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लालविजयकृत
रेटियानी सझाय (आ लालविजय ते शुभविजयना शिष्य थाय. जुओ जैन गूर्जर कविओ, प्रथम भाग, नं.२३०, पृ.४८७.
रतनबाईनी रेंटियानी सझाय प्रसिद्ध थई गई छे तेमां एक रेंटियाथी केटलुं बधुं थई शके छे ते जणाव्युं छे. आ सझाय एक वधारो छे. कर्ता लालविजय एक साधु - मुनि छे अने तेमणे बतावी आप्युं छे के सधवाविधवानो खास तारणहार आ रेटियो छे.)
[काव्यमा गुरुपरंपरा नथी. कविने तपगच्छना शुभविजयना शिष्य मानीए तो एमनी स्तवन-सझायादि प्रकारनी केटलीक कृतिओ मळे छे जे सं.१६६२थी १६७३नां रचनावर्षो धरावे छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ, बीजी आवृत्ति भा.३, पृ.१८-२२ तथा गुजराती साहित्यकोश खं.१ पृ.३८६. आ कृति 'जैन गूर्जर कविओ' मां नोंधायेली नथी. कृतिमां रेंटियाने रतनसीने नामे ओळखावायेल छे अने एथी कृति 'रतनशी सझाय' एवे नामे पण नोंधायेली छे. - संपा.]
प्रथम नमुं मरूदेवी-मल्हार, जे जिन ऊतारि भवपार, कलि-कालि भावो भावना, लाभ घणा होइ तेहना. १ श्रावकनि घरि होई संतान, कइ बेटो कि बेटि जाणि, सरिखि धरम वंश विवाह, करि धरी निज मन उछाह. २ माबापिं वर जोउ भलो, सहू सम, सखि ! परणु नाहलु, जाण्युतुं सुख सरजु हसि, परणि मूउ, पनोतो तसि. ३ जिणि जिमणो दीधो हाथ, तिणि भरतारि मेहल्यु साथ, तव आदर्यो सुगुण रतनसी, तेह-सुं प्रीति ज गाढी वसी. ४ कहीइं ते नवि अलगो रहि, घरनो भार सहू निरवहि, हाथि हाथ न मेलि कदा, नित नाचि, वात करि सदा. ५ रतनसीनो रूडो साथ, घरसूत[स]रूं एहनि हाथि, कहिइं पासु मेहलि नही, कहुं करइ सुकलीणो सही. ६ ए भईआ सम अवर न कोइ, पेटाफटीउं एहथी होई, विधवा सधवा सहू आदरि, कलियुग पेट भराइ करि. ७ पांच सात मलि गाउं गान, रतनसीनि करो कल्याण, कुवचन कलंक तणो भय धरो, तो ए रतनसी आदरो. ८
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