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अल्लकृत बार भावना
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छंद
मरणां जांणइं आयु कायर सोइ होइं,
मोहइं व्यापइं तास सरण विसोइ जोइ; नवि सरण जोवहिं अप्प सो वहिं सत्य वैन जु भासही, पहिचानि कृतकर्मभेद न्यारो शुद्ध भानु प्रकाशही; जिम धाईं बालक अन्नभेदी बाहरि मारग सम धरई, जीवतव्यता सों देह पोषी मरण सेती को डरई. (२) ४
३. संसारभावना
दुहा संसाररूप कोई वस्तु नाही, ए भेदभाव अग्यान, ज्ञानद्रष्टि धरि देखि जीअरे सबई सिद्ध समान. (३) ५
छंद ए संसारहि भाव परसों कीजईं प्रीति, जिहां सुखदुख मानीआ हो देखी पुग्गलकी रीति; पुद्गलद्रव्यकी रीति देखी, सुखदुखा सब मानीआं, चिहुं गति चउरासी लक्ष योनि, आपनां पद जांनीआं; यह आपनो पद सुद्ध चेतन, मांहि द्रष्टि जुं दीजीयें, अनादि नाटक नटत पुग्गल, तास प्रीत न कीजीयें. (३) ६
४. एकत्वभावना
दुहा एक दशा निज देखिकें अप्पा लेहुं पिछानि, नाना रूप विकल्पना, सो तुं परकी जानि. ७ बोलत डोलत सोवतइं, थिर मौने जागंत, आप-सभावइं एक मुणि, जिति-तिति अनयन भंत. (४) ८
छंद हंस विचक्षणा हो, विचारहुं एक तास, जन्म किणई धर्यो हो, मरणां को नहीं पासि; मरण किस किण जन्म धरिआ, स्वर्ग नरगइं को गयो, अनंत सुख बल वीर्य जाकें, दुःख कहो किण भोगव्यो;
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