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प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह ढाळ ४ : राग सामेरी करीय सयल सिंगार ऊतरी, मंडइ नाटारंभ; भणइ मेनिका इंद्र इंद्राणी, नेहवचन संरंभ. ३९ मुनीसर भलइ भलई भेटिउ आवि; चढिउ रयण करि आवि, रषीसर भलई भलई भेटिउ आवि. आलि करई आलति आवती, जालवती मनभेद; करइ तमासा ल्यइ नीसासा, कूडउ धरती खेद. मुनी. ४० भोग काजि प्रभु योग वहीजइ, कीजई काया-सोष; ते इहलोकई पुण्यप्रभावईं, आवइ तउ कुण दोष. मुनी. ४१ वयणगुणइ करि श्रवण हरइ, तस हृदय विनोदविलासी; हर्यां नयण निज रूप देखाडी. पाडी लीधउ पासि. मनी. ईम भोलव्युं भली परि तापस, पाप-सवारथ मंडी; सील-चिंतामणि नांखी दीधुं, कीधु खंडोखंडि. मुनी. ४३ तिणि अन्यानि अन्याय करीनइ कन्यागरभ विछोडि; दिन पूरे वनि नंखी पहुती, तापस लागी खोडि. मुनी. ४४ गयउ तपोवनि वलि तप तपवा, विश्वामित्र उलंठ; वनि टलवलतुं बालक देखी, भाल करई मुनि कुंठ. मुनी. ४५ दया भणी ऊछेरी तरू परि, दूध दहीं देअंत; सिकुंतला ऋषिनइ अति वाल्ही, इम एहनउ वृत्तंत. मुनी. ४६
ढाळ ५ : रास संभलि सवि संबंध, मित्र पहुतउ नृप पासि; जोवा पूठि सकुंतला ए आवइ ऊल्लासि. दीठउं नरपतिरूप जेम हुओ अनुराग; नयण-वयण-मनशुद्धि प्रीति मिलवा थिउ लाग. ४७ सखीय साखि संखेपि वेगि गंधर्ववीवाहि; परणी कुंअरि सिकुंतला ए भूपति ऊमाहि. विरह न सहणउ सहीय जाइ अभ्यंतर ठामि; सुखविलास विलसइ तिहां ए कदली-आरामि. ४८ तापसनउ भय अणुसरी ए मनि संक्यु राय; निज पुरि जावा उच्छहिउ ए, कहई तरूणि विछाय.
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