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________________ तपगच्छनी पट्टावली राज्ये सं. १२११मां सूरि स्वर्गे गया. मरू देशमां श्री फलवर्द्धि तीर्थनी उत्पत्ति : नाणावाल गच्छे श्री मानदेवसूरि विहार करता श्री फलवर्द्धिपुरमां चोमासुं रह्या. त्यां [ओ० ] गुरूहड गोत्रना श्रेष्ठ पारस नामे गृहस्थ रहेतो हतो. ते भद्रिक परिणामे निरंतर श्री सूरिने वांदतो. एकदा ते पारस श्रेष्ठ गाम बहार कार्यार्थे जतां बोरडीनी जाल वृक्ष मध्ये कांईक लीला अने कोईक का म्लान फूल पूजित एवो पाषाणनो ढिगल देखी गुरू श्री मानदेवने आवी पूछ्युं के 'आ दृषद् - सदैव पूजित देखूं छं. ते माटे अत्रस्थानके कोईक आश्चर्य वसे छे. ' त्यारे श्री सूरिए पारसने कह्युं, 'आ दृषद् पिहुला करो.' तेथी पारसे गुरूआज्ञाथी ते दृषद जुदा जुदा [वेगला भिन्नभिन्न ] कर्या. तेटलामां श्री पार्श्वबिंब दीठं तेवामां पारसने अधिष्ठायक देवे प्रगट मनुष्यना शब्दे कह्यं, 'प्रासाद करावी पूजा करजे' त्यारे पारसे कह्युं, 'द्रव्य नथी'. अधिष्ठायके कयुं, श्री पारसना मुखाग्रे सुप्रभावे [समु प्रभाति ] सुवर्णना अक्षतनो ढगलो निरंतर व्यय प्रमाणे थशे. ते द्रव्यथी प्रासाद निपजावजे. पण आ वार्ता कोई आगळ न कहेवी . ' ते पारस श्रेष्ठिए अंगिकार करी घेर आवी श्री गुरूने बिंब प्रगट थयानी वात कही त्यारे श्री सूरिए ते अधिष्ठायक देवने आराध्यो. त्यारे ते देवे आवी श्री गुरूने कह्युं, ‘पहेलां आ पुरमां आ ज ठेकाणे संप्रतिनृपकार पार्श्वनाथनो प्रासाद हतो. ते कालानुयोगे जर्जर थये क्षय थयो. ते बिंब आ श्री पासनो प्रगट थयो. श्रेष्ठी पारसने दर्शन दीधो.' बीजे दीने देवकथक प्रमाणे सुवर्ण अक्षतनो ढग थयो ते प्रत्यक्ष साचो देखी श्रेष्ठी पारसे प्रासादनो प्रारंभ कर्यो. मूलमंडप, रंगमंडप, नृत्यमंडप, सर्व निपजाव्या. द्वार कोट निपजाव्यो. तेवामां एक दिने स्वपुत्रे पूछ्युं, 'आ द्रव्य तमे क्यांथी लावो छो?” आम वारंवार पूछतां पारस श्रेष्टी स्वपुत्रने भद्रकपणे यथास्थित कह्युं त्यारे अधिष्ठाय द्रव्यन वार्ता प्रगट करी जाणी सुवर्ण अक्षत द्रव्य आपवुं बंध करी दीधुं त्यारे प्रासाद एटलो ज रह्यो. आथी श्री मानदेवसूरिए श्रेष्ठी पारसना आग्रहथी सं. १११८मां श्री फलवर्द्धि नगरे महामहोत्सवथी श्री पार्श्वबिंब स्थाप्युं. उक्तम् श्रीमत्पाजनाधीशं फलवर्द्धिपुरस्थितं, प्रणम्य परया भक्त्या सर्वाभीष्टार्थसाधकं. ३८९ ४०. श्री मुनिचंद्रसूरि : श्री सूरिना उपदेशना वि. सं. १११५मां श्री दधिपद्रे वायट - ज्ञातीय दो. अंबराजे श्री शांतिनाथनुं बिंब स्थाप्युं पुनः श्री सूरिना उपदेशथी श्री श्री नगरे वि.सं.१११७ वर्षमां विज्जापानस गोत्री चहुआण श्री सहस्समल्ले अमारि प्रवर्तावी. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002640
Book TitlePrachin Madhyakalin Sahitya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayant Kothari
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages762
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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