौ: - (२) इतिश्री कथला भासा अध्यात्मोपयोगिनी स्तुति लि. पं. नयविजयगणि सा दीपचंद कानजी पठनार्थे सं.१८८१ वर्षे श्री माघ मासे शुकलपक्षे द्वितीये गुरौ. - हे सुमति ! यमरूप कोल - प्रौढरूप उंदर ते कायारूपनो आयुरूप खुणो क्षण क्षणमें अविचि मरणनें खणे छे. - हीण करे छे. द्रव्यप्राणनें धारे तेहनें संसारी जीव कहीये, तेहना आयुनें घटाडे छे, ते तुमे मनमा लावो – जाणो. हे सुमति ! तुमे चतुर छो. घर- मंडाण ते कुलस्त्री छे. निज घर विणसतुं देखीने उवेखी मुंके नहीं. हे सुमति. एटला माटे तुमारो आतमारूप प्रीतम वाल्हो जे धणी, ते तो प्रमादरूप मोटइं पलंके सुई रह्यो छे, जाणतो नथी जे आयु घटे छे, तेहनें तुमें जगावो - प्रतिबूझवो, अमृत-अनुष्ठान करावो, में अनंत सुखनो भजनारो करो. चेतनानी ४ दशा छे : एक तो बहुशयन ते मिथ्यात्वीने १, बीजी शयन ते समकितदृष्टीने २, त्रीजी जागरण ते मुनिश्वरने, चोथी अतिजागरण ते केवली भगवानने तेरमें १४मे गुणठाणे छे ४. यद्यपि समकितदृष्टि जाणे , पिण शयनदशा ते अविरतिनो उदय छे तेणें करी चारीत्र लेइ शकतो नथी. इत्यर्थ. श्री पुर्णीमागछना स्वामी श्री महिमाप्रभसूरि शिष्य भटारक श्री भावप्रभसूरि कहे छे - ए लोकीक कथलो - लोकवचन लापनिका नथी, किंतु अध्यात्मोपयोग छे, ये (जे) तुं (एते) आत्माश्रित छे. श्री सिद्धायिका देवीनी सांनिध्ये निर्विघ्नपणे एह अर्थ साधसे ते सिद्धपद जे मुक्तिनां सुखनो भोक्ता थास्येंजी; अथवा बीजो अर्थ लिखें छे. भावप्रभ पुद्गल विना सहज आत्मिक ज्योति छे, ते दत्त छई जेहनें, एहवा भावप्रभ जे तीर्थंकर तेहना सूरि पंडित गणधरादिक गीतार्थ ते कहे छे जे अध्यात्मोपयोगि छे. (ते जे कथलो) ते एकः स्थल अद्वितीय: स्वभाव रूपस्थल एहवो छे. विभावमें कहीयें पयेसतो नथी. ते शुभ विचारणारूप सिद्धायिका देवी सांनिध्ये कहेतां साहाय्यैः साह्य देईनइं सिद्धपद भोगी थाये छे. इत्यर्थः. वेदा (चोथी) स्तुतिरस्तु इत्यर्थोभवति. एवा ए कथला भासायां परं आध्यात्मोपयोगिनी स्तुति: य: संपूर्णम्. चतुस्का बालावबोध: Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्रभसूरिकृत अध्यात्महरियाली - स्वोपज्ञ बालावबोध सह समाप्त:. - (१) लखितं मुनी देवींद्रविजय ग. श्री जंबुसर नगरे श्री. वासुपुज्य प्रसादात् श्रेयम्. श्री. (पत्र बे, यति नानचंदजीना शिष्य मोहनलालजी पासेना पुस्तकसंग्रहमांथी) - (२) सं.१८८१ना वर्षे: श्री पौष मासे कृष्णपक्षे अमवास्या बुद्धवासरे लि. पादरा नगर श्र पेटलादवासी शा. दीपचंद कानजी पठनार्थे. [जैनयुग, कारतक-मागशर १९८३, पृ.१४९-५२] Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९६ सुभाषित दुहा पंचोत्तरी (प्रसिद्ध साक्षर कविश्री मेघाणीए लोकसाहित्यने प्रकाशी गूर्जर साहित्यनी किंमती सेवा करी छे. तेमना शब्दोमां कहीए तो "प्रीतिना कोमल भावो, लोकगम्य सरल रूपकोमा दुहाओए संघरेला छ : अने एमां पहाडी कवितानो संस्कार महेके छे. ए कविता अभणोने पण अंतरे ऊतरी जाय छे, केमके एनां रूपको, उपमाओ वगेरे बधां जीवननी रोजिंदी दुनियामांथी ज घडेलां छे. एकंदर दुहासाहित्यनो झोक गामडिया जीवतरना मर्मोने लक्ष्यवेधी वाक्योथी आंटवानो छे.'' अहीं एक प्राचीन लेखके एकत्रित करेला सुभाषित रूपे ७५ दुहाओनो संग्रह करेलो ते मूकेल छे. आवा सुभाषित दुहाओ जैन गूर्जर साहित्यमा घणा विशाल प्रमाणमा उपलब्ध छे अने तेनो संग्रह ज्यारे प्रकाशित थशे त्यारे तेथी गूर्जर साहित्यमा एक सारी वृद्धि थशे.) [क्र.८ अने ९मां स्वल्प पाठभेदे सुभाषित बेवडायेल छे. – संपा.] श्री वीतरागाय नमः. ग्यान पदारथ पायके, जहां तहां गांठ म खोल; नहि पाटण नहि पारखू, नहि ग्राहक नहि मोल. १ नीची दृष्टि चालतां, त्रिण गुण गाढा थाय; कांटो टले, दया पले, पग पिण नवि खरडाय. २ डग डागला तणीय, आउखो आदम तणो; घट त्रेवडे घणीय, जसा नमावे जगतमें. ३ दुःख आयें मत दु:ख धरे, सुख आये मत फूल; दई दइ क्या करत है, दई दइ सुकबूल. ४ सायर बाप कुबाप तुं, किं कज्जै बप्पेण ? एको रयण न अप्पीयो, लंछण फिट्टै जेण. ५ चंदा, पुत्त कुपुत्त तूं, किं किज्जै पुत्तेण ? इक्को बिंदु न अप्पीयो, खार ज फिट्टे जेण. ६ चंद संदेसा मोकले, सायर बप्प जुहार; चढ्या कलंक न उतरे, मो लंछण तो खार. ७ कुमतीरां जल ले चल्यो, तुम पर शिखर करंत; खाराथी मीठो करूं, तिण गुण भरीयो गाजंत. ८ कुमतीरां जल ले चल्यो, तुम पर शिखर करंत; खाराथी मीठो करूं, तिण गुण भरीयो गाजंत. ९ Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९७ सुभाषित दुहा पंचोत्तरी जिहि उतुंग चढ फिर पतन, सो उत्तुंग नही कूप; जिह सुखमें फिर दु:ख वसे, सो सुख ही दुःखरूप. १० नरकी अरू नल-नीरकी, गति एक हि कर जोय; जेतौ नींचो हुय चलै, तो उंचो होय. ११ नदी नरिंदां रिषिकुलां, कांमणि नैं कमलांह; एतां अंत न लीजीयै, जो चाहै कुसलाह. १२ ज्युं वरर्षे वरषा समै, मेघ अखंडित धार; त्युं सद्गुरु वाणी खिरै, जगतजीव-हितकार. १३ जेती लहिर समंदकी, तेती मनकी मौज; कबहुंक मन हुय एकला, कबहुं दोरत फोज. १४ ज्युं ज्युं अधिक सनेह, त्युं त्युं दुःख चउग्गुणौ; ईनको ओषध एह, मूल सनेह न किज्जिय. १५ रे दारिद्द विचक्खणा, वत्ता इक्क सुणिज्ज; हम देसंतर चल्लिया, तुम घर भल्ला हुज्ज. १६ पडिवन्नौ गरूआं तणौ, पालिज्जै सुविहांण; तुम देसंतर चल्लिया, हमही आगैवाण. १७ उलट कमल सोरंभ अति, अगणित अलि लपटात; सुलट कमल सोरंभ विन, संगी कमल लजात. १८ सेउ संपतिको विडौ, सींचत ही कमलाय, जड काट्यां फल नीपजै, फल काट्यां जड जाय. १९ कांसा लूटै जे धनवंती, बोल विचारे पंडयौ; दीकरियांनौ सप्परिवारो, तेह. देवे दंड्यो. २० पत्थर उपर वरसयौ, सारी रात ज मेह; धरती तौ गदबद भई, पत्थर तेहना तेह. २१ कर कंपावै सिर धुणे, वुड्डी कहा कहेई; हक्कारतां यम भडां, नंनंकार करेई. २२ सज्जन ! तुम्ह हौ चतुर नर, ध्यान धरुं निसदीस; तुम्ह हमपैं लिख भेजियौ, उलटे अक्षर बीस. २३ हीयो होवै हाथ, कुस्संगी केता मिलै; चंद भुयंगां साथ, कालौ न हुवै, किसनीया ! २४ Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह आंबो अमृत सार, दूहवीयो दोषै नही; मोटा न गिणे मार, कैरी आपै, किसनीया ! २५ मीठै की हद जीभ है, खैवैकी हद गर्म; सुंधै की जस वासना, भूखनकी हद सर्म. २६ एक घरी आधी घरी, ताही कौ फुन आध; साधां सेती गोठडी, जीव्यांको फल लाध. २७ काल्ह करतौ आज कर, आज करतौ अब्ब; एक दिन आवैगी नींदडी, पड्या रहैगा सब्ब. २८ विद्या वनिता वेल नृप, नहि जांने कुल जाति; जाहीकै संगै रहै, ताहीसै लपटाति. २९ जलमें वसै कमोदिनी, चंदो वसै आकास; जो जाहूके मन वसै, सो ताहूके पास. ३० मीठै बोल्यै बहुत गुण, जो कोई जांणै बोल; विण दामांही बाहिरो, माणस लीजे मोलि. ३१ अहिमुख पौँ सु विष भयौ, कदली कंद कपूर; सीप पर्यो मोती भयौ, संगतिके फल सूर. ३२ ओछी संगति श्वानकी, दो, वाते दु:ख; रूठो काटै पावकुं, तूठौ चाटै मुख. ३३ संगति कीजै साधुकी, हरै ओरकी व्याधि; ओछी संगति नीचकी, आलु पहर उपाधि. ३४ संगति भई तो कया भया, हिरदा भया कठोर; नव नेजां पांणी चहै, तोउ न भीजै कोर. ३५ पात पडतौ देखक, विकसी कुंपलियांह; हम वीते तुम्ह वीतस्यै, धीरी बप्पडियांह. ३६ पात पंडतो युं कहै, 'सुण तरुवर वनराय; अबके विछुरे कब मिलें, दूर पडेंगे जाय.' ३७ तबही तरुवर यु कहै, 'सुनहु पात ! मुझ बात; ईन घर आही रीत है, इक आवत इक जात.' ३८ भजन कह्यौ तारौं भज्यौ, भज्यो न एको वार; दूर भजन जातें कह्यो, सो तें भज्यौ गमार. ३९ Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९९ सुभाषित दुहा पंचोत्तरी चरण धरत चिंता करत, नही सुहावत सोर; सुवरणकुं ढुंढत फिरै, कवि व्यभिचारी चोर. ४० एक ननो सौ दु:ख हरै, चुपको हरै हजार; अणबोल्यौ लाख ज लहै, कोउ न पांमे पार. ४१ कंत पवज्जण चल्लियो, ए मुझ मत्थय सूल; भाषासमिति न जांनहीं, जिनशासननौ मूल. ४२ तज न सकै मनको विभौ, छती तजी कडे जात; तुलछी, धन वे मानवी, छती देत छटकात. ४३ कंचन तजवी सहल है, और त्रियाको नेह; परनिंदा ने ईरषा, तजवो दुरलभ एह. ४४ राजा जोगी अगनि जल, याचक वरण जेता; सुलटा. सौ सहुकौ हुवै, ऊलटा हुवै एता. ४५ उज्जल पंख गरीब गति, निरख धरत पग ध्यान; हम जान्यौ तुम साधु हो, निपट कपटकी खांन. ४६ पढणौ गुणनौ चातुरी, ए तो वात सहिल्ल; कामदहन मन वस करन, गगनचढण मुसकिल्ल. ४७ कागा किसका धन हरै, कोईल किसकुं देय; जीहा तणे हिलोलडै, जग अप्पणो करेय. ४८ वेश्या किसकी भारज्या, मंगन किसको मीत; देय देय जब नां दियै, तबही छंडे प्रीति. ४९ दिल अंदर दरियाव, खंधी लग्यो छो फिरै; डुब्बी मार मंझाव, मंझाइ माणिक लहै. ५० विसइ पसइ सवेस, मोकें थाय धुताइयो; में जाण्यो दरवेस, ते तौ बाजनिया इभुच्छरौ. ५१ हां नेहि नियां पोय, इन वेसे आउं न विसां; तातें जेडा होय, कातीजें जे हत्थमें. ५२ मन मंजूस गुण रयण है, चुप कर दीना ताल; ग्राहक हुय तौ खोलियै, कुंची वचन रसाल. ५३ जीहा कर कच्छोटडी, जो तीनुं वस हुंत; सज्जन ! हीडो मलपता, दुज्जन कहा करंत ? ५४ Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह तुं एक भखनकौ संग करै, सो तो पनको भख्य; पत न रहै वा पुरसकी, जतन करो कोइ लख्य. ५५ भरीया ते छलकै नही, छलकै ते आधा; माणस एही पारख्या, बोल्यां ने लाधा. ५६ पणघट जातां पण घटै, पणघट वाको नाम; जो कोइ पणघट जात है, रहै न ताकी मांम. ५७ पाघ भाग सूरति प्रकृति, वाणी चाल विवेक; अक्षर लिखै न एकसा, देखो देस अनेक. ५८ छल बल कल विद्या सुगुण, उधम साहस धीर; जामें यह है आठ गुण, ताको घटत न नीर. ५९ ओट गहीजै इसकी, ओलंकी कया ओट; जिण ओटें नर उच्चर, लगै न जमकी चोट. ६० कहै किसीकै कछु नहीं, जो अपनी मन सुद्ध; प्रगट होइगौ आपही, इह पांणी इह दूध. ६१ निवहै नांही नीचकौ, बहुत काल लगि नेह: थिर हुइकै ठहिरै नही, राज उसको तेह. ६२ ए कठिन गति कर्मकी, किनही लखी न जाय; राय होत है रंक, रंक होय फिर राय. ६३ इक कंचन इक कामिनी, दो जगमें फंदा; इनसें जो न्यारा रहै, तिणका मैं बंदा. ६४ इक कंचन ईक कामिनी, दो लंबी तरवार; जातें थे प्रभु मिलनकी, बिच ही रख्ये मार. ६५ पंडितसें झगडा भला, भला न मूरख मेल; निजर देख्या घी भला, खाधा भला न तेल. ६६ पंडितकी लातां भली, भली न मूरख बात; . ऊण लाते सुख उपजै, ऊण बाते घर जात. ६७ वाते हाथी पाईयै, वातें हाथि-पाई; वाते लागां लाईयै, वातै लागै लाय. ६८ जो अप्पणा सु अप्पणा, पर अप्पणा न जांण; तुस हुंता सो उड गया, कण रहिया निरवांण. ६९ Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषित दुहा पंचोत्तरी धन तौ तन सुकियारथा, धण विण तन तृण मात; धन आदर पामें जसा, धन जग मोटी वात. ७० गज्ज तडक्क भडक्क कर, वयण कियौ मिसवन्न; बाइयो जलधर भणै, धिग लीयौ तव दिन्न ७१ दुर्जन तजै न कुटिलता, सज्जन तजै न हेत; कज्जल तजै न श्यामता, मुक्ता तजै न श्वेत. ७२ हरदी जरदी नां तजै, घट रस तजै न आंम; सीलवंत गुजकुं [गुणकुं ना] तजै, अवगुण तजै अलाम [न गुलाम ?]. ७३ जलकी सोभा कमल है, दलकी सोभा फील; धनकी सोभा धर्म हे, तनकी सोभा सील. ७४ राग न कीजै कन्हडौ, बाल न कीजै मित्त; खिण तत्ता खिण सीयला, खिण वैरी खिण मित्त. ७५ इति सुभाषित दोहा पचहत्तरी समाप्ता. ( पत्र ३५थी ३९, चोपडो, प्रत नं. २४७२ मुक्ति. वडोदरा ) ६०१ [जैनाचार्य श्री आत्मानंद जन्मशताब्दी स्मारक ग्रंथ १९३६, गुजराती विभाग, पृ. १९७-२०२] Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ एक जूनो सुभाषित संग्रह (एक जूनी प्रत ४ पानांनी मळी छे तेमा प्रथम, एक पार्नु छे नहीं तेथी प्रथमनां २२ सुभाषित मळतां नथी. कुल ८९ छे ने ते छेल्लु ८९मुं सुभाषित छे तेमां ‘माणिक भणईं' एम जणाव्युं छे तेथी माणेक नामना कविए ते सुभाषित बनावेलुं छे ए चोक्कस छे. पण ते उपरनां बधां तेणे बनावेला छे एवं कोई गणे तो ते बराबर नथी कारणके केटलांक बीजे स्थले जोवामां आवे छे - दा.त.२८मुं श्री हेमचंद्रना अपभ्रंश दोहामा छे - तेथी माणेके कदाच आनो संग्रह कर्यो होय.) .... .... ..... .... .... .... ते नवि बुडंति संसारे. २२ साजण वसई विदेसडड. जोयण लाखह छेह, वीसारतां न वीसरइ, जां नवि दाझइ देह. २३ साजण खटकइ ते घणूं, जिम चित भीतर साल, नीकालत न नीकलई, कहु सखी, कुंण हवाल. २४ चला लक्ष्मी चला प्राणा, चलं जीवितयौवनं, चलाचले हि संसारे, एको धर्मो हि निश्चल:. २५ झालर जे जिम वाजणा, काज न सीझई तेणि, अवसर जे हे बोलणा, काज न सीझइ तेणि. २६ पाणी पह[हा]ण नवि मरइ, पण झांखेरू थाइ, दुखिइं माणस नवि मरइ, पण झूरी पांजर थाई. २७ बेटे जीए कवण गुण, अवगुण कवण मूएण, जं बप्पीकी भूयडी चंपिज्जइ अवरेण. २८ घर आवीनई मंडइ वात, बाहिर जइनईं बोलइ घात, वरिलीजइ बाउल-सिउं बाथ, तिमहइं न लीजइ तेहनु साथ. २९ सुगुण सुभेद सुमाणसां, निश्चित अवगुण हुंति, कइ निर्धन कइ विरहणी, कइ संतति नवि हुंति. ३० विसहर-डंकिं नवि मरइ, जई गारडीउ फुति, नारी-डंकि डंकीया, विरला के जीवंति. ३१ किं किज्जइ तिण सज्जणे, भीडि न तज्जइ जेण, छाली कंठि पयोहरा, दूध न पाणी[पामी] तेण. ३२ मित्तपणू तिम पालीइ, जिम वृद्धहन नीर, आवटणूं आपणि सहइ, तोइ नव त्रइ खीर. ३३ Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक जूनो सुभाषित संग्रह ६०३ कोइलि सरखी सत्र[सत] नहीं, जस मति घणुं विवेक, अंबविहूणी अवरसुं, बोल न बोलइ एक. ३४ सज्जण सहजि दूबला, लोक जाणइ सीदाइ, जस हीयडइ सारणि वहइ, ते किम माता थाइ. ३५ नीठर सरिसु नेहडु, म करसि, हीया गमार, रासभनांखी गूणि जिम, कोइ न पूछइ सार. ३६ देवपूजा गुरूपास्ति: स्वाध्यायः संयमस्तपो, । दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने. ३७ आपणी ते जाणीइ, जे जे सरलं होइ, अंखि फरूकइ मनि हसइ, ए दोई लक्षण होइ. ३८ पापी परधन उलवइ, किमइ न आणइ खंच, चंचद्रोह करवा भणी, मंडिइ अधिक प्रपंच, ३९ भमरू जाणइ रस विरस, जे सेवइ वणराय, घण न जाणइ बापडु, सूकुं लाकड खाइ. ४० जे सजण तुह्म जड जडी, रेही तेह अपार, ते जडा किमइ न ऊजडइ, जो मिलइ लाख लोहार. ४१ गइ भागी, गूडा रहिया, लोयण दीधउ दाह, काने मांडिउं रूसणूं, गईं ति जोवन राय. ४२ हंसा केरइ बइसणइ, बगलां बइठां वीस, जे किरतारि वडां कीया, ते सिउं केही रीस ? ४३ करवतडी किरतार, जइ सिरि दीजत ताहरइ, तु तुं जाणत सार, वेदन विछोह्या तणी. ४४ बहू दुखह ऊलीचणूं, जइ नीसास न हुंति, हइडउं रतन तलाव जिम फुट्टवि दस दिसि जंति. ४५ पवन, सुणइ एक वातडी, हूं हव होइसि छार, तिण दिसि तूं ऊडाडये, जेणई दिसि हुइ भरतार. ४६ सासरइ तु सुख टलीयां, पीहरि टलीउ मान, पीउविरहिणी पदमिनी, जाइ जिहां तिहां रान. ४७ न करइ नयण-मेलावउ, वयण न पूछइ वात, जाणीजई साजण सही, कारण कांइ वात. ४८ YEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह सुलहो विसाण-वासो, एगछत्ता वि मेयणी सुलहा, दुलहा पुण जीवाणं, जिणंद-वर-सासणे बोही. ४९ रातु दिणयर ऊगमई, रातु दाडिम फूल, रातइ रातुं जु मिलइ, कवण करेसि मूल. ५० वीसारतां न वीसरइ, संभारंता न माइ, ते माणस किम वीसरइ, भीतरि घण जिम खाइ. ५१ मन जाणइ मन वत्तडी, कुण आगलि न कहाइ, संभारंतां बोलडा, हइडउं गहिबर थाइ. ५२ हीयडा, हुं नई तुंह जि, अवर न दूजु कोइ, आथि दुइ तु वहिंचीइ, दूख न वहिचइ कोइ. ५३ हय गइ मइ गइ, गया ति लोचन कन्न, एकइ जातइ जोवनई, गयां ति पंचरतन. ५४ आचारः कुलमाख्याति, देशमाख्याति भाषितं, संभ्रमः स्नेहमाख्याति, वपुराख्याति भोजनं. ५५ अगर तणई अणसारि, छेदीतां परिमल करई, ते साजण संसारि, जोया पण दीठां नहीं. ५६ उत्तमाः स्वगुणैः ख्याता मध्यमा: पितरैस्तथा, अधमा: मातुलैः ख्याता सुसरै(श्वसुरैः) ख्याताऽधमाधमा:. ५७ साहिब कबी न आपणा, सुणउ रे गहिली दासि, कबही पासि बोलावीइ, कबी भेजइ वनवासि. ५८ धम्मेण कुलप्पसूई, धम्मेण य दव्वरूवसंपत्ती, धम्मेण घणसमिद्धि धम्मेण विच्छडा कित्ती. ५९ कुमदु- ठाकर करंग घण, मुहि षवणा तुरंग, ए त्रिणिं तिम मूंकीइ, जिम विसभरिया भूयंग. ६० नारी नरवइ तंति रस, उर केकाण वखाण, ए पंचइ छइ पंगलां, फेरवणहार सुजाण. ६१ जेह तणइ मनि जे वसइ, तेहं तणइ मनि तेह, सायर बहु जल पूरीउ, चातुक समरइ मेह. ६२ छासि छमकु छांहठी, छंदाबोली नारि, ए च्यारई तु पामीइ, जु पोतइ पुण्य अपार. ६३ Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक जूनो सुभाषित संग्रह ६०५ अणरस सरसी आलि, म कार वीजलिउं भणई, झाबकि देसि गालि, झाटकि पाणी ऊतरि. ६४ सोहग ऊपरि मंजरी, छजइ तुंह, सहिकार, अवर ज तरूयर बापडा, तुडि करइ गमार. ६५ पाणि तणई वियोगि, कादव फाटइ जिम हीउ, तिम जु माणस हुंति, साचा नेह तु जाणीइ. ६६ गुण विण धणही लाकडी, गुण विण नारि कुनारि, गुण विण सींगिणि नवि नमइ, गुण गिरुया संसारि. ६७ धर्मः सत्यं च संतोषं त्रितयो पितरस्तव, मम पार्थे सामासीना कथयामि तवांतिके. ६८ स्वामी सुणीइ अतुलबल, बल जाणीसिइ हेव, हइडा भीतरि मई ग्रहिउ, सकलईं नींकलि देव. ६९ द्यूतं च मांसं च सुरा च वेश्या, पापर्द्धि: चोरी परदारसेवा, एतानि सप्त व्यसनानि लोके, घोरातिंघोरं नरकं नयंति. ७० याति कालो गलत्यायुः, क्षीयंते च मनोरथाः, नद्यापि [न याति] सुकृतं किंचित्, सतां संस्मरणोचितं. ७१ माणसउं ए पेट, पूठि लागू पापीठ, नवि थाहर नवि थेट, भावइ तिहां भीखा वसि. ७२ भूख भराडी तं भणइ, साचो वाइ माइ, नारि काढि बाहिरी, माणस आणां ठामि[इ]. ७४ तनु भागी न तु भाजसि, भागी साजी थाइ, एकलडी जण जण तणई, पिसी पंजर मांहि. ७५ मीठउं भोयण खलवयण, ससनेहा समित्त, ए त्रणि न वीसरई, खण खण लागा चिंति. ७६ सीयल भोयण, धूय घंण, गेहिणि विण घरवास, माणस मना सवी यइ, बोल केही आस. ७७ सूना पाटण सधि वसइ, अवहा कूप वहंति, विहिणा तइं तं न कीय, जिणि मूयां जीवंत. ७८ तरूणा वरूण तणेण, दीहा केवि गमत, डोकरडउ झाबकि मरइ, जइ चोपड न लहंत. ७९ Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह सजण गया वदेस, तालू देई कुंची ठवी, ऊघाडउ कुंण रेसि, सरखं को देखें नही. ८० कलि खोटी घूहड भणइ, गुणह न जाणइ कोय, जस कीधउ ठवयारडउ, सोय जी वइरी होय. ८१ दानह वेलां ऊजलउ, विरलु को जगि होइ, जलहर जल देवा समइ, मन मलु [निम्मलु ?] नवि होइ. ८२ जे दीजइ पंचंगुलिं, ते पणि आगलि थाइ, मरइ तसा हलाहल, मोटक बंधि न जाइ. ८३ प्रीय पूठिं जोइ नहीं, नवि मानइ मोरी शीख, जस घरि जूया न खेलीई, तस घरि पउसि भीख. ८४ गुणवंता तुं जाणीइ, जउ गुणवंत मिलंति, निगुण पासि वसंतडां, सुगुणा गुणह गलंति. ८५ जिण दीठइ मन रंजीइ, अणदीठ; अणराउ, ते भेटेवा जाइइ, जोयण लाख सवाउ. ८६ वारू सरसी वार, लागई तु लागी भली, गुण ऊपजि अपार, अवगुण एक न ऊपजि. ८७ सजण सरसी गोठडी, मझ मनि खरी सुहाइ, आलि-स्यूं बोलावीइ, माणिक आपी जाइ. ८८ उत्तम कुलि जे ऊपजी, अनईं अधमे राचंति, माणिक भणई ते बापडां, पोथां कांइं वाचंति. ८९ - इति सुभाषित. छ. [जैनयुग, असाड-श्रावण १९८४, पृ.४१३-१५] Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०७ छूटां सुभाषित (विविध हस्तप्रतोमाथी प्राप्त) उभे लाकड वेह पडे, पणि कहु कांइ, उतावला उबरा सुपरि पावे नहीं. कीया उतावल लाज, काज पणि विणसे ठावो, एक हासो वली हाण, पणि पछे पछतावो, उतावला सो बावला, घीरा लछ निश्चल थाई, सासता काज सीझे सयल, वदे पेम हरखीत हीइं. १ बारंती[वाहारंती] बाला निचु नरखे, सारवणी सेवाल, जसी मंकोडा कीडि, पीडा देखी भोय न बुहारि घणु घसी, जातो शाणो कधी न मारई, गत करे भरतार तणी, एहवी घरि घरणी जे नर पामा, ते सरजा कैलासधणी. २ सुंदर मान न कीजे, मान न रचइ मन, कं कीजइ तेणइ आभरणे, कणअस तोडे कंन. ३ कंथ कधी न छडसी, जे कर वलगी होइ, कण सक न वणासीई, पणि कणय न नखइ कोय. ४ सुंदर तेतो मान कर, जेतो कंथ सुहाय, जो लाखीणी वाणही, तो पिरेवी पाय. ५ संदर ते साचो ववो, जठ न ज पोलोय, जेणी कुखई नर उपजइ, ते वाहणी कम होई. ६ जो दुहो तो चारणा, चारण दुहा ठाम, जिउं केसर वनरखणो, तुउ केसर वनवसराय[म]. ७ पेट करावइ वेठ, पेट चाकरी करावइ, पेट करावइ धेठ, पेट सिर नीर वहावइ, पेट करावइ पाखंड, पेट गुण मान गलावइ, पेट करावइ पाप, पेट परदेश भमावई. ८ Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह अभिमान गाले घणो, पेट काज सुरा मरइ, आणंद सिध साधक जिको, पेट काज घरिघर फरइ.' ९ जिथी दीपे कामविकार, इस्या वचन बोले अविचार, भड तणी परि चेष्टा करि, लोक हसाडि व्रत अतिचरि. मुखथी बोले आलपंपाल, लोक माहि भणायइ वाचाल. १० (पत्र १, खंडित प्रत, मारी पासे) २ लेख संदेसो न मोकलउ, एता दिवस मझारि, ते दुख मुझनइ अइइ, जिम करवतनी धार. १ सजन ! कां तईं टालिउ, संदेशाविवहार, वांक कसिउ अम्हारडो, माया तजी अपार. २ तुम्ह गामि कागलू नथी, कई मसि नथी त्रीलोक, कई अम्हारो खप नथी, लेख न लखीउ एक. ३ जोउ तुम्हनि आलस थउ, अम्हनि लिखतां लेख, तो को हाथि संदेसडो, सिं न काहाविउ एक. ४ हरखइ कागल हूं लिखु, वचिं वचिं करूं सलाम, तुम्ह अम्ह वीछुडे ते दीनथी नीद हराम. ५ जउ अंगुल चीवडी, मोकलता धरी नेह, तो ते वालत चउगणी, पाड राखत एह. ६ भमरू समरइ मालती, हाथी समरइ विज्झ, मरूथली समरई करहडो, तिम समरूं तुज्झ. ७ टलवतां निसि नीगमउ, पापी दिवस न जाइ, दिन झूरतां जउ गर्भू, तु विहाणुं न विहाइ. ८ बोलंती मूखि अमी झरी, हसंतां फूल खरंति, तुं गुणवती गोरडी, किम वीसारी जंति. नयणे वीधुं हीयडलउ, वयणे सांधइ नेह, तुं गोरी किम वीसरइ, जां न मलइ एह देह. १० सजन ताहरि वियोगडई, जे मुज्झइ छई दुख, ते दुख जगदीसर लहइ, मीई न काहाइ मुखि. ११ १. आनी साथे आवो शामळदासनो छप्पो छे ते सरखावो. Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०९ छूटां सुभाषित मुज्झ ऊपरि माया नथी, जाणतुं छउं तुम्ह वात, हूं तुज्झ उपरि आवटुं, ते जाणि जगनाथ. १२ कहितां दीसइ कारिमउ, संभारूं सदीव, थोडे अक्षरे जाणिजो, तुम्ह पासइ छइ जीव. १३ मन भीतरि को बलि, बाहरि धुम न होइ, वालेसर एक तुं विना, कुण उलावइ सोइ. १४ नयणे दीसइ नवनवी, रूपवंती घणी नारि, पण तुज्झ सिउं मुज्झ नेहलउ, अजर नही सुपन्न मुज्झारि. १५ अंबरि गाजइ जेतलइ, तलीथी नाचइ मोर, जे जेहनि मनि वसइ, ते तेहनइ नही दुरि. १६ सरोवर सघलि कमल छइ, नीरमल नीर अपार, विण मान सरोवर हंसनु, न ठरइ मन लगार. १७ मोरा डुंगरडे लवइ, उपरि गाजइ मेह, दुरि गयां न वीसरइ, सजन तणा सनेह. १८ सजन, तुं जेणइ देसडइ, तिहां जाणि मुज्झ प्राण, काया सुनी रडवडि, कसी न दीसइ सान. १९ सजन, म जाणि सिनेह गउ, घणे दीहाडइ दुरि, वरस छेहडई मेह मिलई, नाचइ हरखि मयुर. २० सजन, तुज्झ विण मुज्झ नही, जे दुख छई निसिदीन, कइ मन जाणि माहरूं, कइ जाणे जगदीस. २१ एक नारी अति सामली, पाणीमा... (पत्र १, खंडित प्रत मारी पासे) दूहा जिण दीठई क्रोध उपसमई, वाधे अधिक सनेह, पूरवभवसंबंध तउ, तिण सेती होई तेह. १ जिण दीठई प्रेम उपसमे, जागई क्रोध कषाइ, वयरभाव कोय पाछलउ, तिण सेती केहिवाय. २ Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह सीतल अन्न, जनम पुत्रीनउ, करसण हणउ कुवायजी, वयर विरोध सगा-सु च्यारे, स्वादहीन कहिवायजी. १ लुंण घण कुमाणसां, ईं त्रिलो एक सभाव, जिहां जिहां मांडि वास हो, तिहां तिहां फेडे ठायो. १ ऊणखांण कुमित्रगुण, कीओ सो गत गायो, नीच न जाणे नंम्मयो, बलहट चोपडीयो. १ (पत्र १, खंडित प्रत, मारी पासे) समुद्र तु महोदधि, मोटा-सु ववहार, एक पदार(थ) बेचकर, काए न उतारे खार. ४ सकल छत्रपति बस कीए, आप नही बल बाल, मुर्ख लोक सबलने अबला कतज माल. ५ सीधुडा सर बीटली, हाथे लाल कमाण, मुरख मुरख छुडके, मारा चतुर सुजाण. ६ नर सट देर जगावती, उदीक पडतो कंथ, साग धमक कुसहा अर गज हथीका दंत. ७ सुरा चडे संग्रामकुं, देस पा वली न जोए, मरवाको भे दुर कर, करता करे सो होय. ८ खण खाडो खण वाटलो, खण खापण खण लीह, चांदा सा मन सरजीया, सहु सरखा (न) दीह. ९ आपण आदरीया, उदाउ बजीए नही, जयहर धतुरा वरूए वरवई नही. १० चिंता कीधि कवण गुण, जेणे तन कालो होय, सत आदर संतो(ष) कर, लखो न मीटइ कोय. ११ कडे कटारी असतो, योरू हथीआरी ने जाए, जेआगे कस खोवती, सो लाज सरूहे माय. १२ जेका बाइ झडपडे, उभी रहे कीरोड, जे आगे कस खोलसु, उवटी बाहू मरोड. १३ Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छूटां सुभाषित ६११ (पत्र १, खंडित प्रत, मारी पासे) [क्र.१थी ४ : जैनयुग, भाद्रपद सं.१९८५थी कारतक १९८६, पृ.५८-६०] प्रास्ताविक दूहा चंदन रूए रोसभर, माहरो सगो न कोय, ज्याकुं राखू पेटमें, सो फिरकर वेरी होय. १दव जलें तरूअर बलें, पंखी बेठे डाल, हम जले सो पंखि बिन, तुम जलो सो कयाह. २ उत्तर पान वगारें फल चुगें, बेठी तोरी डाल, हम उड जावेगे तुम जलोगे, जीवेंगे केतो काल. ३ सगुरू वेरी वल्लहा, हीयडे खटकें तीन, वीसार्यां नवि वीसरें, वसतां उमर सीन. ४ जो नर एरणकी चोरी करे, दे सुइको दान, उंचा चड कर देखतें, मुजकू नहि आवत हे विमान. ५ रे प्रांणी, सुंणि बापडा, जिम नारीनुं ध्यान, तिम कर परमेश्वर तणुं, लाभे स्वर्गविमान. ६ समतारस छे सीयलो, टालें . भवनो ताप, सुध धर्म कह्यो ते सेवज्यो, जिम टलें सवी संताप. ७ चिंता-थें चतुराइ घटे, घटें गीत गुण गाह, रूप रंग विद्या घटें, चिंता समुद्र अथाह. ८ कबीरा, जग अंधा भया, जेसी अंधी गाय, बछडा था सो मर गया, उभी चर्म चढाय. ९ कबीरा कल्ल करता सो अज करे, अज करता सो अब, जब आवेंगी नींद्रडी, तब पड रहेगा सब. १० हे मन, तूं एतो भमें, जेतो नभमें पंख, मनको राख्यो मन रहें, वरजी न रहें अंख. ११ इंण मांहें परीमल नहीं, मधुकर देखि म भूल, झूठी लालच क्या करे, ए किंशुके फूल. १२ Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ ( पत्र १) (जैनयुग, अषाढ १९८२, पृ. ४९६ ] १. अत्यारे प्रचलित दुहो आम छे: दळ फरे, वादळ फरे, फरे नदीनां पूर, शूरा बोल्या ना फरे, पश्चिम ऊगे सूर. संपा. प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह सह - देस, वसुंधरा. १५ भमरेण, गये. १६ कच्च, सच्च. १७ आयुप्रमांण, कडुओ भलो जे लींबडो, आपणडें द्राखें छाह्या मांडवा, स्युं कीजें परदेस. १३ बल पांहिं बुद्धि आगली, जे उपजें तत्काल, वानर वाघ बीगोइया, एकलडें सीयाल. १४ पदे पदे निधानानि जोजने रसकूपिका, भाग्यहीना न पावंती, बहुरत्ना हंसाने सरोवर घणा, कुसुम घणा सजननें सुमाणस घणां, देशविदेश भांगां त्रण न संधीए, मन मोती नें कांने सुण्यं न मानीए, नजरे दीठो ही भमरो रूए रणझणें, मुख मु निसास, रे कंटाली केवडी, तारो सो विश्वास. १८ मांनवी येतो मांन करें, जेतो लंकपती अलंकित भई, तनकें गयो प्राण. १९ उत्तमस्य क्षणं कोपं, मध्यमस्य प्रहरद्वयं, अधमस्य अहोरात्रं, दुर्जनस्य अहर्निशम्. २० पक्षीणां काक चांडाल, पशु चांडाल गर्दभा, मुनीनां कोप चांडाल, सर्व चांडाल निंदक. २१ भण्या गण्या बहोतेर कला, ते पण थया गमार, जे नारी- पाशें पड्या, ते नर रूल्या संसार. २२ दव वादल पीछा फरें, फिरे नदीनां पूर, उत्तम बोल्या नवि फरे, ज्युं आथमते सूर. ' २३ अंबर के बाउलां[बादलां], ओछां तणा सनेह, वहेतां वहें उतावलां, झटक देखावें छेह. २४ अकथ कहानी प्रेमकी, कही न कोई जाय, गुंगाकुं सुपनो भयो, समझ समझ पिछताय. २५ - Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छूटां सुभाषित ६१३ ६ mro हंसानइ सरोवर घणा, फूल घणा भमराइ, सगुणानइ सज्जन घणा, देस-विदेसि गयाइ. १ सहिज सलूणी सगुणाणी, हसती रमती हीइ चडी, वालिंभ लीसिउं वाटइ मिल्या, तु खुखारानी खाधि पडी. २ हूंती मोटी आस, सायर झीलेवा तणी, हंसा हुआ निरास, परी दीठी पाणी तणी. ३ दिठेण वि होइ सुहं, जइ वि न पावंति अंगसंगाइ, दूर ठिएवि चंदो, आसासइ सयल कुसुमाइ. ४ हंसं तरंतु परखीइ, पाणी नदी वहंत, सोनूं कि[क] सी परीखीइ, माणस वात करत. ५ काग करंकि हि हंस जलि, बग छल्लरि खर छारि, गुणीओ गुणीआ सिउं मिलइ, मूरख मिलइ गमार. ६ बहूआ नर दीसंति, नारी-नई बूडी मूआ, विरला केवि तरंति, तारूनई तारू हुआ. ७ जोइ लीजइ जाति, वरि वरसा सु वलंबीइ, जिम पटोले भाति, फाटई पण फीटइ नहीं. छेहे दीठे छेह, हिआ म दाखसि आपणो, करि बहुतेरो नेह, उंछां तेउ मीटसइ. ९ (नेहो कहवि न किज्जइ, अइ किज्जइ रत्नकंबल सरिक्खो, अणवरय धावमाणो, सहाव-रंगं न छंडेइ.) नामेण जाइ दिवसो, दंसण-मित्तेण पखउं जाइ, संभाषणेण मासं, वरिसं आलिंगने जाइ. १० मित्रपणउ तिम पालीइ, जिम पालिउं हरेण, जइ खंडो जइ वंकडो, तउ ससि थिउ सिरेण. ११ हंसा रच्चंति सरे, भमरा रच्चंति केतकी कुसमे, चंदणवने भुयंगा, सरिसा सरिसेहि रच्चंति. १२ Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह धर्मप्रभाव शशि सूर्य चालइ, धर्मप्रभावें फल वृक्ष आलें, धर्मप्रभावें जल मेघ मुकें, समुद्रमर्याद थिको न चूके. १ हवि वाया, मेहना दीह भराया, पवन आया, नगर गिरि मारवा मार धाया, गणि जलद गाजइ, माहरू मान भाजिं, कलि हिविं किम छाजे, कंतडा सिउ न लाजें. २ विहसति हसती हसती हियडुं हरइ, गजगति चमकंती संचरइ, मुखे मयंक मनोहर साधरें, मनह ते रमणी किम उतरइ. ३ वर्षाकाले चिणा मीठा, उष्णकाले च गूघरी, सीतकाले तिला मीठा, सदा मीठी च बाजरी. ४ कलि कूडो, कविअण भणइ, कह्युं न जाणई कोय, जस कीजइ उवयारडो, सो फिर वयरी होय. ५ (आंबो १ भेंस २ पोठी ३ पुरुष स्त्री शील मंत्र भस्मसात् कृत: . ) सुख गयां सवि सासरइ, पीहरि टलीयां मान, कांतविणी कामिनी, जिहां जाई तिहां रांन. ६ रे सीहा, म म गव्व करि, चढि आयो सुलतान, किं बल दाखवि अप्पणो, किं अवगाहो रांन. ७ वाडां वाजो जण मिल्यो, मलो ते रांणोराण, जउ मुझ दीठई डग भरि, तो जननी अप्रमाण ८ [जैनयुग, मागशर- पोष १९८६, पृ.२००] ७ परथल पीधोड जेह, पावासररे पावटे, नानकडें नाडेह, जीवन ढूके, जेजुडा १ पावासर पेसेह, रंजो के हिर्यो नही, बुग पासै बेसेह, गयो जमारे, जेठुआ. २ घट गलह लीयो जाय, पंजर पग मांडे नही, खटके कालजा मांह, कोईक भलको भीमउत ३ भंभलीया नयणांह, नीसरते वाह्या निपट, अति हीअणिया लाह, खटकण लागा कालजै. ४ जे हुआ बहु जाण, अजाणतो मेंइ नही, पाछा दीयो ज पाण, जावा न घुं, जेठुआ. ५ (एक पत्र, महाजननां चोवीस नातनां कवित साथे, मुनि जशविजय संग्रह) [जैनयुग वैशाख - जेठ १९८६, पृ. ३६८ ] Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१५ जूनां सुभाषितो (श्रावक गोडीदासकृत 'नवकार रास मांथी) (र.सं.१७५५.) [कवि अने तेमनी कृति माटे जुओ जैन गूर्जर कविओ भा.५ पृ.१५८-६१ तथा गुजराती साहित्यकोश खं.१ पृ.९३. आ कृतिनी ला.द.भारतीय संस्कृति विद्यामंदिरनी बे हस्तप्रतो - क्र.४३४५ (ले.सं.१७६६) तथा क्र.५७०७ (ले सं.१७८५)ने आधारे अहीं थोडी पाठशुद्धि करवामां आवी छे. ए नोंधपात्र छे के बन्ने प्रतो सुभाषितोनी योजनामा क्यांक-क्यांक फरक बतावे छे अने ए बन्ने प्रतोमां मळतां नथी तेवां कोईकोई सुभाषित अहीं छे. - संपा.] ए दोउ आवत एक मग्ग, पूत मूत कहें नंद; पूत सपूती नां करें तो पूत मूत थई मंद. कुलमां दीवो होय, जगदीवा दिसें घणा; तारे ते जन होय, चांद विहूणा चांदूया[चांचूआ]. नमना नमना सब कहें, नमनामें विंगनांन; कपटी माणस इउं नमें, चीता चोर कमाण. जो कोइ नमे सो आपकुं, परकुं नमे न कोय; थालि तराजू तोलीयें, नमें सों भारी होय. दाद दूनीआं बावरी, डरीए लोक बलाय; बिन देखी बिन सांभली, कहत बनाय बनाय. सरिखें सरिखा जो मिलें रे, तो कीजें गुणगोठि; मूरख-स्युं मीलीयई नही रे, वात न आवे होठ रे. जे नर रूपें रूअडा, ते नर निगुण न होय; सोना करें पांजरे, काग न घालें कोय. जाणपणुं जगदोहिलं, धन कालाहि[कालानइ] होय; जल जल [जल विण] कमल न नीपजें, खर केकाण न होय. लाखें एक लखेसरी, सहस्सें एक सुजाण; जेता बांधे पाघडी, तेता पुरुष न जाण. Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह धर्मवती बेटी भली, काह अधम्मी पूत; छालि के गलि दोय थणां, तामैं दूध न मूत. आसण केरूं गूबड़े खिण खिण खटकें धर्मकथामा वात करै, तेहळू वाहलूं जेह; तेह. तेजी न खमें ताजणो, खिति न सहइ खगधार; सुरा मरण ज आगमैं, पण न सहइ तुंकार. रूपें रूडा मोर, प्रीतें पारेवां भला; धान विणासण ढोर, पाघडियाला पालउत. वांझि न जाणे वेदना, पूत्र प्रसवतां; प्रीत न जाणे पालीयां, जूगतिं जालवतां. या तो घर हे प्रेमका खलांका[खालाका] घर नांहि; सीस सटोसटि साटवई, तव पेसें घरमांहिं. तरूवर कबहु न फल भखइं, नदी न पीवइं नीर; परमारथके कारणइ, सज्जन धर्या सरीर. विरला जाणंति गुणा, विरला पालंति निद्धणा नेहा; विरला परकज्ज-करा, परदुखिए दुखिआ विरला. धन उपगारी माणसां, परनी पीड हरंत; सांइ तेहनि राखस्, हाथे छांह करंत. कवित लज्जावंत दयावंत प्रशांत प्रतीतवंत, परदोषके ढकैया परऊपगारी हे; सोमदृष्टी गुनग्राही गरिष्ट सबको ईष्ट शिष्टपक्षी मिष्टवादि[दीरघविचारी] हे; विशेषग्य रसग्य कृतग्य धर्मग्य न दीन न अभिमानी मध्यमधारी [मध्यविवहारी] हे, सहज विनीत पापक्रियासो अतीत, एसो श्रावक पुनीत इकईस गुनधारी हे. धन योवन ठकुराइयां, सदा काल न होय, ज्युं रूंखा त्युं मानवी, छाह फिरंती जोय. Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जूनां सुभाषितो कबहुंक माणस लाख लहै, कबहुँक लाख सवाय; कबहुंक कौडि मुल लहईं, जब वाइ वाय- कुवाय. कवित आप रहें मदमस्त नीरंतर, पाप करें न ठरें कछू प्रानी, निपट्ट कंपट्टकी बात बनायकें, लोकमें आय कहें हम ग्यांनी; कहे कछु ओर करें कछू ओर पें चित्तमें जानत युंही अग्यानी, साहिब आगें तो होयगो न्याय सु दूधको दूध अरू पानीको पानी. * जे को बाड बिराणी ताणें, सो अपनी क्युं राखें, बोहें बीज धतूरा केरा, अमृतफल क्युं चाखें. * सतीआं सत न छोडीइं, सत छोडिं पत सतिकी बांधी लच्छमी, बहोत मिलेगी सेउ सतके चिणें भले, कहा असतकी जो पंचनमें पति रही, तौ मानौ पाए जाय, आय. द्राख, लाख. कवित एक अहीरनी चली पयबेचन, पानी मिलाय भइ सपराणी. लोभकें लच्छन पाप करे जीउं जानत हें एक आतमग्यानी; जाय बजारि मइ बेचि दिउं, तव दून भए मनमां हरखाणी, वानरन्याय कीउं अति उत्तम दूधको दूध अरू पानीको पानी. * जे जेहवी करणी करी ते तेहवां फल लेह, कुडे काम कमाय करि, सांइ दोस म देह. * सोनो चंदन सप्पुरिस, आपण पीड सहंत, कुल कसवलें जाणीईं, करंत. परउपगार * कागा किसका धन हरे ? कोयल किसकुं देय ? जीभ तणें टहुकडई, जग अप्पणी करेह. * ६१७ Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह बाल बोलावण बेसणुं, बीडुं बे कर जोडि, जे घरि पंच बबा नहीं, ते घर दूरि छोडी. नयन पदारथ नयन धन[रस], नयने नयन मिलंत, अणजाण्या-स्युं प्रीतडी, पहिला नयन करंत. नयनांकी गति अकल[अलख] हे, मतकों लखी न जाय, लाख लोकमें भेदकें, ससनेही. पें जाय. कडवो लागे लींबडो, मीठी लागें छांह, बंधव होय कबोलणा[अबोलणा], तोहें पोतानी बांह. सहदेसी सज्जन भला, दीठे मन विकसंत; परदेसीसुं प्रीतडी, दूर रह्यां ही झूरत. डुंगर दव बलीयांह, रूखे ही रत पालटी; वांने नवी वलियांह, सज्जन विछोयां मानवी. कटका कादवरा, ते वली फाटा निर वण; रे काळज कुला तुं, साजण वण साजो रह्यो. * पाणी पापिण हेठ, आव्यानुं अचरिज किशं; साचो ,जाणत नेह, लोही आवत लोयणे. - ल.सं.१७९३ का.शु.५ , [जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स हेरल्ड, जान्यु.-फेब्रु, १९१९, पृ.५५-५८] Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१९ प्राचीन गुजराती सुभाषितो (संस्कृत ग्रंथोमांथी) (विशालराजसूरिशि. सुधाभूषणना शिष्य जिनसूरे करेली 'प्रिमंकरनृपकथा' मां देशी दुहा वगेरे उल्लेख करी सूक्तो आपवामां आव्या छे. 'रूपचंद कथा' विशालराजसूरिशि. जिन(राज)सूरिए संस्कृतमां रचेल छे.) [जिनसूर तपगच्छना छे ने 'प्रियंकरनृपकथा' मुख्यत्वे संस्कृत गद्यमां रचायेल छे. 'रूपचंदकथा' ते वस्तुत: ‘रूपसेनकथा' छे ने आ जिनसूरनी ज संस्कृत कृति छे. जिनसूरनो समय सं.१६मी सदी आरंभनो छे. जुओ जैन गुर्जर कविओ भा.१ पृ.९३ अने भा.६ पृ.४२९ तथा जैन संस्कृत साहित्यनो इतिहास, पृ.२३४. ___'प्रियंकरनृपकथा' तथा 'रूपसेनचरित्र' प्रकाशित थयेल छे. आ सुभाषितोनी मेळवणी 'प्रियंकरनृपकथा'ना प्रकाशित पुस्तक तथा 'रूपसेनचरित्र'नी ला.द. भारतीय संस्कृति विद्यामंदिरनी हस्तप्रत साथे करी केटलीक शुद्धि करवामां आवी छे. ___ तपगच्छना रामविजयशि. देवविजयकृत ‘पांडवचरित्र' सं.१६६०मां रचायेल संस्कृत गद्यकृति छे. एमनी बीजी संस्कृत गद्यकृति 'रामचरित्र' सं.१६५२मां रचायेल छे. जुओ जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, पृ.५९१, फकरो ८६९. ऋद्धिचंद्रकृत संस्कृत 'मृगांकचरित' 'जैन साहित्यना संक्षिप्त इतिहास'मां नोंधायेल नथी. आ बन्ने कृतिओ छपायेल छे. - संपा.] १. जिनसूरकृत 'प्रियंकरनृपकथा' माथी ताई तेली तेरमो, तंबोली तलार, पंच तकारा परिहरो, पछे करो विवहार. (बीजी रीते) ताई तेली तेरमो, तरक तीड सोनार, ठग ठकुर अहि दुज्जणह, जे विससि ते गमार. पडिवन्नुं गिरुआ तणुं, निरलेहबुं [निरवहवं?] निरवाण, तुमे देशान्तर चल्लिया, अम्हें पणि आगेवान. ४० जिणि दिणें वित्त न अप्पणे, तिणि दिन मित्त न कोइ, कमलह सूरिज मित्त पुण, जल विण वयरी सोइ. ४१ नखइं नारि तुरंगमह, मुत्ताहल खग्गह, पाणी जाह न अग्गलो, गयुं गिरुअत्तण तांह. ४५ (कर्ता पोते 'आकाशवाणी आम थई' एम करी कहे छे :) Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह ए बालक चिर जीवसें, होसें धननी कोडि, सेवा करसें रायसुअ, सेवक परि कर जोडि. ५४ गौरव कीजे अलवडी, नवि को कीयां न राम, गरथ विहूणा माणसा, गाधह बूचा[चूचा] नाम. ६२ अद्धा खंडा तप कीआ, छतें [न] कीधां दान, ते किम पामे जीवडा, परभवि धन बहुमान. ६४ रे मन ! अप्पा खंच करि, चिंताजाल म पाड, फल तेतुं ज पामीईं, जेतुं लिख्यं निलाड. यत: मन तेतलं म मागि, जेतुं देख पर तणे, लिहीआं लेखइ लागि, अणलिख्यु लाभे नहीं. ६६ यत: अवसर जाळी उचिअ करी, अवसर लहीम भुल्लि, वार वार तुं जाणजे, अवसरि लहिसि न मुल्लि. ६८ यत: छेहे दीठे छेह हीआ, म दाखिस आपणुं, करि बहुतेरो नेह, ओछा ते उमटसें. ८१ यत: दीहा जंति वलंति नहु, जिम गिरि निज्झरणाई, लहुअ लगें जीव धम्म करि, सुइ निचिंतो कांइ ? १०० यत: अवरं सव्वं दुहं जणाण, कालंतरेण वीसरइ, वल्लह-विओग-दुक्खं, मरणेण विणा न वीसरइ. १०५ यत: के कपड पगि पगि लहे, के कंचननी राशि, रायमान केता लहे, के न लहे साबासि. ११८ यत: विरला जाणंति गुणा, विरला पालन्ति निद्धणे नेहं, विरला परकज्जकरा, परदुक्खे दुक्खिया विरला. १४२ यत: हाथी हालें हेक, लख कूतर लगीए लवें, वडपण तणे विवेक, कदि न खीजे, किसनीया ! १७० यत: बज्झइ वारि समुद्दह, बज्झइ पंजरि सींह, जई बद्धा कुणे कहिउं [बद्धीजइ कुणे नहीं], दुजण केरी जीह १९२ आगलि जातां कोट, जेहिं न नामी देवगुरु, माथे वहेसे मोट, भोजननो सांसो पडे. १९८ वा-वाणा जण-बुल्लणा, नाह न कीजे रोस, नीके कापड खायणुं, चांगे माणस दोस. २०० HEE FIFFEREDEEP Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिणवर-देव जी सविई, रहीई THeman प्राचीन गुजराती सुभाषितो ६२१ वार वहंतां याचतु, लेतु परधन ढोर, ए तिन्नि विमासण करे, वेसा चारण चोर. २०२ मुंहता विणु राज ज किस्युं, रखवाल विणु पोलि, पति पाखें नारी किसी, पहिरणु विण किसी मोलि. २१७ जीभे साचुं बोलिजे, राग रोस करि दूरि, उत्तम सुं संगति करि, लाभे जिम सुख भूरि. २५५ जिणवर-देव आराहिअ, नमीय सहगुरु भत्ति, सूधो धम्म ज सेविईं, रहीईं निर्मल चित्त. २५६ २. जिनसूरकृत 'रूपसेनकथा'माथी जीभईं साईं बोलीईं, राग रोस करि दूरि, उत्तम सिउं संगति करि, लाभइ जिम सुख भूरि. ७ जिहां बालक तिहां पेखणउं, जिहां गोरस तिहां भोग, मीठाबोलां ठाकुरां गामि वसइ बहु लोक. ३६ नमणी खमणी सुगुणी, बिहु पखि वंशि विशुद्ध, पुण्य विणा किम पामीईं, करि धणुही घरि भज्ज. ३९ इक आंबा नइं आकडा, बिहुँ सरिखां फल होइ, नव गुण एक करीरनईं, हाथ न वाहइ कोई. बज्झइ वारि समुद्दह, बज्झई पंजरि सींह, जे बज्झीइ कुणहइ नही, दुज्जण केरी जीह.. कर कंपइ, लोइण गलइ, बहु रन्न वल्ली भत्ति, जुव्वण गया जे दीहडा, वली न चडसि हत्थि. ७८ जिहां सहाईं बुद्धिबल, हुइ न तिहां विणास, सूर सवे सेवा करईं, रहइ आगलि जिम दास. ९८ गोरख जंपइ, सुणि-नईं बाबू, म गण आप-पराया, जीवदया एक अविचल पालु, अवर धर्म सवि माया. १०२ पुत्र मित्र हुइ अनेरा, नइ रहई नारि अनेरी, मोहइ मोह-मूढा, जंपईं ममु]हीयां मेरी.. १०३ अतिहिं गहना अति अपारा, संसार सायर खारा, बूझइ बूझइ गोरख बोलइ, सारा धर्म विचारा. १०४ Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह कवणह केरा तुरंगम हाथी, कवणह केरी नारी, नरगि जाता कोई न राखई, जोओ हीइ विचारी. १०५ धर्म्मविहून सुख विआणिइ, परघरि पाणी इंधण आण, खंडइ दलइ करइ करि लोडण, तहवि न पावइ किंचिवि भोअण. १११ दम्मा एव सुलखणा, मणवंछिअ पूरंति, अछइ पछीआ[पठीआ] पंडीआ, कचपच [ गलफल] करी मरंति. ११४ हो कहवि न किज्जइ, अह किज्जइ रयणकंबल सारिखो, अणवरइ धोवमाणो, सहाव-रंग न छंडेइ. १२६ नेह मांहि खटुक्कडु, मुझ मनि खरु सुहाईं, मिरीच मुक्का [मक्का ] बाहिरी, खांड न खाणी जाई. १२७ दव - दद्धा खड पल्लवइ, जिम वुट्ठेण घणेण, विरह - पत्तिह माणसह, तिम दिट्ठेण बहुत खरा न बोलीइ, तालू सूकइ एक ज अक्षर बोलीइ, बांध्युं छूटइ खेड म खूंटा टालि, खूंटा विण दैव तणइ कपालि, साहस केरुं सीह न जोइ चंदबल, नवि जोइ एकल्लु बहु आभडइ, जाहा साहस जे गलि गलइ उअरं, अहवा न गलइ गलित्तं नयणाईं, अह विसमा कज्जगइ, अहिण छछंदरी गहाय. १७९ मरणह केरु कवण भय, जेणि वट्टइ जग खींख हल वहइ. १७३ धन [घण] रद्धि. तां सिद्धि. १७४ जाइ, डोलाईं. १९४ लेउ, करेह. १९५ पिएण. १४९ जेणि, जेणि. १६५ नहीं, मन मइलू, न संबलू, हयडूं तेण जिहां - बिपुरह- मग्गडउ, तिहां जीव संबल जिहां चउरासी भवभमण, तिहां विलंब उपरवाडइ हाथ, झाबक दी यम तणु, नवि संबल नवि साथ, घडी मांहिं गामंतरु. १९६ सुकृत संचि करि जे मरइ, ते तिणि वारि निशंक, मरणह बी बापडा, धर्म ज मूंक्या रंक. १९७ सू आं खडहडिउ, तलइ खाधु घण, तुहइ कोइलि सर करइ, ते आगलि गुणेण २०० Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन गुजराती सुभाषितो ६२३ दिन जाइ पणि वत्तडी, रत्तडी न जाइ. एक रागी नी रोगीया, सहसि सरीरा[सहजि सरीखां] माईं. २०१ सहजि कडूउ लीबडु, गणे करीनि मिठ, ते माणस किम वीसरइ, जेह तणा गुण दीठ. २०२ ओछा तप कइ मइ कीया. कइ सर फोडी पालि, देवईं घर ऊदालीउं, पहिलइ यौवनकालि. २१८ चंदु चंदन केलिवन, कुंकू कज्जल नीर, इक्कइ कंतह बाहरां, एता दहि सरीर. २१९ सज्जन चित्ति न ऊतरइ, गया चमुक्कउ लाइ, मल नवि चुहुटईं कंचणह, जइ वरसा सउ जाइ. २१९ नेह विणठ्ठइ, गयगमणि, किसि जि तांणोताणि, भागुं मोती जो जडइ, तो मन · आवइ ठाणि. २५० माणस पाहि माछां भलां, साचा नेह सुजाण, जउ कीजइ जल-जूजूआं, तउ ततक्षण छंडई प्राण. २५२ वाइं हालई पान, तरुअर पुण हालइ नहीं, गिरुआ एह प्रमाण, एक बोलइ, बीजा सहइ. २५९ नही न भणीइ लोइ, दीजइ थोडा थोडिलूं, टीपइ टीपई जोइ, सरोवर भरीओ समुद्र जम. २७१ विरला जाणंति गुणा, विरला पालंति निद्धणा नेहा, विरला परकज्जकरा, परदुखे दुखीआ विरला. २८४ ग्रह अवला, विहि वंकडी, दुज्जण पूरउ आस, आवि दुहेला खंधि चडि, जिम सउ तिम पंचास. २९९ (क्र.१,२: जैन गुर्जर कविओ, बीजी आवृत्ति भा.१०, पृ.१८१-८५] ३. ऋद्धिचंद्रकृत 'मृगांकचरित्र'मांथी पय पानी उपर मिले, अंतर मिलो न हीर, किंउ मराल नीरह तजी, कीउ गही पीई सुखीर. ३२ वाति कीईं कवण गुण, जिहां नवि मलिउ मन्न, मन्नविहुणो प्रेमरस, जाणे अलुणो अन्न. ४८ मनु तोलो तनु ताजवी, हे सखी ! नेह केता मण होय, लागते लेखं नहीं, टूटई टांक न होय. ४९ Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह दीसई विविह चरिअं, जाणिज्जई सज्जण-दुज्जण विसेसो, अप्पाणं च कलिज्जई, हिंडिज्जई तेण पुहवीए. ६६ सुख गयां सवि सासरई, पीहर टलीउं मान, कंतविहूणी गोरडी, जिहां जाई तिहा रान. ८६ हियडा ! झूर म मुष्टिकर, झूरत नयणे हाणि, कवण सुणेस्यई रानमां, रोयुं कंठ पराण. ८७ दैवें कीधां दूरि, दोहिलं केतुं आणीई, हीयडा करि संतोस, करम लिख्युं फल पाइई. ८८ गोरी तेतो मान करि, जेतो अंग समाय, जो लाख्यणी पानही, तो पहरीज्जई पाय. २४७ घरअंगणमि मसाणं, जत्थ न दीसंति धूलिधूंसरच्छायं, अडंति पडंति रडंतडाई, दो-तिन्न डिंभाइं न दीसंति. २५५ ४. देवविजयकृत 'पांडवचरित्र'मांथी भावण भावई हरिणलो, नयणे नीर झरंत, मुनि वहरावत करि करी, जइ हुं माणस हुंत. (पृ.४९४) कर घट्टा नह पंडुरा, सज्जण दुज्जण हूअ. सूना देउल सेवीई, तुज्झ पसाई जूअ (पृ.१३५) सीअल भोअण धूअ घण, रंग विहूणुं घरवास, माणसनईं मायाविउं, ए चिहुं केरी आस. (पृ.१६) - [क्र.३,४ : जैनयुग, कारतक-मागशर १९८५, पृ.१३१] Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२५ विविधविषय सुभाषितो (वीरविजयनी कृतिओमांथी) (जूनाजूना जैन रासाओमां गुजराती सुभाषितो अनेक मळी आवे छे. ते रसिक अने उपयोगी छे तेथी तेनो संग्रह थोडो अहीं आपवामां आवे छे.) _ [वीरविजय तपगच्छना शुभविजयना शिष्य छे. एमनी रासात्मक, ऐतिहासिक अने स्तवनादिक प्रकारनी कृतिओ सं.१८५७थी १९०८ सुधीनी मळे छे, जेमांनी घणी प्रकाशित छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ, भा.६ पृ.२२२-५६ तथा गुजराती साहित्यकोश खं.१ पृ.४२१-२३. सुभाषित देशाईए प्रकाशित पुस्तकोमांथी तारवेलां जणाय छे. – संपा.] (वांझीयापणुं) पण एक सुत विण घर शोभे नहि, जो बहु सज्जन दास, सलूणा, रडतां वढतां पडतां रजभाँ, मायने खोले रे बाळ, सलूणा, हृदय मुखे कंठे वळग्या रहे, जनक जुए उजमाल, सलूणा. भोजन वेळा भेळां रसवती, जमतां रमतां ते जाय, सलूणा. ओच्छव नातजमण जन शंसतां, पुण्य पनोती रे माय. सलूणा. (प्रेम) एक दीपकथी गेहमां, सर्व प्रगट निधि होय, नेह छुपायो नहि छुपे, ज्यां दृग दीपक दोय. (खराब संगत) शेठ कहे सुण सुंदरी, तें साची कही वात, पण संगति व्यसनी तणी, गुणीजनने गुणघात. मांस-प्रसंगे दया नहि, मदिराए यशनाश, कुलक्षय वेश्या-संगते, हिंसा धर्मविनाश. मरण लहे चोरी थकी, सर्वनाश परदार, जुगटीआनी सोबते, घरधननो अपहार. नल दमयंति हारीआं, राज्यकाज सुखवास, पांडव हार्या द्रौपदी, वळी वसिया वनवास. नीच जुगटीया जातनी, संगति न घटे नार, उंच प्रसंगे पामिये सुखसंपद संसार. Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह मृगनयनी ! मन सहचरी ! संसारे रे नीचसंगति टाल के, उंच नीच संगति तणां, फल उपर रे दृष्टांत निहाल के. उंच-प्रसंगी सुख लहे. वायससंगी हंसने नृप मारी रे कहे उज्वल काक के, हंस कहे हुं हंसलो, मुज प्रगट्या रे नीचसंग विपाक के. उंच. भीलनी पल्लिने परिसरे, नृप उभो रे शीतल तरूछांय के, उंच तरू एक पांजरूं, शुक भणीयो रे रहेतो ते मांय के. उंच. उभो रणमा एकलो, भूषणयुत नृप पकडो एणी वेळा के, धाई आवा सबरो मळी, शुक बोले रे थाओ लक्ष्मी भेळा के. उंच० सांभळी नाठो नरपति, भय चित्ते रे रण मांहे तेह के, आश्रम तापसनां लही, जइ पेठो रे कुलपतिने गेह के. उंच० त्यां पण पोपट पांजरे, कहे, उठो रे तापसशिरदार ! के, आपणे पुण्ये आवियो, नृप एकलो रे कुलपतिने द्वार के. उंच० आ अवसर भक्ति करो, दियो आसन रे पंखा जलपान के, मरण करी फरी अवतरे, गयो अवसर के नावे निदान के. उंच० सांभळी सन्मुख मुनिवरा, आवी तेडी रे लाव्या बहुमान के, भक्ति करे जल-फल तणी, तापसिणी रे गावे गीतगान के. उंच० सैन्य पुंठे आवी मळ्युं, नृप पूछे रे कुलपतिने एम के, सबरकुले शुक पेखीयो, आ शुकमां रे वचनांतर केम के. उंच. तव पंजर शुक बोलियो, राय ! सुणिये रे एक वनतरू जोय के, कीर युगल माले वसे, तस. अंगज रे अमे बांधव कोय के. उंच. मातपिता-शुं बेउ जणा, अमे रमतां रे तरू सरोवरपाळ के. (वीरला) विरला परकारजकरा, विरला पाले नेह; विरला गुण कीधो ग्रहे, परदुःखे दुःखिया जेह. आ भव दुःख न पामियो, परदुःखहरण न धात; दुःख देखी दुःख नवि धरे, ते आगळ शी वात ? (विधिनी विचित्रता) रत्न कलंकित कीध, जब विधि सृष्टि कियो री, कमले कंटक कीध, चंद्र कलंक दियो री, Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधविषय सुभाषितो ६२७ सम[राम ?]संजोगे विजोग, दुर्भग रूपे धर्यो री, निर्धन पंडित विप्र, जलनिधि खार को री, धनपति कृपण स्वभाव, लक्ष्मी म्लेच्छ धरे री, धर्मीसुत धनहीन, नारी नीच वरे री. (व्यसनी) मातापिता कुललाज, नहि मरजाद कशी री, व्यसने वंठ्यो जेह, ते कुलकुच-मशी री. (अविनीत पुत्रथी मातपिताने दु:ख) । धनपति सुतने काज, देवने मानी लिये री, अविनीत प्रगटे पुत्र, सुखवन दाह दिये री. सुत जननी हुलराय, म्होटा जाम हुवे री, शत्रुथी अधिका थाय, तातनुं नाम खुवे री. मधुर अशन तजे माय, सुत ना रोग भये री, कुवचन जीवित-शूल, थाये मोटा थये री. मूढ प्राणी गमार, कूडां कपट करी री, वंची लोक अनेक, तस धन लेत हरी री. खाय पिये नाहि पेट, देश विदेश फरे री, दान धरम करी दूर, मंदिर माल करे री. भोगवे धन घरपुत्र, मा मलमूत्र धुवे री, वहु परणी मुख जोइ, छेडो वाली रूवे री. परिजन सेवे पाय, जब लगे सुत न घरे री, जनमे नंदन जाम, सज्जन जाय धरे री. नरथी सुखी पशुजात, सुखभर वनमां रमे री, नहि सुत चिंता कांइ, बालकवय निगमे री. चाकरी दास करत, वाहने सुत विचरे री, वृद्ध होवे माबाप, चिंते किम न मरे री ? अशनमात्र गुणजाण, चांपो पण न चरे री, गंडल मंडल जात, रयणी चोकी भरे री. बालक व्यालक तुल्य, प्रगट्यो पुत्र तिश्यो री, मातपिता दुःखदाय, कोणिकराय जिस्यो री. Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह राज्यविघन पुरघात, एक दिन जीव हरे री, मणिए विभूषित नाग, कुण जन राखे घरे री ? (पुत्र विनानुं घर) चोसठ दीवा जो बले, बारे रवि उगंत, अंधारूं छे तस घरे, जस घर पुत्र न हुंत. पण ए जूठी वारता, जस घर वंठिल पुत्र, मातपिता घरमां रूए, वंठ्युं तस घरसूत्र. (पाणी ऊतर्यु एटले थ\) प्राणी पाणी आपणुं, राखी शके तो राख, रतिभर पाणी उतर्यु, न चढे खरचे लाख. नृप अपमाने, लोकमां, न करे कोइ सलाम, रांकने रहेवा झुपडां, पण नहि एहने ठाम. (समानशील व्यसनेषु सख्यम्) सरिखे सरिखी हो के जगमा जोडी भळे, मूरखे मूरख हो के चतुरे चतुर मळे. गर्दभ yके हो के मंडल ताम रूए, खर मुख चाटे हो के वटल्यो कुण जुए ? (मातपिता गुरू) क्रम नख कांति पितृ तणी, जाणी तीर्थ समाणी रे, उत्तम नर पूजन करे, पंडित शास्त्रे वाणी रे. कटुक गिरा गुरू मातनी, आगल हितकर जाणे रे, कफहंता भेषज परे, निरूजा वैद्य वखाणे रे. गुरू ताडतां हित करे, उन्मारगथी वारे रे, मणिकारक घसतां मणि, रत्ननुं तेज वधारे रे. पितर निभ्रंछे दोषने, पण नवि पुत्रने ताडे रे, जेम नवि ताडे पात्रने, मंत्रिक भूत पछाडे रे. जगत गुणे गौरव लहे, शुं करे पर पोताने रे, निज अंगज मल परिहरे, वनज कुसुम शिर माने रे. मातपिता-गुरूकुल वशे, होय जगत बहुमाने रे, कंचनगिरि वलगां रह्यां, तृणतरू कनक समानो रे. Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधविषय सुभाषितो (तृष्णा) लाभे लोभ वधे घणो, इंधणथी जेम आग्य; तृष्णादाह समाववा, जल सम ज्ञान वैराग्य. (दुःख देनारा पांच वव्वा) व्याधि व्यसन विवाद ने रे, वैश्वानर ने वैर रे, चतुर नर, पांच वव्वा वध्या दुःख दीए, दालिद्र नाम मनुष्यने रे, आयु विना मृती झेर रे, चतुर नर, रोग विना रोगीपणुं. (रात ने वहाली ?) कौशिक चोर ने भूतडां रे, नर परदाराध्यान रे, चतुर नर, रात्रि वल्लभ चारने हो. (विश्वास न करवा लायक कोण ?) चिंते कुंवर नवि विससो रे, ठग ठक्कर सोनार रे, चतुर नर, सर्प रिपु ने वाणिया. हथियारबंध ने वांदरां रे, परदारा मंजार रे, चतुर नर. ६२९ [ जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स हेरल्ड, नवेम्बर १९१३, पृ.५४४-४६ तथा डिसेम्बर १९१३, पृ. ५६५ - ६७] Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३० जैन सुभाषित संग्रह [आमां केटलाक जैन विषयो पण छे. विविध ग्रंथोमांथी देशाईए एकठां करेला जणातां आ सुभाषितोनी भाषा बहुधा अर्वाचीन छे. संपा. ] (ऋषभदेवस्तुति) (सरस्वतीस्तुति) (गुरुवर्णन) - ऋषभ जिणंद पादांबुजे, मनमधुकर करी लीन; आगमगुण-सौरभ्य वर, अति आदरथी कीन. यान - पात्र सम जिनवरू, तारण भवनिधितोय; आप तर्या तारे अवर, तेहने प्रणिपति होय. भावे प्रणमुं भारती, वरदाता सुविलास; बावन अक्षरथी भर्यो, अक्षय खजानो जास. शुक्र कर्या केई शनि थकी, एहवी जेनी शक्ति; केम मुकाये तेहना, पदनी कोविद भक्ति. गुरुगुण अगणित कुण गणे ? तारक कवण गणंत ? कुण तर्जनी अंगुलि शिरे, धरणी अधर धरंत. अद्वितीय दीपक सुगुरू, करता ज्ञानप्रकाश; पण हरता अज्ञान-तम, सेवुं तस थइ दास. जिन आगम वरदा सुगुरू, तेहना प्रणमुं पाय; धर्म तणा अधिकारथी, ऋद्धि वृद्धि नित थाय. (स्त्रीनी सत्ता ) जो प्रीतम वश कीजीए, तो परण्यं परमाण; नहि तो जेम करी कुकसे, भरवुं पेट अजाण. गुणवंतीने आगळे, शुं बल दाखे नाथ ? तेम वळे जेम वाळीए, वृषभ तणी जेम नाथ. सुभगा नारि चरित्रनो, कोई न पाम्यो पार; कोटि काटि युग पच रहे, पोते सरजणहार. (केवां वचन बोलवां ) मोटा बोल न बोलिये, नाना मुखथी एम; बोलिये एवं वरे पडे, कहे अणघटतुं केम ? Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सुभाषित संग्रह कुवचन होये सौने अळखामणुं, सुवचन सौने सुहाय. कहिये ने [जो] मानो नहि, तो कहेवुं ते आलि; कचरामां नाखे कवण. मूरख कंचन - जाळी ? ( पुरुषनी स्त्री पर सत्ता छे) नारीनो नर आगळे, श्यो आसरो कहेवाय ? कोडि टंकानी मोजडी, तो पण पहेरवी पाय. कृष्णागरु घणो रूअडो, पण पावकमा घलाय, तटिनी घणी विषमी हुए, पण सागरमा समाय. विषधर हुए घणो वांकडो, बिलमां सीधी होय, एम उखाणां छे घणां, पार न पामे कोय. पियु केम जाये छेतर्यो, अमे तो अबला बाल, दीठे मारग संचरू, पीजे पाय पखाल. कंथनो गायो गायशुं, अमचो कामण एह; के वळी वाते रीझवुं, के करी नवलो नेह. के भोजन युक्ते करी, के वळी सजी शणगार; के वळी गीतगाने करी, करशुं मुदित भरथार. चालिये केम प्राणेशथी, थइ उपरांठा छेक ? कपटे रमीए तेहथी, तो दुहवीए प्रभु एक. पालव बांध्यो जेहथी, तेहथी केम हुए कूड; गरूड आगळ लघु चरकली, किहां लगी जाए उड ? (स्त्रीचरित्र) (दैवनो वांक) नारीओ कामणगारीओ, नर बापडा कुण मात्र ? नारी कंईने छेतर्या, शुं तमे नवी सुणी वात ? उमया इश नचावीओ, वळी अहल्याए सूरेश; अप्सराए ऋषि भोळव्यो, गोपिए वळी गोपेश. युवति जोरावर जो हुवे, वालम थइ रहे दास; पियुने वश नारी थइ, जन्म अलेखे तास. दीधी खोड एकेकी रतनमां, देवे थइ निःशंक; खारो पयोधि कर्यो आकरो, शशिने दीध कलंक. जो जो लखित लेख न मिटे कदा, करे जो कोडी उपाय. ६३१ Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह (श्रावकधर्म) ते तरिया भाई ते तरिया - ए देशी जीवदयागुण धर्म अमारो, दुहवं नहि अमे कोइने रे, मज्जन प्रमुखे जल वावरिये, भूतल जंतु जोइने रे. जीवदया. मंत्र नवकार जपी जे अहनिश, भावे द्रढ मन राखी रे, एहथी कंई नर संपद पाम्या, शास्त्र अछे कइ साखी रे. जीवदया. तरणतारण जिम पंचम ज्ञानी, करिये तस पदसेवा रे, कर्म सुभटने दुर करेवा शिवपदना सुख लेवा रे. जीवदया. जीत क्रोध जीत मान महा मुनि, तेहना मुखनी वाणी रे, दानादिक अधिकारे भावी, ते सुणिये हित आणी रे. जीवदया. शास्त्र जिनालय जिननी मूर्ति, संघ चतुर्विध भव्य रे, ए साते क्षेत्रे वावरिये, शक्ति यथोचित द्रव्य रे. जीवदया. व्रत पचखाण पोसह पडिकमणुं, विधिपूर्वकथी करीए रे, ए संसार असार निहाळी, विनयाभ्यास अनुसरीए रे. जीवदया. पृथिव्यादिनो जे आरंभ, थोडो भार ते लीजे रे, पुरो आरंभ निवारी न शकीये, तो पण थोडं कीजे रे. जीवदया. जेहवो जीव पोतानो तेहवो, परनो पण जाणीजे रे, द्वादशव्रतधारक कहेवाऊं, परनिंदा नवि कीजे रे. जीवदया. मिथ्यामतिने तो नवि मानू, गोगादिक नव पुजु रे, कोइ जीवने वध बंधन करतां, देखीने अमे धूनुं रे. जीवदया. भेद गहन जिन धर्म तणा जे, ज्ञान विण कुंण जाणे रे, तत्वज्ञान विण निज निज मतने, अज्ञाने मत ताणे रे. जीवदया. अंध पुरूष जिम गजने पेखे, अवयव गजने प्रमाणे रे, द्रष्टिवंत गज पूरण देखे, तिम नयभेद वखाणे रे. जीवदया. (संगत) गिरवी ग्रहिये जो बांय, तो सवि वातो रूडी थइ रहेजी, आशरे नागरवेलि, पत्र पलाशनो नृपकर जई चढेजी, नीच सरीसी गोठ, किहां लगी कीधी स्थिर रहेजी, जिम उन्मत खर नाद, उंचो उंचो केटलोक निहवेजी. Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सुभाषित संग्रह (प्रथम ग्रासे मक्षिकापात ) (योगी) आजथी मांड्यो आगळ केम निवहाय ? प्रथम ज कवले मक्षिका, ते भोजन केम खवाय ? हम किनहिके राखे न रहे. कोण पेट हमारा भरहे रे; हम पंछिन किनहिके स्नेहि, मनमें महेर नही केही. योगी भोगी केही सगाई, हमसें क्यों प्रित लगाइ; हम परदेशी प्राहुण लोगा, साधे फिरे योगिका योगा. योगी किनके न सुणे मित्ता, योगी निस्पृही अणभित्ता; अवधु योगी की आस्या कीजे, पण योगीका अंत न लीजे. योगी भला जोई रहे नित्य रमता, धरे योगी न किन-शुं ममता; मात पिता को दिया जो छेहा, तो तुझ-शुं क्या करे नेहा. नहि परवाह किसीकी हमको, फिर बहोत कहुं क्या तुमको ? (गुणवंत) जे गुणीजन गुणीने वश पडियां, ते तो नंग जेम हीरे जडीयां; रसनी रीझ ने सुगुणनी वातो, अमीय समाणी ते विख्यातो . गुणवंतने सहु आदर आपे, गुणथी कुपक घटजल थापे; गुणियलने सेवे नर अमरा, जिम गुणलीना पंकज भमरा. एक गुणे अवगुण बहु ढंके, जेम फणिपति मणि पहोतो डंके; जे गुणियलनो गुण नवि जाणे, तो तेहनुं जीवित अप्रमाणे. (अवगुण उपर गुण करनार) चाकर चूके चाकरी, पण स्वामी न चूके वाच, अवगुण उपर गुण करे, ते मणि, बीजा काच. कृष्णागर बाळ्यो थको, स्हामुं दीये सुवास, कोस जो नाखिये नीरमां, तो पण जल दीये तास. केसरने घसतां थकी, बमणो दाखे रंग, सोनाने परजाळीए, अतिही दिपावे अंग. इक्षु पिले जो यंत्रमां, तो पण रस देअंत, तेम निहेजा उपरे, कदीही न कोपे कंत. ६३३ Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह (परदेशी साथे प्रीत) परदेशीथी प्रीतडी रे, करवी तेहि ज कुड, नेह निवाही नवि शके रे, जाए विहंग परे उड. (कामने धिक्कार छे.) धिक धिक होजोजी काम-विटंबना, कामथी न रहेजी माम, कामथी कामि कामिनी आगळे, नर धुताये छे आम. (संयोगसुख) वल्लभ जे विछड्या हुवे, तस फरी मेळो होय, ते सुख जाणे केवळी, के जाणे दिल दोय. (शोक्यनो संताप) विरूई शोक्य सगाइ, जोती रहे छिद्र सदाइ; शोक्य शुळथी मूंडी, शोक्य खटके भारी उंडी. ते नरने दुख भारी, होये जस मंदिर बे नारी; दंतकलहे दिन जाए, एक एकथी वढवा धाए. भुंडां बोले ने विखोडे, सामेसामा कटका मोडे; नारी कहे दीन होइने, प्रभु ! शोक्य म देजो कोइने. नामे बहेन कहीजे, पण वेरण थइने छीजे. (पुरुष प्रत्ये स्त्री) हुँ छु पगनी मोजडी, तमे छो शिरना मोड; हुं कांटाळी बावळी, तमे छो सुरतरू-छोड. हुँ छु रात्रि जेहवी, तमे छो दीपक साफ; - जे अविनय कीधो हवे, ते करजो पियु माफ. (सारग्रहण) रयण पड्युं विटमां [वाटमां ] पण, लेइ समारवू; बालवचन पण हितनू, चित्तमां धारवू. चंडाल पासथी उत्तम, विद्या शीखवी; नारी रतन पण लेवी, दु:कुलसंभवी. लवणसुता हरि केशवे, घरलक्ष्मी करी; काली गौरी पर्वतजा रुद्रे वरी. Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सुभाषित संग्रह (रागनां फल) तप जप सुभ दुरे वमे रे, राग नदी घन पूर रे, पडिया नडिया नवि जडे रे, पूर्वे भानुदत्त सुर रे. देशत्याग अग्नि सहे रे, घण कुट्टण दु:ख दिठ्ठ रे, राग तणो गुण एह छे रे, जोयली राती मजीठ रे. (एक बाजु जोनार) एक आंखे जे देखता, एक भुज करता काज; - एक पगे नर चालतां, पामे जगमां लाज. (दुखमां विश्रामस्थान) संसार- दु:ख-दव - जालमां रे, छाया शीतल संसारमां रे, पुत्र कलत्र मुनिरा [ज] रे, दुःखमां विसामा ए खरा रे. ( प्रिय वस्तु) पिंडी अधिको दाम, दाम थकी वहाली प्रिया, तेहथी अधिको पूत्र, पुठें[पुत्रथी] अधिक धरमक्रिया. (शुं कामनुं ?) पुत्री जे जाइ, ते अंते पराइ रे, एहथी शी वडाइ घरवस्ती तणी रे ! बदामनुं नाणं रे, घेंस छाशनुं खाणुं रे, कांसा - फूट भाणुं, लही धनमद करे रे. तमरानुं गाणुं रे, छालीनुं दुझाणुं रे, परधननुं घराणुं, पहेरी सुख गणे रे; त्रिपंडीनं टाणुं रे, चणोठीनुं घराणं रे, बोरकूट अथाणुं, भोजनमां नहि रे. वादळनी छाया रे, कपटी नर माया रे, तृष्णाजल धाया, जल नवि पामता रे; परदेशीनी प्रीति, बळी भूमिए खेती रे, परोणे घर वस्ती. केती मानीए रे ? (तेने शुं ?) जे सोमल खावे रे, वछनाग जे चावे रे, न बीए फल धंतुंर चावे ते धणी रे, जे गिरि ओलंघे रे, जलनिधि लंघे रे, छिल्लरजल टेकरी कांकरी केम गणे रे ? जेणे साप खेलाया रे, वाघवृंद रमाया रे, विंछु डराया ते नर केम डरे रे ? जेहने जेह- शुं प्रेम रे, रहे ते विना केम रे ? मूढ लोक अजाण्यो वहेम मने धरे रे. (शारदास्तवन ) जय जय तुं जगदीश्वरी, जगदंबा जगमाय; जिनवरमुखकज-वासिनी, विदुषा मात कहाय. तुं त्रिपदी त्रिपुरा तथा, तुं त्रिरूपमय देवी; शक्तिस्वरूपे खेलती, नवनव रूप धरेवी. ६३५ Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३६ (धर्म) (विद्या) प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह जे त्रिभुवनमां त्रिहुं पदे, ते सवि तुम आकार; नित्य अनित्य अने वली, नित्यानित्य विचार. आदि शक्ति तुं अभिनवी, त्रिक काले स्थिर भाव; ते सरस्वती प्रणमी नमी, मुज गुरू प्रबल प्रभाव. (गृहिणी) घरणी विना घर किश्युं, घरणी विना नहि सार; घरणी विना जग जीव्युं किश्युं, घरणी विना नहि सुख संसार. ( उमर विशे) चेतन चतुरी चेतना रे, पामी आ संसार; दश द्रष्टांते दोहिलो रे, मानवनो अवतार. चतुर नर चेतो चित्त मझार, धर्म परम आधार. धर्म विना पशु प्राणिया रे, पापे पेट भरत, रौरव ते नरके पडे रे, पामे दुःख अनंत चतुर० सुगुरूवचन उपदेशथी रे, जे धरशे व्रतरंग, भवअटवी ओलंघीने रे, लहे शिववहु सुख संग. चतुर० दशे डहापण नाविउं, शोले कळा न होय; वीशे उदार न पामीउं, पछी भलपण वाधे न जोय. (पुत्र प्रत्ये वर्तन ) विद्याधेनु जास घर, सदा सलुणी होय; क्षण दुझे क्षण दुझशे, मुआं वसुके सोय. विद्यावंत जग पूजीए, विद्याधन छानुं होय; राज चोर लइ नवि शके, विद्या नवि सीदावे कोय. विद्या नगर परदेशडे, विद्या माने नरेश; विद्याथी जश वाधतो, विद्या भणो विशेष. नृपथी विद्या मोटकी, नृप निज देश पुजाय; ठाम ठाम विद्या पुजीए, माने राणा राय. पंच वरस पुत्र पालीए, दश वरसे भणांवे सोय. सोल वरस सुत जब हुओ, पुत्र मित्र सम जोय. Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सुभाषित संग्रह (कृतज्ञ ) जीवितदान दीधुं तेहने कीधो परउपकार; गुण केडे अवगुण करे, एहवा नर घणा संसार. अवगुण करे ते बापो, तेहने गुण करी दिजे शीख, एहवा नर थोडा लहुं, जे जाणे परनुं दुःख. ६३७ [ जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स हेरल्ड, डिसेम्बर १९१५, पृ.६१३-१९] Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३८ उखाणां (एक पानानी हस्तलिखित प्रत मळी छे तेमां उखाणां जेवां वाक्यो मूक्यां छे. प्रारंभमां 'पंडित श्री रत्नभूषणगणि चरणकमलेभ्यो नम:' ए प्रमाणे मूक्युं छे. ते परथी जणाय छे के आ प्रतना लेखक ते गणिना शिष्य होवा घटे. छेल्ले ‘अर्कनुं पाट' एटलुं लखी प्रत अधूरी मुकाई लागे छे. आ उखाणां जोडकणां जेवां लागे छे. अमे अंग्रेजी भणता त्यारे आवां अंग्रेजी उखाणां बोलता - जेवां के No knowledge without college (कोलेज वगर ज्ञान नहीं), No life without wife (स्त्री विहू[ जीवन नहीं) वगेरे.) कदली दलितां कांटु नहीं, हाथी- पग राटु नहीं, जेठी सरिखु झोटु नही, आटा पाखई रोटु नहीं, ा वी[?] सरिखु खोटु नहीं, राजा सरिखु मोटु नहीं. सांकडी सेरी ढालु नहीं, संन्यासी ऊचालु नही, गादह कोटि गालु नहीं, परण्या पाखइ सालु नहीं, सुंनइ क्षेत्रिं मालु नहीं, हबसी सरिखु कालु नहीं, आगिनई तु आलु नहीं. जीव पाखइ शांन नहीं, जिण्या पाखइ थांन नहीं, माथा पाखई कान नहीं, वर विहूणी जान नहीं, वाल विहुणु वान नहीं, वूठा पाखइ धांन नहीं. आंबा पाखई साख नहीं, पीपल पाखइ लाख नहीं, आगि विहूणी राख नहीं, वाव्या पाखइ द्राख नहीं, दीठा पाखइ धांख नहीं, कालां माणस भाख नहीं. भुडां माणस ठाम नहीं, कीधा पाखइ काम नहीं. गाम पाखइ सीम नहीं, टाढि पाखइ हीम नहीं. लखिमी पाखइ मान(म) नहीं, भगवंत सरिखं नाम नहीं. उंचइ टीबइ नीर नहीं, उंटना दूधनी खीर नहीं, केळव्या पाखइ हीर नहीं, सालवी पाखइ चीर नहीं. पाया पाखई घर नहीं, धोरी पाखइ धर नहीं, गुर पाखइ मंत्र नहीं, जाण्या पाखइ यंत्र नहीं. प्रीति पाखइ मित्र नहीं, वयर पाखइ शत्रु नहीं. कांत्या विहू[ सूत्र नहीं, पेट विहूणु पूत्र नहीं. नागरवेलिं बीज नहीं, वादल पाखइ वीज नहीं. Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उखाणां ६३९ माता पाखइ हेज नहीं, होदा पाखइ तेज नहीं. अंगहीणनई राज नही, वेशानइं तु लाज नहीं. भण्या पाखइ उक्ति नहीं, विवेकी पाखइ युक्ति नहीं, जिम्या पाखइ शकति नहीं, तुरक माहिं विगति नहीं, अस्त्री पाखइ भकति नहीं, जिनधर्म पाखइ मुगति नहीं. नवकुल पाखई नाग नहीं, तारा पाखइ ताग नहीं, भाणेज माटी भाग नहीं, कंठ विहूणु राग नहीं, पर्वत पाखई साग नहीं, विमलागिरि उपरि काग नहीं. भोगी पाखइ भोग नहीं, व्रती विहूणु योग नही. वडलानुं तु फुल नहीं, चिंतामणि- मूल नहीं. जवहरनुं तु तोल नहीं, चऊदइ सोनइ छोल नहीं, मढिया विहूणु ढोल नहीं, लंपट माणस बोल नहीं. गजधर पाखइ खाट नहीं, कुंभार पाखइ माट नहीं, कंसारा पाखइ त्राट नहीं, सोनी पाखई घाट नहीं, गरथ पाखई हाट नहीं, गुरू पाखई धर्मनी वाट नहीं. वडपणर्नु जायु, ढींकुआनुं पायुं, पांगलानुं धायु, टुंटानुं वायुं. मिर हालूनुं वढिउं, होलीनु पढिउं, जलकोसनुं मढिउं, उंटर्नु कढिउ. निर्धन- जंग, वयरीन रंग, पावइनु संग, गादहिइ लीडांगें भंग. मातानी वाडि, जवासानी वाडि, सइनी धाडि. सिराडी- दातण, राब- सीरामण, उटनुं जामण, हाथीनु दामण. वहीनुं पडीगj, सूपडानुं उठींगj, आकडानुं ऊटीपणुं, पावइनुं माटीपणुं. खजूआतुं तेज, मंत्रेइनुं हेज, खडसलानी सेज, टींबानुं भेज. कारटान लाग, जमाइनुं भाग, रन्नादेनु जाग, सुकठ माहि साग, आंधलानी आस, गादहिडानी लास, वयराला माहिं वास, वेशानु दास. आभा तणी छांह, कुपरिस तणी बांह. आकतणुं तूर, नदी तणुं पूर. राबर्नु ध्रु, भुंडनु भु, बालकनुं हुं, कालानु कहु. दासीनु सनेह, पावइनुं वेह, कोढीनुं देह, पाणीनु अवलेह. खमणानुं देखj, बालकनुं पेखj, मूरखनुं लखj, टीटार्नु भखj. नीसाणीनुं नाणुं, धाणीनुं खाणुं, भागु भाj, गहिलीनुं गाणुं. वलहटीआनुं हाट, बोबडु भाट, वगडानी वाट, अर्कनु पाट. [जैनयुग, कारतक-मागशर १९८३, पृ.८७-८८] Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४० विक्रम पंदरमा सैकाना केटलाक जैन कविओनी काव्यप्रसादी (नरसिंहयुग पहेलांना) (आ लेखमां अत्यार सुधी गुजराती काव्यसाहित्यमा आदिकवि मनाता नरसिंह महेताना पुरोगामी जैन कविओ पैकी केटलाकनां काव्यना नमूना मूक्या छे, बधा कविओनी कृतिओ लेख लखती वखत हस्तगत होय नहीं ते समजाय तेम छे. कारणके कोई कृति मुद्रित थई नथी. आ लेख लखवानो प्रसंग केम आव्यो ते जणावीए छीए : मध्यकालीन गुजराती साहित्य माटे जुदीजुदी भूमिकाओ लखवाना गुजरात संसदना प्रयत्नमां जैन साहित्य संबंधी भूमिका लखवानुं अमोने सोंपवामां आवेखं हतुं. तेमां जे-जे विषयनां प्रकरणो मूकवा पोते योग्य धार्यु ते-ते विषयोनी यादी संसदे पूरी पाडी, ते परथी श्री महावीरना समयथी आरंभी जैन धर्म, तेनी अने तेना साहित्यनी असर, तेना अनुयायीओ वगेरे सर्व पर प्रकाश टंकमां पाडवानं अमारे माथे आव्यं: अने ते पर लक्ष राखी जैनो अने तेमनं साहित्य, ए मथाळानो निबंध शरू कर्यो ते अतिशय संक्षिप्त रूपे करवा जतां पण, अने मूळ ३५ पछी ४०, पछी ५० एम पृष्ठो अमारे माटे संसदना प्रमुख कनैयालाल मुनशीए वधारी आपवा छतां पण मध्यकालीन साहित्य (१५मा शतकथी ते सं.१९०८ सुधीना)नो वारो आवे ते पहेलांनां प्रकरणोनां पृष्ठो ५६ थई गया. आथी जग्यानो अति संकोच पड्यो. मध्यकालीन साहित्य माटे प्रधानत: लखवानुं हतुं ते अति गौण करी आखा मध्यकालीन साहित्य माटे जैन कविओ अने तेनी कृतिओनो मात्र नामनिर्देश वगेरे आपी ते भाग ढूंकाववो पड्यो. आ विक्रम पंदरमा अने सोळमा सैकाना केटलाक जैन कविओनां काव्योना नमूनाओ ते मध्यकालीन साहित्य माटे ज तैयार करेला ते उक्त निबंधमांथी बाद करवा पड्या. अत्र तेमांथी पहेलाने वधारे उमेरो करी स्थान आपवामां आवे छे. आ सैकाना कविओना नमूनाओने प्रकरण ११४ क तरीके उक्त निबंधमां मूकी शकाशे. अने आ निबंध नामे 'जैनो अने तेमनुं साहित्य' १५ प्रकरणमा छे अने ते गुजरात [साहित्य] संसद तरफथी प्रकट थई गयेल छ ['मध्यकाळनो साहित्यप्रवाह (गुजराती- साहित्य खंड ५)' ए नामे]. विक्रम पंदरमा सैकामां थयेला जयशिखरसूरिनी 'त्रिभुवनदीपक' - ‘परम हंसप्रबंध' नामनी गुजराती कृतिमाथी नमूना उक्त निबंधना प्रकरण ११मां आपवामां आवेल छे तेथी अत्र मूक्या नथी.) [अहीं 'त्रिभुवनदीपक प्रबंध'नो नमूनो उपर निर्दिष्ट स्थानेथी लई उमेरी लीधो छे. - संपा.] १. वस्तिगकृत 'चिहंगइ चोपई'मांथी (हमणां सं.१४४४मां आभीर देशमां लखायेली आ कृतिनी प्रत मळी छे तेमांथी संसारनी अवस्थाओ संबंधी नमूनो.) __[कविपरिचय माटे जुओ ‘वीश विहरमान जिन रास’नी संपादकीय नोंध. आ कृति Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम पंदरमा सैकाना केटलाक जैन कविओनी काव्यप्रसादी ६४१ 'गुर्जर रासावली' (संपा ब. क. ठाकोर वगेरे) मां छपायेली छे. अहीं एने आधारे केटलीक पाठशुद्धि करी छे. संपा. ] संसार देस माहि अरूह अबाह [ असुख अपार], राज करई छई तिहां मोहराउ; चोर चरड फिरतां छइं च्यारि, लूसइं छई ते पुण नरनारि. ५१ रूलीरूली आवइ माणस माहि, एकि दिवस बालापणि जाई; योवनभरि जु पहुतउ किमइ, विषइ-पासि बांधिउ छइ तिमइ. ५२ घर-घरणी पहुती घर माहि [ घरबारि], चींतइ पडिउ सूंथल थइ; ईंधण तउणि तणीअ संपत्ति, तेह कारणि भमइ दीहराति. ५३ बेटा कारणि मानइ जाग, कंदलु करि ते लिइ घर आग; बेटा पाखइ घण दुख धरइ, बेटइ हूंतइ विढि - विढी मरइ. ५४ घरधंधइ पडीउ सहू कोई, कुटुंब मेलावउ खावा होई; खत्र अखत्र कीधां सवि वार, डोकरनी कोइ न करई सार. ५५ जरा भाईं, हिव मईं तूं साति, पहिलिउं दांत करई जि पलाति, त्रिष्णा माडी रहीनई हसी, हिव डोकरू मांगइ लापसी. ५६ धउलुं माथुं, देह जाजरी, वांकउ वांसउ, झुंबईं लालरी, घर हूंतउ ते किहांइ न जाइ, सघला कुटंब उबीठउ थाइ ५७ वडिक क्षुधा पीडिउ छई सोइ, डाकरनी सुधि न करई कोइ; आवउ वहुडी, भणिउं करू माइ, (मु) हु मचकोडी पाछी जाई. ५८ रीसाविउ ते मेल्हइ झाल, सिर धूणइ, मुहि पडई लाल, खूणउ बइठउ खूं-खूं करइ, अजिय स डोकर कहीइं मरई. ५९ चिहुं गतिनुं एह जि विचार, दूख तणा नवि लाभई पार, सुखह तणी जो वांछा करई, पंचम गति ऊपरि सांचरई ६० २. सोमसुंदर शिष्यकृत 'स्थूलभद्र कवित' मांथी (सं.१४८१मां प्रसिद्ध सोमसुंदरसूरिए कोश्यामुखे स्थूलभद्रनुं वर्णन एक टूंका पण अति मनोहर काव्यमा कर्यु छे. तेमां कोश्या नामनी पूर्व प्रीतिपात्र वैश्या गमे तेटलो हावभाव करे छे पण वैरागी स्थूलिभद्र मानता नथी एटली वातनो काव्यनमूनो अत्र लेवामां आवे छे.) [सोमसुंदरसूरि तपगच्छना देवसुंदरसूरिना शिष्य हता. पण 'सुपसाइ सिरि सोमसुंदरसूरि ' वी पंक्ति कारणे कृति खरेखर सोमसुंदरसूरिना अज्ञातनामा शिष्यनी गणवी जोईए. जुओ जैन गूर्जर कविओ भा. १ पृ. ५० तथा गुजराती साहित्यकोश खं. १ पृ. ४०१. कृति स्वाध्याय, ओगस्ट १९७५मां प्रकाशित थयेली छे. अहीं पाठशुद्धि-पाठांतरमां एनो लाभ लीधो छे... - संपा. ] Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह अजिअ स पोतइ पुन्य अम्हारई, अम्ह घरि वली प्रीअ आविउ; देवविमाण जिसी चित्रशाली, तिहां चुमासि रहाविउ. १२ कूर दालि घीअ दिउं भोजन, नित अमी महारस तोलइ; बालपणानं नेह गमिउ सखि, मझ सिउं हसइ न बोलई. १३ अंगि न ऊगटि सुरभि न चंदन, परिमल फूल तंबोल; भोगविलास नवि कथारस, कंत न करई टकोल; १४ घाट पटोली चरणा चोली, नाग निगोदर हार; करिअलि कंकणचूडि झबुकई, पय नेउर झमकार. १५ चंदण सिउं चरचिउं मई अंग ज, परिमल बहुल कपूर; पूगी पान कस्तूरी काजल, सिसि सुरंग सिंदूर. १६ नितु नवनवा करूं सिणगार ज, मणि मोती परवाला; घडि[धडि] खींटली तिलक झगमगतां, टीली झालिझमाल. १७ गीतनाद नव नव रसि परि[नव परि उचरसि], नाटक नृत्य अपार; । पंचम राग वसंत वीणारसि, भ्रमि न सकिउ भरतार. १८ विनयविवेकि वली बोलावू, वालंभ म करि अणाह, हुं आगइ भरमि तां भूली, तुं अति नीठर नाह. १९ ३. हीराणंदकृत 'विद्याविलास रास'माथी (सं.१४८५मां हीराणंदे ‘विद्याविलास रास' रच्यो छे तेमांथी बे-त्रण नमूना लईए. पहेलामां राजकन्या- वर्णन छे.) [कर्ता पीपलगच्छना वीरप्रभसूरिना शिष्य हता. एमनी कृतिओ सं.१४८४थी १४९५नां रचनावर्षो बतावे छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ भा.१ पृ.५२-५५ तथा गुजराती साहित्यकोश खं.१ पृ.४९६. कृति 'गुर्जर रासावली' मा प्रकाशित थयेली छे. - संपा.] तिणि नयरि सुरसुंदर राजा, तसु घरि कमला राणी, सोहगसुंदरि तास तणी धूअ, रूपिं रंभ समाणी; सोल कला सुंदरि ससिवयणी, चंपकवन्नी बाल, कज्जल-सामल लहकई वेणी, चंचल नयण विसाल. १६ अधर सुरंग जिस्या परवाली, सरस[सरल] सु-कोमल बाहु, पीण पयोहर अतिहिं मणोहर, जाणे अमिअ-प्रवाह; ऊरूयुगल करि कदलीथंभा, चरणकमल सुकुमाल, मयगल जिम माल्हंती चालई, बोलइ वयण रसाल. १७ Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम पंदरमा सैकाना केटलाक जैन कविओनी काव्यप्रसादी ६४३ राजकुंअरि ते तिणि नेसालई, पंडित पासि भणंति, लक्षण छंद प्रमाण कलागम, नाटक सवि जाणंति; घणउं वखाण किसिउं हिव कीजइ, अभिनव शारददेवि; तेह तणउ जे कउतिग वीतउं, ते निसुणउ संखेवि. १८ (आ राजकन्या अने प्रधानपुत्रने साथे भणतां प्रीति जामे छे ते हवे कहे छे.) मंत्रीसरनंदन मनमोहन, नामि लछिनिवास, तेहू तीहइं भणइ मनि-खंति, लहूउ लीलविलास; राजकुंअरिनई मनि वसीउ, देखीअ सरस सुजाण, एक दिवसि ए अक्षर लिखीआ, बोल ए करू प्रमाण. १९ “मइ तरूणी परणीनई, सामी, साचलं करि निय नाम, लच्छिनिवास कहावइ मझ विण, ए तुझ कूडउं काम'; ए अक्षर वांचीनइ हसिउ, मुहतानंदन चीति, मधुरी वाणी बोलइ, “सामिणि, ए सिउं उत्तम रीति.' २० हिव दूहा; राग सामेरी “सामिणि, सेवक ऊपरिहिं, नीच मनोरथ कांई ? एह वात युगती नही, आथी [आधी] वरइ न थाइ. २१ किहां सायर किहां छिल्लरूह, किहां केसरि सीयाल; किहां कायर किहां वर सुहड, किहां कइर[वण] किहां सुरसाल. २२ किहां सिरसव किहां मेरूगिरि, किहां खर किहां केकाण; किहां जादर किहां खासरूं, किहां मूरख किहां जाण. २३ किहां कस्तूरी किहां लसण, किहां मानव किहां देव; किहां कांजी किहां अमीरस, किहां राणिम किहां सेव. २४ किहां रीरी किहां वर कणय, किहां दीवउ किहां भाण; सामिणि तुझ मझ अंतरू, ए एवडउं प्रमाण." २५ (आ पछी बंने परणे छे, अने त्यार पछी ते सुंदरीने पियुनो वियोग थयो तेथी विरहिणी विलाप करे छे.) राग सिंधुओ निसि-भरें सोहगसुंदरी रे, जोइ वालंभ-वाट; निद्रा न आवई नयणले रे, हइअडइ खरउ उचाट. “सुणि, सामीअ लीलविलास, वलि वालंभ विद्याविलास; Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह मुझ तुम्ह विण घडीअ छ मास, प्रभु पूरि-न [मनकी] आस." इम विरहिण प्रिय विण बोलइ. आंकणी. “सीहीअ समाणी सेजडी रे, चंदन जेहवी झाल; दावानल जिम दीवडउ रे, कमल जिस्यां करवाल. ११६ सुणि सा. मझ न सुहाई चांदलउ रे, जाणे विष वरसंति; सीतल वाउ सुहामणउ रे, प्रिय विण दाह करंति. ११७ सुणि सा. दाखी डाहिम आपणी रे, रंजिअ मझ मन-मोर; छइलपणइ छानउ रहिउ रे, हीअडउं करी कठोर. ११८ सुणि सा० एता दीह न जाणिउ रे, निगुण जाणी कंत; हिव क्षण जातइ वरस सउ रे, जाइ मझ विलवंत. ११९ सुणि सा. जइ करवत सिर ताहरइ रे, दीजत सिरजणहार; विरहविछोह्यां साजणां रे, तु तुं जाणत सार रे. १२० सुणि सा. उलंभा कहिइ कुणह रहिं रे, कुणनइ दीजइ दोस; हीराणंद हिव बूझवइ रे, कीजइ मनि संतोस. १२१ सुणि सा० ४. रत्नमंडनगणिकृत 'रंगसागर नेमि फाग'मांथी (सोमसुंदरसूरिए रचेलो कहेवातो पण खरी रीते तेमना शिष्य रत्नमंडनगणिए रचेलो 'रंगसागर नेमि फाग' त्रण खंडमां छे तेमां पहेलां नेमिनाथनो जन्मोत्सव, बीजामां विवाह अने त्रीजामां मोक्षगमननो अधिकार छे. विषय रसिक छे ने कृति पण रसमय छे. पंदरमा शतकनी भाषानो सुंदर नमूनो पूरो पाडे छे. आमां पहेला काव्य (शार्दूल) पछी रासक, ने पछी आंदोल ने त्यार पछी फाग अनुक्रमे एम छंदमय रचना छे. आमांथी नमूनो लईए.) [आ कृति आ ग्रंथमा आखी मुद्रित थई छे, तेथी अहीं एनो नमूनो छोडी देवामां आव्यो छे. – संपा. ५. रत्नमंडनगणिकृत 'नारीनिरास फाग'माथी __(आ ज रत्नमंडनगणिए 'नारीनिरास' नामनो फाग (शांतरसपयोराशि रासक) बावन कडीनो रच्यो छे ते पण घणो ललित, अर्थगंभीर अने काव्यमय छे. तेमांनी एक कडी नीचे प्रमाणे छे.) [आ कृति जैन सत्यप्रकाश, फेब्रु-मार्च १९४७ तथा 'प्राचीन फागु संग्रह' (संपा. सांडेसरा अने पारेख)मां छपायेली छे. -- संपा.] रति पहुती मधु माधवी साधवी शमरसपूरि, जिम महमहइ महीतल सीतल स्वजस[सजस] कपूरि. २ Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम पंदरमा सैकाना केटलाक जैन कविओनी काव्यप्रसादी ६४५ ६. मांडणकृत 'श्रीपाल रास'मांथी (मांडण श्रेष्ठीए सं.१४९८मां रचेला 'श्रीपाल रास'नी जूनी प्रत परथी एक नमूनो आपीए छीए. श्रीपाल राजा घोडेस्वार थई फरवा जतां कोई तेने राजाना जमाई तरीके ओळखावे छे ते सांभळी पोताने दु:ख थतां ससरातुं सुख छोडी स्वभुजाए सुख प्राप्त करवा विदेशे जवानो निश्चय करे छे.) [जुओ जैन गूर्जर कविओ भा.१ पृ.६३-६४ तथा गुजराती साहित्यकोश खं.१ पृ.३१४-१५. 'गुजराती साहित्यकोश'मां मांडणने कडवागच्छना श्रावक कह्या छे, पण ए संभवित नथी केमके कडवागच्छ पछीथी उत्पन्न थयो छे. - संपा.] एकदा ए श्रीपाल राउ, चड्या तुरंगमि सांचरई ए; गामडानु अबुझ कोई एक, चहूटउ ऊभु ते वात करइ ए. ७५ पूछइ एकणहू एक पासि, अलवि कूअर ए कहि तणु ए; ते कहइ ए राय-जामात, कुमारि सुणी तिहां मनि घण्यु ए. ७६ सांभली ए वचन कुमारि, रदय दुख गाढू धरइ ए; तुरंगम ए वालीय जाइ, अवास भीतरि पउढी रहइ ए. ७७ पूछीउ ए आवीय माइ, कहि वछ तूं कुणिईं दूहविउ ए; कइ तूय ए दूहवीउ नारि, कइ तूय राइ न मानीउ ए. ७८ नारि तो ए सतीय सुसील, राय तूं दीठईं आणंदीइ ए; सो भणइ, ए म पूछिसिउ माइ, नाम ठाम कुल हारविउं ए. ७९ मा कहइ, ए वालि-न राज, वछ, लेइ सेन सुसरा तणां ए, सो भणइ, ए तेणई नहीं काज; जां नहीं बल मझ भुज तणां ए. ८० जाइतूं ए वदेसि हूं, माई, धन ऊप्राजी राज वालितूं ए; तव कहइ ए कमलप्रभाय, वछ, अम्हि सरसां आवितूं ए. ८१ कुमर भणइ, ए जु तुम्हइ साथि, तु अम्ह पग मोकला नहीय; सुंदरी ए जंपइ ए इम, प्रभ, तम्ह पाखइ आहां रहूं नहींय. ८२ कुमर तिहां ए जंपइ जाम, सुंदरि, सासू-सेवा करू ए; तव कहइ ए सुंदरी त्यांह, प्रभ, तम्ह नवपद रदय धरिउ ए. ८३ ७. अज्ञातकृत 'नलदमयंती रास' (ते ज मांडण कविना रचेला जणाता ‘नलदमयंती रास’मांथी एक नमूनो लईए. नल राजा कूबडो थयो छे त्यां दमयंतीना पिता भीम राजानो मोकलेलो विप्र आवे छे अने नलने जोतां ते होवानो संदेह थतां अमुक 'शलोका' बोले छे.) Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह ['गुजराती साहित्यकोश' (खं.१ पृ.३१५) एम नोंधे छे के आ कृति मांडणकृत नथी. एक ज हस्तप्रतमा 'श्रीपाल रास' अने आ कृति बन्ने साथे होवाथी आने पण मांडणकृत मानी लेवानी भूल थई छे. – संपा.] भीमि विप्र कुसलं कहइ ए, जाउ तम्हि तेह पासि; द्विज आयसि राजा तणई ए, गयु कूबड आवासि. २०१ सुण भला जाता हूआ ए, हरखिउ तुं मन माहि; तु देखी रूप कूबज तणूं, हइइ पडी अति दाहि. २०२ कुसल विप्र इम चीतवइ ए, नल किमि न होइ; मनि संदेह भांजिवा ए, कहइ सलोका दोइ. २०३ वस्तू नल जि नीलज, नल जि नीलज, नल जि नीसत्त, नल विण कोइ न पाडूउ, नल कठोर नल अधम दिज्जइ[कहिज्जइ ?], मेली दवदंती सतीय, तेह तणूं स्यूं नाम लीजइ. वली वली ईम ऊचरइ, विप्र सलोका दोइ; झरइ नयण दुख सांभरी, नीबूं जोई तेई. २०४ ठवणि रोयतु ए कूबडु देखि, कारण कुसलं कहइ किसिउं ए; जो भणी ए सतीय ऊवेखि, गयु नलदु:ख ते मनि वसिउं ए. ___ [क्र.१थी७ : जैनयुग, कारतक-मागशर १९८३, पृ.१६९-७३] ८. जयशेखरसूरिकृत 'त्रिभुवनदीपक प्रबंध'मांथी (जयशेखरसूरिए संस्कृतमा 'प्रबोधचिंतामणि' एक रूपक (allegory) तरीके सं.१४६२मां रचेलो, से ज विषयनो पण स्वतंत्र कृति तरीके तेमणे आ ग्रंथ रचेलो छे. आमां अनेक छंदो जेवा के दुहा, धूपद, एकताली चोपई, वस्तु, सरस्वती धउल, छपय, गुजरी वगेरेमां प्रासंगिक व्यवहारप्रबोध साथे परमहंस अथवा आत्मराजनुं चरित्र प्रकट कर्यु छे.) [जयशेखरसूरि अंचलगच्छना महेन्द्रप्रभसूरिना शिष्य छे. एमणे संस्कृत-प्राकृतमां केटलीक अने गुजरातीमां आ तथा फागु-स्तवन प्रकारनी केटलीक कृतिओ रची छे जे सं.१४३६थी १४६२नां रचनावर्षो बतावे छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ भा.१ पृ.४६-५० अने ४३८-३९ तथा गुजराती साहित्यकोश खं.१ पृ.११५. आ कृति 'पंदरमा शतकनां प्राचीन गुर्जर काव्य' (संपा. के ह. ध्रुव) अने ‘महाकवि श्री जयशेखरसूरि भा.२' (साध्वी मोक्षप्रभा)मा तथा स्वतंत्र रीते पंडित लालचंद भगवानदास द्वारा संपादित प्रकाशित थयेल छे. - संपा.] Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४७ विक्रम पंदरमा सैकाना केटलाक जैन कविओनी काव्यप्रसादी (शोक्य पर कवि कहे छे :) सउकि समाण सुरूपिं सापु, वलगी मर्मि करई संतापु, वंजल छायां सापु न फिरई, मूल मंत्र सउकिहं नवि फुरइ. ४२ अठ्ठोत्तर सय अधिकी व्याधि, सउकि कहउं तउ होइ समाधि, काढई रोग न नियडउ थाई, काढउ कहतां सउकि न जाइ. ४३ सउकि-आगि भटके प्रज्वलइ, विणसईं वंस, न धुं नीकलई, आगि ओल्हाहई एकं वारि, सउकि संतापई साते वारि. ४४ (स्नान तर्पण श्राद्धादि क्रिया पर कहे छे के:) माहि कहई नई बाहरि न्हाई, नइ नाला भणि धसमस धाइं, जल ऊलाइं लोक प्रवाहि, किम धोसि ते कलमस माहि ? ११५ कर्मवसिं जीव चिहु गति फिरई, पितर तणउ तिहां तर्पण करई, गंगा-तडि जल ऊरे वीइं, गूजरात तिहां आंबा पीइं. ११६ (विवेककुमार साथे संयमश्रीनो उत्सवपूर्वक विवाह धउलमा वर्णवे छे :) पहिलं थिरुवन थिर हूआं ए, जण जण दीजइं बीडां जूजूआ ए, लेई लगन वधाविउं ए, विण तेडा सहूई आविउं ए. ३२९ प्रवचन-पुरिय वधामणां ए, सवि भाजइं जुंनां रूसणा ए, बईठी तेवडतेवडी ए, दिं पापड सालेवड वडी ए. ३३० गेलिहिं गावइ गोरडी ए, पकवाने भरिइं ओरडी ए, घरि घरि फूलके फिरइं ए, वरवयणि अमिरस नितु झरइं ए. ३३१ कीजई मंडप मोकला ए, मेलीयई चाउरि चाकला ए, गुरवि सजन जिमाडिइं ए, पुरि साद अमारी पाडिइं ए. ३३२ वर शृंगारिउ रथि चडइ ए, वाजिव रवि अंबर धडहडई ए, लाडण जोवा जग मिलई ए, सिरि छत्र अमर पासइं ढलइं ए. ३३३ संयम सिरी जग दूलही ए, प्रिय पेखी गुणनिधि गहगही ए, पुहतउ मंडपि सासरई ए, वर बईठउ प्रवचन-माहरई ए. ३३४ कर-मेलावउ बिहउं करइ ए, गुर-जोसी समउ स उच्चरई ए, पावक प्रतिमा पाखली ए, दि बेउ प्रदखिण मनरूली ए. ३३५ लाडण लाडी लहूयडां ए, बे निरूपम रूपिं रूअडां ए, दिवस घणा उमाहिया ए, आणंदिहिं विहसियां बिहउं हियां ए. ३३६ Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह मावीत्रे उच्छव किया ए, जण जोई कउतिग घरि गया ए, ईह विछोह म देखिसउं ए, मनरंगि बोलई सहू इसिउं ए. ३३७ [क्र.८ : गुजराती साहित्य खं.५ (मध्यकाळनो साहित्यप्रवाह), संपा. क.मा. मुनशी, १९२६, पृ.१३०-३१] | Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४९ सं.१५३५मां लखायेलां प्राचीन काव्यो [आ काव्योनी हेमचंद्राचार्य ज्ञान मंदिर, पाटणनी हस्तप्रत क्रमांक १६१०८ प्राप्त थई छे, जे देशाईए उपयोगमा लीधेली ज प्रत छे. एने आधारे अहीं क्वचित् पाठशुद्धि करवानी थई छे. ते उपरांत, कोईकोई काव्यनी अन्य हस्तप्रत पण प्राप्त थई छे, जेनो यथोचित लाभ लेवामां आव्यो छे. एनी माहिती जे-ते काव्यना आरंभे मूकवामां आवी छे. – संपा.] १. सीहाकृत जंबूस्वामी वेल [आ कवि अने तेनी बे कृतिओ जैन गुर्जर कविओ भा.१ पृ.१५४ तथा गुजराती साहित्यकोश खं.१ पृ.१५४ पर आ संदर्भने आधारे ज नोंधायेल छे. नीचेनी कृति 'अप्रगट गुजराती कृतिओ' (संपा. कुमारपाळ देसाई)मां पण मुद्रित मळे छे('ख' संज्ञा). एने आधारे तेमज स्वतंत्र रीते पण केटलाक पाठ अहीं सुधारवाना थया छे, केटलांक पाठांतरो पण नोंधवानां थयां छे. दीक्षा लेवा तैयार थयेला जंबूस्वामीने वारवा माटे एमनी राणीओ कथाओ कहे छे अने जंबूस्वामी पोताना वैराग्यभावना समर्थनमां कथाओ कहे छे ते आ कृतिमा अत्यंत लाघवथी निर्देशाई छे. कडी १: कोईने घरे गोळ मांडा (गळ्या खाजां) खाईने आवेला बग नामना खेडूते घउं अने शेरडी वाववा माटे पूरा नहीं पाकेला कोदरा ने कांगवा उखेडी नाख्यां पण घउं अने शेरडी तो वावी शकायां नहीं ने एम बन्ने गुमाव्यां. कडी ३: मरेला हाथीना शरीरमा पशुओए फोली खाधेल गुदाद्वारथी प्रवेशेलो कागडो लोभमां ने लोभमां शरीर मध्ये पहोंची गयो ने उनाळामां शरीर संकोचातां गुदाद्वार बंध थई जतां अंदर पुराई गयो. वर्षाऋतुमा शरीर पार्छ फूल्युं, पण तणाईने समुद्रमा पहोंची गयुं एटले बहार नीकळेला कागडाने माटे किनारो आघो थई गयो. अंते ए हाथीना शरीर साथे डूबी गयो. कडी ५: झाड पर रहेतां वांदरोवांदरी कोई तरुविशेष पर जतां नरनारी बनी गयां. वांदराने लोभ लाग्यो ने देव-अवतार मेळववा माटे फरी ए तरुविशेष पर गयो पण ते देव बनवाने बदले पाछो वांदरो बनी गयो. कडी ६: जंगलमा लाकडां बाळी कोलसा बनावनार पोतानुं बधुं पाणी पी गयो तोपण तरस छीपी नहीं. झाड नीचे सूतां स्वप्नमां पण नदी, सरोवर, सागरनुं पाणी खाली करवा लाग्यो, पण खारा पाणीथी एनी तरस छीपी नहीं. कडी ७ : राजानी राणी विलासी पुरुष (महावत)मां लुब्ध थई. एने छोडीने एक चोरने गई. पहेलां भारे कपडांघरेणां सामे कांठे मूकी आQ एम कही राणीने निर्वस्त्र करी चोर नासी गयो. ए वखते आ स्त्रीने पाठ भणाववा माटे, चोरने बदले हत्या पामेलो ने देवयोनिमां गयेलो महावत शियाळy रूप लई पोताना मोंनो मांसनो टुकडो छोडी नदीमांनी माछलीने पकडवा गयो, जे दरमियान समडी मांसनो टुकडो उपाडी गई. माछली तो एने मळी नहीं. आम वधु लेवा जतां हाथमां होय ते पण गुमाववानुं थाय एम ए बतावे छे. कडी ८: बे विद्याधरो विद्या साधवा माटे चांडालकन्याने परणीने रहे छे. Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह पण विद्या साधवा माटे एमणे ब्रह्मचर्य पाळवार्नु होय छे. एक ए करी शके छे ने विद्या साधी पाछो जाय छे. बीजो (विद्युन्माली) पोतानो संसार ऊभो करी त्यां ज रहे छे, विद्या साधी शकतो नथी. कडी ९ : एक कणबीए खेतरमां पंखीओने उडाडवा शंख वगाडतां, चोरो भयथी पोते चोरी लावेलां पशुओ छोडीने चाल्या गया ने ए पशुधन पेला कणबीने मळ्यु. एनाथी ललचाईने ए वारेवारे शंख वगाडवा लाग्यो, एटले चोरो समजी गया के आ तो पंखीने उडाडवा शंख फूंके छे. एमणे भय छोडी कणबीने ज लूट लीधो. कडी १०: बे वांदरा लडी पड्या. एक घायल थईने भाग्यो. तरसनो मार्यो कादव चाटवा गयो पण एमां ज फसाई गयो. कडी ११: सिद्धि अने बुद्धि नामनी बे स्त्रीओ लाभ मेळववा यक्षने पूजे छे. सिद्धिने जे आप्यु होय ते मने बमणं आपो एम बद्धि कहेती होय छे. एटले सिद्धि एक वखते पोताने एक आंखे काणी करी देवानुं मागे छे. बुद्धि बेय आंखे आंधळी थई जाय छे. कडी १२: पोते जीतेली एक सुंदर घोडी राजा मंत्रीने संभाळ राखवा सोंपे छे. मंत्री घोडीने रोज जिनमंदिर वगेरे नियत स्थाने ज जवाआववानी टेव पाडे छे. एटले एने त्यां घोडीने चोरी जवा एक माणस आवे छे तेनो प्रयत्न निष्फळ जाय छे, केमके घोडी आडमार्गे जती ज नथी. कडी १३ : नबापा छोकराने मा कंई काम करवा शिखामण आपे छे, त्यारे ए मूर्ख छोकरो रस्ते जता गधेडाने पूंछडे वळगे छ ने पोताना दांत पाडे छे. कडी १४: कोटवाळे पोतानी प्रिय घोडीनी संभाळ राखवा सोलो नामना माणसने राख्यो. घोडीने जे सारूंसारुं खावानु मळतुं तेमांथी घणुं ए खाई जतो. घोडी मरीने वेश्या तरीके जन्मी. सोलो ए गाममां ब्राह्मण तरीके जन्म्यो. कामासक्त थई ए वेश्याने द्वारे पड्यो रहेवा लाग्यो, एना नोकर तरीके बधां काम करवा लाग्यो अने एनां अपमान पण सहन कर्ये गयो. कडी १५: पंखी ‘साहस न करवू' एम बोलतुं जाय कामांना वाघना दांते चोंटेला मांसना कणो लेतुं जाय अने लईने झाड पर पार्छ जतुं रहे. एम वारेवारे कर्या करे, लोभ न छोडे. अंते वाघ एनो कोळियो करी गयो. कडी १६: प्रधानने त्रण मित्रो - एक नित्यमित्र, एक पर्वमित्र, एक जुहारमित्र. राजा तरफथी संकट आव्युं त्यारे नित्यमित्र ने पर्वमित्र काम न आव्या, जुहारमित्रे ज मदद करी. (देह ते नित्यमित्र, सगांसंबंधी ते पर्वमित्र अने धर्म ते जुहारमित्र एम तात्पर्य छे.) कडी १७: रोज नवीनवी कथा सांभळवाना रसिया राजा पासे जवानो वारो एक ब्राह्मणनो आवे छे. एनी जीभ तोतडाती हती तेथी एने बदले एनी पुत्री जाय छे. ए पोताना जीवननी एक बनावी काढेली वार्ता कहे छे. राजा पूछे छे के तें आ कथा कही ते साची के जूठी ? त्यारे ते ब्राह्मण-कन्या कहे छे के जेवी तमे रोज कथा सांभळो छो तेवी आ. एटलेके जूठी. बधी कथाओ आवी ज होय. कडी १८: ललितांगकुमारने राणीए भोग भोगववा बोलाव्यो पण राजा आवी चडतां ऊंचकीने फेंकी दीधो ने ते कचराना कूवामां पड्यो. एने एटुंजूटुं खावानुं नाखवामां आवतुं. वर्षाऋतुमां खाडामां पाणी भरातां तणातां ते किल्ला बहारनी खाईमां आव्यो. ऊगरीने ए पाछो पोताना पूर्व रूपमां आव्यो, पण हवे भोगविलास माटेर्नु राणीनुं आमंत्रण एणे न स्वीकार्य. - संपा.] Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं.१५३५मां लखायेला प्राचीन काव्यो ६५१ समुद्रश्री प्रिय पति भणइ, हउं जल तुं रितुसालि', बग किसाण जिम' कंगुवन फलिया म न उनमूलि, गुडमंड कइस गधरे बिहु चूकिसि, कामभोग सुखमूलि. नाह न भूलीयई. १ नवपरणीय वर नारि, हेलि न मेल्हियइ, युगतायुगत विचारि, दयाधरम पालियइ, कदलि-कमलवन मेल्हि, कनक न राचियइ, चंदनू पाय म ठेलि, अंगि विलेपिइ.- आंचली. २ हत्थिकलेवरु त्रीयतनु, नउ हउं वायस, नारि, विषयलुबधु सो तहि रहिउ, महासमुद्र मज्झारि, दस दिसि पेखइ, पारु न पामई, तिम न पडिसु संसारि. नारि न भूलियइ. ३ रयण अमूलकु मेल्हि, काचि न राचीइं, मूंकि फलिउ सहकार, कइंबि न झूझियइ, भरिलं सरोवर मेल्हि, कादमि (न) खूचियइ, भूली मुंधि गमारि, विरह[विरूउ ?] न बोलीयइ. आंचली. ४ पदमसेना भणइ नाह सुणि, प्राणनाथ अवधारि, इकु वानर इक वानरी, तरुविशेषि नर-नारि, लोभ लगई नर वानर हूउ, तिम तउ बेउ म हारि. नाह न भूलियइ. ५ जंबु भणइ पदमसेना सुणि, इकु नर दहइ अंगार, त्रिसितुं सोषई सर नदी, सुतउ सुपन मझारि, त्रिपति नही तिणि खार बिंदुजले तिम एऊ विषय संसारि. नारि न भूलियइ. ६ पद्मश्री भणइ जंबु सुणि, नरिंद-नारि अवधारि, राय मेल्हि भुयंगि लगी, भुयंगु मेल्हि रत चोरि. मछ लोभि सीयाल आमिष जिम, तिम धर्म चूकिसि सार. नाह न भूलियइ. ७ विज्जाहरि मातंगधुय, परणी विज्जा रेसि, इकु विद्या साधवि गयउ, इकु रहियउ परदेसि, हउं विज्जमाल तणी परि न करिसु, वसिसु नहीं गिहवास. नारि न भूलियइ. ८ कनकसेना भणइ, म करि प्रिय द्रमकत परि, गह संख पूरित तेणि बउ गम्य, तिम तउं म हारि, विषयभोग भोगवि, सुख पहिलउ, पछइ मुकति वर नारि. नाह न भूलियइ. ९ १. क. रतु सारलि. २. क. करिसु गज. ३. ख. करस घृत. ४. ख. आ कडी नथी. ५. क. मेल्हि. ६. ख. गयउ. Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह जंबु भणइ तुं नारि सुणि, वानर वनहं मझारि, तिहं प्रतिमल इकु आवीयउ, भिडिया बेउ तिणि वारि, भागउ त्रिखा सिलारसि खूतउ तिम न पडिसु संसारि. नारि न भूलीयइ. १० नभसेना भणइ नाह सुणि, सिधि बुधि खरीय सलोभ; धन कारणि जक्सु पूजियउ, समा समा वर लाध, एकई एक नयण जउ अंधउ, बीजी हुइय निरंध. नाह न भूलीयइ. ११ जंबुकुमरु कथा कहइ, सुंदरि, सुणि धरी भाउ, जातीय सुंदरू तुरिय इकु, महता समपय राउ, धरम तणइ बलि चोरू निफलु भयउ तिम तुम्हि विलख म थाहु. नारि न भूलीयइ. १२ कनकवती भणइ, म करि प्रिय, जिम तिणि कीउ गमारि, विलगउ रासभ-पूंछडइं, पडिया दंत बि-चारि, अबल बाल अम्ह संग्गहु करि प्रिय, म-न मूकि निरधारु. नाह न भूलीयइ. १३ जंबुकुमरु कथा कहइ, सोलउ कुणंबा लुद्ध, घोडी मरी वेश्या हुइ, उ हूउ घर-रखवाल, सहइ अपमान तसु नारि तणा नितु, तिम न करिसि हुं बाल. नारि न भूलीयइ. १४ कनकश्री भणइ सुणि-न प्रिय, इकु पंखिया विचार, वाघा तणइ मुखि मंसु ते लेयइ, अवरु कहइ ववहारु, मासाहस तणी परि म करिसि, लाजिसि तूं भरतारु. नाह न भूलीयइ. १५ जंबुकुमरू भणइ, नारि सुणि, तिनिमित्त अवधारि, एकु दानि नतु पोषिइ, एक पर्व तिथि वारि, एक जुहार मितु जइ सरिसउ, अबल न सबल संसारि नारि न भूलीयइ. १६ जइतिश्री भणइ. जोडिवि करु म भणिसि वारइवार, ब्राह्मण-धूअ कल्पित कथा, काइं कहेइ भरतार, तइं सतपुरषि दक्षिण हाथु दीधउ, परिग्रहु करिय इकु पार". नारि न भूलीयइ. १७ जंबुकुमर भणइ तुं नारि सुणि, तर ललतंगकुमारु, संचरइ विषयलबधु, घालिउ नरक मझारि, पंच प्रकारि विषयु विरतु, विष न१२ भखिसु हंउं नारि. नारि न भुलीयइ. १८ ७. ख. सदा नितु. ८. ख. हुइ. ९. ख. अवर ते सयलु संसार १०. क. कोई कहइ करइक वारु. ११. क. आ पंक्ति नथी. १२. क. 'न' नथी. Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं.१५३५मां लखायेला प्राचीन काव्यो ६५३ नवाणवइ कोडि कनक तजी जंबुकुमरू आठ नारि, वीरजिणंद मुद्रा लई, विरतउ इणि संसारि, अनुदिनु चतुर्विध सयल संघ मुनि अणुदिन सीहा स्वामि. १९ - इति श्री जंबुस्वामि वेलि समाप्त:. छ. २. सीहाकृत रहनेमि वेल प्रिय-वंदण परबति चडी, वरिसइ गहिर गंभीर, भीनउ कंबल कंचूउ, मुख गोमटुं सरीर, देखी गजगामिनि गयवर गहिगहिउ, जिम कमलिणि मधुकार. वेलि पराली. नेमिनाथ केरी आण, चलण न पामीइ, सीअल सबल रखिवाल, वन अति रूअडु, मदमत जइ गज होइं, सुंडि संभालीइ, रहनेमि भूलि म भूलि, नयणडे चाहीइ. आंचली बहुत दिवस दुक्कर करी, राणी, तम्ह लगइ रेस, तीण फलि हूउ मेलावडु, ऊतर अव म देसि. २ वेलि परा० इसे वचनि तपसंजम दहेस ऋषि, नरगि पीआणउं देसि, वेलि रे करहा मन आलि करि, संजमभार वहेसि, देखी पीआरां राम वन मन पसरंत म मेल्हि. (मेल्हिसि) ३ वेलि. धरि तोष मनि पंच इंद्रिय वसि करि, अवघड मारगि म चालि, सरसव तुल्ली हुं जि, मुनि, तुं गिरि मेरु समान, गजारूढ कांइ खरि चडइ, गंजं अप्पाण. ४ वेलि. म पडि म पडि म-न दुगय-गमन करि, चारितरयण मत हारि, परस्त्री देखि विराग मुख, ते वरला संसारि; घणा विगू(ता) सांभल्या, जे रत्ता परनारि. ५ वेलि. ईआ देखी कुर खइ गइ, भीमसेन झूझारि, रूप सरिधियुं देखि करि, कीचक मनि अभिलाष, पवननंद तस मार करि, जगत्रि रहावी रेख. ६ वेलि. शत बंधवि सिउं अगनि प्रजाली नलइ स्त्रीकारणि म-न भूलि, सुंद्र सखाई लंक गढ, रावण धणी निसंक, परस्त्री कारणि गंजिउ, त्रिभुवन माहि ज वंक. ७ वेलि. Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह सती सीता देकी रामि रमायण, जगि जाणीइ विदीत. कनकमेरु गिरि जउ चलइ, अगनि कि सीतल होइ, दिणयण[र] पछिम ऊगमइ, सील न लोपुं तोइ. भणति राजलि, रहनेमि सुणि-न ऋषि, बलबंड देह न होइ. ८ वेलि. आदि लोकि परकासिउ, ए व्यवहार सोल्ल, अम्ह तम्ह सरिसु तिम करु, करि पसाउ मुखि बोल्लि. म भणि म भणि म-न दुगय-गमन करि, मिथ्यात वचन म बोल्लि. ९वेलि. रहनेमि खरु अयाण] तुअ, कूडी साट करेसि, रतनरासि मोती तजइ, गुंजाहल किम लेसि. १० वेलि० जे तुं रे पठित मूरख अयाण ऋणि(षि), बलबंड स्त्री न होइ, अष्ट भवंतर हुं फिरी, तुज्झ बंधव सिउं नारि, ते प्रतिपन्न न पालउं, हुं परिहरी संसारी. ११ वेलि. तीणं हठिइं ज संजम भतार वरिस ऋषि, वसिसु तम्हारडइ बारि, रागी प्रति वयरागिणी, मझ सिउं किसी रूहाडि, धरि संतोष मनि आपणइ, जिम रुठइ इक नारि. १२ वेलि. सुकिअम्हारडी अवर पुरुषि राचइ, मुगति-रमणि वर नारि, खेदन खेदी मनि रहिउ, सती किमइ न पना आइ. तव हीडइ संतापीउ, धाइ लग्गु पाय. १३ वेलि० हूं अनिग अनइ बहुल पाप ऋषि, खमि-न खमि-न मोरी माइ. सील-सुव[च]न सुणि रायमय, लग्गी मुणिवर-पाय. अम्ह सामी तुम्ह वीर हय, तस पाय जई अवलोइ. १४ वेलि. दुकृत सुकृत करिवा समरथ, तुम्हि गुरूआ करइ स होइ, चलणि लागी मुनि गहिबरिउ, सामी किउ अपराध, हूंअ जि तुम्हरइ किम कहउं, तम्हि जाणउ जगनाह. १५ वेलि. वइरि तम्हारइ संग्रामि गोत्र भड राखि जादवकुलनाथ, संघदास सीहु भणइ, भवि भवि नमि-पाय चल, रहनेमि-राजलि-चरित सुणि, पाप पणासइ दूरि. १६ वेलि. प्रसन चतुर्विध संघ, सयल मुनि अनुदिन सीहाचा सामि. वेलि. - इति श्री रहनेमि वेलि समाप्त. छ. Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं.१५३५मां लखायेलां प्राचीन काव्यो ६५५ ३. डुंगरकृत नेमिनाथ फाग (बारमास) [आ कर्ता-कृति आ संदर्भने आधारे ज जैन गूर्जर कविओ, बीजी आवृत्ति भा.१ पृ.१५४ तथा गुजराती साहित्यकोश खं.१ पृ.१५२ पर नोंधायेल छे. कृति ‘प्राचीन फागु संग्रह' (संपा. भोगीलाल सांडेसरा, सोमाभाई पारेख)मा अज्ञातने नामे मुद्रित थयेल छे ने 'जैन मरु-गुर्जर कवियों और उनकी कृतियां' (संपा. अगरचंद नाहटा)मां एना आरंभ-अंत नोंधायेला छे. अहीं पाठशुद्धि तथा पाठांतरोमां एनो लाभ लीधो छे. देशाई, सांडेसरा तथा नाहटाना पाठने अनुक्रमे क,ख,ग तरीके ओळखाव्या छे. 'ख'मां कडी १०, २१ अने २६ नथी. - संपा.] अहे तोरणि वालंभ आविउ, यादवकुल केरउ चंद, अहे पसुअ देखि रथ वालिउ, दिहि दिसि हूउ विछंद'. १ अहे निशि अंधारी एकली, मधुर म वासिसि मोर, विरह संतावइ पापिओ, वालंभ हिई कठोर. २ अहे धुरि आसाढह ऊनइउ, गोरीने गुणनेह, गाढइ गाजि म पापिउ, छानउ वरिसि-न मेह. ३ अहे श्रावण वरिसइ सरवडे, मेह न खंडइ धार, मनमथि मोरूं मन व्यापिउं, प्रीयडउ करइ न सार. ४ अहे भाद्रवडो भरि ऊलटइ, सरोवर लहरडे जाइ, कायासरोवर अम्ह तणउं, सामीय विण सीदाइ. ५ अहे राजहंस परबति चडी', किमई न आवइ हेठि, मानसरोवर परिहरी, छीलरि उपरि देठि. ६ अहे आसो आसा-बंधडी, हू मेल्ही ईण कंति, मधुकरि मालति परिहरी, पारिधि पूठि भमंति. ७ अहे जिम जिम सहीयर सासरइ जाती देखू माइ, तिम तिम मोरं मन आवटइं, किमइ न थाहरइ ठाइ. ८ अहे काती मासि मेलावडउ, नेमि न कीधउ आज, छपनकोडि जादवधणी, हुं मूकी कुण काजि. ९ अहे विलवंती मेल्ही गयउ, गरूया गणइ त[न ?]जोझ, जीवदयालू जई किमइ माणस रूपिइ रोझ. १० १. ख. तिहि वसि हू उच्छंद. ग.मां आ पछी वधारानी पंक्तिओ : नयणा नेहु भरे गयउ सुनेमिकुमारु, रेवइया गिरिवर सरि चडी उ लीध संजम भारु. २. ख. रूअडु. ३. ख. लूघडी. Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह अहे मागसर मझ मेलवइ, एअ सलूणउ नाह, जाणे जिम तीणिइ पालविउ, बलता दव केरु दाह. ११ अहे हंस भणी मइ हेलवउ, सुर' बगलानुं कीध, अंब भणी मइ सेविउ, फल लींबोली दीध. १२ अहे पोस मासि जउ प्रिय मिलइ, तउ मनवंछित होइ, भणइ राणी राइमइ, नेमि न मेलइ कोइ. १३ अहे करंडी कीधउ मई वहिउ, वारू विसहर जाणि, द्रष्टि वंची मझ डसि गयउ, देखिति राणोराणि. १४ अहे माहि महारठ' टाढडी, गाढी लागइ भूख, नेह सालइ हीयडलइ, नेमि न जाणइ दूख. १५ अहे हरणा हेजिइं परिभमइ, पाखलिथी सवि वार, हरणउ हीइ कठोरडउ, वरते आक-मदार. १६ अहे फागुणि फाग म मूं गमई, दमइ ते मइण सरीरि, कामणगारो कंतडउ, गमइ ति सामल धीर. १७ अहे करहु सहिजि कुबुधीउ, मुह वाहइं करीरि, गली० द्राख परिहरी, कंटक लाइ सरीरि. १८ अहे चैत्रि न चेतइ कंतडउ, सवि फली ए वणराय, पाडल परिमल बहिकतां, मूरिख मेल्ही जाइ. १९ अहे कहीइ ईसर कूडिओ, गंगा वहइ सिरि कीध, तिहि पाहि तूं आगलउ, दाह अधिकेरडउ दीध. २० अहे वैशाखे लूअ वाइसिइ, परबत ऊपरि नाह, आगई दुक्खि दिन नीगमई, एअ अधिकेरउ नाह[दाह]. २१ अहे बारह मासह माहिलउ'', जेठ वडेरु होई,१२ । पभणई राणी राईमइ, नेमि न मेलइ कोई. २२ अहे क्रिष्ण भणई सुणि राइमई, मिलिसीइ तोरउ सामि. अष्ट भवंतर प्रीतडी, सिद्धिहि ऊपठामि, २३ अहे जाणुं यादव कूडीउ, हुं आगइ मनमाहि, सोल सहस गोपीधणी, मइ वातडीय'३ म वाहि. २४ ४. ख. सजन. ५. ख. सर. ६. ख. धंतूरा. ७. क. वसिइं. ८. ख. मासि वाइ. ९. क. चरते. १०.क.फली. ११.ख. माहि मूलगु. १२. क. जेठ वडे वर होइ, १३. ख. मूरख तेडी. Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं.१५३५मां लखायेला प्राचीन काव्यो ६५७ अहे तप जप संजम आदरी, कीधी निरमल काय, नेमि पहेली राइमइ, इम बेठी१४ शिवपुरि जाइ. २५ अहे राजमति(?) सिउं राइमइ, पुहूती सिद्धि-शलाय. डूंगर स्वामी गाइतां, अफल्यां फलइ ताह.१५ २६ - इति श्री नेमिनाथ फाग समाप्त:. छ. ४. सोमसुंदरशिष्यकृत नवकार महामंत्र गीत [देशाईए ‘उदयवंत'ने कृतिना कर्ता गणेला परंतु 'उदयवंत' ए नवकार महामंत्रविशेषण होय अने कर्ता तपगच्छना सोमसुंदरसूरिना शिष्य होय एवो संभव छे. एटले एमनो समय सं.१५मी सदी उत्तरार्ध गणाय. कर्ता-कृति आ संदर्भने आधारे जैन गूर्जर कविओ भा.१ पृ.१५५ तथा गुजराती साहित्यकोश खं.१ पृ. ४७६ पर नोंधायेल छे. – संपा.] अक्षर सपत जपत पदि पहिलइ, बीजइ बीजक पंच, त्रीजइ सात, सात चउथई, द्रव नव पंचमइ प्रपंच. १ सुगुणी गुणीइ नवकारो, चउदह पूरव सारो, नव पद संपद आठ आठसठि अक्षर अक्षर कारो. आंचली. छठई सिउं सातमइ आठमइ, पदि अक्षर आठाठ, नउमइ नव विध एवंकारइ, अठसठि अक्षर पाठ. २ सुगुणी. अठदल कमल हृदय जप जपीइ, खपीइ आठइ करम, धुरिलइ पदि विद्याधर विद्या, नाणी जाणइ मरम. ३ सुगुणी. समली-असमलि आवि हार, भरूअच्छि सहु कोइ जाणइ, नउकार लगइ नाग नागपति, नागलोकि सुख माइई. ४ सुगुणी. पलिंद पलिंदी नउकार गुणतां, कुणतां वनि मुनिसेव, राज भोगवी राजसिंघ नइं, रतनवती थ्यां देव. ५ सुगुणी. मारीते अशोकशेखरि, ए समरिउ मंत्र पवित्र, तं निसुणी रणि वीरसेन तीहं, शित्र फीठी थ्यउ मित्र. ६ सुगुणी. थावर जंगम विषम महा विष, गरड स गरुड समाणु. ७ सुगुणी० महेसरी-घरि परणी तुरणी, श्रावक कुलनी बाला; नउकार वडइ घडइ थिकु थ्यउ, सरप पुप्फमाला. ८ सुगुणी. सेठि तणा बेटानइं भेटिउ, ठगवा एक पाखंडी, नउकारि करी सो सोनानु, पुरसउ भयउ त्रिदंडी. ९ सुगुणी. १४. क. राखे. १५. ग. पहेली कडी पछीनी वधारानी कडी अहीं पण छे. Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह जे फल तावडि कावडि लीधे, अठसठि तीरथ कीधे, तेहतु आठ गणउं एह आठसठि वरणे करणे पीधे. १० सुगुणी० भगति-संत्र[संग] ए मंत्रराज जे, विधिपूरव आराधइ, लाख जाप-ते पाप पखाली, तीथंकर-रिद्धि साधई. ११ सुगुणी. नव अंगे नवपद नवकार, नवग्रह-विग्रह वारइ, अभिनव वयर-पंजर सर-रक्षा, नवभवमाहि शिव कारइं. १२ सुगुणी. ए नउकार अखर अपूरव, आलमाल झणी जाणउ, पूरवधर गणधर ए ध्याइं, सकल मंत्रकउ राणउ. १३ सुगुणी. परमब्रह्म पांचई परमिट्टी समरिइं चमरई पाव, किं बहुणा सुरतरु चिंतामणि, नवनिधि अधिक प्रभाव. १४ सुगुणी० तपागच्छनायक गुरुआ, सोमसुंदर गुरूराया, तास पसाइं उद(य)वंत ए, परम मंत अम्हि पाया, १५ सुगुणी. - इति श्री नउकार महामंत्र गीतं. छ. ५. करमसीकृत वैराग्यकुल [कर्ता-कृति आ संदर्भने आधारे जैन गूर्जर कविओ भा.१ पृ.१५५ तथा गुजराती साहित्यकोश खं.१ पृ.४६ पर नोंधायेल छे. – संपा.] जीव तणी गति जोई ए, हियलइ कांइअ न थाई रे, करमबंधनि जीव अवतरइ, कर्मनिबंधउ जाइ रे. १ अजीअ न चेतइ कांई, जीवडा, एवडा भ्रमण न जई...रे, सुगुरुवचन काने सांभलां, सांभला काई इम हारि रे. २ आंचली. अरे जीव, ताहरउ कोइ नथी, तं कहिनउ नथी जाणि रे, घडीइं वरसा सउ पुहचिसिइं, हुइसिइ हाणिविहाणि रे. ३ अजीअ० चउरासी लाख जाति जीव तणी, अनंतगणी वार जोई रे, भमत-भमत भव पामीउ, हव न करई कसधोइ रे. ४ अजीअ. पुदगलपरावर्त तइं करियां, भरियां राज असंख्याती वार रे, तहुअ न तुझ धर्म सांभरइ, आवागमण दुख सार रे. ५ अजीअ. मास दस गर्भवास तणा, ते दुख काइं न संभारई रे, नरग सातईं जिहां एकठा, ते दीठा लख वार रे. ६ अजीअ. गर्भवास-तउ वछूटउ पणि एतलउं करउं, वली न आवउ तिम समाचरउं रे, पाप-पवन सिरि प्रवेस हूउ, तेतलई तुझ कांईं वीसारउ रे. ७ अजीअ० Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं.१५३५मां लखायेलां प्राचीन काव्यो माहरउ ताहरउ ही[य]डइ छइ, खत्र-अखत्र कांइ न जाइ रे, मरीअनइ जासिइ एकलउ, आपणपउं कां विगोअइ रे. ८ अजीअ. पांचइ इंद्री वसि करजे, च्यारि कषाय किम दमेसि रे, जउ तुं संजम न पलइं, तउ गुरुपाए अणुसरे. ९अजीअ. पाणी जाणी राखिजे, राखे बहु गुणायइ रे, जउ तुं मेलिसि मोकलउं, अवगुण अंगिअ न माइं रे. १० अजीअ. मनसा दृष्टि बि बहनडी, एकई एक जि जाणि रे, वाचा तेह घरि दासडी, ए राखे निरवाणि रे. ११ अजीअ. संसारसागर माहि मोहगिरि, काम क्रोध लोभ कषाय रे, अभंग जिनधरम बेडली, सुगुरु-सुरति सुवाय रे. १२ अजीअ० कूड कपट दूह वंचपणउं, तेह तणा फल देखि रे, कुष्टी कुबज नई पांगला, अंध वली वसेखि रे. १३ अजीअ. धन जोवन सुख तां लगइं, जां हुइ पोतइ पुण्य रे, तेहय पुण्य विहूणडा, केता दीसई विक्रम रे. १४ अजीअ० जोतां सर्व अनंत दीसइ, दीसइं जिनधर्म सार रे, करमसी भणइ अरे जीवडा, दुधर छांडेवउ भवभार रे. १५ अजीअ. - इति वैराग्यकुलं. छ. ६. शांतिसूरिकृत शत्रुजय भास [कर्ता-कृति जैन गूर्जर कविओ भा.१ पृ.१५५ तथा गुजराती साहित्यकोश खं.१ पृ.४२८ पर नोंधायेल छे. ला.द. भारतीय संस्कृति विद्यामंदिरनी हस्तप्रत क्र. (भेट) ८२८५/ १५ने आधारे अहीं पाठशुद्धि करी छे. एने 'ख' तरीके ओळखाववामां आवेल छे. - संपा.] करि कवि-जणणि पसाउ, ए, हमइ सरसति सरस ति दई मूं वयणलां ए, गायसु तीरथराउ, हमइ ज सेतुज सेतुज भवसायर तणउं ए. १ नाभि नरिंद मल्हार, हमइ निसि[दि]नि निसिदि]नि घडीय न वीसरइ ए; ऊमाहडउ अपार, हमइ अलजउ अलजउ एगि न ऊतरइ ए. २ जाणूं ऊडी जाउं, हमइ गिरिवरि गिरिवरि सिहिरि सोहामणइ ए; रिसहेसर गुण गाउं, हमइ अहनिसि अहनिसि' एह ज मू रली ए. ३ आंबलडा-रस कोइ, हमइ कोइलि कोइलि-मन लागी रहूं ए; जे पाणि लहइं न सोइ', हंमइ तोइं न तोइ न जोइ न सामहूं ए. ४ १. ख. उलट उलट, २. ख. जई पुण रसोइ. Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह मानसरोवर माहि, हंमइ जे जलि जे जलि निरमल नाहीइ ए; अवर भलेरडइ ठामि, हमइ ते किम ते किम हंस रमलि करइ ए. ५ केतकि परिमल केति, हंमइ जोइ न जोइ न वनफल फूलडां ए; ए रस नत्थी अनेत्थि, हमइ भूलि म भूलि म भोला भमरला ए. ६ जलहर तणउ सजाण, हमइ पाणीय पाणीय चातकि चाखिउं ए; सरवर नदी निवाणि, हंमइ चांच न चांच न वाहइ आपणी ए. ७ जे सेतुंज गिरि जाइं, हमइ जगगुरु जगगुरु रिसह जुहारिवा ए; कहि किम तीह सुहाई, हंमइ तीरथ तीरथ चिंति अनेरडं ए. ८ आदिल अवली रीति, हमइ सगपण सगपण केरी ताहरई ए; आप वसइ मझ चिंति', हंमइ मू पण मू पण थाहर नवि दीइ ए. ९ तुह मुह-दरसण रेसि, हंमइ हूं हिव हूं हिव हऊअ ऊतावलउ ए; कहींइ पसाउ करेसि, हंमइ दरसण दरसण दाखि-न आपणउं ए. १० दूरि थिकउ नही दूरि, हमइ जइ किम जइ किम ऊजम ऊपजइ ए; इम बोलइ शांतिसूरि, हंमइ सेतुज सेतुज हइ घरि आंगणइ ए. ११ - इतिश्री सेतुजय भास: समाप्ता:. छ. संवत १५३५ वर्षे तुरओद महानगरे, अभयप्रभगणिना लिखितं एकाहारी भूमिसंस्ता(र)कारी, पद्भ्यां चारी शुद्धसम्यक्त्वधारी, ___ यात्राकाले सर्वसचित्तपरिहारी, पुण्यात्मा स्यात् सक्रियो ब्रह्मचारी. १ षट् री श्लोकः. श्री संघस्य शुभं भवतु. छ. [जैनयुग, अषाड-श्रावण १९८६, पृ.४७३-७७] ३. ख. मुगति. ४. ख. जइ किल जइ किल. Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६१ विनय(?)कृत नेमिनाथ द्वात्रिंशिका (एक अपभ्रंश काव्य.) [काव्यान्ते कदाच श्लेषथी 'विनय' कर्तानाम सूचवायुं छे. आ विनय कोण छे ते नक्की थई शकतुं नथी. – संपा.] सयल जग ललिय लावन्न सोभावहं, नमवि सिरि नेमिजिण-पायपंकयमहं; थुणवि तसु चरिय बहु भत्तिभर पूरिउ, मण वयण काय आणंदि अंकूरिउ. १. नाण विन्नाण घण झाण सण गुणा, करण दम चरण परिचरण धी धारणा; सयल फलवंत किर होई भवियण जणे; तात, तुह थुणण-रस-रसिय भवियण भणे. २ अय[प?]र तेतीस अवराजिए सुरभवो, करिय सोरियपुरे समुदविजयाहिवो; तत्थ सिवदेवि-कुक्खसि उववन्नुउ, तिहुयणाणंद सोहग्ग-संपुन्नउ. ३ मासि सावण सिए पंचमी वासरे, नाह, तुह जम्म जगि मिलिय सचराचरे; दस कुमरिय सुईकम करइ रोमंचिया, __ सुरसेलि ईंदाइ आणंदिया. ४ पूनिमाचंद जिम नयण-आणंदिणो, संख-लंछण-चणो जणिय जगि रंजिणो; रूव-लावन्न-बलि कुणइ नहु नामिउ, रमइ रामेण गोविंद सिंउं सामिउ. ५ मयण भड भूरि भडवाय भर भंजणो, संख सद्दिण जरासिंधुबल गंजणो; वाम भुयदंड हरि हेलि हिंडोलणो, धरिय धीरिम धरा मेरू गिरितोलणो. ६ न्ह Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह भोग भंगी भुजंगी पुरी वज्जणो, सामितणु विमलतणु सिरि सिवानंदणो; ललिय गय ललीय मई ललिय संवर धरो. तिन्नि सई वरिस धरि रहिउ नेमिसरो. ७ मिलिय जदवंस नरनारि रंजणकए, रासयविच्छड्डि वीवाह वरि चल्लए; पसूय घण पिखि करूणापरो वलियउ, सुरभि केणावि कि बंधणे कलियउ. ८ समय जाणेवि लोगंतीया आगया, नमवि सिरि नेमि जिण विनवइ देवया; धम्म वर तित्थ जगिनाह तुम्हि पयडीउ, सूरि जिम मोह-अंधारउ फोडउ. ९ तणु जिण वरिस दिण दाण देइ करी, मायपिय राणु पहु अणुमयं अणुसरी; परम संवेगरस-रसिय साहसपुरो, बारई मज्झि मझेण जिणेसरो. १० मिलिय सुर असुर नर कोडिकोडी गुणा, जयजयकार भरि करइ जिणवरगुणा; मास सावणि सीए छठि दिणि सामीउ, चडिय रेवंतगिरि नेमि शिवगामीउ. ११ रामयई रामयइ रहियउ, सहस सहकार वण सहस जण सहियउ; लेई संजम सिरि नेमि जिणेसरो, छठि तपि किन्नरा सामि परमेसरो. १२ निय मनि कसाय संसार सिवसम-मणो, बीय दिणि वहिय वरदत्त घरि पारणो; दस दिसागत बहु जंत रक्खणकए, नेमि जिण धणुह दस माण करि सोहए. १३ मास आसोय अमावसी सुहदिणे, दिवस चउपन्न हणिय चूरि भवरिउगणे, Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनय (?)कृत नेमिनाथ द्वात्रिंशिका परम त्रिन्नि उववास करि दिक्खाणं ठिउ; संवेग केवलसिरिं वरियउं. १४ सयल सुरवर सयल सुरवर मिलिय बहु भत्ति, आणंदिय उल्हसिय मणि समवसरण निम्मवई बहु परि; सिंहासणि सिंह जिम नेमिनाह उववसईं तिहि गिरि, जयजयकार समुहसियउ वदंसीय जिणधम्म; सो जन वाणिय अमिय जिम सामिय महिमारंभ. १५ धम्मदेसण सु मुणीय भवजं भयं, केवि चारित मह केवि सावयवयं; केवि सम्मत गिण्हवि उत्तमतमं, नेमि जिण पासि गुरूभावि वासिहि समं. १६ सहस अढार सहहत्थ मुणि दिक्खिया, सहस सेवापरा; च्यालीस साहु सयं नम्मिया; गुण सहस • लक्ख ईगु सहस छत्तीस सय लक्ख तिनि नमि सं सुर असुर नारी नरा, विन्नवई नाह तुह पाय उल्हसि भत्तिभर भरिय मण-मणोरह भणउं नाह चिर देव भवारिगण जेउ तुम्ह तेह हउं जित्रु छउ नाह तुह करिय सेवक दया पसुय जिम हाव रोमंचिया, बंधाउ सावया, सावीया. १७ संचिया. १८ जित्तउ, भत्तउ; सामिउ, गोसामीउ. १९ कम्म अनंत पुग्गल फिरिय चउद रज गोचरे, जीव चउरासी लक्ख ठाणंतरे; तिरिय गई मणुय गई नरय गइ सुर गइ, तुम्ह दंसण विणा दुक्ख मई अणुहई. २० नेमि जिणवर नेमि जिणवर मोह- माहप्पउं, हीणउ दीणमणु चउ कसाय विषयह विगंजिय; मित्थत्त गहगण कलिउ कोडि रूव पाखंड रंजिय, ६६३ Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह कुगुरू कुदेव कुतित्थ कुल, कोडाकोडि भमंतु, तुह सरणई होई करि, हिव हूउ निश्चिंतु. २१ नयण मणि वयण तणु अमीयरस-रसीयउ, देवतरू धेणु मणि कुंभ करि वसीयउ; जम्म मह दिवस मह पुण्यतरू फलियउ, अज्ज रेवंतगिरि तुम्ह जउ मिलियउ. २२ वयगहण नाण सिवठाण ईह पामिउ, तत्थ गिरि चडवि मई तुम्ह सिरि नामिउ; धरिय गरूअडि धणी सार हिव किज्जए, एगदुन्न वि सवे मम वए दिज्जए. २३ कमलदल भमर जिम लीण छउं तुम्ह पए, एग संवासि हिव वास दिई सिव-पए; रिद्धि बहु माण दाणेण सामी सयं, करइ गुरू आजउ निय समं सेवयं. २४ गयण ठिय करइ रवि कमल पडिबोहणं, दूर ठिय तुज्झ ज्झाणेण तिम सोहणं; गुरूय रेवंतगिरि सोवि सिवदायगो, भेटिउ कटरि महपुन्न नरनायगो. २५ धन्न वासर धन्न वासर अज्ज मह नाह, मिइ रेवयगिरि चडिय नेमिनाह नयणेहिं दिठउ, अइ फलिउ पुनतरू अमिय मेह मह देहि वूठउ; तुह गई तुह मई तुह जि गुरू, तुह सामिय तुह देव, तिम करि हिव जिम होइ मम भवि भवि तुम्ह पयसेव. २६ मयण जिण जित्त जगजंतु जगदंतरे, सोवि मोहेण संहणिय हेला भरे; एह माहप्प तुह सयल जगि गज्जए, जगह दुज्जण जए कवण नह छज्जए. २७ वय प्राहण जिणभुवण बिंब बहु सुंदरो, संब पज्जुन अवलोय सिहरोवरो, गईंदमय कुंड कंचणबलाणाजुउ, अंबिका पमुह बहु ठाण कंचणमउ. २८ Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनय(?)कृत नेमिनाथ द्वात्रिंशिका ६६५ एहु रेवंतगिरि सुकय जण सल्लहो, तित्थ तियलोयगुरू नेमि जगिवल्लहो, नमिय मणरंगि गुणरंगि तसु थुणियउ, वरस ए मास दिण धन्न करि मुणीयउ. २९ नाह लद्धउ नाह लद्धउ मणुअ-भव एह, कुल निम्मल सुगुरू गुरू वीतराग जिणधम्म संजम, तुह दंसण पूयण न्हवण गुणह गान गिरनार उत्तम, इत्तिय चडिउ ईक्क हिव हत्थालंबण देहि, जिम हेलाई हउं चडउं, अइ गुरूअइ सिवगेहि. ३० पुहवि पूरिय पुहवि पूरिय सयल वरिसाउ, सिरि रेवयगिरि चडिय नाण ठाण मासोपवासिहि, आसाढ अठमि रयणि धवल पखि मुणिगण विभासिय, पंच सया छत्तीस सउं उम्मूलिय भवकंद, सोहगसुंदर सिद्धिपुरि, पत्तउ नेमि जिणंद. ३१ इय नेमिजिणवर भवणदिणयर वासुदेव नमंसिउ, गोमेध अंबिक जक्ख जक्खिणि विहिय सासणि संसिउ, इगवीस ठाणि सुद्ध झाणिहिं विनय भत्तिहिं संथुउ, जगि जणीय रीजं बोधिबीजं देहि वंछिय पूरउ. ३२ - इति श्री नेमिनाथ द्वात्रिंशंका स्तवन. [जैनयुग, वैशाख १९८५, पृ.३७५-७६] Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६ अज्ञातकृत सीमंधर स्वामी स्तोत्र ( अपभ्रंशमां.) नमि नमि सुर असुर नर वंदि वंदी पयं, रयणिकर-करनिकर-कित्तिभरपूरियं, पंच सइ धणुह परिमाण परिमंडियं, थुणह भत्तीइ सीमंधरसामीयं. मेरूगिरिसिहर धयबंधणं जो कुणइ, गयणि तारा गणइ, वेलुआकण मुणई, चरमसायरजले लहरिमाला मुणइ, सो वि तुह सामि न हु सव्वहा गुण थुणई. २ तहवि जिणनाह निय जम्म सफलीकए, विमल सुह झाण सिद्धाण संसिद्धए, असुहदल कम्ममलपडल निन्नासणं, तात, करि वाणि तुह संथवं बहुगुणं. ३ मोहभर बहल जलपूरि संपूरिये, विषय घण कम्म वणराज संराजीये, भवजलहि मझ निवडंतु जंतूकए, सामि सीमंधरो पोय जिम सोहए. ४ तेय-भर-भरिय दिसि-विदिस गयणंगणो, पबल मिच्छत्त-तम- तिमर विध्वंसणो, भवियजण कमलवणसंड बोहंकरो, सामी सीमंधरो दिप्पए दिणयरो. सुजण-मण-नयण आणंद संपूरिकं, दुरितहरता - रता रूकमणीनायकं, सयल जगजंतु भवपापतापापहं, नमजं सीमंधरं चंद-सोभावहं. सुरभुवणि गणि पायालि भूमंडले, नयरि पुरि नीरि निहि मेरूपव्वयकुले, देवदेवीगणा नारि नर किंनरा, तुम्ह जस नाह गायंति सादर - पुरा. ७ नाणगुण ज्झाणगुण चरणगुण मोहिया, सार- उवयार-संभार... सोहिया, रयणि दिणहरि सि वसि सुत्त जागर मणा, तात, तुह नाम झायंति तिहुयण-जणा. सिद्धि कर बुद्धि करि रिद्धि करि संकरा, विषयविष अमीय भरि सामि सीमंधरा, पुव्वभावविहिय वर पुन्नचय पामिया, राखि हिव भूरि भवभमण सामीया. ९ कंम्म-भर- भार संसार अइ भग्गउ, घणउं फिरिऊण जिण, पाय तुह लग्गउ, मज्झ हीणस्स दीणस्स सिव गामीया, करवि करूणार संसारू करि सामीया. १० कठिन हठ घाय तिरिय तणे ताजीओ, नरय गइ करूण विलवंत नहु लाजीयओ, मयण गयहीण परि कम्मवसि पडियओ, लागि तुह चरण आणंद हिव चडियओ. ११ केवि तुह दंसणे देवि सिव साहिगा, केवि वाणी सुणी चरण भवमोहिगा, भरहखित्तंमि हउं ज्झाणि छउं लग्गओ, देहि आलंबणं नाह, जइ जग्गओ. १२ धन्न ते नयर जिहि सामि सीमंधरो, विहरए भवियजण - सव्व-संसयहरो, कामघट देवमणि देवतरू फलीयओ, तीह घरि जीहरइ सामि तुह मिलीयओ. १३ 9 ५ ६ て Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञातकृत सीमंधर स्वामी स्तोत्र ६६७ करजुयल जोडि करि वयण तुं निसुणिसो, बाल जिम हेल दे पाय तुम्ह पणमिसो, महुर सरि तुम्ह गुणगाहण हउं गाइसो, निय नियण रूव रोमंचियं जोईसो. १४ तुम्ह पासे ठिओ चरण परिपालिसो, हणीय कम्माण केवलसिरि पामिसो, तुम्ह जिण नियई करू सिरसि संठविसउ, सो वि कईया वि मू होइसई दिवसउ. १५ भरहखित्तंमि सिरि कुंथु-अरू अंतरे, जम्म पुंडरगिणी विजय पुखल वरे, मुणिसुव्वइ तित्थि नमि अंतरं अहिजुया, रज्ज सिरि परहरवि गहिय संजम तया. १६ हणिय कम्माणि लहु लद्ध केवलसिरी, देहि मे दंसणं नाह ! करूणा करी, भाविए उदय जिण सत्तमे सिव गए बहुय कालेण सिद्धिं गए सामीए. १७ मोह(भ)र मानभर लोभभर भरियउ, दंभभर रागभर कामभर पूरिउ, एह परि भरहखित्तंमि मूं सामीया, सार करि सार करि तारि गो-सामीया. १८ भोगपद राजपद नाणपद संपदं, चक्कपद ईंदपद जाव परमं पदं, तुज्झ भत्तीयं सव्वंपि संपज्जए, एह माहप्पु तुह सयल जगि गज्जए. १९ तुहि ज गति तुहि ज मति तुहि ज मम जीवनं, तात तूं परम गुरू कम्ममल-पावनं, कम्म करि विणय वर जोडि करि वीन, देहि मे दसणं अलजया अभिनवं. २० ईय भुवणभूषण दलियदूषण सव्व-लक्खण-मंडणो, मदमानगंजण मोहभंजण वामकामविहंडणो, सुररायरंजण नाणदंसणचरणगुणजयनायगो, जिणनाह भवि भवि तात ! भव मे बोधिबीजह दायगो. २१ - इति श्री सीमंधर स्वामि स्तोत्रं समाप्तम्. (मारी पासे.) [जैनयुग, भाद्रपद १९८५थी कार्तिक १९८६, पृ.५६-५७] Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८ अज्ञातकृत महावीर स्तोत्र (अपभ्रंशमां एक अतिप्राचीन काव्य.) धरि सिद्धह जाउ जिणु, चउवीस वंउजु [वंदउ] वीरु, सो पणमतहं भवियजण (भवियाण), सीयलि होइ सरीरु. १ जसु कारणि संगम सुरउ, पडियउ भवसंसारि, पणमउ वीरु मरइ करहु, मूढा घरवावारि. २ अवइन्नउ पुप्फुत्तरह, सामिउ चरिम जिणिंदु, माहणकुलि कम्मह वसिण, चिंतइ एव सुरिंदु. ३ आणसिं सेणाहिवई, कुंडग्गामि जाएवि, तह गब्भह अवहरिउ जिणु, तिसलह उरि भिल्लेवि. ४ सामिय तुह अच्छेराई, महियलि हुवां वियारि, पुव्व क्किय कम्मह वसिण, णवि छुट्टइ संसारि. ५ सहि पहिलं गब्भहरणु, -पुण उवसग्ग सयाई, वीरह पढम समोसरणि, न पडिबुद्धउ कोइ. ६ चंद-सूरस्स विमाण तहिं, सहुं सपरियणि अवइण, अइसइवंतह जिणवरह, पणमेइ पाय सुरिंदु. ७ णव मासिहि अठ्ठह दिणिहिं, जायउ तिहुयणिणाह, पसविय सिद्धथ्यह घरणि, भवणि महुच्छउ जाउ. ८ हरिणगवेसि लइउ जिणु, तिसलइ सोयणि देवि, सकि उच्छंगि णिवेसियउ, मेरुसिहरि जाएवि. ९ पिखिवि बालउ लहुयतणु, चिंतइ एव सुरिंदु, केंव सहिसइ जल-णिवहु, एक्ककाउ णिवडंतु. १० चलणांगुलई मेरु पुणुि?]णु, जाणिउ सक्कह भाउ, बालत्तणि संचालियऊ, चिंतइ णिय मणि राऊ. ११ पेखिवि बालु अणंतबलु, आसंकिउ सुरिंद, दुटु दुठु मइ चिंतियउ, पुणु पुणु णमइ सुरिंदु. १२ जिणह करावितो मज्जणउं, पुणु जणणिहिं परिणेवि, सुरसाईं परितुठिण, वीर णउं तसु देवी. १३ Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६९ अज्ञातकृत महावीर स्तोत्र तीस संवछर देव तइ, रायला परिमुत्त, पडिबोहिउ दिक्खा समइ, लोगंतिय संपत्त. १४ एकु जसोया वल्लहिय, अनु पियदंसण धूय, णिग्गउ मिल्लिवि रायसिरि, वीर दिक्ख लइय. १५ सुरराइं विणत्तु जिणु, तुहुं तव चरणु चरेसि, अइदारुण उवसग्गु तहिं, बारह वरिस सहेसि. १६ हउं अच्छऊ तुह पायतलि, तुहु परिचतु निसंगु, संगम कहइ इवं ताह, जिंह ऊभंजउ मग्गु. १७ तो बोलेइ तियलोयगुरु, इंद, ण होसइ एव, अन्न निसाइ नाइं जिउ, कम्मु खवेसइ एउ. १८ सहसनयणु सोहम्मि गउ, जिणु विहरेवइ लग्गु, सामिउ तहिं पविसणु करइ, जहिं देखइ उवस्सग्गु. १९ अण वार परमेसरइ, पाइहि रद्धी खीरि, गोयालिंआ रुटेण, सा अहियासेय वीरि. २० परमझाणु झायंताह, तहिं आईउ आहीरु, बलद भलाविय जिणवरह, ते नवि जोयउ वीरु. २१ अप्पणु चारिं ते गया, पुणु आइउ आहीरु, पुछइ बलद कहिं गया, उत्तर देह ण वीरु. २२ सा आरुठ्ठउ निय मणिण, लेविणु खयर-सलक्ख, कंन्ने खोट्टेय जिणवरह, आहीरिं निभिच्च. २३ कंन्ने खिल्ला खोट्टणिहि, वेयण जाइ महंत, सो अहियासइ वीर जिणु, मणु ण चलइ नहमत. २४ भारं सहस्स चक्क सिला, संगमकई पभित्त, सरिसवमित्तु ण मणु चलिउ, जंतु जाणु महि खुत्तु. २५ जिणु रयणी एकइ समइ, वीरु सहइ उवसग्ग, ते अहियासिय वीर जिणि, छिन्निवि चउगइ-मग्गु. २६ पापकम्म खोडेवि जिणु, पुणु उप्पाडिउ नाणु, जोयालोय पयासियउ, · चउदह रज्जु प्रमाणु. २७ बारह जोयण वहवि गउ, मगहा गोबर गामि, देविहि रइउ समोसरणु, तहिं उवविठ्ठउ सामि. २८ Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह एगारह गणहर जिणह, अणइ चारि सहस्स, चउहि सएहि समग्गला, वीरि दिक्खि कय सीस. २९ पूर मणोरह जिणवरह, लद्धऊ गोयमु सीसु, बोहिवि मेइणि भवजलहि, सासय सुह संपत्तु. ३० - श्री महावीरस्तोत्रं समाप्त. शुभं भवतु. [जैनयुग, चैत्र १९८४, पृ.२९५] Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७१ अज्ञातकृत तीर्थमाला स्तव सद्भक्त्या देवलोके रविशशिभुवने व्यंतराणां निकाये, नक्षत्राणां निवासे ग्रहगणपटले तारकाणां विमाने; पाताले पन्नगेंद्रस्फटमणिकिरणध्वस्तसांद्रांधकारे, श्रीमत्तीर्थंकराणां प्रतिदिवसमहं तत्र चैत्यानि वंदे. वैताढ्ये मेरुशृंगे रुचकगिरिवरे कुंडले हस्तिदंते, वक्षारे कूटनंदीश्वरकनकगिरौ नैषधे नीलवंते; चित्रे शैले विचित्रे यमकगिरिवरे चक्रवाले हिमाद्रौ, श्रीमत्० श्रीशैले विंध्यशृंगे विमलगिरिवरे अर्बुदे पावके वा, संमेते तारके कुलगिरिशिखरेऽष्टापदे स्वर्णशैले; शय्याद्रौ चोज्जयंते विमलगिरिवरे गूज्जर रोहणाद्रौ, श्रीमत्० आषाढे मेदपाटे क्षितितटमुकुटे चित्रकूटे त्रिकूटे, लाटे नाटे च घाटे विटपवनतटे देवकूटे विराटे; कर्णाटे हेमकूटे विकटतरकटे चक्रकूटे च भोटे, श्रीमत्० श्रीमाले मालवे वा मलयतिनिखले भेखले पिच्छले वा, नेपाले नाहले वा कुवलयतिलके सिंहले मेखले वा; डाहाले कौसले वा विगलितसलिले जंगले वा तमाले, श्रीमत्. अंगे वंगे कलिंगे सकलजनपदे सत्प्रयागे तिलंगे, गोडे चोडे सुरंध्रे वरतरद्रविडे उद्रयाणे पुरंद्रे; आद्रे सुद्रे पुलंद्रे द्रविडकुवलये कन्यकुब्जे सुराष्ट्र, श्रीमत्. चंपायां चंद्रमुख्यां गजपुरमधुरापत्तने चोज्जयिन्यां, कौशाम्ब्यां कोशलायां कनकपुरवरे देवगिर्यां च काश्यां; नाशिक्ये राजगेहे दशपुरनगरे भदिले ताम्रलिप्त्यां, श्रीमत्. स्वर्गे म] तरिक्षे गिरिशिखरनदे स्वर्नदीनीरतीरे, शीलांके नागलोके जलनिधिपुलिने भूरुहाणां निकुंजे; ग्रामेऽरण्ये वने वा स्थलजलविषमे दुर्गमध्ये त्रिसध्यं, श्रीमत्० इत्थं श्री जैनचैत्यस्तुतिमतिमनसा भक्तिभावं प्रपद्य, प्रोद्यत्कल्याणहेतु कलिमलहरणां ये पठंतीति शिष्टाः; Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह तेषां श्री तीर्थयात्राफलमिदमतुलं जायते मानवानां कार्यं सिद्ध्यंति सद्यो भवति हि सततं चित्तमानंदकारि, श्रीमत्तीर्थंकराणां प्रतिदिवसमहं तत्र चैत्यानि वंदे. - श्री तीर्थमालास्तव: सं.१९७४ वर्षे माह वदि ७ दिने श्री खीमेल नगरे पं. कुशलरुचिणा लिपीकृतं. [जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स हेरल्ड, एप्रिल-जून १९१८, पृ.१६६-६७] Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७३ अज्ञातकृत विक्रमादित्यस्य शत्रुंजयादितीर्थयात्रा श्री सिद्धसेनदिवाकरप्रतिबोधितस्य विक्रमादित्यस्य श्रीशत्रुंजयादितीर्थयात्राविस्तरीयं - श्रीसंघे १४ नृपा मुकुटवर्द्धनाः, ७० लक्षा श्राद्धकुटुंबानां श्रीसिद्धसेनगणधरादयः, ५००० सूरीणां १६९ सौवर्ण देवालयाः, १ कोटि : १० लक्षाः ९ सहस्रमितानि शकटानां, १८ लक्षास्तुरंगमानां, ७६ शतानि गजानां एवं करभवृषभादिमानं ज्ञेयं. १ थिरापद्रे संघपति आभूः श्री श्रीमालज्ञातीय: पश्चिममंडलीकबिरुदं वहन् बभूव . यस्य यात्रायां ७०० शत देवालये, द्वादश १२ कोटिस्वर्णव्ययः प्रथम यात्रायां कृतः, ३ कोटिटंक्कैः सरस्वतीभांडागारे वर्त्तमानसर्वागमप्रतिरेका सौवर्णाक्षरा द्वितीया सर्ववर्त्तमानग्रंथप्रतिर्मस्यक्षरमयी, ३६० आत्मसदृशाः साधर्म्मिकाः कृताः, संघे ७०० महिषाः पानीयानयनाय, ७०० आचार्यपदानि कारितानि सूनेत- माद्रक्रूरग्रामयोः प्रासादौ सारु आर घाटमयौ कारितौ संस्तारक - दीक्षावसरे सप्त कोटी द्रव्यव्ययः कृतः सप्तक्षेत्रेषु. २ मंडपदुर्गे संघपति पेथडेन प्रथमयात्रायां ११ लक्षाः टंका रुपमयानां व्ययश्चक्रे, संघे ७० मनुष्याणां देवालयाः, ५२ मंडपगढे जिनप्रासादशतं तत्र चोपरि स्वर्णमयाः कलशा: कारिताः, श्रीधर्मघोषसूरीणां महोत्सवे ७२ सहस्र द्रव्यव्ययः कृतः भृगुकच्छे यो भांडागारमली लिखत्. ८४ प्रासादाः कारिताः, श्री गिरिनार महातीर्थे समकालमेव वेतांबर दिगंबर श्रीसंघः प्राप्त: श्वेतांबर दिगंबराणां परस्परं तीर्थविवादो जातः, संघपति द्वयस्यापि मध्ये य इंद्रमालां परिधास्यति तस्य तीर्थमिदमिति वृद्धबहुजनोक्तौ पेथड संघपतिना सुवर्णस्यैव ५६ घटीप्रमाणस्येंद्रमालापरिधापनं चक्रे तीर्थं च स्वकीयं कृतं येन श्रीधर्मघोषसूरीणां पार्श्वे परिग्रहप्रमाणं पूर्वं गृहीतं टक्कशतद्वयप्रमाणाभिग्रहे सति पुरुषभाग्यनि:सीमत्वमिति श्रीगुरुवचनेन लक्षत्रयप्रमाण द्रव्याभिग्रहो गृहीतः ततोप्यधिकद्रव्यप्राप्तौ देवगुरुयोग्यमिति नाम दत्तं द्रव्ये : ३ तस्य सुतो झांझणदेवः समजनि, तेन श्रीशत्रुंजय श्रीगिरिनार महातीर्थयोरेकैव ध्वजा दत्ता, तेन राजाधिराजा सारंगदेवस्य कर्पूरार्पणसमये राजा प्रसृतिविधानं कारित: ४ संप्रतिभूपेन सपादकोटिप्रमिता जिनप्रतिमाः कारिताः, सपादलक्षमिता जैन प्रासादा: कारिताः, सिंधुदेशमध्ये मरोटग्रामे ९५ सहस्र प्रतिमाः पित्तलमया अद्यापि संति, ७०० सप्तशतानि दानशालायां येन स्वकीय वंठाः साधुसमाचारी शिक्षयित्वा साधुवेषेण सर्वदेशमध्ये प्रथमं प्रेषिताः, पश्चात् सत्यसाधवः, ३६ सहस्र प्रासादा नवीनाः अन्ये Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह जीर्णोद्धारश्च बहवः कारिता:, बहुविस्तरपूर्वं रथयात्राश्च. ५ श्रीपत्तने श्रीकुमारपालेन पितुस्त्रिभुवनपालप्रासाद: कारित: ७२ देवकुलिकायुत:, २४ रत्नमया: २४ पित्तलमया २४ रुप्यमया १४/१४ भारमया मुख्य प्रासादे १२५ अंगुलप्रमाणारिष्टरत्नमयी प्रतिमा कारिताः, तत्र द्रव्यव्यय: ९६ लक्षप्रमाण सर्वत्र स्वर्णमयकलशा: प्रासादे. ६ आंबडमंत्रिणा मंगलदीपावसरे ३२ लक्षादीनराणां याचकानां दानं दत्तं. तथा श्रीवस्तुपालेन स्वर्णमय लक्षटंकां आरात्रिकाद्यवसरे याचकानां दत्ता. खीजावसरे सोमेश्वरेणोक्तमिदं काव्यं - इच्छासिद्धिसमुन्नते सुरगणैः कल्पद्रुमैः स्थीयते, पाताले पवमानभोजनजने कष्टं प्रनष्टो बलि:. नीरागानगमन्मुनीन् सुरगवी चिन्तामणिः काप्यगात्, तस्मादर्थिकदर्थनां विषहृतां श्रीवस्तुपाल: क्षिती. काव्यं श्रुत्वा लक्षं ददौ. चक्रवर्ति श्री हरिषेण सर्वत्र सर्वत्र जिनप्रासादमंडिता पृथ्वी कारिता. नागपुरे सा देल्हासुत सा पूनड श्रीमौजदीनसुरत्राणबीबीप्रतिपन्नबंधुः अश्वपतिगजपतिनरपतिमान्योऽस्ति तेनाद्या यात्रा १२७३ वर्षे द्वितीया यात्रा सुरत्राणदेशात् १२८६ वर्षे नागपुरात्कर्तुमारब्धा. १८००० शकटानि, बहवो महीधरा: मांडलिक ग्रामासन्नो यावदायातस्तावत्संमुखमागत्य तेज:पालेन धवलकमानीत: श्रीसंघ: श्री वस्तुपालसंमुखमगात्. संघधूलीपवनानुकूल्यतायां दिशि याति तत्र तत्र गच्छति संघजनैरभाणि, इतो रज इतो रज इत: पादोवधार्यतां मंत्री इदं रज: पुण्यैः स्पष्टुं लभ्यते. अस्मिन् स्वे पृष्टे पापरजो दुरे नश्यति यत: - श्रीतीर्थपांथरजसा विरजीभवंति, तीर्थेषु बंभ्रमणतो नभवे भ्रमंति, द्रव्यव्ययादिहतरा: स्थिरसंपद: सुपूज्या: भवंति जगदीशमथार्चयंत:. १ [जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स हेरल्ड, एप्रिल १९१८, पृ.१६४-६६] Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७५ बे पादुकालेख १. विजयतिलकसूरि पादुकालेख - अहँ नम:. ए ९०. संवत्.१६७६ वर्षे फागुण सुदि २ दिने महाराजश्री सुरताणजी सुत महाराजाश्री राजसिंह युवराजश्री अषयराजजी विजय राज्ये श्री सीरोही वास्तव्यं प्राग्वाटज्ञातीय वृद्धशाखीय सकलमंत्रिशिरोमणि सा तेजपाल वस्तुपाल वर्द्धमान संघवी जयमल्ल सं. मेहाजल सं. वीदा नाना प्रमुख समस्त संघेण श्री तपागच्छ नायक श्री दिल्लीसुरत्राण प्रतिबोधक भट्टारक श्री हीरविजयसूरीपट्ट प्रभावक श्री दिल्ली सुरत्राण सभासमक्षं विजितानेकवादिवृंद भट्टारक श्री ५ विजयसेनसूरिपट्टोदयगिरिदिनमणि शुद्ध प्ररूपक सुविहितसाधुशिरोमणि भट्टारक श्री विजयतिलकसूरीणां पादुका कारिता, प्रतिष्ठिता च. भट्टारक श्री विजयाणंदसूरिभिः श्री तपागच्छ संघ वंद्यमाना चिरं नंदतात्. श्रियैस्तु. २. विजयाणंदसूरिपादुकालेख संवत् १७१३ वर्षे मार्गशीर्ष शुदि ३ रवौ महाराज श्री राजसिंहजी सुत महाराजा श्री अषयराजजी युवराज श्री उदयभाणजी विजयराज्ये श्री सीरोही वास्तव्य प्राग्वाटज्ञातीय वृद्ध-शाखीय सकलमंत्रिशिरोमणी मं. धर्मदास मं. धनराज प्रमुख विजयपक्षीय सकल संघेन तपागच्छनायक भ. श्री हीरविजयसूरिपट्टं प्रभावक भ. श्री विजयसेनसूरिपट्टोद्योतक शुद्धप्ररूपक भट्टारक श्री ५ श्री विजयतिलकसूरिपट्टोदयगिरिदिनमणि सकल सुविहित साधुशिरोमणि भट्टारक श्री विजयाणंद सूरीश्वराणां पादुका कारिता प्रतिष्ठाता च तत् पट्टधरैर्भट्टारक श्री विजयराज- सूरिभिः श्र तपागच्छ संधै वंद्यमाना. चिरं नंदतात्. श्रियैस्तु. [जैनयुग, भादरवो १९८५-कारतक १९८६, पृ.५८] Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ जैन धातुप्रतिमा लेखसंग्रह (१) __ (१. डिसेंबर १९२९ना नातालमां वसईरोड पासे अगाशीमां जवानुं थतां त्यांना जैन मंदिरमांथी, २. ता. २६-१-३०ने दिने जुन्नेर जतां वचमां तळेगांव थोडा कलाक ऊतरवार्नु थतां त्यांना मंदिरमांथी, ३. ता.४-३-३०ने दिने दमण थोडा कलाक रहेवानुं थतां त्यांना जैन मंदिरमांथी अमे धातुप्रतिमाना लेखो खास उतारी लीधा ते संवत्वार नीचे आपीए छीए.) १. अगाशीमां धातुप्रतिमा परना लेखो १. संवत्.१५१५ वर्षे श. प्र. रवौ. श्री श्रीमाल ज्ञातीय श्रे. पंचायण भा. राजू सु. वम भा. बाइ नाम्न्या आम(त्म)श्रेयसे श्री नेमिनाथ बिंबं पिपलगच्छे श्री धर्मसागरसूरिभिः प्रतिष्ठितं नवधेना [विधिना] काकरग्रामो. २. सं.१५१८ वर्षे माघ सुदि १० बुधे श्रीमाल ज्ञातीय ड्र सा ऊ (?) गोत्रे सं. लषमण भार्या लषमादे तत्पुत्र सं. झांझणेन भार्या मल्हाइ युतेन कारितं श्री आदिनाथबिंब प्र. खरतरगच्छे श्री जिनतिलकसूरिवरैः. शुभस्तु. ३. सं.१५३१ वर्षे माह वदि ८ सोमे श्री श्रीमाल ज्ञातीय भण. वाधा भार्या हर्दो सुत भ. वइरसी विका वइजा भ. वइरसी भार्या झांझू सुत लटकण म. श्री हर्षु श्रेयोर्थे श्री श्रेयांसनाथ बिंबं कारापितं श्री पूर्णिमापक्षे श्री मुनिसिंघसूरिणामुपदेशेन प्रतिहितं. श्रीसंघे...ल. ४. सं.१५३३ वर्षे वैशाख ३ प्राग्वाट ज्ञातीय वृद्धशाखा म. डूगर भा. भाठू पुत्ररत्न म. वीरमदेवेन भार्या आसू पुत्र पासवीर देवदास हि कुटुंब युतेन निजश्रेयार्थे श्री शंभवनाथ चतुर्विंशति पट्टः कारित: प्रतिष्ठित: श्री तपागच्छे श्री सोमसुंदरसूरिसंताने श्री लक्ष्मीगरसूरिभि: घोघा वास्तव्य. ५. सं.१५३६ वर्षे वैशाखे वदि ७ सोमे श्री श्रीमाल ज्ञातीय ठ. समरा भा. तेजू पातू सुत नरपालेन भ्रातृ हीरा सूमण हीरा सा. साधु युतेन पितृमातृ स्वश्रेयसे श्री धर्मनाथ मुख्य ८ तीर्थी कारिता प्र. पूर्णिमापक्षीय श्री साधुसुंदरसूरीणामुपदेशेन श्री संघेन तलाका. ६. सं.१५३६ वर्षे वै. वदि ११ शुक्रे तालुध्वज वास्तव्य उसवाल ज्ञातीय सा. पूना भा. लषमादे तस्य पुत्र सा. मांकु सा. राजु तय भगिनी बाइ पूतलि नाम्न्या आत्मश्रे. श्री कुंथनाथ बिं. का. प्र. वृद्ध तपापक्षे श्री उदयसागरसूरिभिः. ७. सं.१६१२ वर्षे जेष्ठ सुदि ९ रवौ बाई सोनाई श्री आदिनाथ बिंबं कारापितं प्रतिष्ठितं. ८. श्री पार्श्वनाथबिंबं सं. १८०२ वर्षे. Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धातुप्रतिमा लेखसंग्रह (१) ६७७ ९. सं...(संवत् वगेरे मळतुं नथी) नारद जोगा पचायणयुतेन पितृमातृ श्रे. श्री विमलनाथबिंबं का. प्र. श्री विजयसिंहसूरिभिः ऊघरज वास्तव्य. (एक नानी पाषाणनी प्रतिमा पर विजयदेवेंद्रसूरिनुं नाम छे.) २. तळेगांवमां धातुप्रतिमा परना लेखो १. सं.१४२८ वैशाख वदि २ श्रीमाल पितृ पूमा मातृ माणिक भ्रातृ लूणाराम श्रेयसे सुत लाखा भूणाभ्यां श्री शांतिनाथ पंचतीर्थ कारिता प्र. महकर श्री गुणप्रभसूरिभिः. २. सं.१५२१ वर्षे वै. सु. १० सोमे प्राग्वाट ज्ञातीय श्रे. पाल्हा भार्या झलू सुत श्रे. राजाकेन भार्या राजलदे सुत श्री पूना जासल डाहादि कुटुंब युतेन श्री सुमतिनाथ बिंब कारितं प्र. श्री वृद्ध तपा श्री उदयवल्लभसूरिभिः. ३. सं.१५२३ वर्षे फागुण वदि ४ सोमे श्री श्रीमाल ज्ञा. श्रे. मांडण सुत श्रे. झांटा भा. जसमादेव्या सुत वरसिंग अजा युतया स्वभर्तृश्रेयसे श्री धर्मनाथबिंबं श्री आगमगछेश श्री देवरत्नसूरि गुरूपदेशेन कारितं प्रतिष्ठितं पानसीणा वास्तव्य. शुभं भवतु. ४. सं.१५२७ वर्षे कार्तिक वदि २ शनौ श्री उपकेश ज्ञाती साह सरवण भा. रात्र सु. सा. वीराकेन स्वभ्रातृपितृव्य पूर्वज न(नि)मित्तं स्वआत्मश्रेयसे श्री चंद्रप्रभस्वामिबिंबं कारितं प्र. श्री चैत्रगछे धारणपद्रीय भ. श्री ज्ञाननदेवसूरिभिः लोलीयाणा वास्तव्य काछलीयासखा. ५. संवत १५३६ वर्षे....प्राग्वाट ज्ञातिय सा. श्री धनराज भा. धम्मणि तस पु. सा सहा सा. श्रीपति भा. श्री..... ६. सं.१५४७ वर्षे वैशाष सुदि ३ सोमे श्री श्रीमाली ज्ञातीय दो. पहिराज भा. रामति सु. दो. नावड भार्यया तथा ठ. सहिसा भा. देमति सुतयाबाइ नाम्न्या स्वश्रेयसे श्री शीतलनाथ बिंब कारितं प्र. श्री पूर्णिमापक्षे श्री पुण्यरत्नसूरिभि: बोरसिदि ग्रामे. ७. सं.१५५८ वर्षे फागुण सुदि १२ शुक्रे उशवाल ज्ञातीय सा. मेघा भा. पाबू पु. सा. ड(इंगरेण भा. धनादे पितृपुण्यार्थं श्री अनंतनाथबिंब कारापितं प्रतिष्ठितं श्री धर्मघोषगच्छे भ. श्री पुण्यवर्द्धनसूरिभिः. ३. दमणना देरासरना धातप्रतिमालेखो १. सं.१५०५ वर्षे माघ शुदि ५ रवी श्री श्रीमाल ज्ञातीय श्रे. विजेसी भा. वर्जा भ्रातृव्य हीराकेन पितृव्यश्रेयसे श्री अजितनाथबिंब पूर्णिमापक्षे श्री गुणसमुद्रसूरीणामुपदेशेन कारितं प्रतिष्ठितं च विधिना. Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७८. प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह २. सं.१५१५ वर्षे माघ शुदि ७ दिने प्राग्वाट ज्ञातिय गंधारवासि सं. वयरसी भा. जइत्त सुत सं. नरपालेन भा. नरमादे सुत वर्द्धमान भा. सिवराज भा. कमदिसुत वस्तुपालादि युतेन भार्याश्रेयो) श्री आदिनाथबिंबं का. प्र. तपा श्री रत्नशेखरसूरिभिर्गच्छनायकवरैः. ३. सं.१५२२ वर्षे कार्तिक वदि १ श्रीमाली ज्ञातीय श्रे. नारद भा. गलू पुत्र श्रे. जागाकेन भा. जासी भ्रा. इला भा. अजी प्र. कुटुंबयुतेन स्वश्रेयोर्थं श्री धर्मनाथ चतुर्विंशतिपट्टः का. प्र. तपा श्री सोमसुंदरसूरिसंताने श्री लक्ष्मीसागरसूरिभिः. सुरत्राणपुर वास्तव्येन. श्री श्री श्री:. ४. सं.१५३० वर्षे चैत्र वदि ५ गुरू षयरज गोत्रे हुंबड ज्ञातीय को. खेता भा. सरसई सु. को. कुंपाकेन भा. पूणी भ्रात्रिको लूपायूतिम स्वश्रेयसे श्री धर्मनाथबिंबं वृद्ध तपागच्छे भ. ज्ञानसागरसूरिभिः. ५. सं.१५३५ पोष वदि १३ बुधे हूं. श्रे. खीमा भा. वरजु सुत देपा भा. दूदू सुत जिणदत्त जावड पितृमातृश्रेयसे श्री शांतिनाथबिंबं कारापितं प्र. उ. श्री नरचंद्रेण रुद्रपल्लीय गच्छे. ६. सं.१५८७ वर्षे वैशाख शुदि ११ दिने दीवमं(ब)दिर वास्तव्य उसवाल ज्ञाति सा. पूरण पुत्र सा. वजपाल भा. कस्तुराइ नाम्न्या श्री श्रेयांसनाथबिंबं कारितं प्रतिष्ठितं तपागच्छे श्री सूरींद्र श्री सौभाग्यहर्षसूरिभिः. श्री श्री. ७. सं.१६२८ वर्षे वैशाष शुदि ११ बुधौ श्री श्रीमाल ज्ञातीय महं जावड भार्या जीवादे सुत रतनजी भा. कोडमदेकेन श्री सुमतिनाथबिंब कारापितं श्री तपा ग. ना. श्री हीरविजयसूरिभिः प्रतिष्ठितं. ८. सं.१६६७ वैशाष वद ... श्री शांतिनाथबिंबं श्री हेमसोमसूरिभिः. ९-१०. सं.१८२२ वर्षे साधारण श्राविका श्री पार्श्वनाथबिंब कारापितं. (एक बीजी सं.१८२२नी छे तेमां कोई विशेष नथी.) ११-१४. (१) सं.१८३३मां श्री संघेन. (२) सं.१८३३ ... सुदी ५. (तेमज बीजी बे सं.१८३३नी छे पण तेमां विशेष कांई मळतुं नथी.) १५. सं.१८४५ वर्षे श्रीमाली ज्ञाति व बाइ जीवि बिंबं कारापितं. १६. सं.१८७७ माघ वदि २ वार चंद्र राजकोर दमणना श्री तपागच्छाधीराज्यं शीतलनाथ स्वामि करापितं श्री आणंदसोमसूरी प्रतिष्ठितं दमण मध्ये. . १७. सं.१८८१ प्र.वै. शु. ६ श्री अंचल... [जैनयुग, वैशाख़-जेठ १९८६, पृ.३७५-७८] Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७९ जैन धातुप्रतिमा लेखसंग्रह (२) (मार्च १९३०मां पाटणमां वडोदरा राज्य पांचमी पुस्तकालय परिषद्मा भाग लेवा तेमज त्यां सागरगच्छना उपाश्रये विराजता पूज्य प्र. श्रीमन् कान्तिविजय अने मुनिश्री जशविजय के जेमनी पासे गुर्जर साहित्यना हस्तलेखोनी प्रतिओ पुष्कळ छे तेमनो लाभ लेवा गयो हतो त्यारे मणियाती पाडामां ज शेठ खूबचंद हीराचंदने त्यां ऊतर्यो हतो. ते पाडामांना मंदिरमां (१) तथा नगरशेठना गृहदेरासरमां (३) पूजा करवा जतां ते-ते मंदिरनी प्रतिमाओना लेखो खास महेनत करी अवकाश लई उतारी लीधा हता. नगरशेठना मंदिरमां सहस्रकूट पित्तलमय प्रतिमाना लेख लेवामां मारा मित्र पंडित लालचंद भगवानदास गांधीए मदद करी हती. वळी साक्षर मुनिश्री पुण्यविजय मने तथा पंडितजीने पंचासरा पार्श्वनाथ मंदिरमा (२) वनराजनी मूर्ति नीचेनो लेख पुन: उकेलवा लई गया हता त्यारे ते मंदिरमांना बीजा केटलाक लेख में उतारी लीधा ते अत्र आपेल छे. वनराजनी मूर्ति नीचेनो लेख जेटलो सौनी महेनतथी उकेलायो ते में संस्कृत 'चंद्रप्रभचरित'नी मारी प्रस्तावनामां आप्यो छे एटले अत्र मूक्यो नथी. पाटणमांना केटलाक लेखो स्व. बुद्धिसागरसूरि प्रयोजित 'जैन प्रतिमालेख संग्रह भाग १'मां पृ.३९थी ६६मां अपाया छे, पण ते सिवायना एटलाबधा - पुष्कळ लेखो अप्रकट रह्या छे के तेनो संग्रह करवानी अति आवश्यकता छे. श्री आणंदजी कल्याणजीनी पेढी मुनिश्रीओ या विद्वानो द्वारा आ बधी सामग्री एकत्रित करावी प्रकट करवाना प्रयत्न सेवे तो इष्ट थशे. (४) काठियावाडमा काठीना जेतपुरनां (५) थान - लखतर ताबेनां [(६) सरघारनां] (७) गोंडलनां देरासरोमांना लेखो त्यां त्यां जवान थतां उतारी लीधा ते अत्र मूक्या छे. क्र.२, ३ना लेखो ता. १९-३-१९३०ना रोज, क्र.४ना ता. १९-४-१९३०ना रोज, क्र.५ना ता. ११-५-१९३०ना रोज, क्र.६ना ता. १३-५-१९३०ना रोज तथा क्र.७ना ता. २५-५-१९३०ना रोज उतारेल छे.) १. पाटण मणियाती पाडाना देहरासरमां १. सं.१४६९ वर्षे ऊकेश ज्ञातीय सं. आल्हणसी भा. (शंगारदे पुत्र अभयसिंह भार्यया श्रे. तिकुणा धरपफुया ललितादेव्या स्वपतिश्रेयोर्थ श्री मुनिसुव्रत चतुर्विंशतिपट्टक: कारित: प्रतिद्धिनश्च(ष्ठितश्च) श्री गुणरत्नसूरिभिः. २. १४८३ वर्षे फा. शु. मोढ ज्ञातीय श्रे. वीरपाल भा. सुहगल सुता श्रा. रतनू नाम्न्या स्वश्रेयसे स्वपति श्रे. हीरा श्रेयसे च श्री कुंथुनाथबिंब कारितं प्र. श्री सूरिभिः श्री ज्ञानकलससूरि. ३. सं.१४९१ आ. व. ७ श्री श्रीमाल वंशे वडली वास्तव्य स. सांडा भा. कामलदे सुत सं. डाह्याकेन भा. माकू सुत मांइआ भूचर प्रमुख कुटुंब सहितेन श्री धर्मनाथबिंब Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह कारितं प्रतिष्ठितं श्री सोमसुंदरसूरिभिः. ४. सं.१५०७ वर्षे फाल्गु शु.४ मंजिग पुरवासि श्रीमाल ज्ञाति म. जेसा भा. जासलदे पुत्र मं. पर्वत भा. भली सुत रत्नाकेन भा. जासू पुत्र मांका लघु भ्रातृ घूसादि कुटुंबयुतेन स्वपितामहश्रेयसे श्री कुंथुनाथमूलनायकालंकृतश्चतुर्विंशतिपट्टः कारित: प्रतिष्ठित: श्रीसूरिभिः. ५. सं.१५१८ वर्षे वैशाख सुदि ३ वार शनौ श्री पत्तन वास्तव्य श्री श्रीमाल ज्ञातीय सा. क. रत्ना भार्या मूंजी सुत सा. वस्ता भा. फदकू सुत रीडा युतेन सूभार्या फदकू श्रेयसे श्री शीतलनाथबिंबं कारित प्रति. श्री मलधारिगच्छे श्री गुणसुंदरसूरिभिः. श्री. . ६. संवत् १५३१ वर्षे वैशाख शुदि श्रे. ठाकुरसी भा. टबू पुत्र हीराकेन भा. माणिकदे लघु भ्रातृ धीरा भा. लखी पुत्र लालादि युतेन श्री शांतिनाथबिंबं कारितं प्रतिष्ठितं तपा श्री लक्ष्मीसागरसूरिभिः महीज ग्रामे. ७. संवत् १५४४ वर्षे वैशाख शुदि ३ सोमे श्री उएस वंशे व्य. देवा भार्या सखी पुत्र सोनी आणंद सुश्रावकेण भा. अमरादे भ्रातृ आना अर्जन भ्रातृव्य वस्ता जगपाल सहितेन मातु: पुण्यार्थं पीपलगच्छे श्री रत्नासागरसूरिभिः श्री वासुपूज्य बिंबं प्रतिष्ठितं. ८. सं.१५५५ वर्षे फागुण शुदि २ सोमे प्राग्वाट ज्ञातीय सं. ह[र] राज भा. जीविणि पु. सं. करपालेन भा. कपूराइ पुत्र श्रीरंग श्रीवछ श्रीपति प्रमुख कुटुंब युतेन श्रेयो) श्र नमिनाथबिंब कारितं प्रतिष्ठितं वृद्ध तपापक्षे भट्टा. श्री उदयसागरसूरिभिः. ९. सं.१५७९ वर्षे मागशर शु. १० शुक्रे श्रीमाल ज्ञातीय विद्यापुरीय गांधिक सं. होदा भा. लाडिकि पुत्र्या सा. सहसकिरण भार्यया माकु नाम्न्यास्पुण्यार्थेश्री श्री शीतलनाथबिंब कारितं प्र. श्री पूर्णिमापक्षे भीमपल्लीय भ. श्री मुनिचंद्रसूरिणामुपदेशेन पाव वास्तव्य. १०. संवत् १६०० वर्षे वैशा. वदि १० शुक्रे श्री श्रीमाल ज्ञातीय दोसी कुझा भार्या टहिफू सुत दोसी धना भार्या अपरादे सुत शवा लक्ष्मीदास मंगा कर्मदास दोसी लक्ष्मीदास भार्या जीबाइ स्वआत्म कुटुंब श्रेयोर्थं श्री संभवनाथादि चतुर्विंशतिपट्टः कारापित: श्री पूर्णिमापक्षे प्रधानशाखायां श्री कमलप्रभसूरि पट्टे श्री पुण्यप्रभसूरिप्रतिष्ठितं विधिना पत्तन वास्तव्य मणहटी पाटको श्रे. . २. पाटण पंचासरा पार्श्वनाथना मंदिरमां पाषाणमूर्तिओ १. सं.१६६२ वर्षे वैशाख शुद १५ सोमे पत्तन वास्तव्य वृद्ध शाखीय प्राग्वाटज्ञातीय दो. शंकर भा. वाहली नाम्न्या सुत दो. कुअरजी भ्रातृव्य दो. श्रीवंत Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धातुप्रतिमा लेखसंग्रह (२) ६८१ भा. अजाइ सुत दो. लालजी पुत्र रतनजी प्रमुख युतया स्वश्रेयोर्थम् बृहत्तपागच्छेश शीलादिगुणधारक भ. हेमविमलसूरिपट्टभूषण भ. श्री आणंदविमलसूरिपट्टे प्रभावक श्री विजयदानसूरिपट्टालंकाराणां स्वदवीरंजित श्री अकब्बर पातिसाहविहित सर्व जीवाभयदानप्रवर्तन श्री शत्रुजयादिकरमोचनादि विदितयशसां लंपाकमतेश ऋ# मेघजी नाम्ना दत्तदीक्षाणां भट्टारका श्री हीरविजयसूरीणां मूर्ति: का. प्र. च तत्पट्टालंकारकारिभिः पातिसाह श्री अकब्बरसभालब्धजयवादमनोहारिभिः गोवृषभमहिषीमहिषवध-मृतधनादानबंदग्रहणनिवारकफुरमानधारिभिः भट्टारक श्री ६ श्री विजयसेनसूरिभि: महोपाध्यायश्री सोमविजयगणिपरिवृत्तैः पत्तनादि महं अबजी सकल संघेन वंद्यमाना च नंदतात्. २. ९० संवत् १६६४ वर्षे फाल्गुन शुद ८ शनौ पत्तन वास्तव्य वृद्ध शाखीय प्राग्वाट ज्ञातीय दोसी शंकर भा. वाहली नाम्न्या भ्रातृव्य दो. श्रीवंत भा. अजाइ सुत लालजी सु. रतनजी प्रमुख कुटुंब युतया स्वश्रेयोर्थं तपागच्छाधिराज श्री हीरविजयसूरीश्वरपट्टप्रभावक भट्टारक श्री श्री श्री विजयसेनसूरिपट्टपूर्वांचलसहस्रकरानुकारि शीलादिगुणगणालंकृतगात्र भट्टारकपुरंदर संप्रति विजयमान युवराजपदधारकाचार्य श्री ५ श्री विजयदेवसूरीश्वराणां मूर्तिः कारिता प्रतिष्ठापिता च गीताथैः. मं. अबजी प्रमुख संघ भट्टारकेण वंद्यमान चिरंजीयादिति भद्रं. (एटले आ ज वर्षमा साथेसाथे हीरविजयसूरि, विजयसेनसूरि, विजयदेवसूरिनी मूर्ति एक ज जणे करावेली अत्रे विराजमान छे.) ३. पाटण नगरशेठy घर देहरासर मणियाती पाडो । १. सं.१५०७ वर्षे जयेष्ठ सु. १० सोमे पत्तन वास्तव्य श्री उसवाल ज्ञातीय सुरै. शिवा भा. सिंगारदे सुत सा. जयसिंह भातृ सा. डाहा भा. मरगदि नाम्न्या पितृ साह लींबा भार्या मानू सुतया निजभर्तृ सा. डाहा श्रेयसे श्रेयांसनाथ चतुर्विंशतिपट्टः कारित: प्रतिष्ठित: श्री पल्लीवालगच्छे श्री यशोदेवसूरिभिः. २. संवत् १५१५ वर्षे फा. व. २ सोमे श्री श्रीमाल ज्ञातीय ५० सीवा भा. अर्धू सु. पासाकेन भा. साहासिणि सु. देवादि कुटुंब युतेन स्वमातृ [श्रेयसे] जीवितस्वामि श्री संभवनाथबिंबं श्री पूर्णिमापक्षे सद्गुरूणामुपदेशेन प्र. विधिना श्री पत्तने. ३. संवत् १५३२ वर्षे चैत्र वदि २ गुरू उसिवाल ज्ञातौ तातहड गोत्रे सा. साजण भा. लछिपुत्र सा. सवा भा. रइयाही पु. सा. श्रीवंतेन सा. गजर सा. कर्मा भ्रातृयुतेन श्री शांतिनाथबिंबं कारितं प्रतिष्ठितं श्री उपकेशगच्छ कुकुदाचार्यसंतान श्री देवगुप्तसूरिभिः श्री:. ४. संवत १६२४ वर्षे फागण शुदि रवौ श्री श्रीमाल ज्ञातीय श्रेष्टि गोधा भार्या Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह बाहीराइ पुत्र श्रेष्टि रतना भार्या खादकी बाइ पुत्र श्रेष्टि रायमल भार्या बा. मगाइ श्रेष्ठि रायमलकेन पित्र्य श्रेयोर्य श्री श्रेयांसनाथबिंबं कारितं तपागछ श्री हीरविजयसूरिभिः प्रतिष्ठितः पत्तन वास्तव्य. (सहस्रकुट प्रतिमाओ जेना पर रहे छे तेनी नीचे लेख छ के) ५. संवत् १७७४ वर्षे जयेष्ठ सुदि ८ सोमे पत्तन मध्ये श्री श्रीमाली ज्ञातीय वृद्धि साखायां दो. श्री वीरा सुत दोसी श्री शिवजीसुत दो. श्री मेघजी भार्यां सहितवहू सुत दो. श्री जयतसी भार्या रामवहू सुत दोसी श्री तेजसी भार्या देवबाइ सुता पूजी सुत गुलाब द्वि. भार्या राधावहू सुता ल हर्षी मलुकचंद प्रमुख सपरिवार युत: दो. श्री तेजसीकेन सुखश्रेयोर्थ श्री पार्श्वनाथादिबिंब सहस्र पित्तलमय कोष्ट: कारित: पूर्णिमापक्षे. भ. श्री भावप्रभसूरिभिः प्रतिष्ठित: श्री महिमाप्रभसूरिस् तत्पट्टे भ. श्री भावप्रभसूरीणामुपदेशात् कृतमहोत्सवेन प्रतिष्ठपितं श्री ढंढेरपाटक संबंधिना. (नीचेनो लेख किनारी परनो छे:) ५ क. सं. १७७४ जये. सु. ८ दो. श्री तेजसी भार्या देववहू सुता पूजी सुत गुलाब द्वि. भार्या राधा सुता ल. हीरकी सुत मलूक प्रमुख सपरिवारयुतेन श्री तेजसीकेन सुखश्रेयोर्थं श्री पार्श्वनाथादि बिंबं सहस्र पित्तलमय कोष्ट: कारित: श्री पूर्णिमापक्षे भ. श्री महिमाप्रभसूरिस तत्पट्टे भ. भावप्रभसूरिणामुपदेशात् कृतमहोत्सवेन प्रतिष्ठापितं श्री ढंढेरपाटक संबंधिना. ६. सं.१७७४ ज्येठ. सु.८ दो. आणंदजी भार्या रतनवहू कारित श्री वासूपूज्यबिंबं प्र. ४. जेतपुर(काठीनू - काठियावाड)ना देहरासरमां १. सं.१५१६ वर्षे वैशाख वदि ११ शुक्रे श्री श्रीमाल ज्ञातीय श्रे. केहला सु. हरीया भा. रत्न सु. श्रे. सालिगेन भा. आसु युतेन मातृपितृश्रेयसे श्री कुंथुनाथबिंब कारितं व्र(ब्राह्माणगच्छे प्रतिष्ठितं श्री विमलसूरिभिः. श्री:. ज्यतपुरे. २. संवत् १५३३ माघ वदि १० गुरौ श्री कोरंटगच्छे श्री नन्नाचार्यसंताने श्री उसवंशे वृद्ध शाखीय श्रेष्टि नरीआ भा. नामलदे पुत्र भीला भार्या वनी पुत्र साह मूंधा पसवीराभ्यां भ्रातृ वीरपाल निमित्त श्री सुमतिनाथबिंब कारितं श्री कक्कसूरिपट्टे श्री सावदेवसूरिभिः प्रतिष्ठितं अहमदावाद नगरे. श्री. ३. संवत १६(१ वरषे शांतिनाथ विजयसेन प्रतिष्ठित. ५. सरधारना देरासरमां १. संवत १६३२ वर्षे द्वितीय ज्येष्ठ शुदि चतुर्थ्यां तिथौ गुरूवारे मवानपुरे श्रे. राणा भार्या रमादे सुत श्रे. राजपालेन ए कुटुंबयुतेन श्री सुत(म)तिनाथबिंब प्रतिष्ठापितं Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८३ जैन धातुप्रतिमा लेखसंग्रह (२) प्रतिष्ठितं च श्री तपागच्छे. श्री हीरविजयसूरिभिः. शुभं भवतु. २. सं.१८२६ वर्षे वैसाष वदि २ शुक्रे उसवाल ज्ञातीय शा श्री ५ माधु तत् भार्या बाइ लासु २ सिद्धचक्रं कारापितं श्री विजयधर्मसूरिभी प्रतिष्ठीत श्री तपागच्छे. ३. ९०. संवत १९२१ना वरषे शाके १७८६ प्रवर्त्तमाने माग. मासे शुकलपक्षे सप्तमी तिथौ श्री गुरूवाशरे श्री अंचलगच्छे पूज्य भटारक श्री रत्नसागरसूरीश्वराणामुपदेशात् श्री कछदेश श्री शाधांणनगर वास्तव्य उसवंशे लघु शाखीय श्र लोडाद्रया गोत्रे सा तेजसी हीरजी तद्भार्या सारबाइ तत्पूत्र सा मांडण तन्नामना जिनबिंब श्री मुनिसुव्रत स्वामीजी (कारा)पीतं. (त्रण पाषाण प्रतिमा छे. मूळनायकनी पर नीचेनो लेख छे.) । ४. श्री १९२२ मा. शुद ७ गुरूवारे श्री सरधारना संघ समसत श्री आदिनाथबिंब भरापितं श्री सिद्धखेत्रे. ५. श्री १९२१ श. १७८६ प्र. माघ शुद ७ गुरूवाशरे शा थी आणंदजी कल्याणजी श्री सिद्धक्षेत्रे श्री शांतिजीनबिंब सर्व सूरि प्रति. (प्र. प्रवर्त्तमाने) (बीजामां ए ज प्रमाणे.) (आरसनी भीतमां तखती) ६. आ श्री ऋषभदेव स्वामीनुं जिनालय तथा तेनी पासेनी धर्मशाळा श्री जैनधर्मी मूर्तिपूजक श्रावकोना उपयोग वास्ते, श्री जामनगरना वतनी ज्ञाते वीशा ओसवाळ श्रावको शा. लीलाधर कल्याणजी तथा वोरा अजरामर हरजी एओए राजकोट जील्लाना गाम श्री सरधार मध्ये प्रतिष्ठा मुहूर्त संवत १९३७ना फागण शुद ७ सोमवारे कर्यु छे. ६. थान(लखतर ताबे)ना देहरासरमां १. एँ. स्वस्ति संवत् १३४३ वर्षे वैशाष सुदि १५ मुहंतीयाण ज्ञातीय सा. मना भार्या ब. धांइ सुत सा रत्नसीहेन भा. सौ. वांऊं युतेन स्वपुण्यार्थं श्री पार्श्वनाथमूर्तिश्चतुर्विंशतिपट्टः कारित: श्री जिनवर्द्धनसूरीणामुपदेशेन. श्री:. २. संव. १५०५ कात्ति. व. ५ प्रा. ज्ञा. व्य. छाडा सु(त) धरणा भा. देऊ सु. दो. हीराकेन भा. टाणू गा(गौरी पु. सिवदास हेमा खुशालभी भ्रातृ मं. वेला भ्रा. दांऊंए श्रेयसे श्री शांतिनाथबिंब कारितं प्रतिष्टितं श्री साधु. श्री पुण्यचंद्रसूरिभिः गुरूपदै: अहम्मदावाद वा. ३. सं.१५३३ व. पोस सु. १५ सो. सिद्धपुरे उसवाल ज्ञा. सा. मा... सुत जिणदासकेन स्वश्रेयसे श्री धर्मनाथबिंबं का. प्रतिष्ठितं श्री वृद्ध तपापक्षे श्री ज्ञानसागरसूरिपट्टे श्री उदयसागरसूरिभिः. श्री:. (छ पाषाणनी प्रतिमा छे, अने तेमांनी कोई पर लेख नथी.) Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह ७. गोंडलना देहरासरमां १. सं.११०९ आसाढ सुदि १०... (पार्श्वनाथ परिकर तूटेलो.) . २. सं.१४४२ वर्षे वै. सु. १५ शनौ उपकेश ज्ञातीय व्य. पापर भा. जाल्हण देवि सु. गूगडेन पित्रो श्रेयसे श्री कुंथनाथ बिं. का. प्र. खरतर पक्षे श्री जिनराजसूरिभिः. ३. संवत् १५१९ वर्षे वैशाख वदि ११ शुक्रे उशवाल ज्ञातीय खडवड गोत्रे वर्द्धमान शाखीय सा. वस्ता पु. सा. कान्हड भा. लखमाइ पु. सा. सहदेवेन भा. बई सोभादे पु. सा. गोरा श्रेयसे श्री श्री अनंतनाथबिंब कारितं श्री धर्मघोषगछे भट्टारक श्र विजयचंद्रसूरि पट्टे प्रतिष्ठितं श्री साधुरत्नसूरिः. ४. संवत् १५२८ वर्षे पौष वदि ५ शुक्रे श्री श्रीमाली ज्ञातीय ठक्क. लाडा सुत ट. मांडण भार्या रूपा सुत ठक्क. देवाकेन भार्या लाडिकि सुत आंबा युतेन श्र शांतिनाथबिंब कारापितं प्रतिष्ठित श्री पूर्णिमापक्षे भट्टा. श्री साधुसुंदर सूरिभिः मांगल्यपुर वास्तव्य. श्री श्रीरस्तु. (चतुर्विंशतिपट्ट) ५. संवत् १५३१ वर्षे आसाढ सुदि ५ बुधे उसवाल ज्ञातीय नाहर गोत्रे सा. नुडा भार्या नाल्ही पु. रत्ना भार्या रत्नादे आत्मपुन्यार्थे श्री चंद्रप्रभबिंबं कारापितं प्रतिष्ठितं श्री धर्मधोषगछे भ. श्री पासमूर्तिसूरि. शुभं. (धातुना सिद्धचक्र) १. संवत् १८३१ वर्षे माह वदि ५ सोमवासरे श्री गुडल नगरे भ. श्री श्री विजयधर्म सूरीश्वरजी प्रतिष्ठितः. २. संवत् १८७८ वर्षे वैशाख मासे शुकलपक्षे १५ तिथौ गुरूवासरे पोरवाड ज्ञातिय वोरा तलकसी राघवजी सुत मोहनजीकेन श्री सिद्धचक्रजी भरापितं भ. श्री श्री विजयजिनेंद्र सुरिभिः प्रतिष्ठितं श्रीमत्तपागच्छे. श्रीरस्तु :. ३. ९०. बिंबं सं.१९११ माघ शुदि १० का. राजा धनपतिसिंह बादुरेन प्रसिद्ध सिरि बंगदेसे. (मंदिरना पत्थरना थांभलामां तखती) स्वस्ति श्री संवत् १८४४ वर्षे शाके १७१० प्रवर्त्तमांने माशोतम मासे वैशाष मासे कृष्णपक्षे षष्टी तिथौ सोमवासरे श्रीमत्तपागच्छे भ. श्री विजयजिनेंद्रसुरि श्री गुंडल नगर मधे राजा कुंभाजी राज्ये अणीहल्लपुर पत्तनादी संघेन नवीन जिनप्रासाद कारापीतं प्रासाद मधे पुराण जिनपडिमा पुर्व सुरि प्रतीष्ठितं चंद्रप्रभजिनबिंब स्थापीतं. चणनार कडीयो Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धातुप्रतिमा लेखसंग्रह (२) ६८५ भीमजी. (पाषाणप्रतिमा, मूलनायक चंद्रप्रभ पर लेख नथी.) ___४. सं.१९२१ शा. १७८६ प्रा. शु. छ दिन गुरू अंचलगछे कछ दे. कोठाराना वा. उशवा लधु शाखाया गाध्धे (?) मोहोता गोत्रे सां श्री नायक मणसी भा. हीरबाइ पुत्र श्री केशवजी श्री पादलिप्तन. सिद्धक्षेत्रे श्री मल्लिनाथ जिनबिंब भ. गछनायक भ. श्री रत्नसागरसूरीजी-प्रतिष्ठीत: (बीजी बे प्रतिमा नमिनाथ ने पार्श्वनाथनी पण १९२१नी सालनी छे. सं.१५४५नी नानी पाषाण प्रतिमा छे पण ते अंधारामां छे ने महेनत करतां उकेलाती नथी.) [जैनयुग, अषाड-श्रावण १९८६, पृ.४६७-७१] Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८६ अज्ञातकृत प्राचीन थेरावली (हिमवंतनी स्थविरावली प्राप्त थई छे एम जणावी ते परथी पोते कलिंग चक्रवर्ती खारवेलनु केटलुक वृत्तांत पंडित हीरालाल हंसराजे गुजरातीमां अंचलगच्छनी मोटी पट्टावलीना पुस्तकमां आप्युं छे अने ते सर्व मूल स्थवीरावली परथी निष्पन्न थतुं होय तो घणो ऐतिहासिक प्रकाश पाडी शकाय तेम छे; परंतु दुर्भाग्ये पोतानी हमेशनी रीति मुजब पंडितजीए मूल हिमवंतनी स्थवीरावली आपी नथी. ने पंडितजी स्वर्गस्थ थई गया छे. आ थेरावली कच्छना एक भंडारमाथी प्राप्त थई हती तेथी त्यांथी मळी शकशे एवं जणाववामां आवतां ते माटे प्रयास साक्षर मुनिश्री कल्याणविजयजी अने पंडित सुखलालजी करी रहेल छे. ते मळशे के नहीं ए मोटो सवाल छे, पण मूळ परथी हीरालाल पंडिते लखेलुं छे एम स्वीकारी मुनिश्री कल्याणविजयजीए मोटा हिंदी लेख लखी 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका' मां प्रगट करेल छे. हिमवंतनुं नाम अहीं आपेली थेरावलीमां गाथा १४ अने १५मां आवे छे; ते ज हिमवंत पंडित हीरालाल जे हिमवंतनी स्थविरावली जणावे छे ते होय के न होय तेनो निश्चय ते प्राप्त थाय तो थाय. आ प्राचीन थेरावली तेमां कंईक प्रकाश नाखी शकशे एम धारी आ जोके संपूर्ण शुद्ध स्वरूपमा नथी छतां बने तेटली शुद्ध करी अत्र आपी छे.) । ९०. सुहम्मं अगिवेसाणं जंबूनामं च कासवं, पभवं किच्चायणं वंदे वच्छं सिज्जंभवं तहा. १ जसभदं तुंगियं वंदे संभूयं चेव माढरं, भद्दबाहुं च पाइन्नं थूलमदं च गोयमं. २ एलावच्छस्स गुत्तं वंदामि महागिरिं सुहथिं च, तत्तो कोसियं गुत्तं बहुलस्स सरिवयं वंदे. ३ हारियगुत्तं साइं च वंदे मोहा[ह?]रियं च सामन्नं, वंदे कोसियगुत्तं संडिलं अजिय जीयधरं. ४ तिसमुद्द खाय कित्तिं दीवसमुद्दे सुगहिय पायालं, वंदे अज्ज समुदं अखुभिय समुद्दगंभीरं. ५ भणगं करु[र ?]गं उरगंए [प]भावगं नाणदंसणधराणं, वंदामि अज्ज मग्गं सुयसागरपारगंभीरं. ६ वंदामि अज्ज धम्मं वंदे तत्तो य भद्दगुत्तं च, तत्तोय अज्ज वयरं नवनियमगुणेहि वयरसम. ७ Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८७ अज्ञातकृत प्राचीन थेरावली वंदामि अज्ज रखिय खणे रखियचरित्तसव्वसो, रयणकरंडगभूउ अणुयोगो रखिउ जेहि. नाणंमि सणंमि य तवविणय निच्चकालमुज्जंतं, अज्ज नंदिल खमणं सरिसा वंदे पसन्नमणं. ९ वढ्ढो वायगवंसो जस वंसो अज(ज्ज) नागहत्थीणं, वागरण करणभंगिय कम्मपयडी पहाणाणं. १० जच्च जणधाउ-समप्पहाणं मुदीयकुवलयनिहाणं, वड्डो वायगवंसो रेवइ निखंत नामाए. ११ अयलपुरानिखंते कालीयसुअणोगे धीरे, बंभदीवग सहिए वायगपयमुत्तमं पत्ते. १२ जे समे अणुगे पयरे अज्जावि अढ भरहंमि, बहुयर निग्गया जस्स तं वंदे खंदिलारीए. १३ तत्तो हेमवंतमहंतविक्कमे धीयपरिकम्मे मणंते, सज्झायमणंतधरे हेमवंते वंदिमो सरिसा. १४ कालीसुअणु[ओ]गस्स धारे धारे पुव्वाणं, हिमवंत खमासमणे वंदे नागजिणारीए. १५ मीउ मद्दवसंपन्ने अणुपुव्विं वायगुत्तणं[मं ?] पत्ते, अहो सूयसमायरे नागे जिणवाइयं वंदे. १६ गोविंदाणं पय नमो अणुगे विउल धारणं दाणं, नव खंति दयाणं परोवणे दुलभिंदाणं. १७ तत्तो य भुयदिन्नं निच्चं तव-संजमे अन्नविहन्नं, पडीजणसामन्नं वदामि संजमवहन्नं. १८ वक्खणग-तवियचंपग विमलवरकमल गभसुरवन्ने, भवियजणहीयदए दयागुण विसारए धीरे. १९ अढ भरहपाणे बहुवी सज्झायसमयप्पहाणे, अणोगे वरवसभे नाइलकुलवंसनंदिकरे. २० भूय अप्पगभे वंदे हं भूईदिन्न-आरीए, भवभय-वोछेदके सीसे नागजिणारिसीणं. २१ समणि निच्चानिच्चं समणी सत्थत्थधारे अनिच्चं, वंदे हं लोहच्वं सभावभावणानि च. २२ Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह अत्थ महरवाणं सुसमणवषाण कहाण निव्वाणं, पीए मोहरवाणिं पउ पणमामि दूसगण. २३ तव-नियमसच्चसंजम-विणय-अज्जवखंति सुंद्दवरयाणं, सीलगुणगंदीयाणं अणुगे जगपहाणाणं. २४. सुकमालकोमलतले तेसिं पणमामि लखपसथे, पावय पावणेणं पांडत्थग सए पणवीए. २४ जे अन्ने भगवंते कालीयसूअअणोगे धीरे, ते पणमीउण सरसा नाणस्स परूवणं वुत्थं. २६ - इति थिरावलीया समतं. (मुनि जशविजयसंग्रह, २ पत्रांक प्रति) [जैनयुग, असाड-श्रावण १९८६, पृ.४८९-९०] Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के वास्ते. ६८९ पार्श्वचंद्रगच्छ लघुपट्टावली अथ लघुपट्टावली लिख्यते. मालिनी छंद: विदितसकलशास्त्रान् पार्श्वचंद्रान् कवींद्रान् भजत समरचंद्रान् भव्यराजीवसूर्यान्, नमत विशदमूर्त्तीन् राजचंद्रान् मुनींद्रान् विमल विमलचंद्रान् सर्वसूरींद्रमुख्यान्. १ शार्दूलः तत्पदे जयचंद्रसूरिमुनिपा जीता जगत्विश्रुताः तत्पट्टोदयभास्करा गणिवराः श्री पद्मचंद्रा विभुः, तत्पट्टे मुनिचंद्रसूरिगणिनो नंदंतु भट्टारकास्तत्पट्टाब्जविभाकरा गणिवरा: श्री नेमिचंद्राह्वायाः २ तत्पट्टे कनकेंदुसूरि गणिपा जाता जगत्युज्वलाः तत्पट्टे शिवचंद्रसूरि मुनिपा विख्यातकीर्तिव्रजा:, तत्पट्टे विमलप्रबोधसहिता श्री भानुचंद्राभिधाः तत्पट्टे च विवेकचंद्रयतिपा जाता जगत्पूजिता: ३ वसंततिलका तत्पट्टमानससरोवरराजहंसा श्री लब्धिचंद्रमुनिपाः प्रबभूवुरेवं, तत्पट्टभास्करनिभा विलसत् गुणौघा: श्री हर्षचंद्रमुनिवृंदवरा अजैषुः ४ मंदाक्रांता तस्मिन्पट्टे प्रजयतितरां हेमचंदोमुनींद्र : सुश्लोकौघैर्विदितमहिमो गांगमंभो च लोके, जैनैर्धर्मैश्चरिततपसः श्रावकैर्गीतकीर्तिर्मान्यो धीमान् विमलकविताकोमलोद्गीर्णवाणिः. - संवत् १९३३ मिति जेठ सुदी १२ शनिवासरे श्री मकसूदावाद अजीमगंजमें मुन्नीलाल (श्रीयुत पुरणचंद नहारना भंडारमाथी प्राप्त) [जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स हेरल्ड, एप्रिल-जून, १९१८, पृ.१६८ ] Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९० चाहमाननृपवंशावली (प्रति संघवी कानजीभाई पासेथी प्राप्त थयेली.) सपादलक्षीय चाहमान नृपवंशो लिख्यते. सं.६०८ राजा वासुदेव: १, सामंतराज: २, नरदेव: ३, अजराजः, अजयमेरूदुर्गकारापक: ४, विग्रहराज ५, विजयराज ६, चंद्रराज ७, गोविंदराज सुरत्राण-सावेगवरिस नाम्नो जेता ८, दुर्लभराज: ९, वत्सराज १०, सिंहराजः सुरत्राणस्य हेझवदीननाम्नो जेठाणाकजेता ११, दुर्योजनो निरदीनसुरत्राणजेता १२, विजयराज १३, बप्पइराज १४, शाकंभ- रेवताप्रसादाद् देवमादिखानि संपत्त: १४, दुर्लभराज: १५, गंडू महमदसुरत्राण-जेता १६, बापलदेव: १७, विजयराज: १८, चामुंडराज सुरत्राभुक्ता १९, दुसलदेव: २० तेन गूर्जरा-धरित्रीपति बध्धानीत:. अजयमेरू मध्ये तक्रविक्रय कारापित:. वीसलदेव: २१, सच स्त्रीलंपट: महासत्यां ब्राह्मण्यां विलग्नो बलात् तच्छापा दुष्ट व्रणसंक्रमे मृत:. बृहत् पृथ्वीराज: २२ वगुलीसाहसुरत्राणभुजमर्दी, आल्हणदेव: २३ साहाबदीन-सुरत्राण-जितः, अनलदेव: २४, जगद्देव: २५, वीसलदेव: तुरष्कजित: २६, अमरगांगेय: २७, पांथडदेव: २८, सोमेश्वरदेव: २९, पृथ्वीराज: ३०, संवत् १२३६ राज्यं वीरत: (?) १२४८ मृत:, हरिराजदेव: ३१, राजदेव: ३२, बालणदेव: ३३ बाबरीआ लबिरदंतस्य वीरनारायण: ३४ समसदीन युद्धे मृत:, बाहडदेवो मालवजेता ३५, जैत्रसिंहदेव: ३६, श्री हम्मीरदेवः ३७ सं.१३४२ वर्षे राज्यं सं.१३५८ युध्धे मृत: हस्ती ४ हस्तिनी ४ अश्व सहस्र ३०, दुर्ग १० एवं प्रभुः सत्त्ववान्. इतिश्री हम्मीरदेववंशे नृपाः पूर्वजाः. (रत्नशेखरसूरिना ‘प्रबंधकोष' मांना एक अने छेल्ला प्रबंध 'वस्तुपाल तेजपाल प्रबंध'नी प्रतिने अंते मोरबी भंडारमां.) [जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स हेरल्ड, जुलाई १९१७, पृ.२२३] Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९१ राजवंशावली संवत् ८२१ वर्षे वैशाख शुदि २ सोमे रोहणी नक्षत्रे चावडा वंशे श्री वनराज: श्री अणहल्लपुर स्थापना कृता. गूर्जराणामिदं राज्यं वनराजात् प्रभृतिभिः स्थापितं जैनमंत्रेण अत द्वेषी नात्र नंदति. तत्र वर्ष ६० राज्य भुक्त्वा . संवत् ८८९ योगराज. संवत् ८९१ श्री रत्नादित्य. संवत् ८९४ वैरसिंह. संवत् ९०५ क्षेमराज. संवत् ९४४ चांमंडराज. सं. ९७१ घाघड. संवत् १००६, अड्डयलराज. एवं चाउडा वंशे ए १९६ वर्ष राज्यं कृतं. तदनंतर सं. १०१७ शोलका [सोलंकी] वंशोपविष्ट. संवत् १०३३ तत् दौहित्र श्री मूलराज. संवत् १०५२ वल्लभराज. संवत् १०६६ भ्रातृ दुर्लभराज. सं.१०७८ भ्रातृ नागिलसुत भीमदेव. तदा मालवदेशे धारायां श्री भोज:. भीमदेव मालवके कटकीकृत. भग्नौ चलित:. कूपकंठे सुप्त: तदा वारणकेन दृष्ट:. इदं भणितं. कूया कंठइ सत्थरउ रि.... रठ रूठइ धारहधणी, रायां ए अवत्थ. १ पृष्ठे भोजराजेन लेखं प्रेषितं. हेला निद्यली गयंदकुंभ पिंडी... सिंहझ्झमयेण सम नवि ग्रहो नैव संधाणं. २ तदा भीमेन लेखं प्रेषितं अंधइ सूयाण कालो, भीमो पहबाय नम्मिउ विहणा, जेण सयंपि न गणीयं कागणिणा त्तझ ए चस्स. ३ राजा भोज समीपे आंबड द्विज प्रेषित. भोजनस्नानकृते आद्रसिरे आंबडेन प्रणामकृत लेख प्रवाचित. राजा पृष्टं. भीम अनापित किं करोति ? आंबडेनोक्तं, राच्छ स जीयते. राज्ञ सिर भद्रं कृतं भवतां सिरेषु भद्रं करोति. राजा कुपितेन पृष्ठं. युष्माधिप Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह संधिविग्रहपदे दूत कंपतो द्विजा त्वा द्रस्या बहवोपि मालवपते ते संति तत्र त्रिधा. प्रेक्षते अधममध्यमोत्तम तया संप्रेक्ष राज्ञागणं, तेनांतर्गतमुत्तरं च दधते धारा-धरो रंजित: ४ भोजराज गुजरदेशोपरि कटक करोति. नाटकोवसरि प्रधानेनोक्तंभोजराज मम स्वामी यदि कर्णाटभूपते, कथा कष्टं न पश्यामि कथं मंज सिर करे. ५ अथ मुंजकथा : सुविहाणं तिहि मंतीय जहं जे बुडि ज गोला माहि. मंजम दिठउ विहतीउं रिद्धि न दिठ खलाइ. सगढी करि मंत्रणूं महार दाइ वत् विण, भीख मगावी जिम मंकड तिम मुंज. मोगोलणि गच्छ करि देखवि पट्टु रूयाय चऊद सयत्थ. रे रे संकड मा रोदीय दिहं खंडि तोऽनया, राम रावण लंक द्यो घेनरू खंडितो स्त्रियां. अयं कटी मत्तगजेंद्रगामिनी, विचित्र सिंहासन संस्थिता सदा, अनेकरामाजघरेण लालिता, विधिवशाद वनकर्पटीकृता. १० तदा भोजने कर्णाट देशे कटक कृता स नर्जयत्वा स नगरे समेत रात्रौ नष्टचर्यां खिप न क्वचनं श्रुतं. तीक्खा तुरीय न माणया, भडसिरि खग्ग न भग्गं, जंवारू नग्गवि गयउ ११ भोजराजे खिपनक परणावित. गूजरदेशे कटकै कृत. पत्तनं भूसयित्वा चलित. तदा मालिकाचार्य पृष्ठे मिलित. कंडोरि कुरर क्षत्रि अरिजनना करि ऊडीया, मात्रीणी त्रीजिने त्रिसड सडसडइ भागा पोलि पगार मुनिश्वर पणि भजे पुनही, भीमड जोइ विचार. खमणउ भलउ के सेवडउ. १३ पश्चात भीमराजेन मालवोपरि कटकं कृत. भोज भग्नः धार धधोलि तत् सदा चारणेनोक्तं ७ ζ — ९ वारि, भोजराज भीमेण सिउंप्यं जिम वारो घोडा खर रजिअणीय भरि धंधोलि सिजि धार. १४ सेवडउ. १२ Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजवंशावली ६९३ इति भोज भीम संबंध: संवत् ११२० वृद्ध कर्ण. संवत ११५० श्री सिद्धराय चक्रवर्ति जयसिंहदे योगिनी हरपाल साकरीएण जिता. वर्ष ४९ राज्यं कृतं. तत: वर्ष ३ पादुका राज्यं सं.११९९ कार्तिक शुदि ३ दिनं भीमसुत प्रेमराज. देवराज त्रिभुवनपाल श्री कुमारपाल प्रविष्ट. वर्ष ३० मास १ दिन ७ राज्यं भुक्तं. संव०१२२९ भ्रातृ महिपालसुत अजयपाल प्रविष्ट. पश्चात् सं०१२३२ लघु मूलराज वर्ष ३ मास २. सं.१२३४ लघु भीमदेव तदाय च नन गूजरराज लीत. भीमदेव पाटि सं.१२८१ वीरधवल. वस्तपाल तेजपाल मंत्री बभुव:. सपरोपकारी बभूव. वस्तपाल वाक्यं - - पातालान्न नृ मोचितो बत बलि: नीतो न मृत्युः क्षये नोन्मृष्टं शशिलांछनं च मलिनं नोन्मूलता व्याधय:, शेषस्यापि धुरं विधृतकृते भारावतार क्षणं वेत सत्पुरूषाभिरामपदवीं न त्वं वहल्लज्जसि. १ मृत्यु समये वस्तुपालेन विधिस्याग्रे कथितं - अर्थेभ्यः कनकस्य दीपक पिसाः विश्राणिता: कोटिशः, वादेसु प्रतिवादिनां प्रति वता संस्का... तस्यातप्रतिरोपिते नृपतिभिः सारीरवत् क्रीडितं, कर्तव्यं कृतमर्द्धिनाय दिवि धेः तत्रापि सज्जावयं. सं.१३०५ तत वीसलदेव, सं.१३१८ अर्जनदेव, सं.१३३१ सारंगदेव, सं.१३५३ गृथल कर्ण. द्विषष्ठि १३६२ संवत्सर जेष्ठ कृष्ण त्रयोदशी १३ वासर मध्य भागे अल्पोपि कल्पांत कर:. प्रजानां विदेशलिंगं नित खांनखांन:. १ संवत १३६२ यवना माधव नागर विप्रेणानीता. ततो ढील्यां यवन राज्य. __ संवत १०४५ पातशाह महमद, सं.११०० पा. संजर, सं.१०२७ पा. मोजदीन, सं.१२४६ पा. वृद्ध कुतबदीन, सं.१२६४ पा. सहाबदीन, सं.१२९० पा० रूकमदीन, सं.१२९१ स्त्री रजूया राज्य कृतं. सं.१२९४ पा. मोजदीन, सं.१२९५ वहिराज, सं.१२९८ पा. वृद्ध अलावदीन, सं.१३०१ पा. वृद्ध नसीरदीन, सं.१३३२ पा. वृद्ध ग्यासदीन, सं.१३४४ पा. मोजदीन, सं.१३४६ पा. समसदीन, सं.१३४७ पा. जलालदीन, सं.१३५४ पा० अलावदीन, सं.१३७३ पा० लधु कुतबुदीन, सं.१३७७ पा. खसरूखांन, सं.१३७८ लघु ग्यासदीन, सं.१३८२ पा. महमद, सं.१४०७ पा. पेरोज, Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह सं.१४४५ पा. बूबक, सं.१४४६ तिगुलक, सं.१४४७ पा. महीमद, एतत ढीली राज्य नवयं. पश्चात् देशे देशे राज्यं जातं. एवं गुजरात देशे सं.१४६१ दफरखान, सं.१४६१ पा० तातारखान मास ३, सं.१४६१ मदफर सुरताण, सं.१४६७ पा० अहमद, सं.१४९० पा० महिमद, सं.१५०७ पा० कुतबदीन. वीरश्री कुत्तवेंद्र साह नृपतेः प्रौढ प्रताप्यां वरः कन्याकवे न मालवक्षितिपति साम्राज्य लक्ष्मीरियं, अस्यां एष करग्रहस्य समयेस्तत् कुंभसंस्थापने क्षिप्रं मंडपबंधने विजयते मंत्र प्रतिष्ठा मम. १ सं.१५१५ पा. दाउदखान दिन ९ राज्यं कृतं. सं.१५१५ पातसाह महमुद राज्यं करोति. (आ पछी पीर नाम पर १० कडीनी कविता छे.) - युगवर्णन राजवंशावलि. (जै. ए. ई., पत्र ४ पंक्ति १३, १५१५नी आसपासनी प्रति जणाय छे.) [जैनयुग, आश्विन १९८१, पृ.५७-५८] Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९५ संस्तारक विधि निसीही निसीही निसीही नमो खमासमणाणं, गोईमाईणं, महामुणीणं, नमो अरिहंताणं करेमि भंते सामाईअं. अजाह जिठिद्या अनुजाणह परमगुरू, गुरू गुणरयणेंहि मंडिअसरीरा, बहुपडिपुन्ना पोरिसि, राइअ संथारए ठामि . 9 अणुजाणह संथारं, बाहु वहणेणं वाम पासेणं, कुक्कुडि पाय पसारेण, अंतरं तु पमद्य [ ज्य? ] ए भू. २ संकोईअ संडासा, उवहं तेअकाय पडिलेहा, दव्वाइ उवओगं, उसास निरुंभणा लोए. ३ जइ मे हुज्ज पमाओ, इमस्स देहस्स इमाइ रयणीए, आहार मुवहि देहं सव्वं तिविहेण वोसिरिअं. ४ चत्तारि मंगलं अरिहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, केवल पन्नतो धम्मो मंगलं. ५ चत्तारि लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा. ६ चत्तारि सरणं पव्वज्जामि, अरिहंते सरणं पवज्जामि, सिद्धे सरणं पव्वज्जामि, साहू सरणं पव्वज्जामि, केवलिपन्नतं धम्मं सरणं पव्वज्जामि . ७ पाणाइवाय मलिअं, चोरी कं मे हुणं दविणमुच्छं, कोहं माणं मायं लोभं पिज्ज तहा दोस. ८ कलहं अब्भखाणं, पेसुन्नं रई अरई समाउत्तं, परपरिवायं माया, मोसं मिच्छतसल्लं च ९ वोसिरे सुइमाइ, मुख मग्ग संसग्ग विग्घभूयाई, दुग्गइ निबंधणाई अठारस पावठाणाई. १० एगो हं नत्थि मे कोई, नाहं मन्नस्स कस्सई, एवं अदीणमणसो, अप्पाण मणु सासए. ११ एगो मे सासओ अप्पा, नाणदंसणसंजूओ, सो सा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलखणा. १२ Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह संजोगमूला जीवेण, पत्ता दुखपरंपरा, तम्हा संजोगसंबंध, सव्वं तिविहेण वोसिरि. १३ अरिहंतो मह देवो, जावज्जीवं सुसाहुणो गुरूणो, जिणपन्नतं तत्तं इअ सम्मत्तं मए गहिअं. १४ (आ. क. भंडार, पालीताणा) [जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स हेरल्ड, एप्रिल-जून १९१८, पृ.१७६] Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९७ शब्दार्थ [वच्चेना क्रमांकमां पहेलो क्रमांक पृष्ठसंख्या तेमज दशांशचिह्न पछीनो क्रमांक ते पृष्ठ परनो पंक्तिक्रमांक सूचवे छे. पुस्तकना संपादक जयंत कोठारीनुं अवसान थतां, तेमणे तैयार करेल शब्दकोश (जे अधूरो छे) ज अहीं प्रसिद्ध कर्यो छे. सं. जयंत कोठारीए शब्दकोशमां लीधेला शब्दोमांथी केटलाकना अर्थ अनिर्णीत जणावाथी अर्थ नोंधवानुं बाकी राखेखें. एवा शब्दोने अहीं अर्थ विना ज समाव्या छे. केटलाक शब्दोना अर्थो एमणे प्रश्नार्थ साथे नोंधेला. तेवा शब्दोना अर्थ अहीं प्रश्नार्थचिह्न साथे आप्या छे.] अइ २७०.१६ अति, खूब अच्छेराभूत ३५.३ आश्चर्यभूत, विस्मयकारक अइसइ १६८.२९ अतिशय, चमत्कारिक अच्युत १४९१० विष्णु, (अहीं) कृष्ण (सं.) प्रभावक लक्षण अछइ ८.२५ छे (सं. आक्षेति) अउखरि ७२.१४ अजिय २१०.४ तीर्थंकर अजितनाथ अकामी १८३.१७ कामना वगरना (सं.) अजी २५०.२५ हजी (सं. अद्यापि) अकोटा १५२.२८ कानमा पहेरवानुं एक | अजीय १२०.६ हजी (सं. अद्यापि) आभूषण (सं. अर्कपत्र) अजुक्त २३.६ अजुगतुं, अयोग्य (सं. अयुक्त) अक्षय-ठांम १६.९ जेनो नाश नथी एवं मुक्तिधाम अजू २३८.२८ अद्य, हमणां ? अक्षित २२९.२३ अक्षत, अखंड अज्ज २०४.९ आज (सं. अद्य) अखय ४३.२६ अक्षय, अखूट १८८.५ नाश न | अज्जव २६४.१५ आर्जव, ऋजुता, सरलता पामे एवं अटक २८.१२ अख्यांणां १९९.११ मंगळ प्रसंगे भरवामां आवतुं | अटक १४०.१६ आकुंतेमु, मनफावतुं ? अखंड अनाज- पात्र (सं. अक्षतवायन) अटप-९६.२९ अगीतारथ २४४.२३ धर्मतत्त्वने नहीं जाणनार, अटाण ११०.२० संभवत: झीणा वस्त्रनो एक अविद्वान (साधु) प्रकार अगूरु-लघु ४३.२२ जे भारे नथी ने हलकुं पण | अटारडो १३५.८ अटकचाळो, तोफानी नथी तेवू अटारो ३६.१ अटकचाळो, वांको अग्र महिषी ४७.१२ पटराणी (सं.) अटालि ५४.२६ अटारी अघाडी २०.१६ अगाडी, आगळ, पासे अट्ठमट्ठम २७७.६ अट्ठम अने अट्ठम (त्रण अचिल ७१.५ अचल सळंग उपवासनुं तप) अचंभ २३७.४ आश्चर्यकारक (सं. अत्यद्भुत) | अट्ठावय २०२.२४ अष्टापद (पर्वत) अचेरा २८०.११ आश्चर्यकारक अठम २११.१३ आठमुं (सं. अष्टम) अच्चब्भुअ २१८.३० अत्यंत विस्मयकारक (सं. | अठोतर २६७.१८ (अमुक उपरांत) आठ अत्यद्भुत) अठोतर सो १६५.२१ सो उपर आठ, एकसो Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९८ आठ अडक, अडप्प २५३.३ अडवडियां, अडवडीआं २११.१८, २४९१३ । पडतां-आखडतां (माणस) अढाइज्जो २४४.२५ अढी (सं. अर्धतृतीय) अणगार ३८.१३ साधु (सं. अनागार) अणसणी ४२.२२ अनशन करनार, उपवासी अणागत २५७.१९ अनागत, भाविमा थनारा अणुसर-३.१८; ४.६ अनुसरवू, अनुपालन करवू, धारण करवू ६.२९ अनुमान, कल्पवू, धारवू अणुहाणा १९५.२६ पगरखां विनाना, उघाडा (पग) (सं. अन् + उपानह) अणुहार ७९९ अनुसरतो, समान अत १९२.१३ अति, खूब अतिबल ६६.१५ शक्तिशाळी, वीरपुरुष अतिमुक्तक १५०.५ वृक्षविशेष अतिसय ३२.१३ प्रभावक चमत्कारिक लक्षण अतीत २४४.१६ पर थयेलो, अलिप्त (सं.) अतीहें २०.२८ अतिशय अतुलबल ११.९ अतुलित - असामान्य बळवाळो अथिर ८३.२८ अस्थिर अधिकार १७८.१० प्रकरण, विषय (सं.) अनमेष २४.४ पलकवारमा (सं. उन्मेष) अनंतानुबंधी १७९.१४ अनंतकाळ सुधी आत्माने संसारमा भ्रमण करावनार (चार कषाय) (सं.) अनंताष्टकमय १८४.३ अनिठउ ५५.१२ अनिष्ट, अणगमतुं अनूप २५.२ अनुपम . अनूरति १२३.४ ओछप, न्यूनता (अण + सं.पूर्ति) अनुहार १७३.५ समान, सरखं (सं.) अनेथि २०३.११ अन्यत्र अनेरडइ ८.९ बीजे अनेरी २१२.१० बीजी (सं. अन्यतर+ई) अन्यान ६.१४ अज्ञान प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह अन्याय ६.१४; १६२.९ अन्यायी - खोटे कार्य, दुष्कर्म अपच्चखाणा १७९२० अपछर ४६.७ अप्सरा अपवर्ग ४०.२७ मोक्ष अबीर ७७.६ अबील, सुगंधीदार सफेद चूर्ण (अ.) अबीह २२१.२२ निर्भय (सं. अ+भी) अबुठ्या १५१.१५ अभिगम्य ११९४ जईने (सं.) अभिग्रह २७६.२९ प्रतिज्ञा, धार्मिक नियम अभ्यास १४९.२७ जन्मांतरप्राप्त संस्कार (सं.) अमरनयर ३.८ देवोनी नगरी, अमरावती अमरविमान २४१.१० देवलोक अमाणु २६१.१२ अमारुं ? अमान १४८.२३ अमाप (सं.) अमाय १८५.९ निष्कपट, सहज अमावास्यातनया १३७.१० अमिअ ३१.२४ अमृत, अमी अमीणीय १२४.४ अमीय ११.११ अमृत, अमी अमुलिक २६.१२ अमूल्य अमूल-३१.२४ निर्मूळ करवू, निकंदन काढवू अर १०६.१९ बीजूं (सं. अपर) अरगजा ८७.११ एक सुगंधी द्रव्य अरति १७९.२२ असुख, बेचेनी, दु:ख (सं.) अरथी १००.१४ इच्छुक, अभिलाषी (सं. अर्थिन्) अरदास १०६.१५ अरजी, विनंती अरबुद २५४.९ आबु (सं. अर्बुद) अरहट २२०.१८ रहेंट (सं. अरघट्ट) अरिअण ११.२५ अरिजन, दुश्मनो अरिहा १५.२४ पूजनीय, जिनदेव (सं. अर्हत्) अरु २७०.२५ अने (हिं.) अलगन ७१.२८ अलज-२५६.२२ उत्कंठित थq Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ६९९ अलजो १६५.४ उत्कंठा, आतुरता अलवेसर ५५.२४ अलबेलो, सुंदर, रसीलो । अलंकर-५४.४ अलंकृत करवू अलंब ७१.२९, ७३.२८ अलिनी १५९१९ भ्रमरी (सं.) अली २५४.११ अनिष्ट (सं. अलीक) अलीक २४६.२१ असत्य, खोटुं (सं.) अलुराई २२.३ अळवीतराई, परेशान करवू ते (प्रा. उल्लूर) अलूजण १७१.१५ अलूझ १४९२७ अलोक १६.१३ जीव-पुद्गल आदि रहित | आकाश (सं.) अल्हव-३३.१२ ओलवq अवगाहन ४३.२२ आधारभूत आकाशक्षेत्र अवगुण-१०.२३ अवगणवू, तिरस्कारQ अवटा-१२७.१४ दु:खी थq अवतंस ४९.२६ भूषण अवदात १५.१५ वृत्तांत, हकीकत अवधार-३१.५ ध्यानथी सांभळो अवधे ३६.२० अवधिज्ञान - दिशा अने काळनी चोक्कस सीमा सुधी जोई शकवानी शक्ति - अवारित १३२.२२ अणअटकाव्यु, सतत, निरंतर (सं.) अवाहि १०.२८ अबाध, निरंतराय, खूब ज अविगत ४९२१ अव्यक्त अविरल १५.७ अनल्प, घj अविहड ६३.२९ अखंड, नष्ट न थाय एवं अशुद्धि ७.९ अयोग्यता; जुओ शुद्धि अशुरांण १८.१ असुरो, दुष्टो अशोग १५१.८ अशोकवृक्ष असमंजस ८.१ अयोग्य, अनुचित (सं.) असमान १२२.२९ असाधारण, मोटुं अससेण २११.२७ अश्वसेन असहजिंअ २२१.१५ असाधारणपणे ? असंख ४५.१६ असंख्य असंत १३२.४ सत्त्वरहित, निर्जीव (प्रा., सं. असत्व) असंयत्ति ३५.९ असि, असी ३.१७ १७.२८ तलवार (सं.) असी २२९.२४ एंशी (सं. अशीति) असं १६४.४ एवं (सं.इदृश) असूर २७८.२६ मोडु अहनसि २५७.२३ रात्रिदिवस, हमेशां (सं. अहोनिश) अहिठाण ८.२० स्थान (सं. अधिष्ठान) अहिनाण ४.३० एंधाण, निशानी (सं. अभिज्ञान) अही १६८.१४ स्वामी, मालिक (सं. अधिप) अंखु ७६.२१ आंख अंगध १६५.१५ अंगद वानर अंगलूहणउं २२४.२० अंगलूछणुं, शरीर लूछवानुं वस्त्र (सं. अंग + लूष) अंगी २१०.२३ आंगी, जिनप्रतिमानी अंगशोभा अंगीकर-५.१६ स्वीकार, प्राप्त कर. अंगुठउ, अंगुठडउ २६१.२५, २६१.२४ वींटी, वेढ ? (सं. अंगुष्ठ परथी) अंघोल-२२४.४ नाहवू (सं. अंगलोह) थी अवन १८५.९ रक्षण, संगोपन (सं.) अवनीतिलो १५.२१ अवनीमां तिलक समान अवयर-३१.१९ अवतरवू, जन्म लेवो अवरणवाद १७३.२५ निंदावचन बोलवां ते ते (सं. अवर्णवाद) अवल ८०.२४ उत्तम (अ. अव्वल) अवलोई, अवलोय २०३.२४, २१७.२९ अवलोकीने, जोईने अवसर्पिणी ३५.४ जेमां गुणोनी क्रमश: हानि थाय एवो काळविशेष अवंक १९.२४ सीधं, स्पष्ट अवंचक १८१.१९ Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह अंघोल-७२.१७ नवडाव, आधोरण ५५.५ हाथीनो महावत (सं.) अंजनवान ५२.२८ काजळना वर्णना, काळा आन २६८.८ आण, सत्ता अंजनीनंदन २२.२५ अंजनीनो पुत्र, हनुमान आपणपई ५१.१७ आपणे, पोते अंत १३१.२४ १३१.२६ भाग, छेडो (सं.) आपण' ८७.१४ आपणापणुं, पोतापणुं (सं. अंतरि ४.१४ अंतरे, दूरे __ आत्मन् + त्व) अंतरि ५.६ वच्चे आपापणा २१.१९ पोतपोताना अंतेउरी ५३.४ अंत:पुरनी राणी आमय २४८.२६ रोग (सं.) अंबरख्यापक ७३.११ आमला २४८.३० वळ ? गांठ ? अंबावन ७०.१२ आंबानुं वन (सं. आम्रवन) आमलो ९१.१५ रीस अंबावि २५१.२८ अंबादेवी आमासांहमा १३६.१७ आमनेसामने, सामसामे अंबिली २२३.१ आंबली- झाड आमूल ५.१९ मूळथी, पहेलेथी (सं.) अंभ २५४.१९ वादळ (सं.) आरउ २७८.२८ जैन काळविभाग अंभ १००.१७ पाणी (सं.) आरण ५०.१३ एक देवलोक आइस ६७.११ आदेश, आज्ञा आरत २४८.२६ पीडा (सं. आर्ति) आउखउं ३१.२० आयुष, आयऱ्या आरति १९५.२४ दुःख, पीडा (सं. आर्ति) आका-भुवण २३०.७ आरहिडिउ २७५.३ आकुल-५७.४ व्याकुळ थर्बु आराधिक १७३.८ आराधक, मोक्षनो साधक आकुली ४५.२९ ५६.२ अकळायेली, व्याकुळ | आराम ११२.७ आकु सामी २३०.१ आराम जुओ कदली-आराम आखंडलमान २६७.२९ समग्र भूमंडलना मापे, आरास २३६.२६ आरसनो पथ्थर समग्र भूमंडल सुधी आराह-२५७.२३ भक्ति करवी (सं. आराध) आघाट २५४.२० चारे सीमा नक्की करीने (सं.) आराह १५.९ आराध, सेवा करवी, भक्ति आधी ९.२२ आगळ, पासे (सं. अग्र) आजने २६१.२ आरूण ७६.२४ अरुण, लाल (सं.) आठव-१६३.२३ धरवू, मूकवू, गोठवq (सं. | आर्भटी २०.११ आस्थावय्) आभट्टी २६.८ आड १५२.१५ कपाळमां करवामां आवती रेखा | आल १९.६, २७.२० अटकचाळु, अनुचित आणंदणी २०२.८ आनंद आपनार चेष्टा - वर्तन आथ १६५.२ शस्त्र (सं. अस्त्र, प्रा. अत्थ) आल ८.१ आळ, मिथ्या आरोप, तहोमत आदल २६०.१७ आदिनाथ, ऋषभदेव १६२.१५ मिथ्या वचन (दे.) आदला ६७.१७ आलति ६.६ आलाप ? (सं. आलप्ति) आदिल २३०.५ आदिनाथ, ऋषभदेव आलव-५४.१७ आलाप करवो, गावं (सं. आ + आदि देइ २७७.१५ वगेरे लप्) आधान ७.७ गर्भधारण आलविणि ११०.१४ एक प्रकारनी वीणा (सं. आधोआधि २७६.२६ आलापिनी) करवी Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ आलि ६. ६ मजाक, मस्ती आलीआ २३७.१६ आलीइ ६५.५ आलीया २०५.१२ आवश्यक १३५.२५ जैन आवश्यक क्रिया प्रतिक्रमण आदि आवा ६७.१७ आवागमन २३८.२८ आव-जा, फेरा जन्म मरणना आशातना ३३.१४ विपरीत वर्तन, अनादर आशान २७६.२७ आशान २७०.२१ आसनउ १०.७ पासे, नजीक (सं. आसन्न आसने १६२.१२ रहेली (सं. आसन्न ) आसुगि ५४.१२ आहूउ ६९२० आंकुर २३५.१२ अंकुर, फणगो आंगिकर - १०४.२१ अंगीकार करवो, स्वीकार करवो आंगी २००७ जिनप्रतिमानी अंगशोभा आंगीयां १९६. १ जैन प्रतिमानो शणगार (सं. अंग परथी) इक ७.१५ एक इख्या १५.२४ इख्याग १५.२७ इक्ष्वाकु कुळ इग्यारई गण- २३४.२३ अगियारा गणवा, नासी जवं इण ५.१३ आ इणि रेस ५.२४ आ माटे इणिखिणि ११.५ ए घडीए, एटलामां इत १५८.७ अहीं (हि.) इति १७५.१२ खेतीने नुकसान करनार अतिवृष्टि आदि उपद्रव (सं. इति) इघाडा १८९.१८ इया १७५.२० ए इयाही १७५.१५ ए ज (हि.) इलति १७५.१२ इस २८. ३ महादेव, शंकर भगवान (सं. ईश) इसर ३२.२५ ईश्वर स्वामी इसिउं, ४.२५ एवं इसुं ५.१ एवं इहलोक ६.९ आ लोक, पृथ्वीलोक (सं.) इंगाल १५८.११ बळतरा, पीडा (सं. अंगार) इंदनीलवन्न ६८.८ नीलमना वर्णनुं (सं. इन्द्रनीलवर्ण) इंदलो ३५.११ इन्द्र इंदो ३६.१६ इन्द्र इंद्रजालीयो १७३.२७ जादुगर (सं. इंद्रजालिक) इंद्रधनुष ७२.४ मेघधनुष (सं.) इंद्रविमान २५४.१३ इंद्रनुं निवासस्थान इंभिणी १९३.२२ हाथण (पोळ) (शत्रुंजय परनी) (सं. इभिनी) (सं. इभी) उ २०४.८ पण, सुध्धां (सं.तु) उकली ५३.३ ओकळी, तरंग, तरंगनी भात (सं. उत्कलिका) उकंठ ६५.२६ उत्कंठ, उत्सुक उकार ६८.१२ उखाणी १८४.१७ कहेवत, दृष्टांतरूप उक्ति उगुणपंचास २३१.११ ओगणपचास (सं. ७०१ एकोनपंचाशत् उग्र ३४.३० अग्र, सर्वाधिक, श्रेष्ठ उचव- १३१.१६ ऊंचं कर उच्छव ३२.१८ उत्सव उच्छह-६.३० उत्साहित थवुं, उत्सुक थवुं (सं. उत् + सह्) उच्छंग ७०.१६ खोळो (सं. उत्संग) उच्छाह ३.१० उत्साह, उमंग उच्छी ४७.१३ ओछी उछक २०.२८ उत्सुक, आतुर उछरंग ८०.४ उमंग Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०२ उछ्व ११.४ उत्सव उछाह ४.८ उत्साह, उमंग उछाह ३१.१९ उत्साह, उमंग, (अहीं) उमंगभर्यो अवसर, उत्सव उजमाल १७.११ उद्यमवंत, प्रयत्नशील, तत्पर उजा २४.२५ दोडी जवुं (सं. उद् + या) उजाड १९४.१७ वेरान जग्या उट २०७.२७ उट १७.७ आडश उठ ८४.१ साडा त्रण (सं. अर्धचतुष्ठ) उडसाला ११०.२० एक वस्त्रप्रकार उणिम १३२.१७ ऊणप, खामी उत १५८.७ त्यां (हि.) उत्तर २४५.५ पछीनुं, अवान्तर उदभट्ट २८०.१४ उदंबरी ११०.१४ वाद्यविशेष (सं. उदुम्बरी ?) उदार ८०.२६ अद्भुत, सुंदर (सं.) उद्गार १३२. ३ मुखनी बहार काढवं ते, वमन (सं.) उद्धाया २६१.१० उद्धाया उन्मा- ८८.२२ उन्माद करवो, पागलनी जेम वर्तवुं उन्माद १३१.२९ कोयलना पंचमस्वरनो एक गुण उपकंठ १०.१२ कांठे, पासे (सं.) उपगारी ३७.२७ उपकारी उपन्नउ ७.२८ उत्पन्न थयो उपयोग ४०.२२ उपरोध ५१.४ अनुरोध (सं.) उपसर्ग ३५.५ तपश्चर्यामां आवतां विघ्न उपंग १५८. ११ एक वाद्य (सं.) उपाधि १८३.२६ उपाय ५. १९ उत्पत्ति (सं. उत्पाद, प्रा. उप्पाय ) उभग- १७१.१६ अरुचि अनुभववी, कंटाळवं (सं. उद् + भंज्) उभड २१.१६ उद्धत, उमेदवारी २६२.२८ होंश होवी ते प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह उम्मूल २५०.६ उखेडी नाखवुं (सं. उन्मूल्) उयर १६७.२९ उदर, पेट उर २६९१२ अने (हिं. और) उर १९९.२८ अने (हि. और; सं. अवर) उलख - ४.२२ ओळखवं उलग ३२.११ सेवाचाकरी (दे. ओलग्गा, कन्नड ऊळिग) उलंठ ६.१६ उद्धत, अविनीत, घमंडी (सं. उल्लंठ) उलाल - २६१.१४ छीनवी लेवुं, उपाडी जवुं उलि ६७.२५ हार, श्रेणी (सं. आवलि) उल्लस १७०.१३ प्रगटवुं (सं.) उवज्झाउर १६७.१३ अयोध्यापुर उवज्झाय ८४.७ उपाध्याय, जैन साधुनुं एक पद उवयार १६९५ उपकार उवर १६७.१७ उदर, पेट उवस २४९,१ उज्जड, वसतीरहित (सं. उद्वस) उवसम २६४.१४ उपशम, क्रोधनो अभाव, क्षमा उवसंताप ११२.६ संताप (सं. उपसंताप) उवायां २६१.१० उसासतां २५७.१८ अशाश्वत, अनित्य उहरी ६४.५ उहिनाणी ३८.१८ अवधिज्ञानी उंगरि ११०.१५ वाद्यविशेष उंबराउ २६८.४ उमराव ऊअर ६४.२ उदर ऊगटि ७२.१९ सुगंधी पदार्थोनो लेप, अंगराग (सं. उद्वर्तन) ऊनह-२०.१४ ऊंचे चडी आववुं ऊपन-३०.१४ उत्पन्न थवुं ऊमनउ ३१.९ उद्विग्न (सं. उन्मन) ऊमाह ६.२६ उमंग (दे. उम्माह) ऊमाह - ५३.२६ उत्साहित थवुं ऊवेख- ९.२१ उवेखवं, उडाडी मूकवुं, फेंकी देवं (सं. उत्क्षेप) Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ७०३ ऋत १३३.१२ ऋतु कदली ५२.११ केळ (सं.) ऋद्धिगारव ४७.१५ समृद्धिनुं गौरव-गर्व कदली-आराम ६.२८ केळy उपवन, कदलीगृह ऋषि राउ ४.२१ ऋषि राज कन १७५.१४ कण, अनाजना दाणा (हि.) एकण ८९.१३ एक ज कपाट ६७.२५ (दरवाजानां) कमाड एकंति २२९.२५ संपूर्णपणे कपूरीयां ११०.१९ कोईक वस्त्रप्रकार एकांति २३८.१३ निश्चयपूर्वक, एकाग्र ? । कप्प २६४.१९ आचारधर्म एगुणवीसम २१२.१ ओगणीसमुं (सं. कप्पतरो २०२.११ कल्पतरु, इच्छित आपनार एकोनविंशतितम) वृक्ष एरिस २१०.१३ आवं, एवं (सं. एतादृश) कबरी १३६.१८ चोटलो (सं.) ऐरावण ५४.५ हाथी (सं.) कबाहि २२०.१० जरीनो जामो, वाघो (फा. ओप १८५.२१ निर्मल थएँ, उज्ज्वळ थ, (दे. कबाह) ओप्प) कभाय १९१.१० अंगरखं, कसबी वाघो (फा. ओपमा १९८.१८ उपमा कबाह) ओल २२२.४ आवलि, हार कमरउं ११०.१५ वाद्यविशेष ओलग २४८.२८ सेवा करवी कमला-१०४.२३ करमार्बु (सं. कलाम) ओलंभा १०५.१६ उपालंभ, ठपको कमला ५.११ लक्ष्मी (सं.) ओसर-१९४.८ पाछा हठवु (सं. अव+स) कमा-११४.२७ करवं (सं. कर्म परथी) कउतग ५.१ कौतुक, नवाईभरी वस्तु । कमाणि २००.१६ कमान कउतिग ११०.६ कौतुक, गम्मत, विनोद कमेण २६४.२५ क्रमे करीने कच्छ्यु २७०.१७ कोई (हिं कछु) कयंब १०९.९ कदंब- वृक्ष कज्ज २१९.८ कार्य करणी ५२.१० करुणी, एक पुष्पछोड कझलबींद १३७.२८ काजळनुं टपकुं (सं. | करणी ४.१० करेणनु फूलझाड (सं. कर्णिकार) कज्जलबिंदु) करमदडी २३६.१४ करमदान झाड कटक ५४.८ हाथमा पहेरवा, कडु (सं.) करयल ४५.१७ हाथ (सं. करतल) कटकी ४.२८ नानु कटक - लश्कर करवादिनी ११०.१३ वाद्यविशेष कटेरू १६४.३ कटार (सं. कर्तारक) करवाल ६७.२८ तलवार (सं.) कड १९८.२४ केड, कमर (सं. कटि) करसण ९४.२४ खेतरनो ऊभो मोल (सं. कर्षण) कडुआलि ११०.१६ घंटडी (दे. कडुआल) करसणी ८३.१९ खेडूत (सं. कर्षण + ई) कणद्यवन २११.९ करहा १९.२६ ऊंटा (सं. करभ) कणयर ५२.१० कर्णिकार, करेण । करंड २१०.२९ करंडियो (सं.) कणयर-कांबडी ६५.२५ करेणनी सोटी करामात १७.६ चमत्कार (अ.) कणवीर २२२.११ करेण (सं. करवीर) कराली ५६.१० पीडित (सं. करालित) कताण ११०.२० एक वस्त्रप्रकार, कंतान करि ८.२४ –ने लीधे कथीपा २८०.१७ एक वस्त्रप्रकार, मखमल (अ. | करि कहिर २६९.१६ कतीफा) करीर ८६.२५ केरडो (सं.) Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०४ करूणी ६९.१४ एक फूलझाड कर्णिका ४७.११ कमळनो बीजकोश (सं.) कर्ष १५२.१९ खेंचवुं, ताणवुं (सं.) कल १६०.११ कला कल ८८.६ मधुर कल - ५७.४ डूब, गरकाव थवुं, मग्न थवुं (सं.) कल - ११.२ कळवु, जाणवुं कलहथा ७३.१७ घोडानी एक जात कलहंस २१९.५ एक हंसजाति (सं.) कलहेम ६७.१६ कलंदर २६८.२४ कलि १७०.२४ झघडो, क्लेश ? पापवृद्धि ? कलिकल्प १७०.२४ कळिकाळ कलीहरि ७०.२२ कल्याणक ३४.९ जिन भगवानना मंगल अवसर कल्लाणउय २०३.१४ कल्लोल १७१.१८ मोजु, छोळ (सं.) कवण ७.२९ कोण (सं. कः पुनः) कवण ८.७ कया, शा कवण १०.२३ केम, शा माटे कविता २३४.५ कवयिता, कवि कविलास २५४.९ कैलास पर्वत कसमल ११.२९ मलिनता, मेल (सं. कश्मल) कसमस २५३.२० कसवटी २५३.८ कसोटी, परीक्षा (सं. कसपट्टिका) कसी १६४.१३ केवी (सं. किहश) कसुंबा ८०.२४ कसुंबाना रंगना लाल रंगना (वस्त्र) कस्यो १६५.२ केवो, शो, शी विसातनो १६५.३ शो, शा अर्थनो, शा माटे कस्तूरीयां ११०.१९ कोईक वस्त्रप्रकार कह २५५.१४ कोई कह २७८.११ कोण कहे ११७.२३ कोण प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह कंचुओ १७७.२३ कमखो ( सं . कंचुकः) कंत ४.२४ कंथ, पति (सं. कान्त) कंदली १३२.२० कपाळ ? (दे. कंदल) कंतार १८.२३ वन कंति ७३.१२ कांति कंद ४.९ मोगरो (सं. कुंद) कंद १६३.१४ मूळ (सं.) कंदलो २००.१४ मूळ, मूळियुं (सं. कंद परथी) कंसाल ७६.२७ कांसीजोडना प्रकारनं एक वाद्य (सं.) जैन ध्यान काउ ७७.१८ कोई काउसगीया २०६.३० काउसग्ग - क्रियामां बेठेला (सं. कायोत्सर्ग) काचित १३९१६ केटलीक (सं. काचित्) काछब कोटि १७८.१९ काचबा काथ ९१.१८ कादमी ९०.१४ कादवयुक्त स्थिति (सं. कर्दम) काम- ११.१८ इच्छवुं, वांछवं, चाहना करवी काम १९०.२३ कामना, इच्छा कामघट २०४.११ इच्छा पूरी करनार घडो कामण १३०.२५ कामिनी, स्त्री कामणि १५.२९ कामिनी, स्त्री कामिय २०९.२२ कामित, इच्छित कार १९.१, १९.२, २२.१६, २३.२६, २९.१३ महिमा ? कार १७.२२ आबरु, शाख कार- ७२.१९ कराव कारागिह २६४.२५ कारागृह, बंदीखानुं कारिज १८.२१ कार्य कारिमूं १६४.१७ कृत्रिम, खोटुं, व्यर्थ, मिथ्या (दे. कारिम) काय २१२.९ करावेलुं (सं. कारित) काल १६३.१८ वार, विलंब कालिम ६५.२१ काळाश कालो भैरव २४.१ काळभैरव . Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ७०५ कास्मीरिया ७३.१७ काश्मीर देशना, घोडानी एक | (सं.) जात कुद्राव ९.५ काहल ६९१० ढोल के भेरीना प्रकारचं एक | कुब्जिका ११०.१४ वाद्यविशेष (सं.) वाद्य कुमेद १९.२९, २५.७ कांमनी १६३.११ कामिनी, स्त्री कुरकचि ११०.१५ वाद्यविशेष कांसी ११०.१६ कांसीजोड, झांझ (सं. कांस्य) कुरबक ७०.२ एक वृक्ष, कांटा-शेरियो (सं.) किण ८.१९ कडे कुरंग ३.१५ हरण (सं.) किन्नर ५.१० एक देवकल्प योनि कुलवट ८.१७ कुल-आबरू, खानदानी किम ६.४ केम, केवी रीते (सं. किम्) कुलीणी ७१.२३ कुलीन, खानदान कियुज २७५.१७ कुसलखेम २५०.२३ क्षेमकुशळ, सहीसलामत किर ६६.११ खरेखर (सं. किल) कुसुमरेणि ११०.२ पुष्परज किरि ६९.१४ खरेखर (सं. किल) कुसुमसर ५५.१४ कुसुमरूपी बाण धरावनार, किवि २०२.१५ केटलाक, (सं. केऽपि) कामदेव किसल १५५.२२ कुंपळ (सं. किसलय) कुंकणा ७३.१७ घोडानी एक जात किसीय ३.२८ केवी कुंठ ४.१८ कण्व ऋषि किसुं ३.२४ केम, शा माटे ? कुंड १३१.२४ किसुं १०.८ कशें, कोई कुंडली २००.१८ वर्तुळाकारे वळेली ? किस्युं ८.२० शुं कुंढास २६०.२८ किह ९.७ क्यां कुंत ३.१७ भालो (सं.) किहाडा ७३.१६ घोडानी एक जात कुंद ५२.१५ मोगरो (सं.) किहांही २०.२४ क्याय कुंभिग २३२.१२ किहि ११.१२ क्या कुंली ६६.८ कळी (सं. कलिका) किंगार ८२.२० केकारव कूअली ६५.२३ कूमळी किंपाक १७.१२ झेरकोचलुं, एक फळ जे कूड ९.२९ कपट १०.३ खोटुं, मिथ्या देखावमा अने खावामां सरस पण प्राणहर होय कूडउ ४.२९ खोटुं, मिथ्या (सं. कूट) कूडउ ६.७ खोटुं, बनावटी किंशुक ५२.१७ केसूडो (सं.) कूर ८७.१८ कीम ८.५ केम, केवी रीते (सं. किम्) कूलिरि २५३.१४ घीगोळ साथे चोळेलो बाजरीनो कुक्ख १६७.१६ कूख (सं. कुक्षि) लोट, कुलेर (दे. कुल्लुरी) कुचभर ७०.१ स्तननी पुष्टता, पुष्ट स्तन (सं.) | कूकू-रोलू ७२.२३ कंकुनो लेप कुडय १०९.९ एक वृक्ष (सं. कुटज) कृतमति ५८.२६ कुण ७.२८ कयो, शो (सं.क: पुन:) कृपाण २४.१५ तरवार (सं.) ७.२९ कोण कृष्णागुरू ७२.२० काळु अगरु कुतिग २५४.८ मनोरंजन के ८७.१७ केटलाक (सं.) कुतीर्थ २४४.१३ खोटा मतवाळा, मिथ्यादर्शनी केइ २४.२८ केटलाक (सं. केऽपि) Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह केउर ७४.१५ हाथमां पहेरवानू कडु (सं. केयूर) | कोद्रवडा १६३.११ कोदरा-एक हलकुं धान्य केकइ २०.२८ मोर (सं. केकी) (सं. कोद्रव) केकाण १९९.७ (क्यकान प्रदेशनो) घोडो | कोपव-८.१२ कोपाव, गुस्सो कराववो केता १०.६ केटलाक कोपाटोप ८.१६ क्रोधाडम्बर, क्रोधावेश (सं.) केतक २७२.१३ केटलाक कोयल ११८.२ कोयला, कोलसा, अंगार केलव-८९.२३ बनावq, तैयार करवू (दे. । कोरणी ६७.१७ कोतरणी| केलाय) कोरिट १४८.२४ वृक्षविशेष (सं. कोरंट) केलवा-१९८.२२ तैयार थर्बु कोरू १३४.२३ केलि' ३.१२ विनोद (सं.) कोसीसां ६७.२५ कांगरां (सं. कपिशीर्षक) केलि३.१२ केळ (सं. कदली) कोह-दव २६४.१४ क्रोधरूपी दव केलि ५.११ क्रीडा (सं.) क्षति ८०.२७ घा (सं.) केलिहर ११०.५ केळनो मंडप (सं. कदलीगृह) क्षीरोदक २२४.५ एक जातनुं धोढुं रेशमी वस्त्र केलीथंभ ६५.२३ केळनु थड (सं. कदलीस्तंभ) (सं.) केवडी ७२.१५ खइर ११७.२८ खेरनुं लाकडु (सं. खदिर) केवलधर ३०.८ केवळज्ञान - सर्व पदार्थोनुं ज्ञान खइराति २७६.२३ - धरावनार खगजड (वगजड) २४.२३ केवळ ३८.२५ केवळज्ञाननी स्थिति खट ६७.२७ छ (सं. षट्) केवळनाण ३८.९ केवळज्ञान - सर्व पदार्थोनू खडग २४.१३ तलवार (सं. खड्ग) ज्ञान खडी-उछालइ २७१.२८ केवळी ३८.१८ केवळज्ञानी खडोकली २२९.२ होज केवि ६५.१० कोई पण (सं. केऽपि) खडोखली ५३.३ क्रीडा माटेनी नानी वाव, कुंड, केसुय १०९.९ केसूडो (सं. किंशुक) होज केसूर २२४.१७ केसर ? खण-२५३.१३ खोदवु (सं. खन्) केहइ कामि ५.१२ कया कामे, कया कामनी । खण १६३.२४ क्षण केही ३.२७ केवी खणवचन २५५.१५ केहो ८५.२९ केवो खताब २७०.१९ खिताब, इल्काब कैरव १७२.८ (सफेद) कमळ (सं.) खप १३६.५ इच्छा कोइल ६९.१२ कोयल (सं. कोकिल) खप ११.३० प्रयत्न, उद्यम, खंत कोकपटीर १३८.८ खपाव-३८.७ क्षय करवु (सं. क्षप्) कोकबाण २६.६ खम १६८.२५ क्षमा कोटीर १८५.२८ मुगट (सं.) खम-४.२६ क्षमा करवी कोड १८५.१६ कोटि, करोड खमव-३७.५ क्षमा मागवी कोडि ३०.८ करोड (सं. कोटि) खमाव-३६.२२ क्षमा मागवी कोडि १६२.२१ करोड, असंख्य (सं. कोटि) | खल्या २२.२२ कोतल २६.१० सवारी माटेनो खास घोडो खवउ २५३.२३ खभो (दे. खवय) Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ७०७ क्षेप) खवास १२१.२७ सेवक, हजूरिया (फा.) | खूनकारक २८.४ जुलमगार, क्रूर कर्म करनार खंच २३३.२ खचकाट खूप ७०.१९ माथा पर फूलनो एक शणगार, खंडोखलि ७६.२० क्रीडा माटेनी नानी वाव, होज | शेहरो (दे. खुंपा) खंडोखंडि ६.१३ टुकडेटुकडा, चूरेचूरा | खेचर ५१.८ आकाशगामी देव के देवकल्प योनि खंति ८६.२ होंश, इच्छा अभिलाषा (सं. क्षान्ति) | (सं.) खंध २७६.८, २७६.९ खांध, खभो (सं. स्कंध) | खेत १३४.१६ क्षेत्र, प्रदेश खंध ६५.२६ स्कंध, खभो खेमि ५१.४ सुखेथी, सरळताथी खंभ ६७.१७ स्तंभ, थाभला (सं. स्कंभ) खेर २८.११ कुशळ (अ. खैर) खाम-४.२७ क्षमा मागवी खेला ८०.२३ खेल करनार, नट खास १२१.२७ विशिष्ट, चुनंदा (फा.) खेलामंप २३०.२८ क्रीडामंडप खासत २६०.२८ खेव १६०.२१ तरत ज (सं. क्षिप्र) खांच-९१.२ खेंचर्बु (प्रा. खंच) १७५.१९ खेंचीने खेव-२३५.१३ नाखवू, फेंकबू, मोकलवु (सं. राखq खांडा १६५.१९ तलवार (सं. खड्ग) खेव ५६.२० जलदी (सं. क्षिप्र) खांति ८०.२५ होंश, उत्साह (सं. क्षान्ति) खेह १६३.१ धूळ खिजमत १७०.२६ खिदमत, सेवाचाकरी खोडि, खोडी ६१५ खोड, दोष, कलंक खिण ८९.१२ क्षीण, कृश २२१.१२ खामी, खोट १९५.२३ क्षति, हानि, खिण जुओ इणि खिणि विपत्ति खित्तवाल २२२.१९ क्षेत्रपाळ खोभाव-१४८.७ क्षुब्ध करवू (सं. क्षोभय) खिमा ४.२६ क्षमा ख्यात ८८.२६ कीर्ति, पराक्रमगाथा खीज-५३.१५ दु:खी थर्बु, खेद पामवो (सं. | ख्याल १३८.१५ क्रीडा, रंगराग खिद्य) ख्याल ८७.१९ गम्मत, क्रीडा खीर ८१.२० दूध (सं. क्षीर) गइण २५४.१९ गगन, आकाश खीर-निहाण ६४.१६ दूधनो भंडार (सं. क्षीर- । गइंद ५५.२६ गजेन्द्र हाथी निधान) गउरव ५५.६ वरनुं संमान करवा कन्यापक्ष खीरसागर ६४.२९ क्षीरसागर, ए नामनो सागर तरफथी अपातुं भोजन खीरोदक २३०.१६ सफेद रंगनुं एक जात, गजगेल १३९.१४ गजगति, गजगामिनी रेशमी वस्त्र (सं. क्षीरोदक) गजवडि ११०.२० हाथीनी नानी नानी भातवाढू खुन २८.६, २८.१८ वस्त्र (सं. गजपटी) खुरासाणीआ ७३.१६ खुरासानना, घोडानी एक | गडगडंत २७१.९ गाजतुं, प्रसिद्ध जात गण-३८.२८ पुनरावर्तन करवू (सं. गुण) खुसफहिमनुसीका २७२.२८ गण १९६.२३ गणि, जैन साधुनुं एक पद खूणालउ ७०.१९ खूणावाळो, वांको ? (सं. | गणगोर १९.२६ कोण) गणती ४०.१२ गणना, गणतरी खूट-११०.५ खेंची काढवं, तोडधं (दे. खुट्ट) गणहर २०३.१९ गणधर, जिनदेवना प्रथम शिष्य Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह गति २४२.२० जीवयोनि (सं. गर्भागार) गदाधर ५१.१० वासुदेव कृष्ण गात १३४.१० गात्र गभार २०२.११ गए देवालयनो अंदरनो । गामटि १६१.२६ गामडियण, अबुध भाग (सं. गर्भागार) गामागर २६४.१९ गम २६.३ मार्ग १८०.११ रीत, प्रकार गारव जुओ ऋद्धिगारव गम-८८.९ निर्गमवं, पसार करवू गिण-४.२२ गणनामां लेवं, आदर करवो गम-३२.२८ जदूं गिराव-७७.५ पाडवू (हिं.) गयण ४२.२१ गगन, आकाश गिरिवल २५६.१४ गयमर ६४.६ हाथी (सं. गजवर) गिरूआ ५३.२ गौरववंता गयवर ११.२१ हाथी (सं. गजवर) गिल ५५.४ गळवू, टपकवू, अंदर ऊतरवू गयंद १८.२४ गजेन्द्र, हाथी गिहिली १६१.२६ घेली गरढा १२८.१९ घरडा गिंदुक ११९२१ दडो (सं. कंदुक) गरिठ २१९.२२ मोटुं (सं. गरिष्ठ) गीतारथ २४४.२३ धर्मतत्त्व जाणनार, ज्ञानी, गरूउ ५५.६ मोटुं (सं. गुरुक) विद्वान (साधु गर्भाधार ७.२६ गर्भ धारण करी रहेली, गर्भवती गुख-८८.८ गोखg गल १३६.११ गळु गुख ५४.२५ गोख (सं. गवाक्ष) गवाक्ष ७४.३ गोख (सं.) गुच्छ १३१.२१ एक वृक्षजाति गवार-११०.४ गवडावq गुज १८.१५ छानुं (स. गुह्य) गह-२७२.६ ग्रह, स्वीकारवू गुज्जर २४०.१० गुर्जर देश गहगह-२२.२८ आनंदित थर्बु २५.१५ | गुझ ५.३ गुह्य - खानगी वात प्रफुल्लित थवू, फालबुंफूलवू गुड-१३१.१७ गडगडाट करवो, गाजवू गहगाट २७३.१७ आनंद गुड-११.२१ (हाथीने) कवच वगेरेथी सज्ज गहबर-२७९.४ गभरा, करवो (सं. गुड्ड) गहबर-८६.२६ गभरावू, व्याकुळ थर्बु गुण-२९.५ पुनरावर्तन करवू (सं.) गहिलउं ३३.१३ घेलो गुणगेलि ७७.१ गहेली ७६.२५ घेली गणठाण १८५.७ गणस्थानक. आत्मानी गमंड २६७.३० घमंड? २६८.१ आध्यात्मिक उन्नतिनी उत्तरोत्तर अवस्था गंगानील ७३.१६ घोडानी एक जात, गुणनिलो २९.३ गुणना निवास समान (सं. गंजण १७८.२७ मर्दन करनार, पराजित करनार गुणनिलय) (सं. गंजन) गुत्त २६४.१७ रक्षित (सं. गुप्त) गंजन ७१.२१ गांजनार, हरावनार गुदार-२४.२८ गंडुश १३१.२५ पाणीनो कोगळो (सं. गंडूष) | गुमट २०७.२९ घूमट । गंत १३२.१४ गाय छे गुलाला १५१.१७ लाल फूलनो छोड (फा. गुले गंध्रव २१५.२९ गांधर्व लाल) गंभारा २०५.६ गर्भगृह, देवालयनो अंदरनो भाग | गुहरी १३१.१५ घेरी, गाढ (सं. गभीर) Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ गुहिर ६५. २६ गंभीर, गाढ गुंजार ८१.३ गुंजारव गूजरि ६६.२० गुर्जर जातिनी स्त्री ? गोवालणी ? झि ९१.२७ खानगी वात, रहस्य (सं. गुह्य) jहली, गूंहली ७३.२ २२३.२१ मंगळ प्रसंगे करवामां आवती घउं आदिनी आकृतिओ (सं. गोधूम परथी) गेल १९५.२० आनंद, मोज ( सं . केलि) गेलि २२२.१७ गमन, गति गेलि ७१.२१ गति गेली १६७.२२ गति गेह २८.१५ घर (सं.) गेहर १२१.२९ घेरो, मंडळी, समुदाय गेंदुक १३६.१६ दडो (सं. कंदुक) गोअम २२१.१२ गौतम, महावीरस्वामीना गणधर गोइंद २१९१३ गोवाळ ? गोकुल ११.६ गायोनुं धण गोठ २६१.२५ गोठ १२२.१२ गोठी- काम १४७.१३ आनंदप्रमोद ? गोद बिछाह - ७७.१५ खोळो पाथरवो, आजीजी करवी गोफणीयो १५२.९ अंबोडे लटकाववामां आवतुं एक आभूषण (सं. गुंफन परथी) गोरडी १६१.२६ गोरी, स्त्री गोरू १६३.२८ गायो गोल १५४.२२ ग्रहणा ८६.२६ घरेणां (सं.) ग्रहिणुं १९३.२५ घरेणुं, आभूषण ग्राम १६०.१५ समूह (सं.) घटिका २२०.१८ नानो घडो (सं.) घडीयाल १६३.२७ समय दर्शाववा वगाडवामां आवती झालर, सपाट घंट घण १३१.२१ घणुं घन १६.३ भारे ७०९ घनसार १९१.१९ कपूर (सं.) घरणी १०.२३ गृहिणी, स्त्री घाउ ५४.१२ घा (सं. घात) घाडी १७९१८ गाढ ? घात १०६. ३ मोको, लाग (रा.) उतावळ ? घात ८.१५ घा, फटको (सं.) घाती १६.३ आत्माना गुणोनो नाश करनार (कर्मों) घार - ५.८ घेन चडवु, मूर्च्छित थवं घाघरी ११०.१५ घूघरी (सं. घर्घरिका) घुखल २५.१६ घुर - २०.१२ घमघमे, जोरथी वागे घुल- २७.१५ घूमवुं घूमरघाल- १२२.२ घुमरडी, फुदरडी फरवी घेर १५५.६ घेरो घेर १५३.१० घेरो, टोकुं घोरे १७५.१४ घोडा (हि.) घोषवती ११०.१४ वीणा के वेणुनो एक प्रकार (सं.) चइ ११७.२८ चिता चइत २१६.२४ चैत्य, जिनमंदिर चउक ७३.२ साथियो (सं. चतुष्क) चउकडीयां ११०.१९ चोकडीनी भातवाळु वस्त्र चउकी २००.५ चोक (सं. चतुष्क + ई) चउकीवट ७०.२३ बाजोठ, बेसवानो पाटलो (सं. चतुष्कपट्ट) चउखंडी ११५.४ चार बाजुवाळी देवडी प्रकारनी रचना (सं. चतुष्खंडी) चउत्थउं ५०.१२ चोथुं चउदसम २११.२४ चौदमुं (सं. चतुर्दशम) चउदह १९७८ चौद (सं. चतुर्दश) चउनाणी ३७.१८ चार प्रकारना ज्ञानवाळा चउपट २२१.१८ विस्तृत, मोटुं चउपट २२८.२८ मोटुं, विशाळ चउपासी २१८. २ चोपास, चारे बाजु Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह चउफेरी २१७.२६ चोफेर, चारे तरफ | चंग ७६.२७ डफना प्रकारचं एक वाद्य (फा.) चउबारो २१०.३ मथाळा परनी चारे बाजु खुल्ली | चंग ७७.३ सुंदर (सं.) स्थापत्यरचना (सं. चतुर) : चंगेरी २२४.२९ टोपली (दे.) । चउमुख २१६.७ चोमुख, चारे बाजु मुख होय तेवू | चंदप्पहो ३२.२३ चंद्रप्रभ स्वामी (सं. चतुर्मुख) चंदुज्जल २६४.२४ चंद्र जेवू उज्ज्वळ चउविह ५७.२६ चतुर्विध, चार प्रकारनो चंदूआ ६७.२३ चंदरवा (सं. चंद्रोदय) चउविहार २७९.५ चोविहार, चार प्रकारना | चंप-३६.२० चांपवू, दबाव, आहारनो त्याग (सं. चतुर्व्याहार) चाउ ४.२२ चउसरां २२४.२७ चार सेरवाळां चाउल २२९२३ चावल, चोखा (दे.) चउसाल ७२.२ विशाळ, विस्तृत (सं. चतुःशाला) | चाचिर १३०.१६ चोक, चोगान (सं. चत्वर) चउंआल २५१.२२ चुमालीश चातुक ९०.१ चातक पक्षी चकचूर २२.२६ चूरेचूरा चाप ७६.२२ धनुष्यनी पणछ (सं. चाप) चक्करयण १६८.१२ चक्रवर्ती राजानुं मुख्य | चारित ३१.३ चारित्र, संयमधर्म आयुध (सं. चक्ररत्न) चामरकुंभ २००.१८ चक्कीसर १६७.३० चक्रीश्वर, चक्रवर्ती चाय २०८.१० चक्री ३४.३० चक्रवर्ती राजा चारोत्तर ४७.९ -ना उपर चार चक्रीसर ३५.१६ चक्रवर्ती राजा (सं. चक्रेश्वर) | चाह-२३२.२३ जोq (दे.) चख-१८१.२६ चाखवू ? चावा २४३.१२ चाह, अनुराग चड २६१.२२ तरत ? चाह १५१.३० इच्छा, अभिलाष चडवड ३.१६ चटपटीथी, आतुरताथी, झडपथी | चिइ २१६.११ चैत्य, जिनमंदिर (दे. चडपड) चिउ २४४.२६ चार चमरी १५२.१० चित्र ५१.१० आश्चर्यभूत, चकित चरण १५४.१४ चित्रशाला ८२.२३ ज्यां चित्र गोठव्यां होय ते चरण ४१.४ चारित्र, संयमधर्म, दीक्षा दीवानखानुं (सं.) चरि{ २७७.१६ अंतिम, छेल्लु (सं. चरम) चित्राम २१०.११ चितरामण चरिय ५८.२६ चरित्र चिय २१३.२० चैत्य, जिनमंदिर चल-१७८.२४ चलित थQ (सं. चिहुं १७.१३ चारेय (सं. चतु: + खलु) चलण २५१.८ चरण, पग चिंतिअ २१७.२३ चिंतित, विचारेलु चलुं ७२.१४ जम्या पछी हथेळीमां पाणी लई मों चीतरउ २७०.९ चित्तो (सं. चित्रक:) चोख्खं करवं ते (सं. चुलुक) चीतार-२७५.२४ चित्तमां लेबु, स्मरणमां लेबुं चव-३४.१९ च्युत थवू, देवमाथी मनुष्य के तिर्यंच । चीवर ३७.१९ वस्त्र अवस्थामा जq. १७१.११ अन्य अवतारमा चुक २२९.२३ चोक, साथियानी आकृति (सं. चतुष्क) चवरी २०७.२६ लग्नमंडप (दे. चउरी) चूआ ७६.१७ विविध गंधद्रव्योना मिश्रणथी चहुंटां ६७.१९ चौटां बनावेलुं एक गंधद्रव्य जवु Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ७११ चूउं २८०.२४ विविध गंधद्रव्योना मिश्रणथी | छत्तकार १७.१० छत्र धरवू ते ? रक्षण ? बनेलं एक गंधद्रव्य छद्मस्थपणुं ३८.२४ सावरण ज्ञानदशा, चूकव-५.२३ भ्रंश कराववो, (साधनामां) भंग केवळज्ञान पूर्वेनी दशा पडाववो छन्नवई १६८.१६ छन्न (सं. षण्नवति) चूकव-जुओ मेखनइ मेखइ चूकव(b) छबुतरउ १११.२ चबूतरो चूत १४८.२३ आंबो (सं.) छयल १२२.१६ छेल, रसिक, चतुर चूया १९१.१९ विविध गंधद्रव्योथी मिश्रति एक छरिरी १९४.९ गंधद्रव्य छल १६८.१० चूर-६६.२५ चूरो करवो, विनाश करवो छल-२६३.७ परास्त करवू चूंप १५३.१८ झडप, चपळता १९४.२७ छ्योर-२७०.७ छोडवू, मुक्त करवू चानक, उत्साह छंड-३.१९ छोडवू, छोडवू चेइ १९२.९ चैत्य, मंदिर छंडाव-३६.२७ छोडावर्गा, दूर करावq चेटी ११०.११ दासी (सं.) छंद ४.१५ लहेर, मनमोज चेडा-चेटक २४९.९ जादु, मेली विद्या छाबडा जुओ छडाष्ठाबडा चेतन ८.२४ चेतना, भान, स्मृति छार-१५९१२ छोडवू, छोडवू चेत्र २१७.२५ चैत्य, जिनमंदिर छाह-५७.८ –ना उपर फेलावू, व्यापq १६३.१ चैत्र २०४.१३ चैत्य, मंदिर छावं, ढांक चोकडी १६५.१३ लोक, भुवन (तुच्छकारमा) छांहि ८०.१५ छांय, पडछायो चोथाई १५२.११ चोथो भाग छिरक-१२०.२४ छांटq (हिं.) चोधारी २४.१६ छीज-१४४.२ क्षीण थर्बु (सं. छिद्यते परथी हि.) चोपट १६५.१३ चारे तरफथी, पूरेपूरूं छीन २४.१९ छिन्न, भग्न चोलणो १२२.१४ झम्भो (हिं. चोलना) छीप-१३६.१२ छुपाएं चोवीसवटो २०५.१६ चोवीस जिनप्रतिमाओनो | छेह १६.१० छेडो, अंत (सं. छेद) पट ? जक २६०.७ चोसरा ८६.१६ चार सेरनो (हार) जक्ख १६८.१४ यक्ष चोसाल २००.५ विशाळ, विस्तृत (सं. चतु:- जगत्र १६५.२७ त्रणे जगत शाला) जगनाह ३१.२० जगतना नाथ - अधिपति च्यारियु २७५.२४ जगीश, जगीस ८४.८, १९२.१७ इच्छा, छकना ११०.१४ वाद्यविशेष अभिलाषा (सं. जिगीषा) छटक १९४.२ झडप, त्वरा जगीस २००.१९ छटक-४३.११ छंटकावq ? नाखवू ? जडाव १९६.७ छटक-१३४.२७ छांटवू जढ २०८.१७ छटा २६.९ जणाले २५८.१५ जिनालय, जिनमंदिर छडाछाबडा १६४.७ छंटकाव अने थापा जथा १८९१२, १३ यथा, जेम ? यथा रूपे, छतई २७८.२२ होतां बराबर रीते, साचेसाच ? Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह जबादि ७६.१७ एक सुगंधी द्रव्य जादर ६५.७ एक प्रकारनुं रेशमी कापड जम १६३.२ जेम जादरा ११०.१९ सफेद रेशमी वस्त्रनो प्रकार (दे. जमइ २७६.२६ जेम ? जद्दर) जमवारो ११७.१४ जन्मारो (सं. जन्मवारक) जानी ८२.२२ प्राणप्रिय (फा.) जम्म २०४.९ जन्म, अवतार जामण ३०.१२ जन्म (सं. जन्मन्) जया ११०.१३ एक वाद्य (सं.) जामलि २५१.२२ जोडमां, समान, जेवू (सं. जरद १५२.१५ पीळु (फा. जर्द) यमल) जलण १८.२३ अग्नि जाय २६१.१५ पुत्र (सं. जात) जलप-२२.३० बोलवू जारक २४९.५ जलवट २२.१० जलमार्ग (सं. जलवम) जाल, जाळ १४७.१८, १४७.२० ज्वाला, झाळ जलहर १६३.२ जलधर, वादळ जालि ३६.३ जव ५५.१२ ज्यारे जाली १५२.९ माथा पर पहेरवानू घरेणुं (सं. जवहरि १०.१४ झवेरी जालिक) जवाली १५४.२७ वेगवंती जावज्जीव ४३.४ जीवतां सुधी जसवास १५७.२४ यशोवाद, यश बोलावो ते जास १९७.१८ जेनुं (सं. यस्य) जंग २७२.११ समारंभ, आनंदोत्सव (फा.) जासूल २१८.१५ जासूद - एक फूलछोड जंग ६७.२२ जांनी १५८.२७ प्रिय (फा. जानी) जंग २२०.१० उत्सव (फा.) जांम ३.१९ ज्यारे जंगी २४४.११ मोटुं जांमनी १२६.२३ रात्रि (सं. यामिनी) जंजाल १६५.२२ उपाधि जिण ३०.९ जिन भगवान जंप-७.२३ बोलवू, कहे, जिण ८.२४ जे जंबीर ६९.१५ लींबु जेवू एक फळ (सं.) जिणंद १५.२२ जिनेन्द्र जंबु १५१.६ जांबुन वृक्ष जिनहर ६७.१४ जिनगृह, जिनालय जंबूदीव २१३.२२ जंबूद्वीप जिम ८.१६ ज्यारे जाइ २३४.२८ पुत्री (सं. जात+ ई) जिमइ ३.२२ ज्यारे जागव-११.१४ जगाव, उत्पन्न करवं जिम किम ५.१६ गमे तेम करीने जाची ६६.८ जेनी - जिमणउ २०२.१३ जमणो जाचुं १८७.२८ उत्तम (सं. जात्य) जिमना १६३.१५ यमुना, जमना नदी जाण १९०.१८ ज्ञान जियशत्रु २१९.१ जितशत्रु (राजा) जाण ९.३ ज्ञानी, पंडित, जाणकार जिवारे १८४.१८ ज्यारे (सं. यद्वारे) जाणग १८६.४ ज्ञापक, समजावनार जिसइ ७.३ जेवामां, ज्यारे | जात, जात्य १८४.२५ उत्तम (सं. जात्य) जिसिइं ४६.६ जे बड़े जातीसमर २५०.१५ पूर्वजन्मनु स्मरण (सं. | जिंगोर २०.२८ । जातिस्मरण) जीत १७२.१० परंपरागत आचार, साधु आचार जात्र २४८.२९ तमासो जीप-६४.१२ जीतq (सं. जित, प्रा. जिप्प) Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ७१३ जीपण १२९.९ जीतवं ते जीयरो १५९.२० जीवडो, जीव जीह ७७.२७ जीभ जुक १५५.१ मेदनी, समुदाय (फा. झूक) जुत ५७.१३ युक्त, जोडायेलु (सं. युत) जुमाली १५२.२७ जोडीदार, जोडरूप (सं. युग्म परथी) जुर ११८.७ जोर जुषारि २५८.१० जुहरीवाड २४०.१५ झवेरीवाड मुंब-१५५.३ अळंबवं. माथे तोळा, जूगादी २६.२५ युगादिदेव, आदिनाथ, ऋषभदेव जूदागीरी १९.३ जुदागीरी, जुदाई —अली ६५.२३ जोडवाळी, बेवडी (सं. युगल + जूमणां १५२.२७ कानमा पहेरवानुं एक झूलतुं घरेणुं जूही २३६.१३ जूई (सं. यूथिका) जेडि १६४.१० विलंब जेण १०.१२ जे जेर १२४.२ कमजोर, निर्बळ (फा.) जेहड १९३.१२ जो २०४.१३ जे (सं. य:/यो) जोइसी ३१.२५ सूर्य, चन्द्र वगेरे ज्योतिष्क देव जोगनी २१.२१ योगिनी, जोगिनी जोगव-१६८.१० जोणी १५२.२५ जोवू ते, दृष्टि जोधा २१.१ योद्धा जोयण १६.८ जोजन, तेर किलोमीटर जेटलं अंतर जोलीउ १५३.१२ ज्युगाददेव, २५७.२७ युगादिदेव, ऋषभदेव झकोर ८५.२७ आनंद, मोज झड २६८.२५ झोड, पिशाच झड १२७.२४ झडी, जोरदार धारा झरलाइआ २८०.२७ झल-१९३.२३ प्रकाशवू, झळकवु (सं. ज्वल) झंक १०.२४ संताप (दे. झंख) झंखरी ११०.१४ वाद्यविशेष झाण १८९.१५ ध्यान ? झाण १६८.२७ ध्यान झाबा १२१.२७ पहेरण, झब्बो (फा. जाम:) झामकझुमक २६१.१४ झामरतली ११०.२० कोईक वस्त्रप्रकार झाल १५२.२७ कानमा पहेरवानं एक आभूषण झाला १४७.२ ज्वाला, झाळ झांसि १७९.१८ झील-५३.४ नाहवं झुझपणुं १७.२ योद्धापणुं, शूरवीरता झुंडल २६८.२२ झूझ १६४.२२ युद्ध झूना ११०.२० बारीक कापड, मलमल झंझा-२४.१८ लडवू (सं. युद्ध परथी) झेर २४.२५ पराजित, ताबे (फा. जेर) झोटींग २६८.२५ झोल २०४.३ खीण झोल २२२.४ खीण ? ज्ञायक २४४.१२ ज्ञानी, जाणकार टकोल ९५.२ टोळ, विनोद टबक ८३.२ टपक, टबटब ८३.२ टपटप टहकार १०.१३ टहुकार, अवाज टुक २७५.२४ जराक, थोडुक टोडर ६४.१० डमरो टोडे १५८.१८ टोडले ठगोरी १०५.११ जादु, मोहिनी, कामणटूमण (हिं.) ठव-११.२२ स्थापq २२.१ मूकवू १६४.२४ स्थापवू, ऊभुं करवू, रचq ठंठार ११०.२७ ठंडी Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह ठा-१४९११ रहेg (सं.स्था) तदनु २०३.२१ ते पछी (सं.) ठाउ ३०.१३ स्थान तन १७३.२८ ठाकठकाणे २३४.२७ ठेकठेकाणे तन २२१.२२ पुत्र (सं. तनय) ठाढु ७६.२३, ७७.१२ ऊ/ तनकतनक ९०.१३ जरा-जरा (हि. तनिक) ठाण २५.३ स्थान तमभर १३७.११ अंधकारनो जथ्थो (सं. तमस ठाणग १८६.३ स्थानक + भर) ठाव-३.९ स्थापवू तयणु २०२.११ ते पछी (सं. तदनु) ठावो २४९९ स्थापित होवू ते तरज-९१८ धमकावq डंड २७.९ दंड - शिक्षा करीने तरणिमंत्र २६८.१४ सूर्यमंत्र (सं.) डंस ८१.१९ दोष (सं. दंश) ८२.४ मननो डंख, | तरणी १११.१७ तरुणी खटको तर इ २३७.२४ त्रण माळ-मजलो (सं. डाक २४.१२ डाकलं त्रि+भूमि) डाबा १२१.२८ डब्बा तरल १५२.७ तरबतर ? डायणी २४९५ डाकण (सं. डाकिनी) तरवर ८७.२५ तरुवर, वृक्ष डावउ २०२.१३ डाबो (दे.) तरवरा ११०.१६ वाद्यविशेष डिस-१६६.५ इंस, दंश देवो (सं. दश्) तरवर्या ७३.१९ तरवरिया, स्फूर्तिवाळा ढक्क १०९.८ ढोल (सं. ढक्का ) तरंडो ३३.१० नाव ढाक ११०.१५ ढोल (सं. ढक्क) तरूवरू ६५.३ शीघ्र, जलदी, झडपथी (सं. त्वरा) ढाल-१६३.१५ ढोळवू, वींझq तर्ज-९११ उपहास करवो, ठपको आपवो (सं. ढीकलीअ २२२.५ पथ्थर फेंकवानुं यंत्र ? त ढेप ७२.१४ ढेबरां तलपट २५३.२९ ढोलो १८.८ प्रियतम (रा.) तलफ-१४७.२८ तडफवू, बेचेन बनवू ढोव-२७५.७, २८०.१६ अर्पण करवू, भेटमा तलवर १०.१५ कोटवाळ, नगररक्षक (दे.) धर, तलहटी, तलहट्टी २१७.३०, २१८.७ तळेटी (दे. तउ ३०.१२ त्यारे (सं. ततः) तलहट्टिया) तखत ८४.५ पाट, गादी तलारूं १६४.३ कोटवाळपणुं, नगररक्षण तज्ज-२६४.१५ तिरस्कृत करवू (सं. त तलावली २०४.३ तळावडी तज्ज-८.२३ तिरस्कार करवो, ठपको आपवो तलियातोरण ७२.४ बारणे लटकाववानां पांदडां, (सं. तर्ज) फूल, कसबी तार वगेरेथी गूंथवामां आवेलां तटिनी ८३.१८ नदी (सं.) तोरण तडोवड २४९.२१ सरखापणुं, समानता तव ८.८ त्यारे (सं. तत:) ततखिण ५.२ तत्क्षण, तरत ज तवन १८४.१ स्तवन तत्थ २०३.१ त्यां (सं. तत्र) तस २६४.१८ हलनचलनवाळां एकेन्द्रिय तथा १८९.२० तेवी रीते? ते रूपे, वास्तविक सिवायनां (जीवो) रीते ? तस ७.२४ तेनुं (सं. तस्य) Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ७१५ तसबी २७५.२१ जपमाळा तिणि समइ ३.२२ ते समये तसु ३.२२ तेने - तेनी तरफ तित्थयर ३०.८ तीर्थंकर (सं. तीर्थकर) तहत्ति ३४.२३ 'तेम थाओ'नो उद्गार तित्थंकर ३१.१६ तीर्थंकर तहवि, तहवी ६९.२८, १८९२१ तोपण (सं. तित्थायणी २०४.४ तीर्थावली, तीर्थश्रेणी तथापि) तिम ८.१६ तेवामा, त्यारे तहि ३२.१४ ते तिरि १७९१८ त्रण (सं. त्रि) तंग १३०.२९ तिरिय ५५.१८ तिर्यंच, पशपंखी अने जीवजंतनो तंत १३१.१५, १३१.१७ खरेखर ? वर्ग तंती १६०.१७ वीणा (सं. तंत्री) तिलक १३१.१९ एक वृक्ष, रतावला (सं.) तंद्रा ९५ क्लान्ति ? तिलमातो ७९.२१ जरा पण (सं. तिलमात्र) ताइस २१७.२४ तेवू (सं. तादृश) तिलो २९.२ तिलक ताई २६९२, २६९.२५ -थी, -थी मांडीने, -मांथी। तिलोत्तम २२३.२४ तिलोत्तमा, स्वर्गनी एक ताकसीनीयां ११०.१९ अप्सरा ताज १५.२९ त्याग तिवारें १८४.१८ त्यारे (सं. तद्वारे) ताजे १५२.१४ तिविल १६०.१६ वाद्यविशेष, संभवत: ढोलक ताड-९.७ त्राडवू, मोटेथी बोलवू (अ. तब्ल) ताढ ८७.१ टाढ तिसइ ५.४ तेवामां, त्यारे तातो १७.३ तेजीलो, तीखो, रोषाविष्ट तिसिई ४७.६ तेवा वडे तात्यु १५४.२९ तंतुवाद्य ? तिह ४.१४ त्यां तापन १३१.२९ कोयलना पंचमस्वरनो गुण तिहांकणे ३४.२५ त्यां तांम ३.१९ त्यारे तिहुअणनाह ३३.२ त्रिभुवनना नाथ - स्वामी तार १११.१७ उत्तम, मनोहर तिहुण २५७.८ त्रिभुवन, त्रण लोक तार २४१.१३ तारो, तारनार तिहुयण १६७.२० त्रिभुवन, ऋण लोक तारू १५.१९ तारनार तीखी ८८.७ तीक्ष्ण, मर्मवेधक ताल १६२.२० कांसीजोडु, करताल तीर १७३.२७ पासे ताल १७.१२ तुखार ७३.१९ घोडो तालग २३४.१९२३५.७ तुट्ठ-२०४.११ तुष्ट थर्बु, प्रसन्न थq ताला २५५.५ तुडिं ६५.२८ तुलनामा तास ६३.३० तेनी (सं. तस्य) तुणीर १३८.७ तीर राखवानु भाथु (सं. तूणीर) तासु ४.२५ तेने तुरंग ३.१८ घोडो (सं.) तांबकी ११०.१५ वाद्यविशेष (दे. तंबक्क) तुरंगम ५४.१६ घोडो तिग १७९.१५ त्रण (सं. त्रिक) तुरी २५.२४ घोडो तिज-८.७ तजवू (सं. त्यज्) तुल्ल १०९.२७ तुल्य, समान तिट्टिअ २१८.३० स्थित, रहेला (सं. तिष्ठित) | तुह ११.१६ तारुं तिणि खिणि ११.१० ते क्षणे, त्यारे तुंबर ५४.१७ ए नामनो गंधर्व Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह तेवं द्वार) तूण ३.१७ बाण राखवार्नु भाथु, (सं.) थाप २३.२६ थपाट, पंजानो प्रहार तूलिका १२६.३ तळाई, रूथी भरेलुं बिछानुं (सं.) | थाप-९.८ स्थापित करवू, निश्चित कर, तेउ १६०.१५ ते थारी १७.२५ तारी (रा.) तेख ११८.१४ रोष, क्रोध थावर २६४.१८ स्थावर, जेने हलनचलन नथी तेवतेवडा ३७.१ सरखेसरखा तोमर ३.१७ भाला जेवू एक शस्त्र (सं.) थावर २९.१२ स्थावर, हलीचली न शके तेवं तोर २६९.१६ १७९.१८ एकेन्द्रिय जीव तोर-२६९.१२ तोड, थावर ४२.१६ स्थावर तोरण-बार ७४.४ बहारनो दरवाजो (सं. तोरण- | थाहरी १९.१९ तारी (रा.) थांने १०५.१० तने (रा.) त्रटकी २४.१ तडाक दईने, एकदम थांभा २०६.७ स्तंभ त्रिक योगे २४४.२९ त्रण - मन, वचन ने काया | थिआ २२०.६ थईने, द्वारा - ए करीने थिति १८३.१९ स्थिति त्रिकमणशुद्धि २१.२३ मन, वचन, काया ए त्रण थिर ११.१८ स्थिर करणनी शुद्धि (सं.) थीणद्धि १७९.१९ दिवसे चिंतवेलु काम रात्रे थई त्रिदंडी ३४.१५ संन्यासी जाय एवी निद्रा (सं. सत्यानगृद्धि) त्रिण २००.२३ त्रण (सं. त्रिणि) थुण-१५.१४ स्तुति करवी (सं. स्तु.) त्रिण १८९.१६ तृण, घास थुमणि ७०.१७ त्रिनि ५७.२५ त्रण थूप २००.८ स्मृतिस्तंभ (सं. स्तुप) त्रिसरां २२४.२७ त्रण सेरवाळां थूभ २८०.२९ स्मरणस्तंभ (सं. स्तूप) त्रिसरी ११०.१४ एक तंतुवाद्य (सं.) थूल ४१.९ त्रीगड २४९३ थे २४.२८ तमे त्रीया २७.१३ स्त्री थेट २१.२५ छेक (रा.) त्रेह ९०.१४ भेज, भीनाश थें १७.२५ तें, तारे (रा.) थकीइ २५०.१५ होईने (दे. थक्क) थोर ७०.१७ (सं. स्थौर) थडमां २०८.११ पासे थोरि ७६.२१ थोडी थडाबंधि २५६.१५ थोकबंध, घj दउलति २३८.३० दोलत, संपत्ति थरहर-६८.१३ थरथरवू, कंपq दडदडी ७३.२६ एक प्रकारचें ढोलक थलवट २२.१० जमीनमार्ग (सं. स्थलवन) दडवड-२२३.२० दोडी जवु, नासवू (दे.) थविरा ७.११ वृद्धा (सं. स्थविरा) दडवड-१६३.५ दोडवू थंभ ६७.१७ थांभला (सं. स्तंभ) ददामा ७३.२६ नगारां (फा. दमाम:) थंभनगर २५०.२० खंभात (सं. स्तंभनगर) दन २६०.१० दिन, दिवस थाकतउ ३०.२३ बाकी रहेखें दम १६८.२५ निग्रह, संयम थाटे २०.१३, ७९.६ समुदाय, ठठ, राशि, ढगलो दरशन १९०.१६ दृष्टि थान २४०.१० स्थान दरीसण १७.४ दर्शन Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ७१७ दल ५६.४ पांदडु दिख्ख १७३.९ दीक्षा दल १६३.५ सैन्य (सं.) दिणयर ६४.१२ दिनकर, सूर्य दलीपत २६०.१० दिल्हीपति दिणिंद ६८.७ सूर्य (सं. दिनेन्द्र) दवाज-२७१.९ शोभq दिणेसर २०२.२६ सूर्य (सं. दिनेश्वर) दशार १२१.१२ एक कुळनाम, यादवकुळ (सं. दित्य २४९.५ दैत्य दशाह) दिलीपत २५९.२२ दिल्हीपति दस १६२.५ दिशा दिव १२९.९ आकाश (सं.) दसोतर २६७.२० (अमुक उपरांत) दश दिवं २५८.८ दे, आपे दह-१३२.६ धारण करवू (सं. दध-) दिवायर ९३.१ प्रकाश करनार, सूर्य (सं. दह-१६६.३ बाळg (सं.) दिवाकर) दहाडिम १५५.२७ दाडम दिवालीया २४९.५ दहोदिस २४.१६ दशे दिशा दीता २६०.१० दळ १३९.२ पांदडां (सं. दल) दीप ३०.१७ द्वीप दंडाहि २५१.६ दीपकरेह १२९.४ दीवानी शग, शिखा (सं. दंति ५४.१६ दंतूशळवाळो दीपकरेखा) दंदोल १७१.१७ उपद्रव, उत्पात दीव २०.२१ द्वीप दंभ २६९.१३ गर्व ? आडंबर ? दीह २५४.१ दिवस दंभ १००.१६ आडंबर, घटाटोप दीह ७७.२८ दिवस दंसण २६४.२३ दर्शन, सत्यधर्ममां श्रद्धा दीहर ६४.१०. दीर्घ दाउदीउ/दाउदीशर्ण १५१.१९ दुआरि ७०.२७ दाख १२१.१३ द्राक्ष दुकर ४५.९ दुष्कर, कठिन दाख-८.२ बतावq, प्रगट करवू दुकूल ८०.२५ रेशमी बारीक वस्त्र (सं.) दाघ १३४.२३ दाह, बळतरा (सं.) दुक्कर ७७.२६ दुष्कर, कठिन दाझव-९०.९ दझावq, बाळq (सं. दह्यते परथी) दुक्कंत ७.६ दुष्यंत दाडिमां ११०.१८ एक वस्त्रप्रकार - संभवत: दुग १७९.१८ बे दाडमनी भातर्नु दुगंछा १७९.२२ घृणा, जुगुप्सा (दे. दुगुंछा) दाण ३६.२७, २१९१६ कर, राजभाग, दान दुज्जय २६४.१७ दुर्जय, मुश्केलीए जीती शकाय दाणिआर २६८.१० एवं दाधा १०९.२८ बळेला (सं. दग्ध) दुठ ५.२ दुष्ट दाय १२६.२५ लाग, उपाय | दुद्ध २२०.२ दूध दारण ११६.४ भांगी नाखनार, विध्वंसक (सं.) | दुद्दम २६४.१६ दुर्दम, जेनुं मुश्केलीए दमन थई दालीदर २६१.२६ दरिद्रता (सं. दारिद्र्य) शके तेवं दाव १७.१० तक, मोको, लाग दुन्नि ३०.८ बन्ने दाह १३०.१ ठार ? दुप्राप २७४.११ दुर्लभ (सं. दुष्प्राप्य) दाहिण २०२.२१ दक्षिण दुरीय २०३.६ दुरित, अनिष्ट Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१८ दुरियां १६९९ दुरित, अनिष्ट दुर्लभ ५३.१३ दुर्लभ दुवार ७.२५ द्वार दुवीस २४४.१७ बावीस ( सं . द्वाविंशत् ) दुष्यंत ११.२९ दुष्यंत दुसम २९.१० दु:खमय दुह ९२६ दु:ख दुसमसुसम १६८.२१ जेमां पहेलां दुःख अने पछी सुख छे एवो काळविभाग दुस्तर २३८. २७ तरयुं जेने माटे मुश्केल छे एवो (सं.) दु:कंत ३.९ दुष्यंत राजा दूण- ८७.१६ दूभववुं, संताप करवो दूह २०३.४ दुःख दूहलो ८९२८ कपरो, मुश्केल, दुःखभर्यो (सं. दु:ख परथी) दूहव- १०६.२२ दूभववुं, दुःख आप देउर ७०.१८ देवर, दियर देउल २०.२३ देवळ (सं. देवकुल) देय-, देअ-११.८, ११.९ देवुं देव १९८. १६ आकाश (प्रा.) देव ८.१५ दैव, भाग्य देवत १७.६ देवपणुं, दैवत देविंद ६८.६ देवेन्द्र देसण ३१.२४ देशना, उपदेश देसना १६.१ उपदेश देसाउरी ७२.१२ देखाउरी ११७.७ देशावरमां, परदेशमां देहुरी १६८.२० देरी, मंदिर (सं. देवगृह) दोआंगमा १६३.१३ दुर्गम, सामनो करवो मुश्केल एवा दोई १६२.७ बन्ने दोकड १५४.१७ एक वाद्य दोट १६२.४ प्रहार, चोट (रा.) दोभागिणी ८७.१२ दुर्भागिनी, बदनसीब प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह दोल्ही ६९.२५ दोहिली, मुश्केल, कष्टभरी (सं. दु:ख परी) दोषी ३६.१ द्वेषी, वैरी (प्रा.) दोस २६४.१६ द्वेष दोहिलं ५.८ दोह्यलं दुःख आपनाएं, कपरुं दौम २४.१९ द्याणइ २५८.१४ द्रसक्क - ९२५ धसकी पडवुं, फसडाई पडवुं द्रसूक- १६४.१० धसूकवुं, मोटो अवाज करवो ग्रह ८३.१८ तळाव, सरोवर (सं. हृद) हद्रह १६३.१७ द्रहद्रह - धडधड अवाज करीने द्राक ११०.१५ वाद्यविशेष दुग २६८.७ दुर्ग, गढ द्रू ६७.२६ ध्रुवनो तारो द्रेठि ४.१३, दृष्टि, आंख २०२.२७ दृष्टि नजर (SIT.) द्रोह ३.२८ अपराध, कोईनुं अकल्याण करवुं ते (सं.) द्वारीर ९९१३ धका - २४.२१ अथडावं ? हुमलो करवो ? धses- ८.१० धडधडवु, धडधड अवाज करवो (दे. धडहडिय) धses १६३.१७ धडधड अवाज करीने धडहड-१६३.१७ धडधडवुं, धणधणवुं, ५८.१ गर्जी ऊठवुं धडहडीय ९.२८ धडधड करती, जोसमां, एकदम धण १०५.८ स्त्री (सं. धन्या) धण १०५. ९ धन, संपत्ति धणकणकंचण १५.२९ धन, धान्य अने सुवर्ण धरी त्रीज २५.२२ धणीपुं २०.३ धणीपणुं, स्वामित्व धणुह ३.१७ धनुष्य धन्न ३१.२७ धन्य धमार १५९११ फाग - वसंतनुं गीत (हि.) • धमाल १५८.३० फाग - वसंतनुं गीत (हि.) Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ७१९ धम्म २१९.८ धर्म धर २४०.१० धरा, धरती धरणिपात ९.२४ धरणी पर पडq ते धरणीधर ३६.२१ पर्वत धरेणि २०२.२३ कुंता ? धर्म-जगीस २७०.२६ धर्मनी चाहना - अभिलाषा, धर्मवृत्ति धव ९.१० धणी, पति धवलहर ६७.१२ हवेली, महेल (सं. धवलगृह) धंधोल-५५.१६ क्षुभित - व्यग्र करवू धाडि २१६.१२ धाड, आक्रमण धात १०.२२ स्वरूप, मूळ स्वभाव (सं. धातु) ८२.११ शरीरनां लोही मांस वगेरे द्रव्यो धाबाली २०७.५ छतवाळी ? धामिणी २३०.१९ धार्मिक स्त्री धामी २३०.१९ धार्मिक पुरुष धाव-१२६.२५ दोड, धिगडमल्ल २४.१६ जोरावर पुरुष धिगधिग-५.३१ धगधगवू, भभूकवू धीगु ५५.७ धिक्, तिरस्कारपात्र धीज २४४.१९ ध्यान करवा योग्य (सं. ध्येय, प्रा. धिज्ज) धीज ८९४ (अग्निमां हाथ नाखवो वगेरे प्रकारनी) आकरी कसोटी (सं. दिध्य) धीर ९०.४ धैर्य धीरिम १६८.२५ धैर्य धीवर १०.१३ माछीमार धींगडधींग २४९.७ जोरावर, शूरवीर धुउल ५४.११ धोळ, एक गीतप्रकार धुतार-१०४.१७ धूतवं, छेतरवु (सं. धूर्तकार) धुनि १९९.१८ ध्वनि, स्वर धुमारी १५४.२३ धुय ११.१३ पुत्री (सं. दुहिता) धुर ४१.२० पहेला धुरि २५१.५ आगळ, मुख्य धुरिली १०.१६ आरंभनी धुलही ५४.११ धोळ गानारी स्त्री धुंकार ११०.१६ वाद्यविशेष धुंवार १५८.९ धुमाडो धूअ ७७.१९ पुत्री (सं. दुहिता) धूस २०.९ धूंस ११०.१५ वाद्यविशेष धेर ९१.१५ मूळमाथी धैरज १५५.२९ धैर्य, धीरज धोय-७.१७ धोएं धोरी २६.५ बळद धोंकार ६८.१२ धो-धों अवाज धौम २०.९, २४.१९ भारे ? ध्राप-८६.५ धरावं, संतोष थवो (सं. ध्रा-) धुंसट-२७३.२६ धकी आवयूँ ? नई ४५.१४ नहीं नउकारवाली/नोकारवाली २७९.२८ २८०.६ नवकारमंत्रनी माळा नकचा ७३.१८ घोडानी एक जात नकरो २१.११ नकवेसर ९२.२ नाकनी वाळी नकुलोष्टी ११०.१३ एक तंतुवाद्य (सं. नकुलोष्ठी) नगीनो १२१.३० (वींटी वगेरेमा जडवामां आवतं नंग) (फा. नगीना) नटावउ ३३.१६ नचावनार नटुवा १५८.११ नट, खेल करनार नट्टारंभ ५७.२ नड-१६५.१ व्याकुळ करवू, पजव, नफेरी ७६.२८ शरणाईना प्रकार- एक मुखवाद्य (फा. नफीरी) नमंस-२०२.२२ नमवू, नमस्कार करवा (सं. नमस्य) नय १०९१२ नदी (सं. नद) नयनिक्षेप १८२.७ नय-तर्कयुक्ति योजवी ते (सं.) Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह तर) नयर ३.८ नगर नाव २१७.२९ नरग २००.२४ नरक नाश-१७२.१० नासवू, भागी जq (सं. नश्यति नरनाह ८.१६ नरनाथ, राजा परथी) नरवई ३२.१७ नरपति, राजा नाह ५४.४ नाथ, स्वामी, मालिक नरवाणी २०.१९ नक्की निउ २५५.४ नेवू (सं. नवलि) नरिंद ४.१५ नरेन्द्र, राजा निकअ-७७.१२ नीकळवू, २००.११ दूर थर्बु नर्म ११०.२० नरम कपासमांथी बनतुं वस्त्र ? | (सं. निर् + कस्) नलणी विमान २५८.७ निकाच-४३.४ दृढपणे बांधq, निमंत्रित करवू, नलीबद्ध ११०.२१ वस्त्रप्रकार अर्जित करवू नवकल्पी २४४.११ आचार ? अनुष्ठान ? निकाय १०९.९ समूह (सं.) नवण १९०.२२ नावण, स्नान. निके १८.१४ नवपद ओली २४६.१३ जैनोनुं आयंबिल-ओळीनू निक्यल २०.१८ नव दिवस- एक व्रत निगुण ८९.१४ निर्गुण नवलखि २३७.१६ निगोद १७०.११ साधारण वनस्पतिकाय नामनी नवि ३.६ न, नहीं (सं. न+अपि) जीवराशि नवेरा ७३.२ नवला, नवा प्रकारना (सं. नव+ | निचय १६०.२१ समूह निज्जिय २६४.१७ जीतेल, पराभूत करेल (सं. नवेरी २२२.६ नवतर, अद्भुत) निर्जित) नंख-६.१५ नाखवू निटोल ८९.१४ नठोर (रा.) ? संपूर्णपणे, साव नंदि २५५.३ __ (सं. निस्तुष्य, दे. णित्तुलिय) ? नंदीवृक्ष २२२.७ निटोल ८.११ निर्लज्ज नंदीसर २१०.५ नंदीश्वर द्वीप निठुर ८८.१ निष्ठुर, दयाहीन नागरखंड ७२.५ नित्रांण ३.२५ रक्षण वगरनुं (सं. निस्त्राण) नाचली २७६.२ गामनाम ? निदानि ८.१३ नक्की, चोक्कस नाट १५६.१० नृत्यादि खेल (सं.) निदि २१.१७ समुद्र ? नाटारंभ १६०.९ नृत्य निधी २१.२५ समुद्र नाटारंभ ६.२ नृत्यनो उपक्रम निपट १७६.२९ घणं, अत्यंत (दे. निप्पट) नाटिक १९१.२० नृत्य निपा-१९८.१८ निपजाव, (सं. निष्पद्) नाड ५५.१२ दोरडानुं बंधन ? निपाव-८३.१९ निपजाव, नाण ६४.२ ज्ञान निफेरी २१७.२७ नारद ५४.१८ निमाली १५१.२१ नवमालिका नारय ५५.१८ नरकना जीव (सं. नारक) निमित्तभेद २७१.२५ शकुनशास्त्र ? नालगोला २६.६ तोपगोळा निम्मल २०४.८ निर्मल नालि-मंडप २२६.११ लतामंडप ? निय ४.२७ निज, पोतान नालेर १२४.१ नाळियेर (सं. नालिकेर) नियाj ४२.२२ मृत्यु पहेलां तपनु इच्छित फळ Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ मागवुं निरगाली ५.३० निरंकुश, मुक्त, स्वच्छंदी (सं. निः+अर्गला निरघोष २७४.१९ मोटो अवाज (सं. निघोष) निरजण - ५८.२३ परास्त करवुं, जीतवुं (सं. निर्जित, प्रा. निज्जिण) निरत २६४.१८ मग्न, तल्लीन (सं.) निरदल-११.१० दळी नाखवु, नाश करवो, मारी नाखवु (सं. निर् + दल) निरधार ३.२७ निराधार, असहाय निरधारी ९.२५ आधार विनानी, असहाय निराबाध ७.२२ अंतराय के मुश्केली विनानुं निरावरणी १८५.२१ निरास १८५.२२ आकांक्षारहित (सं.) निरीह २७०.१७ निःस्पृह (सं.) निरूपाधिक १८३.२६ निर्धार ८६.२३ नक्की (सं.) निलइ ५७.२५ स्थान निलो जुओ गुणनिलो निव ११.३ नृप, राजा निवड ४.७ गाढ (सं. निबिड) निवाज १६.२४ दातार (फा. नवाज) निवाज २४ २८ कृपा, दया निवारउनां २६७.२५ निवेस - २०३.१ मूकवुं, स्थापित करवुं (सं. निवेशय्) निशान १७२.१० नोबत, डंको (सं. निःस्वान) नीस ९३.७ जेना (सं. यस्य) निसनेह १३९.१० अप्रीति निसिदिनि १०.२८ निशदिन, रात-दिवस निसी १०.२० निश्चे, चोक्कस निसुण - २६.१३ सांभळवं (सं. निश्रुणेति परथी) निस्तार २६९.२८ उद्धार निहुरई ५३.२१ कालावाला ? निहोरू २७५.२६ कालावाला ७२१ नीकंद १७.२२ निकंदन, नाश नीकास- १७.२८ बहार काढवु नीझरण १०९.१२ निर्झर, झरो (सं. निर्झरण) नीठ ८५.२६, ९७.३ मुश्केलीए नीठ ९०.७ नक्की (सं. निष्ट्या) नीर १६२.११ निष्ठुर, दयाहीन, नठोर नीतमेव १७.८ हंमेशां (सं. नित्यमेव ) नीती २६१.५ नित्य, हमेशां नीमेडु ६४.१९ नाश (हिं. निबेडना) नीरंगी २२३.४ नीराग १७२.२५ रागविहीनता अननुराग (सं.) नीरागी १६.१५ राग वगरनुं, वीतरागी नीर्वाणी २७.६ नक्की, चोक्कस नील चास १५१.११ कुंजडुं (सं. चाष) नीलज ९.२१ निर्लज्ज, बेशरम नीलवट ७२.२३ ललाट (प्रा. निडल + वट्ट) नीलाई ८३.१७ लीलीछम नीलो १३८.५ लीलो, ताजो, प्रफुल्लित नीवाह - ४५.१८ निभाववुं (सं. निर्वाह्य) नीष्ट्या २४.२८ नक्की, चोक्कस नीसला ७३.१८ नीसांण २०.१२ नोबत नींबु १२१.१७ लींबु (सं. निम्ब) नुसार १५९.८ नुंकार २७९.२४ नवकारमंत्र नूरी २३४.९ द्युतिमान, कांतिमान् नेउरी ५३.५ झांझर (सं. नुपूर ) नेजा २०. ११ वावटो, धजा नेठ ८९.२ नक्की नेवज २५३.१४ नैवेद्य, इष्टदेवने धरावातो भोग नेवली १५१.१३ वृक्ष नेह ६. ३ स्नेह नेही १४४.२६ स्नेही नोमाह १६२.१७ जोवा आवनार, भाळ लेवा आवनार (फा. नुमा) Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह न्यास्य २४०.२६ न्यास, स्थापना पड़ल २५०.९ समूह (सं. पटल) पआल २६०.२१ पाताळ पडवडा २७९.२४ पइट्ठिअ २१८.२९ प्रतिष्ठित, स्थापित पडिबोह-१६.१ बोध आपवो पई १९१.८ -ना करतां (सं. प्रति) पडिमा १५.१२ प्रतिमा, मूर्ति पईसार १९७.१० प्रवेश कराववो ते (सं. प्रवेशय् पडिलाभ-४०.२४ वहोरावq, धन आपq (सं. परथी) प्रतिलाभ) पक्खो २०४.८ पक्ष, पखवाडियु पडुत्तर २७.१३ प्रत्युत्तर, सामो जवाब पखइ १०.२१ विना, सिवाय पडूर २३८.१९ प्रचुर, खूब पखवाडउं ३०.११ पखवाडियु पढमउ २०२.९ प्रथम, पहेला पखा ७२.२५ बाजु (सं. पक्ष) पणम-४.२७ प्रणमवं, नमन करवू पखाल-१६३.२८ धोवू (सं. प्रक्षाल-) पणयालिस १६.८ पिस्तालीस पखे १०४.२४ विना, सिवाय (सं. पक्षे) पणवीस १८३.१९ पचीस पग १३३.१७ पगलं पतंग ६९.१३ पतंगियु (सं.) पगडे १९२६ पगे पतीज ८९.५ प्रतीति, भरोसो (सं. प्रत्यय) पगर ७५.२ समूह, गुच्छ (सं. प्रकर) पतीज-९.४ प्रतीति थवी, खातरी थवी पगवटी ४०.२६ पगवाट, पगरस्तो पनरसम २११.२५ पंदरमुं (सं. पंचदशम, प्रा. पगार ६७.२४ कोट, गढ (सं. प्राकार) पण्णरसम) पगिडा वट-२५०.९ पग करी जवु, नासी जq | पनरोत्तर २३२.४ (अमुक) उपरांत पंदर पचख-२७७.१६ त्यागनी प्रतिज्ञा करवी (सं. पनोतीयां १८०.७ पनोता पग ? प्रत्याख्या) पन्नग ३१.२५ नाग (सं.) पचरकी ११७.२३ पिचकारी पभण-४.१७ बोलवू, कहे, पच्चखाणा १७९.२० पयडिय २६४.२० प्रकटित, प्रगट करवामां पजार-१५९८ बाळq (हि.; सं. प्रज्वाल) आवेल पटउला ७१.२९ रेशमी वस्त्र - कापड । पयसार १९८.३ प्रवेश कराववो - थवो ते, पेसारो पटकूल ८०.२४ पटोळु, रेशमी वस्त्र (सं.)। __(सं. प्रवेशय् परथी) पटको १२२.१२ कमरबंद, कमरपटो, कमरे | पयंप-१२३.२१ बोलवू, कहेवू (सं. प्रजल्प-) बांधेलं वस्त्र पयाल १५२.४ पाताळ पटुपडह ११०.१७ मोटा अवाजवाळु ढोल, पडो पयास २१९.४ प्रकाश, उद्योत पयोद १८५.२९ वादळ, मेघ (सं.) पटूलडी २३०.१६ पटोळी, रेशमी वस्त्र पयोहरी ६४.५ पयोधर - स्तनवाळी पटोधर २७१.३ पट्टधर, मुख्य शिष्य पर १८९.१२ परंतु, सुधां ? परम, उत्तम ? पट्टाउत २६.७ पर-१९९.३० पडवू (हि.) पठा-१३४.४ पाठव, कहेवडावq परई ५.१३ पेरे, प्रकारे, पेठे पडघा १३१.१९ घा, प्रहार (सं. प्रतिघात) परकार १५०.१७ प्रकार ? पडछंदा १३१.१७ पडघा (सं. प्रतिच्छंदस) परख-८.१४ पारखवं. परीक्षा करवी Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ७२३ परगड-२४३.१७ प्रगट थ, परिवर-११०.११ वीटळावू (सं. परि+वृ) परगडो २४८.२७ प्रकट, प्रसिद्ध परिवाडि २०२.८ परिपाटी, श्रेणी परगर ३.११ परिजन, साथीगण (सं. परिकर) | परिसर ७.१६ आसपासनी जग्या (सं.) परघल ७२.८ पुष्कळ परिसह ३७.२२ कर्मक्षय माटे श्रमणोए सहवानां परचक्र २१.१० अन्यनुं शासन (सं.) कष्टो परतख १९९.९ प्रत्यक्ष परिहर-११.२९ परहरवं, त्याग, (सं. परिह) परतिक्ष २६.२ प्रत्यक्ष परि २००.९ प्रति, उपर परतिख १५.१३ प्रत्यक्ष परीरंभ ७०.१ आलिंगन (सं. परिरंभ) परतीत २४४.१६ प्रतीति, श्रद्धा परे १६२.१० प्रकारे, रीते परतित्या ५.२९ प्रतिज्ञा परोहित १६२.२८ पुरोहित परतो १५.१३ परचो पर्याय ४३.५ अवस्थान्तर परभवियां ९२७ परभवनां पर्षदि ३१.२३ परिषद, सभा, मंडळी, समुदाय परमल ९१.२३ परिमल, सुगंध पल-२६०.५ पळवू, जवु (सं. पलाय) परमाण ५.१४ चरितार्थता, सार्थकता पल १३२.४ मांस (सं.) परमाधामी १७०.४ नरकवासीओने शिक्षा करनार पलव ७७.१० पालव, छेडो देवयोनि (सं. परम + अधार्मिक) पल्योपम ४१.२ एक काळगणना परव २२१.१५, २२२.२१ पवर २१३.२१ प्रवर, श्रेष्ठ, प्रधान परवर-३.११ वीटळावं पवंग २६०.४ घोडा (सं. प्लवंगम) परवाडि, परवाडी २०४.१३, २२१.१३ श्रेणी, | पसाउ ३०.१३ प्रसाद, कृपा रीति, प्रणाली (सं. परिपाटी) पसाय ३.२ प्रसाद, कृपा परषद ९३ परिषद, सभा पसाइ ३.७ प्रसादथी, कृपाथी परसरसी २६१.२५ पह २५७.११ सवार (सं. प्रभात) परं १३२.६ परंतु (सं.) पहिर १२१.२३ परि ८.२६ प्रकारे, रीते पहिरण ११.१४ परिधान, पहेरवेश परिकर १६४.१५ परिजन, सेवकगण, साथीगण | पहु ५५.२६ प्रभु (सं.) पहु / पहू २२२.८, २२२.२३ प्रभु ? परीठ-६४.१४ मूकवू, राखg (सं. परिस्थित पहुत-३.२० पहोंचq परथी) पहेली ३.१४ समस्या, कोयडो (सं. प्रहेलिका) परिठव-२५४.१० स्थापना करवी (सं. प्रस्थाप) पहोचाड-१३९२३ पूरुं करवू, पार पाडवू परिण-८.५ परण, (सं. परि+नी) पंकय २२८.१८ कमळ (सं. पंकज). परिणाम २४४.२० पंचतालीस २५५.४ पिस्ताळीस (सं. परिति ६६.१५ प्रति, सामेनु, प्रतिस्पर्धी ? पंच+चत्वारिंशत्) परितिक्ष २७.२५ प्रत्यक्ष पंचतालीस ३०.१७ पिस्ताळीस परिभव १६९.८ संताप ? पराजय ? पंचमगति ३२.२८ पांचमी जीवगति, मोक्ष परिमाणंद २५८.६ परम आनंद पंचय २१६.१३ पांच (सं. पंचक) Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२४ पंचवर्णी १३१.२२ पंचशबद ७२.१८ पांच वाद्योनो मंगलसूचक ध्वनि - पंचंग २०३.१० शरीरनां पांच अंग बे हाथ, बे गोठण अने मस्तक (ने लगतुं) (सं. पंचांग) पंचाणवइ २१०.२८ पंचाणुं (सं. पंचनवति) पंचानन ६४.८ सिंह (सं.) पंचाली २३७.२ पूतळी (सं. पांचालिका) पंजर १३७.२५ खाली माळखुं, (झाडनं) खोखं (सं.) पंडर २२२.२४ पंडीया २६०.१७ पंडित पंत १३२.१६ पंति १३१. २१ पंक्ति, हार पंत्रीसा २३०.१ पांत्रीस ( सं . पंचचत्वारिंशत्) पा- २१४.२५ मेळववुं (सं. प्राप्) पाइ १६३.८ पायो (सं. पाद) पाई ७.४ पासे, पासेथी पाउ ११०.१६ वाद्यविशेष पाउ १९९.३० पग (सं. पाद) पाउधार- ४७. ६ पधारयुं, आगमन करवं पाउलउ २७५.४ पग पाउलउ १२७.२१ पग (सं. पाद) पाखइ ८.४ विना, सिवाय (सं. पक्षे ) पाखतीया १२१.२८ आजुबाजु रहेला (सं. पक्ष परथी) पाखर १६४.६ हाथीघोडानो साज, पलाण (सं. उपस्कर) पाखर - ४७.७ (घोडाने) बख्तर, जीनथी सज्ज करवो पाखरा २६०.४ पाखर्या, जीन, बख्तर आदिथी सज्ज करेला (सं. उपस्कर) पाखलि ३०.२८ आजुबाजु (सं. पक्ष परथी) पाखे ९०.७ सिवाय, विना (सं. पक्ष) पाग १२१.२१ पाघ, फेंटो प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह पाग ७३.१८ पग (सं. पादाग्र) पाछिम ३०.२३ पश्चिम पाछें २०५.१० पाछळ पाज १५४.२२, २६१.१८ पाळ पाज १४९.३, १४९७ पगदंडी, रस्तो ? पाज १६२.२६ सेतु (सं. पद्या); २२२.१३ पगथियां, सीडी पाज्य १२७.७ पगदंडी, सेतु, सीडी ? पाटण १७६.१८ नगर (सं. पत्तन) पाठि २३०.१३ प्रणाली, रीति ? (सं. पाटी) पाठी ११०.१६ वाद्यविशेष पाडल ५२.१० पाटलपुष्प पाडला ४.९ पाटल नामनुं फूलझाड पाणीयहारि ६७. २१ पनिहारी, पाणी भरी लावती स्त्री पात १३२.१२ पांदडां (सं. पत्र) पातग २१८.८ पातक, पांप पातरी १७४.२ पांदडां वाळेलो फूलनो बीडो ? पात्र ५४.१० नर्तकी पाथर १६४.१८ पथ्थर (सं. प्रस्तर) पाधरसी ५१.१० भलोभोळो, सरल पान १५४.२६ पानाउली ७२.१५ पाननो समूह (सं. पर्णावली) पाप-सरूप ९११ पापस्वरूप, पापी पामरी २२.२० खेस के दुपट्टा तरीके वपरातुं वस्त्र पायक २६.८ पगपाळा सैनिक (सं. पादातिक) पार २६०.६ पारखा ९७.१४ पारका पारधि ५२.१० एक पुष्पछोड पालउ २६९२६ पगपाळो पालटी २२४.१४ पलांठी (सं. पर्यस्तिका) पालव - १५८.२१ पल्लवित थवं पालवीयां ११०.१९ पांदडांनी भातवाळु वस्त्र ? पाला २६०.५ पगे चालनार, पगपाळा Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ पालि ११७.१५ पालो ११०.२७ हिम, करो, बरफ (सं. प्रालेयम्) पाव - ८२.५ पामवुं, मेळववुं (सं. प्राप्) पाव २०४.१० पाप पावडी ६७.१९ पगथियां पावडीया २१८.१० पगथियां (सं. पाद परथी) पावला १०५.२८५ पग पावलीया २६०.२५ पाषणमें २०.१९ पाषाणमय पास ६.११ पाश, बंधन, फांसो पास २०६. १३ बाजु (सं. पार्श्व) पास २१०.४ तीर्थंकर पार्श्वनाथ पासाय २१८.२९ प्रासाद, जिनमंदिर पासिरि सेहर २०४.५ पाहरि ५१.३ पहेरदार, चोकीदार (सं. प्राहरिक) पाहि २५४.७ -ना करतां पांडुरा ११०.१९ सफेद वस्त्र ? पाहण १८.१४ पथ्थर (सं. पाषाण) पांहि ८१.६ - ना करतां पिकनो ६८.१९ पितरियो ४२.२० पितराई पिहिलि ३.१३ पहेली, समस्या, कोयडो (सं. प्रहेलिका) पिहुला ७३.१८ घोडानी एक जात पिंचिंदिय २६४.१६ पांच इन्द्रिय पिंडखंडन २७१.२१ पीआरडु ११७.९ प्यारो पीआरा १६४.२५ पारका पीक १३७.२६ कोयल (सं.) पीजाइ ६६.११ पीठ ११०.२२ संभवत: लटकाववानुं वस्त्र पीठ जुओ मेइणि- पीठ पीत लीया २६१.११ पीयरो १५९१९ पीळो (हि.) पीठ पाछळ पीर १९१५ पीडा पुखराज १५४.२६ पीळा रंगनुं एक रत्न (सं. पुष्करराज) पुख्खर ३०. २१ पुष्कर, एक द्वीप पुण ३१.११ वळी, पण पुणि ६३.३० वळी (सं. पुन:) पुद्गल १८१.२२ रूपादिविशिष्ट द्रव्य, मूर्त द्रव्य (सं.) ७२५ पुन्न १६८.२२ पुण्य पुन्नाग ११०.२ ऊंडी, एक वृक्ष रक्तकेसर (सं. पुंनाग) पुप्फ १८९१९ पुष्प पुरंधि ५.२८ सम्मानित, वडील स्त्री (सं. पुरन्ध्री) पुरिजन २१.१० नगरना लोको (सं. पुरजन) पुरिस ६६.१४ पुरुष पुरिस २५७.१५ पुरुष (जेटलुं माप) पुरिसा वाव २२२.२३ पुहवि, पुहवी १०.३, १६७.२६ पृथ्वी पुहवीपाल ११.७ पृथ्वीपाळ, पृथ्वीनं रक्षण करनार, राजा पुहुर २७९.१२ पहोर पुंडरिक २१०.८ शत्रुंजय पर्वत पूइय २०२.२३ पूजीने पूग- ६९.२४ पहोंचवुं परिपूर्ण थवं, संतोषावं पूग-२५४.११ परिपूर्ण थवं, संतोषावुं (सं. पूर्य-) पूज - २१८.२२ पुरावुं, पूर्ण थवुं, पार पडवुं (सं. पूर्य-) पूठि ९.१४ पूंठे, पाछळ पूर १६२.१ पूरुं पूर- १९२.१७ पूर्ण करवुं पूरव १८९१२ ए नामना सूत्रग्रंथ (सं. पूर्व) पूरव १५.२७ चोरासी लाखने चोरासी लाख साथे गुणवाथी थती संख्यानां वर्ष पूर्व - १८४.१ पूरववुं पूर्ति करवी पेख - ५५.२२ जोवुं (सं. प्रेक्ष-) Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह पेर १५१.९ वृक्ष ? प्रवाल ६५.२८ परवाळां (सं.) पेसकसी २६९.२७ नजराणुं, भेट प्रवाल ६५.२९ कुंपळ (सं.) पेहिड-१६५.११ दूर हटवू, धोखो देवो (रा. | प्रह २१४.१९ प्रभात, सवार पहिडणौ) प्राकार ५७.२५ गढ, कोट -- १२०.२२ पासे प्राण २५३.२३ बळ, जोर पोढा १९८.२२ उत्तम, प्रगल्भ, पुष्ट ? प्राण ३.२१, ३.२५ बळ, जोर १६९९ पराणे पोढो १६४.१८ मोटो (सं. प्रौढ) जोरथी पोत १६२.१ भंडार, सिलक (सं.) प्रातिहारिज ७५.४ देवकृत पूजाविशेष (सं. पोत-२१.२६ पहोंचवू प्रातिहार्य) पोल १९१.९ दरवाजो (सं. प्रतोलि) प्राम-२५८.१८ पाम, प्राप्त करवु (सं. प्राप्) पोल २४०.१२ शेरी प्रारथीयां ८०.५ विनंती करनार, याचना करनार पोलि ७.१९ दरवाजो (सं. प्रतोलि) प्राहुणउ ४.२१ परोणो, अतिथि (सं. प्राघूर्णक) पोल्य १६५.२३ दरवाजो (सं. प्रतोलि) प्रांत ३४.३० नीचुं, ऊतरतुं पोष १८१.१९ पोषण, पुष्टि प्रिउस-९९.१० पीरस, (सं. परिविष्) पोसाल २२१.१८ पौषधशाळा, उपाश्रय प्रीछव-८.१२ जणावq पोहत-८७.१४ पहोंचर्चा प्रीस-८८.१९ पीरस, (सं. परिविष्) पोहर ९८.२४ पहोर फगद १३८.३ पोहलपणे १६.८ विस्तारमा (सं. पृथुल-) फगफग-१११.१ पौष वार १७.२६ फटीक १६.११ स्फटिक रत्न प्याल ८७.११ फनि २७५.२४ नाग (सं. फणिन्) प्रजुन १२१.२६ प्रद्युम्न फरमाते १५१.१८ प्रजोग २१.१६ प्रबळ योग फरसी १५१.१७ वृक्ष ? प्रतक्ष १६४.१८ प्रत्यक्ष फरहर-२०.१२ फरफरवू प्रतिपाल ८.२ पाळनार (सं.) फरंगी २०.१० प्रतिबूझव-१७३.२३ प्रतिबोध आपवो फलही २२०.१ फलक, पाट (सं. फलहिका) प्रतिबोध-३८.११ उपदेश आपवो फल्गु २७२.१२ फाग रमवो ते प्रतिमा ३८.४ व्रत - फागुआ १३२.१४ फागना - वसंतोत्सवना प्रत्या २३०.१ परचो, प्रतीति (सं. प्रत्यय) फाल १६३.१७ फाळ, फलांग प्रत्या २५४.२५ पस्यो ? विश्वास ? (सं. प्रत्यय) फाली ६७.२३ साडी प्रदखिण २१६.४ प्रदक्षिणा फिरती २३८.५ मंदिर फरतो भाग, भमती प्रभ सीलका २०८.९ फुटरा ९८.८ फूटडा, सुंदर प्रमाण ३१.२१ माप (सं.) फुदडीयां ११०.१९ फूदडीनी भातवाळु वस्त्र प्रमेष्टी २१.२३ परमेष्ठी. परमेश्वरनो समदाय फुनि २७६.२४ वळी, फरीने प्रवहण २५०.२१ वहाण (सं.) फुर-२६८.१९ स्फुरवू, प्रगट थq प्रवाडि २१७.२५ परिपाटी, क्रम फुर-१३१.२८ स्फुर, प्रगटवू Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ७२७ फुलेल ७६.१७ सुगंधीदार तेल (सं. फूल तैल्य) | बंदीओ २८.१४ बंदीजन, चाकर फूदीचु १३१.२२ बंधी २६०.१३ बंदीवान, केदी फेर १७.२७ फरता, आजुबाजु, तरफ बंभगुत्ति २६४.१७ ब्रह्मचर्यना रक्षण माटेना फोग १५१.८ वृक्ष ? नियमो, शीलनी वाड (सं. ब्रह्म+गप्ति) फोफली ५२.१२ सोपारीनं झाड (सं. पगफली) | बंभण ३७.२० ब्राह्मण फोर ८७.१६ फोल्ला ? बंभंड ६८.१३ ब्रह्मांड, विश्व फोर-२६८.२ निरंतर प्रवर्तवू ? बाकरीवा-६६.२४ चडसे चडवू, वेर बांधवू फोरव-२४.९ प्रगट करQ (सं. स्फुर परथी) बाकुल, बाकुला २५३.२६,२८ बाकळा, बकुल-विकाशन ५२.२७ बाफेलां कठोळ, मेलां देवदेवीओने धरावातं बगस-२७०.२३ आपq, भेट धर, नैवेद्य बगसीस २७२.६ २७३.१४ भेट बादर १७०.११ स्थूल, आंखें देखाय तेवा जीव बत्रीस बद्ध ४७.११ बत्रीस पात्रोथी निबद्ध बाध-१७०.२१ बद्ध थq (नाटक) बाधा २७६.१५ (शारीरिक) तकलीफ बदरा २५३.६ एक प्रकारचं सोनाना| बानिक १५४.१ बदरी ९९.१३ बोर (सं.) बापीयडा ५६.१२ बपैयो बधार-बंधार २७५.२८ बार १५९.१६ बाल, संतान (हि.) बध्धा-२७०.२६ वधारवं बारी ६७.११ द्वार, दरवाजा बयत २७२.२६ बालप्पण २६४.१३ बाळपण (सं. बालत्वन) बयन ७७.११ वचन (हिं) बालीय १०९११ बाला, स्त्री बल २६०.२१ बलि राजा बावनाचंदन ७०.१२ एक ऊंची जात, चंदन बलिया १५४.६ बलोयां, बंगडी बावीसवटा २०८.८ बावीस जिनप्रतिमानो पट्ट ? बलिहारी जा-३६.१३ वारी जq बासन २७३.६ बस २७५.२१ वास बाह २२४.१५ बाहु, हाथ बहत्तरि १६८.१५ बोंतेर बांह १६२.१ बाहु बहिनि १०.६ बहेन (सं. भगिनी) बांहडी ६५.२५ बाहु, हाथ बहिबह-२२४.१६ बहेकवू, सुगंध प्रसारवी बांहि ५१.५ हाथ (सं. बाहु) बहिरखा ७२.२५ बेरखां (सं. बाहुरक्षका:) बिडार २६९.१८ विदारवू, हत्या करवी २२४.१५ कांडाना घरेणां बिदा २७६.२५ विदाय (हि.) बहुत्तरि २०३.१८ बोंतेर (सं.) बिभाति २७६.२४ बहूली १५.८ बहोळी, खूब बिमणिम ६६.३ बमणुं बहूविह २०३.१९ बहुविध, अनेकविध बिरदावली ३.१४ स्तुति, प्रशंसा बहोल २६०.२९ घणुं (सं. बहुल) ? बिसरा २२४.२७ बे-सेरवाळा बंदि, बंदी ३.१३, २२९.११ प्रशस्ति गानारा, बिहु २४.३ बन्ने (सं. द्वि+खलु) भाटचारण (सं.) बीछह २६१.१८ वियोग, जुदाई बंदी १५१.१७ बीजपुर २२४.१४ बिजोरुं, लींबुना वर्ग- एक Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२८ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह फळ (सं. बीजपूरक) भणी ६.१८ खातर, -ने लईने बीलका ९९.१३ भत्ति ३०.९ भक्ति बुझ-४५.२८ समजवू, बोध पामवो (सं. बुध्य) भद्र २२५.९, २२५.२४ उत्तम हाथीनी एक जात बूझव-४५.२२ समजाव, बोध आपवो (सं. बुध्य (सं.) परथी) भद्र ३८.४ एक व्रत बुद्ध २६०.९ बुद्धि, ज्ञान (मणि) भमरी ६७.१७ भमती ? बुध ८४.७ ज्ञानी, पंडित (सं.) भमरी १६०.१८ फुदरडी बुधडी १६५.२१ बुद्धि भमरीदार १५२.१० फुदरडी फरतुं बुरंग ७३.२५ भमहि ६६.१० भवां बुहार-१६३.१२ साफ करवू, संजवारी वाळवी | भर जुओ योवनभर (दे. बोहारी) भरडा २५३.२ शिवनो पूजारी, ब्राह्मण बुबारोल २४.१७ कोलाहल भरतभेद २७१.१५ नाट्य-नृत्य-संगीत आदिना बे २७२.१९ प्रकारो (सं.) बेजुरी २२३.२ बिजोरानुं वृक्ष (सं. बीजपूरक) भरह १६८.१३ भरतखंड बेफार १५१.१३ भर्म ४५.२० भ्रम, भ्रान्ति बेर २७०.१८ वार (आवृत्तिदर्शक) भवकंद ३१.२४ संसार- मूळियु (सं.) बेर १२४.८ वार, वखत, समय (हि.) भवछंद १६०.६ संसारनी अभिलाषा-वासना (सं.) बेवि १६७.२८ बन्ने (सं. द्वेऽपि) भवण ७.१२ भवन, महेल बेहुल्या १३२.२७ बन्ने भवर १११.५ भ्रमर बोत २६१.१३ खूब (हिं. बहोत) भवंतर ५६.१६ अन्य भवो (सं. भवान्तर) बोधिबीज १६०.२० शुद्ध धर्मप्रकाशनुं बीज | भविआ ३०.१६ भविक. शीघ्र मोक्षगामी जीव तत्त्व, सम्यक्त्व भव्वजण २६४.२१ भव्यजन, शीघ्र मुक्तिगामी ब्याह ७३.११ विवाह (हिं.) जीव ब्याहन ७७.२१ परणावq ते (हिं.) भंगि १६२.१२ प्रकार, रीत, ढंग भइरव ११०.२१ एक वस्त्रप्रकार भंज-१६९.६ भांगवू (सं.) भजन ७७.२२ आश्रय लेवो ते (सं.) भंजण ४०.२ भांगनार, नष्ट करनार (सं. भंजन) भजनार १८.१७ आश्रय लेनार भंति २७६.१४ शोभे छे (सं. भाति) भट्ट २७१.२२ योद्धो भंभेर-२६७.२४ भट्ट २७२.२३ ब्राह्मण पंडित भा-१२२.२६ विचारवं भड ६३.२९ (अहीं) शौर्य (सं. भट) भाउ ७.१० भाव, मननी इच्छा भडवाउ २६८.६ पराक्रमी, वीर पुरुषो (सं. | भाख २७५.२ भाषा, वाणी भटवाद परथी) भाख-८.१ कहेQ (सं. भाष) भडवाय ५२.५ पराक्रमनी ख्याति (सं. भटवाद) भाग-१७३.१७ भांग, भण-४.२९ कहेवू, बोलवू भागले २३.२ भागोळ ? पादर ? भणी २१.६ -ने माटे भाज-५.१५ भागवू, नष्ट थq Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ७२९ भाण १८२.७ भानु, सूर्य भान २६७.२८ भानु, सूर्य भामणउं १९४.२३ ओवारj भामंडल २११.११ तेजवर्तुळ (सं.) भामा १०६.१९ भामिनी ८७.१७ स्त्री (सं.) भायण १८५.२७ भाजन, पात्र भार ३.२७ राशि, भारो, समुदाय २०९.२७ (वनस्पतिनो) वर्ग, समूह भारत २७१.१९ महाभारत ग्रंथ भाव २५९.२८ भाई (सं. भ्रातृ) भावन २१०.१८ स्तुति, गीतगान (सं.) भावनिक्षेप १८३.२२ भावना-चिंतन योजq ते (सं.) भावभगत १९१.३ भावभक्ति, भावपूर्ण भक्ति भास १६७.१२ प्रकाश, दीप्ति (सं.) भास २१५.२८ एक गीतप्रकार (सं. भाषा) . भास-२२.२० कहेवू (सं. भाष्) भासण २१९.१ प्रकाशित करनार (सं. भासन) भासुर ५१.७ तेजस्वी, प्रकाशमान (सं.) भांति ८०.२३ प्रकार भिडलां । भिडभला २५३.१८ भिंगार ७७.६ झारी (सं. ,गार) भीडी १३७.६ भीडी २१४.२९ भीड, संकट भीम २२१.२१ भयंकर, भय उपजावनार भीर १९.१४ भुयंगलिंत १३२.३ सर्प लावेल, सर्प करेल (सं. भुजंग+प्रा. लिंत) भुवनपति ३१.२५ भवनपति, एक देवजाति भुहरा २१५.६ भोयरुं (सं. भूमिगृह) अँहि २३१.३ भूमि, माळ भूअण २२२.१५ मंदिर, प्रासाद (सं. भवन) भूतखाना १७.८ मूर्तिगृह, मंदिर (फा. बुतखान:) भूतडो २०.१८ मूर्ति (अ. बुत) भूदर १६२.२ भूधर, भगवान भूमि २०५.९ माळ, मजलो (सं.) भूमिकंत १३१.१३ भूमिनो कांत, राजा भूयण ५२.५ भुवन, जगत भूर १६२.२ भूर १३६.१९ खूब, घणुं (सं. भूरि) भूलवणी २०७.२५ भृगुटि ८.१० भृकुटि, भवां भेट १९०.२ भेटो, मिलन भेरि ७६.२८ शरणाईना प्रकारचें एक मुखवाद्य (सं.) भेल १५४.११ भंगाण भेल-१४३.२२ भेळवq, मेळवq, भेगुं करवू भोमि १५.२४ भूमि, पृथ्वी भोरि ७६.२१ भोळी भोलम १६९.११ भोळपण, सरळता भ्रंत १३२.७ भरतो, करतो ? (सं. भृ परथी ?) भ्रंति ५६.२१ भ्रांति भ्राज १४९.५ शोभा भ्रांति २३८.१२ भ्रमण ? मईवासी २४८.२९ मउडधर १६८.१५ मुकुटधारी, सामंत मउर-१११.१६ म्होरवं, खीलq (सं. मुकुर परथी) मग्गण २२०.१० मागण (सं. मार्गण) मचकुंद ४.९ मुचुकुंद नामनुं पुष्पवृक्ष मच्छर २०४.७ ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध (सं. मत्सर) मछराल १२१.२५ गर्वीला (सं. मत्सर) मछवन ६५.२० मजार २४१.९ मध्ये, -मां मझ १६४.१५ मारुं, १६५.१० मने मझारि ७.२६ मध्ये, -मां, अंदर मझि १५९१८ मध्ये, मां मझिम २१३.२२ मध्यम मढ १६४.२५ मकान, निवासस्थान मण २०२.११ मन Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३० मणसुवअ २५७.२८ मुनिसुव्रत स्वामी मणहर १६७.२८ मनोहर मणा २४५.२६ मणुअ ५५.२० मनुष्य (सं. मनुज) मणोर २३०.१५ मनोरथ, अभिलाषा मणोहर २०३.१९ मनोहर मतवारणां ६७.२२ झरूखा, अटारी (सं. मत्तवारण) मतंगज ४९२६ हाथी ( सं .) मत्सर ५७.१४ द्वेष मदनभेरि २२३.२८ एक जातनुं मुखवाद्य मदल २६८.१६ मद्द - २६४.१४ मर्दन करवुं, चूरी नाखवं मद्दव २६४.१४ मार्दव, नम्रता, विनय मधु १३८.१ महुडानुं वृक्ष (सं.) अशोकवृक्ष मधु १५५.१६ चैत्र मास (सं.) मधु ११९१७ वसंत (सं.) मधुकर - घृत ७२.८ मन - २१९१४ माने ? विचारे ? मन- १३२.४ मानवुं (सं. मन्) मनरली ५१ ४ मनना आनंद ( पूर्वक) मनसुव्रत २५७.१६ मुनिसुव्रत स्वामी मनारे २६९१९ मिनारा मनीसर २५७.२१ मुनीश्वर मनुहारि ७६.२६ आदरसत्कार मनोहार १३३.२७ मनाववुं ते, खुशामद, आग्रह म- म ३.२८ मा मा, नहीं-नहीं मय २०४.७ मद मयणराय ५२.४ मदनराज, कामदेव मयमत्त १३१.१४ मदमत्त मयंक १५२.११ चंद्र (सं. मृगांक) मया १९२३ दया, कृपा मयाल ८७.१२ मायालु, प्रेमाळ, कृपाळु मरकडा १४०.१७ मरकलडा, स्मित मरहठी ६९१२ महाराष्ट्री प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह मराल ६४.१५ हंस (सं.) मल-२११.१५ मर्दन करयुं, मसळवुं (दे.) मलिजस ६४.१३ मल्लाखाड ५१.५ मल्लोनो अखाडो, व्यायामशाळा (सं. मल्ल + अक्षवाट) मल्हार १७८.८ आनंद करावनार (दे. मल्ह परथी) मव- १८९१३ मापवुं (सं. मा) मसमस- १९१.१९ मसवाडउ ३०.११ महिनो मसीत २६८.२५ मस्जिद मह २०४.१० मारुं (प्रा.) महमह - ५२.१५ मघमघवं महव्वय २६४.१८ महाव्रत महाधज २२५.१३ भारे मोटुं, भव्य महार्द्धि ४७.५ घणी रिद्धि - संपत्ति (सं.) महिमानीलो ४०.२० महिमाना निवासस्थान रूप, महिमावंत महिय १६८.२८ पूजित (सं. महित) महिर ८०.२९ महेर, दया, कृपा महीअल ४५.५ पृथ्वीपट (सं. महीतल) महीधर ५१.९ पर्वत (सं.) महीपुत्री २४.२५ माटी महीयल १६१.२४ महीतल, पृथ्वीपट महुअर ६९१९ मधुकर, भमरो महुअरी १३२.१३ वांसळी मत २१९१५ महत्त्व, गौरव, मोटाई महुल २६९२५ महेल महुला २३६.२० महेल महुर ६९१९ मधुर महेमान २५९२३ महिमन् ? मंगल ७६.२४ पापयुक्त, अनिष्ट, असुंदर (सं.) मंजर १३७.२५ मंजरी मंजुर - ११८. २८ मंजरी बेसवी मंडणी २०२७ मंडनरूप, शोभारूप Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ७३१ फरवं मंडलवइं५४.७ मंडलपति, प्रादेशिक अधिपति, | माल ६६.२५ मल्ल खंडिया राजा मालं-३.२४ महालवं, आनंद करवो, आनंदथी मंडाण ४७.८ ४७.१२ ठाठमाठ मंडिय २१०.४ मंडित, शोभित मालडी २२४.२३ माळा मंत्रीसर १६३.२३ मंत्रीश्वर माला कोडउ २०३.११ मंद २६०.१० मालिया २२८.२६ माळ, मेडी मंदर २६८.२४ मंदिर मालीआं १६४.२५ माळवाळां मकान मंदर ८८.२४ आवास (सं. मंदिर) मालीइं ४५.१९ मेडीए मा-२३५.१४ समावq ? पूरुं पाडवू ? माव-४३.२४ मार्बु, समावं माकंद १३२.२७ आम्रवृक्ष (सं.) मासखमण ४२.१९ एक महिनाना उपवास (सं. माच-१५४.८ थर्बु, फेलावं (हि.) मासक्षपण) माच-७९.९ गर्व धरवो, मत्त थq मा-सूं, मां-सूं १०५.१० मारा प्रत्ये (रा.) माझा २६२.१५ मर्यादा ? आमन्या ? माहण ३४.१५ ब्राह्मण (सं. माहन) माझी १२१.२९ मध्ये, वच्चे 'माहणी ३५.२४ ब्राह्मणी माठि २३०.१२ माहिद ५०.१२ महेन्द्र नामनुं देवलोक माण २५१.१० प्रमाण ? मानवू ? मांडवी २८०.१६ (जैन साधुना मृतदेहने बेसाडवा माण २११.१५ मान, अभिमान माटेनी) नाना मंडप जेवी रचना माणुस २०४.८ माणस (सं. मानुष) मांडवी २७८.५ (दाण उघराववा माटेनू) मातर १६२.२४ माताओ मंडपस्थान (सं. मंडपिका) मातंड ६८.१३ सूर्य (सं. मार्तंड) मांने २०.१ मने मादल १३२.१७ मित्त १३४.१६ मित्र मादल ८०.२२ मृदंग, एक वाद्य (सं. मर्दल) । मिथ्याती ३७.२ मिथ्यात्वी, सत्य तत्त्व पर मादलिया १५४.३० एक आभूषण ? अश्रद्धावान माधव १५५.१६ वैशाख मास (सं.) मिल-३१.१ भेगुं थq माधवी ६९.२२ एक लता मिस १३०.१६ बहानुं (सं. मिष) मान १६४.२१ अभिमान मिसरी १८५.६ खांड, साकर (अ. मिस्त्री) मांन १५.२६ प्रमाण, माप मिसि ४.२० बहाने (सं. मिष) माननी १६१.२८ मानिनी, स्त्री मिहिषी १६३.२७ भंस (सं. महिषी) मानि ७२.२२ -ना मापे, समान मीडउं वाल-३३.२० मी९ वाळवू, नष्ट कर, माम १६१.२४ गौरव, प्रतिष्ठा मीसल १५१.१८ माय ३.२ माता मुक्ख २६४.२५ मोक्ष मायभर २६४.१५ मायानो भार - जथ्थो मुगता १३६.१५ मोती (सं. मौक्तिक) मारण १३१.२९ मुगध ७.५ भोळो (सं. मुग्ध) मारविडारण ४९.२३ कामदेवने नष्ट करनार | मुचकंद ५२.१३ मुचकुंद - एक पुष्पवृक्ष (सं. मारि १७८.७ मारवं ते, वध (सं.) | मुचुकुंद) Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३२ मुण- २०४.१३ जाणवुं, समजवुं (दे.) मुणिंद ७.५ मुनीन्द्र, मुनिवर मुत्तुण २६४.२५ मुद्गर १३८. ८ गदाना जेवुं एक शस्त्र, हथोडो (सं.) मुद्रकी ७२.२५ वींटी मुद्रडी १०.१७ वींटी मुद्रा ८.२९ वींटी मुनिसुव्वय २०२.१८ मुनिसुव्रत स्वामी मुनीसर ६.४ मुनीश्वर मुह ३.१७ मुख, मोढुं मुहता ८.१९ महेता, मंत्री, प्रधान मुहुत २१३.२९ महत्त्व, मोटाई, गौरव मुहुर २६८.१५ मधुर, मीटुं मुहेल १५१.२१ मुंदरडी ७.१७ मुद्रा, वींटी मुंद्रडी ४.३० मुद्रा, वींटी मूंद्रडी ७.२ मुद्रा, वींटी मूरत १९२.४ मूर्ति मूर्छना ११०.१७ गायननो एक अंश, स्वरोनो आरोह-अवरोह (सं.) मूलगु २५१.३ मूळरूप, पहेलुं, मुख्य (सं. मूलगत) मृगलोअणी, मृगलोयणी ७.१६, १९९.१७ मृगलोचनी, हरणनी आंख जेवी आंखवाळी मृग-वाइ १५७.१७ मेइणि- पीठ ९१३ भों, जमीन (सं. मेदिनी पृष्ठ) मेखनइ मेखइ चूकव - ५.२९ खीलाथी खीलो काढवो, कांटाथी कांटो काढवो मेगल १६४.५ हाथी (सं. मदकल) मेघवनां ११०.१८ मेघवर्णनं वादळी वस्त्र मेघडंबर ७३.९ एक ऊंची जातनुं छत्र (सं.) मेट - १७२.२४ मिटाववुं, नष्ट कर मेणिका ५.२५ मेनका - मेदनी २१.१३ पृथ्वी (सं. मेदिनी) मेनका ६.३ मेनका प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह मेल - ४.१३ भेगं करवु, (अहीं) मींच मेर १६१.२७ मेरु पर्वत मेर तेरस २६२.९ मेल- १३०.१३ मेळवी आपवुं, मिलन करावयुं मेवास १७९.१७ धाडुपाडुओवाळो भयग्रस्त प्रदेश मेह २५.२१ वरसाद (सं. मेघ) मेहलउं २७४.२० मेघ, वादळ मेहलो ९०.२ मेघ, वरसाद मोक- २७५.१४ मोकलबुं मोकला २६१.२ विस्तृत ? करमुक्त ? मोकला १०५.२३ मुक्त, बंधनरहित, छूटा मोख २५०.१६ मोक्ष मोगर ४.९ मोगरी मोड १६३.१० मरड, मरडाट, गर्व मोडामोड १५३.६ अंग लचकावां ते मोतल २६२.२१ मोती मोद ९२.१४ आनंद (सं.) मोर - २६८.७ मोडवुं, मचकोडवुं, भांगी नाखं मोर २६०.११ महोर, एक सोनानाणुं मोर कमान १५३.२ मोरडा ५६.११ (१) मारा (२) मोर मोहग ६९.१ मोहक मोह - टालो १९.२० मुख छुपाववुं ते मोहन १३१.२९ मोहि २६७.२४ मने मोहे १७५.१५ मने (हि.) यत्न ३६.१७ जतन, संभाळ यदीय ५१.७ जेनुं यम ३५.१२ एम याज २६०.१० यांन २१.१६ वहाण युगत १३२.१९ युक्त, योग्य युगादि २२३.१२ आदिनाथ, ऋषभदेव योवनभर ४.१९ यौवननी पूर्णता रइवाडी ८.१७ राजसवारी (सं. राजपाटिक) Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ रक्खण २६४.१८ रक्षण रज - १८३.२७ राजी थवुं (सं. रंज्) रज्ज ३३.१६ राज, लोक रणखेत २५.१६ रणक्षेत्र रणछक २७.१२ रणझीक २४.२३ रणतुर २०.२९ रणशिंगु रणभंभा २०.३० एक युद्धवाद्य रणरंग १८५.२० रणरंगभूमि, युद्धमेदान रणसिणगा २०.२९ रणशिंगा रणंगिणि ६९.९ रणांगणमां, युद्धक्षेत्रमां रत ९४.२९ ऋतु रति ६९.७ ऋतु रत्नत्रय १६.४ सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र से त्रणनो समुदाय रम - ५.३ आनंद करवो, मशगुल होवु रमणिम २१९.३० रमणीयता रमभि ५२.२६ रमत, क्रीडा रमाउल १०९,१२ सुंदर, समृद्ध (सं. रमा + आकुल) रयण ६.५ रत्न रयण २६.१९ रजनी, रात्रि रयणरेड ११७.८ रत्नराशि रयणायर ६४.१६ रत्नोनो भंडार रत्न+आकर) रयणी ३६.८ रजनी, रात्रि रषीसर ६.५ ऋषीश्वर रह- ३.२३ थोभवं, अटकवुं - रहई ११०.८ - ने रहकल २५३.१५, २५३.१६ रहवर १६८.१७ उत्तम रथ (सं. रथवर) रंग ३.७ आनंद, उमंग (सं. रंगरलि २४२.५ आनंदोल्लास रंगरोल ९५.३ आनंदमस्ती, आनंदछोळ रंगविरंग १२४.२१ रंगबेरंग, जातजातना रंग - आनंदप्रमोद रंजण ३९.१ रंजन करनार रंभ २०३.१० रंभ ६७.१७, ६७.२१ रंभा, एक अप्सरा रंभ २२३.२४ रंभा, स्वर्गनी एक अप्सरा रंभा १५७.२१ केळ (सं.) राइमइ १०६.२० राजिमती राउ जुओ ऋषिराउ राउली २७.२४ राजानी (सं. राजकुल) राकापति १२९४ चंद्र (सं.) राखस १६४.१६ राक्षस राग ८३.२७ लाल रंग (सं.) राज- १८४.२३ राजी थवं (सं. रंज्) राजादनी ८८.१८ रायण (सं.) राजीइ ७.२३ राज्य करतो होय त्यारे राजीया १६१.२४ राजा राजिंद १७.२१ राजेन्द्र राण १६१.२७ राणो, राजा राणोराणि २७४.२० राजसमूह रातुडि ६५.२८ रताश राधे १५७.१३ वैशाख मास (सं. राध) रामकडां १३९.२० रमकडां रामजी ३४.३० बलराम रामेकडा ६५.५ रमकडां राल - ५६.१० फेंकी देवं रावला १०५.२६ राजाना रास २४२.२० राशि, ढगलो रांग २५३.६ पायो ? ७३३ रितु ६७.२७ ऋतु रिव २२३.२८ पोकार, मोटो अवाज रिषि ५.६ ऋषि रिससरो २०२.११ ऋषभदेव (सं. ऋषभेश्वर) यत १९.२३ तरफदारी, रक्षा (अ. रिआयत) रीरी २३८.४ पित्तळ (सं.) रीव ५५.१८ चीस, आक्रंद Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३४ रीव - रीवा २१.१८ चीसोचीस रीष्ट १५.२२ एक रत्नजाति (सं. रिष्ट) रीस ११२.४ रोष, कोप रुकम २१.२४ सोनाना सिक्का (सं. रुक्म) रुचि ७२.२३ तेज, प्रकाश (सं.) रुचिनिलइ ५७.२५ तेजधाम, तेजवंत, कांतिमान् (सं. रुचिनिलय) रुली २५१.११ आनंद रूख १६५.१७ रूतां १११.५ ऋतुओ रूति १२३.२५ ऋतु रूप्प २१२.९ रूपुं (सं. रूप्य) रूल - ४३.३ भमवु, भ्रमण करवं रूली ६९.२४ आनंद (दे. रली) रूव २०४.१२ रूप रूहाडि २२४.१९ अभिलाषा, इच्छा (रा., दे. रुहरुहय) संखडा १०९२८ वृक्ष रेख १८१.१६ रेखामात्र, लेशमात्र, थोडुं रेड ६४.१८ जथ्थो, समूह ? रेड १६४.९ धनप्रवाह, अतिशयता, प्रचुरता, राशि रेवइ ५७.१८ रेवतगिरि पर गिरनार पर रेवगिरि ५२.६ रेवंतगिरि, गिरनार रेषा २००.१८ रेस जुओ इणि रेस रेह ८६.१३ रेखा, भात रोक २३०.२३ रोक २१.२४ रोकडा रोल ११६.२१ घट्ट प्रवाही, रगडो रोलव- १६५.२० रोळवु, नष्ट करवुं लख- १८१.२६ लक्षित करवुं, ओळखवं, जोवुं, (सं. लक्षय) लख १६२.४ लाख, असंख्य लख - १६५.१० पामवुं (सं. लक्ष्) प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह लख्यण २००.१९ लक्षण लगन ७१.२८ (१) मुहूर्त, (२) लग्न, विवाह लछ २६१.४ लक्ष्मी, धन लछवंत २६१.४ लक्ष्मीवंत, धनवंत लछी २२.१२ लक्ष्मी, धन लट- २५२.७ लेटवुं, लांबा थई (पगे) पडवुं लधु ३१.७ मेळव्यं (सं. लब्ध) लब्धि ३८.१९ योगथी प्राप्त थती विशिष्ट शक्ति सिद्धि लरललक १५२.३० लळकवुं, झूलवुं (सं. लल् परथी) लल- २०.५ लळवु, झूकवुं ललवलीयां ११०.२० लव १५८.२८ लगनी, अभिलाषा लव- १७.२८ बोलवु लव एक ३०.१६ जराएक लवलीअ १११.२१ लवली एक पुष्पलता लह - ३.२७ धारण करवुं (सं. लभ्) लह - ५.९ जाणवुं, समजवुं (सं. लभ्) लंकेसरी १६५.२२ लंकेश्वर, लंकापति लंछित ६५.२४ लांछन- चिह्नवाळु लाग ८७.७ मोको, अवसर -- लाद १८९.२१ प्रसन्नता, आनंद (सं. ह्लाद) लाभ- २१५.८ मेळववुं, पामवुं (सं. लभ्) लावन १६८.१९ लावण्य लाह- २६१.११ लाभ पाम्या लाह ८९.१६ ल्हावो (सं. लाभ) लाहो १०५.९ लहावो (सं. लाभ) लिहाव २२५.१२ लखाववुं (सं. लिखापय्) लीह लोप- २२१.२२ मर्यादा लोपवी, आमन्या ओळंगवी लुछणा २६०.१७ ओवारणां (सं. न्युच्छन) लेण २६१.११ लेवुं ते लेयण १७.११ लेवुं ते लोकाकाश ४३.२४ द्रव्योना आधारभूत Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ७३५ आकाशक्षेत्र, जगत वयरसेन ३३.२ वज्रसेन स्वामी लोकालोक ३८.१० परिपूर्ण आकाशक्षेत्र, संपूर्ण वर ३.६ वरदान; ३.८ उत्तम जगत वरख-१४८.१४ वरसq (सं. वर्ष) लोकांतिक ३७.१२ एक देवजाति वरगय २१७.२३ उत्तम हाथी (सं. वर + गज) लोचन १७.१०, १९.६, २६.१५ लई लेवू ते, । वरणी १५४.७ स्त्री (रा.; सं. वर्णिनी) लूंटी लेवू ते वरणी १०.२३ वरण करायेली, परणेली लोट १६२.४ लोटपोट, लोथपोथ, आळोटबुं ते वरत-४६.५ वळे, पाछा वळे ? लोयण ११.११ लोचन, आंख वरसालो २५.२१ वर्षाकाळनो लोयणी जुओ मृगलोयणी वरसीदान ३७.१५ दीक्षाना पूर्वेना एक वर्ष सुधी लोहण १५१.६ वृक्ष ? अपातुं दान ल्याहरी २८०.१५ एक नाणुं वरासें ४५.१४ -ना भ्रमथी, -ना रूपे वइसाह १०९.२७ वैशाख मास वरुण १३१.१९ वृक्षविशेष (सं.) वउलसिरि ६९.१५ बोरसल्ली वलतुं ४.२९ पार्छ, उत्तर रूपे वउलाव- ७.१३ वळावq, विदाय आपवी वल्लकी ११०.१३ एक प्रकारनी वीणा (सं.) वखाण- २७१.२० विस्तार, विवरण करवु (सं. ववहारी २१३.२८ व्यवहारी, वेपारी व्याख्या-) वसन १५२.६ वस्त्र (सं.) वखाण- ३७.६, ३७.८ वर्णव, विवरण करवू, वसही २०३.५ स्थान, निवास (सं. वसति) विस्तार करवो वसीही २०८.१९ वसहि, स्थान (सं. वसति) वछ ११.१२ वत्स, दीकरो वह-४.२५ चालवू वछि ७.१० दीकरी (सं. वत्सी) वह-३.२५ चलाव, वज्जधरो ३२.९ वज्रधर स्वामी वह-६.८, ११.४ आदर, कर, वटकाली १८.९ वटके एवी, रिसाळ वहल २५९.२५ वहेल, उपरथी ढांकेलं, वडाउआ १८.२० वडील, दादा शणगारेलं गाईं वणराइ १०९.४ वनराजि वंक १०.१९ वांक, दोष वणराय १११.४ वनराजि वंक ९.६ वांकुं, आईं, मुश्केली करनालं वदीतो २९१३ प्रसिद्ध (सं. विदित) वंकडी १६३.११ गर्विली (सं. वक्र) वनरोझ ८.८ वगडाना रोझ, (एना जेवा) जंगली, वंकडो १६१.२५ बंकडो, वीर पुरुष, गर्विलो जडभरत वंठ ११६.२५ वांढो, नि:स्नेह (दे.) वनसिरी १५०.३ वनश्री, वनशोभा वन-खाली ७२.४ वनो १६२.१२ विनय वस २७१.१६ वन्न-४९.२९ वर्णवq वा- १६३.१६ वगाडवू, अवाज काढवो (सं. वन्नव-२१८.३० वर्णवq वाद) वयण ३.४ वचन, वाणी वाउ ५६.४ वायु वयर ११७.२९ वज्र वाघिण १८९.३ वाघण वयर ३.२९ वेर (सं. वैर) वागो १६.१९ वाघो, डगलो, अंगरखं Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह वाचक ८४.६ जैन साधुनुं एक पद (सं.) वासि ५६.११ पशुपंखीओ- बोलवू वाज-४.१२ वावं, वहे, वासुगि ५४.१२ वासुकिनाग वाज-१६३.५ वागवं, अवाज करवो (सं. वाद्) । वासुदेव ४१.१३ अर्ध चक्रवर्ती, त्रण खंडना वाजि १२७.७ अधिपति वाटलई ६७.२४ वाह-२४.१४ चलाव; ५७.८ खेंचवू, आकर्षित वाटीकीओ १८.१ करवू, ताणी जवू; १६५.१ खेंचवू, लई जवु, वाड सुत २६०.९ परास्त करवं. वाण १२४.४ वाणी वाह-१६३.२० वगाडवू, बजाव, वादित्र ११०.१२ वाजिंत्र (सं.) वाहणी ३.१० रथ (सं. वाहिनी) वादी ३८.२० वाद करनार वाहर १९११ वार, सहाय वान १९९.१३ गौरव, प्रतिष्ठा (रा.; सं. वर्ण) वांगड ११५.८ वक्र, तोछडु वाय ४.१२ वायु वांट- २३५.९ वहेंचर्बु, वितरण करवू रा; हि. वाय-जोगि ९.२५ वायुना योगथी, पवन बांट (सं. वंट) नाखवाथी वांनि २०.२० वायां २६१.१० वांम पूर- ३.२१ (बाण छोडवा) वाम भरवो, हाथ वार २२२.१८ फेलाववा (सं. व्याम) वार ६५.१० वि २०४.७ पण, सुध्धां (सं. अपि) वार १६२.२३ वारि, वाणी विक्कुंतकंत २२१.२१ वारणउं ६५.१० ओवार| विकर्म १६३.२१ दुष्कर्म वार्ता ११०.६ समाचार (सं.) विकल्प १२९.८ विचार (सं.) वालहा ४६.१४ वाहला, प्रियतम (सं. वल्लभ) विकुर्व-४७.९ दिव्य सामर्थ्यथी उत्पन्न करवू (सं.) वालंभ ८.२९ प्रियतम विखवयणी ६९.१२ मधुर वचनवाळी ? (सं. वालिभ ९१.२० वल्लभ, प्रिय विषवचनी, 'विष' विरुद्धार्थे 'मधुर' ?) वालिम ९२.१२ वालम, प्रिय विखवाद २७८.१८ दुःख, अफसोस (रा.) वालेसर ९०.२० प्रियतम (सं. वल्लभेश्वर) विखवाद २४१.१ दु:ख, अफसोस (रा.) वावर २६१.५ विगइ २७६.२८ घी वगैरे विकारात्मक खाद्य वावलीया २६०.२६ - _पदार्थ (सं. विकृति) वावोड २३५.१३ विगतिं २२५.३ वीगते, जुदुं पाडीने (सं. व्यक्ति) वास-१८५.२७ वासित करवं विगय २०४.७ विगत, नष्ट वास १९७.१५ सुगंधित द्रव्यविशेष विगलेंदिय १७९.१६ ओछी इन्द्रियवाळा, वास-१९७.२२ वसावg (सं. वासय्) एकेन्द्रियथी चतुरिन्द्रिय सुधीना जीवो (सं. वास-११०.२ सुगंधित करवु (सं.) विकलेन्द्रिय) वास-५६.११ अवाज करवो विगोयउ २२०.१६ व्याकुळ - दुःखी करायेलो वासग १६१.२२ वासुकि नाग (सं. विगोपय्) वासना १८१.१६ सुगंधितता (सं.) विचालि २५५.३ वचाळे, वच्चे Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ७३७ विचित्रिका ११०.१३ वाद्यविशेष विलविल-१००.१७ वलवलवं विचे २१.१७ वच्चे विलधा १२७.१४ विलब्ध लोभायेला विछा-२८.११ बिछाव, पाथरवू विवरो १८१.२७ भेद, जुदुं पाडवू ते विछाय ६.३० निस्तेज, झांखं (सं. विच्छाय) विविह १६८.२३ विविध विछोड-६.१४ छोडवू, तजवू विसम-१५२.२० विस्मय पामवं विछोहउ ९२९ वियोग विसहर १८.२४ विषधर, विषयुक्त विछोह्यां र. विरही (सं. विक्षोभित. दे. | विसवाविस ९७.१९ वीस वसा, निश्चितपणे, विच्छोह) नक्की विजय ३०.२७ महाविदेह क्षेत्रना प्रान्तरूप प्रदेश विसंस्थुल १२९.७ विह्वळ (सं.) विटंबन ३६.३ तिरस्कार करनार, उपहास | विसासि १०.६ विश्वासी, विश्वस्त करनार विहल ५.१३ विफल, निष्फळ विडंब-२४.१९ विहस ६९.२८ विकसg विडंब-८३.२१ उपहास करवो, तिरस्कार करवो । विहंडण २०३.६ नाश करनार (सं. विखंडन) (सं.) विहा-८९.११ वीत, पूरुं थQ (सं. विघात) विण ८.४ विना विहाण २३८.१७ विणस १७.२६ वणसवू, नष्ट थर्बु विहिय २६४.१९ विहित वितपति २०३.८ कलाकौशल (सं. व्युत्पत्ति) | विहाण १६९.८ सवार, वहाणुं (सं. विभान) विधि २६१.२५ विहाण ६४.१७ निर्माण (सं. विधान) विनाण १९२.११ ज्ञान, समज (सं. विज्ञान) । विहि ९.६ विधि, विधाता विनोद १०.५ विहिअ ६४.९ विहित, करेलु विन्नाण १४८.१९ ज्ञान, जाण (सं. विज्ञान) विही १६३.११ विधि, विधात्री विपंची ११०.१३ वीणानो एक प्रकार (सं.) विंझगिरि १८९.१९ विंध्यगिरि विबुध ९३.७ पंडित, ज्ञानी (सं.) वीछड्या ११७.१८ विरही विमान ५.२६ स्वर्गभवन, देवभवन (अहीं) वीज २४४.१९ विद्या ? वैमानिक देव वीजन ७४.८ पवन नाखवा ते (सं. व्यजन) वियरीडा १६५.१ वैरी वीणठ-२१.६ वणस, बगडी जर्बु (सं. विनष्ट विरच-१०.४ कर परथी) विराध-२४५.४ भंग करवो (सं.) वीणडी ६६.१० चोटलो (सं. वेणी) विराम ८.७ कष्ट ? वीणी ६९.१४ चोटलो (सं. वेणी) विरी १६१.२५ वैरी वीरवलय ७२.२५ वीरत्वसूचक कडां विरूआं ९३.६ वरवां, खराब (सं. विरूप) वीशस्थानक ४३.४ विरूई १८.१ वरवी, नठारी, अनिष्ट (सं. विरूप) वीसास ५१.१६ विश्वास विरोह ३.२९ विरोधी भाव, द्वेष, वेर वीसोतर २५६.२१ (अमुक) उपरांत वीस विलयाकार ३०.१९ वलयाकार, वर्तुळाकार वुट्ठ-२०४.११ वरसq (सं. वर्ष) विलव-९.२५ विलाप करवो, रडवू वुठ-८२.२२ वर्ष, (सं. वृष्ट परथी) Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३८ वृत्तंत ६.१९ वृत्तान्त, हकीकत वृंत १३१.२३ वृंदाल १२४.२६ वेइल ६९.१५ एक लता, (सं. विचकिल, प्रा. वेइल्ल) वेल १०९.२९ विचकिल लता वेच- २१९.२२ व्यय करवो, वापरवुं, खर्चवुं (प्रा. वेच्च) वेडि ११८.९ वेढालो २३५.२ युद्धप्रिय, वेद १७९.२१ मोहनीय कर्मनो एक प्रकार जेनाथी मैथुननी इच्छा थाय छे (सं.) वेदनी २१.१३ वेदना वेद्धों ४५.२० वींधायेलो (सं. विद्ध) वेध - ५.७ वींधवं, वींधाधुं वेधक १५५.२० रसिकचतुर (सं. विदग्ध) वेलांगरीय २५५.१ वेश ४५.१३ वेश्या वेसा ४५.१२ वेश्या वेह ८७.१५ आकर्षणरस ? जखम ? (सं. वेध) वेह १२७.१२ वेध, छिद्र वेहल २६.५ वहेल, शणगारेलुं गाडुं वेहेंच - १७०.१२ विभक्त थकुं वोढा १५२.६ वहेवुं, धारण करवुं, ओढवुं (सं. ऊढ, प्रा. पोढ) वोल - १३०.१२ पसार करवुं व्यतीत करवुं वोलावुं २२.११ मुसाफरीमां साधे रही रक्षण करवुं व्याह १२०.२७ विवाह (हिं.) व्रतंत ७.४ वृत्तांत शक्र ३४.२८ सौधर्म देवलोकनो इन्द्र शचिपति १३२.२३ इन्द्र (सं.) शमरस ५३.१० संयमरस, वैराग्यरस शरम - ६८. ९ शस्त्रनो व्यायाम करवो, अभ्यास करवो, वापर प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह शाम १८९.२८ श्याम, काळु शारंग ६८.११ कृष्णनुं धनुष्य (सं. सारंग) शालि ७२. ९ चोखा (सं.) शिफति २७२.२७ शिफत शियरो १५९१८ शीतल शीतलेश्या १७३.२६ शीरख १३७. ६ रजाई, गोदडी (सं. शीतरक्षिका) शुद्ध २२.९ खबर (सं. शुद्धि) शुद्धि १७७.१३ समाचार, खबर ( सं .) शुद्धि - अशुद्धि ५.९ सारापणुं खराबपणुं, योग्यताअयोग्यता शेखर १३२.५ शिरोभूषण (सं.) शेत्रुंज २५०.६ शत्रुंजय शोश १५१.१८ शोषण १३१.२९ श्रवण ५५. ४ कान (सं.) श्रावी २१४.२ श्राविका श्रीकार २५९.२७ उत्कृष्ट, उत्तम, श्रेष्ठ (सं.) श्रीकार १२३.३० उत्कृष्ट, सुंदर (सं.) श्रीमंडल ७६.२७ एक तंतुवाद्य (सं.) श्रीमुखि २७३.४ पोताने मुखे श्रीवच्छ ६५.२४ (जिनदेव वगेरेमां जोवा मळतुं) छाती परनुं एक शुभ चिह्न (सं. श्रीवत्स) श्रुति ५५.४ अवाज, ध्वनि (सं.) षट्पद ७०.३ भमरा (सं.) सई ३०.१२ सो सई ४.७ पोतानुं (सं. स्वयम्) सई १९७. ८ सो (सं. शत) सप्रभु ३२.५ स्वयंप्रभ स्वामी सउ ३१.१ सो (सं. शत) सउगंधि २७०.१४ सोगंद सखरा ७९.७ सरस, सुंदर सखाई ११.१० सहायक, साथीदार सखाइयो १६२.३ साथी सगलइ ४.११ सघळे Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सच्छाया १०९.९ सरस छाया (सं.) सछाय ११८.२८ छायावाळु सजाई १६२.२२ तैयारी सजोड १६३.९ जोडमां, साथे सज्या १७.१ सजा सडी २७३.१५ सणधारा २६०.३ शणगारेला सणाह २६४.१० सतर ३१.१ सित्तेर सतहुत्तर २३२.८ (अमुक) उपरांत सत्तर सतिताल २३३.५ सुडतालीस सत्तम २११.९ सातमुं (सं. सप्तम) सत्तरिसा २३२.३ सत्तेगधारी (संत्तेडाधारी) २९.१० सत्थिय २१४.२८ स्वस्तिक, साथियो सदल ११८.२८ पांदडांवाळु सदामुं २७५.२५ सदीव ५.९ सदैव, हंमेशां सदैवत २६.१४ सद्दहणा १७०.२५ श्रद्धा सधर ७३.२८ सध्धर सधव १९८.८ सधवा, सौभाग्यवती (स्त्री) (सं.) सुधार २११.१४ सहाय, आधार, आश्रय सधारण १९३.२५ पार पाडनार, सिद्ध करनार सान करवी, इशारो - संकेत सनकार - ५३.५ करवो सनागर ७२.७ सनात्र २१९.१९ सनूर १६.२५ उमंगभर्यु सनूर २३८.२० उमंगभर्यु, उत्साहपूर्ण सन्निवेश ४२.४ गाम (सं.) सपनंतर २५०.२२ स्वप्नमां (सं. स्वप्न + अंतर्) सपराणउ २१८. ३ बळवान (सं. स+प्राण) सपराण १६१.२९ बळवान (सं. स+प्राण) सपराणी १५२.१ सबळ, जबरुं (सं. सप्राण) सपुर २२.९ स्वपुर, पोतानुं नगर सबकार २४.२० बधा ? समइ जुओ तिणिसमइ समउसरण १६८.३० समवसरण, तीर्थंकरनी देशना माटेनुं सभास्थान समचउरस २१५.१० समचोरस, (सं. सम+चतुरस्र) समपरिणाम २४५.५ समबुद्धि ? ७३९ समय २७१.२७ शास्त्र समरासक २७८.२० समली २५०.१५ समडी समहीत १८०.६ इच्छित (सं. समीहित) समाचार - २१.२१ समाचार ३३.९ सम्यक् आचार समाण २१९.२ (१) समान, जेवुं, (२) मानयुक्त, गौरवयुक्त समाणी ३६.११ समान, समोवडी, सरखी उमरनी समाधि २७६.२५ समाधि ७.२३ चित्तनी स्वस्थता, चेन समार-४७.१५, ७६.२१ सुधारयुं, सरखं करवुं, सीधुं कर समीर २१.२१ वायुदेव समुहुती १६४.१४ गौरववंती, गौरवभेर (सं. समहत्त्व) समोप - ११.१२ समोसर - २७४.१३ पधारवुं समोसर - १६२.२ समर्पयुं, आपवुं देवं आगमन थयुं, पधारयुं (सं. समवसृ-) समोसरण ३१.२२ तीर्थंकरना आगमन प्रसंगे रचवामां आवतुं सभास्थळ सयण १०५.१३ पथारी (सं. शयन) सयत रतनवंत ६८.७ सयर ५६.१७ शरीर सयल ६.२, सकल, सघळो, २०.४ बधा सया ९१.२६ सेंकडो (सं. शत) Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४० प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह सयां १५.२६ सो (सं. शत) सर ६९.१९ स्वर, ध्वनि सरति ११८.२९ श्रुति, संगीत-ध्वनि सरसीय ३२.११ साथे सरस १३७.४ तळाव (सं. सरस्) सराजांम २५.६ २६.१२ साधनसामग्री (फा. सरंजाम) सरि १६४.६ शिरे, माथे, उपर सरिसे ७२.१५ साथे सरूप ५.१७ स्वरूप, वस्तुस्थिति, हकीकत सर्ग ४१.१ स्वर्ग, देवलोक सलक-२६.१८ सळवळवू सलखणा ३२.१ सुलक्षणा, सारां लक्षणवाळा सलवलीयां ११०.२० सलह-२१०.५ प्रशंसर्बु (सं. श्लाघ्) सलावणी ७१.२२ सलोणी, सुंदर (सं. सलावण्य) सलूण ५४.११ सलुणो, सुंदर (सं. स+लावण्य) सल्लई १०९९ एक वृक्ष - सल्लकी, सालेडी सवया १३९.९ समान वयना (सं. समयस्) सवहं २५१.३ सर्वथी सवाइ । सवाइन २६.१७ सवाउ २६१.१६ सवायो, चडियातो सवारां १६४.२६ शीघ्र, सत्वरे, वहेला सवि ६.२१ सर्वे, बधुं सविण २०२.८ सर्वे, बधा सविसेखं २१५.६ घणुं विशिष्ट (सं. सविशेष) सविहाण २५५.२५ विधिपूर्वक (सं. स+विधान) सविहु ५३.२३ बधा ज (सं. सर्व+खलु) सवेवि ६४.५ बधा ज (सं. सर्वेऽपि) सव्वे १०९.२७ सर्वे, बधा ससनूर २०.३०, २५.४ उमंगभर्या ? ससनेह ८२.१ सुंदर स्नेह (सं. सु+स्नेह) ससनेही ८१.४ उत्तम स्नेही (सं.सु+स्नेही) ससंक १६८.६ शशांक, चन्द्र ससंक ९.२ भयभीत ससुर २२३.२८ सुस्वर, मधुर सस्य ९०.२७ धान्य, अनाज (सं. शस्य) सहकार ८१.२ आंबो (सं.) सहगुरु १५.११ सदगुरु (सं. शभगुरु) सहसन ताम २६०.४ सहसाराम १०९.४ हजार आंबानुं वन (सं. सहस्र+आराम) सहस्स २६.३ सहस्र, हजार सहाव २५२.३० स्वभाव सहिअ २२९.२३ सखी सहिगुरु ३०.९ सद्गुरु (सं. शुभगुरु) सहिनाण २६९२१ निशानी, चिह्न (सं. साभिज्ञान) सही ४.२४ खरेखर सही ३६.११ सखी संक १०.२० शंका, संशय, अचकाट ? संक-६.२९ भय पाम, संक ९.६ भयभीतता संकमाव-३५.२२ प्रवेश कराववो संका ५.२१ भयभीत थर्बु संकुल १०९.२९ व्याप्त संकेत ८.२४ चिह्न, निशानी संखेप ६.२५ संक्षेप, ट्रॅकाण संखेव ३०.१० संक्षेप संगामांची १०५.२८ अढेलीने बेसाय तेवी मांची संग्रह-८१.१९ लेवं, स्वीकारवू संग्रह-११.२५ रक्षण करे ? लई ले ? संग्रह-२५.११ ग्रहण कर, लेवू संग्रामां ११०.१८ वस्त्रविशेष संघात १०६.८ साथ (सं.) संघाती ३७.१ संगाथी, साथी संघाहिव २२६.८ संघपति (सं. संघाधिप) संच ८३.११ उपाय संचार-३२.१० पाथरवू संज १६९.८ सांज (सं. संध्या) संजमभार ५७.२७ संयमधर्म - दीक्षित जीवननो Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ७४१ भार संवेग ४४.४ वैराग्य संजुत २१.३ संयुक्त, साथेनुं संस्कर-२८०.२६ अग्निसंस्कार करवो संठ-२०३.१४ स्थापवू, राखवू (सं.सं+स्था) संहर-३५.२० लई ले संठाव-२१८.१२ स्थापq (सं. संस्थापय) संहर-४.२८ समेटg, पार्छ वाळी लेवू, (सं. सं+ह) संठिया २०२.१२ रहेला (सं. संस्थित) सा ८.२० ते (स्त्री) (सं.) संतत १६०.२१ निरंतर, हमेशां (सं.) साकेतपुर ३.८ अयोध्या संतापणो २५.२७ संताप थवो ते साखा २६१.११ संति १६८.१ शांति साखी २७७.१७ साक्षी संथव-२२७.८ स्तुति करवी (सं. संस्तव्) साखी १८१.२३ साक्षी संथुण-२९.८ स्तुति करवी (सं. संस्तु-) साखीआ १६२.२ साक्षी संध-१५२.१० सांधवू, योजq सागर ४२.२ एक काळपरिमाण संध-५.२९ सांधवू, जोडी लेवू, स्वीकारी लेवू सागरि-हबारी ६७.१२ संध-३.१७ सांधवू, जोडवू, मांडवू साज १६५.२५ संनाह १९१.१३ बख्तर (सं.) साज-१५४.४ सज्ज करवू संपइ ३१.१२ हालमा, वर्तमानकाळे (सं. संप्रति) | साज-७७.२१ सज्ज थq संपज-२५२.३० प्राप्त थर्बु (सं. संपद्य-) साजि १९२.१५ साधन (सं. सज्य) संपज-३४.१७ संपन्न थवं, प्राप्त थवू, सिद्ध थर्बु साठि २५४.२७ संपन्नउ ७.२८ थयो साड-२४९.९ विदारवू, नष्ट करवू (सं. शाट्य) संपूरइ ४६.६ संपूर्णपणे साढा पणवीश २७.८ साडा पचीश सबर ५५.४ साबर (सं. शंबर) सात ७.२३ सुख, आनंद, कुशळता (सं. साता) संबंध ६.२१ कथाप्रकरण, वृत्तान्त (सं.) सादुलो २३४.१५ शार्दूल, सिंह संभर-१०.१८ सांभरवू, याद आवq साध २७७.११ साधु संभल-६.२१ सांभळवू साध-१६८.१३ जीत, (सं.) (तसंमि २२२.२४ साधार-२२०.१६ सहाय करवी संयमपणुं ३८.२५ दीक्षावस्था साधिक ३७.१९ सविशेष, वळी (सं.) संरंभ ६.३ आवेश(पूर्वक) सानधकारी २३.१२ सहायकारी संलेखण २४४.७ अनशनव्रतनुं अनुष्ठान (सं. सानिधकारी २३.१ सहाय करनार संलेखना) सानिधि २५४.२२ सहाय (सं. सान्निध्य) संलेखना २७७.६ अनशनव्रतनुं अनुष्ठान । साबइला १९८.२५ शणगारायेला छोकरा ? संलीन ३५.३० इन्द्रिय वशमां होय तेवू, साम-२६४.१४ शमाव, शान्त करवू इन्द्रियव्यापार विनानुं साम १४७.१० श्याम, (अहीं) नेमिनाथ संवच्छर २०४.७ संवत्सर, वर्ष सामटा ७२.१३ खूब संवछरीदान १५.२९ तीर्थंकर दीक्षा ले ते पहेलां सामह-४.४ (जवा) तैयार थर्बु एक वर्ष सुधी अपातुं दान सामलीआजी २८.१९ ऋषभदेव संवर १८५.१० नवा कर्मबंधन थवा ते (सं.) | सामिअ ३१.५ स्वामी, अधिष्ठाता Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४२ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह सामिण २०४.२ स्वामिनी खानपान-वस्त्रादिकनुं दान सामिणि ३.२ स्वामिनी, अधिष्ठात्री सांसह-२५३.२१ सहन करवं, सांख, धैर्य सामुहउ २६९.२५ सामो राख, सामुहो ११७.१२ सामे (सं. संमुख-) सिउं ३१.१९ साथे सार ९४.२३ सारसंभाळ, सहाय सिकर १३२.२ पाणीनां झीणां फोरां, झरमर (सं. सार ३.६ उत्तम शीकर) सार-७२.१९ सिद्ध करवू, करवू सिख्य २५८.८ शिक्षा, बोध, शिखामण सारण ९१.२६ वींध-भेदबुं ते, हृदयभेदक पीडा | सिणगार १९२.४ शणगार (सं. शृंगार) सारसी १६४.५ मत्त हाथीनी चीस, गर्जना सिद्धिगीरी १६.२ सिद्धाचल, शत्रुजय पर्वत सारसो ८२.३ साथे सिध-१९३.१५ सिद्धदशाने पामर्रा सारंग ५१.३ विष्णु (कृष्ण)नुं धनुष (सं. शाङ्ग) सिध १९०.३० सिद्धि साल २१७.२६ शाळा, धर्मशाळा सिधवधु १९०.२९ सिद्ध अवस्थारूपी वहु सालणां ७२.१३ अथाणां सिरबंध १७६.१९ माथाबंधj, फेंटो, साफो साल पद्वीय २१०.२६ सिरब्बरि २६८.८ शिर उपर ? सावटूअ २२०.९ रेशमी जरियान वस्त्र सिरिच्छत्र ५१.९ शिरछत्र, माथा परनुं छत्र सावला २४३.९ शामळा, काळा सिरि दिरि २५५.१ सास ८९.१० श्वास सिहर २२४.१७ मथाळु, उपरनो भाग (सं. सासतां २५७.१८ शाश्वत, नित्य शिखर) सासनसामनि ४५.२१ धर्मशासन - धर्मसंप्रदायनी सिहर २२१.१३ शिखर स्वामिनी, अधिष्ठात्री सिहरस्वामि २५७.२४ साहस २७८.१९ हिंमत (सं.) सिंग ६४.७ शिंगडु (सं. शृंग) साहामीवछल २६२.१८ पोताना धर्मना लोकोने | सिंगार ६.२, ६४.७ शृंगार, सौंदर्यसज्जा शणगार, खानपान-वस्त्रादिकनुं दान शोभा साहारण १७९.१८ जेमां अनंत जीव होय छे ते सिंगार-७०.१६ शणगार करवो कन्द आदि वनस्पति (सं. साधारण) सिंगारिणी ७०.९ शृंगार सजेली साहु ३२.१६, २६४.१० साधु सिंथो ७६.२३ सेंथो साहुणि २६४.१० साध्वी सीकर १३६.१५ जलबिंदु, टीपां साहेली १५१.२१ वृक्ष ? सीकिरि ७३.१२ धजावाळु छत्र सांकडे १८.१ नजीक ? सीख २६२.११ विदाय (सं. शिक्षा) सांख ११०.१६ शंख सीखेड (सुखेड) १५७.२१ वृक्ष ? सांचर-२५०.२४ संचर, जq सीझ-७९.२४ सिद्ध थवू, पार पडवू सांनिध १९६.१८ सहाय (सं. सान्निध्य) सीझ-८९.१९ बळवू, दाझवु (सं. सिध्यते परथी) सांभल-११०.७ सांभर, याद करवू सीत २१०.२६ सांमीभगत २६१.५ साधर्मिक भक्ति, पोताना | सीद्धसला १६.१० सिद्ध-मुक्त जीवो ज्यां वास धर्मना लोको प्रत्ये अनुराग, सेवाभाव, करे छे ते शिला Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ७४३ सीमाढा १९१.४ सीमाडाना राजा, मांडलिक सुपराणा २६९.१४ मजबूत ? सीयल १६५.६ शियळ, शील, चारित्र्य सुपरि, सुपरे २६.२३, १२.३ सुपेरे, सारी रीते सीयल १६५.६ शीतल (सं. सु+प्रकार) सीव १६.४ परम कल्याण, मोक्ष सुपसाय १७.१९ सत्कृपा (सं. सुप्रसाद) सीस ७.११ शिष्य सुपास २१०.४ तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ सीसलेस २२७.७ क्षुद्र शिष्य सुप्राक्रम २१.२७ सुंदर पराक्रम सीह-दूआर २२३.१८ मुख्य द्वार (सं. सिंहद्वार) | सुबिवेक २६९.२२ विवेकपूर्वक, विचारपूर्वक सीहर ७०.२९ सुभर १८९.८ सारी रीते भरेल, परिपूर्ण सींगी ५३.४ पिचकारी (सं. शृंगिका) सुभिक्ष ९०.२८ सुकाळ (सं.) सीगिणि ६६.१० धनुष्य (सं. शृंगिणी) सुम १३२.२ फूल सींच-११०.५ छांटQ ? सुमन १३९.१ (१) सारा मनवाळी, (२) पुष्पसीधल ७३.१७ घोडानी एक जात युक्त सींधुआ ७३.१७ सिंधु देशना, घोडानी एक जात सुमनस १३१.२१ फूल (सं. सुमनस्) सु २४४.२५ सो (सं. शत) सुमीठ ८५.२७ खूब मीठु (सं. सु+मिष्ट) सुइ १७१.१२ सोई (सं. सूचि) सुमिण १६७.२९ स्वप्न सुई २१८.११ शुचि ? सुयं १८९.१२ सूत्रग्रंथ सुउण १११.३ पक्षी (सं. शकुन) सुरगिरि ३६.१६ मेरु पर्वत सुक्यत्थ २०४.९ सुकृतार्थ, सफळ सुरपति ५.२४ इन्द्र सुकंबु २००.१७ सुंदर शंख (सं. सु+कंबु) सुरमणी २६.२२ चिंतामणि रत्न सुकुमाल ८.२९ सुकुमार सुरमाल २२४.२४ खूब रमणीय (सं. सुखगेही ८२.१ सुखनिवासी (सं.) सु+रमा आकुल) सुखासन २५९.२५ आरामभर्यु आसन, ए जेमां छे सुरम्म २२२.१४ सुरम्य, सुंदर तेवू पालखी जेवू वाहन (सं.) सुररयण २६९.३ चिंतामणि रत्न सुखासन ४७.७ पालखी सुरवइ ३१.२३ सुरपति, इन्द्र सुगट्ट २६७.११ सुघट, सुंदर सुरहि १०९.७ सुगंध (सं.सुरभि) सुघट २६१.१ सुघड, सुंदर सुरहुं ७२.१३ सुगंधी (सं. सुरभि) सुचि सोल २१०.१७ सुरीपुर २१४.११ शौरीपुर सुज ४९१९ सूझ, ज्ञान, बुद्धि सुवन्न ३१.२१ सुवर्ण, सोनुं सुजसता २६१.२१ यशस्वीपणुं सुविहित १९८.२० सुंदर आचारवाळा (साधुओ) सुतीगिमा ७१.२७ (सं.) सुत्रधार २५३.८ शिल्पी, सलाट (सं. सूत्रधार) सुसामि २१०.२० सु-स्वामी, अधिष्ठाता सुथान २४०.२८ सरस स्थान सुसार २४२.९ उत्तम, श्रेष्ठ (सं. सु+सार) सुदृक्ष ५२.१७ समान (सं. सदृक्ष) सुसु २६९.२२ सुनाह ५.१४ सारो पति (सं. सु+नाथ) सुस्वामिअ ३१.७ सारा स्वामी, अधिष्ठाता सुपइट्ठ २१४.२६ सुप्रतिष्ठ - एक राजा सुस्तो १३३.१८ सुखपूर्ण (सं. सुस्थ) Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४४ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह सुहग २२०.७ सुभग, सौभाग्यशाली गुलाब सुहणां ३५.२७ स्वप्न सेह २१.२४ सो सुहंकर ८१.१५ शुभ करनार सेहरो २४२.२७ मुगट (सं. शेखर) सुहा-७९.२३ सुखदायक होवू सैण १३०.१३ स्वजन सुहामनी १९९.२० सोहामणी सोइ १६२.६ ते ज सुहाव-५०.१८ शोभाव, सोच्छव १३२.२१ उत्सवपूर्वक सुहावणउ १०९५ सुख आपनारो, संदर सोझ ८.९ शोध सुहावह २०३.५ सुख आपनार सोटा १५१.६ एक छोड सुंआलिम-आगलुं ६५.८ सुंवाळपमा आगळ - सोपाधिक १८३.२७ चडियातुं सोलसमउ २००.२० सोळमो (सं. षोडशम) सुंडिदंड ७३.२० सूंढ (सं. शुंड+दंड) सोलही ७३.१४ सुंडी २२२.२४ सोवन ३६.१० सुवर्ण सुंधो ९१.२४ एक सुगंधी पदार्थ सोवन ६४.१३ सोना- (सं. सौवर्ण) सूकड ६७.१७ सुखड सोवनगिर ६५.२ मेरु पर्वत सूथिंला ११०.१८ वस्त्रविशेष सोस ७.२९ अफसोस, खेद सूधा ११.३० शुद्ध सोह ३.२८ शोभा सूभाल ४६.२० सारी संभाळ सोहग ७२.२८ सौभाग्य सूर २७८.२५ जलदी ? सोहग्ग १६८.२० सौभाग्य सूर १६३.१ सूर्य (सं.) सोहण १२७.११ स्वप्न सूरति २१४.२३ रूप (अ. सूरत) सोहली २५५.८ सरळताभरी, सहेली (सं. सुख सूरंद १९१.२८ सूरीन्द्र, सूरिवर, आचार्यवर परथी) सूरी ६९८ शूरी, जोरावर सोहार १५८.८ शोभाकर ? सूल १३३.१९ चटका ? सोहिलो ९१.३ सोह्यलो, सहेलो (सं. सुख परथी) सूसमकाल ३०.२८ जेमां सुख वधारे एवो सोहंकर ३८.२७ शोभा करनार काळविभाग सोहाव-३८.८ शोभावq सेचन १८६.७ सिंचन, छंटकाव (सं.) सौदामिनी ११६.९ वीजळी (सं.) सेजवाल २६०.४ परदावाळी पालखी स्नात्र २२५.१३ सेजाहरो २६१.१६ स्नात्रवेदी २०६.२५ सेण १४४.२१ सजन (सं. स्वजन) स्मर ८७.१३ कामदेव (सं.) सेणां २७.१५ स्वामि १६३.३ कार्तिकय सेन १६५.२० सैन्य स्युं ४.२८ प्रत्ये, उपर सेलु १०९.९ एक वृक्ष (सं. शैलु) स्युं ७७.१५ प्रत्ये ७९.१२ साथे सेल्लक ११०.१६ वाद्यविशेष स्युं ८.६ शुं सेव २८.२० सेवा हइंवर १६४.१६ उत्तम घोडा (सं. हयवर) सेवंत्री ४.९ ए नामनु फूलझाड, सेवंती, सफेद | हकमत २६०.१४ हिकमत, युक्ति Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ हकार - १११.१४ बोलावयुं निमंत्रधुं (सं./दे. हक्कार) हठी २७५.१० हत्थालंबण २६४.११ हाथने टेको देनार (सं. हस्तालंबन) हत्थिणाउर १६७.२७ हस्तिनापुर हय ३.१३ घोडा (सं.) हरगिरि ६७.१३ कैलास पर्वत (सं.) हरस २०३.१५ हर्ष हराई ५०.२५ हारवं ते, पराजय हरान २७२.२६ आश्चर्यचकित (अ. हैरान) हरि ११.८ सिंह (सं.) हरि १५१.१५ लीलुं (सं. हरित्) हरि ३४.३० वासुदेव, अर्धचक्रवर्ती हरिप्रिया १६०.१० लक्ष्मी (सं.) हरिलंकी १६०.१० सिंहना जेवी (पातळी) कमरवाळी हरिवंत १३२.१९ हरिस २१२.११ हर्ष हरी ८३.१७ लीलाछम (सं. हरित) हलफल- १४८.१३ उत्सुक थयुं, उतावळा थवुं हल्लकार - २०.१४ हंकारयुं धपाववं हवंति ६९.१७ होय छे, छे हसिमसि १११.२४ जुस्सो, जोश हस्तमुख २२५.७ हसता प्रसन्न मुखमुद्रावालुं हस्तिका ११०.१३ वाद्यविशेष हस्तिखंधा २०८.१७ हंसवडि ११०.२० हंसनी छूटी भातवाळु वस्त्र (सं. हंसपटी) हाजित २७०.१८ हाजत, जरूरियात हाटक १८५.१६ सोनुं (सं.) हाथीमल्ल २६.५ हालकल्लोल २१.१० हालकल्लोल ३६.२१ हालकडोलक हांसरू ६५.५ हांसला १६४.१६ घोडानी एक जात हिइस - १८९.२७, हर्ष पामवो हित ८८.१९ हेत, प्रेम हिरो १५९.१७ हैयुं (हि.) हिव ९.९ हवे हिवि १०.१ हवे हिंगुल ७६.२४ हिंगळो हिंताल १३१.१६ एक वृक्ष, जंगली खजूरनी एक जात (सं.) हिंस - ८१.२९ हर्ष पामवो ही ५.७ हैयामां हीय ९०.७ हैयुं (सं. हृदय) हीयउ ४.६ हृदय, हैयुं ७४५ हीयडउ ७.१८ हैडुं, हैयुं (सं. हृदय परथी ) हीराउली ७३.१३ रानी श्रेणी (सं. हीरक + आवली) हीरागल ७२.२० रेशमी वस्त्र हीरालग ७२.२० हीराजडित आभूषण हीराली ७२.४ हीरायुक्त - ३.१३ (घोडा) हणहणवं डोलाट ६४.४ हिंडोळो हुंडावसर्पिणी ३५.२ वर्तमान हीन समय हुंती ८८. १३- मांथी हुंसि २३८.१६ होंश, उमेद (अ. हवस) हूकमी १९५ अव २६०.२८ हेज २२.६ हेत हेड १७९.१६ पगनी बेडी हेति २७६.२३ हेतुथी, माटे मात २०.७ हिंमत हेर कहीणा २४५.२ हेल २३७.२ लइ ४ . २ हेलामां, क्षणवारमा, सहजमां लां ५०.२७ रमतमात्रमां, सहेलाईथी हेलि २०२.१२ Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४६ प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह हेलि ३.१३ गम्मतमां, सहजपणे हेव २१३.२० हवे हेव १०.७ हवे होडि १२२.३० होड, स्पर्धा होदा २६.६ अंबाडी (सं. हवदज) होरी १४०.१३ होळी, वसंतनो उत्सव हूई ४७.१३ -ने (कर्मविभक्ति) Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Our latest Publications (2000-2001) Tattvartha Sutra - (Translated into English by Dr. K. K. Dixit) (2000) Kavyanusasanam (With Critical Introduction & Guj. Translation) Ed. Dr. T. S. Nandi (2000) Tarka-Tarangini - Ed. Dr. Vasant G. Parikh (2001). Madhu-vidya - Collected papers of Prof. Madukar Anant Mehendale (2001) Dravyalankar with Auto Commentary - Ed. Muni Shri Jambuvijayaji (2001) Temple of Mahavira : Osiaji - Monograph by R. J. Vasavada (2001) Abhidha - Dr. T. S. Nandi (2002) The Temples in Kumbhariya - M. A. Dhaky and U. S. Moorti 300-00 480-00 270-00 560-00 290-00 360-00 60-00 1200-00 SAMBODHI The Journal of the L. D. Institute of Indology: (Back Vol. 1-21) Per Vol. Current Vol. 22 (1999), Vol. 23 (2000), Vol. 24 (2001) per vol. 100-00 150-00 Our Forthcoming Publications Sastravarta Samuccaya with Hindi Translation, Notes & Introduction - Dr. K. K. Dixit Sivaditya's Saptapadarthi - with a commentary by Jinavardhana - Ed. Dr. J. S. Jetly ORDE & Fare wwwjanaryong