________________
५३८
प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह निज सहजानंद सुभाव अपनो, थिर सदा चिद-गुण धणा, धरि ध्यान जोया नहि रूप दोया, जांनि हंस विचक्षणा. (४) ९
५. अन्यत्व भावना
दुहा अन्न अन्न सत्ता धरई, अन्न अन्न परदेश, अन्न अन्न थिति मंडिआ, अन्न अन्न परदेश. (५) १०
छंद हंस सयानडा हो, आप्पा अन्न ही जोई, द्रव्य सहावे हो, मिलीउ किसहि न कोई; नवि कोइ मिलिउ किसही, सेती एक क्षेत्र अवगाहिआ, परदेश परचें करे नाही, नियत लक्षण वाहिआ; सोभावि राजित सर्वे भूषित एक समइ अयानडा, को नाहि साहिब उर सेवक, जाने हंस सयानडा. (५) ११
६. अशुचित्व भावना
दुहा
निर्मल गति जिय अप्प, जो हो जानि अयास, आया सब जड जांणी तुं, चेअण अप्प-पयास. (६) १२
छंद हंसा निम्मला हो, जाणि हुं अप्प सरीर, संग न व्यापइं हो, दुख न दारिद्र पीर; प्रीर न व्यापइं दुःख दारिद रोग निकट (न) आवहीं, ग्यान दंसणसें चरितहं शुद्ध अप्पाभावही; मलमूत-धारि अति विधारी, जानि पुग्गल भिंभला, निज देह तेरी सुखह केरी, जानि हंसा निम्मला. (६) १३
७. आस्रव भावना
दुहा आस्रव-बंध अप्पा नही, अप्पा केवलनाण, जो इण भावई अणुसरई, तो निम्मल होय विहांण. १४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org