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________________ ५११ ज्ञानमेरुकृत कुगुरुछत्रीशी चोपाई [खरतरगच्छना महिमसुंदरशि. ज्ञानमेरुनी कथात्मक कृतिओ सं.१६६५थी १६७६नां रचनावर्षो बतावे छे. जुओ जैन गूर्जर कविओ, भा.३, पृ.९४-९६ तथा गुजराती साहित्यकोश, खं.१ पृ.१४५. आ कृतिमां गुरुपरंपरा नथी तेमज ज्ञानमेरुने 'गणि' कहेवामां आव्या छे, अन्यत्र 'मुनि' छे तेथी आ कृतिना कर्ता ए ज्ञानमेरुने ज गणक विशे संशय रहे छे. - संपा.] प्रणमुं जिनवर गुरूना पाय, प्रणमुं जे सूधा गुरूराय; भविक सदा इम विचारसी, किम तरसी गुरू किम तारसी ? १ पृथिवी पाणी अग्नि ने वाय, वनस्पती छठी त्रसकाय; त्रिविधि जीव जे संहारसी. किम० २ साधु थइने बोले कूड, तिणि वांद्यां जाए द्रह बुड; प्रपंच करी बोले पारसी. किम. ३ अणदीधे लीधे ईक तणे, जिनवर चोर सरीखो गणे; भजे सदा गत सोनार सी. किम. ४ न रहे साधु जिहां हुवे नारि, जागे नारी देखि विकारई, करे स्त्रीसंग चारित छारसी. किम. ५ सचित अचित परिग्रह दोइ भेद, साध न राखे दू वेद; परिग्रह राखे करम भारिसी. किम०६ दोषण राती भोजन जिके, केवलनाणी जाणे तिके; ____दोष लगावे जिह्वा-रसी. किम. ७ क्रोध करीने बोले गाल, देवानुप्रिय वचन रसाल; वाणी अति बोले खार सी. किम. ८ करत रहे आठे अभिमान, भण्यो गुण्यो तेहनो अप्रमाण; गादह जिम नितु हूंकारसी. किम. ९ कूड कपट बोले अणगार, साधु तणो साचो विवहार; मनि धारे जे मंजार सी. किम. १० जैन परवनो जे उपवास. करतो वीस करे वेखास; करे सोम आदित ईग्यारसी. किम० ११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002640
Book TitlePrachin Madhyakalin Sahitya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayant Kothari
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages762
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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