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________________ २७६ इतनी बीनती चितमां राखईं श्रीकक दवे Jain Education International प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह धरीनई, जव चालई नाचली, कही प्रतिष्ठा गुरूराज, काज. बलि० ८९ ढाल : राग सामेरी मनमोहन हीरजीउ ए, जेणि मोह्यो अकबर पाहि रे, तुं तउ सुविहित-साधू - सिरोमणि रे, तुझ दरिसन मोहनगार रे, हीरजी जेह निरखिं, जगत्रपति हरखिउ ए. जगत्र० ९० किद्ध, For Private & Personal Use Only हीर तईं वैशाख सुदिमां, वली प्रतिष्ठा उंना नयर मंडाण मोटा, हवा जगत्र प्रसिद्ध, चैत्र सुदि आठमि थकी, तुझ हवी चलन- असक्ति, तउहि पणि तुझ तीर्थयात्रा, विमलगिरि वरिं भक्ति. सुं० जग० ९१ संघ वीनती करदं प्रभु, किम आवस्यईं इम खंध, पालखी पावन करो, पावन करउ अह्म खंध, सुगुरू पभणई पूर्व मुनिइ, म न कीधउं माहंति, तउ ए परंपरा किम कीजई, नवी रीति न भंति. सुं० ९२ चउमासि वली उनई रह्या, बाधा तणई ज विशेषि, लाहुर भणी माणस चलाव्या देई निजकर - लेख, आव तुमि दृष्ट कागल पूछी अकबरसाह, श्री विजयसेन सूरिंद तुझे मिलवा अतिहि उच्छाह. सुं० ९३ लेख देखत हीरजीना, विजयसेन सूरिंद, साहि अकब्बरकुं कहईं अह्मे देउं बिदा नरिंद, हीरविजय सूरिंदकुं कबहु हई दरद टुक गूढ, सुणि शाहि हइ क्या खुदा कहईं, भए अति दिगमूढ. सुं० ९४ शाहि - जंपईं सुगुरूकुं, सुख हेति घु खइराति, इक मासकी अमारि फुनि, फरमाउं सकल बिभाति, तुम भी बिदाकी सूखडी, चाहु सु देउं समाधि, सुगुरू जंपईं साहि बगसउं, जमई आधोआधि. सुं० ९५ दाण सबही छ्युडाइ प्रमुख, करी जगत्र आशान, खट विगईं अभीग्रह ग्रही, आवईं छईं हीरपटभासन, श्री हीरविजयसूरींद-चरणे, आव्या तेहवा लेख, संतोष पाम्या, जगगुरू सविशेष. सुं० ९६ www.jainelibrary.org
SR No.002640
Book TitlePrachin Madhyakalin Sahitya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayant Kothari
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages762
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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