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मानविजयगणिकृत सात नयनो रास
५३१ इम संसारी जीव रे प्राणधरण माटि सिद्ध जीव नहीं ए मते ए. १३९ ए महाभाष्ये भाख रे ए अनुसारथी कहं श्वेतांबर प्रक्रिया ए. १४० जीव नोजीव अजीव रे, तेहनो अजीव कीधे एम आकारणे ए. १४१ जीव प्रत्ये पण भाव रे ग्राही नैगम पमुह जीव पण गति वंछे ए. १४२ नोजीव इति आहवाने रे, अजीव के जीवना देशप्रदेश प्रत्ये वदे ए. १४३ आकारित अजीवें पुदगल द्रव्यादी तेहनो अजीव आकारितें ए. १४४ जीवद्रव्य पतीजे रे केतो अजीवना देशप्रदेश हवे ए नयो ए. १४५ जीव प्रति ऊदयिक भाव ग्राहक एह जीव वदें संसारीने ए. १४६ नोजीव इति अजीव रे के सिद्धह प्रतंई अजीव इति आकारितें ए. १४७ पुद्गलादिके सिद्धे रे नोअजीव इति आकारण कीधे हुँते ए. १४८ ग्रहे संसारी जीव रे देशप्रदेशनी कल्पन तो एहनइ नही ए. १४९ एवंभूताभिप्राये रे, सिद्ध ज जीव छे भाव प्राणने धारवे ए. १५० इति कोइकने मिथ्या रे, जीव प्रते एह तुरिय भावग्राहक कह्यो ए. १५१ आयु कर्मोदयरूप रे, जीवन अर्थनो छे सद्भाव संसारीए ए. १५२ सिद्धनें जीवत्व दाख्यु रे, मलयगिरि मुखे ते तो नैगमादिक मतें ए. १५३ एह नयाभिप्राये रे, पन्नवणादिके जीव न पज्झययुतपणे ए. १५४ जीव अशाश्वतो दाख्यो रे, इम सवि ग्रंथने संमत अर्थ विभावीए ए. १५५ ए नयमतें पणि सिद्ध रे, सत्त्वेने आतम ए व्यपदेश लहे सही ए. १५६ ए नयनइं पणि इष्ट रे भावनिक्षेपक, इति नय सप्तक दाखीया ए. १५७ ईत्येवंभूतनय: सप्तमः.
ढाल १३ : राग मल्हार; वीरमाता प्रीतिकारणी - ए देशी
मूल नय जातिभेदें कह्यां, नैगमादि स्वरूप; सूक्ष्म भेद एहना हुए, प्रत्येके सत्रूप. १५८ श्री जिनवर मत निर्मलुं, जिहां सवि नय भासें. अर्थ नय आदिम चउ यदा, त्रिण्ये शब्द नय एक; मूल नय पंचना पंचसे, आदेशांतरि छेक. १५९ संग्रहनय व्यवहारथी नैगम किहां एक भिन्न; एह कारणि परिभाषिका, सूत्रे सातनी थिन्न. १६० भेद असंख्य पणि संभवे, इति भाष्यमां भाख्यु; ते सवि समुदित जे धरे, तेणे समकित चाख्यु. १६१
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